13 शास्‍त्रवाद, नव्यशास्‍त्रवाद और स्वच्छन्दतावाद

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. शास्‍त्रवाद और  नव्यशास्‍त्रवाद
  4. स्वच्छन्दतावाद की प्रमुख प्रेरक शक्तियाँ
  5. प्रमुख विशेषताएँ
  6. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • शास्‍त्रवाद और नवशास्‍त्रवाद की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
  • शास्‍त्रवाद और नवशास्‍त्रवाद के मध्य के अन्तर को जान पाएँगे।
  • स्वच्छन्दतावाद की प्रमुख प्रेरक शक्तियों को देख पाएँगे।
  • स्वच्छन्दतावाद की प्रमुख विशेषताओं की जानकारी प्राप्‍त करेंगे।
  1. प्रस्तावना

पुनर्जागरण युग के बाद स्वच्छन्दतावादी युग अंग्रेजी कविता का सबसे समृद्ध युग था। हिन्दी में भी छायावाद को भक्तिकाल के बाद हिन्दी कविता का सबसे समृद्ध युग माना जाता है। अंग्रेजी  में स्वच्छन्दतावाद के पहले शास्‍त्रवाद का वर्चस्व था। ड्राइडन (सन् 1634-1700) को आधुनिक अंग्रेजी आलोचना का जनक माना जाता है। उन्होंने आलोचना में ऐतिहासिक आयाम का संयोग कर शास्‍त्रीय प्रतिमानों में दरार डालने की कोशिश की थी। लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि वे शास्‍त्रीय प्रतिमानों का खुलकर विरोध न कर सके। उन्होंने शास्‍त्र का आधार रखते हुए नवीनता का उन्मेष किया। वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज जैसे स्वच्छन्दतावादी आलोचकों ने क्लासिकी (यूनानी-रोमी) आलोचना-प्रतिमानों का खुलकर विरोध किया। उनकी एकान्त उपेक्षा कर दी। उन्होंने नई रचनाशीलता के सन्दर्भ में नवीन आलोचना-प्रतिमानों का विकास किया। इस प्रकार स्वच्छन्दतावादी आलोचकों के प्रयास से रचना और आलोचना के बीच चला आ रहा विच्छेद बहुत-कुछ दूर हुआ।

 

पूरे यूरोप में लम्बे समय तक पढ़ने-लिखने की भाषा लैटिन रही। रोमी या लातीनी साहित्य काफी हद तक यूनानी साहित्य से प्रभावित था। आरम्भिक यूरोपीय साहित्य यूनानी-रोमी साहित्य-रूढि़यों से जकड़ा हुआ दिखाई देता है। पुनर्जागरण काल में यह प्रभाव इटली के माध्यम से आया था। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में इस प्रभाव का स्रोत फ्रांस बन गया। फ्रांसीसी साहित्य के प्रभाव से इंग्लैण्ड की साहित्यिक रचनाएँ यूनानी-रोमी, विशेष रूप से रोमी, काव्य-रूढ़ियों से जकड़ी जाने लगीं। अठाहरवीं सदी में यह प्रभाव अधिक मुखर है। इसीलिए इंग्लैण्ड में अठारहवीं सदी को ‘नव्यशास्‍त्रवाद’ की संज्ञा दी जाती है। फिर तो क्या पदावली, क्या वस्तु-वर्णन, क्या छन्दों की व्यवस्था, क्या काव्य अथवा नाट्य रचना, सभी में प्राचीन रूढि़यों को अपनाया जाने लगा– कभी तो लगभग ज्यों-का-त्यों (जैसे फ्रांस में), कभी थोड़ा-बहुत परिवर्तित रूप में (जैसे इंग्लैण्ड में)। कालान्तर में अंग्रेजी कविता प्राचीन (यूनानी-रोमी) काव्य-रूढि़यों से इतनी आच्छन्‍न हो गई कि देश की ‘परम्परागत भावधारा’ से कट-सी गई। जनता के बीच इन कवियों की कोई आवाज नहीं है।

 

यों तो अठारहवीं सदी में ही कुछ कवि ऐसे भी हुए, जिन्होंने स्वच्छन्दपद्धति पर कविताएँ रचीं। बर्न्सऔर ब्लेक, कूपर और बाउल्स ऐसे ही कवि थे। उन्होंने ऐसी कविताएँ रचीं जो साधारण जनता की स्वच्छन्दभावधारा के मेल में थीं। उनमें जनता की नाद-रुचि के अनुरूप छन्दोंके नए-नए प्रयोग किए गए थे।पर ऐसी कविताएँ परिमाण में काफी कम थीं। अठारहवीं शताब्दी का अन्तहोते-न-होते पुरानी (नव्यशास्‍त्रवादी) काव्याभिरुचि का स्थान एक नई (स्वच्छन्दतावादी) काव्याभिरुचि ने ले लिया। वर्ड्सवर्थ  और कॉलरिज इस नवीन आन्दोलन– स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन– के सूत्रधार के रूप में सामने आए।

  1. शास्‍त्रवाद और नव्यशास्‍त्रवाद

‘नव्यशास्‍त्रवाद’ शब्द का सम्बन्ध भी शास्‍त्रवाद से ही है। शास्‍त्रवाद और नव्यशास्‍त्रवाद को क्रमशः आभिजात्यवाद और नवआभिजात्यवाद भी कहते हैं। यहाँ यह पूछा जा सकता है कि आभिजात्यवाद से क्या आशय है और आभिजात्यवाद तथा स्वच्छन्दतावाद में क्या अन्तर है।

 

अंग्रेजी  में ‘शास्‍त्रवाद’ या ‘आभिजात्यवाद’ शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता है। यूरोप में तीन ऐसे युग हुए हैं, जिनका उल्लेख आभिजात्यवादी युग के रूप में किया जाता है। सबसे पहले तो यूनान में पेरिक्लेस का युग है। साहित्य में इसका प्रतिनिधित्व इस्काइलस और सॉफोक्लेस करते हैं। इसके प्रमुख सिद्धान्तकार हैं अरस्तू। दूसरे, सिसरो और वर्जिल के युग का उल्लेख आभिजात्यवादी युग के रूप में किया जाता है। यह रोमी साहित्य का आभिजात्यवादी युग है। इसके प्रमुख सिद्धान्तकार हैं होरेस। मूल आभिजात्यवादी युग ये दोनों ही हैं। तीसरे, फ्रांस में सेण्ट लुई (सत्रहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध) और इंग्लैण्ड में अठारहवीं सदी के साहित्य को आभिजात्यवाद से सम्बद्ध माना गया है। फ्रांस में इसका साहित्यिक प्रतिनिधित्व कार्नेई और रासीन करते हैं और इंग्लैण्ड में पोप, एडीसन तथा डॉ. जॉनसन जैसे लेखक। इस दौर में फ्रांस और इंग्लैण्ड में यह प्रतिपादित किया गया कि साहित्य और कला के क्षेत्र में जो भी ऊँचाइयाँ हासिल की जा सकती थीं, वे प्राचीन यूनान और रोम में हासिल कर ली गई थीं। अब हमारे सामने साहित्यिक विकास का एकमात्र रास्ता यही है कि हम यूनानी-रोमी काव्य-प्रतिमानों का अनुकरण करें। दूसरे शब्दों में अरस्तू और होरेस द्वारा प्रतिपादित शास्‍त्रीय नियमों का अनुकरण। इस प्रकार ‘क्लासिक’ (आभिजात्यवादी) शब्द श्रेष्ठता का प्रतिमान बन गया। इसीलिए इस दौरान (अर्थात् 17वीं सदी के उत्तरार्ध में फ्रांस में और अठाहरवीं वीं सदी के दौरान इंग्लैण्ड  में) यूनानी-रोमी काव्य-प्रतिमानों का बड़े आग्रह के साथ अनुकरण किया गया। ये प्रतिमान या नियम अरस्तू कृत काव्यशास्‍त्र (पोइटिक्स) और होरेस कृत काव्य कला (आर्स पोइटिका) में संगृहीत हैं। चूँकि इस युग में आभिजात्यवादी– अरस्तू-होरेस द्वारा प्रतिपादित शास्‍त्रीय नियमों का नए सिरे से अनुकरण किया गया, अतः इसे नव्यशास्‍त्रवाद या नवआभिजात्यवाद की संज्ञा दी गई।

 

यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि फ्रांस और इंग्लैण्ड के नव्यशास्‍त्रवाद में, मुख्य रूप से, रोमी आभिजात्यवाद का अनुकरण किया गया था, यूनानी आभिजात्यवाद का उतना नहीं। यूनानी संस्कृति दरबारी संस्कृति नहीं थी। इसीलिए उसमें एक खास तरह की भव्यता और कल्पनाशीलता है। इसके विपरीत, रोमी संस्कृति सामन्ती संस्कारों में जकड़ी दरबारी संस्कृति थी। साथ ही वह यूनानी संस्कृति के सायास अनुकरण के आधार पर निर्मित हुई थी। उसमें उस साहस और कल्पनाशीलता का अभाव दिखाई देता है, जो यूनानियों की खास विशेषता थी। उसमें रूप या शिल्पगत परिष्कार पर जितना बल है, उतना कल्पनाशीलता पर नहीं। फ्रांस और इंग्लैण्ड  के रचनाकारों ने,मुख्य रूप से, इस रोमी आभिजात्यवाद का अनुकरण किया था, यूनानी आभिजात्यवाद का नहीं। इंग्लैण्ड  में यह प्रायः देखने में आया है कि सृजनात्मक गतिविधियों के महान युगों में उन्होंने यूनानी साहित्य से प्रेरणा ग्रहण की और पतन के युगों में रोमी संस्कृति के प्रति दिलचस्पी दिखाई।

 

नव्यशास्‍त्रवाद साहित्यिक अनुभव की संकीर्णता पर आधारित था। पुनर्जागरणकालीन इटली और सत्रहवीं सदी के फ्रांस में एक-से-एक जड़ अरस्तूवादी हुए थे, जो अरस्तू या होरेस द्वारा प्रतिपादित नाट्य या काव्य-नियमों को अटल मानते थे। होरेस कृत आर्स पोइटिका (काव्य-कला) एक प्रकार से अरस्तू कृत पोइटिक्स (काव्यशास्‍त्र) की टीका ही है। उन्हीं सिद्धान्तों का पुनराख्यान। यही वजह है कि उन्होंने नाट्य अन्वितियों के पालन पर इतना बल दिया। मानव-स्वभाव की विविधता की उपेक्षा करके उन्होंने उसे प्राचीन लेखकों के अनुकरण तक परिसीमित कर दिया। आलोचना पर अपने पद्यबद्ध निबन्ध में पोप ने लिखा कि प्रकृति के अनुकरण का अर्थ है प्राचीन लेखकों द्वारा निर्धारित नियमों का अनुकरण। उन्होंने यह मान्यता व्यक्‍त की कि मानव-प्रकृति स्थायी और सर्वत्र एक-जैसी है। वे यह नहीं समझ सके कि उनका सार्वभौम मानव एक विशिष्ट सामाजिक-ऐतिहासिक स्थिति से जुड़ा हुआ है।

 

नव्यशास्‍त्रवादी युग में कविता अभिजात वर्ग के मनोरंजन के लिए लिखी जाती थी। इसीलिए उसमें विदग्धता और अभिव्यक्ति-कौशल पर अधिक बल दिया गया। भाषा का अभिजातवर्गीय स्वरूप बनाए रखने के लिए उसे बोलचाल की भाषा से यथासम्भव दूर रखा गया। नव्यशास्‍त्रवादी दौर (अठारहवीं सदी) के एक प्रसिद्ध अंग्रेजी  कवि टॉमस ग्रे (1716-1771 इसवी) ने घोषित किया कि ‘समसामयिक युग की भाषा कभी कविता की भाषा नहीं होती।’ परिणामस्वरूप ऐसी रूढ़, कृत्रिम और आडम्बरपूर्ण भाषा विकसित हो गई, जो न तो बोधगम्य थी, न भावोद्दीपन में समर्थ। वह कवि-परम्परा में विकसित हुई थी, जन-जीवन से उसे कुछ लेना-देना नहीं था। वर्ड्सवर्थ जैसे स्वच्छन्दतावादी कवियों ने इसी रूढ़ और कृत्रिम काव्यभाषा का विरोध किया था। यह वास्तव में अभिजात वर्ग और अभिजातवर्गीय संस्कृति का विरोध था।

 

अठारहवीं सदी को तर्क और विवेक का युग कहा जाता है। इस युग में एक तो हॉब्स, लॉक हार्टले जैसे अनुभववादी दार्शनिकों का विवेक था, जिसका क्रान्तिकारी महत्त्व है। दूसरे, एडिसन और डॉ. जॉनसन जैसे आलोचकों और पोप जैसे कवियों का विवेक था, जिसने अभिजात वर्ग और उससे जुड़े मूल्यों को बनाए रखने में मदद पहुँचाई। उन्होंने जिसे विवेक कहा है, वह वास्तव में अभिजात वर्ग का सीमित सौन्दर्यबोध है। जो कुछ अभिजात वर्ग को प्रिय है, उसे रुचिकर लगता है, वह उचित है, विवेकपूर्ण है। इसके अलावा जो कुछ है, वह अनुचित है, अविवेकपूर्ण है, अशास्‍त्रीय है। इसी संकीर्ण और ‘जड़ीभूत सौन्दर्याभिरुचि’ की वजह से नव्यशास्‍त्रवादी युग (अठाहरवीं सदी) में शेक्सपियर और मिल्टन जैसे पुनर्जागरणकालीन रचनाकारों की उपलब्धियों को नकारा गया। विदग्धता, शब्दाडम्बर आदि जो उनके सतही रूप थे, उन्हें अधिक महत्त्व दिया गया। पर उनके वास्तविक मानवतावाद की उपेक्षा कर दी गई। स्वच्छन्दतावाद के सूत्रधारों ने शेक्सपियर और मिल्टन की इस विरासत को फिर से पहचाना और विभिन्‍न सन्दर्भों में शेक्सपियर और विशेष रूप से मिल्टन को याद किया।

 

अठारहवीं सदी एकरूप शताब्दी नहीं थी। इस युग में लॉक जैसे अनुभववादियों, गॉडविन जैसे सामाजिक विचारकों के अलावा बर्न्स, ब्लेक, टॉमसन और कूपर जैसे कवि हुए थे, जिन्होंने सामन्ती या अर्धसामन्ती संस्कृति के खिलाफ विद्रोह किया। इसीलिए वर्ड्सवर्थ ने अठारहवीं सदी की नव्यशास्‍त्रवादी काव्यभाषा का तो विरोध किया पर उसी समय के लॉक, हार्टले जैसे अनुभववादी दार्शनिकों और गॉडविन के सामाजिक न्याय से जुड़े विचारों से प्रेरणा ग्रहण की। अपनी काव्य-रचना-प्रक्रिया में पहले वे, बाह्य प्रकृति के संसर्ग में, सौन्दर्यानुभूति करते हैं, फिर शान्ति के क्षणों में उस अनुभूति का पुनःस्मरण करते हैं। इस प्रक्रिया में उनकी आत्मा, उस अनुभूति के, अन्तर्निहित अर्थ का साक्षात्कार कर लेती है। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में जो औद्योगिक क्रान्ति हुई, उसने धीरे-धीरे अभिजात वर्ग की संस्कृति और उसके सामाजिक आधार को कमजोर किया। राजनीतिक क्षेत्र में यही काम फ्रांस की राज्यक्रान्ति ने किया। ऐसी सामाजिक-राजनीतिक स्थिति में अलेग्ज़ेण्डर पोप, डॉ. जॉनसन जैसे रचनाकारों से जुड़ी अभिजातवर्गीय संस्कृति, उनकी कविता, उनके आलोचना-प्रतिमान पुराने पड़ गए और एक नई संस्कृति सामने आई। इस संस्कृति में जनता के एक बड़े वर्ग – उभरते हुए मध्यवर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व था। स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन ने इस ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति की।

  1. स्वच्छन्दतावाद : प्रमुख प्रेरक शक्तियाँ

युग की दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं ने स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन को गम्भीर रूप से प्रभावित किया। इनमें पहली घटना है फ्रांस की राज्यक्रान्ति। यह क्रान्ति सन् 1789 में हुई थी। क्रान्ति के पीछे वाल्टेयर और रूसो जैसे फ्रांसीसी बुद्धिजीवियों की प्रेरणा थी। रूसो ने स्वतन्त्रता पर विशेष बल दिया था। फ्रांसीसी क्रान्ति में मानवमात्र की समानता की घोषणा की गई थी। स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारा – ये तीन इसके नारे थे। क्रान्ति के दौरान फ्रांस में राजशाही की सत्ता बलपूर्वक उलट दी गई। राजशाही का समर्थक चर्च था, जिसका वर्चस्व पूरे यूरोप में था। चर्च के प्रभुत्व को भी समाप्‍त किया गया। यूरोप के सभी देशों में अभिजात वर्ग और चर्च का गठबन्धन कायम था। इंग्लैण्ड  में यह दौर औद्योगिक क्रान्ति का था, जिसमें मध्यवर्ग उभरकर सामने आया था। औद्योगिक क्रान्ति के बावजूद वहाँ फौज और नौकरशाही में अभिजात वर्ग का वर्चस्व था। इंग्लैण्ड  के बुद्धिजीवी यह महसूस करते थे कि जब तक इस वर्ग को सत्ता से नहीं हटाया जाता तब तक देश प्रगति नहीं कर सकता। इन बुद्धिजीवियों में वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज का स्थान प्रमुख था। वर्ड्सवर्थ ने अपनी कविताओं में मानव मात्र की समानता पर बल दिया था। उन्होंने आमुख में स्पष्ट कहा कि “कवि केवल कवियों के लिए नहीं लिखते, मानव मात्र के लिए लिखते हैं”। कवि को आखिर किसके लिए लिखना चाहिए? वर्ड्सवर्थ  का स्पष्ट उत्तर है – मानव-मात्र के लिए, केवल कवियों के लिए या अभिजात वर्ग के मनोरंजन के लिए नहीं। सम्पूर्ण मानवता उसका क्षेत्र है – “कवि समूची पृथ्वी पर फैली हुई और हमेशा रहने वाली मानव जाति के विशाल साम्राज्य को संवेदना और ज्ञान द्वारा एक ही सूत्र में बाँधता है।” फ्रांसीसी क्रान्ति ने स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे का जो नारा दिया था, उसे हम वर्ड्सवर्थ को अंग्रेजी कविता पर इस तरह लागू करते हुए देखते हैं।

 

युग की दूसरी प्रमुख घटना है औद्योगिक क्रान्ति। यूरोप में यह क्रान्ति अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में हुई थी। अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में इंग्लैण्ड  में यह क्रान्ति कुछ पहले हुई क्योंकि उसके पास उपनिवेशों के रूप में एक बहुत बड़ा बाज़ार था। जनसंख्या का अधिकांश गाँव में ही रहता था, और वहीं काम करता था। शासक वर्ग का बहुलांश भी ग्रामीण जीवन से सम्बद्ध था। ग्रामीण जीवन को ईमादारी, वफादारी, साफगोई जैसे मानव-मूल्यों का पालना माना जाता था। आम धारणा यह थी कि ग्रामीण समाज के आधारभूत मूल्य ही समाज को स्थिरता और निरन्तरता प्रदान करते हैं।

 

औद्योगिक क्रान्ति के प्रभाव से कृषि और उद्योग का परम्परागत सम्बन्ध तेजी से टूटने लगा। इस सम्बन्ध के टूटने से छोटे किसानों के लिए कृषि लाभकर पेशा नहीं रह गया। इस वजह से वे अपनी जमीन बेचने को बाध्य हुए। ग्रामीण दर्जी, बढ़ई, लुहार, बुनकर जैसे कारीगरों का पेशा भी चौपट हो गया उन्होंने गाँव छोड़कर शहरों की ओर पलायन किया। सन् 1770 के बाद ‘बाड़बन्दी आन्दोलन’ में उत्तरोत्तर तेजी आई, जिससे छोटे किसान तबाह हो गए। वे या तो अन्य अनुकूल क्षेत्रों में जाकर कृषि-मजदूर बन गए, या फिर शहरों में फैक्टरी-मजदूर। औद्योगिक क्रान्ति से जुड़ी इन गतिविधियों से गाँवों की जनसंख्या में भारी कमी आई, जिससे उन्होंने ‘भुतहे गाँवों’ का रूप ग्रहण कर लिया। स्वच्छन्दतावादी कवियों ने गाँवों के इस एकाकीपन का बड़ी संवेदनशीलता से अंकन किया है – विशेष रूप से वर्ड्सवर्थ  और कीट्स ने। इस अंकन का स्वर गहन मानवीय करुणा से ओत प्रोत है। ग्राम्य-जीवन के प्रति वर्ड्सवर्थ  की सहानुभूति का यही कारण है।

 

औद्योगिक और वाणिज्यिक गतिविधियों से गरीब लोगों का पारिवारिक जीवन भी प्रभावित हुआ। अब पारिवारिक सम्बन्धों में वैसी ऊष्मा न रही। वे शिथिल होकर टूटने बिखरने लगे। जनवरी 1801 में तत्कालीन राजनीतिज्ञ चाल्र्स फॉक्स को अपनी दो कविताएँ भेजते हुए वर्ड्सवर्थ  ने लिखा था– “अभी हाल में देश के हर हिस्से में कारखानों में बनी चीजों के बड़े पैमाने पर विस्तार से, डाक पर भारी महसूल से, कारखानों से, औद्योगिक संघों से और सूप की दुकानों आदि के चलन से, साथ ही श्रम की कीमत और जीवनगत आवश्यकताओं की कीमत के बीच बढ़ते हुए अन्तर से, गरीब लोगों में, जहाँ तक इन चीजों का प्रभाव फैला है, पारिवारिक भावना में कमी आई है और असंख्य उदाहरणों में तो यह भावना पूरी तरह नष्ट हो गई है।” इस पृष्ठभूमि के बिना चार्ल्स फॉक्स को उन कविताओं में कोई सिर-पैर नजर न आता, वर्ड्सवर्थ की उक्ति के सही आकलन के लिए भी यह पृष्ठभूमि जरूरी है।

 

औद्योगिक क्रान्ति ने तत्कालीन साहित्यिक अभिरुचि को भी प्रभावित किया। इस दौर में एक बड़ा नव-धनाढ्य वर्ग उभरकर सामने आया, जो रातोंरात अमीर बन गया था। उसके पास पैसा तो था लेकिन शिक्षा और संस्कार नहीं था। यह वर्ग किताबें खरीद तो सकता था, पर स्वस्थ साहित्य को पढ़ना-समझना उसके वश की बात न थी। उसकी रुचि को परितुष्ट करने के लिए भारी मात्रा में अश्लील तथा सनसनीखेज किस्म का साहित्य प्रकाशित हो रहा था। वर्ड्सवर्थ  ने लिरिकल बैलेड्स के ‘आमुख’ (सन् 1800) में इस तरह के साहित्य के प्रति भारी चिन्ता व्यक्‍त की, क्योंकि इससे जनता की अभिरुचि विकृत हो रही थी– “आज अनेक ऐसे कारण जो पिछले दिनों अज्ञात थे, समवेत होकर मानव की विवेक-क्षमता को कुण्ठित करने में लगे हुए हैं, जिससे वह स्वेच्छा से श्रम करने की स्थिति में नहीं रह गया है और बर्बर जड़ता की स्थिति में आ गया है। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कारण हैं– आए दिन होने वाली बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय घटनाएँ, लोगों का उत्तरोत्तर शहरों में इकट्ठे होते जाना, जहाँ उनके व्यवसाय की एकरूपता असाधारण घटनाओं की तीव्र चाहत को जन्म देती है और तेजी से बढ़ते हुए संचार माध्यम इस चाहत को बड़ी तेजी से अनुक्षण पूरा कर रहे हैं। साहित्य और रंगमंच ने भी अपने-आपको इसी अभिरुचि के अनुरूप ढाल लिया है। फलतः तरह-तरह के मर्यादाहीन उपन्यासों, रुग्ण मानसिकतावाली नितान्त ऊल-जलूल जर्मन त्रासदियों और पद्य में रचित निरर्थक तथा अतिरंजित कहानियों की बाढ़ ने शेक्सपियर और मिल्टन-जैसे हमारे वरिष्ठ लेखकों की महान रचनाओं को पृष्ठभूमि में ठेल दिया है।” (आमुख)

 

इस साहित्य में संस्कार की कमी थी। ‘स्थूल उत्तेजनाओं’ पर आधारित होने के कारण इसका सौन्दर्यबोध बहुत हल्के किस्म का था। इसलिए यह मानव-मन की मूल विशेषता का सूचक नहीं था – “मानव-मन की यह विशेषता होती है कि वह स्थूल उत्तेजनाओं के बिना भी उत्तेजित हो सकता है। किसी प्राणी में यह क्षमता जितनी ज्यादा होगी, उतना ही वह अन्य प्राणियों से ऊपर होगा। जो इस तथ्य को नहीं जानता उसका सौन्दर्यबोध बहुत हलके किस्म का समझना चाहिए।” (आमुख) इस तरह के विकृत साहित्य और विकृत अभिरुचि के प्रतिकार के लिए ही वर्ड्सवर्थ  ने ‘लिरिकल बैलेड्स’ की कविताओं की रचना की थी, हालाँकि अपने इस प्रयास को वह एकदम नाकाफी मानते हैं – “घोर उत्तेजना के प्रति इस अपमानजनक पिपासा के बारे में जब मैं सोचता हूँ तो इसके प्रतिकार के लिए इन कविताओं में किए गए क्षीण प्रयास को देखकर मेरा सिर शर्म से झुक जाता है।” संकेत यह कि इस तरह के अनेकानेक प्रयास किए जाने चाहिए। फिर भी वर्ड्सवर्थ  को विश्‍वास है कि “जल्दी ही ऐसा समय आएगा जब प्रतिभावान लोग इस बुराई का योजनाबद्ध रूप में विरोध करेंगे और उन्हें इसमें सफलता मिलेगी।”

  1. स्वच्छन्दतावाद प्रमुख विशेषताएँ

स्वच्छन्दतावाद में इन्द्रियबोध, आवेग, भाव, स्वतःस्फूर्त प्रेरणा, कल्पनाशीलता, यथार्थ के बजाय स्वप्‍न, पलायन आदि विशेषताएँ देखने में आती हैं। इस युग में गहराई से अनुभूत भावों की अभिव्यक्ति को केन्द्रीयता प्रदान की गई। स्वच्छन्दतावादी कवियों की दो पीढि़याँ मानी जाती हैं। पहली पीढ़ी में वर्ड्सवर्थ  और कॉलरिज आते हैं, दूसरी पीढ़ी में बायरन, शेली और कीट्स। इन सभी कवियों ने भाव के चित्रण पर बल दिया। नव्यशास्‍त्रवादी कविता में भी भाव होते थे, पर वे सामान्य भाव होते थे। अधिक बल शिल्प और अभिव्यक्ति-कौशल पर रहता था। वर्ड्सवर्थ  ने कविता को ‘भाव का सहज उच्छलन’ कहा। कॉलरिज के अनुसार महान कवियों की रचनाओं में ‘भाव का सतत अन्तःप्रवाह’ रहता है। भावुकता है भी साहित्यकार का सबसे बड़ा गुण। साहित्य की सारी पूँजी भावों को लेकर है। किन्तु अमर्यादित होने पर यह भावुकता अर्थहीन हो जाती है। जिसे हम संस्कार या संस्कृति कहते हैं, वह भावों के परिष्कार या नियन्त्रण से उत्पन्‍न होती है। भावावेग यदि प्रकृति है, तो बुद्धि द्वारा उसे मर्यादा में रखना संस्कृति का लक्षण है। अतः भाव के साथ बुद्धि या विचार का सहयोग चाहिए। स्वच्छन्दतावादी कवियों ने भाव को विचार और दर्शन से संयुक्‍त किया। भाव और ज्ञान इन कवियों के लिए परस्पर विरोधी नहीं है, वरन् एक-दूसरे के पूरक हैं। जैसे केवल भाव काफी नहीं है, वैसे ही केवल विचार भी काफी नहीं है। कॉलरिज के अनुसार “मात्र विचारात्मक शक्ति से जो चीज़ें जन्म लेती हैं, उनमें मृत्यु की गन्ध होती है।” निरी बुद्धि से कविता नहीं बनती, किन्तु कोरी भावुकता भी कविता के लिए अपर्याप्‍त है। केवल ज्ञान काफी नहीं है, ज्ञान का संवेदनात्मक होना भी जरूरी है।

 

नव्यशास्‍त्रवादी कवियों के सीमित सौन्दर्यबोध ने काव्यवस्तु को बहुत संकुचित कर दिया था। स्वच्छन्दतावादी कवियों ने काव्यवस्तु के क्षेत्र का विस्तार किया। उनमें यथार्थ के नए क्षितिजों को देखने की जिज्ञासा थी, वस्तुओं के अन्तरतम में पैठ-डूबकर उनके सूक्ष्म रहस्यों को समझने का कुतूहल था। जिज्ञासा और कुतूहल की इस भावना से उनके काव्य में एक प्रकार के विस्मय का तत्त्व मिलता है। विस्मय ऐसी अनुभूति है, जो यथार्थ का अनुभव करने और उसका अंकन करने में सहायता पहुँचाती है। शायद इसी विशेषता को ध्यान में रखकर पेटर ने स्वच्छन्दतावाद को ‘सौन्दर्य में अद्भुत का योग’ कहकर परिभाषित किया है। सौन्दर्य तो सामान्य तत्त्व है, जो आभिजात्यवाद और स्वच्छन्दतावाद दोनों में मिलता है। स्वच्छन्दतावादी इस सौन्दर्य में अद्भुत का संयोग कर देता है जिससे जानी-पहचानी और परिचित चीज़ों में नवीन परिचय की दीप्ति आ जाती है।

 

जिज्ञासा और कुतूहल की उक्‍त वृत्ति ने ही स्वच्छन्दतावादी कवियों की कल्पनाशक्ति का प्रसार किया। पूर्ववर्ती नव्यशास्‍त्रवादी युग में कल्पना के पर जैसे बाँध दिए गए थे। स्वच्छन्दतावाद की एक बहुत बड़ी देन यह है कि उसने मनुष्य की कल्पना को स्वाधीन किया। यह मुक्ति वस्तु के स्तर पर भी दिखाई देती है और शिल्प के स्तर पर भी। अठाहरवीं सदी में छन्द एकदम साँचेबद्ध होते थे। पाठक को यह पता रहता था कि कब यति आने वाली है और कब अन्त्यानुप्रास आने वाला है। छन्द की मुक्ति के लिए स्वच्छन्दतावादी कवियों ने लोक-साहित्य का गम्भीर अध्ययन किया और शेक्सपियर तथा उसके पूर्ववर्ती युग की छन्द-शैलियों को फिर से प्रचारित किया। बैलेड काव्यरूप में छन्द इतना मुक्‍त है कि पुनर्जागरण काल के बाद उतना मुक्‍त कभी नहीं देखा गया। कल्पना के ऐश्‍वर्य का जो साक्ष्य वर्ड्सवर्थ में रचनात्मक स्तर पर मिलता है वही कॉलरिज में विवेचन के स्तर पर। कॉलरिज ने अत्यन्त कल्पनाशील कविताएँ रचीं और ‘कल्पना’ को स्वच्छन्दतावादी समीक्षा के बीज शब्द के रूप में प्रतिष्ठित किया। जर्मनी में शेलिंग ने कला में कल्पना की भूमिका पर विशेष बल दिया। यह कल्पना एक प्रकार की दृष्टि है, जो वैयक्तिक अनुभूति के अधिक निकट है। यान्त्रिक नियमों से उसे कुछ लेना-देना नहीं है।

 

आमतौर पर यह माना जाता है कि स्वच्छन्दतावादी युग का मुख्य काव्यरूप प्रगीत है। वर्ड्सवर्थ और शेली ने कुछ अद्भुत प्रगीत लिखे, जो अपनी ज्योतिर्मयता के कारण विश्‍व-साहित्य की अमूल्य निधि है। प्रगीत स्वच्छन्दतावादी युग की देन है, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु कुल मिलाकर इस युग की अधिकांश कविताएँ वर्णनात्मक हैं, नाटकीय हैं। प्रगीत को भी इन कवियों ने अपने व्यक्तिगत सुख-दुख के चित्रण तक सीमित नहीं रखा वरन् उसमें वस्तुगत स्थितियों का चित्रण किया।

 

स्वच्छन्दतावादी काव्य में एक ओर क्रान्तिकारी चेतना दिखाई देती है तो दूसरी ओर दुख, निराशा और पलायनवादी रुझानें भी हैं। सामाजिक प्रगति के लिए जनता जो संघर्ष कर रही थी, स्वच्छन्दतावादी कवि उसके साथ थे। किन्तु राजनीतिक स्तर पर उस समय ऐसा कोई संगठन नहीं था, जो इस संघर्ष को वाणी देता। दुख, निराशा, पलायन आदि का यही कारण है। बाहर की दुनिया से बचने के लिए वे सपने की दुनिया रचते हैं, जहाँ उनके तनाव को शान्ति मिले। कीट्स में यह प्रवृत्ति अधिक मुखर है। ये कवि सामाजिक परिवेश के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते, और अपने आपको अकेला महसूस करते हैं। इसीलिए उनमें एक प्रकार के आदर्शीकरण की प्रवृत्ति दिखाई देती है। प्राचीन यूनान का आदर्शीकरण किया गया और ऐसा करते समय दासप्रथा और स्त्रियों की निम्‍न स्थिति को नज़रन्दाज़ कर दिया गया। इसी प्रकार मध्यकाल का आदर्शीकरण किया गया और उसकी क्रूरता एवं बर्बरता की उपेक्षा कर दी गई। कॉलरिज अपनी कविताओं में मध्यकाल का वातावरण रचते हुए दिखाई देते हैं, जबकि कीट्स यूनान के आदर्शीकरण में अधिक रुचि लेते हैं।

 

स्वच्छन्दतावादी कवियों ने निराशा और पलायनवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष भी किया। आभिजात्यवादी मूल्यों पर आधारित अपने युग की समाज-व्यवस्था की उन्होंने कटु आलोचना की। वर्ड्सवर्थ  ने अपनी कविताओं में आम आदमी के दुख-दर्द का चित्रण किया। सभी स्वच्छन्दतावादी कवियों की अपने युग के सामाजिक प्रश्नों में गहरी दिलचस्पी थी। अधिकांश कवियों ने अपनी रचनाओं में सामाजिक प्रगति की धारणा का समर्थन किया। कॉलरिज और शेली पहले यूरोपीय विचारक थे जिन्होंने माल्थस की आलोचना की। स्वच्छन्दतावादी कवि अपने युग के वैज्ञानिक चिन्तन से गहरे जुड़े हुए थे। अपने सृजनात्मक दौर में वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज पर बेकन-लॉक-हार्टली की वैज्ञानिक परम्परा का गहरा असर था।

 

इस प्रकार स्वच्छन्दतावादी रचनाकारों ने अपने काव्य में एक नवीन यथार्थवाद का विकास किया। इन कवियों के कृतित्व को जब हम एक ऐसी नवीन संस्कृति के रूप में देखते हैं जो पुरानी नव्यशास्‍त्रीय संस्कृति के विरोध में विकसित हो रही थी, तो उनका ऋण हमारे सामने और भी स्पष्ट हो जाता है। पुनर्जागरण युग के बाद यह निश्‍चय ही अंग्रेजी  कविता का सबसे समृद्ध युग था।

 

स्वच्छन्दतावाद का आरम्भिक स्फुरण जर्मनी में हुआ था। काण्ट ने पहले-पहल मानवीय चिन्तन को वस्तुपरक की ओर मोड़ा। कॉलरिज पर काण्ट का काफी प्रभाव था। आभिजात्यवाद और स्वच्छन्दतावाद के बीच अन्तर की बात पहले-पहल जर्मनी के महाकवि गेटे और शिलर ने उठाई थी। गेटे कविता में वस्तुपरकता के पक्षधर थे, शिलर आत्मपरकता के। गेटे आभिजात्यवाद को स्वास्थ्य का लक्षण मानते थे, स्वच्छन्दतावाद को रुग्णता का। उन्होंने स्पष्ट कहा था, “वायवी कविताओं को मैं कोई महत्त्व नहीं देता।” उसकी मूल प्रेरणा, बीज भाव, यथार्थ पर आधारित होनी चाहिए। गेटे के विचारों के बरक्स अपने विचारों को सत्य सिद्ध करने के लिए शिलर ने अपना प्रसिद्ध प्रबम्ध लिखा था जिसका शीर्षक है – नेव एण्ड सेण्टीमेण्टल पोइट्री। यहाँ नेव सूचक है आभिजात्यवादी कविता का, और ‘सेण्टीमेण्टल’ स्वच्छन्दतावादी कविता का। आगे चलकर श्‍लेगल ने इस विचार को आगे बढ़ाया। फिर तो यह पूरे यूरोप में चर्चा का विषय बन गया। स्वच्छन्दतावादी रचनाकारों ने यह प्रतिपादित किया कि विश्‍व का रूप उतना व्यवस्थित नहीं है जितना नव्यशास्‍त्रवाद में चित्रित किया गया है। उसकी तुलना में स्वच्छन्दतावाद की अव्यवस्था अधिक मधुर है। आभिजात्यवादी कला और स्वच्छन्दतावादी कला में अन्तर स्पष्ट करते हुए कॉलरिज ने लिखा–“एक है सीमित और मूर्तिवत्, दूसरी असीम और अनिश्‍च‍ित; एक की विशेषताएँ हैं– लालित्य, परिष्कार, अनुपात, ललित-कल्पना, भव्यता, ऐश्‍वर्य और जो कुछ निर्धारित रूपों और विचारों द्वारा सुनिश्‍च‍ित रूप से व्यक्‍त करने योग्य है, दूसरे की विशेषताएँ हैं– आवेग, अस्पष्ट आशाएँ और भय, असीम के बीच विचरण, भव्यतर नैतिक मनोवेग, मानव की मानव के रूप में अधिक गरिमामय अवधारणा, वर्तमान के बजाय भविष्य की चिन्ता, औदात्य।” स्पष्ट ही यहाँ कॉलरिज की सहानुभूति स्वच्छन्दतावाद के साथ है।

  1. निष्कर्ष

स्वच्छन्दतावाद का सम्बन्ध युवा मानस से है, जबकि आभिजात्यवाद का प्रौढ़ मानस से। युवावस्था में वस्तुओं के बारे में हमारी जानकारी एकपक्षीय होती है। महान रचना के लिए बहुपक्षीयता वांछनीय है, जो आभिजात्यवादी रचना में मिलेगी। स्वच्छन्दतावादी कवि में आभिजात्यवादी विशेषताएँ कवित्व का स्रोत होंगी और हमारा ध्यान आकर्षित करेंगी जबकि आभिजात्यवादी रचनाकार में स्वच्छन्दतावाद से जुड़ी विशेषताएँ। इसीलिए स्वच्छन्दतावादी कविता में वे अंश अधिक मार्मिक और कवित्वपूर्ण होंगे, जिनमें आभिजात्यवादी विशेषताएँ उभरती दिखाई दें। इसी प्रकार आभिजात्यवादी रचनाकार में वे अंश मार्मिक होंगे, जिनमें स्वच्छन्दतावादी विशेषताओं का साक्ष्य मिले। हिन्दी में राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास, सरोज स्मृति – जैसी रचनाओं की श्रेष्ठता का यही रहस्य है। सच पूछा जाए तो आभिजात्यवाद और स्वच्छन्दतावाद दो जीवन-दृष्टियाँ हैं। दोनों समान रूप से अच्छी हैं, बशर्ते कि उनका उपयोग विवेकपूर्वक किया जाए। दोनों एक-दूसरे की पूरक हैं।

 

अतिरिक्त जानें :

 

पुस्तकें :

  1. A History of Modern Critisicim:1750-1950 by Rene Wellek, Jonathan Cape,London.
  2. The Multiple plot in English renaissance drama, Richard Levin, University of Chicago Press, Chicago.
  3. Poetry and Politics in English renaissance, David Norbrook, Routledge and Kegan paul, Boston, London.
  4. Poetics Tradition if English renaissance, Edited by Menard Mack and George deForest Lord, Yale University press, New Haven.
  5. Five courtier poets of English renaissance, edited by Robert M. Bender, Washington square press, New York.
  6. Empire and nation in early English Renaissance literature, Stewart Mottram, D.S.Brewer, Woodbridge, New York.

 

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