17 वर्ड्सवर्थ : कविता की परिभाषा

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. वर्ड्सवर्थ के समीक्षा-सिद्धान्त के प्रमुख स्रोत
  4. कविता की परिभाषा
  5. काव्य का प्रयोजन
  6. कविता और छन्द
  7. कवि किसे कहते हैं?
  8. कविता और विज्ञान
  9. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • वर्ड्सवर्थ के समीक्षा-सिद्धान्तों की जानकारी हासिल कर सकेंगे।
  • लिरिकल वैलेच्स की संक्षिप्‍त जानकारी ले पाएँगे।
  • वर्ड्सवर्थ द्वारा दी गई काव्य-परिभाषा समझ पाएँगे।
  • काव्य प्रयोजन की संक्षिप्‍त समझ बना पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

स्वछन्दतावाद के प्रवर्तकों में वर्ड्सवर्थ (सन् 1770-1850) का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे मूलतः कवि थे, आलोचक नहीं। शेक्सपियर और मिल्टन के बाद वे अंग्रेजी के तीसरे महाकवि हैं। उनकी कुछ कविताएँ, विशेष रूप से प्रगीत, विश्‍व साहित्य की अमूल्य निधि हैं। सामन्तवाद के दमन और उत्पीड़न के प्रति विद्रोही होकर वे गाँव के सहज-सरल जीवन और प्राकृतिक सौन्दर्य की ओर उन्मुख हुए थे। रूसो ने इस विचार को अविस्मरणीय शब्दावली में व्यक्त किया है – ‘‘मनुष्य जन्म से स्वाधीन है लेकिन सभी जगह वह अपने-आपको शृंखलाओं में जकड़ा हुआ पाता है।’’

  1. वर्ड्सवर्थ के समीक्षा-सिद्धान्त के प्रमुख स्त्रोत

आज हम वर्ड्सवर्थ को एक महत्त्वपूर्ण स्वछन्दतावादी आलोचक के रूप में भी पढ़ते हैं, पर सच्चाई है कि सैद्धान्तिक आलोचना में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। ऐतिहासिक परिस्थितियों के दबाव से वे एक नए आन्दोलन (स्वछन्दतावादी आन्दोलन) के सिद्धान्तकार बने। सन् 1798 में उन्होंने अपने मित्र कॉलरिज के सहयोग से एक युगान्तरकारी कविता-संकलन तैयार किया था– लिरिकल बैलेड्स। इसमें कुल तेईस कविताएँ थीं, उन्नीस वर्ड्सवर्थ की और चार कॉलरिज की। पुस्तक के आरम्भ में एडवर्टिजमेण्ट शीर्षक से एक छोटी-सी भूमिका थी। इस भूमिका में बताया गया था कि इस संग्रह में संकलित कविताएँ प्रयोग के रूप में हैं। इनका उद्देश्य यह जानना था कि समाज के ‘मध्य तथा निम्‍न वर्ग में प्रचलित बोलचाल की भाषा’ में सफल कविताएँ रची जा सकती हैं या नहीं। इस तरह की भाषा में पहले भी कविताएँ रची गई थीं, पर वे परिमाण में काफी कम थीं।

 

लिरिकल बैलेड्स में नए भावबोध की कविताएँ थीं। भाषा और विषयवस्तु दोनों दृष्टियों से ये कविताएँ पूर्ववर्ती नव्यशास्‍त्रवादी काव्याभिरुचि से स्पष्ट अलगाव की सूचक थीं। इसीलिए पाठक वर्ग में इनकी मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई। नई पीढ़ी के पाठक वर्ग ने इनका गर्मजोशी से स्वागत किया जबकि पुरानी (नव्यशास्‍त्रवादी) काव्याभिरुचि में ढले पाठकों और आलोचकों ने इनकी कटु आलोचना की। इन कविताओं, और इनमें भी वर्ड्सवर्थ की कविताओं की भाषा को विशेष रूप से आलोचना का लक्ष्य बनाया गया। सन् 1800 में लिरिकल बैलेड्स का दूसरा संस्करण आया। इसमें वर्ड्सवर्थ ने अड़तीस नई कविताएँ जोड़ी। पहले संस्करण की संक्षिप्‍त भूमिका एडवर्टिजमेण्ट के स्थान पर उन्होंने एक लम्बी भूमिका लिखी। इस भूमिका में वर्ड्सवर्थ ने नव्यशास्‍त्रवादी काव्यभाषा की तीखी आलोचना की। साथ ही संगृहीत कविताओं की भाषा और विषयवस्तु के बारे में आलोचकों के आक्षेपों का जवाब दिया। साहित्य-जगत में यह भूमिका ‘लिरिकल बैलेड्स के द्वितीय संस्करण का आमुख’ (प्रिफेस टु द सेकण्ड एडिशन ऑफ़ लिरिकल बैलेड्स) नाम से विख्यात है। आलोचक के रूप में वर्ड्सवर्थ की कीर्ति का आधार विशेष रूप से यह आमुख ही है।

 

सन् 1802 में लिरिकल बैलेड्स का तीसरा संस्करण आया। इसमें वर्ड्सवर्थ ने कवि के स्वरूप तथा कविता और विज्ञान के सम्बन्ध के बारे में लगभग दस अवतरण की सामग्री और जोड़ी। इस सामग्री से भी वर्ड्सवर्थ की काव्य-विषयक धारणा को समझने में मदद मिलती है। सन् 1800 के आमुख में पर्यवेक्षण और यथार्थ-चित्रण पर बल है। ‘कल्पना’ शब्द वहाँ केवल दो बार आया है। सन् 1802 के संस्करण में जो नई सामग्री जोड़ी गई उसमें कल्पनाशीलता पर अधिक बल है। कॉलरिज का प्रभाव यहाँ प्रत्यक्ष है। इसकी भाषा का स्वर भी अत्यन्त उदात्त है। द्वितीय संस्करण के आमुख में कल्पना तत्त्व की जो कमी रह गई थी उसे यहाँ पूरा कर लिया गया है। इस संस्करण में उन्होंने एक परिशिष्ट भी जोड़ा। परिशिष्ट में यह बताया गया है कि नव्यशास्‍त्रवादी दौर में तथाकथित काव्यभाषा (पोइटिक डिक्शन) का विकास कैसे हुआ। काव्यभाषा का स्वरूप हृदयंगम करने की दृष्टि से यह सामग्री भी मूल्यवान है। सन् 1815 के चौथे संस्करण में वर्ड्सवर्थ ने अनुपूरक निबन्ध (एस्से सप्लीमेण्ट्री) शीर्षक से कुछ सामग्री और जोड़ी। इस प्रकार लिरिकल बैलेड्स के चार संस्करण प्रकाशित हुए –  सन् 1798, 1800, 1802 और 1815 में। इसकी सामग्री में वे बराबर संशोधन-परिवर्द्धन करते रहे। इस बदलाव से भूमिका में अन्तर्विरोध भी आए। स्वयं वर्ड्सवर्थ को इन अन्तर्विरोधों का अहसास था।

 

आमुख में दो परस्पर सम्बद्ध प्रश्न उठाए गए हैं और उनका उत्तर देने का प्रयास किया गया है। पहला यह कि कविता का साधारण जीवन की भाषा से क्या सम्बन्ध होना चाहिए? दूसरे, कविता की विषयवस्तु का जीवन से क्या सम्बन्ध है? यह क्रम कुछ असंगत लगता है, किन्तु वर्ड्सवर्थ ने इन्हें इसी क्रम में रखा है। आमुख में इनका उत्तर है कि कविता में ऐसी भाषा का व्यवहार करना चाहिए, जिसका प्रयोग सामान्य जन अपने यथार्थ जीवन में करते हैं। अभिजातवर्गीय भाषा सामान्य जनों की भाषा नहीं है। अतः उसे कविता की भाषा बनाए रखना उचित नहीं है। कविता की विषयवस्तु को भी वे सामान्य जनों तक, विशेष रूप से गाँव के किसानों तक, ले जाना चाहते थे। कुछ सीमित उदाहरणों के अलावा जा कविता कविता अभिजात वर्ग तक सीमित थी, उसे वे एक नए धरातल पर विकसित करना चाहते थे।

 

उल्लेखनीय है कि वर्ड्सवर्थ का उक्त आमुख ऐतिहासिक महत्त्व का स्थायी दस्तावेज है। उसे ‘स्वछन्दतावाद का घोषणापत्र’ उचित ही कहा गया है, जैसे कि हिन्दी में सुमित्रानन्दन पन्त कृत पल्लव की भूमिका  को छायावाद का घोषणापत्र कहा जाता है। इसके महत्त्व का एक प्रमाण तो यही है कि अब भी यह अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। तत्कालीन पाठकीय अभिरुचि को इसने गम्भीर रूप से प्रभावित किया। लिरिकल बैलेड्स का पहला संस्करण, जिसमें यह आमुख नहीं था, पाठकों का विशेष ध्यान आकर्षित नहीं कर सका था। दूसरे संस्करण के आमुख से इन कविताओं के बारे में पाठकों की राय बदलने में निश्चय ही मदद मिली। आमुख के प्रकाशन से पहले जो काव्याभिरुचि प्रभावी थी, उसका निर्माण प्रसिद्ध नव्यशास्‍त्रवादी आलोचक डॉ. जॉनसन कृत लाइव्ज ऑफ़ द पोएट्स (सन् 1781) के आधार पर हुआ था। उस समय ऐसा लगता था कि यह अभिरुचि स्थायी है और इसमें किसी तरह का बदलाव सम्भव नहीं है। लेकिन दस साल के भीतर ही यह स्थान एक नई काव्याभिरुचि ने ले ली, जिसका बहुत-कुछ श्रेय लिरिकल बैलेड्स  के आमुख (सन् 1800) को है।

 

जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, अपने प्रसिद्ध आमुख में वड्सर्वर्थ ने दो विषयों पर विचार किया – काव्यभाषा  और कविता की परिभाषा। प्रस्तुत इकाई में हम कविता की परिभाषा पर विचार करेंगे। इस सन्दर्भ में उन्होंने कविता के उद्भव, स्वरूप और प्रयोजन पर विचार किया। साथ ही उन्होंने कविता और छन्द, कवि के स्वरूप, कविता और विज्ञान – जैसे विषयों पर भी संक्षेप में अपनी मान्यताएँ व्यक्त कीं। इन मान्यताओं से भी कविता का स्वरूप स्पष्ट होने में मदद मिलती है।

  1. कविता की परिभाषा

आमुख में वर्ड्सवर्थ ने दो जगह कविता को परिभाषित करने का प्रयास किया है। आरम्भ में उन्होंने इतना भर कहा कि ‘‘सम्पूर्ण श्रेष्ठ कविता तीव्र मनोवेगों का सहज उच्छलन है।’’ नव्यशास्‍त्रवादी युग में मानव के भावों और मनोविकारों की उपेक्षा की गई थी। अतः यह स्वाभाविक ही था कि वर्ड्सवर्थ गहराई से अनुभूत वैयक्‍त‍िक भावों का पक्ष ग्रहण करें। काव्य पर विचार करते समय अरस्तू ने घटनाओं और स्थितियों को अधिक महत्त्व दिया था। अरस्तू ने कहा था कि कथानक त्रासदी की आत्मा है। कथानक अर्थात् घटनाओं और स्थितियों का विन्यास। कथानक का सम्बन्ध संरचना से है और संरचना का सम्बन्ध तर्क और विचार से। महत्त्वपूर्ण है विचार और रचना के नियम। कविता को ‘तीव्र मनोवेगों का सहज उच्छलन’ (spontaneous overflow of powerfull feelings) कहकर वर्ड्सवर्थ ने भाव और स्वतःस्फूर्त सृजनात्मकता पर बल दिया। लिरिकल बैलेड्स में संगृहीत कविताओं की विशेषता का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा– ‘‘एक अन्य कारण भी है जो इन कविताओं को आज की लोकप्रिय कविताओं से अलग करता है और वह यह कि उनमें जो भाव व्यक्त किए गए हैं, वे स्थिति और कार्य-व्यापार को महत्ता प्रदान करते हैं, स्थिति और कार्य-व्यापार भाव को नहीं।’’ (लिरिकल बैलेड्स के द्वितीय संस्करण (1800) के आमुख से) ‘आज की लोकप्रिय कविताओं से’ का अभिप्राय पुराने (नव्यशास्‍त्रवादी) बोध में ढली कविताओं से है। ये कविताएँ पुराने बोध की वाहक होने के कारण ही लोकप्रिय थीं। ‘स्थिति और कार्यव्यापार’ को अधिक महत्त्व अरस्तू ने दिया था। यहाँ वर्ड्सवर्थ ने सीधे-सीधे अरस्तू का नाम तो नहीं लिया, पर स्पष्ट ही उनका इशारा अरस्तू की ओर है।

 

लेकिन अच्छी कविता के लिए केवल भाव काफी नहीं है। भाव के साथ विचार का सहयोग भी आवश्यक है। इसलिए वर्ड्सवर्थ ने यह भी कहा कि जिन कविताओं को थोड़ा-बहुत भी महत्त्व दिया जाता है, वे ऐसे व्यक्‍त‍ि की रचनाएँ होती हैं, जिसने लम्बे समय तक और गहराई से चिन्तन-मनन किया है। वर्ड्सवर्थ यहाँ भाव और विचार में कोई विरोध नहीं देखते। वे द्वन्द्वात्मक रूप में एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। उनका यह कहना एकदम ठीक है कि ‘‘हमारे भावों का सतत अन्तःप्रवाह हमारे विचारों से संशोधित और निर्देशित होता रहता है और ये विचार भी सही मायनों में अतीत की हमारी सम्पूर्ण भावनाओं के प्रतिनिधि हैं।’’ कविता में भाव और विचार के इसी सामंजस्य को रेखांकित करते हुए उन्होंने कविता को परिभाषित करते हुए कहा “कविता तीव्र मनोवेगों का सहज उच्छलन है। शान्ति के क्षणों में भाव के पुनःस्मरण से उसका उदय होता है। भाव के अनुचिन्तन के क्रम में, एक विशेष प्रकार की अभिक्रिया (Reaction) द्वारा, प्रशान्तता धीरे-धीरे तिरोहित को जाती है और पुनः वैसी ही भावदीप्‍त मनोदशा उत्पन्‍न हो जाती है, जैसी कि आरम्भ में हुई थी। यह मनोदशा कुछ देर तक बनी रहती है। इसी मनोदशा में सामान्यतः सफल रचना की शुरुआत होती है और, ऐसी ही मनोदशा में, यह प्रक्रिया जारी रहती है। किन्तु भाव चाहे जिस प्रकार के हों, और चाहे जिन कारणों से उत्पन्‍न हों, वे आनन्द के विभिन्‍न रूपों से संवलित रहते हैं और उनका वर्णन करते समय मन भी कुल मिलाकर आनन्दानुभूति की स्थिति में रहता है।”

 

उपर्युक्त परिभाषा में वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करने के साथ-साथ अपनी काव्य-रचना-प्रक्रिया का उल्लेख भी किया है। इस प्रक्रिया के तीन चरण हैं – पहला, मनोवेगों का सहज उच्छलन; दूसरा, शान्ति के क्षणों में भावों का पुनःस्मरण; तीसरा, कविता में उनकी अभिव्यक्‍त‍ि। स्वयं वर्ड्सवर्थ की रचना-पद्धति भी यही थी : कोई मार्मिक दृश्य देखा, उसे स्मृति के कोषागार में संजोकर रख लिया, फिर शान्ति के क्षणों में उसका पुनःस्मरण किया और अन्त में उसे कविता में ढाल दिया। उनकी अनेक कविताओं में इस पद्धति का साक्ष्य मिलता है।

 

कविता को ‘मनोवेगों का सहज उच्छलन’ कहकर वर्ड्सवर्थ कविता में भाव को प्राथमिक महत्त्व देना चाहते हैं। इसमें नव्यशास्त्रीयकाव्य-दृष्टि का खण्डन भी है। नव्यशास्‍त्रवाद में तर्क और शास्त्रीय नियमों को ही सब-कुछ मान लिया गया था। वर्ड्सवर्थ ने इनके स्थानपर स्वतःस्फूर्त सृजनात्मकता को प्रतिष्ठित किया। उत्कट भावानुभूति के लिए साहित्यकार में भावुकता का गुण वांछनीय है। इस गुण केबिना कोई भी व्यक्‍त‍ि कवि नहीं हो सकता। परिभाषा में रचना-प्रक्रिया के जिन तीन सोपानों का उल्लेख किया गया है, उनमें सबसे आधारभूतसोपान भावानुभूति का ही है। यदि आरम्भ में कवि के मन में भाव का उदय नहीं होगा तो शान्ति के क्षणों में न तो उसका पुनःस्मरण सम्भवहै, न कविता के रूप में उसकी अभिव्यक्‍त‍ि।

 

कविता का जन्म भावानुभूति से होता है। लेकिन अच्छी कविता केवल जन्म ही नहीं लेती, वह कवि से अलग होकर सहृदय समाज में सम्प्रेषित भी होती है। जो कुछ सर्वथा विशिष्ट है, वह सम्प्रेषणीय नहीं है। सामान्यता सम्प्रेषण की अनिवार्य शर्त है। भाव विशिष्ट होता है और विचार सामान्य। अतः भाव के साथ विचार का संयोग आवश्यक है। इसीलिए वर्ड्सवर्थ ने यह मान्यता व्यक्त की है कि रचना-प्रकिया के पहले (मनोवेगों के सहज उच्छलन) और दूसरे (भाव के पुनःस्मरण) चरणों के बीच कुछ-न-कुछ अन्तराल रहना चाहिए। सौन्दर्यानुभूति के तत्काल बाद यदि कोई कविता रची जाएगी तो वह घटिया स्तर की होगी। कारण, उसमें अपेक्षित मात्रा में सम्प्रेषणीयता का गुण नहीं होगा। यह अन्तराल भी एक प्रकार से रचना-प्रक्रिया का ही अंग है। अन्तराल की यह अवधि कई बार अत्यन्त दीर्घ होती है। स्वयं वर्ड्सवर्थ आरम्भिक सौन्दर्यानुभूति और काव्य-रचना के बीच प्रायः लम्बा अन्तराल छोड़ते थे। किसी भी सौन्दर्यानुभव को काव्य-रूप देने से पहले वे सालों तक उसे अपने मानस में सँजोकर रखते थे। यह उनकी आदत थी। कई बार तो अन्तराल की यह अवधि दस वर्ष से भी अधिक होती थी। इस दौरान कवि एक प्रकार के चयन या संग्रह-त्याग की प्रक्रिया से होकर गुजरता है। चयन की दिशा सामान्यता या सार्वभौमिकता की ओर होती है। इस अवधि में कवि चिन्तन-मनन द्वारा अपनी वैयक्‍त‍िक अनुभूति को निर्वैयक्‍त‍िक बनाता है। निर्वैयक्‍त‍िक बनाने की इस प्रक्रिया में अनुभूति के नितान्त वैयक्‍त‍िक, अतः असंगत, पहलू काट-तराश दिए जाते हैं। अपने-आप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद यह अन्तराल काव्य का क्षण नहीं है।

 

आरम्भिक मनोवेग (feelings) विचार से संयुक्त होकर भाव (Emotion) का रूप ग्रहण करते हैं। कवि शान्ति के क्षणों में इन्हीं ‘भावों का पुनःस्मरण’ करता है। प्राथमिक अनुभूति में विवरण बहुत रहते हैं। लेकिन इस पुनःस्मृत अनुभूति में सम्बद्ध सौन्दर्यानुभूति के केवलवे अंश रहते हैं जो पूरी जीवन्तता से कवि की स्मृति में सुरक्षित रह गए हैं। इसमें कवि मूल अनुभूति की आत्मा, उस अनुभूति के सारभूत सत्य को प्रस्तुत कर सकता है।यह ‘‘ऐसी सन्तुलित भावदशा है, जो विचार से उत्पन्‍न होती है(that sane state of feeling which arises out of thought)।’’ एक अन्य अन्तर भी है। जहाँ आरम्भिक मनोवेग सहज और अचेतन होते हैं, वहाँ पुनःस्मृत भाव प्रयास-साधितऔर चेतन। ‘मनोवेगों का सहज उच्छलन’ एक अचेतन प्रक्रिया है, जबकि ‘शान्ति के क्षणों में भाव का पुनःस्मरण’ चेतन।

 

ऊपर-ऊपर देखने पर उक्त दोनों कथनों में अन्तर्विरोध है। लेकिन यह अन्तर्विरोध प्रतीयमान है, वास्तविक नहीं। सचाई है कि ये दोनों कथन एक-दूसरे के पूरक हैं। वर्ड्सवर्थ दूसरे कथन से अपने पहले कथन को संशोधित करना चाहते हैं। विचार द्वारा संशोधितमनोवेगों का सहज उच्छलन कविता है। श्रेष्ठ कविता में भाव और विचार दोनों का सामंजस्य होता है। अनुभूति के समय भावुकता, पररचना के समय विचार का सहयोगही वह मार्ग है, जिस पर चलकर उच्‍च कोटि के काव्य का सृजन हो सकता है।

 

भाव के पुनःस्मरण और उसके अनुचिन्तन की प्रक्रिया में ‘पुनः वैसी ही भावदीप्‍त मनोदशा’ उत्पन्‍न हो जाती है जैसी आरम्भ में हुई थी। वही मनोदशा नहीं, वैसी ही मनोदशा। अर्थात् मूल मनोदशा से मिलती-जुलती मनोदशा। मूल मनोदशा और इस मनोदशा में अन्तर यह है कि इसमें भावानुभूति के नितान्त वैयक्‍त‍िक और असंगत पहलू काट-तराश दिए जाते हैं। यह मनोदशा कुछ देर तक जारी रहती है। आमतौर पर इसी मनोदशा में सफल रचना का निर्माण होता है। सृजन का वास्तविक क्षण यही है। सृजन के इस क्षण में रचनाकार का मन आनन्दानुभूति की स्थिति में रहता है, और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि चित्रित भाव सुखात्मक है या दुखात्मक।

  1. काव्य का प्रयोजन

कवि और सहृदय (पाठक) दोनों की दृष्टि से वर्ड्सवर्थ ने आनन्द को पर्याप्‍त महत्त्व दिया है। भाव चाहे जिस प्रकार के हों, सुखात्मक या दुखात्मक, वे आनन्द के विभिन्‍न रूपों से संवलित रहते हैं और उनका वर्णन करते समय मन भी आनन्दानुभूति की स्थिति में रहता है। अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए वर्ड्सवर्थ ने कहा कि जब प्रकृति इतनी सजग है कि वह काव्य-रचना में निरत व्यक्‍त‍ि को आनन्द की अवस्था में रखती है तो कवि को भी इससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए। ‘‘उसे इस बारे में बहुत सावधान रहना चाहिए कि वह अपने पाठकों को जो भी मनोवेग (भाव) सम्प्रेषित करे, उनके प्रस्तुतीकरण में हमेशा आनन्द की प्रधानता रहे।’’ लेकिन पाठक इस आनन्द को तभी ग्रहण कर पाएगा जब उसका मन ‘स्वस्थ और जीवन्त’ होगा। वह अनुभूतिप्रवण और सहृदय होगा। आनन्द ही वह तत्त्व है जो इतिहासकार या जीवनीकार के बरक्स कवि के वैशिष्ट्य को रेखांकित करता है। वर्ड्सवर्थ के अनुसार, ‘‘कवि केवल एक प्रतिबन्ध के तहत लिखता है। वह प्रतिबन्ध है मनुष्य को तात्कालिक आनन्द प्रदान करना।… इस एक प्रतिबन्ध के अलावा कवि और वस्तुओं के बिम्ब के बीच में कोई बाधा नहीं होती।’’ पुनः, ‘‘जो कुछ आनन्द से प्रसारित किया जाता है, उसके अलावा हमारी किसी में कोई दिलचस्पी नहीं है।… जहाँ कहीं हम दुख से सहानुभूति करते हैं, वहाँ भी यह पता चलेगा कि सहानुभूति की यह भावना आनन्द के सूक्ष्म समन्वय के साथ सम्पन्‍न और गतिशील होती है।’’ साथ ही, इन भावनाओं के चित्रण में, कवि की स्वभावगत आवश्यकताओं के कारण, ‘हर्ष का पलड़ा ही भारी रहता है।’

 

नव्यशास्‍त्रवादी कला-चिन्तन में शिक्षा को काव्य के प्रमुख प्रयोजन के रूप में मान्यता दी गई थी। साथ ही जो रचनाकार आनन्द को प्रमुख प्रयोजन मानते थे, उन्हें काव्य-कला के अपकर्षीकरण का दोषी माना जा रहा था। वर्ड्सवर्थ ऐसा नहीं मानते। उनकी दृढ़ धारणा है कि ‘तात्कालिक आनन्द प्रदान करने के इस प्रयोजन को काव्य-कला का अपकर्ष नहीं माना जाना चाहिए।’ बात इससे ठीक विपरीत है, ‘‘यह तो विश्‍व के सौन्दर्य की स्वीकृति है। यह स्वीकृति और भी ज्यादा सच्‍ची इसलिए है कि यह प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष है।… इसके अतिरिक्त, यह मानव की नैसर्गिक और निरावृत्त गरिमा के प्रति श्रद्धांजलि है।’’ लेकिन काव्य के प्रयोजन को लेकर वर्ड्सवर्थ के चिन्तन में एक नैतिक धारा भी थी। उनका मानना था कि उद्योगीकरण और शहरीकरण के प्रभाववश ‘समाज के निम्‍नवर्गों के पारिवारिक सम्बन्धों में जो तेजी से क्षरण हो रहा है, उसका प्रतिकार करने में’ लिरिकल बैलेड्स  की कविताएँ सहायक सिद्ध हो सकती हैं। आनन्द तो काव्य का प्रमुख प्रयोजन है ही, लेकिन वह आनन्द ऐसा होना चाहिए जो लोकमंगल का साधक हो। काव्य का महत्त्व इस आधार पर आँका जाना चाहिए कि पाठक पर उसका कैसा असर पड़ता है। ‘सनसनीखेज उपन्यास’ और ‘जर्मन त्रासदियाँ’ हमें गलत तरीके से उत्तेजित करते हैं। कवि को ऐसे भावों का चित्रण करना चाहिए, जिससे उसे बेहतर और नैतिक व्यक्‍त‍ि बनने में मदद मिले। समय के साथ-साथ वर्ड्सवर्थ का दृष्टिकोण अधिकाधिक इतिवृत्तात्मक और उपदेशात्मक होता गया। सन् 1808 में अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा, ‘हर महान कवि एक शिक्षक होता है। मेरी आकांक्षा है कि या तो मुझे शिक्षक माना जाए, या फिर कुछ भी नहीं।’

  1. कविता और छन्द

कविता में आनन्द पर बल देते हुए वर्ड्सवर्थ ने लिखा कि, ‘जो कुछ आनन्द के साथ प्रसारित किया जाता है उसके अलावा हमारी किसीचीज में कोई दिलचस्पी है नहीं है।’ छन्द भी इसी आनन्द में वृद्धि का एक साधन है।

 

वर्ड्सवर्थ के अनुसार, ‘छन्द मन को जैसे चेतना के एक नए धरातल पर उठा ले जाता है।’ साथ ही वह एक प्रकार की ‘सौन्दर्यपरक दूरी’ (Asthetic distance) में वृद्धि करता है। छन्द में यह प्रवृत्ति होती है कि वह भाषा को ‘यथार्थता के स्तर से ऊँचा’ उठा देता है। छन्द में एक प्रकार का मायावी तत्त्व होता है, जादुई तत्त्व। ‘‘वह भाषा को एक हद तक उसकी यथार्थता से वंचित कर देता है और पूरी रचना पर एक प्रकार की कुहरिल-अमूर्त्त अर्धचेतना का आवरण-सा डाल देता है।’’ यही वजह है कि अपेक्षाकृत अधिक करुण भाव और स्थितियाँ, ऐसी भाव-स्थितियाँ, जिनमें दुख की मात्रा अधिक होती है, ‘‘छन्द में जितनी बर्दाश्त की जा सकती हैं उतनी गद्य में नहीं।’’ (जर्मनी के महाकवि गेटे (सन् 1749-1832) जब फॉस्ट की रचना कर रहे थे, तो उन्हें भी छन्द की इस शाक्‍त‍ि का अहसास हुआ था। 5 मई 1798 को शिलर के नाम अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा, ”कुछ त्रासद दृश्यों की रचना गद्य में की गई थी, किन्तु अपनी स्वाभाविकता और प्रभाव-क्षमता की वजह से वे अन्य दृश्यों की तुलना में असहनीय हो उठे। इसलिए मैं उन्हें लयबद्ध करने का प्रयास कर रहा हूँ। कारण, उस हालत में सम्बद्ध भाव को जैसे हम एक झीने आवरण के माध्यम से देखते हैं और परिणामस्वरूप दुर्दम्य विषयवस्तु का सीधा प्रभाव सौम्य-कोमल हो जाता है।” यही वजह है कि प्रसिद्ध अंग्रेजी उपन्यासकार रिचर्डसन् (सन् 1689-1761) के उपन्यास क्लैरिसा (1748) के दुखद अंशों को ‘‘एक बार पढ़ने के बाद दुबारा पढ़ने की इच्छा नहीं होती।’’ इसके विपरीत ‘‘शेक्सपियर की रचनाओं के सर्वाधिक करुण दृश्य आनन्द की मर्यादा को अतिक्रान्त कर कभी करुणा का बोध नहीं कराते।’’ इसका कारण है ‘‘छन्दमयी भाषा, जो बराबर और नियमित रूप से, विस्मययुक्त आनन्द प्रदान करती रहती है, भले ही वह आनन्द थोड़ी मात्रा में हो।’’ दूसरी ओर, यदि कवि के शब्द भाव के अनुरूप नहीं हुए तो भी छन्द द्वारा कवि मनोवांछित प्रभाव उत्पन्‍न कर सकेगा (बशर्ते कि कवि का छन्द का चुनाव एकदम अनुपयुक्त न रहा हो)। कारण, ‘‘पाठक आम तौर पर छन्द के साथ आनन्द की भावना के संयोग से परिचित होते हैं और उन्हें यह भी पता होता है कि छन्द की कौन-सी गति आनन्द अथवा शोक की अभिव्यंजना के लिए अधिक उपयुक्त है। छन्दबद्ध भाषा में एक ऐसा गुण होता है, जो साधारण शब्दों में भावावेश का संचार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है और कवि के लक्ष्य को पूरा करने में योग देता है।’’

 

आमुख में जहाँ नव्यशास्त्रीय काव्यभाषा के प्रयोग का विरोध किया गया है, वहीं छन्द के प्रयोग की वकालत की गई है। काव्यभाषा (पोइटिक डिक्शन) और छन्द, दोनों में कृत्रिमता है। यदि एक (काव्यभाषा) की कृत्रिमता का विरोध है तो दूसरे (छन्द) की कृत्रिमता का समर्थन क्यों? इस प्रतीयमान असंगति के निराकरण के लिए वड्सवर्थ ने यह स्पष्ट किया कि काव्यभाषा के अलंकरण का विरोध करने के बावजूद उन्होंने छन्द के अलंकरण का समर्थन क्यों किया। वर्ड्सवर्थ के अनुसार इसका पहला कारण तो यह है कि छन्द में रूढ़ और कृत्रिम काव्यभाषा जैसी निरंकुशता नहीं होती, वरन् कुछ नियमों का पालन किया जाता है। दूसरे, छन्द में अपने-आप में एक प्रकार का आकर्षण होता है, जिसे सभी जातियों (राष्ट्रों) का समर्थन प्राप्‍त है। तीसरे, छन्द भावावेगों, विशेष रूप से दुखद भावावेगों को संयमित और नियन्त्रित करता है। चौथे, छन्द का आनन्द युग-युगों से मान्य सिद्धान्त पर आधारित है। वह सिद्धान्त है– ‘‘असमानता में समानता और समानता में असमानता के प्रत्यक्षीकरण से प्राप्‍त मानसिक आनन्द।’’ इस सिद्धान्त का क्षेत्र बहुत व्यापक है, ‘‘इसी सिद्धान्त के आधार पर काम-वासना और उससे जुड़ी सभी वासनाएँ दिशा ग्रहण करती हैं। यही हमारी साधारण बातचीत का प्राण है। जितनी सूक्ष्मता से हम असमानता में समानता और समानता में असमानता के दर्शन कर सकते हैं, उसी पर हमारी अभिरुचि और हमारा नैतिक बोध निर्भर है।’’

 

स्पष्ट ही छन्द को लेकर वर्ड्सवर्थ के मन में द्वन्द्व है। वे उसे कृत्रिम भी मानते हैं, अनिवार्य भी। इसकी कृत्रिमता को ध्यान में रखकर ही शायद वे छन्द को कविता का आन्तरिक घटक नहीं मानते। उन्होंने उसे ‘ऊपर से जोड़ा हुआ आकर्षण’ (a superadded charm) कहा है। छन्द के बारे में उन्होंने महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं, लेकिन उनकी उक्त मान्यता की वजह से छन्द के बारे में उनके विचारों का महत्त्व काफी कम हो गया है। छन्द से सम्बन्धित उनके इसी विचार को आधार बनाकर कॉलरिज ने उनकी तीखी आलोचना की। वास्तव में छन्द सहज भी होता है और कृत्रिम भी। चूँकि इसका सम्बन्ध ‘भावदीप्‍त मनोदशा’ से है, इसलिए यह सहज है। भावावेग छन्द का ही आश्रय लेकर अपने-आपको प्रकट करता है। छन्द के वाहन पर चढ़कर बात तेजी से हमारे हृदय में उतर जाती है। इससे काव्य का प्रभाव द्विगुणित हो जाता है। काव्य में जो विस्मय का तत्त्व होता है, उसका बहुत-कुछ श्रेय छन्द को है। साथ ही छन्द प्रयास-साधित भी होता है, इसलिए यह कृत्रिम है। इन्हीं विरोधी गुणों के सामंजस्य की वजह से छन्द में ‘समानता में असमानता और असमानता में समानता’ की विशेषता दिखाई देती है जो अपने-आप में आनन्द का स्रोत है।

  1. कवि किसे कहते हैं?

वर्ड्सवर्थ के अनुसार ‘कविता क्या है?’ जैसा प्रश्न काफी हद तक इस प्रश्न से जुड़ा हुआ है कि ‘कवि कौन होता है?’ एक के उत्तर में दूसरे का उत्तर निहित है। फ्रांसीसी क्रान्ति के आदर्शों से अनुप्राणित होने के कारण वर्ड्सवर्थ यह मानने को तैयार नहीं हैं कि कवि कोई विशिष्टवर्गीय प्राणी है। वास्तव में वह व्यापक मानवता का अंग है, उससे कटा हुआ नहीं है। फिर भी भाषा के उदात्त स्वर से ऐसा लगता है कि कवि की कितनी उदात्त परिकल्पना उनके दिमाग में है –

  1. अस्तु सामान्य रूप से विषय का विवेचन करते हुए मैं यह पूछना चाहूँगा कि ‘कवि’ शब्द का अर्थ क्या है? कवि किसे कहते हैं? वह किसे सम्बोधित करके अपनी बात कहता है? और उससे किस तरह की भाषा की अपेक्षा की जानी चाहिए? वह एक मनुष्य है और अन्य मनुष्यों से ही अपनी बात कहता है – हाँ, ऐसा मनुष्य जो अन्य लोगों की तुलना में अधिक संवेदनशील है, जिसमें उमंग और कोमलता की मात्रा अन्य लोगों से ज्यादा होती है; मानव-प्रकृति की उसकी जानकारी अधिक गम्भीर होती है और उसकी आत्मा अधिक विशाल होती है, सामान्य मनुष्य में ये तत्त्व इतनी मात्रा में नहीं होता। वह अपने ही भावों और विचारों में प्रफुल्लित रहता है, और अपने अन्तस में विद्यमान जीवन-रस में वह अन्य लोगों की अपेक्षा ज्यादा आनन्द का अनुभव करता है। सृष्टि के क्रियाकलाप में जहाँ इसी प्रकार के विचार और भाव दिखाई देते हैं, उनका मनन करके वह हर्षित होता है और जहाँ वह उन्हें नहीं पाता, वहाँ भी अभ्यासवश उनका सृजन करने की ओर प्रेरित होता है। इन विशेषताओं के साथ ही, अन्य लोगों की तुलना में, उसमें एक अतिरिक्त विशेषता यह होती है कि वह अप्रस्तुत वस्तुओं से ऐसे प्रभावित होता है जैसे कि वे प्रस्तुत हों। उसमें अपने भीतर ऐसे भावों के उन्मेष की योग्यता होती है, जो यथार्थ घटनाओं से उत्पन्‍न भावों से पर्याप्‍त भिन्‍न होते हुए भी उनसे काफी मिलते-जुलते होते हैं… इन कारणों से, और साथ ही अभ्यासवश, वह अपने भीतर ऐसी शक्‍त‍ि और तत्परता विकसित कर लेता है कि वह जो कुछ सोचता और महसूस करता है, उसे बखूबी व्यक्त कर देता है…। (कवि के स्वरूप का निर्देश करने वाला यह अंश वर्ड्सवर्थ ने लिरिकल बैलेड्स के तृतीय संस्करण (1802) में जोड़ा था।)

उक्त उद्धरण के आधार पर हम कवि की कुछ ऐसी विशेषताओं को सहज ही पहचान सकते हैं, जो उसे अन्य मनुष्यों से अलग करती हैं। ये हैं –

  1. कवि अन्य लोगों की तुलना में अधिक संवेदनशील होता है;
  2. मानव-प्रकृति की उसकी जानकारी अधिक गम्भीर होती है और उसकी आत्मा अधिक विशाल होती है;
  3. अपने अन्तस में विद्यमान जीवन-रस में वह अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक आनन्द का अनुभव करता है;
  4. वह अप्रस्तुत वस्तुओं से ऐसे प्रभावित होता है जैसे कि वे प्रस्तुत हों; और
  5. उसका भाषा पर ऐसा अधिकार होता है कि वह जो कुछ सोचता और अनुभव करता है उसे बखूबी व्यक्त भी कर सकता है।वर्ड्सवर्थ ने बार-बार यह रेखांकित किया है कि कवि और अन्य मानवों में जो भेद है, वह प्रकार का नहीं है, मात्रा का है। ‘भाव और विचारकी दृष्टि से’ हम सभी संवेदनशील हैं। कवि जरा ज्यादा संवेदनशील होता है। वे किसी तात्कालिक बाह्य उत्तेजना के बिना ही अधिक शीघ्रतासे प्रभावित हो सकता है। साथ ही वह उन भावों और विचारों को ‘अधिक सशक्त रूप में’ व्यक्त भी कर सकता है। इसी तरह का अन्तरअन्य विशेषताओं के सन्दर्भ में भी समझना चाहिए।

यहाँ यह पूछना उचित होगा कि क्या वास्तव में ऐसा है? क्या उक्त अन्तर महज परिमाण का है? क्या दोनों के बीच कोई गुणात्मकअन्तर नहीं है? भाषा के टोन से तो ऐसा लगता है कि दोनों के बीच गुणात्मक अन्तर भी है। अन्यथा ‘आत्मा अधिक विशाल’ होने, ‘सृजनकरने की ओर प्रेरित’ होने, ‘अप्रस्तुत वस्तुओं से ऐसे प्रभावित’ होने, ‘जैसे की वे प्रस्तुत हों’, ‘यथार्थ घटनाओं से उत्पन्‍न भावों से पर्याप्‍तभिन्‍न होते हुए भी उनसे काफी मिलते-जुलते’ होने इत्यादि का क्या अर्थ रह जाता है? क्या यह गुणात्मक अन्तर नहीं है? वास्तव में जोअन्तर कल्पना और इन्द्रियबोध में है, वही कवि और साधारण जनों में। लेकिन नवीन लोकतान्त्रिक विचारों के दबाव की वजह से वर्ड्सवर्थ स्पष्टरूप से ऐसा कह नहीं पाते।

  1. वर्ड्सवर्थ उन लोगों से सहमत नहीं हैं ‘‘जो कविता को मनोरंजन और उत्साहहीन आनन्द का विषय समझते हैं, जो काव्याभिरुचि के बारे में ऐसे हल्केपन से बात करते हैं जैसे वह… नट के खेल-तमाशे की कला हो।’’ (इस उपमा का आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने आलोचना साहित्य में कई बार उल्लेख किया है।) वर्ड्सवर्थ का मानना है कि ‘‘कवि के भाव और विचार मानव के सामान्य भाव और विचार होते हैं।’’ अरस्तू के साक्ष्य पर उन्होंने यह मान्यता व्यक्त की है कि कविता मानव और प्रकृति का प्रतिबिम्ब होती है और उसमें ‘‘अन्य विषयों की अपेक्षा दार्शनिकता का गुण सबसे ज्यादा होता है। यह ठीक ही है। उसका लक्ष्य है सत्य; वैयक्‍त‍िक और स्थानीय सत्य नहीं, वरन् सामान्य और व्यवहारिक सत्य। वह किसी बाहरी साक्ष्य पर आधारित नहीं होता, वरन् भाव के माध्यम से सीधे हृदय में प्रवेश करता है।’’ वर्ड्सवर्थ चाहते हैं कि समस्त मानव-जाति भाईचारे की भावना में बँधकर नया जीवन बिताए ‘‘कवि समस्त देश-काल में फैली हुई मानव-जाति को संवेदना और ज्ञान द्वारा एकता के बन्धन में बाँधता है।’’ मानव-जाति पूरी दुनिया में फैली हुई है। समस्त देश-काल में उसका विस्तार है। पूरे संसार में फैली हुई इस मानव-जाति को एकता के बन्धन में बाँधने वाला कौन है? वर्ड्सवर्थ का उत्तर है कवि। और इस कार्य में इसके साधन कौन से है? संवदेना और ज्ञान। फ्रांसीसी क्रान्ति ने स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे का जो नारा दिया था, उसे हम इस तरह वर्ड्सवर्थ को अंग्रेजी कविता पर लागू करते हुए देखते हैं।

 

8. कविता और विज्ञान

 

‘‘कवि केवल कवियों के लिए ही नहीं लिखते, मानव-मात्र के लिए लिखते हैं।’’ (poets do not write for poets alone but for men) वर्ड्सवर्थ के अनुसार कविता का यह सार्वभौम आकर्षण ही वह तत्त्व है जो उसे विज्ञान से अलग करता है। कवि और वैज्ञानिक, दोनों का लक्ष्य ज्ञान है और दोनों का ही ज्ञान आनन्द रूप है। ‘‘किन्तु एक का ज्ञान जहाँ हमारे अस्तित्व का अनिवार्य अंग है और हमारी स्वाभाविक विरासत प्रतीत होता है, जिसे हमसे कोई छीन नहीं सकता, वहाँ दूसरे का ज्ञान वैयक्‍त‍िक उपलब्धि है।’’ सन् 1800 में इंग्लैण्ड में विज्ञान की जो हालत थी, उसे देखते हुए वर्ड्सवर्थ को उनकी इस मान्यता के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता। दुनिया में आज भी अनेक ऐसे देश हैं जिनमें विज्ञान का लाभ केवल सम्पत्तिशाली लोग ही उठा सकते हैं। वर्ड्सवर्थ सामान्य तौर पर विज्ञान के खिलाफ नहीं हैं। यदि वह वैयक्‍त‍िक लाभ की चीज न रहे और मानवता की सेवा करे तो वे उसके पक्षधर हैं। इसलिए उन्होंने लिखा, ‘‘कविता सम्पूर्ण ज्ञान का प्राण है, उसकी सूक्ष्म आत्मा है। वह ऐसी रागदीप्‍त अभिव्यक्‍त‍ि है, जो विज्ञान-मात्र की प्रेरक है।’’ यह विज्ञान मनुष्य को अन्ध-राष्ट्रीय अहंकार की शिक्षा नहीं देता। वह मानव-प्रेम का सन्देश देता है। शेक्सपियर ने जो कुछ मानव के बारे में कहा है, वही कवि के बारे में और भी दृढ़ता से कहा जा सकता है कि ‘वह पीछे भी देखता है और आगे भी।’ वह मानव-प्रकृति की रक्षा के लिए अजेय चट्टान की तरह है। वह मानव-स्वभाव का पोषक और रक्षक है। जहाँ-जहाँ वह जाता है, स्नेह-सम्बन्ध और प्रेम अपने साथ लेता जाता है। फिर यूरोप की तनावपूर्ण स्थिति की ओर सीधे संकेत करते हुए वर्ड्सवर्थ ने लिखा, ‘‘इस संसार में देश-काल और जलवायु, भाषा और आचार-विचार, कानून और रीति-रिवाज के अनन्त भेदों के बावजूद, साथ ही लोगों और वस्तुओं के भीषण विनाश के बावजूद, कवि समस्त देश-काल में फैली हुई मानव-जाति को, संवेदना और ज्ञान द्वारा, एकता के बन्धन में बाँधता है।’’ वर्ड्सवर्थ के युग में यदि मानव-जाति के विशाल साम्राज्य को संवेदना और ज्ञान द्वारा एकता के बन्धन में बाँधना जरूरी था, तो आज के युग में तो यह और भी ज्यादा जरूरी है।

  1. निष्कर्ष

कविता के महत्त्व को रेखांकित करते हुए वड्सर्वर्थ ने लिखा, ‘‘कविता सम्पूर्ण ज्ञान का आदि और अन्त है, वह मानव-मन के समान ही अमर है।’’ कविता सम्पूर्ण ज्ञान का आदि इसलिए है कि यह कल्पना की देन है। वैज्ञानिक भी पहले एक परिकल्पना (Hypothesis) करता है। यहीं वह कवि की तरह ज्ञान के आदि का दर्शन करता है। फिर प्रयोग और अनुभव से सत्यापन द्वारा उसे यह बोध होता है कि वह ज्ञान का अन्त है या नहीं। सत्य के सहज बोध के लिए एक महान वैज्ञानिक को कवि-हृदय होना चाहिए और एक महान कवि को वैज्ञानिक का सहज बन्धु। कारण, दोनों जिस सत्य का अनुसन्धान करते हैं, वह एक ही है। वर्ड्सवर्थ एक ऐसे युग की परिकल्पना करते हैं, जब विज्ञान सामान्यतः मानव-जीवन को प्रभावित करेगा और तब ज्ञान की इस शाखा के प्रति कवि की उदासीनता अक्षम्य होगी। वर्ड्सवर्थ के अनुसार गूढ़-से-गूढ़ वैज्ञानिक अनुसन्धान भी कविता के विषय हो सकते हैं, बस शर्त यही है कि वे अनुसन्धान जन-जीवन का अंग हों, उनके लाभ केवल अभिजात वर्ग तक सीमित न रहें। उक्त परिकल्पना में मानव-प्रगति के प्रति वर्ड्सवर्थ की अटूट आस्था व्यक्त हुई है।

 

अतिरिक्त जानें :

 

पुस्तकें

  1. A History of Modern Critisicim:1750-1950 by Rene Wellek, Jonathan Cape,London.
  2. The Poetical works of William Wordsworth, William Wordsworth, Ward Clock, London.
  3. William Wordsworth : A biography, Mary Moorman, Clarendon Press, London.
  4. William Wordsworth and the age of English Romanticism, Jonathan Wordsworth, Rutgers University Press, New Brunswick.
  5. The Prose Work of William Wordsworth, W.J.B. Owen, Clarendon Press, London.

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