2 पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा 1
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- आभिजात्यवादी (यूनानी-रोमी) साहित्य-सिद्धान्त
- मध्यकालीन सैद्धान्तिकी और आलोचना
- पुनर्जागरणकालीन तथा नव्यशास्त्रवादी सैद्धान्तिकी और आलोचना
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- जीवन के विविध पक्षों से कलाकृति या रचना का सम्बन्ध समझ सकेंगे।
- शास्त्रवाद या अभिजात्यवाद (ई.पू. 500) से लेकर नव्यशास्त्रवाद (सन् 1800) तक की पाश्चात्य काव्यशास्त्रीय परम्परा से परिचित हो सकेंगे।
- शास्त्रवाद और नव्यशास्त्रवाद का अन्तर स्पष्ट कर सकेंगे।
- पाश्चात्य काव्यशास्त्र में निरन्तरता और परिवर्तन के तत्त्वों को पहचान सकेंगे।
- शास्त्रवाद और नव्यशास्त्रवाद की शक्ति और सीमाओं का आकलन कर सकेंगे।
- प्रस्तावना
काव्यशास्त्र की परम्परा की जानकारी से हमें साहित्य को अधिक व्यवस्थित रूप में समझने में मदद मिलती है। हमें पता चलता है कि ऐतिहासिक विकास-क्रम में साहित्य का क्षेत्र कैसे उत्तरोत्तर व्यापक होता गया और इसी विकास के अनुरूप उसकी सैद्धान्तिकी भी उत्तरोत्तर समृद्ध होती गई।
साहित्य-समीक्षा के केन्द्र में तो रचना या कलाकृति ही रहती है। इस कलाकृति का जुड़ाव तीन स्तरों पर देखा जा सकता है– परिवेश-परिस्थिति, कवि-व्यक्तित्व और पाठक। ‘परिवेश-परिस्थिति’ रचना का वस्तु-पक्ष है, जिसमें प्रमुख है समाज और इतिहास। ‘कवि-व्यक्तित्व’ में आत्मपक्ष या मनोवैज्ञानिक पक्ष तो शामिल है ही, लेकिन इसमें सर्वप्रमुख है रचनाकार की विश्व-दृष्टि। आत्मपक्ष और परिवेश-परिस्थिति लेखक की विश्व-दृष्टि से गुजरकर ही रचना का रूप ग्रहण करते हैं। परम्परागत भारतीय काव्य-चिन्तन में आत्मपक्ष और वस्तुपक्ष को क्रमशः ‘भाव’ और ‘विभाव’ की संज्ञा दी गई है। रचना से सम्बन्ध के उक्त तीनों पक्षों के अलावा एक चौथा पक्ष भी है, जो रचना की स्वायत्तता पर बल देता है। उसमें रचना के रूप, उसके भाषाई विन्यास को अधिक महत्त्व दिया जाता है और परिवेश-परिस्थिति, कवि-व्यक्तित्व और पाठक से रचना के सम्बन्ध को साहित्येतर मूल्य मानकर, उपेक्षा की जाती है।
विभिन्न आलोचना-पद्धतियों और आलोचना-सिद्धान्तों में, उक्त चारों पक्षों में से किसी एक पक्ष पर विशेष बल दिखाई देगा। उदाहरण के लिए ‘अनुकरण सिद्धान्त’ में कलाकृति से परिवेश-परिस्थिति के सम्बन्ध पर विशेष बल है। प्रभाववादी समीक्षा में रचना से कलाकार के सम्बन्ध पर ज्यादा जोर रहता है। शिक्षा को काव्य का प्रयोजन माननेवाले सिद्धान्त में केन्द्र में पाठक रहता है, जबकि आनन्द को महत्त्व देने वाले सिद्धान्त में लेखक और पाठक दोनों। मनोविश्लेषणवादी समीक्षा में रचना से रचनाकार का सम्बन्ध अधिक महत्त्वपूर्ण हो उठता है, जबकि मार्क्सवादी समीक्षा में परिवेश-परिस्थिति अर्थात समाज और इतिहास से रचना के सम्बन्ध को प्राथमिकता दी जाती है। इसी प्रकार रूपवादी समीक्षा (‘नई समीक्षा’ और ‘संरचनावाद’) में रचना को स्वायत्त मानने पर आग्रह रहता है। यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो नव्यशास्त्रवादी दौर (अठारहवीं सदी) तक की सैद्धान्तिकी में परिवेश-परिस्थिति से रचना का सम्बन्ध दर्शाने पर विशेष बल रहा। स्वच्छन्दतावादी दौर (उन्नीसवीं सदी) में रचना से रचनाकार का सम्बन्ध अधिक महत्त्वपूर्ण हो उठा। इलियट-प्रेरित ‘नई समीक्षा’ में रचना की स्वायत्तता को ज्यादा महत्त्व दिया गया और परिवेश-परिस्थिति आदि से उसके सम्बन्ध की उपेक्षा की गई। इस प्रकार आधुनिकतावादी दौर तक, कुल मिलाकर, उपर्युक्त वर्गीकरण कारगर ढंग से काम करता रहा। लेकिन उत्तर-आधुनिक दौर में, संरचनावाद के रूपवादी आयाम में, एक आयाम और जुड़ गया – भाषायी और सामाजिक-सांस्कृतिक रूढ़ियों का आयाम। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने साहित्य में काव्य-रूढ़ियों का महत्त्व विस्तार से प्रतिपादित किया है। इस दौर में शुद्धतावादी चोला उतारकर आलोचना फिर, किसी-न-किसी रूप में, समाज और संस्कृति से जुड़ने लगी। उत्तर-आधुनिक दौर में पाठ (text) या पाठ्यता (textuality) और विमर्श (discourse) या सामाजिक पाठ चर्चा के केन्द्र में आ गए, जिससे साहित्य को एक सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाने लगा। पाठ्यता स्वायत्त सन्दर्भों का ऐसा जटिल संजाल है, जिसमें विभिन्न पाठों के सन्दर्भ अत्यन्त संश्लिष्ट रूप से गुँथे रहते हैं। अर्थ-मीमांसा में, विखण्डन द्वारा, इन्हीं सन्दर्भों को खोजने की कोशिश की जाती है। फिर तो सामाजिक यथार्थ और साहित्य की विविधता का आयतन फैलने लगा और स्त्री-विमर्श, अस्मिता विमर्श, नव्य-इतिहासवाद आदि अनेकानेक विषय साहित्य-चिन्तन का लक्ष्य बने।
उपर्युक्त विवेचन से यह संकेत मिलता है कि काव्यशास्त्र या साहित्य-चिन्तन के विकास की परम्परा लगभग उतनी ही पुरानी है, जितनी स्वयं साहित्य-रचना। लगभग ढाई हजार साल की इस काव्यशास्त्रीय परम्परा में, छोटे-बड़े अन्तरालों के बावजूद, एक प्रकार की निरन्तरता है। इस निरन्तरता से परिचित होना अपने-आप में रोचक तो है ही, शिक्षाप्रद भी है। यहाँ काव्य-चिन्तन की इस सुदीर्घ परम्परा पर हम दो खण्डों में विचार करेंगे। पहले खण्ड में शास्त्रवाद या आभिजात्यवाद ( ई.पू. पाँचवी सदी) से लेकर नव्यशास्त्रवाद (अठारहवीं सदी) तक की काव्यशास्त्रीय परम्परा का विवेचन रहेगा और दूसरे खण्ड में स्वच्छन्दतावाद (उन्नीसवीं सदी) से लेकर वर्तमान युग (बीसवीं सदी) के साहित्य-चिन्तन की परम्परा का। हमारा ज्यादा बल मूल अवधारणाओं को स्पष्ट करने और उन अन्तरालों से परिचित कराने पर रहेगा, जिनकी संक्षिप्त जानकारी साहित्य-चिन्तन में निरन्तरता के बोध के लिए जरूरी है।
- आभिजात्यवादी (यूनानी-रोमी) साहित्य-सिद्धान्त और आलोचना
पाश्चात्य काव्य-चिन्तन पर विचार करते समय उसकी शुरुआत प्राचीन यूनानी-रोमी साहित्य-चिन्तन से की जाती है। यह उचित भी है, क्योंकि उनके प्रभाव का सिलसिला वर्तमान युग तक जारी रहता है। उस प्रभाव में एक प्रकार की निरन्तरता है। शास्त्रवादी साहित्य-चिन्तन यही प्राचीन यूनानी-रोमी साहित्य-चिन्तन है। इसकी कालावधि ई.पू. 500 से लेकर सन् 500 तक है। इसमें लगभग पहले पाँच सौ वर्ष यूनानी साहित्य-चिन्तन से सम्बद्ध हैं और परवर्ती पाँच सौ वर्ष रोमी साहित्य-चिन्तन से। इसके प्रमुख सिद्धान्तकार हैं अरस्तू (ई.पू. 384–ई.पू. 322) और होरेस (ई.पू. 65–ई.पू. 8)। अरस्तू प्रमुख यूनानी सिद्धान्तकार हैं और होरेस प्रमुख रोमी या लातीनी सिद्धान्तकार। प्लेटो (ई.पू. 427–ई.पू. 347) और लोंजाइनस (प्रथम शताब्दी) का सम्बन्ध भी यूनानी साहित्य-चिन्तन से है। साहित्यिक प्राचुर्य की दृष्टि से यूनान में पेरिक्लेस (ई.पू. 490–ई.पू. 429) का युग और रोम में ऑगस्टस (ई.पू. 63–14 ईसवी) का युग महत्त्वपूर्ण है।
प्लेटो और अरस्तू में तो साहित्य-चिन्तन का स्तर अत्यन्त उत्कर्ष पर पहुँचा हुआ है। इस उत्कर्ष तक पहुँचने के लिए लम्बी परम्परा चाहिए। अतः उनके चिन्तन को पाश्चात्य साहित्य-चिन्तन का आरम्भ मानना उचित नहीं होगा। वास्तव में इसकी शुरुआत काफी पहले हो चुकी थी। विकास का यह सिलसिला एक प्रकार से तभी से शुरू हो गया था, जबसे साहित्य-रचना की शुरुआत हुई। कवियों की यह सामान्य प्रवृत्ति होती है कि काव्य-रचना करते समय वे, जाने-अनजाने, कविता के बारे में भी अपनी धारणाएँ व्यक्त करते चलते हैं। उदाहरण के लिए होमर (लगभग ई.पू. 800) अपने महाकाव्यों (इलियद और ओदिसी) का आरम्भ काव्य-देवियों के आह्वान से करते हैं। इससे यह संकेत मिलता है कि होमर काव्य-रचना के पीछे ‘दैवी प्रेरणा’ मानते हैं और यह एक ऐसा विचार है, जिसने पाश्चात्य काव्य-चिन्तन के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय सन्दर्भ में आदिकवि वाल्मीकि ने शोक को प्रेरक भाव माना है। क्रौंच-मिथुन में व्याध द्वारा एक के मारे जाने पर महाकवि का हृदय एकबारगी करुणा से द्रवित हो उठा; परिणामस्वरूप उनके शोक का आवेग ही श्लोक के रूप में परिणत हो गया – शोकः श्लोकत्वमागतः। भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में महाकवि के इस विचार की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। यूनानी काव्य-चिन्तन के प्रमुख आचार्य यों तो प्लेटो और अरस्तू हैं, किन्तु होमर और प्लेटो के बीच कई रचनाकार हुए, जिनमें ऐसे कथन मिल जाएँगे, जो काव्य-चिन्तन की दृष्टि से मूल्यवान हैं, जैसे छन्दोबद्ध रचना (कविता) में अपना एक सहज आकर्षण होता है, कविता से हमें शिक्षा मिलती है, कविता का प्रमुख हेतु प्रतिभा है, काव्य-रचना में अध्ययन और अभ्यास की प्रमुख भूमिका रहती है आदि। कालान्तर में जब पर्याप्त परिमाण में काव्य-रचना हो चुकी तो ऐसे सिद्धान्तकार सामने आए, जिन्होंने उक्त रचनाओं के आधार पर काव्य-रचना के नियमों की व्यवस्था की। इस प्रकार रचनात्मक स्तर पर जो विचार बिखरे हुए थे, वे व्यवस्थित, क्रमबद्ध और सामान्यीकृत होकर सामने आए। इसी प्रक्रिया से अरस्तू यूनानी साहित्य के सिद्धान्तकार बने और होरेस रोमी या लातीनी साहित्य के। आभिजात्यवादी युग के मूल सिद्धान्तकार ये दो ही हैं – अरस्तू और होरेस।
प्राचीन यूनान के सर्वप्रमुख आभिजात्यवादी सिद्धान्तकार प्लेटो और अरस्तू हैं। इसके बाद होरेस और क्विण्टलियन जैसे रोमी सिद्धान्तकारों का स्थान है। कुल मिलाकर ये आभिजात्यवादी सिद्धान्तकार लगभग एक हजार वर्ष की अवधि (ई.पू. पाँचवी सदी से पाँचवी सदी ईसवी) में फैले हुए हैं। नमूने के तौर पर उनके समय के दो प्रमुख विषयों के बारे में उनके विचारों का उल्लेख किया जा सकता है। ये विषय हैं अनुकरण और काव्य-प्रयोजन।
उक्त दोनों विषयों पर प्लेटो और अरस्तू के विचार अधिक केन्द्रीय हैं। दोनों मानते हैं कि कला प्रकृति का अनुकरण हैं। लेकिन ‘अनुकरण’ के बारे में दोनों के मत नितान्त भिन्न हैं। इस अनुकरण की वजह से प्लेटो कला को हेय मानते है, जबकि अरस्तू के अनुसार अनुकरण में कला की श्रेष्ठता का रहस्य निहित है। प्लेटो मूलतः साहित्य-चिन्तक है भी नहीं। वे मूलतः दार्शनिक है। साहित्य या कला उसकी चिन्ता का प्रमुख क्षेत्र नहीं है। उनके चिन्तन का क्षेत्र पूरा जीवन है, जिसका एक घटक कला या साहित्य है। साथ ही उनका सम्पूर्ण लेखन एक नैतिक लक्ष्य से प्रेरित है, जिसका उद्देश्य आदर्श गणराज्य का निर्माण और इसी गणराज्य के अनुरूप युवाओं की शिक्षा-दीक्षा है । कला को भी इसी उद्देश्य में साधक होना चाहिए, यह उनका विचार था। जो कला ऐसा नहीं करती, उसका उनकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं था। प्लेटो मूलतः प्रत्ययवादी (idealist) दार्शनिक हैं। उनके प्रमुख विचारों का आधार है उनका ‘प्रत्यय सिद्धान्त’। अनुकरण का विवेचन भी उन्होंने इसी ‘प्रत्यय सिद्धान्त’ के आधार पर किया। भौतिक संसार इन्द्रियातीत विश्व के शाश्वत रूपों या प्रत्ययों का अनुकरण है। सत्य वे शाश्वत रूप या प्रत्यय ही हैं। प्रकृति में जो वस्तुएँ दिखाई देती हैं, वे उन्हीं प्रत्ययों की नकल हैं। यानी वे सत्य से दुगुनी दूर हैं; और कलाकृति तो उन प्राकृतिक वस्तुओं की भी नकल है; नकल की नकल। अर्थात सत्य से तिगुनी दूर। यही नहीं, प्लेटो के अनुसार कला अपने प्रभाव की दृष्टि से भी अनैतिक है। वह हमारे भावों और मनोवेगों को उद्दीप्त और उत्तेजित करती है, जबकि होना यह चाहिए कि हम उन्हें नियन्त्रण में रखें। अरस्तू हालाँकि प्लेटो के शिष्य थे, किन्तु उक्त दोनों बिन्दुओं पर उन्होंने प्लेटो का विरोध किया। अरस्तू के अनुसार कलाकार प्रकृति की नकल भर नहीं करता। वह प्रकृति का यथावत् प्रत्यंकन नहीं करता। प्रकृति से वह केवल उतनी सामग्री लेता है, जिसके आधार पर यथार्थ का सादृश्य प्रस्तुत किया जा सके। वह कल्पना की सहायता से उस यथार्थ का पुनःसृजन करता है। यह पुनःसृजित यथार्थ ही कलाकृति है। अतः अरस्तू के अनुसार अनुकरण का अर्थ है ‘यथार्थ का कल्पनात्मक पुनःसृजन’। परवर्ती साहित्य-चिन्तन में अनुकरण का अरस्तू द्वारा निर्दिष्ट अर्थ ही मान्य हुआ।
कलाकृति के सन्दर्भ में, विशेष रूप से त्रासदी के प्रभाव को लेकर भी, अरस्तू ने प्लेटो से अपना मतभेद जाहिर किया। प्लेटो ने कहा कि कलाकृति प्रायः हमारे भावों और मनोवेगों को भड़काती है। उन पर नियन्त्रण रखने के बजाय उन्हें उद्दीप्त और उत्तेजित करती है। आयुर्विज्ञान की एक उपमा के माध्यम से अरस्तू ने कहा कि वह हमारे भावों को भड़काती नहीं, वरन् उनका उचित विरेचन करती है। पेट आदि की गड़बड़ी होने पर जैसे व्यक्ति विरेचक औषधि द्वारा स्वास्थ्य-लाभ करता है, उसी प्रकार त्रासदी की प्रस्तुति देखकर व्यक्ति के भावों का विरेचन हो जाता है और इस विरेचन से व्यक्ति मानसिक स्वास्थ्य-लाभ करता है। यहाँ अरस्तू की उपमा को भी बहुत उचित नहीं माना जा सकता। विरेचन से भाव-मुक्ति का बोध होता है। लेकिन हम भाव-मुक्ति के लिए ही त्रासदी की ओर उन्मुख नहीं होते। सभ्यता के बढ़ने के साथ असंवेदनशील होते जाने का खतरा भी बढ़ता जाता है। अतः भावों के विरेचन के बजाय भावों का ग्रहण अधिक प्रासंगिक है। वास्तव में इस प्रक्रिया को द्वन्द्वात्मक होना चाहिए; भावों का अतिरेक हो तो विरेचन, और संवेदनशीलता का ह्रास हो गया हो तो भावों का ग्रहण। होता भी यही है।
कथानक के गठन के सन्दर्भ में अरस्तू ने अन्वितियों के निर्वाह पर विशेष बल दिया। अरस्तू ने स्पष्ट उल्लेख तो केवल कार्यान्विति (unity of action) का किया है, किन्तु संकेत से उसमें अन्तर्भाव शेष दोनों अन्वितियों– कालान्विति (unity of time) और देशान्विति (unity of place) का भी हो जाता है। तीनों अन्वितियों की सर्वप्रथम चर्चा का श्रेय अरस्तू कृत काव्यशास्त्र के इतालवी टीकाकार कास्तेलवेत्रो (सन् 1505–1571) को है। कास्तेलवेत्रो को ही आधार मानकर पुनर्जागरण काल और नव्यशास्त्रवादी दौर में नाट्य नियमों के नाम पर अन्वितित्रयी (कालान्विति, देशान्विति और कार्यान्विति) की विशेष चर्चा रही। अन्वितियाँ यथातथ्य अनुकरण के लक्ष्य का साधन हैं– कला और प्रकृति (यथार्थ) के मध्य उचित अनुपात का साधन। कालान्विति से आशय यह है कि नाटक के कथानक के समय का अनुपात नाट्य प्रस्तुति की अवधि के यथासम्भव नजदीक हो। नाटक के प्रस्तुतीकरण में जो समय लगता है वह एक दिन (अधिक-से-अधिक चौबीस घण्टे) की अवधि के भीतर होता है। ऐसी स्थिति में वही नाटक प्रकृति का निकटतम अनुकरण माना जाएगा, जिसका वस्तु-विधान यथासम्भव उतनी की अवधि के भीतर हो। दूसरे शब्दों में, अभिनय के समय और वस्तु से जुड़ी घटनाओं के समय में तालमेल होना चाहिए। यही कालान्विति है। देशान्विति भी कालान्विति की सहज परिणति है। चूँकि नाटकीय काल कुछ घण्टों की अवधि में सीमित होता है, अतः नाटक के भूगोल में भी अधिक फैलाव या विस्तार नहीं होना चाहिए। कार्यान्विति की वजह से प्रेक्षक विभिन्न घटनाओं के ताने-बाने में भटकता नहीं, वरन् एक समन्वित प्रभाव की अनुभूति करता है। अन्वितियों पर बल के पीछे तर्क यह है कि नाट्य-भ्रम में भी सत्य का, यथातथ्यता का, आधार रहे। वह भ्रम बहुत सीधा-सरल न हो जाए। भ्रम को तर्कसंगत आधार देने में अन्वितियों की एक निश्चित भूमिका होती है। यदि अन्वितियों का पालन किया जाएगा तो प्रकृति के यथातथ्य अनुकरण में मदद मिलेगी, दर्शक की कल्पनाशक्ति पर ज्यादा जोर नहीं पड़ेगा, यथार्थ और कल्पना के बीच अधिक गहरी खाई नहीं होगी। आगे चलकर पुनर्जागरण युग (जैसे सर फिलिप सिडनी, बेन जॉनसन आदि) और नव्यशास्त्रवादी दौर में (जैसे फ्रांस में रासीवा, कर्नेई आदि और इंगलैण्ड में पोप, एडिसन, डॉ. जॉनसन आदि में) अन्वितियों को लेकर खासी बहस छिड़ी रही। अन्त में डॉ. जॉनसन ने इस बारे में निर्णायक उत्तर देकर इस बहस को शान्त किया।
अरस्तू के अनुसार कला-रचना एक सृजनात्मक प्रक्रिया इसलिए भी है कि इसके विभिन्न घटक आवयविक रूप से सम्बद्ध होते हैं। ऐसा कहकर उन्होंने कलाकृति की संरचना पर बल दिया। उसके संरचनात्मक गठन पर। यही वजह है कि उन्होंने त्रासदी के विविध तत्त्वों में कथानक को सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया; उन्होंने लिखा कि ‘कथानक त्रासदी की आत्मा है’। कथानक का अर्थ है कलात्मक रूप से विन्यस्त घटनाएँ या कार्य-व्यापार। अरस्तू ने त्रासदी के छह तत्त्व बताए, जिनमें से तीन प्रमुख हैं और तीन गौण। प्रमुख तत्त्व हैं – कथानक, चरित्र और विचार। गौण तत्त्व हैं – दृश्यविधान, गीत और भाषा। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है कथानक। कथानक का सम्बन्ध कार्य-व्यापार से है। चरित्र और विचार भी कार्य-व्यापार से सम्बद्ध होते हैं, क्योंकि इनके द्वारा कार्य-व्यापार निर्धारित होता है। कथानक को महत्त्व देकर उन्होंने संरचना पर बल दिया। कलाकृति के वास्तविक प्रभाव का रहस्य संरचना में निहित है, दृश्यविधान में नहीं। परवर्ती आलोचना में ‘नई समीक्षा’ और ‘शिकागो समीक्षा’ पर अरस्तू की कथानक-सम्बन्धी धारणा का प्रभाव देखा जा सकता है।
प्लेटो ने कविता और दर्शन के शाश्वत विरोध की चर्चा की है। अरस्तू ने कहा कि “इतिहास की तुलना में कविता कहीं अधिक दार्शनिक गम्भीरता लिए हुए होती है, क्योंकि एक उसका वर्णन करता है जो घटित हो चुका है, जबकि दूसरा उसका, जो घटित हो सकता है; एक का सरोकार विशेष से है, जबकि दूसरे का सामान्य से।” प्लेटो ने साहित्य में शिक्षा पर बल दिया था, अरस्तू ने आनन्द पर बल दिया।
यूनानी साहित्य-चिन्तन में प्लेटो और अरस्तू के बाद तीसरे महत्त्वपूर्ण चिन्तक लोंजाइनस (प्रथम शताब्दी ईसवी) हैं। उनकी कृति का नाम है – उदात्त तत्त्व (ऑन द सबलाइम)। वे प्राचीन यूनान के अन्तिम महान आलोचक हैं। लोंजाइनस के अनुसार उदात्त तत्त्व केवल काव्य की निधि नहीं है। उसका सम्बन्ध वक्तृत्व कला से भी है। यदि कोई रचना पाठक को मन्त्रमुग्ध कर दे, यदि वह वैसा ही सोचे और महसूस करे, जो स्वयं लेखक रचना करते समय सोचता और महसूस करता है, तो समझ लीजिए कि उसमें उदात्त का गुण है। काव्य या वक्तृता में श्रेष्ठता का प्रतिमान यह औदात्य ही है। लोंजाइनस काव्य में सहज भावोद्रेक का महत्त्व समझते थे। उनके अनुसार, “महान रचना वही है जो बार-बार कसौटी पर कसे जाने पर भी खरी उतरे, जिससे प्रभावित न होना कठिन ही नहीं, लगभग असम्भव हो जाए और जिसकी स्मृति इतनी प्रबल और गहरी हो कि मिटाए न मिटे।” यह गुण वस्तु और शैली के अनेक तत्त्वों के सामंजस्य से उत्पन्न होता है। किन्तु इन तत्त्वों को अलग-अलग औदात्य की संज्ञा नहीं दी जा सकती। यह गुण वस्तु, कवि और वक्ता की शक्ति को एकबारगी उजागर कर देता है। महान रचना के लिए लोंजाइनस ने समर्थ व्यक्तित्व की माँग की है। क्षुद्र विचारों से ग्रस्त कोई व्यक्ति महान काव्य की सृष्टि नहीं कर सकता क्योंकि ‘औदात्य महान आत्मा की प्रतिध्वनि है’। महान शब्द उन्हीं के मुख से निकलते हैं जिनके विचार गम्भीर और गहन हों। लोंजाइनस का दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक है। वे विरोधी तत्त्वों की एकता को पहचानते हैं। भावों और विचारों को वे सम्बद्ध करके देखते हैं। भावों और विचारों–दोनों में ही गरिमा होनी चाहिए। इस गरिमा के अनुरूप शब्द-योजना होने पर उदात्त की सृष्टि होती है। इसी प्रकार वे वस्तु और रूप को अन्योन्याश्रित मानते हैं।
रोमी शास्त्रवाद के प्रमुख सिद्धान्तकार हैं होरेस। होरेस कवि भी हैं। रोमी आलोचकों में वे सर्वश्रेष्ठ कवि हैं और रोमी कवियों में सर्वश्रेष्ठ आलोचक। होरेस की आलोचना-कृति काव्य कला एक प्रकार से अरस्तू की कृति काव्यशास्त्र का रूपान्तरण ही है, लेकिन उसमें कुछ नवीनताएँ भी हैं। एक नवीनता काव्य के प्रयोजन को लेकर है। प्लेटो ने शिक्षा को काव्य का प्रयोजन माना था। अरस्तू ने आनन्द पर बल दिया। होरेस ने आनन्द और शिक्षा दोनों को काव्य-प्रयोजन के रूप में मान्यता दी। आगे चलकर होरेस का मत ही अधिक मान्य हुआ। दूसरे, होरेस के अनुसार कविता उन्मेष या प्रेरणा नहीं है, जैसा कि प्लेटो ने कहा था। वह मूलतः कला या शिल्प है। उसके अपने नियम और रूढ़ियाँ हैं। उन पर अधिकार प्राप्त करने के लिए घोर श्रम और आत्मोत्सर्ग वांछनीय है। तीसरे, काव्य-हेतुओं में उन्होंने प्रतिभा के बजाए व्युत्पत्ति (अध्ययन) और अभ्यास पर अधिक बल दिया। चौथे, काव्य-कला का एक अन्य महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है औचित्य। औचित्य के लिए जरूरी है कि रचना के विभिन्न अंग पूर्ण इकाई (अंगों) के अनुरूप हों। उनमें संरचनात्मक अन्विति हो। असम्बद्ध चमत्कारपूर्ण अंशों (purple patches) को कवित्व का प्रमाण नहीं माना जा सकता। पाँचवें, अरस्तू के काव्यशास्त्र में कामदी पर भी एक भाग था। वह लुप्त हो गया। होरेस में वह मिल जाता है। छठा, होरेस की दृष्टि में अनुकरण का अर्थ है, प्राचीन रचनाकारों आदर्शों और मान्यताओं का अनुकरण। फ्रांस तथा इंग्लैण्ड की नव्यशास्त्रवादी आलोचना में होरेस का प्रभाव अधिक मुखर है।
आभिजात्यवादी सिद्धान्त और आलोचना में आगे चलकर जो विकास हुआ, वह प्रायः प्लेटो और अरस्तू की उद्भावनाओं पर आधारित रहा। उदाहरण के लिए प्लेटो ने शिक्षा को काव्य का प्रयोजन माना था और अरस्तू ने आनन्द को। होरेस ने आनन्द और शिक्षा दोनों को काव्य-प्रयोजन के रूप में प्रतिष्ठित किया। परवर्ती युगों में होरेस की मान्यता को अधिक स्वीकृति मिली, प्राथमिकता चाहे जिसे दी जाए। हाँ, लोंजाइनस ने भावोन्मेष या भाव-विह्वलता को प्रमुख प्रयोजन माना, जो आनन्द का ही एक रूप है, हालाँकि कुछ अन्तर के साथ। होरेस ने प्लेटो और अरस्तू की इस मान्यता को तो स्वीकार किया कि कला प्रकृति का अनुकरण है, किन्तु साथ ही यह भी जोड़ा कि युवा कवियों के सन्दर्भ में यह भी महत्त्वपूर्ण है कि वे अतीत के महान लेखकों का अनुसरण करें।
- मध्यकालीन सैद्धान्तिकी और आलोचना
मध्यकालीन सैद्धान्तिकी और आलोचना की अवधि का विस्तार (पाँचवीं से लेकर पन्द्रहवीं सदी तक) बहुत है, लेकिन उपलब्धियाँ अपेक्षाकृत कम। यह काल लोंजाइनस और पुनर्जागरण के बीच में पड़ता है। इस दौर में साहित्य के पठन-पाठन और उसकी व्याख्या से, भाषाई सिद्धान्त से और साहित्य के स्वरूप एवं उपयोगिता से सम्बन्धित विविध दस्तावेज मिलते हैं। पादरी वर्ग या कहें कि चर्च, कवि-कलाकारों के खिलाफ था। पहले उसने नाटक पर प्रतिबन्ध लगाया, फिर नृत्य, अभिनय, गीत आदि सभी ऐसी कलाओं पर, जो नाट्य का पुट लिए हुए हों। आगे चलकर चारणों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया– किसी पादरी के लिए, गीत सुनना पाप था। सन्त जेरोम (सन् 340–420) ने, जो बाइबिल के व्याख्याकार के रूप में प्रसिद्ध हैं, ऐसे पादरियों की निन्दा की है, जो कॉमेडी (सुखान्त नाटक) पढ़ते या देखते हैं। केवल उन्हीं कलाओं को चर्च का आशीर्वाद प्राप्त था, जो सीधे-सीधे धार्मिक शिक्षा से जुड़े हों। इस प्रकार लगभग एक हज़ार साल तक साहित्य और कलाओं की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति बाधित रही। इसीलिए इस एक हजार साल की अवधि को कई विद्वानों ने, साहित्य और समीक्षा की दृष्टि से, ‘अन्धकार काल’ की संज्ञा दी है। इसके विपरीत कुछ आलोचक इसमें संवेदना के ‘समन्वित रूप’ के दर्शन करते हैं, भले ही वह धार्मिक संवेदना हो। इस दौरान पूरे यूरोप में रोमन कैथोलिक धर्म का वर्चस्व रहा। दूसरी ओर पूरे यूरोप में बौद्धिक आदान-प्रदान की भाषा लैटिन थी, जिसके माध्यम से पूरे यूरोप के लोग एक समन्वय के सूत्र में बँधे हुए थे। लेकिन ये ‘लोग’ थे पादरी वर्ग के ही। ज्ञान पर वर्चस्व पादरी वर्ग का ही था। वे धार्मिक उपदेश देते थे, किताबें लिखते थे, व्याख्यान देते थे और युवा पीढ़ी के लिए शिक्षा की व्यवस्था करते थे। भक्तिपरक और रहस्यवादी साहित्य की भरमार थी। वस्तुतः लैटिन भाषा साहित्यिक विकास में बहुत बड़ी बाधा थी। लैटिन शिक्षित जनों की और विद्वानों की भाषा थी, लेकिन देशी भाषाओं में भी लोक-साहित्य रचा जा रहा था। विविध बोलियों में, विविध छन्दों में। वहाँ पूरी स्वतन्त्रता थी बोली के चयन की, विषय-चयन की और लय या छन्द के चयन की ।
मध्यकाल में बाइबिल की तरह-तरह से व्याख्या की गई। उसकी टीका या भाष्य किया गया। यह व्याख्या या भाष्य या टीका अर्थ-मीमांसा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। आलोचना का सर्वश्रेष्ठ रूप तो अर्थ-मीमांसा ही है। मध्यकालीन सिद्धान्त और आलोचना का अधिकांश बाइबिल की इसी व्याख्या के रूप में मिलता है। मध्यकालीन भाष्य-सिद्धान्त सन्त आगस्टाइन (354-430) की इस धारणा पर आधारित है कि मानव-भाषा (word) ईश्वरीय शब्द (Word) या शब्द-ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है। आगस्टाइन ने यह तर्क दिया कि शाश्वत, अतीन्द्रिय या आध्यात्मिक चीजों को हम भौतिक या अनित्य चीजों के माध्यम से ही समझ सकते हैं। एक ओर है ईश्वरीय कृति– प्रकृति, जो सीधे ईश्वर की उँगली से लिखी गई है। दूसरी ओर है ईश्वरीय शब्द (Word) अर्थात बाइबिल जो इस ईश्वरीय कृति का प्रतिरूप या प्रतिबिम्ब है। यह ईश्वरीय शब्द (Word या Logos) प्रकृति की नक़ल नहीं है, जैसा कि प्लेटो ने कहा था। वह समानान्तर सृष्टि है। बाइबिल और प्रकृति में अर्थगत एकरूपता है, भले ही वह अर्थ हमें सदैव दिखाई न दे और मानव-भाषा (word) उसी ईश्वरीय भाषा (Word) का प्रतिबिम्ब है। मध्यकालीन भाष्य-सिद्धान्त सन्त आगस्टाइन के इसी विचार को आधार मानकर चलता है। आगस्टाइन के अनुसार पहले से विद्यमान अर्थ को व्यक्त करने के लिए ही भाषा का अस्तित्व है। संसार में विविध भाषाएँ होने के बावजूद भाषा यथार्थ के सच्चे स्वरूप का साक्षात्कार कराती है। आगस्टाइन ने किस्सा-कहानियों और कवित्वपूर्ण-अलंकृत भाषा के प्रति गहरा अविश्वास प्रकट किया है। मध्यकाल के अधिकांश लेखक उनके इस विचार से सहमत दिखाई देते हैं। अतः शब्द-क्रीड़ा और तरह-तरह के शब्द-चमत्कारों द्वारा हमें भाषा को विकृत नहीं करना चाहिए। यहाँ अन्तर्विरोध यह है कि स्वयं बाइबिल में कविता भी है और नीतिकथाएँ भी। इस बारे में आगस्टाइन का तर्क यह है कि यह अनित्य तो उस नित्य या शाश्वत तत्त्व को समझने का सिर्फ माध्यम है । इसी नित्य अर्थ को समझने के लिए मसीही विद्वानों ने टीका या भाष्य की विविध युक्तियाँ खोज निकालीं और उन युक्तियों के आधार पर बाइबिल के कठिन और रहस्यमय शब्दों की व्याख्या या मीमांसा की।
मध्यकालीन भाष्य-सिद्धान्त की महत्त्वपूर्ण तकनीक है अन्योक्ति (allegory)। क्विण्टलियन के अनुसार अन्योक्ति में शाब्दिक अर्थ कुछ होता है, वास्तविक अर्थ कुछ और। क्विण्टलियन में अन्योक्ति एक अलंकार भर था। आगस्टाइन के विचारों से विन्यस्त होकर वह एक ऐसा साधन बन गई, जिसके आधार पर ईश्वरीय शब्द (Word) अर्थात बाइबिल के निहितार्थों को समझा जा सकता है।
क्विण्टलियन का आधार लेकर मध्यकालीन लेखकों ने अन्योक्तिपरक अर्थ के चार स्तरों की चर्चा की है, जिनका बाइबिल के अध्ययन में उपयोग किया जा सकता है। अर्थ के ये चार स्तर हैं– ऐतिहासिक, आध्यात्मिक, नैतिक और गूढ़ या रहस्यात्मक। बारहवीं सदी तक आते-आते मध्यकालीन लेखक भाष्य की इस पद्धति का गैर-मसीही काव्यों की व्याख्या में भी उपयोग करने लगे। उदाहरण के लिए प्रसिद्ध लातीनी कवि वर्जिल (ई.पू. 70- ई.पू. 19) कृत एनीद का इसी पद्धति से अध्ययन किया गया। अपने एक पत्र में दाँते (सन् 1265-1321) ने अपने महाकाव्य डिवाइन कामेडी (दिव्य सुखान्तकी) की इसी पद्धति से व्याख्या की। इस मध्यकालीन भाष्य-सिद्धान्त में तीन अनुमान अन्तर्निहित है।
- बाह्य यथार्थ ईश्वर की सुसम्बद्ध सृष्टि है;
- यह सृष्टि मानव-मन के लिए बोधगम्य है;
- इस बोध को भाषा में व्यक्त किया जा सकता है।
अमरीकी ‘नई समीक्षा’ से सम्बन्धित एक आलोचक नार्थप फ्राई (सन् 1912-1991) और एक उत्तर-आधुनिक आलोचक फ्रेडरिक जेमसन (जन्म सन् 1934) की पाठ-मीमांसा पर, इस भाष्य-पद्धति का प्रभाव महसूस किया जा सकता है।
मध्यकाल के बारे में जो सामान्यीकरण किए गए हैं, उनको जैसे मिथ्या सिद्ध करने के लिए डिवाइन कामेडी के लेखक दाँते (सन् 1265-1321) का आविर्भाव होता है। दाँते की यह अमर कृति वैसी ही महत्त्वपूर्ण है, जैसी होमर कृत इलियद अथवा वर्जिल कृत एनीद । मध्यकालीन कैथोलिक चिन्तन और भाषाई चिन्तन में जो कुछ सर्वश्रेष्ठ है, वह दाँते की इस महान कृति में आ गया है। उनके बारे में इतना भर कहना काफी नहीं है कि वे ‘पुनर्जागरण के अग्रदूत’ हैं। इलियट ने लिखा है कि ‘मैं दाँते की एक पंक्ति पर अपना सम्पूर्ण कृतित्व निछावर कर सकता हूँ।’ भाषा का प्रश्न भी दाँते के लिए मामूली प्रश्न नहीं था। साहित्यिक लैटिन जीवित भाषा नहीं रह गई थी। लेखक के लिए उसे लिखना कठिन था और पाठक के लिए उसे समझना। अपनी प्रसिद्ध आलोचना कृति दी वल्गारी एलोक्विओ (भदेस भाषा के विषय में अथवा देशी भाषा में लेखन) में दाँते ने साहित्यिक भाषा के रूप में इतालवी भाषा को अपनाए जाने के पक्ष में अपने तर्क दिए हैं। उनके समय में ऐसे लेखक थे जो फ्रेंच प्रोवाँसाल (फ्रेंच भाषा का साहित्यिक रूप) को अधिक परिष्कृत मानकर उसे तरजीह दे रहे थे। दाँते ने ऐसे लेखकों को ‘देश-विरोधी’ कहा है। वर्जिल को पढ़कर वे यह सोचने को बाध्य हुए कि हम ऐसा क्यों नहीं लिख सकते? और यदि कोई वैसी रचना करना चाहते हैं, तो वे कौन-सी भाषा अपनाएँ? धर्मशास्त्रियों की लैटिन या फिर लोक-कवियों की इतालवी? उस समय जो इतालवी भाषा थी, उसमें अनेक बोलियाँ थीं। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर भाषा बदल जाती थी। दाँते के सामने प्रश्न था कि वह कौन-सी इतालवी हो सकती है, जिसे ज्यादा-से-ज्यादा लोग समझें, साथ ही जिसमें लैटिन-जैसी सटीकता भी हो। वे ऐसी भाषा की तलाश में थे जिसमें महानतम कवि अपने उत्तमोत्तम विचारों को व्यक्त कर सकें। वह भाषा होगी तो बोलचाल की ‘भदेस भाषा’ (वल्गर टंग) ही, जिसे उन्होंने बचपन से सीखा, लेकिन वह ‘गरिमामय देशभाषा’ होगी, वह भाषा जो सभी बोली-क्षेत्रों के साहित्यकारों की सामान्य भाषा है। विभिन्न भाषाई रूपों से उसकी विलक्षणताएँ हटा दीजिए, फिर जो भाषा बचेगी, वह सभी के लिए ‘सामान्य’ होगी। वह किसी क्षेत्र-विशेष की भाषा नहीं है, वरन् उसमें सभी क्षेत्रीय भाषाओं के चुने हुए तत्त्व और सुगन्ध व्याप्त हैं। उन्होंने सामान्यीकरण करते हुए लिखा–“अपने विकास से पहले हर देश की ‘सामान्य भाषा’ अंशों में सभी जगह मौजूद रहती है, किन्तु सम्पूर्णता में कहीं भी नहीं होती।” दाँते शब्दों के चुनाव को लेकर बेहद सतर्क हैं। विभिन्न क्षेत्रों से श्रेष्ठतम शब्द चुनकर भाषा का निर्माण करना होता है। अतः काव्य-रचना की प्रक्रिया सहज नहीं, श्रमसाध्य है। दाँते की दृष्टि में शब्द विश्वसनीय साथी की तरह हैं। उनमें कोई ऐसा नहीं होना चाहिए, जिसकी कविता के रचना-विधान में कोई-न-कोई भूमिका न हो। अरस्तू ने रचना में ‘कथानक’ को प्राथमिक महत्त्व दिया था। दाँते ने ‘विषय’ को पहला स्थान दिया। शैली भी श्रेष्ठ तभी होगी जब विषय भी श्रेष्ठ और गरिमामय हो। शैली शून्य में अवस्थित नहीं होती। वह विषय को गरिमा तभी प्रदान कर सकती है, जब विषय उसे गरिमा प्रदान करे। एक लम्बे अन्तराल के बाद दाँते ने ऐसी आलोचनात्मक कृति दी जो मध्यकाल की आलोचना का सर्वश्रेष्ठ निदर्शन है।
- पुनर्जागरणकालीन तथा नव्यशास्त्रवादी सैद्धान्तिकी और आलोचना
पुनर्जागरणकालीन और नव्यशास्त्रवादी सैद्धान्तिकी का सम्बन्ध सोलहवीं, सत्रहवीं और अट्ठारहवीं सदी के सिद्धान्तकारों और आलोचकों से है। पुनर्जागरणकालीन आलोचकों में प्रमुख हैं सर फिलिप सिडनी (सन् 1554-1586) और बेन जॉनसन (सन् 1573-1637) और नव्यशास्त्रवादी सिद्धान्तकारों में प्रमुख है डॉ. सैमुअल जॉनसन (सन् 1709-1784)। ड्राइडन (सन् 1631-1700) उक्त दोनों युगों को जोड़ने वाली कड़ी हैं। इन आलोचकों की संक्षिप्त चर्चा हम आगे करेंगे।
पुनर्जागरण काल (सन् 1450-1650) सृजन की दृष्टि से जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना आलोचना की दृष्टि से नहीं। इस युग में शेक्सपियर (सन् 1564-1616), मार्लो (सन् 1564-1593), बेन जॉनसन (सन् 1573-1637) जैसे रचनाकार हुए थे, जिनमें सृजनात्मक ऊर्जा का विस्फोट हुआ था, लेकिन इस समय की आलोचना निर्णयात्मक, पाण्डित्यपूर्ण और शास्त्रीय उद्धरणों से बोझिल है। उसमें न तो किसी रचना के विवेचन-विश्लेषण का प्रयास है, न मूल्य-निर्णय में समसामयिक रचनाशीलता को आधार बनाया गया है। यूनानी-रोमी काव्य-प्रतिमानों का आतंक इतना हावी है कि आलोचक प्रायः उनसे बाहर जाने की बात सोच ही नहीं पाता। इस दौर में क्लासिकी (यूनानी-रोमी) कला-प्रतिमानों के प्रति एक नया रुझान दिखाई देता है। पुनर्जागरण के आविर्भाव में प्राचीन क्लासिक ग्रन्थों के पठन-पाठन, अनुवाद, व्याख्या आदि की भूमिका का उल्लेख किया जाता है। पन्द्रहवीं सदीं के मध्य (सन् 1453) में कुस्तुनतुनिया में ग्रीक साम्राज्य का पतन हुआ। परिणामस्वरूप साम्राज्य के संरक्षण में जो विद्वान थे, उन्होंने अपने ग्रन्थों के साथ इटली में शरण ली। यहाँ फिर से इन ग्रन्थों के पठन-पाठन, व्याख्या आदि का सिलसिला शुरू हुआ। लेकिन पुनर्जागरण के आविर्भाव में क्लासिकी साहित्य की भूमिका को जरूरत से ज्यादा महत्त्व देना उचित नहीं माना जा सकता। इस आविर्भाव के कुछ अन्य कारण भी हैं, जो कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। मध्यकाल चर्च की क्रूरताओं का काल भी है। बौद्धिक आदान-प्रदान की भाषा लैटिन थी, जो सामान्य जन की पहुँच के परे थी। चर्च की शुद्धतावादी दृष्टि की वजह से साहित्य-रचना एक प्रकार से प्रतिबन्धित थी। फिर भी लोक के स्तर पर, देशी भाषाओं में साहित्य-रचना का सिलसिला लोकगीतों, गाथागीतों (ballads) और रोमांस आदि के रूप में जारी था। लैटिन इन देशी भाषाओं को दबाए हुए थी। चर्च की उत्पीड़नकारी प्रवृत्तियों की वजह से भी आम जनता परेशान थी। अतः आम जनता चर्च और लैटिन इन दोनों के प्रभुत्व से मुक्ति चाहती थी। इस दौर में इटली और इंग्लैण्ड में पेट्रॉक (सन् 1304-1374), बुकाचियो (सन् 1313-1375), विकलिफ (सन् 1320-1384) जैसे मानवतावादी लेखक हुए, जिन्होंने व्यक्ति के अधिकारों और व्यक्ति-स्वातन्त्र्य पर बल दिया। स्वतन्त्रता की यह चेतना विविध क्षेत्रों में व्यक्त हुई। मुद्रण कला का आविष्कार, नई दुनिया की खोज के लिए समुद्री यात्राओं का सिलसिला, गणित और विज्ञान के प्रति जिज्ञासा उक्त चेतना के ही परिणाम थे। व्यक्ति के अधिकारों के सम्यक् निर्वाह के लिए चर्च और लैटिन के बन्धनों से मुक्ति जरूरी हो उठी। पुनर्जागरण इसी मुक्ति का शंखनाद था, जो सृजनात्मक ऊर्जा के सहज विस्फोट के रूप में सामने आया।
यूनानी-रोमी सैद्धान्तिक साहित्य की खोज और पठन-पाठन का रचनात्मक साहित्य पर तो विशेष प्रभाव नहीं दिखाई देता, लेकिन आलोचनात्मक लेखन पर इसका प्रभाव है। उस समय ऐसे विद्वान थे, जो एक ओर क्लासिकी साहित्य के प्रति निष्टावान थे, दूसरी ओर देशी परम्परा में भी उनकी आस्था थी। उदाहण के लिए इटली में दाँते ने लैटिन के बरक्स इतालवी भाषा का महत्त्व प्रतिपादित किया था, उसी प्रकार अंग्रेजी कविता के जनक चॉसर (सन् 1340-1400) ने अंग्रेजी काव्य को स्वतन्त्र पहचान दी।
पुनर्जागरणकालीन आलोचना की दृष्टि से सन् 1579 का साल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सन् 1579 में एक साहित्यिक मण्डल का गठन हुआ, जिसमें यह तय किया गया की अंग्रेजी कविता में यूनानी-लातीनी छन्द-विधान के स्थान पर अंग्रेजी काव्य-परम्परा का छन्दविधान अपनाना चाहिए। इस मण्डल के एक प्रमुख सदस्य थे सर फिलिप सिडनी (सन् 1554-1586)। इसकी गतिविधियों के परिणामस्वरूप राष्ट्रीय साहित्य की चेतना को बल मिला और प्राचीन तथा नवीन के बीच बहस की शुरुआत हुई। मूलतः यह बहस पहले इटली में शुरू हुई थी, फिर फ़्रांस, इंग्लैण्ड आदि यूरोपीय देशों में। प्राचीनता के पक्षधर प्राचीन, अर्थात यूनानी-रोमी रचनाकारों की तुलना में नयों को हीन श्रेणी का मानते थे। उनका मानना था कि प्राचीन कवि-नाटककार स्थायी और सार्वभौम नियमों की खोज करके उनका व्यावहारिक निदर्शन प्रस्तुत कर चुके हैं। इसलिए आधुनिक लेखकों के लिए सबसे अच्छा विकल्प यही है कि वे उन्हीं के बताए रास्ते पर चलें। इसके विपरीत दूसरा पक्ष नई रचनाशीलता का पक्षधर था। उसका मानना था कि अरस्तू के युग की तुलना में ज्ञान का विस्तार अब ज्यादा है। अतः काव्य और कलाएँ, वैसे ही मेहनत करने पर, पूर्णता के प्रतिमान के अधिक नजदीक पहुँच सकती हैं, भले ही अभी उनके अधिक उदाहरण न मिलें। दूसरे, अन्य चीजों के समान ‘मानव-प्रकृति’ भी परिवर्तनशील है, स्थायी नहीं। देशकाल के अनुसार उसमें भी परिवर्तन होता है और परिवर्तन की यह दिशा सरलता से जटिलता की ओर है। ज्ञान के विस्तार के साथ–साथ हमारी संवेदना भी उत्तरोत्तर संश्लिष्ट और जटिल होती जाती है। प्राचीन बनाम आधुनिक के द्वन्द में एक अतिवाद यह था कि कला के क्षेत्र में सभी प्रतिमान प्राचीन काल में सदा-सदा के लिए निर्धारित कर दिए गए हैं। वहीं दूसरा अतिवाद यह है कि कालक्रम में जो रचना बाद में आएगी, वह निश्चित तौर पर पूर्ववर्ती से बेहतर या अधिक विकसित होगी।
सन् 1579 में ही एक अन्य आलोचनात्मक विवाद उठ खड़ा हुआ। वह विवाद है, एक ओर नैतिकतावादी आधार पर कविता पर आक्रमण, दूसरी ओर उसका बचाव। साहित्यिक समृद्धि और भव्यता की दृष्टि से अंग्रेजी पुनर्जागरण युग का वही महत्त्व है, जो एथेन्स में पेरिक्लेस (ई.पू. 490-ई.पू.429) के युग और रोम में ऑगस्टस (ई.पू. 63-14 सन्) के युग का। विशेष रूप से कविता और नाटक के क्षेत्र में यह अभूतपूर्व साहित्यिक गतिविधि का काल था। रचना और आलोचना दोनों क्षेत्रों में उन्मुक्त आलोड़न और बहस के प्रतिक्रियास्वरूप शुद्धतावादियों ने उन्हें अपनी आलोचना का लक्ष्य बनाया। प्लेटो की भाँति उनका मानना था कि ऐसे साहित्य का नैतिक मूल्यों पर घातक असर पड़ेगा। साहित्य में इस आलोचना का नेतृत्व किया स्टीवन गॉसन (सन् 1554-1624) ने अपनी आलोचना-कृति द स्कूल ऑफ़ अब्यूस (बकवास का शिक्षालय) में। यह कृति सन् 1579 में आई थी और सर फिलिप सिडनी को समर्पित की गई थी। गॉसन ने चार आधारों पर कविता की आलोचना की थी– पहले तो कविता के बजाय अन्य क्षेत्रों में व्यक्ति अपने समय का बेहतर इस्तेमाल कर सकता है; दूसरे, कविता झूठ की जननी है, अर्थात झूठ का स्रोत; तीसरे, यह बकवास (अब्यूस) को प्रश्रय देती है; और चौथे, प्लेटो ने अपने आदर्श गणराज्य से कवियों को उचित ही निष्कासित किया था। सिडनी ने सन् 1580 में अपनी पुस्तक अपोलॉजी फॉर पोइट्री (कविता का पक्ष-समर्थन) में गॉसन के अभियोगों का जवाब दिया। सिडनी कविता के लिए यह लड़ाई उस समय लड़ी, जब अंग्रेजी में न तो आलोचना की कोई परम्परा थी, न तब तक महान कविता ही रची गई थी। फिर भी लोक-परम्परा में जो कविता रची गई थी, उसके वे प्रशंसक थे। इसीलिए लोक-परम्परा में रचित पन्द्रहवीं सदी के एक गाथागीत (बैलेड) चेवी चेज की उन्होंने मुक्त कण्ठ से सराहना की। उसके छन्दविधान में उन्होंने नगाड़े की ध्वनि सुनी। अपोलॉजी फॉर पोइट्री सही मायनों में पुनर्जागरण कालीन मानववाद का विश्वकोश है। इसमें तीन प्रमुख विषयों पर विचार किया गया है। सबसे पहले उन्होंने कविता की गरिमा को बचाने पर ध्यान केन्द्रित किया। यह दर्शन और इतिहास दोनों से बढ़कर है, क्योंकि उसमें नैतिक ज्ञान (जिसका सम्बन्ध दर्शन से है) और मनोरंजक दृष्टान्तों (जिसका सम्बन्ध इतिहास से है) का समन्वय होता है। दूसरे खण्ड में कविता के खिलाफ गॉसन की आपत्तियों का, सिलसिलेवार ढंग से, जवाब दिया गया है, विशेष रूप से इस आपत्ति का कि कवि मिथ्यावादी होता है। इस सन्दर्भ में पुनर्जागरणकालीन इटली के प्रसिद्ध मानववादी बुकाचियो के तर्क को आधार बनाकर उन्होंने लिखा: “अब जहाँ तक कवि का प्रश्न है, वह निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहता; और इसीलिए वह झूठ कभी नहीं बोलता।” कवि जो कुछ अनुकरण करता है वह मिथ्या नहीं होता जैसा कि प्लेटो ने अभियोग लगाया था, क्योंकि कवि सत्य का दावा नहीं करते। तीसरे खण्ड में अंग्रेजी साहित्य की समसामयिक स्थिति पर विचार किया गया है। यहाँ सिडनी ने काव्यभाषा, काव्यालंकारों, तुक, छन्द, लय आदि के बारे में कुछ आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की हैं और अंग्रेजी भाषा की अन्य यूरोपीय भाषाओं से तुलना की है। साथ ही उन्होंने अरस्तू द्वारा निर्दिष्ट अन्वितियों का निर्वाह न करने के लिए अंग्रेजी नाट्य साहित्य की आलोचना की । आगे चलकर फ़्रांसीसी नाटककार कार्नेई (सन् 1606-1684) से लेकर डॉ. जॉनसन तक पूरे नव्यशास्त्रवादी दौर में यह विषय आलोचकों का ध्यान आकर्षित करता रहा।
पुनर्जागरण काल के दूसरे प्रमुख आलोचक हैं बेन जॉनसन (सन् 1573-1637)। एलिजाबेथ युग के प्रमुख नाटककारों में उनकी गणना की जाती है। साथ ही वे क्लासिकी (यूनानी-रोमी) साहित्य और आलोचना के अप्रतिम विद्वान थे। जब सृजनात्मकता का आलोड़न, व्यवस्था की सीमाएँ अतिक्रान्त करने लगा, उस समय उन्होंने व्यवस्था लाने की कोशिश की। यह व्यवस्था आएगी क्लासिकी साहित्य के अध्ययन से। बेन जॉनसन के अनुसार बड़ा आलोचक वह है, जो महान-से–महान रचनाकार की शक्ति के साथ-साथ उसकी सीमाओं को भी पहचान सके। शेक्सपियर की प्रशंसा में कहा जा रहा था कि काव्य-रचना के दौरान उन्होंने कोई भी पंक्ति कभी मिटाई नहीं। बेन जॉनसन ने लिखा कि काश! वह हज़ार पंक्तियाँ मिटाता। वे रचना में कठोरता और श्रम के पक्षधर थे, ‘सहज उच्छलन’ के नहीं। उन्होंने एक ऐसे युग में अतिरंजनाओं पर अंकुश लगाने की कोशिश की जब आत्माभिव्यक्ति अनियन्त्रित होकर दोष की सीमा तक पहुँच गई थी। शेक्सपियर के ही युग में बेकन में यह आत्मनियन्त्रण है। अतः बेकन की सराहना करते हुए उन्होंने लिखा की वर्तमान युग में कोई भी ऐसा लेखक नहीं है, जिसने इतनी सफाई से, इतनी गम्भीरता से और इतने प्रभावशाली रूप में लिखा हो।
अनियन्त्रित कोलाहल के युग में बेन जॉनसन ने व्यवस्था और सन्तुलन पर बल दिया। अतिरंजना के बजाय मध्यमार्ग पर। इस दिशा में उनके प्रेरक और आदर्श थे यूनानी लेखक। उन्होंने कहा भी कि अरस्तू ने त्रासदी के नियम ईजाद नहीं किए थे। उन्होंने तो उन्हें सोफोक्लेस, यूरिपिदेस आदि से आकलित किया था। फिर भी अरस्तू चीजों के मूल कारणों को समझता था: “अन्य लोग जो कुछ संयोगवश अथवा रूढ़ि के आधार पर करते हैं, वह सब अरस्तू तर्क के आधार पर। उसने यह तरीका ही नहीं निकाला कि कैसे गलती न हो, वरन् यह भी ध्यान में रखा की वह रास्ता यथासम्भव छोटा हो।” जहाँ तक क्लासिकी नियमों का सम्बन्ध है, उनकी चर्चा करते समय उन्होंने अरस्तू के नियमों का ज्यों-का-त्यों उल्लेख कर दिया है। बिना किसी परिवर्तन के महाकाव्य के बारे में, नाटक के बारे में, कथानक के बारे में, अन्वितियों के बारे में, कथानक के बारे में उन्होंने जो कुछ लिखा, वह एक प्रकार से अरस्तू का रूपान्तर ही है। वास्तव में, बेन जॉनसन की रुचि यूनानियों की नहीं एलिजाबेथ युग की पद्धतियों में थी। अपने युग की पद्धतियों में।
बेन जॉनसन ने रचनाकार में कुछ गुणों का, कुछ पूर्वापेक्षाओं का, होना वांछनीय बताया। इनमें सबसे पहला है ‘सहज प्रतिभा’ जो जन्मजात होती है। दूसरे, इस प्रकृति-प्रदत्त प्रतिभा का बार-बार अभ्यास। भारी और पीड़ादायक श्रम। वे सहज उच्छलन के पक्षधर नहीं हैं। साहित्य में सफलता का कोई राजमार्ग नहीं है। सौन्दर्य कठोरता में है। वह श्रमसाध्य है। तीसरे, अनुकरण या पुनःसृजन (इमीटेशन) अर्थात “किसी अन्य कवि के सार या समृद्धि को अपने उपयोग के अनुरूप ढाल लेना।” यह पद्धति पाठ-निर्माण की आधुनिक या कहें की उत्तर-आधुनिक धारणा के अनुरूप है। यह आधुनिक कवि-समीक्षक इलियट की रचना-पद्धति के भी अनुरूप है। इसीलिए इलियट ने लिखा– “यह तीसरी पूर्वापेक्षा मुझे विशेष रूप से उल्लसित करती है।” इलियट ने अपनी कविताओं में इस तकनीक का मुखर उपयोग भी किया है–विशेष रूप से वेस्ट लैण्ड में। चौथे, अध्ययन में सटीकता और विविधता, जिससे मनुष्य पूर्णता की ओर अग्रसर होता है। बेकन का मानना था कि ‘अध्ययन से मनुष्य में पूर्णता आती है।’ भारतीय काव्य-चिन्तन में काव्य के तीन हेतु बताए गए हैं– प्रतिभा, अभ्यास और व्युत्पत्ति। बेन जॉनसन की पूर्वापेक्षाएँ इन काव्य-हेतुओं से काफी मिलती-जुलती हैं।
क्लासिकी नियमों के पालन के बारे में बेन जॉनसन का रुख कठोरता का नहीं है। उन्होंने लिखा– “मेरा यह मत नहीं है कि मैं कृति की स्वतन्त्रता को नियमों की सीमाओं में बाँध दूँ, उन नियमों की सीमाओं में, जो दार्शनिकों या वैयाकरणों ने निर्धारित किए हैं।” इन शब्दों में, सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में, अरस्तू की सत्ता खिसकती नजर आती है। और इन शब्दों में तो और भी ज्यादा कि “कवियों के मूल्यांकन की क्षमता केवल कवियों में ही होती है– वह भी सभी कवियों में नहीं, केवल सर्वश्रेष्ठ कवियों में।” वे यह कभी नहीं भूलते कि साहित्यिक श्रेष्ठता अन्ततः लेखक के व्यक्तित्व पर निर्भर है। अध्ययन के बजाय प्रकृति की भूमिका अधिक शक्तिशाली होती है। कला प्रकृति के अधीन रहती है या रहनी चाहिए। भाषा में अर्थ के महत्त्व को रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा– “सम्पूर्ण भाषा में शब्द और अर्थ, शरीर और आत्मा की तरह हैं, अर्थ भाषा का जीवन और आत्मा है, जिसके बिना सभी शब्द निर्जीव हैं।”
पुनर्जागरण के बाद जब हम ड्राइडन (सन् 1631-1700) पर आते हैं, तो उनमें हमें एक नई आवाज सुनाई देती है। आधुनिक आलोचक की आवाज। ड्राइडन को आधुनिक आलोचना का जनक माना जाता है। उन्होंने बेन जॉनसन के द साइलण्ट वुमैन (मूक महिला) नाटक का विश्लेषण करके अंग्रेजी में विश्लेषणात्मक आलोचना का सूत्रपात किया। इसके पहले जो आलोचना है, वह शास्त्रीय या सैद्धान्तिक कोटि में आएगी। यह विश्लेषणात्मक आलोचना ही आधुनिक आलोचना है। सत्रहवीं सदी यूरोप में विज्ञान की शताब्दी मानी जाती है। गैलीलियो, न्यूटन आदि वैज्ञानिक इसी दौर में हुए थे। लॉक, हार्टले आदि अनुभववादी दार्शनिक इसी युग के हैं। इस वैज्ञानिक चेतना के प्रसार ने अंग्रेजी गद्य को प्रभावित किया। उसे आधुनिक बनाया। ड्राइडन के गद्य में वैज्ञानिक उपमाएँ भरी पड़ी हैं। विज्ञान के प्रभाव से लम्बे वाक्य के बजाय छोटा वाक्य अभिव्यक्ति का सामान्य रूप बन गया। इस बदलाव से गद्य में एक प्रकार की ताजगी आई। ड्राइडन के गद्य में यह ताजगी सबसे ज्यादा है। इसलिए उन्हें ‘आधुनिक अंग्रेजी गद्य का जनक’ भी माना जाता है। ‘प्रकृति का अनुकरण’ सूत्र में ऐतिहासिक आयाम का संयोग करके उन्होंने शास्त्रवाद की जकड़न में दरार डालने की कोशिश की। उनका प्रसिद्ध कथन है– “अरस्तू ने ऐसा कहा है, इतना ही काफी नहीं है, क्योंकि अरस्तू ने अपने प्रतिमान यूरिपिदेस और सॉफोक्लेस से ग्रहण किए थे और उसने यदि हमारे नाट्य आदर्शों को देखा होता तो अपने नियम बदल देता।”
काव्यभाषा के क्षेत्र में भी ड्राइडन की देन उल्लेखनीय है। ड्राइडन से ठीक पहले एक तो पुनर्जागरण के अन्तिम दौर के तत्त्ववादी कवियों (मैटाफिजिकल पोएट्स) की परम्परा थी, जिसमें कल्पना का अतिरेक था। दूसरी अनुभववादी मनोविज्ञान की परम्परा थी, जो भाषा को कल्पना से एकदम रिक्त कर देना चाहती थी। इनके प्रभाव से परम्परागत अलंकार-विधान बेमानी हो उठा था। उक्त दोनों अतिवादी स्थितियाँ थीं। इन दोनों अतिवादी स्थितियों के बीच से ड्राइडन ने एक मध्यवर्ती राह निकाली और परम्परागत अलंकार-विधान के स्थान पर, शिल्प के नए उपकरण के रूप में, बिम्ब को प्रतिष्ठित किया। इन्द्रियबोध पर आधारित होने की वजह से ‘बिम्ब’ में कल्पनाशीलता के साथ-साथ वैज्ञानिकता भी है। साथ ही उसमें ज्ञान-प्रसार के साथ उत्तरोतर जटिल होती संवेदना को व्यक्त करने की क्षमता भी है। यह क्षमता परम्परागत अलंकार विधान में नहीं थी। अपनी बहुमुखी प्रतिभा की वजह से ड्राइडन का अंग्रेजी समीक्षा में विशिष्ट स्थान है। वे अपने युग के हैं, साथ ही उसे अतिक्रान्त भी करते हैं। उन्हें ठीक-ठीक नव्यशास्त्रवादी नहीं कहा जा सकता। वे पुर्नजागरण और नव्यशास्त्रवाद को जोड़ने वाली कड़ी हैं। उनमें इन दोनों युगों की विशेषताएँ हैं। इसीलिए उनमें सहजता भी हैं और अनुशासन भी। एक ओर स्पष्टता, अनुपात, नियमनिष्ठता और वैज्ञानिकता के तत्त्व हैं, तो दूसरी ओर कल्पना का ऐश्वर्य, शक्ति और जीवन्तता के प्रति लगाव, ओजस्वी छन्द विधान और मूर्त्त प्रत्यक्षीकरण की प्रतिभा भी है।
फ़्रांस में 17वीं सदीं के उत्तरार्ध में नव्यशास्त्रवाद का विकास हुआ था, जबकि इंग्लैण्ड में 18वीं सदी में। यद्यपि ड्राइडन ने इस विकास की दिशा निर्धारित कर दी थी, लेकिन वे ठीक-ठीक नव्यशास्त्रवाद का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इंग्लैण्ड में नव्यशास्त्रवाद के सच्चे प्रतिनिधि डॉ. जॉनसन (सन् 1709-1784) हैं। साहित्य में क्लासिकी (यूनानी-रोमी) प्रतिमानों से क्रमशः मुक्त होने की जिस परम्परा को ड्राइडन ने शुरू किया था, उसे डॉ. जॉनसन ने जारी रखा, बल्कि वे उसमें और गति लाए। दूसरी ओर, उन्होंने उसके आभिजात्यवादी चरित्र और शिल्पगत परिष्कार पर भी बल दिया। उसके विशिष्टवर्गीय चरित्र के प्रति ड्राइडन की अपेक्षा उनका आग्रह अधिक रहा। कविता को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘कविता ऐसी कला है जो विवेक और कल्पना की सहायता से आनन्द का सत्य से समन्वय करती हैं।’ इस परिभाषा में कविता के स्वरूप और प्रयोजन दोनों का अन्तर्भाव है। एक ओर कविता जीवन (सत्य) का अनुकरण है, दूसरी ओर वह आनन्द प्रदान करती है। जीवन का अनुकरण करते समय वह विवेक या बुद्धि द्वारा निर्दिष्ट होती है और आनन्द प्रदान करते समय कल्पना की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। प्रीफेस टू शेक्सपियर में उन्होंने लिखा–“लेखन का प्रयोजन है शिक्षा देना और कविता का प्रयोजन आनन्द के माध्यम से शिक्षा देना।” जॉनसन की यह धारणा होरेस के मत के अनुरूप है। ड्राइडन ने भी आनन्द और शिक्षा दोनों को काव्य-प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया था। किन्तु जहाँ ड्राइडन ने आनन्द को प्रमुख और शिक्षा को गौण प्रयोजन माना था, वहाँ डॉ. जॉनसन का शिक्षा पर अधिक बल है। अपनी इसी मान्यता के आधार पर उन्होंने शेक्सपियर में यह कमी बताई कि वह अपने नाटकों में आनन्द प्रदान करने पर जितना बल देता है, उतना शिक्षा पर नहीं; जिससे कभी-कभी लगता है कि उसके मूल में कोई नैतिक प्रयोजन नहीं है। जॉनसन के अनुसार यह एक ऐसा दोष है जिसे ‘युग की बर्बरता’ का आधार लेकर कम नहीं किया जा सकता। उनकी मान्यता के अनुसार कवि का यह दायित्व है कि वह दुनिया को जैसे है उससे बेहतर रूप दे। जॉनसन ने मानव प्रकृति के सामान्य रूप पर अधिक बल दिया। जिसकी धड़कन हर हृदय में सुनाई दे। उसे साधारणीकृत रूप में उन्होंने लिखा, “सामान्य प्रकृति के यथातथ्य चित्रण के अलावा कोई चीज ऐसी नहीं है, जो अधिकाधिक लोगों को लम्बे समय तक आनन्द प्रदान कर सके”। पुनः किसी रचना से दीर्घकालीन परिचय का अर्थ यह है कि उस पर अधिकाधिक विचार हुआ है, और जिस पर अधिकाधिक विचार हुआ है उसे समझा भी सबसे ज्यादा गया है। तत्त्ववादी कवि काउले के जीवन का विवरण देते हुए उन्होंने लिखा– “महान विचार हमेशा सामान्य होते हैं”। आलोचना में उन्होंने ‘सिद्धान्तों’ पर, तर्कसंगत ‘निगमन’ पर, उसकी वैज्ञानिकता पर बल दिया। उनके अनुसार आलोचना साहित्य के ऐसे क्षेत्रों में वैज्ञानिक व्यवस्था ले आती है, जिनमें अब तक अज्ञान की अराजकता, कल्पना की स्वेच्छाचारिता और शास्त्रीय निरंकुशता का बोलबाला रहा है। अपने आलोचना साहित्य में उन्होंने कविता की भाषा पर भी ध्यान दिया। आगे चलकर जिस रूढ़ काव्यभाषा (poetic diction) का वर्ड्सवर्थ ने विरोध किया, उसे रूढ़ रूप देने में डा. जॉनसन की भी भूमिका रही। उनका मानना था कि सभी शब्द कविता में उपयोग के लायक नहीं होते। ‘अतिपरिचित’ अथवा दूरारूढ़ शब्द कवि के प्रयोजन को ही निष्फल कर देते हैं। कारण, जो शब्द नित्य प्रति हमारे कानों में पड़ते हैं, वे हमारे ऊपर कोई गहरा असर नहीं छोड़ते। इसके, विपरीत, जो शब्द हमारे लिए अजनबी हैं, उन्हें या तो हम समझते ही नहीं, या फिर बहुत कठिनाई से समझते हैं। इन विचारों से यह संकेत मिलता है कि जॉनसन के दिमाग में शब्दों के दो वर्ग हैं– एक काव्यात्मक, दूसरा अकाव्यात्मक। वास्तविकता यह है कि शब्द अपने आप में काव्यात्मक या अकाव्यात्मक नहीं होते। प्रयोग के आधार पर वे अपना स्वरूप अर्जित करते हैं। लेकिन पोप, डॉ. जॉनसन जैसे लेखकों की इस सोच से कृत्रिमता को बढ़ावा मिला। परिणामस्वरूप नव्यशास्त्रवादी दौर में काव्यभाषा रूढ़ होती गई और उसकी भावोद्दीपन-क्षमता घटती गई।
दूसरी ओर क्लासिकी (यूनानी-रोमी) नियमों की जकड़न से मुक्ति की जो शुरुआत ड्राइडन ने की थी, उसे डॉ. जॉनसन ने और आगे बढ़ाया। वे उसमें और गति लाए। क्लासिकी नियमों की तुलना में मानव प्रकृति के नियम अधिक अकाट्य हैं। उनका विचार था कि मानव-प्रकृति के नियमों से ‘शास्त्रीय नियमों को चुनौती देने का मार्ग’ हमेशा खुला हुआ है। पोप की जीवनी (लाइफ ऑफ़ पोप) में उन्होंने साफ लिखा कि जब हम ‘प्रत्य़क्ष ज्ञान के बजाय सिद्धान्तों के आधार पर मूल्यांकन करने लगते हैं, तो गलती करते हैं। शेक्सपियर के नाटकों में त्रासदी और कामदी के तत्त्वों का मिश्रण है जो अरस्तु के नियमों के खिलाफ है। इस मिश्रण का जॉनसन ने समर्थन किया। एक तो विभिन्न श्रोताओं की रुचियाँ और आदतें भिन्न-भिन्न होती हैं। दूसरे, इस मिश्रण में विविधता है और सम्पूर्ण आनन्द का स्रोत यह विविधता ही है। तीसरे, इसमें जीवनगत साम्य अधिक है क्योंकि य़ह मिश्रण जीवन में भी दिखाई देता है। जीवन भी सुख-दुख के धूपछाँही रंगों से निर्मित है। ड्राइडन ने भी सुख-दुखात्मक नाटकों का पक्ष लेते हुए कहा था कि ‘विरोधी चीजों को यदि साथ-साथ रखा जाए तो वे एक-दूसरे को अलंकृत करती हैं।’ लेकिन इस बारे में जॉनसन का स्वर अधिक निश्चयात्मक है। सर्वोपरि, तीन अन्वितियों या अन्वितित्रयी (कालान्विति, देशान्विति और कार्यान्विति) के बारे में जॉनसन ने जो कुछ कहा, उससे तो अन्वितियों से सम्बन्धित विवाद अपने अन्तिम निष्कर्ष तक पहुँच गया। उन्होंने लिखा–“पहला घण्टा अलेग्जेण्ड्रिया और दूसरा रोम में बिताने को लेकर जो आपत्ति की गई है, उसमें यह अनुमान अन्तनिर्हित है कि जब नाटक शुरू होता है, तब दर्शक वास्तव में स्वयं की अलेग्ज़ेण्ड्रिया में होने की कल्पना करता है और यह समझता है कि उसका रंगमंच की ओर जाना मिस्र की समुद्र यात्रा रहा है, और वह एण्टोनी तथा क्लियोपेट्रा के युग में रह रहा है। निश्चय ही जो इतनी कल्पना कर लेता है, वह और भी कर सकता है।… वास्तविकता यह है कि दर्शक हमेशा पूरे होशो-हवाश में रहते हैं, और प्रथम अंक से लेकर अन्तिम अंक तक उन्हें यह बोध रहता है कि रंगमंच केवल रंगमंच है, और अभिनेता केवल अभिनेता।….उस जगह को एथेन्स, फिर सिसिली मान लेने में असंगति कहाँ से आ गई जिसके बारे में दर्शक को पहले से पता है कि वह न तो सिसिली है, न एथेन्स। वह तो आधुनिक रंगमंच है। इस कथन में क्लासिकी नाट्य नियमों का विरोध तो है ही, जॉनसन की आलोचकीय प्रतिभा का साक्ष्य भी भरपूर है। उक्त उद्धरण का सबसे मार्मिक अंश है– “निश्चय ही जो यह कल्पना कर लेता है, वह और भी कर सकता है”। (surely he that imagines this may imagine more)। दर्शकों की कल्पना-शक्ति को शास्त्रीय नियमों से बाँधा नहीं जा सकता।
‘प्रकृति का अनुकरण’ सूत्र में ऐतिहासिक आयाम का संयोग करके ड्राइडन ने यूनानी-रोमी प्रतिमानों में दरार डालने की कोशिश की थी। चॉसर का मूल्यांकन करते हुए उन्होंने ‘फेबल्स’ के आमुख में लिखा था कि “वह (चॉसर) हमारी कविता के बाल्यकाल में रहा… कोई भी चीज अपने आरम्भिक चरण में परिपूर्णता नहीं प्राप्त कर सकती। मनुष्य के रूप में विकसित होने से पहले हमें बाल्यावस्था से होकर गुजरना होगा”। डॉ. जॉनसन ने ऐतिहासिक आलोचना की इस परम्परा को और विकसित किया। ‘लाइफ ऑफ ड्राइडन’ (ड्राइडन की जीवनी) में उन्होंने लिखा–“किसी लेखक के ठीक-ठीक मूल्यांकन के लिए हमें अपने-आपको उसके युग में ले जाना होगा और यह जाँच-परख करनी होगी कि उसके युग की आवश्यकताएँ क्या हैं और उनकी पूर्ति के लिए उसके पास कौन से साधन उपलब्ध हैं”। किसी लेखक के वास्तविक मूल्यांकन के लिए उसका ऐतिहासिक मूल्यांकन भी एक जरूरी कारक है, हालाँकि उसकी श्रेष्ठता का निर्धारण तो प्रकृति और विवेक से उसकी अनुरूपता के आधार पर ही होगा। शेक्सपियर के नाटकों में जो हिंसा के दृश्य हैं, उनका कारण जॉनसन ने यह बताया कि ऐसा असंस्कारी दर्शकों की आदिम-अपरिष्कृत रुचि की वजह से हुआ है। डॉ. जॉनसन सही मायनों में अंग्रेजी की ‘ऐतिहासिक आलोचना के जनक’ (जॉर्ज वाटसन) हैं।
अठारहवीं सदी के साहित्य और समीक्षा का सम्बन्ध नव्यशास्त्रवाद से है, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि अठारहवीं सदी एकरूप शताब्दी नहीं थी। इस युग में लॉक जैसे अनुभववादी, गॉडविन जैसे सामाजिक चिन्तकों के अलावा बनर्स, ब्लेक, टॉमसन और कूपर जैसे पूर्व स्वच्छन्दतावादी कवि हुए थे, जिन्होंने सामन्ती या अर्धसामन्ती संस्कृति के खिलाफ विद्रोह किया। हिन्दी में स्वच्छन्दतावाद के आरम्भिक उत्थान के सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में बनर्स और कूपर की भूमिका का उल्लेख किया है। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में जो औद्योगिक क्रान्ति हुई, उसने धीरे-धीरे अभिजातवर्गीय संस्कृति के सामाजिक आधार को कमजोर किया। राजनीतिक क्षेत्र में यही भूमिका फ्रांस की राज्यक्रान्ति ने निभाई। ऐसी स्थिति में पोप, डॉ. जॉनसन जैसे साहित्यकारों की सामन्ती मूल्यों से जुड़ी संस्कृति, उनकी कविता और आलोचना-प्रतिमान, पुराने पड़ गए और एक नई संस्कृति सामने आई। इस संस्कृति में जनता के बड़े वर्ग-विशेष रूप से उभरते हुए मध्यवर्ग के हितों का प्रतिनिधित्व था। स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन ने इसी नई ऐतिहासिक आवश्यकता की पूर्ति की।
- निष्कर्ष
पाश्चात्य काव्यशास्त्र : परम्परा और सिद्धान्त -1 में ई.पू. 500 से लेकर सन् 1800 तक की काव्यशास्त्रीय परम्परा का सर्वेक्षण प्रस्तुत किया गया है। लगभग तेईस सौ वर्ष की इस अवधि के आरम्भिक एक हजार वर्ष (ई. पू. 500 से सन् 500) का सम्बन्ध प्राचीन (यूनानी-रोमी) शास्त्रवाद या आभिजात्यवाद से है। ई.पू. 500 से प्रथम सदी पूर्व तक यूनानी और प्रथम सदी से पाँचवी सदी तक रोमी शास्त्रवाद। पाँचवी सदी के अन्त से पन्द्रहवीं सदी के मध्य अर्थात कुस्तनतिनिया के पतन (सन् 1453) तक मध्यकाल का सीमा-विस्तार है, जिसे कभी-कभी ‘अन्धकार काल’ की संज्ञा भी दी जाती है। अपने सीमित अर्थ में मध्यकाल की यह सीमा रेखा सन् 1000 से लेकर सन् 1500 तक भी मानी जाती है। अन्त में पन्द्रहवीं सदी के मध्य से सत्रहवीं सदी के मध्य तक का काल पुनर्जागरण और सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध से लेकर अठाहरवीं सदी तक का काल नव्यशास्त्रवाद कहलाता है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि काव्यशास्त्र में साहित्य के सैद्धान्तिक पक्ष के विवेचन पर बल रहता है। इस विवेचन के केन्द्र में रहती है रचना या कलाकृति। यह रचना एक ओर परिवेश-परिस्थिति (समाज और इतिहास) से जुड़ी रहती है, दूसरी ओर रचनाकार के व्यक्तित्व (उसके आत्मपक्ष और विश्व-दृष्टि) से। इस व्यक्तित्व में रचनाकार की परिवेश-परिस्थिति और उसका आत्मपक्ष उसकी विश्व-दृष्टि से गुजरकर ही रचना का रूप ग्रहण करते हैं। आलोचकों का एक वर्ग ऐसा भी है जो रचना की स्वायत्तता पर बल देता है अर्थात वह रचनाकार के व्यक्तित्व और परिवेश–परिस्थिति को महत्त्व नहीं देता। वह इन्हें साहित्येतर मूल्य मानकर उनका निषेध करता है। विभिन्न आलोचना-पद्धतियों और विभिन्न युगों में उक्त तीनो पक्षों (परिवेश-परिस्थिति, रचनाकार का व्यक्तित्व और स्वायत्तता) में से कभी किसी पक्ष पर बल दिया गया है और कभी किसी पर।
पुस्तकें :
- Literary Theory : An Introduction, Terry Eagleton, Basil Blacwell, Oxford.
- The Blackwell guide to literary theory, Gregory Castle, Blackwell Publishers, Oxford.
- Aristotle’s Poetics, Stphen Halliwell, Gerald Duckworth, London.
- Dramatic poetry and other essays, John Drydon, J. M. Dent. London.
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