21 मैथ्यु अर्नाल्ड

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. कवि, आलोचक और संस्कृति-चिन्तक का समन्वित व्यक्तित्व
  4. आलोचना-कर्म का अन्तर्विकास
  5. कविता धर्म, संस्कृति व दर्शन का रचनात्मक विकल्प है
  6. काव्य की क्लासिकी जमीन अधिक सम्‍भावनापूर्ण है
  7. गुरु-गम्भीर शैली काव्य की श्रेष्ठता की कसौटी है
  8. विज्ञान के अधूरेपन का विकल्प स्वच्छन्दतावाद नहीं
  9. कविता जीवन की आलोचना है
  10. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • मैथ्यु अर्नाल्ड की साहित्यिक जीवनी से परिचित हो सकेंगे।
  • अर्नाल्ड के कवि, संस्कृति-चिन्तक और आलोचक रूप के बारे में जानेंगे।
  • कविता की परिभाषा पर अर्नाल्ड के विचार जानेंगे।
  • अर्नाल्ड की नजर में स्वच्छन्दतावाद की तुलना में शेक्सपियर के बेहतर होने के कारण जानेंगे।
  • विज्ञान और साहित्य के आपसी रिश्ते पर अर्नाल्ड के विचार जानेंगे।
  1. प्रस्तावना

मैथ्यु अर्नाल्ड (सन् 1822-सन् 1888) अंग्रेजी के महत्त्वपूर्ण आलोचक हैं। ‘आधुनिक आलोचना’ के शिखर व्यक्तियों में वें टी.एस. इलियट और आई.ए. रिचर्ड्स के पहले गिने जाते हैं। उनके द्वारा तैयार की गई जमीन पर ही इलियट और रिचर्ड्स ने अपनी आलोचना की नींव रखी थी।

 

मैथ्यु अर्नाल्ड को ‘सन्तुलित और परिपक्‍व’ आलोचक के रूप में जाना जाता है। इन्होंने जॉन ड्राइडन तथा सैमुअल जॉनसन की परम्परा को आगे बढ़ाया। ये दोनों आलोचक नवशास्‍त्रवादी आलोचना के अन्तर्गत ‘परम्परा व आधुनिकता के बीच सन्तुलन साधने’ का प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं। मैथ्यु अर्नाल्ड ने अपने इन पूर्वर्तियों से आगे जाते हुए नवशास्‍त्रवाद की सीमाओं से अंग्रेजी आलोचना को मुक्त किया। उसका मौलिक अन्तर्विकास करने का प्रयास किया।

 

मैथ्यु अर्नाल्ड के परिवार का सम्बन्ध अकादमिक शिक्षा जगत से था। पिता थॉमस अर्नाल्ड एक स्कूल के प्रधानाचार्य थे। मैथ्यु अर्नाल्ड भी आक्सफोर्ड से शिक्षित-दीक्षित होने के बाद ‘राज्य के विद्यालयों के निरीक्षक’ के पद पर कार्यरत हुए। वहाँ उन्हें इंग्लैण्ड के विविध क्षेत्रों के स्कूलों का दौरा करना पड़ता था। इससे उन्हें इंग्लैण्ड के सामाजिक परिदृश्य को करीब से देखने समझने का अवसर मिला। बाद में ऑक्सफोर्ड विश्‍वविद्यालय में अध्यापन कार्य करते हुए उन्होंने अपनी आलोचना को सिद्धान्तबद्ध व व्यवस्थित रूप प्रदान किया।

 

‘नैतिक मूल्यों की जरूरत’ में अपनी सहज अभिरुचि के अनुसार स्कूल निरीक्षक के तौर पर वे नैतिक मूल्यों को एक धर्म-प्रचारक की तरह ग्रहण नहीं करते थे। इस मामले में वे ‘वैज्ञानिक विवेक’ से ही अधिक संचालित प्रतीत होते हैं। वे इंग्लैण्ड में व्याप्‍त 18वीं-19वीं सदी के ज्ञानोदय काल की उपज थे। निरीक्षक के तौर पर पूरे इंग्लैण्ड में घूमते हुए तथा छात्रों एवं उनके अभिभावकों से मिलते हुए मैथ्यु अर्नाल्ड अक्सर यह अनुभव करते थे कि इंग्लैण्ड में अभी तक लोग परम्परागत धर्म के असर में रूढ़िवादी सोच अपनाए हुए हैं। अतः उन्होंने वैज्ञानिक बोध के विकास को लेकर अपने भीतर आबद्ध गहरी बेचैनी का भाव अनुभव किया था। उनके जीवन के ये अनुभव उनकी साहित्य-दृष्टि को संस्कृति, धर्म, दर्शन व समाजशास्‍त्र से सम्बन्धित करने की दिशा को पकड़ने का आधार बन गए।

 

अर्नाल्ड के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सन् 1853 में हुई। सन् 1853 में ही उन्होंने ‘कविताओं का प्राक्कथन’  लिखा। यही उनका पहला विधिवत साहित्यिक काम है। मैथ्यु अर्नाल्ड की आलोचना की पुस्तकों को देखने से उनके इस चिन्तन-कर्म का स्वरूप और स्पष्ट हो सकता है। स्वच्छन्दतावादियों ने शास्‍त्रीय काल और उसकी साहित्य परम्परा की अनदेखी की थी अर्नाल्ड उसका निराकरण करना चाहते थे। वे नैतिक मूल्यों के सन्दर्भ में ‘स्वच्छन्दतावाद’ की जगह ‘शास्‍त्रीय मर्यादा-बोध’ को बेहतर ‘सामाजिक व सांस्कृतिक आधार-भूमि’ मानते हैं। इसीलिए उन्होंने होमर पर एक पुस्तक लिखी।

 

इन धारणाओं का विकास उनकी ‘संस्कृति और आलोचना’ तथा ‘धर्म और रूढ़िबद्धता’ जैसे विषयों पर लिखी किताबों में होता है। इनके द्वारा वे एक नई धर्म-संस्कृति का विकास करने का प्रयास करते हैं जो मानवीय और संरचनात्मक हो।

  1. कवि, आलोचक और संस्कृति-चिन्तक का समन्वित व्यक्तित्व

कहना कठिन है कि मैथ्यु अर्नाल्ड मूलतः क्या हैं? एक कवि, एक आलोचक या एक संस्कृति-चिन्तक? वस्तुतः वे इन तीनों का समन्वित रूप हैं। यही कारण है कि उनकी आलोचना ‘रचनात्मक’ होती है और ‘जीवन’ व ‘संस्कृति’ के व्यापक परिदृश्य को आधार बनाकर खुलती है। यह उनकी आलोचना की गहराई व व्यापकता प्रदान करने की वजह भी है, परन्तु इसे उनके आलोचक उनकी सीमा भी मानते हैं। उन्हें लगता है कि मैथ्यु अर्नाल्ड की आलोचना की धारणाएँ व सिद्धान्त इन्हीं कारणों से इतने लचीले हो गए हैं कि उन्हें विधिवत धारणा या सिद्धान्त की कोटि में नहीं रखा जा सकता।

 

एक कवि के रूप में अर्नाल्ड विक्टोरिया काल के दो बड़े कवियों, टेनिसन और ब्राउनिंग के समकक्ष खड़े प्रतीत होते हैं। उनकी ‘डोवर बीच’ जैसी कविताएँ अंग्रेजी साहित्य की अमूल्य थाती मानी जाती हैं। कविता को वे जीवन की आलोचना के रूप में देखते हैं। उनकी यह धारणा उनके ‘काव्य’, ‘जीवन’ व ‘आलोचना’, इन तीन चीजों को एक साथ ग्रहण करने का आग्रह करती है। अगर हमें उनकी आलोचना को समझना हो, तो उनकी ‘कविता’ और ‘जीवन-दृष्टि’ को भी ध्यान में रखना होगा।

  1. आलोचना-कर्म का अन्तर्विकास

मैथ्यु अर्नाल्ड अपने शुरुआती दौर में मुख्यतः कवि रूप में हमारे सामने आते हैं। आलोचना और चिन्तन इस कवि व्यक्तित्व का सहयोग करते हैं। यह काल सन् 1853 से सन् 1865 तक का है। सन् 1857 में ऑक्सफोर्ड विश्‍वविद्यालय में उनकी नियुक्ति हुई। वहाँ वे लगातार पाँच वर्षों तक रहे।

 

दूसरे चरण सन् 1875 से सन् 1875 के काल खण्ड में मैथ्यु अर्नाल्ड का आलोचक व्यक्तित्व अधिक प्रकट हुआ। तत्पश्‍चात् सन् 1875 से सन् 1888 तक वे एक संस्कृति-चिन्तक के तौर पर अधिक समर्थ प्रतीत होते हैं।

  1. कविता धर्म, संस्कृति व दर्शन का रचनात्मक विकल्प है

यदि इस धारणा को थोड़ी गहराई से देखने-समझने का प्रयास करें तो देखेंगे कि मैथ्यु अर्नाल्ड का ‘कविता’ से अभिप्राय है– ‘रचनाशीलता’। उन्हें लग रहा था कि धर्म और संस्कृति-परम्परा की रूढ़ियाँ, मनुष्य के वैज्ञानिक बोध व विवेक के रास्ते में अड़चनें पैदा कर रहीं हैं। इन रूढ़ियों से समाज की मुक्ति कैसे सम्भव है? इस पर विचार करते हुए वे कविता की रचनाशीलता की सम्भावनाओं को पहचानने की ओर आए। उन्हें लगा कि काव्य मनुष्य को इतना संवेदनशील और रचनात्मक बना सकता है कि वह इसे धर्म और संस्कृति के विकल्प की तरह उपलब्ध कर सकेगा। जब तक यह रचनाशीलता हमारे जीवन व समाज का केन्द्र नहीं बनेगी, तब तक धर्म-संस्कृति-परम्परा की रूढ़ियों से मुक्ति सम्भव नहीं है।

  1. काव्य की क्लासिकी जमीन अधिक सम्भावनापूर्ण है

धर्म-संस्कृति का विकल्प होने लायक काव्य कौन-सा हो सकता है? – इसकी तलाश करते हुए मैथ्यु अर्नाल्ड कलासिकी साहित्य की ओर मुड़े। होमर, वर्जिल और मिल्टन जैसे कवियों में उन्हें इस सम्भावना के चरितार्थ होने के संकेत मिले। इसी वजह से उन्होंने क्लासिकी काव्य को पुनः सम्बोधित करने और खोजने का प्रयास किया। वे काव्य में मिथकीय पात्रों के मानवीय रूप में पुनर्सृजन की सम्भावना पाते थे। इससे उनके सम्बन्ध में मौजूद ‘अतिमानवीय या अतिप्राकृतिक दैवीयता’ को रूढ़ि बनने से रोकना मुमकिन हो सकता था।

 

इस कारण मैथ्यु अर्नाल्ड के सिद्धान्तों का मूल्यांकन करने वाले आलोचकों का मत है कि उनकी साहित्य-समीक्षा का आधार प्राचीन ग्रीक-रोमन का शास्‍त्रीय साहित्य है। वे इस साहित्य के अध्ययन के निष्कर्षों के आधार पर तत्कालीन अंग्रेजी साहित्य का मूल्यांकन करते हैं और अपने अध्ययन-विश्‍लेषण से वे प्राचीन शास्‍त्रीय साहित्य की श्रेष्ठता को पुष्ट करते हैं। इसलिए वे अपने काल में अभिव्यक्त जीवन पर लिखे गए साहित्य को पसन्द नहीं करते, क्योंकि ऐसा साहित्य क्षणिक होता है और थोड़ी देर बाद बदल जाता है। अति परिवर्तनशील दौर में जीवन का परिवर्तन अर्नाल्ड को पसन्द नहीं आता। यहाँ स्थायित्व श्रेष्ठ है और वह प्राचीन साहित्य में मिलता है।

  1. गुरुगम्भीर शैली काव्य की श्रेष्ठता की कसौटी है

रचनाशीलता की गहराई व व्यापकता को मापने के लिए मैथ्यु अर्नाल्ड ने ‘शैलीगत गुरु-गाम्भीर्य’ को कसौटी माना। ‘जीवन की आलोचना’ की उनकी प्रसिद्ध धारणा की परिणति इस ‘गुरु-गाम्भीर्य’ में होती है। हल्के-फुल्के अन्दाज या कल्पना की बेलगाम उड़ान – इन दो प्रवृत्तियों को उन्होंने अपने से पहले के नवशास्‍त्रवादी ‘रेस्टोरेशन काल’ में तथा स्वच्छन्दतावादी काल में क्रमशः देखा था। हल्के-फुल्के अन्दाज में हास्य, पैरोडी, विडम्बना, वाक्-कौशल आदि की प्रवृत्तियों को नवशास्‍त्रवादी ‘गरिमापूर्ण’ तरीके से प्रस्तुत करने की बात करते थे। मैथ्यु अर्नाल्ड के लिए ‘प्रयोजन की गम्भीरता’ का कोई विकल्प नहीं था। इसी कसौटी पर उन्होंने स्वच्छन्दतावादियों की अमर्यादित उड़ान को कभी पसन्द नहीं किया।

 

अर्नाल्ड सबसे पहले कविता के विषय को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। कविता का विषय भव्य होना चाहिए। फिर उसमें कवि अपनी भावनाओं का अनुप्रवेश करे, शेष बातें अपने आप आ जाती हैं। इसलिए वे ग्रीक अभिव्यक्ति पद्धति को आदर्श मानते हैं, क्योंकि उनकी शैली भव्य होती है। यह भव्य शैली गरिमामय रचनाशीलता को व्यक्त करती है। इस शैली में दो तत्त्व अपने आप आ जाते हैं या इन दोनों तत्वों से गरिमामय शैली आकार ले लेती है – काव्य-सत्य और अति-गम्भीरता।

 

अर्नाल्ड ने गुरु-गम्भीर्य के भी कई रूप बताए। जैसे कि होमर का सरल कोटि का गम्भीर्य, मिल्टन का उग्र कोटि का गाम्भीर्य, दाँते का सरल और उग्र का मिश्रण। मैथ्यु अर्नाल्ड की दृष्टि में यह गरिमा होमर, सोफोक्लीज, पिण्डार जैसे ग्रीक कवियों के साथ-साथ इटली के दाँते और अंग्रेजी के मिल्टन में देखने को मिलती है। यहाँ यह जान लेना चाहिए कि वे शेक्सपियर को भी उस स्तर का कवि नहीं मानते थे। हालाँकि उनके अनुसार शेक्सपियर में कार्य को चुनने का कौशल और उसे रूपाकार देने की शक्ति विद्यमान है फिर भी वह मिल्टन की बराबरी नहीं कर सकता।

 

हालाँकि यह कहना मुश्किल है कि मैथ्यु अर्नाल्ड का यह आदर्श किसी कवि में हो भी सकता है या नहीं। स्वयं मैथ्यु अर्नाल्ड की कविता में वह गरिमामय भव्यता कितनी है? कहना मुश्किल है।

 

अर्नाल्ड गाम्भीर्य को काव्य में व्यंजित होने वाली वस्तु की तरह देखते थे, ताकि उसका स्वरूप धर्म-प्रचारकों के नैतिक-बोध से मिलता-जुलता न प्रतीत होने लगे। गाम्भीर्य की इस व्यंजना या ध्वनि के कौशल को वे होमर, दाँते व मिल्टन में समुचित और यथेष्ठ पाते हैं, परन्तु मिल्टन में थोड़ी कमी देखते हैं; जिससे उनके काव्य पर नैतिकता-बोध कहीं-कहीं हावी हो जाता है।

 

गुरु-गम्भीर शैली के जिन गुणों या प्रवृत्तियों की ओर अर्नाल्ड ने संकेत किया है, वे हैं – संवेदना, मितभाषिता, भव्यता, चारित्रिक दृढ़ता व  निश्छल शुभ्रता।

  1. विज्ञान के अधूरेपन का विकल्प स्वच्छन्दतावाद नहीं

अर्नाल्ड के अनुसार विज्ञान के कारण मानव समाज की सभ्यतामूलक प्रगति अभूतपूर्व हुई है। इससे पदार्थवाद का बोलबाला हो गया है और आध्यात्मिक मूल्यों व गुणों का ह्रास दिखाई देता है। स्वच्छन्दतावादी साहित्य ने इस समस्या का समाधान खोजने के लिए ‘प्रकृति में वापसी’ का नारा दिया था। परन्तु वे विज्ञान द्वारा पैदा किए गए अभाव की पूर्ति करने में निम्‍नलिखित कारणों से असमर्थ रहे, क्‍योंकि –

  • क. नयेपन का मोह, जो उन्हें यथार्थ से परे ले जाता है।
  • ख. अत्यधिक संकेत गर्भत्व, जिससे उनके आध्यात्मिक अनुभव अपूर्व बने रह जाते हैं।

अर्नाल्ड के अनुसार, एलिजाबेथ युग के कवि-नाटककार शेक्सपियर में इतिहास और मिथकों के आख्यान का रचनात्मक इस्तेमाल हो सका है। इसका कारण यह है कि वह स्वच्छन्दतावादियों की तुलना में मानव-चरित्र के गहन ‘अन्तः संसार’ को अधिक मूर्त्त व रचनात्मक रूप में हमारे सामने लाता है। ठोस रचनात्मक अनुभव तक पहुँचने में उन्हें शेक्सपियर के कथानकों का ‘स्थापत्य’ भी साहित्य की श्रेष्ठता की एक कसौटी की तरह लगता है। ‘स्थापत्य’ को अर्नाल्ड ने ‘अंगों की समग्र में विलय की व्यवस्था’ के रूप में देखा है। यह एक काव्यशास्‍त्रीय धारणा है। हालांकि वे शेक्सपियर के काव्य में वाग्विदग्धता तथा सांकेतिकता जैसी भी देखते हैं; जो उनमें वही दोष पैदा करता है, जो स्वच्छन्दतावादियों में है।

  1. कविता जीवन की आलोचना है

अर्नाल्ड की यह सर्वाधिक चर्चित व उद्धृत धारणाओं में से एक है। हालाँकि इसका अर्थ अस्पष्ट है, पर इस कारण अनेक विवाद सामने आते रहते हैं। ‘आलोचना’ अपने आप में एक तरह की बोधमूलक व विश्‍लेषणमूलक मीमांसा या विचार-प्रकिया है। दूसरी ओर जीवन एक ऐसी कोटि है – जो समग्रता व संश्‍ल‍िष्टता में देखे जाने की माँग करती है। हमारे समय के अनेक चिन्तकों को लगता है कि जीवन एक ऐसी धारणा है, जो प्रकृति और ईश्‍वर की तरह भाषा से बाहर की वस्तु है। परन्तु अर्नाल्ड के समय जीवन इतना भी उद्बुद्ध नहीं था। इसके दो तरह के अर्थ प्रचलित थे–

  • क. विज्ञानसम्मत विकासवाद प्रेरित आधारभूत अर्थ।
  • ख. सामाजिक, आर्थिक, राजनीति व सांस्कृतिक रूपों में जीवन को सांस्थानिक व मानवीय अर्थों के मिश्रण की तरह देखने वाला अर्थ।

अर्नाल्ड ‘जीवन की आलोचना’ द्वारा किसी सुस्पष्ट धारणा निश्चित हो सकने की ‘असम्भावना’ से परिचित थे। अतः उन्होंने जीवन की आलोचना को जीवन के प्रति वैज्ञानिक, तटस्थ ओर विवेकपूर्ण विचार-मन्थन की तरह देखा। चिन्तन की जिस प्रक्रिया से उसे जोड़ा उसे नाम दिया ‘चित्त की मुक्त-क्रीड़ा’। इससे वे साहित्य की जिस रचनाशीलता का सम्बन्ध जोड़ते थे, वह थी उसकी ‘गुरु-गम्भीर शैली’।

 

मैथ्यु अर्नाल्ड मानते थे कि प्रत्येक आलोचक को अपने से अलग एक और महान साहित्य को जानना चाहिए। अंग्रेजी आलोचकों को सिर्फ अंग्रेजी आलोचना तक अपने को सीमित नहीं रखना चाहिए। उन्हें श्रेष्ठ प्राचीन साहित्य का तथा अन्य भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य का अध्ययन करना चाहिए। यहाँ तक कि दुनिया में जो सबसे अच्छे विचार हैं, उनसे अपने आपको सीखना चाहिए तथा उन विचारों का प्रचार करना चाहिए। ऐसा होने पर ही साहित्य जीवन की आलोचना हो सकती है। इसके लिए आलोचना को किसी का पक्ष नहीं लेना चाहिए। मैथ्यु अर्नाल्ड ने एक शब्द का प्रयोग किया कि आलोचक को disinterestedness होना चाहिए, अर्थात् अपनी वैयक्तिक रुचियों से मुक्त होना चाहिए, तभी आप संसार की सबसे अच्छी चीजों को देख और दिखा सकते हैं। मैथ्यु अर्नाल्ड के अनुसार चीजें जैसी हैं, उन्हें उसी रूप में देखना और दिखाना ही जीवन की आलोचना का सार-तत्त्व है। साहित्य को, जीवन के बारे में विचारों को शक्तिशाली और सुन्दर तरीके से व्यवहार में लाना चाहिए।

  1. निष्कर्ष

अर्नाल्ड की साहित्य की आलोचना और उसकी धारणा सिद्धान्त-भूमि को, लचीलापन और विविधता जैसे तत्त्वों के कारण एक ‘व्यवस्था में बाँधना’ सहज ही सम्भव नहीं है। फिर भी नीचे एक तालिका के रूप में इसे सूत्रवत  प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है। इससे अर्नाल्ड को समझने में व्यवहारिक सुविधा होगी।

 

अर्नाल्ड का आलोचना संसार

 

क. इसकी मूल-पद्धति आलोचनात्मक होनी चाहिए।

ख. आलोचना की जमीन अन्ततः जीवन है।

ग. इसकी प्रक्रिया-विधि चित्त की मुक्त-क्रीड़ा और तटस्थ भाव है।

घ. इसकी प्रतिनिधित्व विविध ज्ञानानुशासनों की बहुलता और अन्तरानुशासनात्मक अन्तर्दृष्टि से होता है।

ङ. इसका प्रयोजन रचनात्मक समन्वय और विश्‍लेषण विवेचनगत निर्णय या मूल्यांकन होता है।

च. श्रेष्ठ साहित्य के गुण हैं सहजता, गुरु-गम्भीर शैली, संजीदगी, विवेकसम्मत दृष्टि और उदारतावादी सहनशीलता।

छ. इसके प्रभाव एवं लक्षण हैं अवसाद, पुनर्जीवन या पुनर्रचना, सांस्कृतिक व आध्यात्मिक मूल्य की पूर्ति और जनतान्त्रिक पुनर्स्थापन।

ज. हमें कैसा जीवन जीना चाहिए इसका उत्तर हमें कविता में मिलता है – जो पहले धर्म में मिलता था या संस्कृति में।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. Culture and Anarchy, Matthew Arnold, Robert,The University of Michigan Press
  2. On the Study of Celtic Literature, Matthew Arnold, smith elder &co. London
  3. The English Literature Companion, Julian Wolfreys, Palgrave Macmillan, New York
  4. Literary criticism a short history,William k.wimsatt,JR.& Cleanth Brooks , oxford,New Delhi
  5. Matthew Arnold: The Critical Heritage Volume 1 Prose Writings, edited by Carl Dawson, John Pfordresher, London
  6. Overcoming Matthew Arnold: Ethics in Culture and Criticism, James Walter Caufield, university of California,USA
  7. A History Of Modern Criticism:1750-1950,Rane Wellek,Jonathan Cape ltd,London

 

वेब लिंक्स

  1. https://archive.org/stream/onstudycelticli03arnogoog#page/n6/mode/2up
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Matthew_Arnold
  3. https://www.poets.org/poetsorg/poet/matthew-arnold
  4. http://www.poetryfoundation.org/bio/matthew-arnold