28 रूपवाद

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. ऐतिहासिक विकास-क्रम

    3.1. पहला चरण : कलामूलक रूपवाद

3.2. दूसरा चरण : रूसी रूपवाद

3.3. तीसरा चरण : ब्रिटेन का कला या सौन्दर्यबोध

3.4. चौथा चरण : नई आलोचना

3.5. पाँचवाँ चरण : शिकागो स्कूल का रूपवाद अथवा नवअरस्तूवादी रूपवाद

3.6. छठा चरण : नवरूपवाद

5. रूपवादी सिद्धान्त : धारणाएँ एवं प्रवृत्तियाँ

6. निष्कर्ष

  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठके अध्ययन के उपरान्त आप–

  • रूपवाद की परिभाषा जानेंगे।
  • रूपवाद के विभिन्‍न रूपों के बारे में ज्ञान प्राप्‍त करेंगे।
  • रूसी रूपवाद, नई आलोचना तथा शिकागो स्कूल के ‘नवअरस्तूवाद’ से रूपवाद का सम्बन्ध जान सकेंगे।
  • रूपवाद की सीमाओं का ज्ञान प्राप्‍त कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

रूपवाद साहित्य को ‘भाषा में रचे गए पाठों’ की तरह विवेचनीय मानता है। अपने आरम्भिक रूप में इस सिद्धान्त का जोर इस बात पर था कि साहित्य के कृति-पाठ ‘अपने आप में’ अर्थपूर्ण होते हैं और उनकी भाषा के विवेचन को ‘परम्परा-सिद्ध’ या ‘परम्परा-लब्ध’ अर्थों की एक कड़ी की तरह ही नहीं देखा जाना चाहिए।

 

अंग्रेजी आलोचना में अरस्तू, होरेस, स्पेन्सर, जॉनसन और कॉलरिज आदि की मार्फत आलोचना की जिस मुख्यधारा का विकास हुआ था, उसमें ‘निरन्तरता और नवीनता’ के बीच के रिश्तों की बात ही मुख्यतः की जाती थी। इसका अर्थ यह है कि परम्परा से उपलब्ध साहित्य की निरन्तरता को कसौटी की तरह ग्रहणकर लिया जाता था। फिर समय के मुताबिक नवीनता के कम-ज्यादा होने की गुंजाइश का विवेचन प्रस्तुत कर लिया जाता था। रूपवाद के प्रकट होने से ठीक पहले स्वच्छन्दतावादी आलोचना प्रकट हुई थी। इस आलोचना में परम्परा की निरन्तरता के अतिक्रमण और कल्पना-प्रसूत नवीनता को ‘तुलनात्मक रूप में’ अधिक महत्त्व प्रदान करने का प्रयास हुआ था। इससे साहित्य की ‘साहित्यिकता’ का ‘अन्तःसन्तुलन’ बिगड़ गया था। ‘नवीनता’ की व्याख्या को ‘कल्पना पर आश्रित’ कर देने से ‘साहित्यिकता’ के स्वरूप के अमूर्त्त हो जाने का खतरा पैदा हो गया था।

 

एक साहित्यिक एवं आलोचनात्मक विवेक के रूप में निरन्तरतावाद और नवीनतावाद दोनों को चुनौती देने वाली दृष्टि की तरह रूपवाद सामने आता है। वह न परम्परा-सिद्ध अर्थवत्ता में आस्था रखता है, न परम्परा-अतिक्रमी कल्पनावादी नवीनता में; वह एक तीसरा रास्ता खोजता है कि साहित्य दरअसल उपलब्ध भाषापाठगत नया संसार रचने का प्रयास होता है। सामान्य-भाषा से उसका ‘थोड़ा अलग’ होना ही उसकी ‘साहित्यिकता’ की कुंजी होती है।

 

इस तरह रूपवाद साहित्य की कृतियों के अलग तरह के भाषा-पाठों का रूपगत अध्ययन है, जहाँ कृति का अर्थ या उसकी अन्तर्वस्तु उसी रूप की अन्तर्वस्तु होती है। कृति का अर्थ निर्धारित परम्परा सिद्ध निरन्तरता या कल्पनाप्रसूत नवीनता से नहीं होता।

  1. ऐतिहासिक विकास-क्रम

 

3.1. पहला चरण : कलामूलक रूपवाद

 

कला-सम्प्रदाय के रूप में रूपवाद का प्रारम्भिक उभार मुख्यतः सन् 1890 से 1910 के बीच माना जाता है। कला के रूपवादी आलोचक यह धारणा प्रस्तुत करते थे कि कला मूलतः एक दृश्य-बिम्बात्मक रचना होती है। इस रचना का प्रभाव या अर्थ कलाकृति के अपने अन्तः संसार से सम्बन्ध रखता है। कलाकृति का अन्तः-संसार है, वह रेखाओं, रंगों, अनुपातों, घनत्वों व सन्तुलनों द्वारा सभी घटकों साथ रिश्तों से निर्मित होता है। कृतियों का विवेचन अन्य कृतियों से तुलना पर आधारित नहीं होती। कलामूलक रूपवाद द्वारा बनाई गई उक्त भूमिका को समझे बिना साहित्य और आलोचना के क्षेत्र में उभरे रूपवाद के विविध रूपों के वास्तविक प्रयोजनों को समझना कठिन है, यहाँ कलामूलक रूपवाद द्वारा रेखांकित किए गए, कुछ प्रयोजन इस प्रकार हैं–

  1. रूपवाद, विक्टोरियन आभिजात्यवाद और उससे आरोपित नैतिकवाद के विरुद्ध, कला के ‘वास्तविक अन्तर्गत’ की अर्थवत्ता को अभिव्यक्ति देता है।
  2. रूपवाद, स्वत:स्फूर्त्त भावाभिव्यक्ति वाला स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन न होकर, दृश्य-जगत के ‘वैज्ञानिक तौर पर पैमाईश हो सकने वाले’ रूपों को रचना-संसार के ‘भीतर’ के अर्थ-सामर्थ्य की तलाश करता है।
  3. रूपवाद प्रस्तावित करता है कि कला-कृति का दृश्य-बिम्बात्मक ‘रूप’ ही उसकी ‘अन्तर्वस्तु’ का पर्याय हो जाता है। अर्थात् रूपवाद एक तरफ विक्टोरियन आभिजात्यवाद का विरोधी है, तो दूसरी तरफ स्वच्छन्दतावाद का भी विरोधी है।

 

3. 2 दूसरा चरण : रूसी रूपवाद

 

रूस की समाजवादी क्रान्ति से ठीक पहले सन् 1914-1915 में मास्को/सेण्ट पीटर्सबर्ग ऐसे आलोचकों का केन्द्र बना गया, जो साहित्य के एक ‘कला-रूप’ के रूप में देख रहे थे और साहित्य को साहित्यिक कृतियों की ‘आन्तरिक  गुणवत्ता या साहित्यिकता’ के आधार पर व्याख्यायित करने का प्रयास कर रहे थे। साहित्य की आलोचना इससे पूर्व सामाजिक यथार्थ, सास्कृतिक सरोकार, दार्शनिक अन्तर्भूमि एवं लेखकीय दृष्टि के आधार पर की जाती थी। ये आलोचक साहित्य को ‘साहित्य के आधार’ पर ही समझना चाहते थे, न कि सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और जीवनीपरक आधारों की सहायता से।

 

सन् 1910 से 1920 तक रूसी रूपवाद का केन्द्र मास्को ही रहा, जिसे ‘ओपयाज’ ने सूत्रबद्ध किया था। इसके बाद वह रोमन याकोब्सन के रूस छोड़ देने के उपरान्त प्राग में, तथा फिर अमेरिका में न्यूयार्क के साहित्य-संसार तक केन्द्रित हो गया। श्लोव्स्की का सिद्धान्त था कि ‘कला एक उपकरण है।’ तिन्यानोव का सिद्धान्त हुआ कि ‘कला उपकरणों की द्वन्द्वात्मक व्यवस्था है।’ इन दोनों के सिद्धान्त तक रूसी रूपवाद का सफर भविष्य के लिए समस्यापूर्ण बना रहा। प्रॉप ने अपने जैविक आधार से साहित्य को ‘कृतियों के भीतर के जीवन व समाज’ से जोड़ दिया था। सस्यूर ने आधुनिक भाषाविज्ञान की मदद से साहित्य के ‘रूपक्रमी’ मॉडल को, ‘पाठ के भीतर के कालक्रमिक या ऐतिहासिक पहलू से जोड़ा’। वे भाषा के उस ‘काव्यगत प्रयोजन’ को व्याख्यायित करने तक आ गए, जो ‘भाषिक आधार पर भावोद्बोधक’ हो सकता है। इसे हम रूसी रूपवाद को पढ़ते हुए जान सकते हैं।

 

3.3 तीसरा चरण : ब्रिटेन का कलाबोध या सौन्दर्यबोध

 

उन्नीसवीं सदी के अवसान के आसपास इंग्लैण्ड में ‘कला कला के लिए’ की धारणा से जुड़ा हुआ एक साहित्यिक-आलोचनात्मक आन्दोलन चला, जो थोड़े समय के लिए अपनी चमक दिखा कर विदा हो गया। इसे रूपवादी चिन्तन-परम्परा से सम्बद्ध विचारधारा के पूर्व रूप की तरह देखा जा सकता है। इस अलग तरह के रूपवाद की भूमिका बनाने वाले मुख्य आलोचक-साहित्यकार थे – वाल्टर पेटर और ऑस्कर वाइल्ड।

 

आरम्भिक कलावादियों ने कला में नैतिकता और अनैतिकता पर बहुत बहस की। आस्कर वाइल्ड, जे.ई. स्पिनगार्न और वाल्टर पेटर ने स्थापित किया कि कला सौन्दर्य की अभिव्यक्ति करती है। वह नैतिक या अनैतिक नहीं होती। आस्कर वाइल्ड ने कहा कि “समालोचना में सबसे पहली बात यह है कि समालोचक में यह परख हो कि कला और आचार के क्षेत्र पृथक-पृथक हैं।” (भारतीय और पाश्‍चात्य काव्य सिद्धान्त, पृ. 51 पर उद्घृत, गणपति चन्द्र गुप्‍त, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली) जे.ई. स्पिनगार्न ने कहा कि “शुद्ध काव्य के भीतर सदाचार या दुराचार ढूँढना ऐसा ही है जैसा कि रेखागणित के समत्रिकोण त्रिभुज को सदाचारपूर्ण कहना और समद्विबाहु त्रिभुज को दुराचारपूर्ण।” (भारतीय और पाश्‍चात्य काव्य सिद्धान्त, पृ. 5)

 

प्रश्‍न उठा कि कला कला के लिए है या कला जीवन के लिए है। यदि कला जीवन के लिए है तो कला को जीवन में नैतिकता का प्रचार करना चाहिए और यदि कला कला के लिए है तो उसमें जीवनगत नैतिकता खोजना अर्थहीन है। कला कला के लिए सिद्धान्त के समर्थक चिन्तक रूपवाद के समर्थकों की श्रेणी में आते हैं।

 

3.4 चौथा चरण : नई आलोचना

 

सन् 1930 से 1950 के बीच, रूसी रूपवाद द्वारा बनाई गई चिन्तन-भूमि का विस्तार, यूरोप व अमेरिका में ‘नयी आलोचना’ के रूप में हुआ। कृति के भीतर की दुनिया में अर्थ की तलाश करते हुए, समाज और संस्कृति की चेतनामूलक संरचनाओं की नई आलोचना अनदेखी करती है। उन संरचनाओं का सम्बन्ध कृति के ‘भीतर’ की दुनिया से ही था, पर वे ‘बाहर’ के समाजिक-सांस्कृतिक यथार्थ से अछूते नहीं थे। नए आलोचक बाहरी यथार्थ को कृति की व्याख्या की कसौटी नहीं बनाते थे। परन्तु उनके विवेचन का एक पहलू ‘पाठक-आलोचक’ की चेतना के उस संसार की मौजूदगी को स्वीकार करता था – जिसका निर्माण बाहरी यथार्थ करता था; परन्तु जो कृति-पाठ की प्रक्रिया में कृति के अर्थों में भी कहीं न कहीं शामिल हो ही जाता था। इस आधार पर हम यह भी देख सकते हैं कि ‘नई आलोचना’, रूसी रूपवाद और संरचनावाद के बीच एक ‘परोक्ष’ या अन्तरंग पुल बना है। रूपवादी और नए आलोचक कृति-पाठ को ही एकमात्र विवेचना-भूमि की तरह देखते हैं।

 

3.5 .पाँचवाँ चरण : शिकागो स्कूल का रूपवाद अथवा नवअरस्तूवादी रूपवाद

 

सन् 1950 के आसपास ‘नई आलोचना’ का लगभग अवसान हो गया है। उसकी जगह नई पद्धतियाँ उभर कर आईं। नई समीक्षा के विरोध में शिकागो स्कूल का उदय हुआ। शिकागो स्कूल का प्रारम्भ सन् 1930 के आस-पास हुआ और सन् 1950 तक रहा। इसे कुछ लोग नवअरस्तूवादी आलोचना भी कहते हैं। ये लोग अरस्तू के कथानक, चरित्र और विधा की धारणा को महत्त्व देते हैं और शास्‍त्रीय मान्यताओं पर अत्यधिक बल देते हैं। अरस्तू के काव्यशास्‍त्र में साहित्य के घटकों के रूप में पात्र, कथानक, भाषा, उद्देश्य आदि की चर्चा हुई थी, जिन्हें ‘कथानक की पूर्णता’ का आधार माना गया था। नवअरस्तूवादी मानते हैं कि कृतिपाठों के घटक, कृति में समग्रता का बोध अपने ‘प्रयोजनवादी उद्देश्यों की पूर्ति’ करते हुए उत्पन्‍न करते हैं। अरस्तू का ‘अनुकरण सिद्धान्त’ शक्ल बदल कर शब्दों-बिम्बों आदि घटकों का समग्रताधर्मी प्रयोजन बन जाता है। अर्थात् कृति बाहरी यथार्थ के अनुकरण से अपना अर्थ नहीं पाती, अपितु अपने पाठ के भीतर की व्यवस्था की अन्तःसमग्रता का अनुकरण करती हुई श्रेष्ठ साहित्यिक कृति का रूप लेती है।

 

इस नवअरस्तूवादी सिद्धान्त के प्रमुख प्रस्तोता हैं – (1) एल्डर ओल्सन, (2) नॉमर्न मैक्लीन, (3) डब्ल्यू.आर. कीस्ट व            (4) वेन सी. वूथ।

 

3.6 छठा चरण : नवरूपवाद

 

डायना जियोना ने सन् 1987 में ‘नवरूपवाद’ को ‘रूपवाद की वापसी’ के रूप में चिह्नित करने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने निम्‍न कारण बताए :

  1. समकालीन काव्यभाषा रूढ़, विकृत और बौद्धिक होकर काव्यमयता खो रही है।
  2. कविता में अति-शब्दमयता से काव्य-लय और गेय-तत्त्व नष्ट हो गए है।
  3. कथातत्त्व के सौन्दर्यशास्‍त्र का काव्य में इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है।

सन् 1995 में ‘न्यूयार्क पोस्ट’ में छपी एक रपट ने इस ‘नवरूपवाद’ की विधिवत वापसी पर मोहर लगाई, जो काव्य में छन्द, गेयता, संगीत, लय, भाव-प्रवाह आदि ‘रूपवादी’ घटकों को काव्य के स्वरूप की व्याख्या के हेतु के रूप में पुनः प्रस्तुत करता है। नवरूपवादी आलोचना में इससे पूर्व की ‘नई आलोचना’ और ‘नवअरस्तूवादी आलोचना’ से सम्बद्ध अनेक आलोचक-कवियों की ‘लयधर्मी कविताओं’ को अपने पुनर्मूल्यांकन का आधार बनाया।

  1. रूपवादी सिद्धान्त : धारणाएँ एवं प्रवृत्तियाँ

रूपवाद का सम्बन्ध साहित्यिक कृतियों को एक ‘भाषा पाठ’ के रूप में ग्रहण करते हुए, उनकी ‘साहित्यिकता’ को पहचानने और विवेचित करने के साथ है। भाषा-पाठ केन्द्रित अध्ययन होने से इसमें साहित्यिकता का अर्थ, भाषा-पाठीय ‘कला’ और उसकी ‘भीतरी दुनिया की पाठ-स्वायत अन्तर्वस्तु’ का विवेचन करना होता है। बाहरी दुनिया और उसके यथार्थ से सम्बद्ध ‘संरचनाएँ’, रूपवाद में ‘पाठ-स्वायत्त संसार की अन्तःसंरचनाओं’ की तरह ही व्याख्यायित होती है। रूपवाद की आधार-धारणाएँ इस प्रकार हैं –

  1. साहित्यिक कृतियों के भाषा-पाठ ही, ‘गहरे में’ अन्तर्वस्तु होती है। अर्थात् अन्ततः ‘रूप’ ही कृति का ‘अर्थ’ होता है।
  2. साहित्यिक कृतियों के भाषा-पाठ, भाषा में निर्मित ‘कला-वस्तुओं’ जैसे होते है। अतः वहाँ कला-कृति की तरह सभी घटक एक-दूसरे से रिश्ता बनाते हैं और कुछ भी व्यर्थ नहीं होता।
  3. भाषा-पाठीय अर्थ साहित्य में कृतियों के घटकों के आपसी-रिश्तों से प्रकट होते हैं। शब्दों के ‘अपने अर्थ’ वहाँ ‘वाक्य’ व ‘समग्र पाठ’ से बनने वाले रिश्तों के आधार पर नए व अलग हो जाते हैं। शब्दों के अर्थों के आधार है – सन्दर्भ, प्रयोग-रूप, प्रयोजन, अन्य शब्दों से सम्बन्ध, पाठ-समग्र से सम्बन्ध।
  4. ‘लेखक ने क्या कहा या क्या कहना चाहा?’ – इससे ज्यादा अर्थपूर्ण बात है कि ‘कृति अपनी समग्रता में क्या कहती है’ और ‘उसे कितने लोग किन रूपों में समझते हैं?’
  5. पाठकीय अर्थों की भिन्‍नता के बावजूद, कृति का मूल-पाठ ही कसौटी होता है, जो तय करती है कि खोजा गया अर्थ उसके ‘भीतरी स्रोतों’ से उपजा है या नहीं? ‘बाहरी अर्थों के आरोपित पाठकीय अर्थों का परित्याग’ करना होता है तथा कृति-पाठ की नई व्याख्याओं को उसकी ‘भाषा-पाठीय’ अन्तःसामर्थ्य की तरह देखना होता है। जो समय के साथ उद्घाटित होता है।

 

रूपवादी अध्ययन, साहित्यिक कृतिगत भाषा-पाठों को निम्‍न घटकों-स्तरों-आयामों में विवेचनीय मानते हैं-

 

(i) विधागत अध्ययन

(ii) पद्धति, शैली एवं रचना-प्रक्रिया गत अध्ययन।

(iii) रूपगत प्रवृत्तियों व विशेषताओं का अध्ययन।

(iv) काव्यभाषागत अथवा साहित्यभाषागत अध्ययन।

  1. निष्कर्ष

रूपवाद बीसवीं सदी में ही अपने आलोचना सिद्धान्त का विकास कर पाया, परन्तु इसके स्रोतों के रूप में जहाँ एक ओर अरस्तू का काव्यशास्‍त्र है, वहीं दूसरी ओर ‘कला कला के लिए’ की घोषणा करने वाले कला-आन्दोलन। हालाँकि रूपवाद अपने इन दोनों स्रोतों से अलग शक्ल में विकसित हुआ है, परन्तु इसके कुछ समसामयिक रूप नवअरस्तूवादी व नवरूपवादी शक्ल लेकर स्रोतों में एक अलग तरह की वापसी करने का प्रयास करते हैं।

 

रूपवादी अध्ययन अपनी व्याख्याओं के लिए आधुनिक भाषाविज्ञान की संरचनात्मक पद्धतियों का इस्तेमाल करता है। अतः बहुत से आलोचक उसे संरचनाओं के बहुत निकट मानते हैं। तथापि यथार्थ की बाहरी संरचनाओं को अपना ‘आधार’ बनाने से इनकार करने की वजह से रूपवाद, संरचनावाद से बहुत अलग हो जाता है। वह प्रकट होने के बाद से अनेक उतार-चढ़ावों का साक्षी रहा है, तथापि इसने बार-बार रूप बदल-बदल कर वापसी भी की है। इससे उसका महत्त्व प्रमाणित होता है।

 

रूपवाद की प्राथमिक स्थापना यह है कि रचना को रचना के भीतर से देखना चाहिए। रूपवाद एक साहित्यिक या कलात्मक आन्दोलन नहीं है, वरन् साहित्य सिद्धान्तों की एक शाखा है, जो यह मानकर चलती है कि विशेष पाठ का संरचनात्मक अध्ययन होना चाहिए और ऐसा करते हुए उस पाठ पर किसी बाहरी प्रभाव को नहीं देखना चाहिए। रूपवादी दृष्टि समाज का, संस्कृति का या पाठ के लेखक का, वातावरण का कुछ प्रभाव पड़ता है, इसे नहीं देखती। वह सिर्फ रचना की विधि, विधा और रूप का अध्ययन करता है। हालाँकि रूपवाद सिर्फ पाठ का व्याकरणिक अध्ययन मात्र नहीं है।

 

वह कला वस्तु के स्वरूप पर अपनी दृष्टि केन्द्रित करता है। किसी कृति के सृजन में लेखक का क्या प्रयोजन था, उस समय लेखक की क्या मानसिकता थी, वह अकेला था, बीमार था या ख़ुश था, लोगों से घिरा हुआ था- इन सब बातों का पाठ से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इसे रूपवादी आलोचक अभिप्रायपरक हेत्वाभास कहते हैं। लेखक क्या कहना चाहता था? इससे आलोचना को कुछ लेना देना नहीं। एक तो इस बात का पता लगाना ही मुश्किल होता है कि लेखक ने क्या कहना चाहा होगा? यदि पता भी चल जाए तो वह महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि कृति क्या कहती है? पाठ जैसा निर्मित हो गया है, वह महत्त्वपूर्ण है। अतः लेखक का मनोविज्ञान हमारी कोई सहायता नहीं करता। दूसरे लेखक के अभिप्राय का अध्ययन पाठ का अध्ययन नहीं है। वह पाठ से इतर है। वह रचना पर की गई बात भी नहीं है।

 

इसी तरह पाठ का क्या प्रभाव पड़ता है? लेखक क्या प्रभाव डालना चाहता है? वह प्रगति के पक्ष में हो सकता है या नहीं भी हो सकता है। सम्भव है कृति एक समय में एक प्रभाव डाले दूसरे समय में दूसरा प्रभाव डाले। यह रचना का सामाजिक या सांस्कृतिक अध्ययन है। साहित्यिक अध्ययन नहीं है। यह प्रभावपरक हेत्वाभास है। अतः अभिप्राय और प्रभाव से निरपेक्ष पाठ का अध्ययन रूपवाद की मूल स्थापना है।

 

रूपवादियों का आरोप है कि आलोचक के पास जब कोई पाठ आता है, तो वह उस पाठ पर कम और उसकी पृष्ठभूमि पर अधिक ध्यान देता है। आकाशदीप  कहानी पढने के बाद आलोचक यह जानने लग जाता है कि प्रसाद ने यह कहानी क्यों लिखी? वे क्या कहना चाहते थे? क्या प्रसाद ने किसी से प्रेम किया था? कि उन्होंने आकाशदीप  की चम्पा की सृष्टि कर डाली? अब इन प्रश्नों की ख़ोज में वह प्रसाद की जीवनी टटोलने लगता है। उनके निजी पत्रों को पढ़ता है। कहीं मिल जाए, तो वह डायरी पढ़ता है। प्रसाद के मित्रों के संस्मरण इकठ्ठा करता है। इस सब प्रक्रिया में आकाशदीप  छूट जाती है। जब वह गोदान पढ़ता है तो स्वाधीनता आन्दोलन पर उसकी दृष्टि चली जाती है। इस प्रश्‍न पर दृष्टि जाती है कि गोदान के अनुसार भविष्य का समाज कैसा होगा? क्या वैसा समाज हमारा हो गया। इन समाजशास्‍त्रीय, ऐतिहासिक प्रश्‍नों पर चर्चा करने लगता है। ये टिप्पणियाँ ‘कला वस्तु’ पर नहीं है। ये रचना से बाहर की टिप्पणियाँ हैं, इसलिए इन पर की गई आलोचना साहित्यिक आलोचना नहीं है। अतः रूपवादियों का कहना है कि आप रचना के भीतर रहें। पाठ अपने आप में पूर्ण है। उसका अर्थ उसके भीतर है। नाटक के मंचन का उदाहरण देते हुए ऐसे आलोचक कहते हैं कि नाटक के प्रदर्शन के दौरान बाहर भीड़ पर लाठीचार्ज हो गया है या आँधी-तूफ़ान आ गया है। हवा बहुत तेज चल रही है या हड़ताल के कारण यातायात बाधित हो गया है। दर्शकों को रंगमंच तक पहुँचने में दिक्‍कत हो रही है। इन सब बातों का नाटक की कलावस्तु से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए इन ‘कृति बाह्य’ चीजों को रूपवादी आलोचक महत्त्व नहीं देते।

 

उनके अनुसार कविता ‘शब्द–संरचना’ है, भाव–संरचना नहीं है। भाव शब्द में निहित है। शब्द से बाहर नहीं है। कृति की व्याख्या सन्दर्भ सहित होती रही है। रिचर्ड्स ने कहा है कि सन्दर्भ अर्थ का बाहर से आरोपण है। अर्थ की खोज पाठ के भीतर से होनी चाहिए। सन्दर्भ में पाठ का अर्थ नहीं है।

 

इसी तरह रूपवादी यह मानते हैं कि समाज में, कविता में, ज्ञान-विज्ञान में मानवजीवन की सारी सच्‍चाइयाँ अभिव्यक्त हो चुकी हैं। आप वस्तु तत्त्व के रूप में नया कुछ नहीं कह सकते। दो लेखक एक ही बात कहते हैं, परन्तु दोनों के कहने का तरीका अलग है। यह तरीका ही कला है। यही रूप है। अतः इसका अध्ययन होना चाहिए। उदाहरण के लिए ग़ालिब और प्रसाद की पंक्तियों को लिया जा सकता है। ग़ालिब कहते हैं-

 

उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक

वह समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।

प्रसाद कामायनी में लिखते हैं-

कौन हो तुम बसन्त के दूत विरस पतझड़ में अति सुकुमार!

घन-तिमिर में चपला की रेख, तपन में शीतल मन्द बयार।

नखत की आशा-किरण समान, हृदय के कोमल कवि की कान्त

कल्पना की लघु लहरी दिव्य, कर रही मानस-हलचल शान्त।

 

दोनों कवि क्या कहते हैं? यदि इनका सार-संक्षेप करना हो, अर्थ निकालना हो तो वे यही कह रहे हैं कि प्रिय का आना, अच्छा लगा। ग़ालिब ने बीमारी का प्रकरण चुना। बीमार प्रिय को देखने के लिए प्रेमिका आई है। उसके आने से बीमार के चेहरे पर रौनक आ गई, जो स्वाभाविक है। रौनक देखकर आने वाले को लगा कि बीमार का हाल अच्छा है। प्रेमी भी खुश और प्रेमिका भी खुश। बीमार की पीड़ा तो जो है सो है।

 

कामायनी में श्रद्धा मनु को देखती है और देखकर मुग्ध हो जाती है- प्रथम दृष्टि से उत्पन्‍न प्रेम। सारी उपमा, उत्प्रेक्षाओं के बावजूद कविता बस यही तो कहती है कि आपको देखना अच्छा लगा। अब कविता की दृष्टि से तो सारी बातों का सार-संक्षेप एक ही है। ग़ालिब का अन्दाज़ अलग है और प्रसाद का अलग। ये जो दोनों का अलग-अलग अन्दाज़ है, रूपवादियों के अनुसार यही कला है और यही रचना का रूप है। रूपवाद इसके अध्ययन पर बल देता है।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. Russian Formalism, Victor Erlich, Mauton, New York.
  2. Theory of Literature, Paul H. Fry, Yale University Press, New Haven.
  3. The English Literature Companion, Julian Wolfreys, Palgrave Macmillan, New York.
  4. Russian Formalist Criticism : Four Essays, Edited by Lee T. Lemon, University of Nebraska Press, Lincoln.
  5. Russian Formalism : History-Doctrine, Vicktor Erlich, Yale University Press, New Haven.
  6. A History Of Modern Criticism:1750-1950,Rane Wellek,Jonathan Cape ltd,London
  7. Literary criticism a short history,William k.wimsatt,JR.& Cleanth Brooks , oxford,New Delhi

 

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