27 यथार्थवाद

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. यथार्थवादी साहित्य का स्वरूप
  4. यथार्थवाद का विकास और भेद
  5. हिन्दी साहित्य और यथार्थवाद
  6. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • यथार्थवाद की शुरुआत के बारे में जान पाएँगे।
  • यथार्थवाद का स्वरूप समझ सकेंगे।
  • आलोचनात्मक यथार्थवाद और उसकी प्रमुख विशेषताओं के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे।
  • समाजवादी यथार्थवाद के आशय समझ सकेंगे।
  • प्रकृतवाद और यथार्थवाद का आपसी सम्बन्ध समझ सकेंगे।
  • यथार्थ और आदर्श का सम्बन्ध जान पाएँगे।
  • हिन्दी साहित्य में यथार्थवाद का स्वरूप समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

यथार्थवाद पाश्‍चात्य काव्यशास्‍त्र की प्रमुख अवधारणा है। इसका प्रारम्भ मूलतः स्वच्छन्दतावाद के विरोध में हुआ। स्वच्छन्दतावादी कवि कल्पना की उड़ान पर बल देते हैं। वे जीवन के बारे में नए-नए स्वप्‍न देखते हैं। अपने लिए आदर्श समाज की परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं। इस प्रवृति के विरोध में यथार्थवाद का जन्म हुआ। इसके प्रारम्भ के मूल में वैज्ञानिक आविष्कार और औद्योगिक प्रगति को माना जाता है। इसी के साथ कई नए विचारक सामने आए, जिन्होंने समाज व्यवस्था को नए ढंग से देखने का प्रयास किया। इनमें बेकन, देकार्त, फायर बाख, कार्ल मार्क्स, डार्विन आदि प्रमुख हैं। नीत्शे ने घोषणा की थी कि अब ईश्‍वर मर गया है और ईश्‍वर रहित इस संसार में मनुष्य अकेला रह गया है। ऐसे अनेक विचार आये जिनसे यह प्रामाणित हुआ कि यह संसार ईश्‍वर द्वारा निर्मित नहीं है। मनुष्य ही इस समाज का कर्त्ता और नियन्ता है। अतः इस भौतिक यथार्थ को ही हमें देखना है।

 

यथार्थवाद का केन्द्रीय प्रश्‍न है – साहित्य और जीवन का सम्बन्ध। अर्थात जो जीवन में दिखाई देता है और शब्द में कहा गया है- उनके बीच क्या रिश्ता है? इन लेखकों का मत है कि शब्द जीवन का प्रतिनिधित्त्व करते हैं। वे जीवन से बाहर नहीं हैं। वे एक तरफ जीवन के अंग हैं, दूसरी तरफ जीवन शब्दों में उपस्थित रहता है। अर्थात बाह्य जगत का अस्तित्व हमारे मन अथवा हमारी इच्छा-अनिच्छा से परे ‘एक ठोस वस्तुगत अस्तित्व’ है, साहित्य और कला का सम्बन्ध इसी बाह्य जगत और उसके नाना रूप-व्यापारों से है। इस वैज्ञानिक दृष्टि से यथार्थवाद का प्रारम्भ हुआ।

  1. यथार्थवादी साहित्य का स्वरूप

यथार्थवाद से सम्बन्धित विचारकों का मत है कि यथार्थवाद का जन्म अनुकरण से होता है। यह सिर्फ उन्नीसवीं सदी की अवधारणा नहीं है, हालांकि उन्नीसवीं सदी में इस अवधारणा का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। अनुकरण की अवधारणा प्लेटो और अरस्तू के काल से चली आ रही है। प्लेटो के अनुसार कलाकार भौतिक वस्तुओं का अनुकरण करता है। अरस्तू ने कहा कि यह अन्तर्वस्तु का अनुकरण है। हम सिर्फ अनुकरण का ही अनुकरण नहीं करते, वरन् इस अनुकरण से हम सीखते भी हैं। मानव सभ्यता का विकास अनुकरण से होता है। चिन्तकों का विचार है कि अनुकरण से हमें आनन्द की प्राप्ति होती है। बच्चों के खिलौनों में यह अनुकरण दिखाई देते हैं। इससे हमें आनन्द इसलिए मिलता है, क्योंकि इसके द्वारा हम दुनिया पर अपना आधिपत्य स्थापित करते हैं। इसके द्वारा हम बिखरे हुए विश्‍व को एक व्यवस्था देते हैं और हमें स्वतन्त्रता की अनुभूति होती है। हमें इस बात का भी आनन्द मिलता है कि हम दुनिया को व्यवस्थित कर सकते हैं। दुनिया को अपनी गति से चला सकते हैं। इसलिए यथार्थवाद का सम्बन्ध मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों से है।

 

यथार्थवाद का विकास आदर्शवाद और अतिरंजित कल्पनाशीलता के विरुद्ध हुआ। वास्तव में आदर्शवादी साहित्य अमानवीय संसार के खिलाफ एक कलात्मक प्रतिरोध था। यह दुनिया वैसी नहीं है जैसा हम चाहते हैं। इसलिए रचनाकार अपनी एक काल्पनिक दुनिया गढ़ता है। लेकिन उनकी समस्या यह है कि इस काल्पनिक दुनिया का अनुभव किसी को नहीं है। यह सिर्फ रचनाकार तक ही सीमित है। सामान्य और साझा अनुभव सिर्फ यथार्थ का वर्णन ही हो सकता है। इसी यथार्थ और साझे अनुभव को रचनात्मक रूप देने की ललक ही यथार्थवादी साहित्य का निर्माण करती है। स्वछन्दतावादी साहित्य उस काल्पनिक आदर्श जीवन का वर्णन करता है, जैसा लेखक चाहता है। जबकि यथार्थवादी साहित्य जीवन जैसा है, उसे उसी रूप में प्रस्तुत करता है।

 

यथार्थवाद के समर्थक मानते हैं कि रूमानी कहानियों में अतिरंजित वर्णन होता है। जीवन जैसा है उसका वर्णन नहीं होता, वरन् इस बात का वर्णन होता है कि ऐसा जीवन हो सकता है, जिसके बारे में आम लोग सोच ही नहीं पाते। उनका नायक एकदम विशिष्ट और निराला होता है। फिर इस नायक पर और लेखक पर कोई नैतिक दायित्त्व भी नहीं होता। यथार्थवादी लेखक पर यह सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी होती है कि वह सामान्य जनता के जीवन का चित्रण करे। गरीब, निम्‍न मध्यवर्गीय लोग, अपढ़ स्‍त्रि‍याँ किस तरह का जीवन जीती हैं। उनकी भावनाएँ क्या हैं? उनके विचार किस तरह के हैं? उनका वर्णन साहित्य में भी आना चाहिए। इसलिए यथार्थवादी लेखक सोचते हैं कि साहित्य में बहुमत का वर्णन होना चाहिए। अब तक अल्पमत का वर्णन होता आ रहा है। इसलिए यह सिद्धान्त उपन्यास के साथ आया। महाकाव्य का धीरोदात्त नायक राजपरिवार का होता था। गोदान  का नायक होरी है, जो सीमान्त कृषक है। उपन्यासकार के लिए यह ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है कि होरी क्या सोचता है? (गोदान) या बालदेव कैसे अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है? (मैला आँचल)

 

स्वयं उपन्यास गद्य विधा है। इसलिए यथार्थवाद का विकास गद्य के साथ-साथ होता है। तब इसकी भाषा काव्यात्मक नहीं होती। सामान्य बोलचाल की सहज भाषा का प्रयोग किया जाता है। अतः सम्प्रेषणीयता इसका प्रधान गुण होता है। भाषा में कोई आवरण नहीं, कोई कठिन शब्द नहीं। सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति उपन्यास पढ़ सकता है। यही लेखक का आदर्श होता है और यही यथार्थवाद की अपेक्षा होती है।  अब यहाँ प्रश्‍न खड़ा होता है कि चूँकि साहित्य व्यक्तिपरक होता है। अर्थात किसी एक ही व्यक्ति द्वारा लिखा जाता है। ऐसी स्थिति में वह यथार्थ का सच्‍चा प्रतिनिधि कैसे हो सकता है? क्या यथार्थवादी रचनाकार अपनी पसन्द के यथार्थ का चयन कर सकता है। अर्थात यथार्थ के किसी एक ही रूप को दिखा सकता है या नहीं?

 

यथार्थवादी साहित्य का लक्ष्य पाठक के आम जीवन के ज्ञान में वृद्धि है। इसके लिए वह ऐसे चरित्रों का निर्माण करता है, जो वास्तविक जीवन में भी उपस्थित लगते हैं। साथ ही वह घटनाओं की व्याख्या सामान्य अनुभव के विषय की तरह करता है। यथार्थवादी साहित्य में चरित्र और घटनाएँ काल्पनिक होते हुए भी वास्तविक लगती हैं। इसके लेखक अपने सम्भावित पाठकों की तरह पात्रों को प्रस्तुत करता है, ताकि पाठक को पात्र अपने जैसा ही लगे। हुबहू भले न हो, परन्तु वास्तविक लगे। ऐसा पात्र हुआ है, या हो सकता है। इस सम्भावना को लेखक के साथ पाठक भी मानकर चलता है। इसका कारण यथार्थवादी साहित्यकारों द्वारा अपनाए जाने वाले कुछ सामान्य नियम हैं। अपने विशिष्ट कथानक, चरित्रांकन और यथार्थवादी वातावरण के कारण यथार्थवादी साहित्य में काल्पनिक घटनाएँ भी वास्तविक मालुम पड़ती है।

 

किसी भी यथार्थवादी पाठ में कथा कहने वाला कथावाचक प्रथम पुरुष या अन्य पुरुष के रूप में उपस्थित होता है। वह सर्वज्ञ होता है। कथावाचक पाठक का विश्‍वास जीतने के लिए उसे सीधे सम्बोधित करता है। यथार्थवादी कथानक में नाटकीय घटनाएँ बहुत कम होती हैं, रचना प्रायः महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर केन्द्रित रहती है। यथार्थवादी रचना में पाठ के साथ-साथ ही चरित्रों का विकास होता है। पाठक चरित्र से धीरे-धीरे परिचित होता है। कथानक का विवरण परम्परागत तरीके से विकसित होता है और कथावाचक के निर्णय में कोई अनिश्चितता नहीं होती है। यथार्थवादी साहित्यकार यह मानता है कि सभी एक ही तरह के यथार्थपूर्ण संसार का अनुभव करते हैं। यथार्थवाद विशिष्ट की जगह सामान्य अनुभव पर बल देता है। इससे पाठक का कथा के वातावरण से परिचित होना सरल हो जाता है और वह इसे आत्मसात कर पाता है। अपने कथानक, चरित्रांकन और वातावरण के कारण ही यथार्थवादी साहित्य काल्पनिक दुनिया को वास्तविक दुनिया में परिणत कर पाने में सफल होता है। यहाँ इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि यथार्थवादी रचनाओं में कल्पना का पूर्णतः निषेध नहीं होता है। वरन् कल्पना की सहायता से लेखक यथार्थ का पुनःसर्जन करता है। इस स्तर पर रचनाकार यथार्थ की फोटोग्राफिक पद्धति का विरोध करता है। वह कल्पना के द्वारा यथार्थ के जीवन्त पक्ष को रेखांकित करता है तथा पतनशील पक्ष की आलोचना करता है। कल्पना इसके लिए विचारधारा की सहयोगी बनकर रचना में सक्रिय होती है।

  1. यथार्थवाद का विकास और भेद

यथार्थवाद का विकास उपन्यास के विकास के साथ-साथ हुआ। यह मुख्यतः 19 वीं सदी का आन्दोलन था। फिर भी जब तक विशिष्ट की जगह सामान्य या साझे अनुभव पर लिखने या पढ़ने की इच्छा बनी हुई है, तब तक साहित्य पर यथार्थवाद का प्रभाव बना रहेगा। यथार्थवाद आगे चलकर आधुनिकतावाद, प्रकृतवाद, प्रतीकवाद आदि आन्दोलनों में विकसित हुआ। कई यथार्थवादी रचनाकार आधुनिकतावादी भी माने जाते हैं। उदाहरणस्वरूप यथार्थवादी रचनाकार हेनरी जेम्स यथार्थ की प्रकृति पर प्रश्‍नचिह्न करते हैं­– आखिर यथार्थ का क्या मूल्य है? यह एक आधुनिकतावादी विषय है न कि यथार्थवादी।

 

यथार्थवाद के तीन प्रमुख भेद किए गए हैं–प्रकृतवाद, आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद। हिन्दी में प्रेमचन्द ने यथार्थवाद को एक नया नाम दिया। इसे उन्होंने ‘आदर्शोन्मुख यथार्थवाद’ कहकर सम्बोधित किया।

 

साहित्य में प्रकृतवाद के प्रवर्तक एमिल जोला माने जाते हैं। जोला ने कहा कि ‘प्रत्येक लेखक जीवन को एक खास तरह के स्क्रीन से देखता है’। वे यथार्थवाद को कला के आदर्शवादी रूप के खिलाफ एक प्रतिक्रिया मानते थे। इसलिए उनके अनुसार यथार्थवाद में जगत के असुन्दर रूप की खोज की जाती है। प्रकृतवादी यथार्थ में सामाजिक बुराइयों का खुला और बेबाक  चित्रण पर बल देते हैं। मनुष्य और समाज के कुरूपताओं को उजागर करना ,इस तरह के यथार्थ का मूल उद्देश्य होता है। सामाजिक समस्यायों के मूल कारणों से इनका कोई सरोकार नहीं होता। ‘प्रकृतवादी’ रचनाकार सिर्फ समस्याओं के खुले वर्णन तक ही सीमित रहते हैं। इस तरह की रचनाओं में खासकर विवाहेत्तर सेक्स सम्बन्धों का खुला वर्णन मिलता है। यहाँ यथार्थ का अतिरंजनापूर्ण वर्णन मिलता है। प्रकृतवादी चित्रण में यथार्थ के कारणों की तह में जाने की बजाए  सिर्फ यथार्थ को पाठकों के सामने प्रकट करना होता है। विद्वानों की राय में ‘प्रकृतवाद’ मूलतः मनुष्य और समाज के प्रति जीव वैज्ञानिक दृष्टि से विकसित हुआ है; इसलिए इसे यथार्थवाद के बाहर रखा जाना चाहिए। कुछ विचारक इसे कुरूपता के चित्रण का पर्याय मानते हैं।

 

यथार्थवादखण्डित मनुष्य अथवा खण्डित जीवन को न देखकर मनुष्य और जीवन को उनकी सम्पूर्णता में, सारी सम्भावनाओं के साथ देखने और चित्रित करने का समर्थक है। प्रकृतवादी दृष्टिकोण से भिन्‍न वास्तविक जिन्दगी को उसकी वस्तुपरकता से चित्रित करनेवाले जिस साहित्य का उद्भव और विकास हुआ, उसे ‘आलोचनात्मक यथार्थवादी साहित्य’ नाम से जाना जाता है। यथार्थवाद का तात्पर्य इसी आलोचनात्मक यथार्थवाद से ही होता है।

 

यथार्थवाद में दो तरह के लेखक होते हैं। एक वे जो अपने वर्ग का समर्थन करते हैं तथा उसी वर्ग की दृष्टि से शेष समाज का चित्रण करते हैं। दूसरे वे जो अपने वर्गीय अस्तित्त्व का अतिक्रमण कर जाते हैं। वे यथार्थ जैसा है, उसका आलोचनात्मक मूल्यांकन करते हैं। इस तरह के लेखकों में बाल्जाक का उदाहरण दिया जाता है। ऐसे लेखक न्यायप्रिय होते हैं तथा अपने मत को स्थगित करके सही-गलत का निर्णय करते हैं। यथार्थवाद की यह दृष्टि समाज की विकृतियों और विरूपताओं के प्रति एक आलोचनात्मक रुख रखती है। आलोचनात्मक यथार्थवाद पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ लेखक के रोमानी विद्रोह और बुर्जुआ मूल्यों के अस्वीकार का प्रतिफल है, जिसमें अभिजात तथा गँवारू, दोनों मानसिकता घुली-मिली है।

 

अर्न्स्ट फिशर का मानना है कि आलोचनात्मक यथार्थवाद में रोमानी किस्म की प्रतिक्रियाएँ उद्भव काल से ही निहित हैं। ऐसी स्थिति में स्वच्छन्दतावाद तथा यथार्थवाद को एक दूसरे का विरोधी नहीं माना जा सकता। उन्होंने यहाँ तक कहा कि स्वच्छन्दतावाद वस्तुतः आलोचनात्मक यथार्थवाद का आरम्भिक रूप है। आलोचनात्मक यथार्थवाद और स्वच्छन्दतावाद में मौलिक अन्तर नहीं होता।

 

यथार्थवाद के समर्थक रचनाकार यह मानकर रचना करते हैं कि वे सिर्फ सत्य को उद्घाटित कर रहे हैं। ऐसा सत्य, जिसे निहित स्वार्थी लोग छिपाकर रखना चाहते हैं। उदाहरण के लिए प्रेमचन्द के युग में अंग्रेज सरकार यह प्रचारित करती थी कि अंग्रेज भारतीयों के हित में भारत पर शासन कर रहे हैं। प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में दिखाया है कि दरअसल अंग्रेजी राज भारत का आर्थिक, राजनीतिक और मानवीय शोषण कर रही है और ये लोग जमीन्दारों और मि‍ल-मालिकों से मिले हुए हैं। यह सत्य प्रेमचन्द उद्घाटित करते हैं। अतः प्रेमचन्द यथार्थवादी रचनाकार हैं।

 

(ii) फिर ऐसे रचनाकार सम्पूर्ण समाज की समग्रता का चित्रण करते हैं और वे समाज की छोटी-छोटी प्रवृत्तियों का बारीक़ विश्‍लेषण करते हैं, जैसा चित्रण टॉलस्टाय ने रूसी समाज का किया था या बाल्जाक ने फ़्रांसीस समाज को प्रस्तुत किया था या चार्ल्स डिकेन्स ने ब्रिटिश समाज का चित्रण किया था।

 

(iii) ये लेखक सिर्फ सतही यथार्थ का ही चित्रण नहीं करते, वरन् अपनी अन्तर्भेदी दृष्टि से समाज की विकृतियों का निर्मम उद्घाटन करते हैं। यहाँ लेखक की जीवनदृष्टि और समझ प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इस प्रक्रिया में लेखक एक पक्ष का समर्थन करते हैं और दूसरे पक्ष का विरोध करते हैं। यथार्थवादी रचनाकारों का समाज सामूहिक नहीं होता, वह वर्गों में बँटा हुआ होता है। इसलिए यथार्थवादी रचनाकार व्यवस्था एवं समाज की विकृतियों का निर्मम उद्घाटन करते हैं तथा पारदर्शी रूप में समग्रता का चित्रण करते हैं।

 

मैक्सिम गोर्की ने सन् 1934 में ‘समाजवादी यथार्थवाद’ पदबन्ध का प्रयोग किया। समाजवादी यथार्थवाद की मान्यता के अनुसार लेखक को समाज के विकास की द्वन्दात्मक भूमिका को अपनाकर यथार्थ-चित्रण की ओर अग्रसर होना चाहिए। वस्तुगत यथार्थ को उसकी सम्पूर्णता में प्रस्तुत करना लेखक का मूल दायित्व होता है। इसलिए समाजवादी यथार्थवाद का पद उन लेखकों की रचनाओं के लिए प्रयुक्त होता है जो अपने लेखन द्वारा समाजवाद की स्थापना करना चाहते हैं। यह सोवियत रूस के स्टालिन के दौर की अवधारणा है। गोर्की इस अवधारणा के प्रतिनिधि रचनाकार हैं। अब यह धारणा लगभग समाप्त हो चुकी है।

  1. हिन्दी साहित्य और यथार्थवाद

यथार्थ अपने-आप में सुखदायक नहीं होता है। सम्भवतः इसीलिए भारतीय साहित्य, विशेषकर हिन्दी साहित्य में किसी रचना का अन्त हमेशा सुखात्मक ही होता है। इसका कारण यह है कि  हिन्दी साहित्य ने ‘आदर्शोन्मुखी यथार्थ’ को अधिक जगह दी है। प्रेमचन्द इसके बहुत बड़े पैरोकार थे। सन् 1936 में प्रगतिशील आन्दोलन की शुरुआत के साथ ही हिन्दी में यथार्थवादी चिन्तन और रचना की विधिवत शुरुआत हुई। इससे पहले भारतेन्दु के यहाँ भी यथार्थवाद की शुरुआत हो चुकी थी। प्रेमचन्द ने यथार्थवाद को गोदान और कफन में अपने चरम पर पहुँचा दिया। फणीश्‍वरनाथ रेणु के मैला आँचल और श्रीलाल शुक्ल के राग दरबारी  को भी यथार्थवादी रचना के उत्कृष्ठ उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है। प्रेमचन्द हिन्दी के एक ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने आदर्शवाद से अपनी रचनात्मकता की शुरुआत कर यथार्थवाद पर खत्म की। इसीलिए बाद की रचनाओं में गाँवों के प्रति प्रेमचन्द का रुख किसी रोमानी रचनाकार का न होकर, ऐसे व्यक्ति का है जो गाँवों की सीमा और शक्ति दोनों से परिचित है। ‘भोगा हुआ यथार्थ’, ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’, ‘स्वानुभूति बनाम सहानुभूति’ जैसी शब्दावलियाँ साहित्य में यथार्थवादी चित्रण के आग्रह के कारण ही निकली हैं।

  1. निष्कर्ष

यथार्थवाद का विकास कोरी कल्पना और कोरे आदर्श के विरुद्ध हुआ। अक्सर यथार्थवाद को एक सीमित अर्थ में ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि यथार्थवाद के अन्तर्गत सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ, विभिन्‍न प्रकार के जीवन-संघर्ष, गरीबी और दुःख का ही चित्रण होता है। कुछ लोगों का मानना है कि यथार्थवाद के अन्तर्गत सिर्फ गरीबी और गरीबी से उत्पन्‍न दुख का ही दारुण चित्रण होना चाहिए। साहित्य के लिए यह दृष्टिकोण ठीक नहीं है। इस दृष्टिकोण को लेकर चलनेवाला रचनाकार कभी भी अच्छी रचना नहीं गढ़ सकता। दरअसल यथार्थवाद का चरित्र स्थिर न होकर विकासशील होता है। युग की ऐतिहासिक आवश्यकताओं के अनुसार यथार्थवाद अपना रूप बदलता रहता है। यथार्थ का जो रूप प्रेमचन्द की रचनाओं में मिलता है, उसका वही रूप रेणु और श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं में नहीं मिलता। हो सकता है जो रचना एक समय अधिक यथार्थवादी लगे कुछ समय बाद वह उतनी यथार्थवादी न लगे, क्योंकि युग-परिवर्तन से वह सामान्य अनुभव का हिस्सा नहीं रह जाता है। कोई खास साहित्यिक प्रतिरूप खास समय में किसी अन्य प्रतिरूप से अधिक यथार्थवादी हो सकता है। जैसे एक समय में उपन्यास और कहानी यथार्थवादियों की प्रिय विधा थी। स्वछन्दतावाद के विरोधी होने के कारण कविता को प्रारम्भिक यथार्थवादी, यथार्थवाद को उपयुक्त नहीं मानते थे। जबकि आज कविता सहित अन्य विधाओं में भी यथार्थवाद का समावेश हो चूका है। अस्मितामूलक साहित्य के लिए आत्मकथाएँ अधिक यथार्थवादी हैं। इस कारण साहित्य में यथार्थ की रचना इतनी सरल नहीं जितनी वह दिखती है।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. यथार्थवाद, शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन
  2. पाश्चात्य काव्यशास्त्र, देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
  3. पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा, डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
  4. पाश्चात्य काव्यशास्त्र का इतिहास, ताकरनाथ बाली, शब्दकार प्रकाशन, दिल्ली
  5. पाश्चात्य काव्य-चिन्तन, करुणाशंकर उपाध्याय,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. दर्शन साहित्य और समाज, शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन
  7. आलोचक और आलोचना, बच्चन सिंह,विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी
  8. Realism and Truth, Michael Devitt, Princeton University Press
  9. Realism: Restatements and Renewal, Benjamin Franke, Psychology Press, LONDON
  10. Theories of Literary Realism, Dario Villanuev, State University of New York.

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Realism
  2. http://study.com/academy/lesson/the-literary-realism-movement-a-response-to-romanticism.html
  3. https://www.youtube.com/watch?v=cump0Nxteb4
  4. http://study.com/academy/lesson/the-literary-realism-movement-a-response-to-romanticism.html