9 होरेस का काव्य-चिन्तन
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- आर्स पोएतिका
- काव्य-चिन्तन
- मूल्यांकन
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप–
- होरेस का संक्षिप्त परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
- होरेस की प्रसिद्ध रचना आर्स पोएतिका के प्रमुख बिन्दुओं से परचित हो सकेंगे।
- होरेस और प्लेटो-अरस्तू के चिन्तन का मूल भेद समझ सकेंगे।
- होरेस के काव्य-सिद्धान्त के प्रमुख बिन्दुओं को जान सकेंगे।
- परवर्ती कवि और आलोचकों पर होरेस का प्रभाव जान सकेंगे।
- प्रस्तावना
होरेस (ई.पू.65-ई.पू.08) रोम के प्रसिद्ध कवि और आलोचक थे। वे रोम के सम्राट औगस्तस (Augustus) के समसामयिक थे। उनका जन्म अपूलिया के वेनूसिया नामक स्थान में हुआ था। उन्होंने पहले रोम और बाद में एथेन्स में भी शिक्षा प्राप्त की। बाद में वे रोम आ गए। जीवन के अन्तिम समय तक वे रोम में ही रहे।
अरस्तू के निधन के बाद दो सौ वर्षों में एथेन्स का बौद्धिक-सांस्कृतिक उत्कर्ष प्रायः समाप्त हो चुका था। एथेन्स का गौरव सिकन्दर की वजह से मिस्र को मिल चुका था। पहली शताब्दी ईसा पूर्व में औगस्तस के नेतृत्व में रोमी साम्राज्य के उदय के साथ सिकन्दरिया का उत्कर्ष भी क्षीण पड़ गया और रोम यूरोपीय सभ्यता, संस्कृति, ज्ञान, कला आदि का केन्द्र बन गया। औगस्तस ने एक ऐसे साम्राज्य का निर्माण किया जिसका प्रभाव मध्य-युग (12वीं-13वीं शताब्दी तक) तक सारे यूरोप पर छाया रहा। शायद रोम के इसी प्रभाव और वैभव को लेकर उक्ति चल पड़ी कि ‘सारे मार्ग रोम को जाते हैं।’ फलस्वरूप शताब्दियों तक यूरोप के ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति, धर्म-राजनीति की भाषा लैटिन बनी रही। स्वभावतः होरेस रोमी गौरव के द्रष्टा ही नहीं, भोक्ता भी थे।
सम्राट औगस्तस काव्य और कला के संरक्षक तथा प्रेरक थे। वे राष्ट्र गुणगान से परिपूर्ण साहित्य चाहते थे, जिससे सम्राट के कार्यकलाप का प्रशस्ति-विस्तार हो। ऐसे सीमित लक्ष्य का साहित्य कदापि महान नहीं हो सकता। रोमी लेखक यूनानी लेखकों द्वारा प्रस्तुत काव्य-विधाओं में ही थोड़ा-बहुत परिवर्तन करने में सफल हो सके। उन्होंने व्यंग्य, पत्र, शोकगीत, ग्वालगीत, सूक्ति जैसी कुछ विधाएँ विकसित अवश्य कीं, पर उनमें साहित्य को महिमा प्रदान करनेवाली वह असाधारणता न आ सकी। नाटकों की स्थिति भी बहुत कुछ वही रही। होरेस ऐसे ही देश-काल में सामने आए।
होरेस अपने समकालीन कवियों, समीक्षकों, विशेष रूप से सिसरो तथा क्विण्टेलियन से काफी आगे थे। इसका एक कारण सिसरो, क्विण्टेलियन द्वारा भाषणकला को अधिक महत्त्व दिया जाना था, जबकि होरेस ने साहित्य को अधिक महत्त्व दिया।
होरेस को सम्राट की निकटता प्राप्त थी। कहा जाता है कि होरेस रोम के कवियों में सर्वश्रेष्ठ आलोचक और आलोचकों में सर्वश्रेष्ठ कवि थे। एक ही साथ एक बड़ा कवि और समर्थ आलोचक होने के कारण उन्हें काफी लोकप्रियता मिली। होरेस की रचनात्मक दृष्टि में राजनीति, प्रेम, दर्शन, नैतिकता और नागरिक की सामाजिक भूमिका भी शामिल थी। उनका मानना था कि इन सारी बातों का उल्लेख एक अच्छी कविता में ही हो सकता है।
अरस्तू के बाद लगभग दो सदी तक साहित्य-सिद्धान्तों की चर्चा से रिक्त समय के बाद रोमन कवि होरेस (ई.पू.65-08) की आर्स पोएतिका नाम की प्रसिद्ध रचना का उल्लेख मिलता है।
- आर्स पोएतिका
आर्स पोएतिका के रचनाकार होरेस प्रतिभाशाली होते हुए भी अपने समय की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकें। उनकी दो व्यंग्य-परक रचनाएँ, चार सम्बोध-गीतियाँ (odes) और दो पत्रात्मक पुस्तकें उपलब्ध हैं। आर्स पोएतिका इन्हीं पत्रात्मक पुस्तकों में से एक है। यह ‘पिसो’ नामक एक युवक के नाम पद्य में लिखित पत्र है। इसमें कुल 476 पंक्तियाँ हैं। पिसो के बारे में ठीक-ठीक पता नहीं चलता। विद्वानों का अनुमान है कि वह लेखक बनना चाहता था। इसलिए उसने अपने समय के सबसे बड़े रचनाकार का मार्गदर्शन चाहा। उसकी उसी चाह का परिणाम यह पत्र है।
पत्रात्मक होने के कारण इस पुस्तक की कई सीमाएँ हैं। काव्यशास्त्र के कई महत्त्वपूर्ण सवालों का इसमें कोई जिक्र नहीं है। यह पुस्तक पूरी तरह व्यवस्थित नहीं है। इसमें गम्भीर विवेचना का भी अभाव है। इसके बावजूद आर्स पोएतिका यूरोप के नवशास्त्रवादी युग (16-18वीं शताब्दी) में लेखकों का कण्ठहार रहा और उसे वही मान्यता प्राप्त हुई जो अरस्तू के काव्यशास्त्र को; बल्कि संक्षिप्त और चुटिली उक्तियों के कारण अधिकतर आर्स पोएतिका के उद्धरण ही लोकप्रिय थे (पाश्चात्य काव्यशास्त्र : देवेन्द्रनाथ शर्मा, पृ. 70)।
आर्स पोएतिका में काव्यशास्त्र से जुड़े मुख्यतः तीन विषयों– कविता की विषयवस्तु, कविता का रूप और कवि– पर चर्चा की गई है। कहा जाए कि काव्य, काव्यशैली और कवि– ये ही तीन विषय हैं जिन पर आर्स पोएतिका में चर्चा की गई है।
आर्स पोएतिका में होरेस ने कवियों को कुछ सुझाव दिए हैं–
- कवि में ऐसी क्षमता होनी चाहिए कि प्रकाश से धुआँ उत्पन्न करने के बदले धुएँ से प्रकाश उत्पन्न कर दे। सरल और सामंजस्यपूर्ण विषय रचना की पहली अपेक्षा है। लेखक का यह नजरिया कि वह जो कुछ लिख रहा है, ठीक नहीं है। संक्षेपण के प्रयास में अक्सर कविता में अस्पष्टता आ जाती है। मधुरता के आग्रह में कविता का ओज एवं स्फूर्ति खत्म हो जाती है। भव्यता की आकांक्षा के कारण कविता शब्दाडम्बर में बदल जाती है। इसलिए कवि को ऐसा ही विषय चुनना चाहिए जो उनकी क्षमता के अनुरूप हो।
- लेखक को काव्यगत दोषों के परस्पर संयोजन में सुरुचि और सावधानी से काम लेना चाहिए।
- नए शब्दों के प्रयोग में यूनानी स्रोत का भी सहारा लिया जा सकता है।
- भाषा का नियामक, शासक और मानक भाषा-प्रयोग होता है। अतः कवि को सदा प्रयोग करते समय सावधान रहने चाहिए।
- शोक, आनन्द और शौर्य की अभिव्यक्ति के लिए उन्हीं के अनुसार छन्द का प्रयोग करना चाहिए। यानी कवि को विषय और छन्द के तालमेल का ध्यान रखना चाहिए।
- कथानक के लिए या तो परम्परा का इस्तेमाल हो या फिर जो कथा गढ़ी जाए उसमें संगति हो।
- यदि कथानक के लिए नया पात्र चुनना पड़े, तो उनकी चारित्रिक विशेषताओं का शुरू से अन्त तक पालन हो।
- नाटक में कुछ घटनाओं का प्रदर्शन होता है, और कुछ का वर्णन। जो घटनाएँ प्रदर्शन योग्य न हों, उनका वर्णन ही उचित है।
- नाटक की भाषा न एकदम गँवई हो और न ही एकदम अभिजात्य। नाटक दोनों श्रेणी के दर्शकों से सम्बन्धित होता है। इसलिए भाषा का रूप भी वैसा ही होना चाहिए।
- धन-लिप्सा से रचित कविता कभी स्थायीत्व प्राप्त नहीं करती।
- रचना में आया नैतिक सूत्र संक्षिप्त होना चाहिए, ताकि ऐसा होने पर ही भावक उसे सहजता से ग्रहण कर सके। बुजुर्ग नागरिकों को शिक्षाहीन नाटक पसन्द नहीं, गर्म-मिजाज सामन्तों को शिथिल और नीरस कविता पसन्द नहीं। रचना करते समय इन बातों का ध्यान रखना चाहिए।
- कल्पित कथानक सत्य के निकट होना चाहिए।
जार्ज सेण्ट्सबरी ने आर्स पोएतिका में रोमी युग के साहित्य की आलोचनात्मक धारणा की स्पष्ट झाँकी को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना (पाश्चात्य काव्यशास्त्र : देवेन्द्रनाथ शर्मा, पृ. 77)।
- काव्य-चिन्तन
होरेस ने काव्य का वर्गीकरण करते हुए व्यंग्य और प्रहसन में भेद किया। उनके विचार में व्यंग्य-काव्य का प्रयोजन व्यक्ति अथवा समाज के दोषों का निराकरण करना है। उनका मानना था कि व्यंग्य का प्रभाव तुरन्त होता है। जो काम तर्क से नहीं हो सकता, वह व्यंग्य से आसानी से हो जाता है। इसलिए उसका महत्त्व भी ज्यादा होना चाहिए। उनका निर्देश था कि व्यंग्य में तीव्रता नहीं होनी चाहिए। तीव्रता से कटुता की भावना उपजती है।
उन्होंने कहा कि व्यंग्य-काव्य के पात्रों का हास्य सन्तुलित और विवेकपूर्ण होता है। प्रहसन के पात्रों में इनका अभाव होता है। व्यंग्य-काव्य हमेशा सोद्देश्य होता है, जबकि प्रहसन बिना किसी उद्देश्य के भी लिखा जा सकता है।
आर्स पोएतिका के काव्य चिन्तन के निम्नलिखित बिन्दु हैं–
- काव्य का विषय सरल, सामंजस्यपूर्ण और कवि-शक्ति के अनुरूप होना चाहिए। यहाँ सरल का अर्थ कवि का जाना-पहचाना विषय है।
- शब्द-संयोजन में सुरुचि और सावधानी से काम लेना चाहिए, ताकि पुराने शब्द भी नयी भंगिमा के साथ प्रस्तुत हों। इसके साथ ही अगर वर्तमान शब्दों से काम न चल रहा हो, तो नए शब्दों का निर्माण भी किया जाना चाहिए। भाषा की अर्थवत्ता और शक्तिमत्ता का सबसे बड़ा आधार प्रयोग है।
- छन्द और विषय का घनिष्ठ सम्बन्ध है। हर छन्द से हर भाव अभिव्यक्त नहीं होता। किस भाव के लिए कौन-सा छन्द उपयुक्त होगा, इसके लिए प्राचीन कवियों को प्रमाण मानना चाहिए।
- काव्य में केवल सौन्दर्य की सत्ता ही काफी नहीं है; उसमें श्रोता को भाव-मग्न करने की क्षमता भी होनी चाहिए। यह तभी सम्भव होगा जब कवि ने उस भाव को स्वयं महसूस किया हो।
- नाटक का कथानक, प्रसिद्ध या कल्पित, जो भी हो उसमें आरम्भ से अन्त तक सामंजस्य होना चाहिए। यही बात नाटक के पात्रों पर भी लागू होती है।
- नाटक में कुछ घटनाएँ दृश्य होती हैं और कुछ सूच्य। अरुचिकर, उत्तेजक घटनाएँ सूच्य रूप में ही प्रस्तुत की जानी चाहिए।
- नाटक की भाषा सर्वजन-सुलभ होनी चाहिए।
- रचना का बार-बार संशोधन और परिमार्जन होना चाहिए।
- उत्तम काव्य की निष्पत्ति के लिए प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों ही अनिवार्य हैं। अभ्यास का महत्त्व सर्वाधिक है।
- काव्य का उद्देश्य न तो कोरा उपदेश है, न ही केवल आनन्द। दोनों में सामंजस्य आवश्यक है।
- सर्वथा निर्दोष काव्य विरल ही होता है। अतः कुछेक दोष के कारण ही कोई काव्य हेय नहीं हो जाता।
- काव्य हमेशा उत्तम ही होना चाहिए। मध्यम काव्य नाम की कोई चीज नहीं होती। काव्य या तो उत्तम होगा या अधम।
- जब तक रचना की अन्त:प्रेरणा न हो, रचना नहीं करनी चाहिए।
- रचना के प्रकाशन में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। जल्दबाजी में प्रकाशित रचना के कारण बहुधा यश की जगह अपयश ही मिलता है।
- रचना पर आलोचक की राय लेनी चाहिए। यदि आलोचक दोष बताएँ तो उसका निवारण करने की कोशिश करनी चाहिए।
- मूल्यांकन
होरेस के समय में रोम के कवियों की विचित्र स्थिति थी। यूनान पर रोम के आधिपत्य के बावजूद यूनान रोम की तुलना में साहित्य और कला चिन्तन में काफी आगे था। गुणवत्ता की दृष्टि से यूनानी साहित्य इतना उत्कृष्ट था कि उसे छोड़ना कठिन था, और राष्ट्रीय चेतना का गौरव-बोध इतना दुर्दम था कि अपनी भाषा की उपेक्षा अप्रीतिकर थी (पाश्चात्य काव्यशास्त्र – देवेन्द्रनाथ शर्मा, पृ. 71)। फलस्वरूप दोनों में सामंजस्य बनाने की कोशिश की गई। रोम के साहित्यकारों ने अपनी कविता के लिए आदर्श का ढाँचा यूनान का अपनाया, पर भाषा उनकी अपनी रही। यह लैटिन भाषा थी। इस बात को होरेस भी खूब अच्छी तरह समझ रहे थे। शायद इसीलिए उन्होंने कहा था विजेता रोम को पराजित यूनान ने पराजित कर दिया (पाश्चात्य काव्यशास्त्र – देवेन्द्रनाथ शर्मा, पृ. 71)।
सारत: होरेस का भाषा-सम्बन्धी सिद्धान्त काव्यालोचन के क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। वे विषय के अनुसार अनुदात्त तथा उदात्त भाषा के प्रयोग के हिमायती थे। आवश्यकतानुसार पुरानी शब्दावली के नए सन्दर्भों में इस्तेमाल को भी प्रोत्साहित करते थे।
प्लेटो ने काव्य की सार्थकता नैतिक-शैक्षिक मूल्यों में मानी। अरस्तू ने काव्य में आनन्द का महत्त्व प्रतिपादित किया। होरेस ने दोनों के बीच का रास्ता निकाला। उन्होंने कहा कि शिक्षा और आनन्द दोनों ही काव्य के प्रयोजन होने चाहिए।
कहीं भी अरस्तू का नाम न लेने के बावजूद होरेस उनसे प्रभावित नजर आते हैं। अरस्तू और होरेस के चिन्तन में कई अन्तर भी हैं। अरस्तू की आलोचना विश्लेषणात्मक है। होरेस अपनी आलोचना में कवियों को निर्देश देते नजर आते हैं। अरस्तू आलोचक की दृष्टि से काव्य पर विचार करते हैं। होरेस रचनाकार की दृष्टि से काव्य पर विचार करते हैं। अरस्तू ने कुछ सिद्धान्त गढ़े। उन सिद्धान्तों का आज भी इस्तेमाल होता है। होरेस की आलोचना में पद्धति जैसी कोई चीज नहीं है।
अनुकरण शब्द का इस्तेमाल होरेस ने अरस्तू से भिन्न अर्थ में अपनी आलोचना में किया है। होरेस के अनुसार अनुकरण का अर्थ है प्राचीन कवियों के आदर्शों और मान्यताओं का अनुकरण। होरेस के अनुसार प्राचीन कवियों का अनुकरण ही वास्तविक अनुकरण है। कहा जा सकता है कि दर्शन के झमेले में पड़े बगैर होरेस ने अनुकरण का सीधा, सरल अर्थ ग्रहण किया।
होरेस के अनुसार काव्य-रचना का प्रधान गुण औचित्य है। विषय, भाव, भाषा, छन्द… सब जगह वे औचित्य पर ही जोर देते हुए देखे जा सकते हैं। औचित्य एक प्रकार से शास्त्रवाद का अभिन्न सहचर है। कालान्तर में उसी से रूढ़ियों का जन्म होता है। नाटक का आकार मर्यादित होना चाहिए, यह ठीक है, क्योंकि अतिविस्तार से वह ऊब पैदा करेगा। दूसरी तरफ अतिसंक्षेप से उसका प्रभाव कम होगा। जब होरेस यह कहते हैं कि नाटक में अंक पाँच ही हों, न अधिक, न कम, तो यह रूढ़ि हो गई। प्रेक्षकों का ध्यान बँट न जाए, इसके लिए मंच पर तीन ही पात्रों का होना संगत है, मगर चार पात्र कभी हों ही नहीं, यह रूढ़ि है। आवश्यकता पड़ने पर तीन से अधिक पात्रों के भी मंच पर आने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए। इसलिए औचित्य, रूढ़ि में परिणत न हो जाए, इसका ध्यान रखना चाहिए। होरेस का औचित्य बहुधा रूढ़ि में परिणत हो गया है।
होरेस ने काव्यालोचन की स्वायत्तता कायम कर सबसे महत्त्वपूर्ण काम किया, शुद्ध आलोचना का एक रूप पेश किया। काव्यालोचन को किसी दूसरे अनुशासन के भरोसे नहीं छोड़ा।
होरेस पर आरोप लगाते हुए सेण्ट्सबरी ने कहा कि कुछ सन्दर्भों को छोड़कर उनके यहाँ न तो सप्राणता है, न उमंग, न भाव। दूसरी तरफ आर्स पोएतिका पर टिप्पणी करते हुए देवेन्द्रनाथ शर्मा ने कहा कि होरेस पर गम्भीरता, मौलिकता और विवेचकता की कमी का आरोप सही हो सकता है, किन्तु उनमें न तो उमंग या भाव की कमी है, न सप्राणता ही की।… उमंग या भाव के अतिरेक के कारण ही उनमें गम्भीरता नहीं आ पाई। उमंग, भाव-प्रवणता या जिन्दादिली में होरेस की समता करनेवाले आलोचक कम ही मिलेंगे (पाश्चात्य काव्यशास्त्र : देवेन्द्रनाथ शर्मा, पृ. 78)।
- निष्कर्ष
होरेस का स्वभाव विनोदी और व्यंग्यप्रिय था। वे अपनी विद्वता का आतंक जमाना नहीं चाहते थे। मूलतः वे एक कवि थे। कविता करने के क्रम में उनके सामने जो चुनौतियाँ आईं, अपनी आलोचना में उन्होंने उन्हीं का समाधान पेश करने की कोशिश की। आर्स पोएतिका में उन्होंने अपने विचारों को बहुत ही स्पषटता से रखने की कोशिश की। दर्शन के चक्कर में पड़ कर बड़ी-बड़ी बाते करने से वे बचते रहे। इतना ही उन्होंने न तो एकदम आदर्शवाद का रास्ता चुना, न ही प्रतिक्रियावाद का। अपनी समझ के अनुसार उन्होंने बीच का एक रास्ता निकालने की कोशिश की।
होरेस ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ आर्स पोएतिका में काव्य के औचित्य पर सर्वाधिक जोर दिया। उनका मानना था कि कवि को अपनी व्यवहारिक समझ से काम लेना चाहिए। अलंकार, छन्द, भाषा आदि का रचना में मर्यादित प्रयोग होना चाहिए। इस दृष्टि से होरेस एक परम्परावादी आलोचक ठहराए जाएँगे, पर तथ्य है कि उन्होंने नवीनता और मैलिकता पर काफी बल दिया।
होरेस का मानना था कि काव्य को नीरस नहीं होना चाहिए। होरेस के अनुसार काव्य में आनन्द और शिक्षा दोनों का योग आवश्यक है। अपनी कविता में होरेस सशक्त अभिव्यक्ति के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अपने समकालीन समीक्षकों का विरोध किया। उन्हें कट्टरता पसन्द नहीं थी, इसलिए असहमति के बावजूद उन्होंने यूनानी काव्यादर्शों को ही आधार मानने का आग्रह किया, सुझाव दिया।
वैचारिक कट्टरता का विरोध करते हुए उन्होंने पाठक की सम्मति पर विचार किया और दूसरे कवियों को भी ऐसा करने की सलाह दी। दूसरी तरफ उन्होंने श्रोता-वर्ग के सुझाव मानने से मना कर दिया।
होरेस के समय में साहित्य जगत में एक प्रकार की स्थिरता आ गई थी। उन्होंने अनुभव किया कि उनका समकालीन चिन्तन न तो यूनानी अनुकरण पर विकसित हो रहा है, न ही स्वतन्त्र रूप से विकसित हो रहा है। काफी चिन्तन-मनन के बाद उन्होंने यूनानी विचारधारा को ही काव्य के लिए हितकर समझा। उनका मानना था कि युगीन साहित्य के रूपों में बनावटीपन और दुरूहता की बहुलता होती जा रही है। शायद इसीलिए उन्होंने यूनानी काव्यादर्शों को ग्रहण करने का सुझाव दिया। वातावरण की अनुकूलता के कारण उन्हें अपने इस मकसद में सफलता भी मिली।
नए रचनाकारों के लिए होरेस के सिद्धान्त बड़े उपयोगी हैं। उन सिद्धान्तों का पालन करते हुए कई रचनात्मक कमियों से सहज ही बचा जा सकता है। मानना चाहिए कि होरेस के काव्य-सिद्धान्तों की प्रासंगिकता बनी हुई है। होरेस की लोकप्रियता भी शायद इसीलिए बनी हुई है।
रोमन साहित्य-चिन्तन के विकास युग में होरेस को पर्याप्त मान्यता मिली। आगे चलकर पोप, बोयले और जॉनसन जैसे विशिष्ट यूरोपीय समीक्षक भी उनसे प्रेरित हुए, उनका प्रभाव स्वीकार किया। निस्सन्देह रोमन आलोचकों में होरेस का स्थान सबसे ऊपर है। शास्त्रवादी आलोचकों में भी अरस्तू के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता है। शायद इसीलिए इंग्लैण्ड के बेन जॉनसन और फ्रांस के बोइलो जैसे उत्कृष्ट आलोचकों पर होरेस का प्रभाव देखा जा सकता है।
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- पाश्चात्य साहित्य–चिन्तन : निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
- अरस्तू का काव्यशास्त्र : डॉ नगेन्द्र, हिन्दी अनुवाद परिषद, दिल्ली।
- साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
- यूनानी और रोमी काव्यशास्त्र, कृष्णदत्त पालीवाल, सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली
- पाश्चात्य काव्यशास्त्र,देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
- पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा,डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
- पाश्चात्य काव्यशास्त्र : देवेन्द्रनाथ शर्मा, मयूर पेपरवैक्स, दिल्ली, संस्करण : 2006.
- अरस्तू का काव्यशास्त्र : डॉ नगेन्द्र, हिन्दी अनुवाद परिषद, दिल्ली, संस्करण : 1974
- Mimesis in contemporary theory : an interdisciplinary approach, edited by Ronald Bogue, J. Benjamin Publication, Philadelphia.
- Fantasy and mimesis : response to reality in western literature, Kathryn Hume, Methuen, New York.
- Mimesis, Matthew Potolsky, Routledge, London, New York.
- Anti-mimesis : from Plato to Hitchcock, Tom Cohen, Cambridge University Press, Cambridge.
वेब लिंक्स
- https://en.wikipedia.org/wiki/Horace
- https://www.poets.org/poetsorg/poet/horace
- http://www.britannica.com/biography/Horace-Roman-poet
- https://www.youtube.com/user/HoraceMannSchool