4 प्लेटो का साहित्य चिन्तन

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. अनुकरण का सिद्धान्त
  4. कला और नैतिकता
  5. कविता और समाज
  6. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • प्लेटो की कला सम्बन्धी मान्यताओं की पृष्ठभूमि जान पाएँगे।
  • प्लेटो के ‘अनुकरण सिद्धान्त’ को समझ पाएँगे।
  • ‘कला और नैतिकता’ पर प्लेटो के विचार समझ सकेंगे।
  • प्लेटो के काव्य एवं कलाकार सम्बन्धी विचारों का मूल्यांकन कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

पाश्‍चात्य काव्यशास्‍त्र में प्लेटो के काव्यशास्‍त्रीय चिन्तन का विशेष महत्त्व है। वे पश्‍चिम के पहले काव्यशास्‍त्रीय चिन्तक हैं। उनके चिन्तन का दूरगामी प्रभाव परवर्ती साहित्य चिन्तकों पर भी दिखता है। अरस्तू के ‘अनुकरण के सिद्धान्त’ की नई व्याख्या प्लेटो के चिन्तन का ही प्रतिफलन है। ‘अनुकरण सिद्धान्त’ के जरिए प्लेटो ने सम्पूर्ण कला मनीषियों के सामने एक गम्भीर प्रश्‍न खड़ा किया कि कला मानव समाज के लिए क्यों जरूरी है? कला और नैतिकता के आपसी सम्बन्धों पर विचार करते हुए प्लेटो ने कवि एवं कलाकार की सामाजिक उपयोगिता पर बहस शुरू की।

 

यूनान के दार्शनिक चिन्तन में ई.पू. तीसरी-चौथी सदी का समय चार महान दार्शनिकों के उदय का समय है। इस दौर में जिन प्रबुद्ध दार्शनिक तथा साहित्य-मनीषियों ने अपने चिन्तन में साहित्य-विवेक का परिचय दिया, उनमें सुकरात, प्लेटो, अरस्तू, आइसाक्रेटिज प्रमुख हैं। बाद में उस परम्परा में थियोफ्रैस्टस का नाम और जुड़ गया। प्लेटो विद्वान दार्शनिक थे। तर्क-विद्या उन्होंने अपने गुरु सुकरात से सीखी। सुकरात के साथ अपने संवादों में उन्होंने कविता-सुखान्तिकी-दुखान्तिकी के अलावा राजनीति, आचार-शास्‍त्र, शिक्षा-दर्शन आदि पर तर्क किया। अनेक संवादों के अन्तर्गत भाषण कला, भाषा, साहित्य और समाज, कला और नैतिकता, तर्कशास्‍त्र आदि का विवेचन भी मिलता है। ये संवाद गोर्जियास एण्ड फ्रीडस, क्रौटिलस, प्रोटागोरैस, आयॉन, रिपब्लिक तथा लॉज आदि ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। यों तो सामाजिक जीवन के विविध सन्दर्भों को सुकरात ने अपनी विलक्षण तर्कशक्‍त‍ि से उजागर किया, किन्तु कविता, साहित्य अथवा कला के क्षेत्र में चलाई गई उनकी विश्‍लेषण-पद्धति को अपनाकर प्लेटो ने साहित्य-सम्बन्धी प्रश्नों का हल ढूँढ़ना शुरू किया। इस पाठ में उसी का अध्ययन अभिप्रेत है।

  1. अनुकरण का सिद्धान्त

प्लेटो ने कला को अनुकरण कहा। बाह्य जगत के विविध रूपों का अनुकरण ही कला है। प्रो. एम.एच. एब्राम्स ने अपनी पुस्तक द मिरर एण्ड द लैम्प  में अनुकरण की इस क्रिया के चार अवयव बताएँ हैं– कलाकार, कलाकृति, भौतिक जगत एवं दर्शक-पाठक अथवा श्रोता

(द मिरर एण्ड द लैम्प, पृ. 06)

 

प्लेटो के पूर्ववर्ती चिन्तक सुकरात के अनुसार चित्रकला, कविता, संगीत, नृत्य एवं वास्तुकला आदि सभी अनुकरण हैं। उनके यहाँ ‘अनुकरण’ सम्बन्धवाचक अवधारणा है, जो दो पक्षों एवं उनके पारस्परिक सम्बन्ध का बोध कराता है– अनुकरण की क्रिया और अनुकरण की वस्तु। किन्तु प्लेटो के दार्शनिक संवाद में अनुकरण तीन स्तरों पर सक्रिय दिखाता है– विचारों का शाश्‍वत एवं अपरिवर्तनशील स्तर; रूपात्मक चित्रों का भौतिक जगत, जिसे ललित कला कहते हैं; और पूर्वनिर्धारित आदर्श रूपों के अनुकूल कला एवं साहित्य में उनकी यथावत अनुकृति। (द मिरर एण्ड द लैम्प, एब्राम्स, पृ. 7)

 

रिपब्लिक  के दशवें अनुच्छेद में इन तीन स्तरों की और उनके सम्बन्धों की अलग-अलग व्याख्या सुलभ है। कला की प्रकृति की व्याख्या करते हुए प्लेटो के साथ एक संवाद में सुकरात बताते हैं कि एक पलंग के तीन रूप हैं; पहला, पलंग का विचार। यह विचार ही उस पलंग का सार तत्त्व है। ईश्‍वर द्वारा निर्मित होने के परिणामस्वरूप विचार तत्त्व ही परम सत्य है, अतः शाश्‍वत और अपरिवर्तनशील भी है। दूसरा है बढ़ई द्वारा निर्मित पलंग जो उस विचार का अनुकरण है। तीसरा है, चित्रकार द्वारा चित्रित पलंग जो बढई द्वारा निर्मित पलंग का अनुकरण है। सुकरात का प्रश्‍न हैं, कि पलंग का कौन-सा रूप आदर्श रूप है? उत्तर है, ईश्‍वर द्वारा सृजित पलंग का विचारपरक रूप।

 

सुकरात के उक्त विचारों के आधार पर प्लेटो का तर्क है कि कविता और कला अनुकरण है – आदर्श विचारों (‘एब्सल्यूट आइडिया’) का नहीं, उसके सारतत्त्व का नहीं, उनके प्रतिबिम्ब भौतिक जगत के बाह्य रूपों का। इसलिए कला आदर्श विचार से वस्तुओं की श्रेणी-शृंखला-पदानुक्रम में निचले दर्जे की वस्तु है। प्लेटो के अनुसार चूँकि विचारों का सत्य न केवल ईश्‍वर बल्कि उसकी गुणवत्ता एवं मूल्य की भी केन्द्रीय धुरी है और कला उससे तिहरी दूरी पर है, इसलिए यह स्वतः सिद्ध है कि कला परमसत्ता की अच्छाई एवं सौन्दर्य से भी उतनी ही दूर है, अलग है।

 

प्लेटो के अनुसार कला में अनुकरण की व्याख्या समेत भौतिक जगत के सारे उपादानों का विश्‍लेषण में एक ख़ास दार्शनिक दृष्टि है, विचारों का सत्य। भौतिक जगत उसका प्रतिबिम्ब मात्र है। वहाँ विचारों के साथ वस्तुओं की निकटता और दूरी उनकी विश्‍वसनीयता एवं अविश्‍वसनीयता की कसौटी है। इस तर्क से कलाकार अनिवार्यतः दार्शनिक, राजनीतिज्ञ, नीतिज्ञ, कानूनविद, कारीगर आदि का स्वाभाविक प्रतिद्वन्द्वी बन जाता है और परमसत्ता से अपनी तिहरी दूरी के कारण उसकी कला न केवल मिथ्या प्रतीत होने, परिणामस्वरूप असफल सिद्ध होने के लिए अभिशप्‍त है, बल्कि सामाजिक आधार पर तुलना में कलाकार और कवि दूसरे-तीसरे दर्जे के नागरिक हैं। फिर आदर्श गणराज्य में उनकी जरूरत ही क्या है? उन्हें देश-निकाला दे देना चाहिए।

 

बढई पलंग बनाता है, पलंग की धारणा उसके मन में होती है। इस मूल धारणा का निर्माता वह खुद नहीं होता। इस धारणा का निर्माता ईश्‍वर होता है। मनुष्य के उपयोग में आने वाली जितनी आवश्यक वस्तुएँ है, उसकी मूल धारणा का निर्माता वह आदर्श शिल्पी है, जिसे ईश्‍वर कहते हैं। इसी तरह सभी वस्तुओं की मूल धारणा एक है, यह विश्‍वास धर्म है। वस्तुओं को एक ही धर्म से बँधा मानना, अर्थात ईश्‍वरीय इच्छा का प्रतिबिम्ब मानना, भाववाद (‘आइडिलिजम’) है तथा प्लेटो के तर्कशास्‍त्र का अध्यात्मवाद (‘मेटाफिजिक्स’) है।

 

कवि बाह्य प्रकृति और संसार का अनुकर्त्ता है, किन्तु प्रकृति और संसार किसी दैवीय इच्छा का प्रतिबिम्ब है। इसलिए अवास्तविक है। कवि बाह्य प्रकृति का अनुकर्त्ता है। इसलिए वह वास्तविक और यथार्थ देवलोक से दूर है। कवि का अनुकरण छायारूपी संसार का अनुकरण है। अतः उसका अनुकरण कर्म मृगमरीचिका है, मिथ्या है, क्योंकि काव्य द्वारा सत्य का निरूपण नहीं हो सकता। आदर्श देवलोक की अनुकृति न होने के कारण काव्य एवं कला में न तो कोई शक्‍त‍ि होती है, न उसकी उपयोगिता है। उलटे वे मानवीय प्रवृत्तियों को विकृत करते हैं। आदर्श गणराज्य में केवल उन्हीं को स्थान प्राप्‍त है, जो ईश स्तुति करें, अथवा महापुरुषों की वन्दना करें।

 

प्लेटो ने कला को अनुकरणात्मक कहा। उसके पीछे एक निश्‍चित दार्शनिक मतवाद था, जिसके भरोसे वे समझते थे कि इस असार संसार के पीछे और परे देवलोक का सार युक्त संसार है और वही सत्य भी है। यह हमारे यहाँ के ‘ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या’ जैसा है। यह दैवी संसार सत्यनिष्ठा, पवित्रता, सौन्दर्य आदि का संसार है। जिसका अनुकरण इस पार्थिव संसार के कवि-कलाकार आदि करते हैं। इसलिए उसमें विकृतिकरण का आना स्वाभाविक है। इसलिए श्रेष्ठ और ग्रहणीय वही है जो मानव जीवन में उन्हीं आदर्शों को प्रक्षेपित करे, जो देवलोक के हैं। काव्य एवं कला में अनुकरणात्मकता वहीं तक मान्य है जहाँ तक वह मानव चरित्र में उस आद्य दैवीय संसार की विभूति की प्रेरणा जगाए, उसका अनुकरण करे। इसी आधार पर उन्होंने ललित कला और उपयोगी कला में फर्क किया। ललित कला वह है जो दैवीय आदर्शों के परे जाती है। उपयोगी कला वह है जो ईश्‍वरीय शक्‍त‍ि के आदर्शों के प्रति विश्‍वास पैदा करती है। जाहिर है प्रथम के अन्तर्गत काव्य, संगीत, चित्र, वास्तु, नृत्य आदि कलाएँ थीं। दूसरे के अन्तर्गत दर्शनशास्‍त्र, आचारशास्‍त्र, राजनीति, क़ानून आदि थे। दोनों में अब टकराव अवश्यम्भावी था, जिसकी परिणति कला और नैतिकता में हुई।

  1. कला और नैतिकता

प्लेटो अपने दार्शनिक विचारों से अध्यात्मवादी और राजनीतिक विचारों से राज्यसत्तावादी एवं नैतिकतावादी थे। दोनों की गहरी छाप उनके कला-चिन्तन पर है। सारतत्त्व अर्थात ईश्‍वर निर्मित विचारतत्त्व से कला-कविता-कलाकार-कवि के तिहरे अलगाव के कारण, उन्होंने नागरिकों पर काव्य एवं कला के पड़ने वाले प्रभाव पर आपत्ति की। एम्ब्रास ने लिखा है, “श्रोता पर उसका बुरा प्रभाव पड़ता है। गरज कि वह (कविता-कला-त्रासदी-सुखान्तिकी, गीत, नाटक आदि) बाह्य रूपों के अनुकरण हैं, उसके सारतत्त्व के नहीं। परिणामतः दर्शक-पाठक में आवेगों का जन्म होता है; विवेक एवं तर्क का पतन होता है। अनुकरण की प्रक्रिया में कलाकार आवेगों पर ही टिके नहीं रह सके। उन्हें अपने आवेगों को भी वश में रखना होगा तथा ईश्‍वरीय प्रेरणा का इन्तजार करना होगा।” (ए मिरर एण्ड द लैम्प, पृ.9)”

 

अपने नैतिक आग्रहों के कारण प्लेटो काव्य एवं कला पर आक्षेप किया कि वह मनुष्य को उत्तेजित करती है। उसका सम्बन्ध मनुष्य के निकृष्ट जीवनअंश एवं कुत्सित भावनाओं से है। उन्होंने अपने आदर्श गणराज्य से कवियों-कलाकारों को बाहर कर देने को कहा, क्योंकि विकृत भावनाओं के उद्रेक से राज्य-संचालन में बाधा होती है। कवि नागरिक सद्गुणों के विपरीत प्रभाव उत्पन्‍न करते हैं। इसलिए गणतन्त्र के रक्षकों का कर्त्तव्य है कि वे कवि-कलाकारों को राज्य से निकाल दें।

 

‘रिपब्लिक’ के दसवें अनुच्छेद में प्लेटो की राय है कि महाकाव्य या गीत के मृदुल संगीतमय स्वर को अपनी सीमा से बाहर जाकर स्वीकारने पर तर्क और क़ानून के बदले हमारे राज्य के शासक दुखी होंगे। दर्शन और कविता में पुराना झगड़ा है। (ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ लिटररी क्रिटीसिजम, विम्साट एवं ब्रुक्स, पृष्ठ-10)।

 

कवि-कलाकार का सम्बन्ध भावनाओं, अनुभूतियों, आवेगों, संवेदनाओं एवं इन्द्रियबोध से है। राज्य का सम्बन्ध तर्क-बुद्धि और कानून से है जो दार्शनिक के गुण हैं। दोनों का विरोध स्पष्ट है। प्लेटो के यहाँ कवि और दार्शनिक राजा के अन्तर्विरोध से कला एवं नैतिकता में विरोध उत्पन्‍न होता है, क्योंकि दार्शनिक राजा अपनी तर्क-बुद्धि एवं विवेक से राज्य की नैतिकता की रक्षा करता है और कवि-कलाकार निःकृष्ट जीवनअंशों एवं कुत्सित भावनाओं के उद्रेक से उसे नष्ट करते है। इसी बिन्दु पर प्लेटो के यहाँ दर्शनशास्‍त्र और साहित्य का विरोध है।

 

प्लेटो ने कवियों-कलाकारों को देश निकाला देने की पैरवी दो कारणों से की – पहला कारण प्लेटो के दार्शनिक चिन्तन की सीमा है, जो उनके समय और समाज के पूरे बोध की ऐतिहासिक सीमा भी है। दूसरा कारण कुलीनतन्त्र – दासों और मालिकों वाले समाज में प्लेटो की सामाजिक स्थिति है। प्लेटो का दार्शनिक चिन्तन दास-प्रथा वाले यूनानी समाज की देन है। उत्पादन और उपभोग के बीच की खाई का चौड़ा होना शेष था, जो पूँजीवादी जटिल समाज व्यवस्था की अनिवार्य परिणति होती है। उनदिनों प्रकृति और मनुष्य का सम्बन्ध भी आज जैसा वैमनस्यपूर्ण न था। दोनों की आवयविक एकता प्लेटो के समाज की विशिष्टता थी, जिसके मूल में समस्त प्राकृतिक क्रिया-व्यापारों के प्रति एक नैसर्गिक आश्‍चर्य भाव भरा था।

 

सभ्यता के विकास के उस प्रारम्भिक दौर ने ऐसी चेतना को जन्म दिया, जिसके अनुसार पूरा समाज किसी आधिभौतिक सत्ता से नियन्त्रित एवं संचालित होने के कारण व्यवस्थाबद्ध था। यह आधिभौतिक सत्ता प्लेटो के यहाँ एकमात्र आध्यात्मिक सत्य है, जिसे वह सार्वभौम विचार कहते हैं। सृष्टि के मूल में यही सार्वभौम विचार क्रियाशील है, जो सत्य एवं पूर्ण है। अतः अपरिवर्तनशील भी है। यही आद्यशक्‍त‍ि समस्त यथार्थ का आदर्श रूप है, जिससे भौतिक चीजों की पहचान होती है। सुदीप्तो कविराज के अनुसार यूनानी चिन्तन में भी यथार्थ का सारतत्त्व एक सम्पूर्ण परिघटना है जो अपने आदर्श रूप में मौजूद होता है। प्लेटो अध्यात्मवादी दार्शनिक थे। इसलिए वे विश्‍वास करते थे कि सभी यथार्थ, रूप की विकृतियाँ हैं, जिन्हें आदर्श के निकट लाने की आवश्यकता है। परिशुद्धि के लिए यह अनिवार्य है।

 

अर्थात प्लेटो के लिए कला का प्रश्‍न सौन्दर्यशास्‍त्र का प्रश्‍न न होकर सामाजिक व्यवस्था का प्रश्‍न है। उनके अनुसार देश, समाज व्यक्‍त‍ि सभी की मुक्‍त‍ि ईश्‍वर की समरूपता में है; जो ज्ञान, दर्शन और ईश्‍वरीय चिन्तन से सम्भव है, ललित कलाओं से नहीं। कला-निषेध की समस्या दरअसल सामाजिक संगठन एवं व्यवस्था से जुड़ी हुई है। विद्वानों की धारणा है कि प्लेटो मातृ एवं पितृपक्ष – दोनों से कुलीन थे। उस कुलीनतन्त्र की सुरक्षा के लिए दार्शनिक चिन्तन को आध्यात्मिक औचित्य प्रदान किया गया।

  1. कविता और समाज

कुलीनतन्त्र के भीतर प्लेटो ने तर्क, शक्‍त‍ि (स्प्रिट ऑफ़ पॉवर) और भोग (एपीटाइट) के आधार पर अपने गणतन्त्र में नागरिकों का कोटि विभाजन किया। ‘तर्क’ के अन्तर्गत दार्शनिकों एवं बुद्धिजीवियों को प्रथम स्थान मिला। ‘शक्‍त‍ि’ के भीतर योद्धाओं-सूरमाओं एवं राजा को दूसरा स्थान मिला। ‘भोग’ के अन्तर्गत दोनों की सुविधाओं एवं सामाजिक जरूरतों को पूरा करने के लिए सामान जुटाने वाले दासों, कारीगरों, श्रमजीवियों का स्थान सुरक्षित हो गया। नागरिक समाज का यह विभाजन बहुत कुछ भारतीय वर्णव्यवस्था वाले समाज जैसा प्रतीत होता है।

 

प्लेटो कवि और कविता से नाराज इसलिए थे कि वे सामाजिक स्थिति को उलट-पलट देते थे। होमर ने इलियड और ओडिसी में दासों के अधिकारों एवं उनके संघर्षों की कथा कही है। स्पार्टाकस को महिमामण्डित किया है। प्लेटो की दृष्टि से, अनुकरणकर्ता कवियों के साहित्य द्वारा नागरिक समाज के राजनितिक, सामाजिक और वैचारिक जीवन में उच्छृंखलता फैलने की बहुत सम्भावना थी और व्यक्‍त‍िगत जीवन भी कलुषित होने का खतरा था। उन्हें स्वभावतः ऐसा साहित्य नापसन्द था जो न तो व्यक्‍त‍िगत चरित्र को उन्‍नत करे और न सामाजिक जीवन को श्रेष्ठ बनाए। उनका ध्येय श्रेष्ठ समाज, श्रेष्ठ राजनीतिक सिद्धान्त तथा श्रेष्ठ नैतिक नियमों की स्थापना था। जब उन्होंने देखा कि साहित्य इन लक्ष्यों से भटक गया है, तब उन्होंने कवियों-कलाकारों का घोर विरोध किया और उन्हें अपने आदर्श गणराज्य से निष्काषित करने को कहा। यहाँ उल्लेखनीय यह है कि श्रेष्ठ समाज, श्रेष्ठ राजनीतिक सिद्धान्त तथा श्रेष्ठ नैतिक नियमों के मानदण्ड वही थे, जो कुलीनतन्त्र के थे और जिसे प्लेटो ने मनुष्य की कोटि-क्रम-शृंखला में बँधकर उनकी सामाजिक भूमिका निर्धारित कर दी थी।

 

यूनान के अनेक मानवतावादी लेखक और कवि दास-प्रथा और कुलीन-तन्त्र को नापसन्द करते थे। नाटककार युरोपडीज उनमें से एक थे। वे स्‍त्री-स्वतन्त्रता एवं लोकवादी गणतन्त्र के पक्षधर थे। देमस्थनीज ने एथेंस के गणतन्त्र को नया लोकवादी रूप देकर दासों की समस्या को सुलझाना चाहा।

 

कुछ विचारकों का मत है कि प्लेटो श्रेष्ठ काव्य और काव्यकारों के विरोधी नहीं थे। वे विरोधी थे हीन कोटि के काव्य और उच्छृंखल कवियों के, जिनसे असन्तुष्ट होकर उन्होंने काव्य के विरुद्ध विचार दिए। सच्‍चाई है वीरता, धैर्य, संयम, पवित्रता आदि गुणों का आह्वान करनेवाले प्लेटो के विचार से ग्राह्य हैं। यहाँ श्रेष्ठ एवं ग्राह्य काव्य, नाटक आदि के निर्देशित गुण दार्शनिक राजा और शूरतन्त्र के गुण हैं, देवताओं के गुण हैं। उन्हीं पर लिखा गया साहित्य ग्राह्य होगा। दासों एवं श्रमिकों के सात्विक क्रोध, भय, ईर्ष्या, दया, लालसा और संघर्ष चित्रण से हृदय में अश्रद्धा पैदा होती है, जिससे समाज को बहुत हानि पहुँचती है। प्लेटो का तर्क है कि सुसंगठित समाज के लिए देवी-देवताओं के श्रेष्ठता का प्रदर्शन ही वांछनीय है। किन्तु कवि अक्सर ऐसी कथावस्तु चुनकर काव्य रचना करते हैं, जिनमें देवी-देवताओं के प्रति मन शंकाकुल होता है। देश के महान योद्धा भी उद्दण्ड, विद्वेषी और कलहपूर्ण रूप में प्रदर्शित होते हैं, जो देवी-देवताओं के सामान ही सम्माननीय होते हैं। (आलोचना, इतिहास तथा सिद्धान्त, डॉ. एस.पी. खत्री, शिवदान सिंह चौहान, राजकमल प्रकाशन, 1964)

 

रिपब्लिक में जगह-जगह प्लेटो ने कवियों-नाटककारों का उपहास किया है। उन्होंने त्रासदीकारों पर व्यंग्य करते हुए घोषित किया कि ट्रैजिक कवि बुद्धिमान हैं। वे तानाशाही के प्रशंसक हैं। इस कारण हम उन्हें अपने राज्य में न आने दें, तो इसके लिए वे हमें, हमारी जीवन-पद्धति अपनाने वालों को क्षमा करेंगे।… वे दूसरे नगरों में पहुँचाते रहेंगे और जनसमुदाय को आकर्षित करेंगे। मधुर, उदात्त और प्रभावशाली स्वर वाले व्यक्‍त‍ियों को भाड़े पर ले आएँगे और नगरों को तानाशाहियों और जनतन्त्र की ओर खींचते रहेंगे।… ये कवि, नाटककार एक राज्य एथेंस से बाहर किए गए तो दूसरे राज्य में पहुँच जाएँगे। सुरीले गायक उनकी कविताएँ गाकर जनता को मन्त्र-मुग्ध करेंगे। इसलिए उन्हें यूनान की सीमा से बाहर कर दो। प्लेटो के लिए सबसे ज्यादा अखरने वाली बात यह थी कि लोग कवियों का सम्मान करते हैं, पैसा देकर उन्हें बुलाते हैं। जनतन्त्रवादी भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। किन्तु हमारे लेखे संविधान की पहाड़ी पर वे जितना चढ़ते हैं, उनकी ख्याति गिरती है और उनकी साँस फूलने लगती है।

 

यूनान के महान ट्रैजिडी लेखक होमर रचना-कौशल्य एवं भावकों पर उनकी रचनाओं के प्रभाव के बारे में प्लेटो का मत था कि बुद्धिमान व्यक्‍त‍ि भी उसमें प्रकट शोक से सहानुभूतिपूर्वक द्रवित होते हैं। जो कवि हमारे भावों को उकसाता है उसके रचना-सौष्ठव की प्रशंसा करते वे नहीं थकते। उनकी राय में उन्होंने स्पष्ट राय दी कि आत्मा का श्रेष्ठतम अंश विवेक का और निकृष्टतम अंश भावों का घर है। उन्होंने स्पष्ट राय दी कि शोक से पीड़ित होकर भी हम उसके विरोधी शान्ति और धैर्य जैसे गुणों से काम लेते हैं। इसी में मर्दानगी है। बाकी जो पाठ सुनकर हम प्रसन्‍न होते हैं, वह सब स्त्रैण प्रवृत्ति है (रिपब्लिक, पृ. 481)। मनुष्य के दुखों को जिन कवि-नाटककारों ने चित्रित किया, वह सब स्त्रैण प्रवृत्ति है, अविवेकपूर्ण है। भावों का दमन और उन पर अविश्‍वास, प्लेटो के उपयोगी कलाओं की श्रेष्ठता की कसौटी है, और यह जो सिर्फ कला ही नहीं हर वस्तु को उपयोगिता के तराजू पर तौलता है।

 

प्लेटो की एक प्रसिद्ध उक्‍त‍ि है, ‘जो उपयोगी है वही श्रेष्ठ है, जो हानिकारक है वही हीन है।’ (रिपब्लिक- II, द डायलाग्स ऑफ़ प्लेटो, पृ. 312) इस दृष्टि से तो होमर ही नहीं, युरोपडीज, सोफोक्लीज, एस्किलस एवं अरिस्तोफेनीज जैसे सभी यूनानी त्रासदीकार की कृतियाँ हानिकारक एवं हीन हो जाएंगी, क्योंकि उनका सम्बन्ध मानव-मन की पेचीदा गुत्थियों और असम्भाव्य के सम्भाव्य से है। त्रासदी वहीं से जन्म लेती है। प्लेटो के अनुसार कवि-प्रकृति उस चित्रकार की है जो मोची का प्रतिरूप बना देगा, जबकि वह मोची के काम के बारे में कुछ नहीं जानता। उसी तरह के दूसरे लोग, जो उससे ज्यादा कुछ नहीं जानते और केवल रंगाकृतियाँ देखकर निर्णय करते हैं, चित्र से सन्तुष्ट हो जाते हैं। (रिपब्लिकन, पृ. 475) बढ़ई पलंग बनाता है। उससे समाज की एक आवश्यकता पूरी होती है। इसी तरह मोची जूता बनाता है। उससे लोगों की जरूरत पूरी होती है। कवि शब्द रचना करता है। चित्रकार रंगों-रेखाओं से चित्र बनाता है। उससे समाज की कोई जरुरत पूरी नहीं होती। लिहाज़ा कवि और चित्रकार बढ़ई और मोची से श्रेष्ठ नहीं हो सकते। यहाँ प्लेटो ने कवि-नाटककार के साथ चित्रकार की भी सामाजिक उपयोगिता स्पष्ट कर दी है।

 

ग्राम्शी ने अपनी प्रिजन डायरी  में व्यवहारपरक दर्शन के अध्ययन की कुछ समस्याओं पर विचार किया है। उन्होंने क्रोचे की विचार-प्रणाली की त्रुटि के बारे में लिखा है कि अन्य भाववादी-आदर्शवादी चिन्तकों की तरह उनके यहाँ भी दार्शनिक दृष्टिकोण और राजनीतिक कर्म के बीच एक फाँक दिखाई देता है। यानी, एक निश्‍चित दार्शनिक मतवाद अनिवार्यतः एक निश्‍चित राजनीतिक कर्म की ओर ले जाता है, यह बोध प्लेटो के ‘मेटाफिजिक्स’ में सिरे से अनुपस्थित है। यही उन्हें विश्‍वात्मा जैसे अमूर्त्त, तरल एवं स्वकल्पित अटकल-पन्थ की ओर ले जाता है। यह प्लेटो के हाथ की सफाई कहिए या उनकी विलक्षण प्रतिभा का चमत्कार कि उन्होंने काव्य और कला के प्रश्नों को रहस्यवादी शब्दावली प्रदान कर उसकी दुनिया को आध्यात्मिक सृजन की सर्वोत्तम अभिव्यक्‍त‍ि तक पहुँचाया; जहाँ प्रश्‍न वास्तविक सामाजिक-राजनीतिक सुरक्षा का नहीं, बल्कि कला की आध्यात्मिक साधना का था जो अन्ततः दर्शनशास्‍त्र की आत्ममुग्ध दुनिया में अन्तर्धान हो जाता है। कहने की जरूरत नहीं कि सिद्धान्त से व्यवहार का, कर्म से चिन्तन का यह आसमानी-जमीनी अलगाव और यूनानी समाज के यथार्थ से ऊपर उठकर विचारों को बनाने की प्रवृत्ति ने प्लेटो को सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त रखा। कवियों-कलाकारों के प्रति तिरस्कारमूलक और विद्वेषपूर्ण अवमानना स्वयं में एक राजनीतिक कर्म था, जिसकी अपरिहार्य परिणति ‘आदर्श गणतन्त्र’ की सीमा से त्रासदी लेखकों को खदेड़ देने में हुई, जो स्वयं एक त्रासदी थी।

 

प्लेटो के चिन्तन का ढाँचा थोड़े-बहुत संशोधनों के साथ सोलहवीं सदी के लेबनीज तक बना रहा। यद्यपि अरस्तू ने अनुकरण एवं अनुकृति की व्याख्या एकदम नए तरीके से की, किन्तु प्लेटो के आध्यात्मिक चिन्तन का सुदृढ़ घेरा टूट नहीं पाया। वह टूटा औद्योगिक क्रान्ति के बाद। ईश्‍वर अपदस्थ हुए और प्लेटो के अध्यात्मवाद का ताना-बाना बिखर गया। दुबारा उसकी मरम्मत असम्भव हो गई। प्लेटो का साहित्य-चिन्तन समकालीन राजनीतिक हलचल और सामाजिक विघटन के एक दौर में साहित्य-सृजन को व्यवस्थाबद्ध करने की ऐतिहासिक भूमिका पूरी कर चुका था।

  1. निष्कर्ष

संक्षेप में प्लेटो के अनुकरण सिद्धान्त ने कला को सच से तिहरी दूरी पर स्थित मानकर, उसे एक झूठी अनुकृति भर माना। उन्होंने कला को मनोभाव विकृत करने वाला, सामाजिक स्थिति में उलट-पुलट कर देने वाला साधन कहकर उसकी तीव्र आलोचना की। उसके अनुसार यह राज्य के लिए अवांछित था, इसलिए कवि एवं कलाकार को राज्य से बाहर निकाल देना चाहिए। वस्तुतः प्लेटो का यह चिन्तन उनकी कला-सम्बन्धी मान्यताओं की अतिरेकी दृष्टि का परिणाम सिद्ध हुआ, जिसका उनके समय में ही खण्डन शुरू हो गया।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें :

  1. प्लेटो के काव्य-सिद्धान्त, निर्मला जैन, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली।
  2. साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
  3. यूनानी और रोमी काव्यशास्त्र, कृष्णदत्त पालीवाल, सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली
  4. पाश्चात्य काव्यशास्त्र,देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
  5. पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा,डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
  6. Republic Plato, translated and edited by I.A. Richards, Cambridge University Press, London.
  7. A History of Political Ideas, Vivian Ntton, Routledge, London, New York.
  8. The Routledge Guidebook to Plato’s Republic, Nickolas Pappars, Routledge, New York.
  9. Plato Today, R.H.S. Crossman, Unwin Books, London.
  10. The Laws of Plato, translated with notes and interpretive essay by Thomas L. Pangle, Basic Books, New York.

 

वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=CqGsg01ycpk
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Plato
  3. http://en.wikipedia.org/wiki/Aristotle
  4. http://en.wikipedia.org/wiki/Catharsis