25 सार्त्र का साहित्य चिन्तन

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. आर्स पोएतिका
  4. काव्य-चिन्‍तन
  5. मूल्यांकन
  6. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • सार्त्र की दार्शनिक दृष्टि की जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • सार्त्र की साहित्य की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • सार्त्र की प्रतिबद्धता की धारणा और साहित्य का उद्देश्य समझ पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

ज्याँ पाल सार्त्र (सन् 1905-1980) बीसवीं सदी के प्रभावशाली चिन्तक थे। अस्तित्ववादी दार्शनिक होने के साथ-साथ वे एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे। बीसवीं सदी के फ्रेंच दर्शन और अस्तित्ववाद  को उन्होने नई ऊँचाई दी। उन्होंने साहित्य-सिद्धान्त के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप किया। उनकी साहित्य दृष्टि ने कई लेखकों और आलोचकों को प्रभावित किया। प्रस्तुत पाठ साहित्य और कला की आलोचना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले वाले मानवीय स्वतन्त्रता के प्रबल पक्षधर सार्त्र की साहित्य दृष्टि के अध्ययन के निमित्त है।

 

इस पाठ का उद्देश्य सार्त्र की साहित्य दृष्टि की विशेषताओं की, उनकी प्रमुख शिक्षाओं की, जानकारी हासिल करना है। आलोचना के क्षेत्र में उनकी साहित्य दृष्टि का क्या असर रहा और आने वाले समय की आलोचना को इस दृष्टि ने कैसे प्रभावित किया, यह भी हम जानेंगे।

  1. लिखने का अर्थ

सार्त्र मूलतः अस्तित्ववादी दार्शनिक थे। उन्होंने अपने दार्शनिक चिन्तन के भीतर ही साहित्य के स्वरूप और उद्देश्य पर प्रकाश डाला। सार्त्र  ने अपने चिन्तन में ‘स्वतन्त्रता’ और ‘सार्थकता’ के प्रश्‍न पर बल दिया है। वे कहते हैं कि परमात्मा ने इस सृष्टि का निर्माण किया या नहीं किया, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है। यदि किया भी है, तो भी निर्माण करके उसने  सृष्टि को छोड़ दिया है। इस सृष्टि को मनुष्य अपनी सक्रिया से अर्थ प्रदान करता है। उसमे अपने अस्तित्व की सार्थकता सिद्ध करता है। वह अपने सभी कर्मों से ऐसा करता है। साहित्य भी इसी तरह का मानवीय कर्म है।

 

सार्त्र के अनुसार किसी रचना का अर्थ पूर्व निर्धारित नहीं होता। उसका अर्थ तब खुलता है, जब पाठक उसे पढ़ता है। इसलिए कोई भी रचना पाठक सापेक्ष होती है। लेखक जब लिखता है, तब वह पढ़ने के लिए लिखता है। वह चाहता है कि कोई उसे पढ़े। जब कोई उसे पढ़ लेता है तब रचना पूर्ण होती है। पाठ का सर्जन लेखक करता है। सही है, परन्तु वह पाठ तब बनता है, जब उसे कोई पाठक पढ़ता है, अन्यथा वे आड़ी-तिरछी रेखाएँ होती हैं। लेखक स्वतन्त्रता के लिए लिखता है। पाठक अपनी स्वतन्त्रता से उसे अर्थ प्रदान करता है। सार्त्र के अनुसार लेखक स्वतन्त्र होता है, तो पाठक भी स्वतन्त्र होता है। वह अपने ढ़ंग से पाठ का नया अर्थ करता है। इसलिए एक ही पाठ के परस्पर विरोधी अर्थ मिलते हैं।

 

सार्त्र ने सन् 1947 में व्हाट इज़ लिटरेचर ( साहित्य क्या है ) नामक निबन्‍ध लिखा जो ले तेम्प मॉदेर्ने  नामक फ्रेंच पत्र में कुछ खण्डों में प्रकाशित हुआ। इस निबन्ध में सार्त्र ने अपने दौर के कई साहित्यालोचकों से असहमत होते हुए ‘प्रतिबद्ध साहित्य’ की अवधारणा को प्रस्तावित किया। यहाँ सार्त्र ने तीन प्रश्‍नों का उत्तर देंने की कोशिश की है – पहला, लेखन क्या है?, दूसरा, लेखन किसलिए?, और तीसरा, लेखन किसके लिए?

 

पहला प्रश्‍न जो सार्त्र पूछते हैं, वह है – लेखन क्या है? इसका उत्तर देते हुए सार्त्र लेखन की प्रक्रिया के स्वरूप और स्वभाव की जाँच-परख करते हैं। सबसे पहले सार्त्र इसकी व्याख्या करते हैं कि लिखना चित्र बनाने और संगीत रचने से बिल्कुल भिन्‍न प्रक्रिया है। चित्रकार और संगीतकार दर्शकों के लिए रचते समय ‘जो है’ को ही प्रस्तुत कर पाते हैं और दर्शक उसमें वही ग्रहण करने को स्वतन्त्र होते हैं, जो वे चाहते हैं। जबकि लेखक के पास अपने पाठकों को देने के लिए एक अर्थ होता है, वह अर्थ सम्प्रेषित करता है।

 

साहित्य और अन्य कलारूपों के मध्य साफ और सुस्पष्ट अन्तर स्थापित करने के बाद सार्त्र साहित्य के क्षेत्र के अन्दरूनी भेदों पर ध्यान केन्द्रित करते हैं और साहित्य की विविध विधाओं, जैसे गद्य और पद्य, के मध्य अन्तर की व्याख्या करते हैं। सार्त्र के विचारों में गद्य और पद्य के बीच का भेद अत्यन्त  महत्त्वपूर्ण है। इस भेद को यों समझा जा सकता है कि गद्य शब्दों का ‘प्रयोग’ करता है, जबकि कविता शब्दों को ‘प्रस्तुत’ करती है। अर्थात कवि के लिए शब्दों का सामग्री के रूप में वही महत्त्व है जो चित्रकार के लिए रंगों का और संगीतकार के लिए स्वरों का है। गद्य-लेखक के लिए शब्द केवल सामग्री नहीं होते, बल्कि ऐसी सामग्री होते हैं जो पहले से ही एक खास तरह से विन्यस्त होती है। गद्य लेखक को एक कुशल वक्ता की तरह समझना चाहिये। कुशल वक्ता का बोलना एक निष्क्रिय कर्म नहीं है। बोलना एक सकर्मक क्रिया है। वास्तव में बोलते समय हम तथ्यों को अनावृत कर रहे होते हैं, और इसी क्रम में उन्हें बदल भी रहे होते हैं। इस तरह एक अर्थ की सृष्टि होती है।

 

सार्त्र के अनुसार लिखने का मतलब है दुनिया को उसके यथार्थ रंग में उन नियमों के साथ अभिव्यक्त करना जिनके द्वारा वह संचालित होती है और जिनके तहत प्रत्येक व्यक्ति इस दुनिया में रहते हुए अपने कर्मों के प्रति उत्तरदायी होता है। लेखन की परिभाषा को उसकी विस्तृत ‘अन्तर्वस्तु’ में प्रस्तुत करने के बाद सार्त्र उसके ‘रूप’ की समस्या पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं। सार्त्र इस पर ज़ोर देते हैं कि लेखन की शैली उसके ‘सारतत्व’ को निखारने में योग तो देती है, मगर उसे कभी निर्णायक रूप से पूर्वनिर्धारित नहीं करती। लेखक परिस्थिति और विषय-वस्तु के आग्रहों द्वारा ऐसे प्रभावित होता है कि अभिव्यक्ति के नये साधनों, नयी तक़नीकों और नयी भाषा की खोज करना उसके लिए अनिवार्य हो जाता है और वह इससे बच नहीं पाता। यहाँ सार्त्र स्पष्ट करते हैं कि कोई चित्रकार या संगीतकार अपनी रचना के साथ उस तरह आबद्ध नहीं हो सकता जिस तरह कि एक लेखक। लेखक अपनी रचना से बँधने को बाध्य होता है। कोई लेखक तभी लिखता है, जब वह लिखना चाहता है। इस तरह वह अपनी रचना को चुनता है। यह उसकी स्वतन्त्रता है। लिखने का अर्थ होता है स्वतन्त्रता का वरण करना।

  1. लेखन किसलिए

सार्त्र के अनुसार साहित्य सम्प्रेषण का माध्यम है। सार्त्र लिखते हैं कि कलात्मक सृष्टि की प्रेरणा के लिए यह अनुभूति आवश्यक होती है कि हमारा अस्तित्व इस दुनिया के लिए आवश्यक है। मनुष्य जब यथार्थ को संकल्पित करता है तो उन सम्बन्धों को उद्घाटित करता है जो उसकी अनुपस्थिति में असम्भव होते हैं। अर्थात् मनुष्य की चेतना यथार्थ को संकल्पित करते समय उसे केवल प्रतिबिम्बित नहीं करती, बल्कि प्रकाशित करती है। लेकिन ऐसा करते हुए मनुष्य इस बात के प्रति पूर्णतया सचेत होता है कि उसके होने से इस यथार्थ पर कोई प्रभाव नही पड़ता। अर्थात मनुष्य यथार्थ को केवल संकल्पित करता है, उस कलात्मक प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन पाता जो रचना की सृष्टि करती है। सार्त्र का कहना है कि मनुष्य स्रष्टा हो सकता है, लेकिन तभी जब वह यथार्थ को उद्घाटित करने की वृत्ति से छुटकारा पाये। इस स्थिति में यथार्थ की जो छवि उसकी चेतना में उत्पादित होगी, वह आश्‍वस्त करेगी कि उसका (उस छवि का) स्रष्टा वह स्वयं है, और उसकी यह सृष्टि आत्मनिष्ठ और व्यक्तिपरक है। अपनी इस सृष्टि या रचना को तब वह किसी बाहरी दृष्टिकोण से देख पाने में असमर्थ होगा और आत्मपरक दृष्टि से ही उसे बूझ पायेगा। यानी अब लेखक अपने अस्तित्व को अपनी रचना के सन्दर्भ में अनिवार्य और आवश्यक पायेगा। यहाँ लेखक स्रष्टा है, उद्घाटनकर्ता नहीं। मनुष्य एक ही समय में स्रष्टा और उद्घाटनकर्ता दोनों नहीं हो सकता। जब वह उद्घाटनकर्ता था तो दुनिया उसकी पकड़ में थी। जब वह चाहता था तभी आँखें बन्द  करता था, जिससे दुनिया ओझल हो जाती थी। अर्थात दुनिया को देखना या न देखना उसकी इच्छा पर निर्भर करता था। मगर एक स्रष्टा के रूप में उसके द्वारा रची गयी दुनिया उसके हाथों से लगातार फिसलती जाती है। जिसे लेखक ने रचा है उसे वह अन्तिम रूप में उद्घाटित नहीं कर पाता। क्योंकि रचना में सम्भावना के कई स्तर होते है। अत: स्रष्टा के रूप में लेखक अपनी सृष्टि का अन्तिम रूप से निश्‍च‍ित उद्घाटन नहीं कर पाता।

 

रचना को पूर्णतः उद्घाटित करने का काम पाठक करता है। सृष्टि के सन्दर्भ में स्रष्टा तो अनिवार्य बन जाता है, लेकिन स्रष्टा की रचना-प्रक्रिया के सन्दर्भ में सृष्टि अनिवार्य नहीं होती, वह लगातार उससे दूर होती रहती है। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। एक नवोदित चित्रकार अपने अध्यापक से पूछता है – ‘मैं अपनी रचना को पूर्ण कब मानूँ?’ अध्यापक जवाब देता है – “जब तुम अपनी रचना को देखते हुए आश्चर्य से भर उठो और स्वयं से कहो कि यह ‘मैं’ ही हूँ जिसने इसे रचने का अद्भुत काम किया है!’ ज़ाहिर है, एक कलाकार ऐसा कभी नहीं कह पायेगा क्योंकि किसी रेखा को, किसी रंग की गहराई को या किसी शब्द को संशोधित करने की सम्भावना रचना में लगातार बनी रहती है। रचना कभी भी अपने को रचयिता पर आरोपित नहीं करती। भले ही वह अन्य लोगों को पूर्ण प्रतीत हो, रची गयी वस्तु हमेशा स्थगन की अवस्था में रहती है।

 

सृष्टि (रचना) और दृष्टि (उद्घाटन) का द्वन्द्व लेखन की कला में सबसे अधिक व्यक्त होता है। लेखन को दृष्टिमान होने के लिए एक ऐसी सघन और ठोस क्रिया आवश्यक होती है, जिसे ‘पढ़ना’ कहते हैं। लिखे गये का अस्तित्व तभी तक है, जब तक वह पढ़ा जा रहा है। पढ़ना खत्म, तो लिखा गया भी खत्म, पढ़ा गया अधूरा, तो लिखा गया भी अधूरा। अगर पढ़ा नहीं जाय, तो शब्द कागज़ पर काला धब्बा मात्र है। इस तरह लिखने की क्रिया और पढ़ने की क्रिया एक दूसरे से सम्बद्ध और एक दूसरे की पूरक हैं। ये दोनों क्रियाएँ अपने निष्पादन के लिए भिन्‍न अभिकर्ताओं (एजेण्ट) – लेखक और पाठक – की माँग करती हैं। लिखने की क्रिया में निहित सृष्टि और दृष्टि के द्वन्द्व का समाहार पढ़ने की क्रिया में होता है। सार्त्र का कहना है कि लेखक और पाठक का संयुक्त प्रयास ही उस मूर्त और काल्पनिक वस्तु को दृश्यमान करती है जो अन्यथा मानसिक कलाप बनकर रह जाती। अत: ऐसी कोई कला नहीं है, जो दूसरों के द्वारा और दूसरों के लिए न हो। लेखक अपने लिए नहीं लिख सकता, वह हमेशा दूसरों के लिए लिखता है।

 

पढ़ने की क्रिया में वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठता दोनों का महत्त्व होता है। वस्तुनिष्ठता एक संरचनात्मक ढाँचा है जो पाठक पर अपने को आरोपित करता है। आत्मनिष्ठता इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि वह न केवल वस्तुनिष्ठता के उद्घाटन के लिए, बल्कि उसके अस्तित्व की आश्‍वस्ति के लिए भी आवश्यक है। सार्त्र यह भी कहते हैं कि कोई साहित्यिक कृति भाषा में नहीं, बल्कि भाषा के ज़रिये सम्प्रेषित होती है। इसीलिए पढ़े जाने पर ही कोई साहित्यिक कृति सम्पूर्ण, प्रकट और सही अर्थों में रचना के रूप में स्थापित हो सकती है।

 

एक दूसरे से अन्त:सम्बन्धित और एक दूसरे के पूरक लिखने और पढ़ने के कर्म के अर्थ और सारतत्व की व्याख्या करने के बाद सार्त्र लेखक और पाठक के बीच स्थापित होने वाले विशिष्ट रिश्ते पर अपनी बात रखते हैं। अपने कर्म को सम्पूर्ण   करने के लिए लेखक को पाठक की ज़रूरत होती है। वास्तव में, सार्त्र के अनुसार प्रत्येक साहित्यिक कृति पाठक की स्वतन्त्रता की माँग करती है जिससे कि पाठक एक रचना या सृष्टि के रूप में उसे स्थापित करने में अपना योगदान दे सके। अत: पाठकों के बिना साहित्य की सृष्टि नहीं हो सकती। यहाँ गौर करने लायक बात यह है कि जब सार्त्र रचना के सन्दर्भ में पाठक की स्वतन्त्रता पर ज़ोर देने लगते हैं तो उनकी अस्तित्ववादी चिन्तन दृष्टि प्रभावी हो उठती है। सार्त्र यह भी स्पष्ट करते हैं कि लेखक और पाठक के बीच एक दूसरे की स्वतन्त्रता को स्वीकार करने का अव्यक्त समझौता होता है। अत: पाठक यह पहले से मानकर चलता है कि लेखक ने अपने लेखन में स्वतन्त्रता की गरिमा को पहचानते हुए एक महत्तर आयाम दिया है अन्यथा उसका लेखन नीरस और जड़ होता। इसी के समानान्तर लेखक भी पाठक की स्वतन्त्रता को स्वीकार करता है क्योंकि वह उसकी कृति के सम्पूर्ण होने की मूलभूत शर्त होती है। इसीलिए पढ़ने की क्रिया उदारता के व्यवहार का उदाहरण बन जाता है। पाठक के सहयोग द्वारा लेखक अपनी सृष्टि को पुन: प्राप्‍त करता है, इस तरह कि ‘उसका स्रोत मानवीय स्वातन्त्र्य में मिलने लगता है।’ साहित्य लेखक और पाठक दोनों को आबद्ध ( इंगेज ) करता है। सार्त्र यथार्थवाद की आलोचना करते हैं। उनका मानना है कि यथार्थवाद सिर्फ ‘देखने’ का चिन्तन है, कर्म नहीं। जो कर्म नहीं है, वह आबद्ध (इंगेज्ड) नहीं है।

 

यह स्थापित करने के बाद कि लेखन की रचनात्मकता का स्रोत मानवीय स्वातन्‍त्र्य में ही निहित है, सार्त्र कहते हैं कि स्वतन्त्र मनुष्यों को सम्बोधित करने वाला स्वतन्त्र  मनुष्य ही लेखक हो सकता है और विषय के रूप में वह एक ही चीज़ चुनता है – ‘स्वतन्त्रता’। यहीं इस प्रश्‍न का भी उत्तर मिलता है – लेखन किसलिए? सार्त्र के अनुसार लेखन गहन और असंदिग्ध रूप में मानवीय स्वतन्त्रता से जुड़ा हुआ है। मानव स्वातन्‍त्र्य के प्रति कटिबद्धता के चलते लेखक लोकतन्त्र और राजनीति के क्षेत्र में आता है। लेखन स्वतन्त्रता-प्राप्ति का उद्यम है। अत: लेखन ‘स्वतन्त्रता के लिए’ है।

  1. लेखन किसके लिए

इस प्रश्‍न का उत्तर सार्त्र ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देते हैं। लेखक सभी मनुष्यों के लिए लिखना चाहता है, जो उसके लिए उपलब्ध पाठक होते हैं। लेखक की महत्वाकांक्षा होती है कि वह ऐतिहासिकता के समकालीन क्षण का अतिक्रमण करके अमर हो जाये। लेकिन सार्त्र स्पष्ट कहते हैं कि लेखक अपने समकालीन साथी लेखकों और समान संस्कृति को साझा करने वाले सहोदर सदस्यों से संवाद करता है। लेखक का अपने समकालीनों के साथ जो संवाद होता है, वह कई अर्थों में विशिष्ट होता है। यह संवाद इतिहास के क्षण का हिस्सा होता है और इसी क्षण पर अंकित होता है। अत: लेखक को अपने समाज से जुड़ना होता है। लेखक होने का अर्थ ही है कि समाज से जुड़ाव का चयन करना और एक बार लेखक जब यह चुनाव करता है तो उसकी राह आसान नहीं होती। समाज से जुड़ते ही समाज का दबाव उस पर पड़ने लगता है। परन्‍तु लेखक के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण होती है उसकी स्वतन्त्रता। अत: यहाँ लेखक और जनसाधारण के बीच के सम्बन्ध का प्रश्‍न महत्त्वपूर्ण हो उठता है।

 

इस प्रश्‍न की व्याख्या करने के लिए सार्त्र एफ्रो-अमेरिकी लेखक रिचर्ड राईट का हवाला देते हैं। एक लेखक के रूप में रिचर्ड राईट सताये गये अश्‍वेत लोगों के अधिकारों की रक्षा करना चाहते थे। इस सन्दर्भ में सार्त्र दो बातों पर ज़ोर देते हैं। पहली यह कि एक तरफ राईट नीग्रो (अश्‍वेत) को सम्बोधित कर रहे होते हैं, तो दूसरी तरफ उनका यह सम्बोधन सभी मनुष्यों के लिए होता है। दूसरी बात यह कि जिस जनता से लेखक मुखातिब है, वह पूरी तरह विभाजित है। राईट के सन्दर्भ में एक तरफ नीग्रो हैं तो दूसरी तरफ श्‍वेत। राईट जो कुछ भी लिखते हैं उसका दोहरा अर्थ होता है –  अश्‍वेतों के लिए अलग और श्‍वेत जनता के लिए अलग। इस उदाहरण द्वारा सार्त्र स्पष्ट करते हैं कि लेखक के सामने दो प्रकार की जनता होती है – प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील। सार्त्र के अनुसार प्रतिक्रियावादी ‘यथार्थ जनता’ होती है और प्रगतिशील जनता ‘आभासी जनता’ होती है। सार्त्र मध्ययुग से लेकर बीसवीं शताब्दी तक ‘यथार्थ’ और ‘आभासी’ जनता के सम्बन्धों का ऐतिहासिक अध्ययन करते हैं। इसके बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वर्तमान में साहित्य अजनबीपन के कठिन दौर से गुज़र रहा है और वह साध्य के बजाए साधन या उपकरण मात्र बन कर रह गया है।

 

सार्त्र लेखक की वर्तमान परिस्थिति को तीन बिन्दुओं द्वारा समेटते हैं। पहला – आज लेखक व्यवस्थित रचना के बजाए अव्यवस्था को पसन्द करता है, अत: वह गद्य के बजाए कविता को अधिक महत्त्व देता है। दूसरा कि वह साहित्य को जीवन की अभिव्यक्ति के अन्य नमूनों की तरह अभिव्यक्ति का एक नमूना मात्र मानता है, अत: वह साहित्य के लिए अपने जीवन का बलिदान नहीं कर सकता। तीसरा कि आज लेखक नैतिक चेतना के संकट से गुज़र रहा है क्योंकि अब वह अपनी भूमिका को परिभाषित कर पाने में असमर्थ है। अत: सार्त्र लेखक के लिए प्रस्तावित करते हैं कि वह ऐसे सक्रिय हो कि उसका अस्तित्व बचा रहे और समाज एवं उसके सम्बन्धों के मध्य सन्तुलन की अवस्था पनप सके। यह सन्तुलन लेखक प्रगतिशील राजनीति से जुड़कर ही प्राप्‍त कर सकता है। अन्त में सार्त्र उस आदर्श सामाजिक व्यवस्था की कल्पना करते हैं, जहाँ ‘आभासी जनता’, ‘यथार्थ जनता’ के साथ सघन संवाद में रत होती है। सार्त्र ज़ोर देकर कहते हैं कि साहित्य में सम्पूर्ण मानवीय दशा का चित्रण होना चाहिये और उसे मानवशास्‍त्रीय भी होना चाहिये।

 

इस तरह हम देखते हैं कि सार्त्र की नज़रों में साहित्य, लेखक और समाज के बीच पनपने वाले संवेदनशील सम्बन्धों का उत्पाद है। अत: सार्त्र ने ‘कला कला के लिए’ की अवधारणा का पुरज़ोर विरोध किया है। उनकी साहित्यदृष्टि रूपवाद का भी विरोध करती है। सार्त्र ने गद्य को पद्य से अधिक महत्त्व दिया है।

  1. निष्कर्ष  

सार्त्र मानते हैं कि लेखन में ‘शब्द’ क्रियाशील होते हैं। वे कर्म की प्रेरणा देते हैं। जब आप बोलते हो, तो कुछ परिवर्तन करना चाहते हो। जो है, उससे अलग और उससे बेहतर हो। यह कामना लेखक के भीतर रहती है। अतः लिखने का अर्थ है स्वतन्त्रता का वरण। यह स्वतन्त्रता सिर्फ अपने लिए नहीं है। लेखक सबके लिए स्वतन्त्रता चाहता है। इस तरह वह स्वतन्त्रता के लिए प्रतिबद्ध हो जाता है। सार्त्र यहाँ यह भी स्थापित करते हैं कि कोई भी लेखक मानवीय स्वतन्त्रता के विरुद्ध नहीं लिख सकता। वह अपने आपको अत्याचारियों की जमात में शामिल नहीं करना चाहता। इसलिए सार्त्र कविता के स्थान पर गद्य का समर्थन करते हैं। लेखक ‘एक स्वतन्त्र मनुष्य है जो एक स्वतन्त्र मनुष्य’ को सम्बोधित करता है। यह सिर्फ स्वतन्त्र समाज में ही सम्भव हो पाता है। इसलिए सार्त्र के अनुसार जनतान्त्रिक व्यवस्था में ही स्वतन्त्र समाज सम्भव है। सार्त्र निग्री रचनाकारों की तारीफ करते हैं जो अपने वर्ग के हित में, दूसरे वर्ग से घृणा अभिव्यक्त करता है। उनके अनुसार मेरी स्वतन्त्रता दूसरे लोगों की स्वतन्त्रता से जुड़ी हुई है।

 

सार्त्र के अनुसार स्वतन्त्रता के साथ जिम्मेदारी भी आती है। लेखक पाठक से अपील करता है, परन्तु उसकी अपील पूरी हो जाये, यह आवश्यक नहीं है। यह अपील ही रचना का अर्थ होती है। अर्थ पाठक में परिवर्तन की उम्मीद जगाता है। इसके दो परिणाम हो सकते हैं, पाठ को पढ़ने के बाद (1) या तो पाठक अपने व्यवहार को बदलने के लिए तैयार हो जाता है, (2) या वह पूरी जिम्मेदारी लेकर, जो वह कर रहा है, उसे करते रहने का संकल्प लेता है। इसलिए वह लेखन को प्रतिबद्ध लेखन की श्रेणी में रखता है।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. नई कविता और अस्तित्ववाद, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
  2. अस्तित्वाद और साहित्य, डॉ. श्यामसुन्दर मिश्र, पंचशील प्रकाशन, जयपुर।
  3. अस्तित्वाद : किर्कगार्द से कामू तक, योगेन्द्र शाही, ग्रन्थलोक, दिल्ली।
  4. आधुनिक परिवेश और अस्तित्ववाद, शिवप्रसाद सिंह, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली।
  5. अस्तित्ववाद से गाँधीवाद तक, मस्तराम कपूर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  6. अस्तित्ववाद और मानववाद, ज्यां पॉल सार्त्र, (अनुवाद : जे. पारीख), प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली।
  7. अस्तित्ववाद : पक्ष और विपक्ष, रूबिचेक पाल, (अनुवाद : प्रभाकर माचवे), मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल।
  8. Existentialism: An Introduction, Kevin Aho, Polity Press, Cambridge.

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