3 पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा-2
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- स्वछन्दतावादी साहित्यसिद्धान्त
- सन्तुलन की खोज : मैथ्यू आर्नल्ड
- नया वैचारिक परिपेक्ष्य : मार्क्सवाद और मनोविश्लेषण
- कला की स्वायत्तता : प्रतीकवाद, रूपवाद,‘कला कला के लिए’ और क्रोचे
- आधुनिकतावाद : टी.एस. इलियट, आई.ए. रिचर्ड्स और एफ.आर. लीविस
- भविष्य की दिशाएँ : उत्तरआधुनिकतावाद के विविध रूप
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- स्वच्छन्दतावाद (19वीं सदी के आरम्भ) से लेकर आधुनिक काल (20 वीं सदी) तक के लगभग दो सौ वर्षों के काव्यशास्त्र के विकास से परिचित हो सकेंगे।
- स्वच्छन्दतावादी काव्य-चिन्तन में वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज के अवदान और महत्त्व को समझ सकेंगे।
- स्वछन्दतावादी स्वेच्छाचरिता को सन्तुलित करने में मैथ्यू आर्नल्ड की आलोचकीय भूमिका पहचान सकेंगे।
- साहित्य की सामाजिक भूमिका के बरक्स विभिन्न कलावादी आन्दोलनों- विशेष रूप से क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
- साहित्य की सैद्धान्तिकी के विकास में मार्क्सवाद और फ्रायडीय मनोविश्लेषण के महत्त्व से परिचित हो सकेंगे।
- रूपवादी समीक्षा (जैसे अमेरीकी ‘नई समीक्षा’) की प्रेरक शक्तियों के रूप में टी.एस. इलियट और आई.ए. रिचर्ड्स की भूमिका समझ सकेंगे।
- आधुनिक साहित्य-चिन्तन में इलियट का विशेष महत्त्व पहचान सकेंगे।
- इलियट की परवर्ती समालोचना के विकास में एफ.आर. लीविस के महत्त्व का आकलन कर सकेंगे।
- सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में भविष्य की दिशाओं की ओर संकेत कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
आरम्भ (ईसा.पू. पाँचवी सदी से लेकर नव्यशास्त्रवाद 18वीं सदी) तक के पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय विकास से आगे, 19वीं और 20वीं सदी, अर्थात स्वच्छन्दतावाद से लेकर आधुनिक काल तक के साहित्य-चिन्तन का परिचय प्राप्त करेंगे।
अरस्तू ने अपनी प्रसिद्ध कृति काव्यशास्त्र में जो नियम प्रतिपादित किए थे, वे पूर्ववर्ती तथा समसामयिक रचनाशीलता से आकलित किए गए थे। बाद में यह स्थिति नहीं रही। होरेस की प्रसिद्ध सैद्धान्तिक कृति काव्यकला एक प्रकार से अरस्तू के काव्यशास्त्र का ही रूपान्तर है। पुनर्जागरण काल और नव्यशास्त्रवाद के दौर में सिद्धान्तकारों की निर्भरता क्लासिकी नियमों पर बनी रही। पुनर्जागरण काल में रचनात्मक साहित्य में तो इन नियमों की उपेक्षा कर दी गई थी, किन्तु सिद्धान्तकारों का नियमों के प्रति आदर-भाव कायम रहा। उदाहरण के लिए, इस दौर के प्रमुख सिद्धान्तकारों– सर फिलिप सिडनी और बेन जॉनसन ने क्लासिकी नियमों के अनुपालन पर जोर दिया।
नव्यशास्त्रवादी युग में रचनात्मक साहित्य और सैद्धान्तिकी, दोनों क्षेत्रों में क्लासिकी (प्राचीन यूनानी-रोमी) नियमों पर यह निर्भरता दिखाई देती है। नव्यशास्त्रवाद में मुख्य रूप से तीन बातों की ओर संकेत किया गया है– कला प्रकृति का अनुकरण है; काव्य की कुछ प्रमुख विधाएँ है- महाकाव्य, त्रासदी और प्रगीत) एवं नया साहित्य इन्हीं विधाओं के ढाँचें में रचा जाना चाहिए। अन्य सभी सन्दर्भों में काव्य-रचना करते समय क्लासिकी नियमों का अनुपालन किया जाना चाहिए। नियम समसामयिक रचनाशीलता से ग्रहण किए जाएँ, इसपर किसी सिद्धान्तकार का बल नहीं है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि अंग्रेजी तथा अन्य आधुनिक यूरोपीय भाषाओं का साहित्य अभी इतना समृद्ध नहीं था कि उनसे प्रतिमान ग्रहण करने की बात सोची जाए।
ऊपर जिन तीन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है, वे नव्यशास्त्रवाद की सामान्य विशेषताएँ तो हैं किन्तु इस दौर के किसी सिद्धान्तकार ने इन नियमों का कठोरता से पालन नहीं किया। उदाहरण के लिए ड्राइडन ने साफ़ कहा कि किसी सौन्दर्य-बिन्दु की उपेक्षा से तो बेहतर है कि नियम की ही अवेहलना कर दी जाए। उनका यह कथन तो पर्याप्त प्रसिद्ध है कि ‘अरस्तू ने ऐसा कहा है, इतना ही काफी नहीं है…।‘ पुनर्जागरण काल, और विशेष रूप से नव्यशास्त्रवादी दौर में, क्लासिकी नियमों के अन्तर्गत, सबसे ज्यादा बहस अन्वितित्रयी (कालान्विति, देशान्विति और कार्यन्विति) को लेकर चली। डॉ. जॉनसन ने इन नियमों की यान्त्रिक जड़ता पर चोट की, और जैसा कि हम पिछले पाठ में देख चुके हैं, उन्होंने अपने उत्तर से इस बहस को अन्तिम रूप से विराम दे दिया। पुनर्जागरण काल के एक प्रमुख लेखक बेन जॉनसन क्लासिकी साहित्य के अप्रितम विद्धान थे। उसके पक्षधर भी थे। उन्होंने आगाह किया कि “किसी लेखक को तानाशाह बना दिया जाए, जैसे कि स्कूलों में अरस्तू को बना दिया गया है, इससे ज्यादा उपहासास्पद कोई बात हो नहीं सकती।” अतः स्वच्छन्दतावादी दौर अर्थात 18वीं सदी के अन्तिम वर्षों अथवा 19वीं सदी के आरम्भ में संवेदना में जो परिवर्तन आया, वह एकबारगी नहीं आ गया था। परम्परा ने इस परिवर्तन की बुनियाद रख दी थी। समाज और साहित्य में जो परिवर्तन होते हैं, वे विकास के सूचक होते हैं, पूर्ण विच्छेद के नहीं।
स्वच्छन्दतावादी दौर में सहित्य-समीक्षा ने अपना सच्चा स्वरूप प्राप्त किया। उसमें समसामयिक रचनाशीलता को आधार रूप में ग्रहण किया गया। पुनर्जागरण काल और नव्यशास्त्रवादी दौर में क्लासिकी नियमों को समय-समय पर प्रश्नांकित तो किया गया था। किन्तु उन नियमों की बैसाखी को सिद्धान्तकार छोड़ न सके। क्लासिकी प्रतिमानों को आधार रूप में रखते हुए ही उन्होंने यत्किंचित नवीनता का उन्मेष किया और यह उन्मेष भी अत्यन्त संकोच के साथ मानो डरते-डरते किया गया। स्वच्छन्दतावादी सिद्धान्तकारों ने इन नियमों की पूर्ण उपेक्षा कर दी और काव्य-चिन्तन को समसामयिक रचनाशीलता से जोड़ दिया। इस प्रकार रचना और आलोचना के बीच जो एक प्रकार का विच्छेद चला आ रहा था, वह काफी हद तक दूर हुआ। वर्ड्सवर्थ के प्रसिद्ध आमुख, में अरस्तू का एक-आध जगह उल्लेख भर है, वह भी अपनी बात की पुष्टि के लिए। इस दौर के प्रमुख आलोचक कॉलरिज ने अपने मूल सिद्धान्त समसामयिक रचनाशीलता– विशेष रूप से वर्ड्सवर्थ की कविता के आधार पर विकसित किए। उनकी केन्द्रीय व्यावहारिक आलोचना का सम्बन्ध भी वर्ड्सवर्थ के काव्य से है।
19वीं-20वीं सदी में साहित्य की सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में जो विकास हुआ वह विविध दिशाओं में हुआ। उसके विकास की गति भी अत्यन्त तीव्र रही। क्रमशः उसमें विविध आयाम जुड़ते गए और वह अधिकाधिक समृद्ध होती गई। उदाहरण के लिए कॉलरिज ने आलोचना को दर्शन से सम्बद्ध किया। प्लेटो ने काव्य और दर्शन के विरोध की चर्चा की है। कॉलरिज ने दोनों में अपरिहार्य सम्बन्ध घोषित किया। 19वीं सदी के उत्तरार्ध में मैथ्यू आर्नल्ड ने आलोचना में सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम का संयोग किया। मार्क्स ने सामाजिक-ऐतिहासिक आयाम पर विशेष बल दिया। फ्रायड ने बाह्य या वस्तु जगत के बजाय मनोजगत को अधिक महत्त्व दिया और साहित्यिक विवेचन में मनोविश्लेषण का आयाम जोड़ा। इलियट ने मूलपाठ के विश्लेषण के साथ-साथ परम्परा पर बल दिया। रिचर्ड्स और नई समीक्षा से जुड़े समीक्षकों ने भाषिक विश्लेषण और कला की स्वायत्तता को अपने लक्ष्य के केन्द्र में रखा। एफ.आर. लीविस ने अपनी समीक्षा में समाज और संस्कृति पर बल देकर आर्नल्ड की परम्परा को आगे बढाया। उत्तरआधुनिकता में तो यह विविधता और भी ज्यादा बढ़ गई।
इस दौर की सैद्धान्तिकी के बारे में एक अन्य उल्लेखनीय बात यह है कि नव्यशास्त्रवादी काल तक काव्य-चिन्तन में रचना का परिवेश-परिस्थिति से सम्बन्ध पर बल था। उन्नीसवीं-बीसवीं सदी में जो सैद्धान्तिकी विकसित हुई, उसमें परिवेश-परिस्थिति के साथ-साथ रचनाकार को, और पाठक से रचना के सम्बन्ध को, दृष्टिपथ में रखा गया। इस प्रकार काव्यशास्त्रीय चिन्तन क्रमशः संश्लिष्ट और समृद्ध होता गया। एक बार जो आयाम जुड़ गया, किसी आलोचक के विरोध के बावजूद उसे फिर हटा पाना सम्भव नहीं हुआ।
- स्वछन्दतावादी काव्य-सिद्धान्त : वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज
जैसे हिन्दी में भक्तिकाल के बाद, छायावादी युग, हिन्दी कविता का सबसे समृद्ध युग है, उसी प्रकार अंग्रेजी में पुनर्जागरण काल के बाद स्वछन्दतावादी युग अंग्रेजी कविता का सबसे समृद्ध युग है। स्वछन्दतावादी आन्दोलन की शुरुआत 18वीं सदी के अन्तिम वर्षों में हुई और 19वीं सदी के आरम्भिक दो-तीन दशकों में यह पूरे यूरोप और नई दुनिया (अमेरिका) में फैल गया।
अंग्रेजी के प्रमुख स्वछन्दतावादी कवियों की दो पीढ़ियाँ मानी जाती हैं। पहली पीढ़ी में वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज आते हैं, और दूसरी पीढ़ी में बायरन, शैली और कीट्स। इनमें काव्य की सैद्धान्तिकी की दृष्टि से वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज के नाम अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। वर्ड्सवर्थ मूलतः कवि थे। ऐतिहासिक आवश्यकता के दबाव से वे नए युग के सिद्धान्तकार बने। कॉलरिज ने भी शुरुआत कवि के रूप में की थी, किन्तु आगे चलकर उन्होंने साहित्य-समीक्षा को अपना मुख्य क्षेत्र बनाया। ये दोनों कवि घनिष्ठ मित्र भी थे और प्रतिस्पर्धी भी। बिल्कुल निराला और पन्त की तरह। इन कवियों ने लिरिकल बैलेड्स शीर्षक से एक युगान्तकारी कविता-संग्रह निकाला था। इसमें दोनों कवियों की कविताएँ थीं। इसका पहला संस्करण सन् 1798 में प्रकाशित हुआ था और दूसरा सन् 1800 में। दूसरे संस्करण के लिए वर्ड्सवर्थ ने एक लम्बी भूमिका लिखी। यह भूमिका ‘स्वछन्दतावाद का घोषणापत्र’ मानी जाती है। आलोचक के रूप में वर्ड्सवर्थ की जो ख्याति है उसका श्रेय इसी भूमिका को है।
लिरिकल बैलेड्स की कविताओं पर युग की दो महत्त्वपूर्ण घटनाओं का गहरा असर है। ये घटनाएँ हैं– औद्योगिक क्रान्ति और फ्रांसीसी क्रान्ति ( सन् 1789)। ये दोनों क्रान्तियाँ 18वीं सदी के उत्तरार्ध में हुई थीं। लिरिकल बैलेड्स की कविताओं पर, और इनकी भूमिका स्वरुप लिखे गए द्वितीय संस्करण के आमुख पर, इन क्रान्तियों का गहरा प्रभाव है। यह प्रभाव संगृहीत कविताओं की वस्तु के साथ-साथ उनकी भाषा पर भी है। यथार्थ में बदलाव के साथ संवेदना तो बदलती ही है, किन्तु अभिव्यक्ति में बदलाव कोई प्रतिभा सम्पन्न रचनाकार ही ला सकता है। वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज यही बदलाव लाए थे। वर्ड्सवर्थ ने जोर देकर कहा कि गद्य की भाषा और कविता की भाषा में मूलतः न तो कोई अन्तर है और न हो सकता है। नव्यशास्त्रवादी दौर में सायास यह अन्तर रखा जाता था, जिसे वर्ड्सवर्थ ने दूर करने का प्रयास किया। इस प्रकार वे काव्यभाषा को बोलचाल की भाषा के नजदीक लाए। कवि और कविता के बारे में इन कवियों की बड़ी उदात्त परिकल्पना है। साथ ही इस क्रान्ति ने ‘स्वतन्त्रता, समानता और भाईचारे’ का जो नारा दिया था, उसकी वजह से इन दोनों कवियों के विचार लोकतान्त्रिक मूल्यों से अनुप्राणित हैं। आमुख में एक वाक्य आता है जो पर्याप्त शिक्षाप्रद है– “कवि केवल कवियों के लिए नहीं लिखते, मानव-मात्र के लिए लिखते हैं।” कविता की परिभाषा में इन दोनों कवियों ने ‘भाव’ को केन्द्रस्थ किया। वर्ड्सवर्थ ने कविता को ‘भाव का सहज उच्छलन’ कहा। कॉलरिज के अनुसार श्रेष्ठ कविता में जो भाव होता है, वह पूरी कविता में ‘अन्तर्धारा के रूप में’ व्याप्त रहता है। वह अलग से चमत्कार-बिन्दु के रूप में कभी नहीं होता। स्पष्ट ही यहाँ कॉलरिज का बल संरचनात्मक अन्विति पर है। साथ ही उन्होंने बताया कि अच्छी कविता का जो रूपविधान होता है, वह जैविक (ऑर्गेनिक) होता है, यान्त्रिक नहीं।
सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में कॉलरिज का योगदान अधिक मूलगामी है। स्वच्छन्दतावादी काव्य की सर्वप्रमुख विशेषता का उल्लेख करने को कहा जाए तो वह है– कल्पना का ऐश्वर्य। कल्पना एक प्रकार से रचनाशीलता का पर्याय है। कॉलरिज ने ‘कल्पना’ की अत्यन्त तर्कसंगत व्याख्या की और उसे स्वच्छन्दतावादी समीक्षा के बीज शब्द के रूप में प्रतिष्ठित किया। पूर्व-परम्परा में रचनाशीलता (कल्पना) की जो व्याख्या की गई थी वह रहस्य के धुँधलके में लिपटी हुई थी। कॉलरिज ने कल्पना की कार्यविधि का अत्यन्त वैज्ञानिक या तर्कसंगत निरूपण किया। विधायक कल्पना का सर्वप्रमुख कार्य उन्होंने यह बताया कि वह अनुभव और परम्परा से प्राप्त सामग्री का बारीक-से-बारीक तत्त्वों में विघटन करती है, फिर कल्पना की मदद से उसे एक नई संरचना में ढालती है। दूसरे, कल्पना की ‘संश्लेषणात्मक’ और जादुई शक्ति विरोधी तत्त्वों के सामंजस्य में व्यक्त होती है। भाव और विचार अथवा कल्पना और यथार्थ निरपेक्ष रूप से परस्पर विरोधी नहीं है। कविता का आधार है भाव, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु कविता के लिए केवल भाव काफी नहीं है। इसी प्रकार केवल विचार शक्ति से जो चीजें जन्म लेती हैं, उनमें ‘मृत्यु की गन्ध’ होती है। भाव और विचार अथवा संवेदना और ज्ञान दोनों चाहिए। दोनों का सामंजस्य मुक्तिबोध की शब्दावली में ‘संवेदनात्मक ज्ञान’ अथवा ‘ज्ञानात्मक संवेदना’। यदि दोनों में सामंजस्य घटित किया जा सके तो वे एक दूसरे को अनुप्राणित करते हैं। उन्हें उत्कर्ष प्रदान करते हैं। भाव विचार को गहराई प्रदान करता है और विचार भाव की तीव्रता में वृद्धि कर देता है। मुक्तिबोध ने लिखा है कि ‘संवेदनात्मक ज्ञान-व्यवस्था’ भाव सम्पदा में भूचाल पैदा कर देती है। यही वजह है कि वर्ड्सवर्थ के ‘आमुख’ और कॉलरिज के आलोचना-साहित्य में या तो ‘भाव’ और ‘विचार’ का सहप्रयोग मिलेगा, या फिर जहाँ ‘भाव’ शब्द का प्रयोग है उसी के आसपास कहीं ‘विचार’ का प्रयोग मिल जाएगा। ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ (रिकन्सिलिएशन ऑफ अपोजिट्स) शब्द संयोग कॉलरिज का ही गढ़ा हुआ है, जिसका आचार्य शुक्ल ने अपने आलोचना-साहित्य में अत्यन्त सृजनात्मक ढंग से उपयोग किया। कॉलरिज का सम्पूर्ण आलोचना-साहित्य अन्तर्दृष्टियों से भरपूर है। इन्हीं अन्तर्दृष्टियों की वजह से उन्हें यूरोपीय परम्परा में अरस्तू और लोंजाइनस के बाद, तीसरा सबसे महत्त्वपूर्ण आलोचक माना जाता है।
- सन्तुलन की खोज : मैथ्यू आर्नल्ड
कला या साहित्य, एक चरण से दूसरे चरण में, दो विरोधी मार्गों से आगे बढ़ता है। एक मार्ग यह है कि हम इसके मूल्यों और विकास-स्थिति को, रचनात्मक दृष्टि अपनाकर स्वीकार कर लेते हैं। दूसरे, संवेदना बदल जाने पर, हम उसके खिलाफ विद्रोह कर देते हैं। इस प्रकार क्रमशः स्वीकार और विद्रोह का मार्ग अपनाते हुए साहित्य विकास के पथ पर आगे बढ़ता जाता है। उसमें नए-नए आयाम जुड़ते जाते हैं। वह उत्तरोत्तर अधिक संश्लिष्ट और समृद्ध होता जाता है। परम्परा-प्राप्त साहित्य में यदि हमें वैसी ही, या उससे भी अधिक, संश्लिष्टता दिखाई देती है जैसे शेक्सपियर में, तो उसका कारण यह है कि पाठक-आलोचक उसकी रिक्तियों या नीरवताओं में अपना ज्ञानात्मक संवेदन डाल देते हैं। पुनर्जागरण काल (जैसे शेक्सपियर) में जो भाव प्राचुर्य, बल्कि भावों का ज्वार दिखाई देता है, उसपर बेन जॉनसन अंकुश लगाने के पक्ष में थे। उन्हें लगा था कि यह भावोन्मेष विवेक की सीमाओं को अतिक्रान्त कर रहा है। आगे चलकर नव्यशास्त्रवादी दौर में भावों के इसी अतिरेक पर अंकुश लगाया गया। प्राचीन क्लासिकी (यूनानी-रोमी) नियमों को कड़ाई से लागू करके, फ्रांस और इंग्लैण्ड, दोनों जगह यह हुआ। इसी प्रकार स्वच्छन्दतावादी साहित्य भी एक भाव-क्रान्ति से होकर गुजर रहा था। इस दौर में केवल वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, बायरन, शैली और कीट्स ही नहीं थे, सैकड़ों और कवि भी थे, जो भावुकता की धारा में बह रहे थे। अतः युग-चेतना इस भावुकता को नियन्त्रित करने के पक्ष में थी। मैथ्यू आर्नल्ड (सन् 1822-1888) का अविर्भाव ऐसे ही समय हुआ। स्वच्छन्दतावादी भावुकता को नियन्त्रित करने के लिए उन्होंने भी अभिजात्यवादी मूल्यों का सहारा लिया। यह आजमाया हुआ रास्ता था।
उन्नीसवीं सदी ने अंग्रेजी को दो बड़े आलोचक दिए– सदी के पूर्वार्ध में कॉलरिज और उत्तरार्ध में मैथ्यू आर्नल्ड। किन्तु कॉलरिज का प्रभाव बहुत कुछ 20वीं सदी में दिखाई देता है। उनके अपने युग में उनकी महानता को समझा नहीं गया। आर्नल्ड के युग अर्थात विक्टोरियाई युग में जिन आलोचना प्रतिमानों का वर्चस्व था, वे डॉ. जॉनसन की प्रसिद्ध आलोचना कृति लाइन्स ऑफ़ द इंग्लिशपोएट्स (अंग्रेजी कवियों की जीवनी) पर आधारित थे। मैथ्यू आर्नल्ड ने अपने आलोचना कर्म द्वारा उन प्रतिमानों का स्थान ग्रहण किया। उन्हें प्रतिस्थापित किया। उनके प्रसिद्ध निबन्धफंक्शन ऑफ क्रिटिसिज्म इन द प्रजेंट टाइम (वर्तमान युग में आलोचना का कर्त्तव्य-कर्म) को वैसे ही प्रसिद्धि मिली, जैसे 20वीं सदी में इलियट के निबन्ध ट्रडीशन एण्ड इण्डिविजुअल टेलेन्ट (परम्परा और वैयक्तिक प्रतिभा) को। इंग्लैंड में लोग आर्नल्ड की तुलना अरस्तू से करते थे। ड्राइडन के युग में लोग कहते थे कि ‘अरस्तू ने ऐसा कहा है।’ आर्नल्ड के अविर्भाव के बाद वे कहने लगे कि ‘आर्नल्ड ने ऐसा कहा है।’ जैसे कॉलरिज ने आलोचना में दर्शन और मनोविज्ञान का संयोग किया था, उसी प्रकार आर्नल्ड ने उसमें सामाजिक-सांस्कृतिक आयाम का संयोग किया। उनकी आलोचना एक प्रकार से ‘संस्कृति-समीक्षा’ है। उन्होंने कविता को ‘जीवन की आलोचना’ कहा पर यह आलोचना होती है ‘काव्य-सत्य’ और काव्य-सौन्दर्य के नियमों के अधीन। इस प्रकार आलोचना को उन्होंने नैतिक बोध से सम्पन्न किया। सर्वत्र उनका बल श्रेष्ठता पर है, वास्तविक श्रेष्ठता पर, ऐतिहासिक श्रेष्ठता पर नहीं– दुनिया में जो कुछ सर्वश्रेष्ठ माना– समझा जाता है। उस पर अरस्तू की तरह आर्नल्ड के लिए भी रचना में प्राथमिक महत्त्व है, कथानक या कार्य-व्यापार का। श्रेष्ठ काव्य के लिए समग्र प्रभाव जरूरी है। प्रतिभा निरन्तरता में होती है। असम्बद्ध विचारों और बिम्बों के आधार पर कोई महाकवि नहीं हो सकता। उसमें संरचनात्मक अन्विति होनी चाहिए। किन्तु ऐतिहासिक पद्धति के विकल्प के रूप में उन्होंने जो ‘निकष-पद्धति’ (टचस्टोन मैथड) सुझाई उससे संरचना के महत्त्व का निषेध होता है। उनके मूल्य-निर्णय में भी कहीं-कहीं इस तरह की असंगतियाँ हैं। उदाहरण के लिए शैली के बारे में उनका यह कथन कि वह ऐसा देवदूत है जो सुन्दर तो है लेकिन प्रभावित नहीं करता। यदि वह प्रभावित नहीं करता तो सुन्दर कैसे हुआ ! आर्नल्ड की आलोचना पठनीय बहुत है। वे कहीं नीरस नहीं है। उनका गद्य अद्भुत है। अपने युग का सर्वश्रेष्ठ आलोचनात्मक गद्य उन्होंने लिखा है। उनके अन्य समसामयिक लेखकों जैसे कार्लाइल और रस्किन का गद्य बोझिल है। वे जगह-जगह अलंकरण में फँस जाते हैं। इसके बरक्स आर्नल्ड का गद्य एकदम स्वच्छ और पारदर्शी है। हीरे की तरह दमकता हुआ। उनके आलोचना साहित्य के जादुई आकर्षण का श्रेय उनके गद्य को भी जाता है।
- नया वैचारिक परिप्रेक्ष्य : मार्क्सवाद और मनोविश्लेषण
आलोचना और आलोचना की सैद्धान्तिकी में परिस्थिति-परिवेश और इतिहास के अध्ययन की एक लम्बी परम्परा रही है। 19वीं सदी में पूँजीवाद के विकास के साथ अमीर और गरीब वर्गों के बीच की आर्थिक असमानताएँ उतरोत्तर बढती गईं। यही वजह है कि अपने सम्पूर्ण निहितार्थों के साथ पूँजीवाद के अध्ययन और उसकी मीमांसा की ओर चिन्तकों का ध्यान गया। पूँजीवाद के इन अध्येताओं में कार्ल मार्क्स (सन् 1818-1883) और फ्रेडरिक एंगिल्स (सन् 1820-1895) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। पूँजीवाद की सम्पूर्णता की जटिलता और जटिलता की सम्पूर्णता को जितना और जितनी दूर तक, मार्क्स ने उद्घाटित किया उतना और किसी चिन्तक-विचारक ने नहीं किया। आज का यथार्थ है पूँजीवाद और पूँजीवाद की संश्लिष्टता को समझने की कुंजी हमें मार्क्स की रचनाओं में मिलती है। इसलिए साहित्य की आधुनिक सैद्धान्तिकी के लिए मार्क्सवाद का अध्ययन अपरिहार्य हो जाता है। इसी वजह से अनेक आलोचक चिन्तक जैसे जार्ज लूकाच, अडोर्नो, सार्त्र, टेरी ईगलटन, रेमण्ड विलियम्स, फ्रेडरिक जेमसन आदि मार्क्सवाद के प्रभाव-वृत्त में आए और उन्होंने अपने लेख से उसे समृद्ध किया।
मार्क्सवाद के मूल सिद्धान्तों का सार-संक्षेप देना आसान नहीं है। फिर भी उनके दो कथनों का उल्लेख किया जा सकता है-
- दार्शनिकों ने विविध रूपों में संसार की व्याख्या की है; किन्तु मूल प्रश्न उसे बदलने का है।
- मनुष्यों की चेतना उसके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, उनका सामाजिक अस्तित्व उनकी चेतना को निर्धारित करता है।
मार्क्स का विचार था कि परम्परागत दर्शन, विशेष रूप से जर्मन दर्शन, यथार्थ से जुड़ा हुआ नहीं है। उसे यथार्थ से जोड़ना जरूरी है। जर्मन दर्शन में हेगल और उसके अनुयायियों का कहना था कि दुनिया विचारों से अनुशासित हो रही है। इसके विपरीत मार्क्स का विचार था कि हमारी सभी मानसिक संरचनाएँ हमारे वास्तविक सामाजिक-आर्थिक अस्तित्व की निर्मितियाँ हैं। अन्यत्र मार्क्स ने इस विचार को वास्तुशिल्पीय रूपक के माध्यम से व्यक्त किया– ‘अधिरचना’ (विचारधारा, राजनीति) ‘आधार’ (सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों) पर आधारित है। परिवेश-परिस्थिति की यथार्थ समझ के लिए पूँजीवाद को समझना जरूरी है और पूँजीवाद की सर्वांगीण समझ के लिए मार्क्स-एंगेल्स की रचनाएँ एक अनिवार्य स्त्रोत है।
फ़्रायडीय मनोविश्लेषण ने भी साहित्य की सैद्धान्तिकी को भारी संख्या में आलोचनात्मक शब्दावली और अवधारणाएँ प्रदान कीं। मनोविश्लेषण, मनोविज्ञान की एक प्रमुख शाखा है। इस का उद्भव मनोचिकित्सा से हुआ। मनोविश्लेषण के तीनों उद्भावक– फ्रायड, ऐडलर और युंग मनोचिकित्सक थे। इन तीनों में फ्रायड इस सिद्धान्त के प्रवर्तक थे। ऐडलर और युंग ने उसे सूक्ष्मता और गहराई प्रदान की। साहित्य सिद्धान्त की दृष्टि से फ्रायड और युंग के विचार अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
फ्रायड के अनुसार मन के तीन भाग हैं– चेतन, पूर्वचेतन और अचेतन। इनमें अचेतन का महत्त्व सबसे ज्यादा है। उसका फैलाव भी सबसे ज्यादा है। विषय की दृष्टि से चेतन-अचेतन एक दूसरे के विरुद्ध होते हैं और चेतन के समान अचेतन भी सतत गतिशील रहता है। अचेतन की सबसे केन्द्रीय प्रेरणा है यौन-भावना, जो हमारे सम्पूर्ण जीवन को घेरे हुए है। यौन-भावना में वे सभी क्रियाकलाप शामिल हैं जिनसे शरीर के विभिन्न भागों को आनन्द की अनुभूति हो। मानव में दो मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं– आत्म-परिरक्षण और प्रजनन अर्थात प्रजाति-परिरक्षण। इनमें आत्म-परिरक्षण की प्रवृत्ति तो कभी-कभार ही बाधित या कुण्ठित होती है, किन्तु प्रजनन की प्रवृत्ति, नैतिकता और अन्तरात्मा के हस्तक्षेप से प्रायः बाधित और कुण्ठित होती रहती है। मनुष्य में पशु या आदिम संस्कार विद्यमान हैं, भले ही सभ्यता के आवरण में वे दिखाई न देते हों। चेतन मन एक प्रहरी का काम करता है। वह इन संस्कारों को काफी परिष्कार के बाद बाहर आने देता है। यौन-भावना का सतत दमन मनोग्रन्थियों को जन्म देता है, जिनकी वजह से व्यक्ति मनस्तापी बन जाता है। फ्रायड के अनुसार साहित्यकार भी एक प्रकार का मनस्तापी है। अपने रचना-कर्म द्वारा वह अपनी यौन-भावना का उदात्तीकरण करके उसे व्यक्त करता है। उन्नयन या उदात्तीकरण की प्रक्रिया में इच्छा का रूप एकदम बदल जाता है– वह असात्विक के बजाय सात्विक दिखने लगती है। स्वप्न भी मनुष्य की इच्छापूर्ति या सन्तुष्टि का साधन है।
युंग की प्रमुख उपलब्धि ‘प्रजातीय अचेतन’ की धारणा है। युंग ने अचेतन के दो भाग किए– वैयक्तिक और प्रजातीय। अचेतन मन में केवल दमित इच्छाएँ ही नहीं वरन् वे पक्ष भी संचित हैं जो या तो विकास-क्रम में उपेक्षित रह गए हैं, या फिर विस्मृत हो गए हैं। ऐसे तत्त्वों के लिए युंग ने ‘प्रजातीय अचेतन’ की कल्पना की है। इस प्रकार युंग के अनुसार मन के तीन स्तर हैं – चेतन, वैयक्तिक अचेतन और प्रजातीय अचेतन। प्रजातीय अचेतन में दूरस्थ पूर्वजों से लेकर निकटस्थ पूर्वजों तक के संस्कार शामिल हैं। अतः प्रजातीय अचेतन की कई तहें हैं। बुनियादी तह पशु जीवन का अवशेष है, फिर आदिम पूर्वजों की तह है; फिर नृजातिवैज्ञानिक समूहों (आर्य, मंगोल आदि) की तह है; फिर क्रमशः राष्ट्र की, कुल की और सबसे ऊपर परिवार की तह है। इस प्रकार प्रजातीय अचेतन सृष्टि के आरम्भ से आज तक के संस्कारों की सुदीर्घ परम्परा है। इसलिए युंग ने उसे ‘आद्यप्ररूप’ कहा है। जैसे वैयक्तिक अचेतन की अभिव्यक्ति चेतन मन में हुआ करती है, वैसे ही प्रजातीय अचेतन की स्वप्न में। युंग के अनुसार काम (लिबिडो) आदिम और सार्वभौम जीवन-शक्ति है। लिबिडो की परिभाषा करते समय युंग ने यौन-प्रेरणा के बजाय जिजीविषा पर ज्यादा बल दिया है। फ्रायड की यौन-भावना की तुलना में काम अधिक व्यापक है। फ्रायड के अनुसार मानसिक संघर्ष समाज-सापेक्ष होता है, युंग के अनुसार व्यक्ति सापेक्ष।
युंग ने व्यक्तित्व को दो मनोवैज्ञानिक प्रकारों में विभाजित किया है– अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी। इनमें बहिर्मुखी वस्तुनिष्ठ होता है, अन्तर्मुखी आत्मनिष्ठ। बहिर्मुखी दूसरों को अपने अनुसार चलाना चाहता है, अन्तर्मुखी आत्मकेन्द्रित और तटस्थ होता है। बहिर्मुखी में आत्मविश्वास अधिक होता है, अन्तर्मुखी में कम। एक प्रचारप्रिय होता है, दूसरा अन्य लोगों के सामने कुंठित। बहिर्मुखी व्यक्ति आशावादी, उत्साही और सामाजिक होता है, जबकि निराशावादी, संकोची और असामाजिक। एक क्रियाशील होता है, दूसरा चिन्तनशील। बहिर्मुखी व्यक्ति अन्तर्मुखी को अंहकारी और स्वार्थी समझता है, जबकि अन्तर्मुखी बहिर्मुखी को छिछला और दम्भी। चरित्र-परिकल्पना और चरित्र-विश्लेषण में इन विचारों का महत्त्व सहज ही समझा जा सकता है।
फ्रायड का मत है कि मनुष्य को किसी सीधे-सरल सूत्र से समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए। वह संस्कृति और जीवविज्ञान का एक जटिल संघात है। उसके अन्दर एक नरक बसा हुआ है जहाँ से ऐसे मनोवेग जन्म लेते रहते हैं, जो सभ्यता के लिए खतरा हैं। मनुष्य एक कल्पनाशील प्राणी है, इसलिए जितना हासिल कर सकता है उससे ज्यादा कल्पना करता रहता है। फ्रायड चाहते हैं कि मनुष्य मानवीय बने, उनका विज्ञान इसी लक्ष्य के प्रति समर्पित है। फ्रायड का चिन्तन कलाकार के मानवीय जगत के सीमान्तों का विस्तार करता है, उसे संकीर्ण नहीं बनाता, उसका सरलीकरण नहीं करता– वरन् उसे उन्मुक्त करता है, और उसे अधिक जटिल तथा संश्लिष्ट रूप में पेश करता है। उसे सूत्र से समझने का प्रयास नहीं करना चाहिए। वह संस्कृति और जीवविज्ञान का एक जटिल संघात है। उसके अन्दर एक नरक बसा हुआ है, जहाँ से ऐसे मनोवेग जन्म लेते रहते हैं जो सभ्यता के लिए खतरा हैं।
मनुष्य एक कल्पनाशील प्राणी है, इसलिए जितना हासिल कर सकता है उससे ज्यादा कल्पना करता रहता है। फ्रायड चाहता है कि मनुष्य मानवीय बने और उनका विज्ञान इसी लक्ष्य के प्रति समर्पित है। फ्रायड का चिन्तन कलाकार के मानवीय जगत के सीमान्तों का विस्तार करता है, उसे संकीर्ण नहीं बनाता, उसका सरलीकरण नहीं करता ─ वरन् उसे उन्मुक्त करता है, और उसे अधिक जटिल तथा संश्लिष्ट रूप में पेश करता है।
- कला की स्वायत्तता : प्रतीकवाद, ‘कला कला के लिए’, रूपवाद और क्रोचे
अभिजात्यवादी काव्य-सिद्धान्तों (जिनमें कला को ‘प्रकृति का अनुकरण’ कहा गया है) के विरोध में कला की स्वायत्तता स्थापित करने वालों की एक लम्बी परम्परा है। पुनर्जागरण काल में ‘आनन्द’ को कला का प्रमुख उद्देश्य माना गया है। आनन्द की तुलना में शिक्षा का स्थान गौण है। यह प्रकारान्तर से कला की स्वायत्तता की स्वीकृति है। अठारहवीं सदी के जर्मन दार्शनिक काण्ट (सन्1724-1804) इस स्वायत्तता के सबसे प्रबल समर्थक थे। उनके प्रभाववश कला-विवेचन के सन्दर्भ में ‘निस्संगता’, ‘विशुद्ध कला’, ‘विशुद्ध सौन्दर्य’, ‘रूप’, ‘प्रतिभा’– जैसे शब्द आम तौर पर सुनाई पड़ने लगे। कला में आनन्द का ऐन्द्रिय अनुभव होता है। यह अनुभव आत्मपरक या वैयक्तिक (जो केवल मेरे लिए आनन्ददायक है) से वस्तुपरक या निर्वैयक्तिक (जिसे सभी को आनन्द देना चाहिए) दिशा में प्रवाहित होता है। काण्ट के अनुसार कला का कोई मूर्त प्रयोजन नहीं होता। यह प्रयोजन अमूर्त या प्रयोजनगत होता है। इसे ही उन्होंने ‘निस्संगता’ (disinteresetedness) की संज्ञा दी। काण्ट के इस विचार को व्यापक स्वीकृति मिली। आर्नल्ड ने अपने प्रसिद्ध निबन्ध फंक्शन ऑफ़ क्रिटिसिज्म इन द प्रजेण्ट टाइम (सन् 1864) में इस विचार का विस्तार किया। यह एक प्रकार से ‘वस्तु’ की तुलना में ‘रूप’ को अधिक तरजीह देना है। सौन्दर्य के बारे में हमारे निर्णय प्राय: रूप के आधार पर दिए जाते हैं। अपने अतिरंजित रूप में यह विचार ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्त को बढावा देता है। इसमें यह मान्यता निहित है कि कला-वस्तु को किसी सांसारिक प्रयोजन की छाया नहीं पड़नी चाहिए। काण्ट ने इस उद्देश्य को एक अत्यन्त सटीक सूत्र के माध्यम से व्यक्त किया। यह सूत्र है ─ ‘प्रयोजनहीन प्रयोजनीयता’ (purposiveness without purpose) दूसरे शब्दों में, कला-वस्तु का कोई मूर्त्त प्रयोजन नहीं होता।
बादलेयर, मलार्मे, रिम्बो आदि फ्रांस के प्रतीकवादियों ने भी इन कलावादी विचारों को बढ़ावा दिया। प्रतीकवाद यों तो काफी हद तक रूप और तकनीक का आन्दोलन है, किन्तु वस्तुतः इसमें भौतिक अभिव्यक्ति में निहित रहस्यमय यथार्थ की खोज का प्रयास दिखाई देता है। इन कवियों की दिलचस्पी ऐसे अर्थ में है, जिसमें प्रत्यक्ष जगत यथार्थ नहीं प्रतीत होता और अदृश्य जगत स्वप्न जैसा नहीं लगता। इलियट आदि आधुनिक कवियों पर उक्त प्रतीकवादियों का प्रभाव है। सन् 1890 के दशक के वाल्टर पेटर, ऑस्कर वाइल्ड, जैसे कलावादियों ने तो स्पष्ट रूप से कला को जीवन तथा समाज से काटने का प्रयास किया और ‘कला कला के लिए’ सिद्धान्तों की प्रतिष्ठा की। ‘कला कला के लिए’ (art for art’s sake) शब्द संयोग पेटर की उद्भावनाहै जिसे बाद ने उन्होंने बदलकर ‘कला स्वयं अपने लिए’ (art for its our sake) कर दिया। पेटर का मानना था कि एक स्टार पर कला और जीवन, प्रकृति और संस्कृति के बीच कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही आनन्द प्रदान करते हैं। इसी में उनका महत्त्व निहित है। अन्य विक्टोरियाई लेखकों जैसे मैथ्यू आर्नल्ड, कार्लाइल, रस्किन आदि लेखकों की पद्धति पर चलकर पेटर न कोई धार्मिक परितोष प्रदान करते हैं, न नैतिक परितोष। सामाजिक एवं राजनितिक परिवर्तनों के प्रति भी वे उदासीन हैं। आर्नल्ड और कार्लाइल की ‘उच्चकोटि की गम्भीरता ’(high seriousness) को भी वे महत्त्व नहीं देते। पेटर के अनुसार आलोचक का मूल दायित्व है– पाठक के आनन्द में अधिकाधिक वृद्धि करना, कोई ज्ञान प्रदान करना नहीं। वाइल्ड ने विशेष रूप से विशुद्ध सौन्दर्य पर बल दिया। उन्होंने लिखा– “सौन्दर्य प्रतीकों का प्रतीक है। सौन्दर्य सब-कुछ प्रकट करता हैं, अभिव्यक्त कुछ भी नहीं करता।” पुनः, “सुन्दर चीजें केवल वे चीजें हैं, जिनका हमारे व्यावहारिक जीवन से कोई सरोकार नहीं है।” वाइल्ड के अनुसार कला और जीवन के क्षेत्र अलग-अलग हैं, क्योंकि कला में भाव की परिणति भाव में होती है जबकि जीवन में भाव की परिणति व्यवहार में।
क्रोचे (सन् 1866-1952) के विचारों में कला की स्वायत्तता का सिद्धान्त अपनी चरम परिणति पर पहुँचा। उन्होंने सभी प्रकार की उपदेशात्मक, वैज्ञानिक, सूचनात्मक और पूर्वनिर्धारित नियमों से अनुशासित कला का निषेध किया। वस्तु और रूप की एकता पर बल देकर उन्होंने कला की संश्लिष्टता को रेखांकित किया। दूसरी ओर, कलावाद को अपनी चरम सीमा पर पहुँचाकर उन्होंने कला को समाज और ऐतिहासिक बोध से एकदम काट दिया। इनके प्रभाव से यूरोप में अनेक कलावादी आन्दोलन, जैसे घनवाद, बिम्बवाद, अतियथार्थवाद आदि को बढावा मिला। काव्य में अभिव्यंजनावाद शीर्षक अपने प्रसिद्द निबन्ध में आचार्य शुक्ल ने कलावादी आन्दोलनों के प्रति खासा आक्रोश व्यक्त किया है। अमेरीकी ‘नई समीक्षा’ पर भी इसका प्रभाव है ।
मार्क्सवादी आलोचकों ने कला की स्वायत्तता के पक्षधर उक्त कलावादी आन्दोलनों को रूपवाद के निकृष्टतम प्रकारों के अन्तर्गत परिगणित किया। सन् 1930 का दशक राजनीतिक गतिविधियों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण काल था। इस दौर में साम्यवादी विश्व एक बड़ी शक्ति के रूप में उभर रहा था। अक्टूबर क्रान्ति से प्रेरणा ग्रहण कर यूरोपीय उपनिवेशों में राष्ट्रवादी आन्दोलन तीव्र से तीव्रवाद होते जा रहे थे। इन उपनिवेशों में बड़े व्यापक स्तर पर साम्यवादी विचारों का प्रचार-प्रसार हो रहा था, क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन की जमीन तैयार हो रही थी। यूरोप के बुद्धिजीवियों में भी साम्यवादी विचारों के प्रति रूझान बढ़ रहा था। साहित्य और समीक्षा में इन साम्यवादी विचारों की बाढ़ को रोकने के लिए ‘नई समीक्षा’ का आविर्भाव हुआ। इस समीक्षा-पद्धति में आलोचना को इतिहास, समाज, मनोविज्ञान, लेखक, पाठक आदि सभी से काट दिया गया और उसे केवल भाषायी संरचना तक परिसीमित कर दिया गया।
- आधुनिकतावाद : टी.एस. इलियट, आई.ए. रिचर्ड्स और एफ.आर. लीविस
बीसवीं सदी की आलोचना में टी.एस. इलियट का स्थान सबसे महत्त्वपूर्ण है। उनसे पहले अंग्रेजी आलोचना और पाठकीय अभिरूचि पर मैथ्यू आर्नल्ड के आलोचना-प्रतिमानों का वर्चस्व था। इलियट ने अपनी प्रसिद्ध आलोचना-कृति द सैक्रेड वुड (1920) के माध्यम से इस वर्चस्व को तोड़ा और उसके स्थान पर नया बोध स्थापित किया। उनका प्रसिद्ध निबन्ध परम्परा और वैयक्तिक प्रतिभा (ट्रैडीशन एण्ड इण्डिविजुअल टेलेण्ट) अंग्रेजी आलोचना का क्लासिक है। बीसवीं सदी की आलोचना में उसका वही स्थान है जो 18 वीं सदी की आलोचना में डॉ. जॉनसन की प्रसिद्ध कृति लाइन्स ऑफ द इंग्लिश पोइट्स का और 19वीं सदी में आर्नल्ड के निबन्ध फंक्शन ऑफ क्रिटिसिज़्म इन द प्रजेण्ट टाइम को उपलब्ध था। इस निबन्ध में उन्होंने दो चीजों की जाँच-पड़ताल की – पहली कि कविता का उसके अतीत से क्या रिश्ता है?, दूसरी कि, कविता का उसके कवि से क्या रिश्ता है?, पहले प्रश्न के सन्दर्भ में उन्होंने परम्परा के स्वरूप पर विचार किया और दूसरे प्रश्न के सन्दर्भ में ‘निर्वैयक्तिकता’ पर। इस निबन्ध के महत्त्व को ध्यान में रखते हुए अज्ञेय ने सन् 1943 में रूढ़ि और मौलिकता शीर्षक से इसका रूपान्तर किया था।
इलियट ने अपने समय में प्रचलित ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, जीवनीपरक आदि साहित्येतर आलोचना पद्धतियों का विरोध किया और सीधे-सीधे मूलपाठ या रचना पर ध्यान केन्द्रित करने पर बल दिया। आधुनिक काल से पहले स्वछन्दतावाद अंग्रेजी कविता का सबसे समृद्ध युग था। अतः उन्होंने स्वच्छन्दतावादी प्रतिमानों को सर्वाधिक अपने विरोध का लक्ष्य बनाया। उन्होंने लिखा कि जीवन में रोमानियत के बारे में हम काफी-कुछ कह सकते हैं, किन्तु कविता में उसके लिए कोई स्थान नहीं है। स्वछन्दतावाद में कविता की वैयक्तिकता पर, कविता में कवि के व्यक्तित्व के प्रकाशन पर, बल दिया गया था। अतः इसके स्थान पर उन्होंने निर्वैयक्तिकता का सिद्धान्त प्रतिष्ठित किया। उन्होंने लिखा कि “कलाकार का विकास एक अनवरत आत्मोत्सर्ग है। व्यक्तित्व का अनवरत निषेध।” पुनः, “कविता भाव का उन्मोचन नहीं, भाव से पलायन है। वह व्यक्तित्व का प्रकाशन नहीं, व्यक्तित्व से पलायन है।” उन्होंने भोगने वाले व्यक्ति और रचने वाले प्राणी के बोध पार्थक्य पर जोर देते हुए कहा कि “जितना ही बड़ा कलाकार होगा, उतनी ही पूर्णता से उसमें भोगने वाला व्यक्ति और रचने वाला मन पृथक रहेंगे।” इस पार्थक्य को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने एक वैज्ञानिक उपमा का सहारा लिया जिसे पर्याप्त प्रसिद्धि मिली। वह उपमा यह है कि ऑक्सीजन और सल्फर डाई-आक्साइड गैसों के घोल में यदि प्लैटिनम का तार डाल दिया जाए तो एक तीसरी गैस बन जाती है ─ सल्फ्यूरस एसिड। किन्तु इस नवनिर्मित गैस में न तो प्लैटिनम का कोई अंश होता है न पूर्वोक्त दो गैसों का कोई भी लेश। कवि का मन इसी प्लैटिनम के तार की तरह है, जीवनगत अनुभव ऑक्सीजन तथा सल्फर डायोक्साइड की तरह और नवनिर्मित गैस सल्फ्यूरस एसिड कलाकृति की तरह।
दूसरे, इलियट ने ‘परम्परा’ (tradition) शब्द को एक नया अर्थ दिया और उसे अंग्रेजी के आधुनिक आलोचनात्मक शब्दावली का अंग बनाया। परम्परा, अतीत और वर्तमान के बीच एक खास तरह का रिश्ता है। यह अतीत का तह-दर-तह जमाव नहीं है। अतीत का कटता, छँटता, बदलता रूप है। अतीत का वर्तमान क्षण है। यह ‘परम्परा’ का परम्परागत अर्थ ही है जिसमें वर्तमान अतीत के आधार पर अपना स्वरूप अर्जित करता है। यहाँ तक तो परम्परागत बात ही इलियट ने कही। फिर इलियट के परम्परा-सम्बन्धी विचार में नयापन क्या है? इलियट की परम्परा-विषयक धारणा में नयापन यह है कि उन्होंने परम्परा में निहित अतीत और वर्तमान के इस रिश्ते को द्वन्दात्मक बना दिया। उन्होंने आगे बढ़कर कहा कि अतीत ही वर्तमान को प्रभावित नहीं करता, वर्तमान भी अतीत को प्रभावित करता है और परस्पर प्रभाव की इस द्वन्दात्मकता में, सापेक्षिक दृष्टि से, वर्तमान की भूमिका अधिक निर्णायक होती है। इसलिए जब कोई सही मायनों में नई रचना आती है, ऐसी रचना जो हमारी दृष्टि में बदलाव लाए तो हम पूरी परम्परा को उस नई दृष्टि से देखते हैं जिससे पूरी परम्परा नवीन हो उठती है, उसमें नए परिचय की दीप्ति आ जाती है। इस प्रकार परम्परा-बोध से हमारा अतीत नित नवीन बना रहता है– उसमें नवीनता की लहर-पर-लहर उठती रहती है। उदाहरण के लिए मुक्तिबोध के प्रसिद्ध लेख ‘भक्तिकालीन आन्दोलन का एक पहलू’ से यदि हमारी दृष्टि में बदलाव आया तो हम पूरे भक्तिकाल को, अथवा भक्तिकाल ही क्यों पूरी साहित्यिक परम्परा को नई दृष्टि से देखते हैं, जिससे अतीत की पूरी साहित्यिक परम्परा नवीन परिचय की दीप्ति से उद्भासित हो उठती है। इसलिए नए कवि का, इलियट की शब्दावली में ‘वास्तव में नए’ कवि का, अतीत से जो रिश्ता है वह एक तरफा कार्यवाई नहीं है। यदि नया कवि अतीत से कुछ ग्रहण करता है तो उसे कुछ देता भी है। यह एक अनवरत आदान-प्रदान की प्रक्रिया है। देते समय वह अपने व्यक्तित्व को, अपनी विश्व-दृष्टि को, स्थापित करता है और लेते समय वह अपने व्यक्तित्व का निषेध करता है।
रिचर्ड्स (सन् 1893-1979) आलोचना को युगानुरूप वैज्ञानिक आधार देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने मनोविज्ञान की आधारशिला पर अपनी आलोचना का प्रासाद खड़ा किया। उनकी मान्यता के अनुसार आलोचना में अनुभूतियों का विवेक रखने के साथ-साथ उनके मूल्यांकन का प्रयास किया जाता है। इसके लिए जरूरी होगा कि आलोचक को अनुभूतियों के स्वरूप का कुछ ज्ञान हो और साथ ही उसे सम्प्रेषण-सिद्धान्त की जानकारी हो। आलोचना की यह धारणा ही उन्हें मनोविज्ञान की ओर ले गई। उनकी आलोचना के तीन पहलू हैं– मूल्य सिद्धान्त, सम्प्रेषण सिद्धान्त और काव्यभाषा। रिचर्ड्स ने अपने समय की आलोचना में व्याप्त अराजकतापूर्ण स्थिति का विरोध किया। विशेष विरोध उन्होंने प्रभाववादी समीक्षा का किया। उस समय आचार्य शुक्ल भी प्रभाववादी समीक्षा की विकृतियों से जूझ रहे थे। इसलिए उन विकृतियों पर अंकुश लगाने में उन्होंने रिचर्ड्स के विचारों का उपयोग किया और अपने आलोचना-साहित्य में उन्हें बड़े सम्मान से उद्धृत किया। उन्होंने सन् 1927-28 में ही रिचर्ड्स को उद्धृत किया था। उस समय शायद इंग्लैण्ड और अमेरिका में उन्हें उद्धृत नहीं किया गया होगा। शुक्ल जी ने उनके सम्प्रेषण और काव्यभाषा सम्बन्धी विचारों का तो उपयोग किया किन्तु उसके व्यक्तिवादी आधार की वजह से उनके मूल्य-सिद्धान्त की उपेक्षा कर दी। यह तथ्य आचार्य शुक्ल के सूक्ष्म आलोचकीय विवेक को दर्शाता है। इलियट और रिचर्ड्स दोनों आलोचकों ने अमेरिकी ‘नई समीक्षा’ को प्रेरित-प्रभावित किया। एफ.आर. लीविस (सन् 1896-1978) की आरम्भिक आलोचना-पद्धति पर इलियट की पाठ-केन्द्रित आलोचना तथा परम्परा-सम्बन्धी विचारों का गहरा असर है। लेकिन आगे चलकर उन्होंने अपना अलग रास्ता बनाया। उनकी आलोचना में पाठ-केन्द्रीयता के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष के विश्लेषण का मणिकांचन योग मिलता है। उन्होंने आलोचना को नैतिक बोध से सम्पन्न किया। इस दृष्टि से वे एक प्रकार से अर्नाल्ड के अनुयायी हैं। इलियट कवि-समीक्षक हैं। रिचर्ड्स में सैद्धान्तिक पक्ष पर बल है, बल्कि व्यावहारिक आलोचना का पक्ष एक प्रकार से छूटा हुआ है– जो है, वह भी बहुत दक्ष-दिलासा नहीं देता। इस दृष्टि से एफ.आर. लीविस की स्थिति, 20वीं सदी की अंग्रेजी आलोचना में, सबसे केन्द्रीय है।
- भविष्य की दिशाएँ : उत्तरआधुनिकता के विविध रूप
सन् 1965 में इलियट की मृत्यु हुई। सन् 1960 के दशक से ही उत्तरआधुनिक दौर शुरू हो गया था। सन्1960 का वर्ष संरचनावाद के अवसान और उत्तरसंरचनावाद के आरम्भ का वर्ष भी है। इसलिए उत्तर- आधुनिकता और उत्तरसंरचनावाद की अर्थ-छवियाँ एक-दूसरे के क्षेत्र को अतिक्रान्त करती हैं। उत्तरआधुनिकता का शाब्दिक अर्थ है- आधुनिकता के बाद। इसी प्रकार उत्तरसंरचनावाद का शाब्दिक अर्थ है- संरचनावाद के बाद। दोनों में संरचना के विरोध का भाव निहित है। आधुनिक काल के बाद जो भी विमर्श उभरे वे सब इसमें आ जाते हैं।
उत्तरआधुनिकता या उत्तरसंरचनावादी दौर में आलोचना या साहित्य-समीक्षा की जगह ‘थ्योरी’ पर, जोर है। सैद्धान्तिकी का क्षेत्र अधिक व्यापक है। इसमें साहित्यिक पाठ के अलावा अन्य विषयों के पाठ भी शामिल हैं। अतः विभिन्न विषयों के बीच की दूरी कम हुई है। सभी विषयों के पाठ, पाठ हैं। “पाठ और कृति में अन्तर है। पाठ एक प्रक्रिया है जबकि कृति उत्पाद। कृति का उपभोग किया जाता है जबकि पाठ को उत्पन्न।’’ (बार्थ)
थ्योरी का लक्ष्य पाठ का विश्लेषण है। तरह-तरह से विखण्डित करके पाठ की अर्थ-मीमांसा। साहित्य-समीक्षा का चरम लक्ष्य भी अर्थ-मीमांसा ही रहा है। पाठ में अर्थ-मीमांसा की सम्भावनाएँ अधिक हैं क्योंकि, रोलाँ बार्थ के शब्दों में “पाठ संस्कृति के विविध केन्द्रों से लिए हुए उद्धरणों का जाल है।’ ’बार्थ के अनुसार पाठ में विविध प्रकार के लेखन का मिश्रण या टकराव रहता है। हर पाठ पहले से लिखे हुए पाठ के महासमुद्र की ओर अलग तरीके से संकेत करता है। रोलाँ बार्थ के अनुसार “पाठ उद्धरणों से बना होता है और जो उद्धरण पाठ का निर्माण करते हैं वे अनाम होते हैं। उनके स्रोत का पता लगाना बहुत मुश्किल होता है, फिर भी वे पहले से पढ़े हुए होते हैं– वे ऐसे उद्धरण हैं जिनमें कोई उद्धरण चिह्न नहीं लगे हैं।’’ (बार्थ, फ्रॉम वर्क टू टैक्स्ट) हर पाठ में विविध प्रकार के अन्य पाठों का अन्तर्भाव रहता है। हर पाठ एक अन्तरपाठ है। इसलिए अन्तरपाठता (intertextuality) से हमारी पठन प्रक्रिया में बदलाव आता है। पाठ सांस्कृतिक जीवन में संकटता और बहुलता के सूचक होते हैं। वे इस बात के प्रमाण हैं कि कवियों का विविध प्रकार के विषयों से संवाद रहता है।
पाठ चूँकि पाठ संकेतकों (signifiers) से बना होता है। यह संकेतक यादृच्छिक होता है। उसका संकेतित (signified) या वस्तु (referent) से कोई अनिवार्य या कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं होता। अतः भाषा यथार्थ के सन्दर्भ में हमेशा तैरती रहती है। वर्ग, लिंग, यौनिकता, जाति, शिक्षा, पद-प्रतिष्ठा, सन्दर्भ आदि के अन्तर से अर्थ का क्षेत्र और व्यापक हो जाता है। इस प्रकार पाठता है, अन्तरपाठता है, अनुभाव है, अलंकरण है, समाज है, संस्कृति है, वर्ग-लिंग-यौनिकता आदि के भेद हैं। ऐसे में अर्थ सुनिश्चित कैसे रह सकता है? विमर्श (discourse) में इसी प्रक्रियाधर्मी अर्थ पर बल रहता है। भाषा निर्वैयक्तिक व्यवस्था नहीं है। उसमें बहुस्तरीय संवाद निहित है। भाषा मूलतः संवाद है। उसमें दूसरा पक्ष बराबर मौजूद रहता है। देरिदा का विखण्डनवाद अर्थ-मीमांसा का परम्परापोषित उपकरण है।
- निष्कर्ष
स्वच्छन्दतावादी दौर में आधुनिक आलोचना ने अपना स्वरूप अर्जित किया। वह सही मायनों में आधुनिक या विश्लेषणात्मक बनी। पूर्ववर्ती पुनर्जागरणकालीन तथा नव्यशास्त्रवादी दौर में शास्त्रवादी शिकंजे से मुक्त होने की कसमसाहट तो दिखाई देती है किन्तु फिर भी आलोचनाशास्त्र का आधार रखते हुए यत्किंचित उससे मुक्ति का प्रयास करते हैं।
नव्यशास्त्रवादी दौर तक जो समीक्षा है, उसमें मुख्यरूप से रचना से परिस्थिति-परिवेश का सम्बन्ध आलोचक के दृष्टिपथ में है। स्वच्छन्दतावादी दौर में रचना से रचनाकार का सम्बन्ध केन्द्र में आ जाता है। आधुनिक काल में तो वैयक्तिक-मनोवैज्ञानिक, परिस्थिति-परिवेश, पाठकीय प्रतिक्रिया, स्वायत्तता आदि सभी दृष्टियों से विचार किया जाता है। बल्कि उत्तरआधुनिक दौर में तो ये दृष्टियाँ भी नाकाफी प्रतीत होने लगती हैं और तरह-तरह के अस्मिता विमर्श, जैसे स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी-जनजातीय विमर्श आदि भी विवेचन के केन्द्र में आ जाते हैं।
सैद्धान्तिकी की चर्चा से आज आलोचना का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। इस चर्चा में अभी झाग बहुत है, ठहराव नहीं आया है। साहित्य का विश्लेषण एक प्रकार से पृष्ठभूमि में चला गया है। इसलिए इस सैद्धान्तिकी के खिलाफ विरोध के स्वर भी उठने लगे हैं। पश्चिम में तो ये स्वर सन् 1980 के दशक से ही उठने लगे थे। अब यहाँ भी उसकी अनुगूँजें सुनाई देने लगी हैं।
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- आलोचना और सृजनशीलता, कृष्णदत्त शर्मा, अनामिका पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली
- A History of Modern Criticism : 1750-1950, Rene Wellek, Jonathan Cape Ltd, London
- Literary Criticism A short history, William k. Wimsatt, oxford & IBH publishing co, Delhi
- Literary Theory : An Introduction, Terry Eagleton, Basil Blacwell, Oxford.
- The Blackwell guide to literary theory, Gregory Castle, Blackwell Publishers, Oxford.
- Aristotle’s Poetics, Stphen Halliwell, Gerald Duckworth, London.
- Dramatic poetry and other essays, John Drydon, J. M. Dent. London.
वेब लिंक्स
- https://en.wikipedia.org/wiki/Romanticism
- https://en.wikipedia.org/wiki/William_Wordsworth
- https://en.wikipedia.org/wiki/Samuel_Taylor_Coleridge
- https://en.wikipedia.org/wiki/Classicism
- https://en.wikipedia.org/wiki/Neoclassicism
- https://en.wikipedia.org/wiki/Matthew_Arnold
- https://en.wikipedia.org/wiki/Psychoanalysis
- https://en.wikipedia.org/wiki/Sigmund_Freud