19 रिचर्ड्स का मूल्य सिद्धान्त

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. आलोचना का संकट
  4. मूल्य सिद्धान्त
  5. काव्य-भेद : अपवर्जी एवं अन्तर्वेशी काव्य
  6. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • आई.ए. रिचर्ड्स की काव्य सम्बन्धी मान्यताओं से परिचित होंगे।
  • मूल्य सिद्धान्त के बारे में सम्यक् जानकारी ले पाएँगे।
  • अपवर्जी एवं अन्तर्वेशी काव्य के भेद समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

आधुनिक युग विज्ञान का युग है। विज्ञान ने आधुनिक ज्ञान के प्रायः सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया है। साहित्य, कला और समालोचना भी उसके प्रभाव से अछूती नहीं है। यह आकस्मिक नहीं है कि आई.ए. रिचर्ड्स ने साहित्यिक समालोचना के सिद्धान्त प्रिंसिपल ऑफ़ लिटरेरी क्रिटिसिज्म और व्यावहारिक आलोचना प्रैक्टिकल क्रिटिसिज्म जैसी गम्भीर समालोचनात्मक पुस्तक में आधुनिक मनोविज्ञान को साहित्यिक समालोचना का आधार बनाया। पिछली सदी के तीसरे दशक में रिचर्ड्स ने एक मनोवैज्ञानिक अन्वेषक की भाँति साहित्य पर विचार करना प्रारम्भ किया। उन्होंने साहित्य समालोचना के उन आधारभूत तत्त्वों की खोज की जो पहले खोजियों के हाथ नहीं लगे थे। पूर्ववर्ती आलोचना का यह वास्तविक संकट था। रिचर्ड्स ने उसे हल किया।

  1. आलोचना का संकट

रिचर्ड्स ने सबसे पहले पूर्ववर्ती आलोचना में उगे झाड़-झंखाड़ की सफाई की। उन्होंने साहित्य समीक्षा के सिद्धान्त  में अतीत के समीक्षा-सिद्धान्तों के बारे में यह कहकर पाठकों को चौंका दिया कि ‘वे कुछ अनुमान हैं, कुछ ताड़नाएँ हैं, अनेक तीक्ष्ण और पृथक् विचार हैं, कुछ चमत्कारी कल्पनाएँ हैं, बहुत कुछ वक्तृता और व्यावहारिक कविता है। असंख्य अस्पष्टताएँ हैं, अत्यधिक अन्धविश्‍वास हैं, अनेक पूर्वग्रह हैं, मन की लहरें और तरंगें हैं, रहस्यवाद की प्रचुरता है, कहीं कुछ वास्तविक कल्पना है, तो कहीं बिखरी और विविध अन्तःप्रेरणा है, अर्थगर्भित संकेत हैं और दिशाहीन रूपरेखाएँ हैं, इन तत्त्वों के एकत्रीकरण को हम बिना अतिशयोक्‍त‍ि दिवंगत आलोचना-सिद्धान्त कह सकते हैं।’

 

यद्यपि रिचर्ड्स से पहले टी.एस. एलियट ने कविता को केवल कविता के रूप में पढ़ने को कहा था, किसी और चीज के रूप में नहीं किन्तु उन्होंने रिचर्ड्स की तरह मनोविज्ञान का उपयोग नहीं किया। सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि साहित्य की श्रेष्ठता के निर्णय में आगे चलकर एलियट ने धार्मिक दृष्टिकोण अपना लिया। कृति को स्वायत्त मानते हुए भी रिचर्ड्स ने उस समय की समस्त आलोचनाओं को त्रुटिपूर्ण एवं असंगत ठहराया, क्योंकि वे साहित्यानुशीलन में साहित्येतर अनुषंगों और प्रभावों का उपयोग करती है।

 

उन्होंने साहित्यानुशीलन में ‘सौन्दर्य’ को अपर्याप्‍त माना, मूल्य को सार्थक। इसका कारण यह है कि कविता या चित्र के सौन्दर्य के लिए यह बताना अनिवार्य है कि उससे उत्पन्‍न अनुभूति किन अर्थों में मूल्यवान है।

 

उदाहरणस्वरूप प्रसाद के कवि-व्यक्‍त‍ित्व के विषय में कहा गया कि ‘शान्त गम्भीर सागर जो अपनी आकुल तरंगों को दबाकर धूप में मुस्कुरा उठता हो अथवा गहन आकाश जो झंझा और विद्युत को हृदय में समोकर चाँदनी की हँसी हँस रहा हो, ऐसा ही व्यक्‍त‍ित्व था कवि प्रसाद का।’ रिचर्ड्स की दृष्टि में ऐसी रहस्यवादी आलोचना गहन-गम्भीर प्रतीत होने के बावजूद महज शब्द-स्फीति है, कोरा शब्द-जाल है, जिसके पीछे आलोचक प्रायः शरण खोजते हैं। एक आलोचक ने लिखा, ‘एकांगी माँ भारती के भाल पर एक हल्का-सा चुम्बन है।’ आलोचना की ऐसी भाषा-शैली से सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि जिस आलोचक में विश्‍लेषण और विस्तार की क्षमता अथवा दार्शनिक चिन्तन जितना कमजोर होता है, उतने ही भारी शब्दाडम्बर के नीचे वह उसे दबाना चाहता है।

 

रिचर्ड्स ने इसे आलोचना का संकट कहा, समालोचना की भाषा में सफाई आवश्यक समझा। उनके अनुसार समालोचना की भाषा में विज्ञान की भाषा की तरह पारदर्शी निश्‍च‍ितता होनी चाहिए। उसे ज्यामिति के कोणों की तरह ठोस और स्पष्ट होना चाहिए। समालोचक का उद्देश्य सूक्ष्म मनोदशाओं और अनुभूतियों का मूल्यांकन होता है।

 

रिचर्ड्स ने समालोचना में बाग्जाल फैलाने की प्रवृत्ति का विरोध किया। उन्होंने ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्त के प्रचारक डॉ. ब्रैडले की अर्थशून्य उक्‍त‍ियों की आलोचना की। ब्रैडल ने लिखा, ‘कविता एक आत्मा है। पता नहीं कहाँ से आती है। न तो हमारे आदेश पर बोलेगी, न हमारी भाषा में बोलेगी। वह हमारी दास नहीं, हमारी स्वामिनी है।’ (उद्धृत, रामचन्द्र शुक्ल, काव्य में अभिव्यंजनावाद) इसी तरह ‘कविता आत्मा का चक्रित परिभ्रमण है, कवि निःशस्‍त्र महात्मा होते हैं।’ ऐसे समालोचना में अर्थशून्य वागाडम्बर का रिचर्ड्स ने कड़ा प्रतिषेध किया।

 

प्रैक्टिकल क्रिटिसिज्म’ के तीसरे अनुच्छेद के प्रथम अध्याय में रिचर्ड्स ने कहा कि अनुभूतियों की अभिव्यक्‍त‍ि के लिए तार्किक रूप से ऐसे निरर्थक और ऐसे अर्थहीन वक्तव्यों को गम्भीरता से लेना कठिन है। समालोचना में ये पूर्णतः वर्जित हैं।… आचार्य शुक्ल ने ऐसी आलोचना को ‘धुएँ का धरधरा’ कहा था। वैज्ञानिक या विचारात्मक समीक्षा ही कला-निरूपण समीक्षा है। भावात्मक पदावली से खड़ा किया हुआ हवाई महल उनके लिए व्याज्य था।

 

रिचर्ड्स ने जोर देकर कहा कि हर आलोचना-प्रणाली, रचना के उन्हीं अंशों को सर्वाधिक धूमिल करती हैं, जिन्हें प्रबल आग्रह से उद्घाटित करने का दावा करती हैं। समालोचना के पुराने दार्शनिक आधारों को अस्वीकार करते हुए ब्रैडले, स्पिन्गार्न, क्रोचे, काण्ट आदि के सिद्धान्त का खण्डन किया और आधुनिक सामाजिक मनोविज्ञान के आधार पर अपने मूल्य-सिद्धान्त की नींव रखी।

  1. मूल्य सिद्धान्त

रिचर्ड्स के अनुसार साहित्य का उद्देश्य मनुष्य की वृत्तियों में सन्तुलन स्थापित करना है। इससे मनुष्य के मन का परिष्कार होता है, जीवन में सन्तोष और सुख की प्राप्ति होती है। इसीलिए कविता जिस अनुपात में वह मानव-मन की वृत्तियों में सामंजस्य उत्पन्‍न करेगी उसी अनुपात में वह मूल्यवान होगी। उससे प्राप्‍त अनुभव मूल्यवान होगा, क्योंकि उस सन्तुलन में ही सौन्दर्यानुभूति निहित होती है।

 

रिचर्ड्स की मान्यता है कि आधुनिक सभ्यता के प्रकोप से मनुष्य का जीवन अत्यधिक जटिल हुआ है, जो पूर्व औद्योगिक समाज में नहीं था। औद्योगिक सभ्यता ने मनुष्य की भौतिक दुनिया को विस्तार दिया, पर मनुष्य की इच्छाओं की सीमा भी अनोखे ढंग से बढ़ा दी। कुछ इच्छाएँ पूरी होती हैं, कुछ अधूरी रह जाती हैं। पूर्ण इच्छाओं से सन्तोष मिलता है। अपूर्ण इच्छाएँ असन्तोष देती हैं। इन सन्तोष और असन्तोष के बीच सतत द्वन्द्व बना रहता है, और मनुष्य का जीवन उससे कभी मुक्त नहीं हो पाता। यही दुःख का कारण बनता है। मन हमेशा दुविधाग्रस्त रहता है। मन में उलझन की स्थिति बनी रहती है। फलस्वरूप जीवन में सुख-शान्ति और चैन नष्ट होता है। चित्तवृत्तियों में असन्तुलन बना रहता है।

 

रिचर्ड्स ने यह बतलाया कि कोई भी वस्तु मूल्यवान हो सकती है अगर वह किसी इच्छा को सन्तुष्ट करती है, किन्तु शर्त यह है कि वह अपने समान या उससे अधिक महत्त्वपूर्ण किसी अन्य की इच्छा को असन्तुष्ट न करे। अधिकाधिक इच्छाएँ सन्तुष्ट होना चाहती हैं, किन्तु किसी अन्य की इच्छा को कुण्ठित किए बिना अगर कोई इच्छा सन्तुष्ट होती है, तो उसके तोष से प्राप्‍त होने वाला अनुभव मूल्यवान है। दरअसल मनोव्यवस्था की आदर्श स्थिति में सभी इच्छाएँ तुष्ट होकर शान्त हो जाती हैं और आवेगों में पूर्ण सामंजस्य स्थापित हो जाता है। किन्तु व्यवहार में यह असम्भव है। इसलिए रिचर्ड्स ऐसी व्यवस्था के पक्ष में हैं, जिसमें अधिकतम इच्छाओं के तोष से अधिकतम चित्तवृत्तियों में सन्तुलन हो और न्यूनतम क्षरित हों। इस मनोदशा को वे सहसंवेदन कहते हैं।

 

इसी सहसंवेदन की दशा में सौन्दर्यानुभूति एवं काव्य का मूल्य निहित है। रिचर्ड्स कहते हैं, “सभी आवेग स्वभाव से ही सामंजस्यपूर्ण नहीं होते, संघर्ष का होना सम्भव है और यह सामान्य बात है। एक सम्पूर्ण पद्धति को इस ढंग से निर्मित होने की, रूप लेने की जरूरत है, जिसमें प्रत्येक आवेग को स्वतन्त्र रखते हुए अकुण्ठ भाव से समन्वय स्थापित किया जा सके। इसी प्रकार किसी सन्तुलन में, चाहे वह कितना ही क्षणिक क्यों न हो, हमें सौन्दर्यानुभूति होगी। (उद्धृत, आलोचक और आलोचना, डॉ. बच्‍चन सिंह)” गरज कि काव्यानुशीलन पाठकों में इस प्रकार की मनोव्यवस्था उत्पन्‍न कर सकता है जो व्यक्‍त‍ि के निजी या सामाजिक जीवन के लिए उपयोगी हो।

 

दरअसल रिचर्ड्स ने जिस मनोविज्ञान के आधार पर अपने मूल्य-सिद्धान्त का ढाँचा खड़ा किया, उस मनोविज्ञान और सिद्धान्त के मूल में आरम्भिक पूँजीवादी विकास का व्यक्‍त‍िवाद है। आधुनिक अर्थशास्‍त्र में बेन्थम उपयोगितावाद के जनक माने जाते हैं, जिसकी परम सिद्धि थी, ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’। रिचर्ड्स के मूल्य-सिद्धान्त पर बेन्थम का अर्थ-दर्शन हावी है। रिचर्ड्स का मूल्य-सिद्धान्त उसका मनोवैज्ञानिक रूपान्तरण है। स्वयं रिचर्ड्स ने साहित्यिक समीक्षा के सिद्धान्त के सातवें अध्याय में बेन्थम की धारणाओं का उल्लेख किया है। इस उपयोगितावादी विचारक की दृष्टि में मनुष्य के सभी कार्यों का अन्तिम उद्देश्य सुख की प्राप्ति है। रिचर्ड्स ने उसे चित्तवृत्तियों के परितोष और उनमें सन्तुलन और सामंजस्य का नया नाम दिया है। किन्तु शब्दावली की भिन्‍नता अवधारणाओं की भिन्‍नता नहीं होती। बेन्थम और रिचर्ड्स के भेद शाब्दिक हैं। उनके विचारों और सिद्धान्तों में कोई मौलिक अन्तर नहीं है।

 

बेन्थम के उपयोगितावाद में निहित ‘अधिकतम लोगों का अधिकतम सुख’ का दर्शन समझने में जितना आसान है, उस सुख के मनोवैज्ञानिक रूपान्तरण की रिचर्ड्स की व्याख्या उतनी ही जटिल। कारण, चित्तवृत्तियों में सन्तुलन का मसला आसान नहीं है। उन्हें तुष्ट करते समय हम कैसे जानें कि कौन कितनी महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि हर तोष के साथ क्षोभ भी जुड़ा हुआ है। एक समस्या हल हुई नहीं कि दूसरी खड़ी हो जाती है। इसका उत्तर रिचर्ड्स ने यह कह कर दिया कि किसी चित्तवृत्ति का महत्त्व इस बात से मालूम होता है कि उसके सन्तुष्ट होने से उस मनुष्य की दूसरी वृत्तियों में कहाँ तक क्षोभ उत्पन्‍न होता है। यानी तोष और क्षोभ साथ-साथ चलेंगे। रिचर्ड्स स्वयं इसे एक अस्पष्ट व्याख्या मानते हैं, क्योंकि यहाँ चित्तवृत्तियों में सन्तुलन एक पेचीदा अंकगणित पर निर्भर हो गया; अर्थात् ‘क’ वृत्ति के सन्तुष्ट न होने से पाँच वृत्तियों में क्षोभ उत्पन्‍न हुआ तो वह ‘ख’ वृत्ति से अधिक महत्त्वपूर्ण हुई, जिसके सन्तुष्ट न होने से चार ही वृत्तियों में क्षोभ उत्पन्‍न होता। रिचर्ड्स की दृष्टि में सन्तुलन वह है जिसमें मानवीय सम्भावनाएँ कम-से-कम नष्ट हों, किन्तु उन मानवीय सम्भावनाओं और उनसे उत्पन्‍न सन्तुलन के बारे में रिचर्ड्स कुछ नहीं जानते।

 

रिचर्ड्स ने साहित्यिक आलोचना के सिद्धान्त में स्वयं स्वीकार किया कि “जिस संघटन और व्यवस्थापन की बात मैं बार-बार दुहरा रहा हूँ, वह मूलतः सचेत योजना का काम नहीं है। हम नियमतः मानसिक अराजकता की स्थिति से अधिक संगठन की स्थिति में कैसे जाते हैं, इसकी हमें कोई जानकारी नहीं है।” (पृ. 57)

 

रचनाओं के गहरे विश्‍लेषण में गए बैगर रिचर्ड्स ने अकारण ही उनमें जाकर उनमें इतनी ही रुचि नहीं ली, जिससे उन्हें अपने मूल्य-सिद्धान्त स्थापित करने में मदद मिल सके। मूल्य-सिद्धान्त प्रतिपादन करते हुए भी उन्होंने रचनारत कवि की मानसिक प्रक्रियाओं में प्रवेश से बचाना चाहा। क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें साहित्येतर अनुषंगों और प्रभावों तक जाना पड़ सकता था, जो कृति की स्वायत्तता के प्रतिकूल होता। इसलिए उन्होंने कला के मनोविश्‍लेषणात्मक आलोचना के रूप में फ्रायड और युंग की निपुणता पर सन्देह किया। इसलिए मनोविज्ञान से प्रेरित रिचर्ड्स के सिद्धान्त मनोविश्‍लेषण से दूर होते गए और रचना को लेखक एवं समय के सन्दर्भ से काटकर किए गए विश्‍लेषण-सम्बन्धी प्रयोग रूपवादी सिद्धान्त में परिणत हो गए।

 

दूसरी तरफ रिचर्ड्स ने कविता का उद्देश्य ज्ञान नहीं, रागात्मक उद्बोधन द्वारा चित्तवृत्तियों में सन्तुलन बनाना माना; कविता को मनोश्‍च‍िकित्सा का काम सौंपा। उन्होंने काव्यानुभव के मूल्य को आनन्द और शिक्षा के ऊपर रखा है। उनका जोर उस मूल्यवान अनुभव पर है जो चित्तवृत्तियों में सन्तुलन से उत्पन्‍न होता है। चूँकि सत्य की खोज विज्ञान का विषय है और काव्य-वक्तव्य छद्म होते हैं। इन्हें काव्य-न्याय के द्वारा ही समझा जा सकता है, इसलिए कविता में स्थित विचार आस्वाद की प्रक्रिया में मदद नहीं करता, उसमें आस्था होना या न होना अप्रासंगिक है। आस्था के अप्रासंगिक हो जाने से कविता में स्थित विचार मूल्यांकन का आधार नहीं बन सकता और इस प्रकार अन्ततः भाषा का विश्‍लेषण करना ही बच जाता है। आश्चर्य नहीं कि रिचर्ड्स के सिद्धान्त की इसी रूपवादिता ने एग्लोअमेरिकन न्यू क्रिटिसिज्म के समीक्षकों को भाषिक विश्‍लेषण के लिए आधार दिया और जान क्रो रेन्सम ने न्यू क्रिटिसिज्म  पुस्तक में रिचर्ड्स को नयी समीक्षा का पहला सुचिन्त्य विचारक कहा।

 

किन्तु चित्तवृत्तियों के सामंजस्य के आधार पर रिचर्ड्स कृत काव्य का द्विविध विभाजन महत्त्वपूर्ण है। उससे हमें श्रेष्ठ और निम्‍न श्रेणी की रचना को समझने में मदद मिलती है।

  1. काव्य-भेद : अपवर्जी एवं अन्तर्वेशी काव्य

रिचर्ड्स के अनुसार न्यूनतम वृत्तियों को क्षुब्ध रखते हुए विरोधी वृत्तियों को सन्तुष्ट करना ही साहित्य का उद्देश्य है। अधिकाधिक विरोधी वृत्तियों में सन्तुलन कायम करने वाले काव्य को उन्होंने समावेशी कहा, जो द्वन्द्व और तनाव के कारण जटिल तथा श्रेष्ठ होता है। समावेशी काव्य के विपरीत अपवर्जी काव्य में एकरसता की रक्षा के लिए तमाम विरोधी भावों का बहिष्कार किया जाता है। पूरी तीव्रता से एक ही भाव को सम्प्रेषित करने के कारण वह सरल और इसलिए निम्‍न कोटि का होता है। एक में विसंवादी अनुभूति के बीच सामंजस्य स्थापना का प्रयास रहता है। दूसरे में, किसी एक भाव, एक अनुभूति की सरल अभिव्यक्‍त‍ि के लिए सपाटता होती है।

 

इस प्रकार रिचर्ड्स के अनुसार सरलता तथा जटिलता – मूल्य के दो मानदण्ड हैं। उदाहरण के लिए एक दुखात्मक कविता अपने प्रसंग से ऐसी सभी घटनाओं को सायास अलग करती है, जिससे करुणा की अनुभूति खण्डित होती है। मसलन शृंगार, हास्य, आत्मधिक्कार, व्यंग्य आदि, इनसे करुणा की अनुभूति में बाधा उत्पन्‍न होती है। किन्तु पाठक जब उस कविता को अन्य प्रासंगिक सन्दर्भों की सम्बन्ध-भावना के साथ पढ़ता है तो कविता की सपाट एकांगिकता स्पष्ट हो जाती है। उसकी एकांगिकता इस रूप में है कि उसमें कवि ने विसंवादी अनुभूतियों के अन्य सम्भावित पक्ष को बाहर रखा, जिनके समावेश से करुणा की अनुभूति अधिक प्रभावशाली और प्रगाढ़ हो सकती थी। इसके विपरीत अन्तर्वेशी काव्य में उनका समाकलन होता है।

 

सन् 1942 में प्रिन्सटन में रॉबर्ट पेन वारेन ने प्योर एन्ड इमप्योर पोएट्री’ (शुद्ध और अशुद्ध कविता) पर दिए गए अपने व्याख्यान में रिचर्ड्स के विचारों का पल्लवन किया जो बाद में चलकर कीनियन रिव्यू में प्रकाशित हुआ। अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा कि ‘अच्छी कविता वही होती है जो स्वयं का अर्जन करे।’ सफाई में उन्होंने कहा कि कविता में कोई एक विशेष तत्त्व निहित नहीं रहता। वह अनेक प्रतिमुखी विरोधाभासों के पारस्परिक सम्बन्धों की एक संरचना पर निर्भर करती है। कविता अनुभवों की जटिलता और अन्तर्विरोधों की आँच में जीवित रहती है।

श्रेष्ठ कविता की पहचान बताते हुए पेनवारेन ने कहा कि अच्छी कविता के रचनात्मक तत्त्वों की क्रिया-प्रतिक्रिया से अर्थ-जटिलता उत्पन्‍न होती है। जिसके द्वारा कवि अपनी अन्तिम व्यंजना तक पहुँचता है। व्यंग्य और विरोधाभास इसलिए महत्त्वपूर्ण होते हैं कि इनसे द्वारा उन सब दृष्टिकोणों का समावेश हो जाता है जो कवि के दृष्टिकोण पर आघात करते हैं। उदाहरण के तौर पर प्रणय-कविता में अत्यन्त रागाविष्ट होने के साथ कवि अपने पर हँस भी सके तो वह अन्यों की भी सम्भावित हँसी के विरुद्ध खुद को आश्‍वस्त करता है। (पेन वारेन के विचार, पाश्‍चात्य काव्यशास्‍त्र : सिद्धान्त और वाद, सम्पा. डॉ. नगेन्द्र, पृ. 356-57) अच्छी कविता विभेदक के इन्हीं गुणों के कारण श्रेष्ठ होती है, इसे एग्लोअमेरिकन न्यू क्रिटिसिज्म के विचारक क्लिन्थ ब्रुक्स ने भी अपने ग्रन्थ द वेल रॉट अर्न (नक्‍काशीदार सुराही) में स्वीकार किया है।

 

अपवर्जी एवं अन्तर्वेशी कविता के अन्तर को समझने के लिए हिन्दी कविता के दो उदाहरण पर्याप्‍त होंगे। दोनों शोक-गीत हैं। एक दिनकर रचित गाँधीजी की हत्या पर, दूसरा है निराला रचित सरोज-स्मृति। दिनकर की कविता में दुःख है, रोदन है। उस दुःख और रोदन के रूपों का घटाघोप है। एक खुशनुमा हवाई भोलापन है। दिनकर का शोकबद्ध हृदय उन समस्त अनुषंगों से अलग होकर केवल हाय-हाय करता है, किन्तु उस विकराल त्रासदी से उपजे सन्नाटे की ओर नहीं जाता। वह एक भावविह्वल विगलित कण्ठ की शोककथा है, क्योंकि उसमें कोई अन्य तत्त्व बाधक नहीं है –

तुम आए, जैसे आते सावन के मेघ गगन में,   

                        तुम आए, जैसे आता हो संन्यासी मधुवन में।

                        तुम आए, जैसे आवे जल-ऊपर फूल कमल का,

                        तुम आए, भू पर आवे ज्यों सौरभ नभ-मण्डल का।

                        निज से विरत, सकल मानवता के हित में अनुरत-से,

                        भारत! राजभवन में आओ, सचमुच, आज भरत-से।

                        हवन-पूत कर सुदण्ड नव, जटाजूट पर ताज,

                        जगत देखने को आएगा संन्यासी का राज।

 

इसके विपरीत ‘सरोज-स्मृति’ शोक-गीत अवश्य है, किन्तु उसके परिचित चेहरे से सर्वथा भिन्‍न। कवि के शोक में वे प्रसंग शामिल हैं, जिनसे करुणा गहराती चली जाती है। वहाँ शोक और करुणा में व्यंग्य, विद्रूप से मर्माहत एक पिता का आत्मधिक्कार भी शामिल है। ‘धन्ये, मैं पिता निरर्थक था…।’ वह दुःख की अनुभूति ही नहीं, दुःख से मुठभेड़ की कथा भी है। जो कविता में शोक-भाव को मार्मिक बनाती है। ‘सरोज-स्मृति’ पुत्री-वियोग की ही नहीं, स्वयं निराला के जीवन-संघर्ष की गाथा भी है। यहाँ अनेक काव्यात्मक उद्भावनाएँ हैं। सरोज के जन्म की, उसके लालन-पालन की, स्वार्थ समर में कवि के पराजय की, ‘गद्य में पद्य में समाभ्यस्त’ के खण्डित आत्मविश्‍वास के साथ ‘मैं कवि हूँ पाया है प्रकाश’ के विडम्बनात्मक बोध की, ‘कवि जीवन में व्यर्थ ही व्यस्त लिखता अबाध गति से मुक्तक छन्द’ के साथ ‘पर सम्पादक गण निरानन्द वापस कर देते पढ़ सत्वर’ के विरोधाभासी व्यवहार की, सरोज के उद्दाम शृंगार की, कवि की जन्मकुण्डली की निरर्थकता की, सामाजिक रूढ़ियों और उनसे अतिक्रमण की; साथ-साथ उस नैतिक साहस की ‘है नहीं हार मेरी, भास्वर यह रत्‍नहार-लोकोत्तर वर।’ और फिर, ‘और भी फलित होगी वह छवि, जागे जीवन-जीवन का रवि’ का गहन संयम और आत्मविश्‍वास की। इन सबका परिहार है ‘सरोज-स्मृति’ की अन्तिम दस पंक्‍त‍ियाँ –

मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल/ युग वर्ष बाद जब हुई विकल,

                        दुःख ही जीवन की कथा रही/ क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!

                        हो इसी कर्म पर वज्रपात/ यदि धर्म रहे नत सदा माथ

                        इस पथ पर मेरे कार्य सकल/ हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!

                        कन्ये, गत कर्मों का अर्पण/ कर सकता मैं तेरा तर्पण!

 

पूरी कविता में दिनकर की तरह रूपलुभावन-मनोभावन पदावली की रूपोक्‍त‍ि नहीं मिलेगी, किन्तु उसके प्रभाव की अन्विति दिनकर की कविता की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक है। ‘सरोज-स्मृति’ में जो करुणा है, वह व्यक्‍त‍ि और समाज की टक्कर से, जर्जर रूढ़ियों और उससे संघर्ष के दृढ़ संकल्प से उत्पन्‍न होती है, जीवन के अन्तर्विरोधी अनुभवों से उत्पन्‍न होती है, जिसका दिनकर के यहाँ नितान्त अभाव है। रिचर्ड्स की दृष्टि में यही काव्य का मूल है, क्योंकि उसका सन्दर्भ न केवल अधिक व्यापक, सघन एवं जटिल है, बल्कि उसमें विसंवादी पक्षों की कुशल समाहिति होने के कारण अन्तर्वेशी काव्य का सटीक उदाहरण भी है।

  1. निष्कर्ष

रिचर्ड्स ने चित्तवृत्तियों के कलात्मक सामंजस्य के मनोवैज्ञानिक आधार पर न केवल श्रेष्ठ और हीन कविता की पहचान की दृष्टि दी, बल्कि अपनी न्यूनताओं के बावजूद आधुनिक औद्योगिक समाजों में कविता की निरन्तर फीकी पड़ती चमक और उसकी सम्भाव्य मृत्यु को चुनौती दी, जिसे टॉमस लव पीकॉक ने कविता के चार युग (फोर एजेज ऑफ़ पोएट्री) पुस्तक में अपरिहार्य बताया था।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. पाश्चात्य साहित्यचिन्तन : निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  2. पाश्चात्य काव्यशास्त्र का इतिहास,ताकरनाथ बाली, शब्दकार प्रकाशन, दिल्ली
  3. साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
  4. पाश्चात्य काव्यशास्त्र,देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
  5. पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा,डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
  6. पाश्चात्य काव्य चिन्तन,करुणाशंकर उपाध्याय,राधाकृष्ण,नई दिल्ली
  7. I. A. Richards Theory of Literature, William N. Wishner, Journal of Aesthetic Education, Vol. 6, No. 3, July 1972, University of Illinois, Chicago.
  8. Principals of Literary Criticism, I. A. Richards, Routledge, London.
  9. Practical Criticism : a study of literary judgement, I.A. Richards, Routledge, London.
  10. Criticism, aesthetic and psychology : a study of the writings of I.A. Richards, Chetan Karnani, Arnold-Heinemann Publisher, India.
  11. I. A. Richards : essays in his honor, edited by Reuben brower,Helen Vendler and John Hollander, Oxford University Press, New York.

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/I._A._Richards
  2. http://www.britannica.com/biography/I-A-Richards
  3. http://www.poetryfoundation.org/bio/i-a-richards
  4. https://www.english.cam.ac.uk/classroom/pracrit.htm