20 रिचर्ड्स का सम्प्रेषण सिद्धान्त

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. सम्प्रेषण के लिए आवश्यक तत्त्व
  4. सम्प्रेषण का अर्थ और स्वरूप
  5. सम्प्रेषण की प्रविधि
  6. सम्प्रेषण के लिए कलाकार अपेक्षित योग्यताएँ
  7. कलाकार की मान्यता का सिद्धान्त
  8. सम्प्रेषण की सीमाएँ
  9. निष्कर्ष

 

  1.  पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • सम्प्रेषण की परिभाषा जान सकेंगे।
  • सम्प्रेषण के लिए आवश्यक तत्त्व की जानकारी ले सकेंगे।
  • सम्प्रेषण की प्रविधि के बारे में जान सकेंगे।
  • सम्प्रेषण के लिए रचनाकार की अपेक्षित योग्यताएँ जान पाएँगे।
  • कलाकार की समानता का सिद्धान्त जान सकेंगे।
  • सम्प्रेषण की सीमाएँ जान सकेंगे।

 

2. प्रस्तावना

 

जब किसी वातावरण विशेष से एक व्यक्ति का मस्तिष्क प्रभावित होता है और दूसरा उस व्यक्ति की क्रिया के प्रभाव से ऐसी अनुभूति प्राप्‍त करता है, जो पहले व्यक्ति की अनुभूति के समान होती है, तो इसे प्रेषणीयता कहते हैं। मानना चाहिए कि किसी एक की अनुभूति को दूसरे तक पहुँचाने को ही काव्यशास्‍त्र में सम्प्रेषण का सिद्धान्त कहा जाता है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादक आइ.ए. रिचर्ड्स माने जाते हैं। कलाकार अपनी कलाओं के माध्यम से अपनी अनुभूतियों को दूसरों तक पहुँचाने का प्रयास करता है। सम्प्रेषण की क्षमता सभी में एक जैसी नहीं होती। जिस कलाकार की सम्प्रेषण क्षमता जितनी अधिक होती है, वह उतना ही सफल माना जाता है। रिचर्ड्स ने अपनी पुस्तक प्रिंसिपल ऑफ लिटेरेरी क्रिटिसिज्म  के चौथे और इक्कीसवें अध्याय में क्रमश: कम्युनिकेशन एण्ड द आटिर्स्ट  और ए थियोरी ऑफ कम्युनिकेशन  उपशीर्षकों के तहत अपनी सम्प्रेषण सम्बन्धी अवधारणा के मूलभूत विचार दर्ज किए हैं।

 

3. सम्प्रेषण के लिए आवश्यक तत्त्व

 

सम्प्रेषणीयता को प्रभावी बनाने के लिए जिन बातों की जरूरत होती है वे हैं –

  • कवि या कलाकार की अनुभूति व्यापक, विस्तृत और प्रभावकारी होनी चाहिए।
  • अनुभूति के क्षणों में आवेगों का व्यवस्थित ढंग से सन्तुलन होना चाहिए।
  • वस्तु या स्थिति के पूर्ण बोध के लिए कलाकार या कवि में जागरूक निरीक्षण-शक्ति होनी चाहिए।
  • कलाकार और प्रेक्षक के अनुभवों में तालमेल होना चाहिए। दोनों में अन्तर हो, तो कल्पना की सहायता से उन्हें सम्प्रेषणीय बनाना चाहिए।
  • सम्प्रेषण के लिए आवश्यक प्रतिक्रियाओं में तीन बातों की आवश्यकता होती है-
  • क. वे एक-सी हों।
  • ख. वे विविध हों।
  • ग. उत्तेजनाओं से प्रेरित होने वाली हों।

 

4. सम्प्रेषण का अर्थ और स्वरूप

 

रिचर्ड्स के अनुसार सम्प्रेषण कला का तात्त्विक धर्म है। कलाकार का अनुभव विशिष्ट और नव्य होने के कारण, उसकी सम्प्रेषणीयता, समाज के लिए मूल्यवान है। सम्प्रेषण से अभिप्राय एकात्म, एकस्व, अद्वितीय, एकमेक होना नहीं बल्कि एकसार होना, सदृश होना, सम्भाव्य होना, एकसूत्र होना, एकमत होना, एकरूप, एकतान होना इत्यादि है।

 

रिचर्ड्स के सम्प्रेषण सिद्धान्त के सारे समीकरण एक सत्तावाद व एकत्ववाद या अद्वैतभाव के विभ्रमों में नहीं बल्कि एकस्वरता, सहमति, एकरूपता, एकसूत्रता, एकीकृत, एकतानता, आदि के आलोक में ही सार्थक ढंग से खुलते हैं। सम्प्रेषण के विश्‍लेषण के उपक्रम में रिचर्ड्स मन की अलग–अलग सत्ता को आधारभूत तथ्य मानकर चलते हैं। उनका कहना है कि मन तो अलग–अलग है ही, दो मन (कवि और पाठक) की अनुभूतियाँ भी पृथक हैं। सम्प्रेषण की प्रक्रिया वहाँ घटित होती है जहाँ अलग–अलग व्यक्तियों की अनुभूतियों में प्राय: समानता हो। सम्प्रेषण तब घटित होता है जब एक मन अपने परिवेश के प्रति इस प्रकार से प्रतिक्रिया व्यक्त करता है कि दूसरा मन उससे प्रभावित हो जाता है और उस दूसरे मन में ऐसी अनुभूति उत्पन्‍न होती है, जो प्रथम मन की अनुभूति के समान और अंशत: उसके कारण उत्पन्‍न होती है। रिचर्ड्स के सम्प्रेषण सिद्धान्त का नाभिकीय वक्तव्य उक्त पंक्तियों में निहित है।

 

सम्प्रेषण के अर्थ और स्वरूप के बारे में रिचर्ड्स ने अपनी मूल स्थापनाओं को प्रिंसिपल ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज्म’ में रखने का प्रयास किया है। अन्य पुस्तकों Meaning of Meaning, Practical Criticism, The Foundation of Aesthetics इत्यादि में भी रिचर्ड्स ने सम्प्रेषण के बारे में अनेक महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ दर्ज की हैं। रिचर्ड्स के सम्प्रेषण–विश्‍लेषण का अभीष्ट सम्प्रेषण का अर्थ–द्योतन नहीं, बल्कि सम्प्रेषण के तात्पर्य’ के अन्वेषण से है। दूसरे, रिचर्ड्स ने ‘सम्प्रेषण’ को अलौकिक, अनिर्वचनीय, रहस्यमूलक और र्दुबोध्यता के घेरे से बाहर निकालकर उसके बारे में एक बोधगम्य और व्यवहारिक व्याख्या–पद्धति के निर्माण का प्रयत्न किया है। रिचर्ड्स की व्याख्या पद्धति स्पष्ट, विवेकी, स्वीकार्य और व्यवहारिक है। सबसे पहले तो उन्होंने उन रहस्यमूलक और अविवेकी विभ्रमों के निराकरण का प्रयास किया है, जो समीक्षा की दुनिया में प्रवादित रहे हैं।

 

उनका कहना है कि समीक्षा में कुछ अन्य विषयों की तरह, सम्प्रेषण–व्यापार पर भी रहस्यमय ढंग से सोचा गया है। संक्षेप में रिचर्ड्स ने तीन प्रकार के विभ्रमों का उल्लेख किया है –

  • कुछ लोग सम्प्रेषण का अर्थ अनुभूतियों का वास्तविक स्थानान्तरण या संक्रमण समझते हैं। जैसे किसी व्यक्ति की जेब का सिक्का, दूसरे व्यक्ति की जेब में चला जाता है। रिचर्ड्स को अनुभवों के प्रत्यक्ष स्थानान्तरण की यह अवधारणा किसी भी स्तर पर मान्य नहीं है। रिचर्ड्स ने अन्यत्र स्पष्ट कहा है कि ऐसा कुछ भी नहीं होता।
  • दूसरा विभ्रम रिचर्ड्स के अनुसार विलियम ब्लेक जैसे रहस्यवादियों का है। इस रहस्यपरक व्याख्या पद्धति के अनुसार, अनिर्वचनीय शक्ति या सत्ता के रूप में एक ही मन:स्थिति, कभी एक मन को, कभी दूसरे मन को तो कभी एक ही साथ अनेक मनों को व्याप्‍त कर लेती है।
  • कुछ अन्य लोगों के अनुसार, सम्प्रेषण का आधार मन की व्यापक सत्ता है, मनुष्य के मन का क्षेत्र इतना विस्तृत (घेरनेवाला) है कि एक मन का अंश दूसरे तक पहुँचकर उसका अंग बन जाता है। इस तरह मन का मन में परकाया प्रवेश होता है। अर्थात एक ही मन की सत्तामूलकता के विविध पक्ष अलग-अलग रूपों में प्रतिभासित होते हैं।

उक्त व्याख्या-पद्धति को रिचर्ड्स सिरे से नकारते हैं और उन्हें अतिप्राकृत, अनुभवातीत, अवैज्ञानिक या अनभिज्ञेय कहते हैं। उनका स्पष्ट अभिमत है कि वैज्ञानिक व्याख्या-पद्धति के निर्माण में उपर्युक्त अवधारणा का कोई स्थान नहीं है।

 

5. सम्प्रेषण की प्रविधि

 

सम्प्रेषण की प्रविधि के बारे में रिचर्ड्स के संश्‍लेषण के सूत्र स्पष्ट हैं और रिचर्ड्स ने इसे सिद्ध करने के लिए ‘एक स्थिति’ का रूपक प्रस्तुत किया है। उस ‘स्थिति की व्याख्या’ में जाने से पहले, यह समीचीन प्रतीत होता है कि हम रिचर्ड्स के संश्‍लेषण के प्रवेश–बिन्दु को ठीक-ठीक समझ लें। सम्प्रेषण एक जटिल प्रक्रिया है और कम-से-कम दो दृष्टियों से इसकी अलग–अलग कोटियाँ बनाई जा सकती हैं :

 

(क) एक स्थिति वह है जिसमें दो अनुभूतियाँ कम या अधिक, एक-दूसरे के समान हो

(ख) दूसरी वह है जिसमें दूसरी अनुभूति (ग्राही या पाठक की), कम या अधिक, पहले की अनुभूति (कवि की) पर आधारित हो।

 

इन स्थितियों को समझाते हुए रिचर्ड्स ने एक रूपक का प्रस्ताव दिया है – मान लें कि ‘क’ एवं ‘ख’ दो मित्र हैं और वे किसी रास्ते पर चल रहे हैं और वे किसी न्यायाधीश को गुजरते हुए देखते हैं। व्यक्ति ‘क’ व्यक्ति ‘ख’ को टोकते हुए कहता  है – ‘वह देखो, मुख्य न्यायाधीश जा रहे हैं।’ यहाँ व्यक्ति ‘ख’ का आकस्मिक अनुभव व्यक्ति ‘क’ पर आधारित है। लेकिन अगर ‘ख’ व्यक्ति ‘क’ के साथ नहीं होता और ‘क’ ने अकेले मुख्य न्यायाधीश को देखा होता तो –

 

(अ) ‘ख’ का अनुभव बहुत कुछ स्वयं के द्वारा इसके पूर्व मुख्य न्यायाधीश को देखी गई या सुनी गई स्मृति पर निर्भर होता, और

(आ) शेष अनुभव के लिए उसे ‘क’ की वर्णन–क्षमता पर निर्भर करना होता। ऐसी स्थिति में यदि ‘क’ के पास असाधारण वर्णन कौशल न हो और ‘ख’ के पास असाधारण ग्राह्य–शक्ति व स्मृति न हो, तो दोनों के अनुभव मोटे तौर पर मेल खाएँगे व उनके अनुभवों में समानता होगी। ऐसा भी सम्भव है कि दोनों की अनुभूति में कोई समानता न हो और दोनों में से किसी के पास मुख्य न्यायाधीश के बारे में कोई उल्लेखनीय स्मृति न हो।

 

रिचर्ड्स इसके उपरान्त सम्प्रेषण की कठिन-स्थिति’ की विस्तृत चर्चा क्रमानुसार – ए थियोरी ऑफ कम्युनिकेशन, द एवेलैबिलिटि ऑफ पोएट्स एक्सपीरियंस, टाल्सटॉयस इन्फेक्शन थियोरी और द नार्मलिटि ऑफ द आर्टिस्ट आदि अध्यायों में की है।

 

प्राथमिक स्तर पर रिचर्ड्स का कहना है कि :

  • वक्ता–श्रोता के समान अनुभव स्रोतों के बावजूद कठिन स्थितियों में सम्प्रेषण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि अनुभवों की समानता का किस मात्रा में उपयोग किया गया है।
  • कहने का आशय यही है कि यदि विगत अनुभवों का उपयोग किए जाने से सम्प्रेषण में सफलता की सम्भावना अधिक रहेगी, अन्यथा कम रहेगी।
  • रिचर्ड्स के अनुसार, सम्प्रेषण की कठिन स्थिति के दो पहलू हैं। पहली स्थिति वह है जिसमें वक्ता को श्रोता के अनुभव के निमित्त (कारणों) को प्रस्तुत और नियन्त्रित करना पड़ता है।
  • दूसरी स्थिति वह है जब श्रोता को अपने विगत और व्यक्तिगत अनुभवों को वर्तमान (पाठ में) के अनुभव में प्रविष्ट होने से रोकना पड़ता है।

अर्थात सम्प्रेषण वहाँ कठिन हो जाता है, जब वक्ता को ही श्रोता के अनुभव के लिए आवश्यक उपादान जुटाने पड़ते हैं – और दूसरी तरफ, श्रोता के अपने कुछ विगत अनुभव होते हैं, जो उसकी वर्तमान अनुभूति को बाधित करते हैं; जो अनावश्यक और अनपेक्षित होते हैं। सरल वस्तुओं के लिए सम्प्रेषण आसान होता है, मगर जटिल वस्तुओं के लिए यह उतना आसान नहीं होता। उदाहरण के लिए, दो व्यक्ति किसी प्राकृतिक दृश्य को देख रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक व्यक्ति की जो प्रतिक्रिया होगी, वह समान रूप से दूसरे की (अधिकतर) नहीं भी हो सकती है। हम इस उद्धरण की अपनी व्याख्या प्रस्तुत कर सकते हैं – पहला व्यक्ति कलकल बहते झरने को देखकर जीवन की ‘दुर्दमनीय निरन्तरता’ के बारे में सोच रहा होगा, तो दूसरा उसी झरने के किनारे की झाड़ी में खिले हुए फूल को देखकर जीवन की क्षणभंगुरता के बारे में सोच रहा हो सकता होगा।

  • सम्प्रेषण की कठिन स्थितियों में प्रेषण के साधन भी अनिवार्यत: और अनुरूपेण जटिल हुआ करते हैं। किसी शब्द का प्रभाव अपने सहवर्ती शब्दों के लिए भी अलग–अलग हो जाता है तो दूसरी तरफ, अस्पष्ट वस्तु भी उचित प्रकरण के कारण सुनिश्‍च‍ित, स्पष्ट और उद्भासित हो उठती है।
  • अर्थात एक तत्त्व का प्रभाव दूसरे पर पड़ता है।
  • इसी उपक्रम में रिचर्ड्स का एक मन्तव्य मननीय और मानकीय है – कठिन और गहरे सम्प्रेषण की स्थितियों की दृष्टि से काव्य को गद्य की अपेक्षा श्रेष्ठता प्राप्‍त है, चूँकि काव्य, गद्य की अपेक्षा, सम्प्रेषण का जटिल साधन है।
  • रिचर्ड्स सम्प्रेषण की कठिनाई और गहराई में अनिवार्य सम्बन्ध नहीं स्वीकारते। सम्प्रेषण की गहराई का अर्थ यह है कि अन्तर्वस्तु या कथन में जिन अनुक्रियाओं की अपेक्षा रहती है, वे पूर्णरूपेण प्रतिफलित हो। रिचर्ड्स कहते हैं कि जहाँ केवल अभ्युद्देशन (नोटिफिकेशन) ही किया जाता है, वहाँ सम्प्रेषण का गहरा रूप उपलब्ध नहीं होता।

 

6. सम्प्रेषण के लिए कलाकार की अपेक्षित योग्यताएँ

 

रिचर्ड्स के अनुसार वक्ता की आसाधारण योग्यता का अर्थ है कि वह अनुभव की विगत समानता का उपयोग करता है। श्रोता की असाधारण ग्रहण–शक्ति का अर्थ है, उसमें विवेक और व्यंजना शक्ति की उपस्थिति। इसके साथ ही रिचर्ड्स इन दो तथ्यों की चर्चा करते हैं –

 

(क) विगत अनुभवों को बिना एक-दूसरे से उलझाए उनका मुक्त और स्पष्ट पुनरुत्थान।

(ख) अनावश्यक व्यक्तिगत ब्यौरों तथा आकस्मिकताओं पर नियन्त्रण।

 

उल्लेखनीय है कि रिचर्ड्स शायद पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने भावक या पाठक की अर्हताओं पर विचार किया। हालाँकि रिचर्ड्स ब्यौरेवार भावक की योग्यता के रूप में निम्‍नलिखित गुण गिनाए हैं – साहस, सद्भावना, अनुचित अहंकार का अभाव, ईमानदारी, मानवीयता, उच्चतर अर्थ में विनम्रता, विनोदवृत्ति, सहनशीलता, उत्तम स्वास्थ्य। यद्यपि रिचर्ड्स ने इन बहुचर्चित मानवीय सद्गुणों की विस्तृत सिद्धान्त मूलक व्याख्या नहीं की है।

 

भावक की अपेक्षित योग्यताओं की चर्चा करते हुए रिचर्ड्स ने जिस शब्दबन्ध का सर्वाधिक प्रयोग किया है, वह है – अतीत के अनुभवों की सुलभता। रिचर्ड्स के अनुसार यही सबसे वांछनीय तत्त्व है। ‘सुलभता’ का रहस्य यह है कि रचनाकार पर बाह्य प्रभाव पड़ता है और वह उन्हें आसानी से विन्यस्त कर पाता है। वह इन प्रभावों को मुक्त रूप से सुरक्षित रख पाता है और बड़ी सहजता के साथ इनसे नए सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। किसी सामान्य व्यक्ति की तुलना में किसी रचनाकार (कवि) की सबसे बड़ी खूबी यही है। कवि अपने अनुभवों के विविध तत्त्वों में सूक्ष्म, स्वतन्त्र और व्यापक ढ़ग से सम्बन्ध स्थापित कर पाता है। कहना न होगा कि सम्प्रेषण के बारे में रिचर्ड्स की यह स्थापना सर्वथा मौलिक और निजस्व है।

 

अतीत के अनुभव से प्राप्ति और उसकी सुलभता, दोनों भिन्‍न वस्तु है। बहुत सारे व्यक्तियों में बहुत सारी अच्छी स्मृतियाँ होती हैं, परन्तु वे इस वरदान का लाभ नहीं उठा पाते। अनुभव की प्राप्तिमूलक और आवृत्तिमूलक अवधारणा मात्र, सम्प्रेषण के लिए लाभकर न होकर एक बुराई ही है, क्योंकि इसके कारण आवश्यक और अनपेक्षित अनुभवों में विच्छेद करना मुश्किल हो जाता है। रिचर्ड्स का कहना है कि जिन लोगों का अतीत सम्पूर्ण रूप से उनके पास लौट आता है, उनके लिए पागलखाने जाने की सम्भावना अधिक रहती है। व्यतीत के अनुभव की सुलभता के सन्दर्भ में रिचर्ड्स का दूसरा महत्त्वपूर्ण पदबन्ध है – व्यतीत के अनुभव का मुक्त पुनरुत्पादन। किसी अनुभव का स्मरण मात्र ही पुनरुत्पादन नहीं है, और यह भी नहीं कि वह अनुभव कब, कहाँ और किस प्रकार घटित हुआ था ?

 

मुक्त पुनरुत्पादन का अर्थ है– उस विशिष्ट मन:स्थिति को सुलभ बना लेना। रिचर्ड्स स्वीकारते हैं कि क्यों कुछ अनुभव सुलभ होते हैं और कुछ नहीं होते, इसके बारे में वैज्ञानिक ढंग से कहना मुश्किल है। लेकिन कोई अनुभव ‘मुक्त पुनरुत्पादन’ के लिए कहाँ तक सक्षम या अर्हता सम्पन्‍न है, यह मुख्यत: इस बात पर निर्भर करता है कि विगत दौर में कौन-से आवेग और अभिरुचियाँ उसमें सक्रिय थीं।

 

उल्लेखनीय है कि जब तक समान अभिरुचियाँ और आवेग सक्रिय न हों, अनुभव का पुनरुत्पादन कठिन होता है। अतएव ‘अनुभव’ महत्त्वपूर्ण नहीं है, अनुभव में निहित आवेग महत्त्वपूर्ण है। अनुभव के पुनरुत्पादन की पहली शर्त यही है कि समान आवेग घटित हो। जिन अनुभवों के आवेगों में सरलता होती है, उनमें पुनरुत्पादन की सम्भावना प्राय: कम होती है। जिनमें आवेगों की जटिलताएँ अधिक होती हैं, उनमें पुनरुत्पादन की क्षमता अधिक होती है।

 

इसी उपक्रम में रिचर्ड्स की तीसरी मौलिक स्थापना है – जिन अनुभवों में अधिक व्यवस्था रहती है, उनके पुनरुत्थान की अधिक सम्भावना रहती है। जिनमें उलझन और सम्भ्रम अधिक रहते हैं, उनके पुनरुत्पादन की सम्भावना कम रहती है। रिचर्ड्स के अनुसार एक कलाकार को एक भावक के रूप में विचार करना सबसे लाभप्रद है, लेकिन वह स्वयं को शायद ही इस रूप में देखता है। एक कलाकार अपनी कला में सम्प्रेषण की योग्यता लाने के लिए सजग और सतर्क होकर अलग से कोई प्रयत्न नहीं करता।

 

7. कलाकार की सामान्यता का सिद्धान्त

 

सफल सम्प्रेषण के लिए कवि की दूसरी अर्हता है – सामान्यता। सम्प्रेषण की विफलता का अर्थ है – सम्प्रेषित होनेवाली अनुभूतियों का भावक की अनुभूतियों से मेल नहीं खाना। संक्षेप में, सामान्यता के सिद्धान्त की स्थापनाएँ इस प्रकार है :

  • सफल सम्प्रेषण के लिए सभी भावकों में, अपने प्रभावशील उद्दीपनों के साथ, कुछ आवेगों का सामान्य रूप में रहना आवश्यक है। किस प्रकार एक आवेग दूसरे आवेग को प्रभावित और परिवर्तित करता है, इस दृष्टि से भी उनमें समानता होनी चाहिए।
  • उद्दीपनों के अभाव में कुछ और आवेग उत्थित हो सकते हैं। रिचर्ड्स ने इन आवेगों को ‘कल्पनायुक्त आवेग’ कहा है। उनके अनुसार, इनके लिए मूर्ति विधान अनिवार्य नहीं होता।
  • रिचर्ड्स का स्पष्ट अभिमत है कि सम्प्रेषण का प्रयोजन कल्पना के उत्थित–पक्ष से नहीं बल्कि कल्पना के निर्माण–पक्ष से अधिक है।
  • सम्प्रेषण के लिए अतीत के अनुभव की अपेक्षा वर्तमान का अनुभव कम महत्त्वपूर्ण नहीं होता। कई बार यह होता है कि किसी जबरदस्त संवेग के प्रभाव में जो दृश्य देखा गया था, वही दृश्य मनोदशा बदल जाने पर बहुत बदला हुआ मालूम पड़ता है। इस तरह, कल्पना की निर्माण प्रक्रिया में वर्तमान स्थिति का हाथ अतीत की अपेक्षा, जो कि कल्पना का उद्गम स्त्रोत होता है, कम नहीं होता।
  • सम्प्रेषण की कठिन स्थिति में, कलाकार के पास कुछ ऐसे साधन होने चाहिए जिसके द्वारा वह –

    (क) भावक के अनुभव का एक अंश नियन्त्रित कर सके, और

(ख) ऐसी आवृत्ति को अवसर न मिले, जो व्यक्ति-व्यक्ति में अलग–अलग हो।

  • प्रत्येक कला के आधार के रूप में सामान्यतया एकरूप आवेगों का टाइप पाया जाना चाहिए, जो एक बाहरी ढाँचा बना सके और जिसके अन्दर शेष अनुक्रियाएँ विकसित या क्रीड़ारत हों।
  • कला के रूपतत्त्व ऐसे उद्दीपनों को प्रस्तुत करते हैं, जिनके ऊपर भावकों की अनुक्रियाओं की एकरूपता के लिए निर्भर हुआ जा सकता है।
  • रिचर्ड्स के अनुसार, सामान्यता अर्थात सामान्य होने का अर्थ मानक होना है, न कि औसत। सम्प्रेषण के अर्थान्वेषण प्रकल्प में मानक और औसत की द्विभाजकता रिचर्ड्स की मौलिक स्थापना है।

औसत लोगों से कलाकार का कितना और कैसा अन्तर होना चाहिए – मूल्यविवेचन के तहत रिचर्ड्स ने इसकी व्याख्या की है। अगर किसी कलाकार की मनोव्यवस्था इतनी उत्केन्द्रित और विलक्षण है कि वहाँ तक आम लोगों की बिल्कुल पहुँच न हो, तो हमें उसकी उपेक्षा करनी चाहिए; भले ही उसकी मनोव्यवस्था स्वयं में बहुत अच्छी हो। उनका स्पष्ट कहना है कि जिन मन:स्थितियों तक सामान्य व्यक्ति की पहुँच नहीं होती, वे प्राय: किसी न किसी स्तर पर दोषग्रस्त होती है।

 

8. सम्प्रेषण की सीमाएँ

 

रिचर्ड्स के अनुसार ‘कविता में बुराई’ (कविता में त्रुटि) के दो अलग–अलग पक्ष हैं – एक उसका मूल्य पक्ष है, तो दूसरा उसका सम्प्रेषण पक्ष। कभी तो कविता इसलिए बुरी होती है कि उसका सम्प्रेषण पक्ष त्रुटिपूर्ण है और कभी तो इसलिए कि जिस अनुभूति का वह सम्प्रेषण कर रही है, वह कमतर, अश्रेयमूलक या दोषयुक्त है; कभी वह दोनों दृष्टियों से बुरी होती है।

 

सम्प्रेषण की दृष्टि से दोषयुक्त रचना को रिचर्ड्स खराब कविता न कहकर त्रुटिपूर्ण कविता कहते हैं। सम्प्रेषण की दृष्टि से कामयाब होते हुए भी अनुभूति के मूल्य की दृष्टि से निकृष्ट कविता को रिचर्ड्स बुरी रचना कहते हैं। किसी पॉपुलर कवयित्री एला व्हीलर विल्कॉक्स की एक कविता को पूर्णरूपेण उद्धृत कर उन्होंने विस्तारपूर्वक दिखाया है कि यहाँ सम्प्रेषण की दृष्टि से तो सफलता है, मगर अनुभूति का मूल्य कमतर या नगण्य है। यहाँ हम अधुनातन हिन्दी फिल्मी गीतों के एकांश को समक्ष रखकर इस तथ्य को समझ सकते हैं। ये गीत सम्प्रेषण की दृष्टि से तो सफल होते हैं, लेकिन अनुभूति के मूल्यवान होने की दृष्टि से नहीं।

 

उल्लेखनीय है कि रिचर्ड्स ने इसी आधार पर ‘पॉपुलर लिटरेचर’ (लोकप्रिय साहित्य) के कारक-तत्त्वों पर विचार किया है। यहाँ कहना ही पड़ता है कि रिचर्ड्स शायद पहले समीक्षक हैं, जिन्होंने लोकप्रियता के आधार को विश्‍लेषित करने का प्रयत्न किया है और इसके लोक-मानस की मनोव्यवस्था की व्याख्या की है।

 

लोकप्रियता के रहस्य की व्याख्या करते हुए रिचर्ड्स ने मनुष्य की बाल्यावस्था से प्रौढ़ावस्था तक के भावनात्मक विकास पर प्रकाश डाला है। दस वर्ष तक कोई बालक संचित अभिवृत्तियों से अनजान व अपरिचित रहता है पर चिन्तन की शक्ति के विकासक्रम में, अनुभवों की प्रत्यक्ष सक्रियता का स्थान अभिवृत्तियाँ ले लेती हैं। दीर्घकालिक चिन्तन के अभाव में अभिवृत्तियाँ निश्‍चल हो जाती हैं। हम अनुभव से हटकर अभिवृत्ति में निवास करने लगते हैं। किसी भी अभिवृत्ति के विकास में अनेक क्रमिक स्थितियाँ होती हैं, इन्हें रिचर्ड्स अभिवृत्ति का विश्राम बिन्दु कहते हैं। इन्हें पार करना हरेक मनुष्य के लिए सम्भव नहीं होता, अतएव वे अभिवृत्तियाँ अनगढ़, अपूर्ण और अविकसित रह जाती हैं। तभी अभिवृत्तियों से तर्क गायब होने लगते हैं और वे उन्हें वास्तविकता से दूर ले जाती हैं। फलत: अधिकांश व्यक्ति इन ‘अभिवृत्तियों के अपूर्ण’ गृह में निवास करते हैं।

 

अभिवृत्तियों के स्थिरीकरण (गतिहीनता) के बहुत सारे घाटे हैं। वह व्यक्ति तथ्यों का सामना करने में असमर्थ होता है और फिक्शन की दुनिया में जीता है। इस काल्पनिक जगत का निर्माण उसकी संचित मानसिक अनुक्रियाओं के प्रक्षेपण द्वारा होता है। इन्हीं संचित अनुक्रिया की सहायता से लोकप्रिय लेखक विजयी बनता है। अभिवृत्तियों की निश्‍चलावस्था या विरामावस्था का स्पर्श करने वाली रचनाएँ लोकप्रिय हो जाती हैं, लेकिन ‘आनन्द’ को ही कविता का मूल मानने वाले रिचर्ड्स का स्पष्ट अभिमत है कि ऐसी रचनाएँ निरर्थक या हीन नहीं होतीं। सच्‍चाई तो यह भी है कि कोई पाठक अगर गुलशन नन्दा के झील के उस पार  पढ़ लेने के बाद बाणभट्ट की आत्मकथा  या शेखर जोशी की कहानी कोसी का घटवार  पढ़ लेता है तो उसके ‘स्टाक रेसपांस’ के बन्द दरवाजे खुलने लगते हैं, उसकी अचल अभिवृत्तियाँ सचल हो जाती हैं और उसके लिए पीछे लौटना (गुलशन नन्दा की तरफ) असम्भव हो जाता है। रिचर्ड्स का यह ‘निश्‍चल अभिवृत्तियों की संचित अनुक्रिया’ (स्टाक रेसपांस) का प्रावधान सम्प्रेषण सिद्धान्त के एक मौलिक प्रसंग को जोड़ता है। इस उपक्रम में रिचर्ड्स की मूल स्थापना है कि कला के सम्प्रेषण पक्ष और मूल्य पक्ष में स्पष्ट अन्तर रखना चाहिए। यदि कोई कविता सम्प्रेषण के स्तर पर पूर्णत: विफल हो, फिर भी उसके मूल्य पक्ष की हम अवहेलना नहीं कर सकते।

 

9. निष्कर्ष

 

पूर्व प्रचलित प्रेषणीयता शब्द की नवीन व्याख्या करते हुए रिचर्ड्स ने कहा है कि प्रेषणीयता कोई अद्भुत या रहस्यमय व्यापार नहीं है, अपितु मन की एक सामान्य क्रिया मात्र है। प्रेषणीयता में जो कुछ होता है, वह यह है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में विभिन्‍न मस्तिष्क प्रायः एक जैसी अनुभूति प्राप्‍त करते हैं। जब किसी वातावरण विशेष से एक व्यक्ति का मस्तिष्क प्रभावित होता है तथा दूसरा उस व्यक्ति की क्रिया के प्रभाव से ऐसी अनुभूति प्राप्‍त करता है जो कि पहले व्यक्ति की अनुभूति के समान होती है, तो उसे प्रेषणीयता कहते है। वस्तुतः किसी अन्य की अनुभूति को अनुभूत करना ही प्रेषणीयता है। कवि कलाकार या सर्जक की अनुभूतियों का भावक द्वारा अनुभूत किया जाना ही सम्प्रेषण है। रिचर्ड्स के मतानुसार सम्प्रेषण के लिए तीन बातें आवश्यक है –

  1. कलाकृतिकी प्रतिक्रियाएँ एकरस हों।
  2. वेपर्याप्‍त रूप से विभिन्‍न प्रकार की हों।
  3. वे अपने उत्तेजक कारणों द्वारा उत्पन्‍न किए जाने योग्य हों।

उन्होंने स्पष्ट किया कि कला में प्रेषणीयता आवश्यक है, किन्तु कलाकार को इसके लिए विशेष प्रयत्न नहीं करना चाहिए। कलाकार जितना सहज एवं स्वाभाविक रूप में अपना कार्य करेगा, उसकी अनुभूतियाँ उतनी ही सम्प्रेषणीय होंगी। सम्प्रेषण तभी पूर्णता से होता है, जब विषय रोचक और रमणीय होता है।

अतिरिक्त जानें

पुस्तकें

  1. पाश्चात्य साहित्यचिन्तन : निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  1. पाश्चात्य काव्यशास्त्र का इतिहास,ताकरनाथ बाली, शब्दकार प्रकाशन, दिल्ली
  1. साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
  1. पाश्चात्य काव्यशास्त्र,देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
  2. पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा,डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
  3. पाश्चात्य काव्य चिन्तन,करुणाशंकर उपाध्याय,राधाकृष्ण,नई दिल्ली
  4. I. A. Richards Theory of Literature, William N. Wishner, Journal of Aesthetic Education, Vol. 6, No. 3, July 1972, University of Illinois, Chicago.
  5. Principals of Literary Criticism, I. A. Richards, Routledge, London.
  6. Practical Criticism : a study of literary judgement, I.A. Richards, Routledge, London.
  7. Criticism, aesthetic and psychology : a study of the writings of I.A. Richards, Chetan Karnani, Arnold-Heinemann Publisher, India.
  8. I. A. Richards : essays in his honor, edited by Reuben brower,Helen Vendler and John Hollander, Oxford University Press, New York.

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/I._A._Richards
  2. http://www.britannica.com/biography/I-A-Richards
  3. http://www.poetryfoundation.org/bio/i-a-richards
  4. https://www.english.cam.ac.uk/classroom/pracrit.htm

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. पाश्चात्य साहित्यचिन्तन : निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  2. पाश्चात्य काव्यशास्त्र का इतिहास,ताकरनाथ बाली, शब्दकार प्रकाशन, दिल्ली
  3. साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
  4. पाश्चात्य काव्यशास्त्र,देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
  5. पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा,डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
  6. पाश्चात्य काव्य चिन्तन,करुणाशंकर उपाध्याय,राधाकृष्ण,नई दिल्ली
  7. I. A. Richards Theory of Literature, William N. Wishner, Journal of Aesthetic Education, Vol. 6, No. 3, July 1972, University of Illinois, Chicago.
  8. Principals of Literary Criticism, I. A. Richards, Routledge, London.
  9. Practical Criticism : a study of literary judgement, I.A. Richards, Routledge, London.
  10. Criticism, aesthetic and psychology : a study of the writings of I.A. Richards, Chetan Karnani, Arnold-Heinemann Publisher, India.
  11. I. A. Richards : essays in his honor, edited by Reuben brower,Helen Vendler and John Hollander, Oxford University Press, New York.

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/I._A._Richards
  2. http://www.britannica.com/biography/I-A-Richards
  3. http://www.poetryfoundation.org/bio/i-a-richards
  4. https://www.english.cam.ac.uk/classroom/pracrit.htm