6 त्रासदी की अवधारणा
पाठ का प्रारूप
1. पाठ का ईद्देश्य
2. प्रस्ततावना
3. रासदी की व्याख्या
4. रासदी के प्रमुख ऄंग
4.1 कथानक
4.2 चररर
4.3 पद योजना (भाषा)
4.4 हवचार
4.5 दृश्य हवधान
4.6 गीत
5. रासदी और महाकाव्य की तुलना
6. हनष्कषष
- पाठ का उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन उपरान्त आप–
- त्रासदी से सम्बन्धित अरस्तू की परिभाषा जान पाएंगे।
- त्रासदी के प्रमुख अंगों के विषय में जान पाएंगे।
- त्रासदी में चरित्र पर अरस्तू ने बल क्यों दिया है? यह जान सकेंगे।
- महाकाव्य और त्रासदी के भेद को जान सकेंगे।
- वर्तमान समय में त्रासदी के अर्थ विस्तार और प्रयोग को समझ सकेंगे।
2.प्रस्तावना
त्रासदी मूलतः नाटक की एक शैली है जिसमें मानवीय दुःखों का वर्णन होता है। इस तरह के नाटकों का उद्देश्य दर्शकों के भावों का विरेचन करना होता है। कालान्तर में त्रासदी शब्द का अर्थ-विस्तार हुआ है। साहित्य के कई दूसरे अंगों ने भी त्रासदी को अपनाया है। इसी तरह फिल्मों में भी त्रासदी की भूमिका स्थापित हो चुकी है।
त्रासदी महान चरित्रों की भव्यता के बावजूद उनकी अपरिहार्य पतनशीलता को दिखानेवाला महत्वपूर्ण कला रूप है। इस अर्थ में त्रासदी मानवीय गुणवत्ता एवं नैतिकता की द्वन्द्व-कथा है। साथ ही वह वैयक्तिक जीवन में सकारात्मक अर्थ की खोज भी है। सुखान्तिकी ‘कॉमेडी’ के विपरीत त्रासदी में मानव होने की सम्भावनाएँ अधिक सान्द्रता से व्यक्त होती हैं। उसकी अभिव्यक्ति कविता और कला-साहित्य में भी सम्भव है, किन्तु उसका मूल स्रोत मिथकीय एवं धार्मिक कथाओं के क्षयोन्मुख देवताओं एवं नायकों से जुड़ता है।
यूरोपीय साहित्य में त्रासदी का जन्म डायोनियस के यूनानी प्राचीन पुराकथाओं से होता है और वह ईसा पूर्व पाँचवीं सदी के एस्किलस, यूरीपीडीज एवं सोफोक्लीज के नाटकों में अपनी चरम श्रेष्ठता को प्राप्त करती है।
पाश्चात्य काव्यशास्त्र पर त्रासदी का बहुत ही गहरा असर है। त्रासदी को वहाँ बहुत महत्व दिया गया है। हमारे यहाँ साहित्य, नाटक-काव्य आदि में सुखान्तक पर जोर रहता है। पश्चिम ने त्रासदी को जो इतना महत्व दिया है उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि प्लेटो और अरस्तू दोनों ने ही त्रासदी पर विचार किया है। प्लेटो ने जहाँ किसी देश के लिए त्रासदी को अच्छा नहीं माना वहीं उनके प्रिय शिष्य अरस्तू ने अपने गुरु की इस धारणा का खण्डन करते हुए इसकी अलग व्याख्या की।
3. त्रासदी की व्याख्या
प्लेटो ने त्रासदी की रचना को बौद्धिक व्यापार न मानकर भावात्मक व्यापार माना है। अतः उनका मानना है कि पाठकों-दर्शकों पर त्रासदी का प्रभाव भी भावात्मक होता है। प्लेटो मानते हैं कि कवि एवं गायक ईश्वरीय प्रेरणा से रचना करते हैं। इस प्रेरणा का स्वरूप उन्मादी होता है। अतः कवि और गायक मूलतः उन्मादी होते हैं और पाठक-दर्शक-श्रोता को भी उन्माद की स्थिति में ले जाते हैं। उन्माद की इस स्थिति को प्लेटो किसी देश के लिए ठीक नहीं मानते। अतः वे त्रासदी का विरोध करते हैं।
अरस्तू ने त्रासदी की परिभाषा देते हुए कहा है, “दुःखान्तक ऐसे कार्यव्यापार का अनुकरण है जो गम्भीर, पूर्ण तथा कुछ विस्तृत हो; जिसकी भाषा, रचना के विभिन्न भागों में, पृथक-पृथक वर्तमान प्रत्येक प्रकार के कलात्मक अलंकरणों से विभूषित हो; जो कार्यव्यापार के रूप में हो, आख्यान के रूप में नहीं; जो करुणा और भय को उद्बुद्ध कर इन भावों का उचित विरेचन करे।” (पाश्चात्य काव्यशास्त्र, देवेन्द्ननाथ शर्मा, पृ.28) अरस्तू द्वारा दी गई त्रासदी की उपर्युक्त परिभाषा का विश्लेषण करने पर निम्न बिन्दु हमारे सामने आते हैं-
क. त्रासदी कार्य व्यापार का अनुकरण होती है।
ख. कार्यव्यापार गम्भीर, पूर्ण और विस्तृत होता है।
ग. कार्यव्यापार अभिनेय होता है, वर्ण्य नहीं।
घ. भाषा लय, सामंजस्य, गीत आदि से समन्वित होती है।
ङ. कार्यव्यापार करुणा और भय को उद्बुद्ध कर इन भावों का विरेचन करता है।
अरस्तू ने त्रासदी की जो परिभाषा दी है, वह वस्तुतः कला के ऐतिहासिक स्रोत एवं उसकी खोज का भी एक प्रयास था। उन्होंने कहा कि समुचित सीमा के अन्दर वह किसी गम्भीर, महत्त्वपूर्ण, सम्पूर्ण तथा विशाल कार्य का रंगमंच पर अभिनीत अनुकरण है जो परिमार्जित भाषा के माध्यम से सुन्दर तथा आनन्दमयी बनकर भय और करुणा के उद्रेक से हमारे मानवी भावों के अति का परिमार्जन करके उसमें सन्तुलन और सामंजस्य प्रस्तुत करता है।
एक सफल त्रासदीकार महान चरित्रों, देवताओं आदि में भी सहज मानवीय कमजोरियों का नियोजन इस तरह करता है कि तद्जन्य विपत्ति के प्रति उसकी स्वयं की जिम्मेदारी का भी युक्तिकरण हो और उसमें कुछ भी अस्वाभाविक प्रतीत न हो। त्रासदी में अच्छे पात्र के कार्यों का बुरा परिणाम और बुरे पात्रों के कार्यों का अच्छा परिणाम उन्हें मिल सकता है। इसलिए त्रासदी को यथार्थ के नजदीक माना जा सकता है।
अरस्तू का कहना है कि त्रासदी का नायक न तो बिल्कुल अच्छे चरित्र वाला हो सकता है और न ही एकदम बुरे चरित्रवाला। अरस्तू के अनुसार एक सफल त्रासदी इन दोनों के बीच खुद को साधते हुए आगे बढ़ती है। महान चरित्रों को किसी पाप या दुर्गुण अथवा दैवयोग को स्थान पर स्वयं की किसी त्रुटि के कारण संकटग्रस्त एवं पतन का शिकार होता दिखाकर ही एक सफल त्रासदी की रचना की जा सकती है।
अरस्तू के काव्यशास्त्र की अन्यतम उपलब्धि है कि वह किसी कलाकृति को उसके बहुविध पक्षों की सापेक्ष स्वायत्ता को स्वीकार करते हुए भी उनकी एकता पर बल देता है जिसके कुल योग का परिणाम है, त्रासदी। अरस्तू बहुत साफ शब्दों में बताते हैं कि दर्शक पर पड़ने वाले प्रभाव को अच्छी तरह समझे बिना न तो त्रासदी को समझा जा सकता है और न उसके निर्माणात्मक घटकों की व्याख्या सम्भव है क्योंकि त्रासदी की सर्वोत्तम उपलब्धि है भय एवं करुणा के उद्रेक से दर्शक के मन में दुखानुभूति का सुखद अनुभव, यानि ‘ट्रेजिक प्लेजर’।
4. त्रासदी के प्रमुख अंग
अरस्तू के अनुसार त्रासदी के प्रमुख छह अंग होते हैं।
4.1 कथानक : अरस्तू ने कथानक को किसी भी त्रासदी का सबसे महत्वपूर्ण अंग माना है। कथानक का अर्थ सिर्फ कथा या कहानी नहीं होता है। कथानक का अर्थ होता है घटनाओं की संरचना। उसका प्रस्तुतिकरण। अरस्तू के अनुसार किसी त्रासदी का कथानक तभी प्रभाव उत्पन्न कर पाएगा जब उसकी कथा में तारतम्यता हो। अरस्तू ने घटना-शृंखला की योजना पर काफी बल दिया है। अरस्तू ने त्रासदी में कथावस्तु पर सर्वाधिक बल दिया है। वह उसे त्रासदी की आत्मा मानते हैं। उनका कहना है कि त्रासदी में घटनाओं एवं क्रियाओं की जो शृंखला कथावस्तु के रूप में मौजूद होती है उसमें गम्भीररता का होना आवश्यक है। प्रकृति और जीवन में जो कुछ भी घटित होता है, वह सब त्रासदी के योग्य नहीं होता। मानव-नियति को गहराई से प्रभावित करने वाली घटनाएँ त्रासदी का विषय होती हैं। कार्य की पूर्णता से अभिप्राय समय, स्थान एवं नाटकीय व्यापार की एकता से है। उसके तीन अंग हैं– आदि, मध्य एवं अन्त। आदि भाग स्पष्टता से कार्य का निरुपण करे, मध्य भाग सहज रूप से उस निरूपण में रोचकता लाए और अन्त उद्देश्य की समुचित सामंजस्यपूर्ण संयोग से ही त्रासदी में आवयविक पूर्णता उत्पन्न होती है।
अरस्तू ने कथानक के दो भेद बताएँ हैं। सरल और जटिल। सरल कार्य-व्यापार वह है जो एक हो, अविच्छिन्न हो और जिसमें बिना स्थिति विपर्यय अथवा अभिज्ञान के ही भाग्य-परिवर्तन हो जाये। जटिल कार्य-व्यापार वह है जिसमें भाग्य-परिवर्तन या तो स्थिति-विपर्यय से होता है या अभिज्ञान से या दोनों के मिलन से।
4.2. चरित्र : अरस्तू ने अच्छे चरित्र पर बहुत जोर दिया है। किसी नैतिक उद्देश्य को व्यक्त करनेवाले चरित्र को अरस्तू ने उत्तम माना है। औचित्य को किसी चरित्र का दूसरा महत्त्वपूर्ण गुण माना है। इसी तरह अरस्तू ने किसी चरित्र में यथार्थ और सुसंगति पर बल दिया है।
नाटक का एक विधायक तत्त्व नाटकीय चरित्र है। चरित्र-चित्रण के सन्दर्भ में अरस्तू की मान्यता है कि उसका स्थान नाटक में गौण हुआ करता है, महत्त्वपूर्ण है घटनाओं का संयोजन। त्रासदी अनुकृति है, व्यक्ति की नहीं, कार्य की। अतः नाट्यव्यापार का उद्देश्य चरित्र की व्याख्या नहीं होता, चरित्र तो कार्य व्यापार के साथ गौण रूप में आता है। पात्रों एवं चरित्रों के विषय में अरस्तू इतना भर कहते हैं कि सुखान्तिकी के स्थान पर दुखान्तिकी के पात्रों को सुशील, सच्चरित्र एवं भला होना चाहिए। उनका आदर्शपूर्ण जीवन नाटक में प्रस्तुत होना चाहिए। यद्यपि उन्होंने स्वीकार किया है कि त्रासदी में जीवन का अनुकरण पात्रों की क्रियाओं द्वारा ही होता है, केवल नाटककार द्वारा घटना वर्णन से नहीं। पात्रों में सर्वाधिक प्रधान नायक होता है। त्रासदी के नायक को कैसा होना चाहिए ? वह क्या है जो नायक को ट्रैजिक बनाता है।
ट्रैजिक नायक के विषय में अरस्तू ने बताया कि उसे शीलवान, विचारशील, उच्च कुलोत्पन्न, जीवन के प्रति आस्थावान तथा कर्म के प्रति समर्पित होना चाहिए। त्रासदी की वस्तु के अनुकूल (गाम्भीर्यपूर्ण) उसका नायक भी ऊँचे पद वाला कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हो सकता है। वह कोई राजा, योद्धा, विद्वान विचारक, कला-मर्मज्ञ अथवा दार्शनिक हो सकता है। वास्तव में करुणा का उद्रेक तभी सम्भव है जब कोई श्रेष्ठ या सच्चरित नायक अपनी किसी नैसर्गिक कमजोरी के कारण दुःख, यातना या विपत्ति का शिकार बने; और भय भी केवल उसी समय उपजेगा जब आपत्तिग्रस्त नायक और पाठक-दर्शक से उसका कोई मानवीय सम्बन्ध हो तो उसके अभाव में भय और करुणा दोनों हमसे दूर होंगे। ट्रैजिक नायक दुष्ट भावना या पापबुद्धि वाला खलनायक नहीं हो सकता। श्रेष्ठ त्रासदीकार अपने आदर्श त्रासदी नायक में एक ऐसी त्रुटि या कमजोरी को जन्म देता है जो महामानव के चरित्र में स्वाभाविक रूप में मौजूद होती है जो उसके आदर्श चरित्र को विनाश की ओर ले जाकर ट्रैजिक नायक का निर्माण करती है।
अरस्तू बताते हैं कि ऐसी अमूमन तीन परिस्थितियाँ हो सकती हैं। पहली परिस्थिति ऐसी हो सकती है कि कोई सच्चरित व्यक्ति जानबूझकर अपने को संकट में डाल दे। फिर पछताए। ऐसे में हमारे मन में न भय उपजेगा, न करुणा जगेगी। दूसरी स्थिति में कोई दुश्चरित नायक को सांसारिक भोग-विलास का आनन्द उठाता बता दिया जाए। यह परिस्थिति भावों के विरेचन के लिए अपर्याप्त है। तीसरी स्थिति में कोई अधम या नीच व्यक्ति अन्त में अपने दुष्कर्मो का फल भोगते हुए मृत्यु को प्राप्त हो।
इन सबके विपरीत अरस्तू बताते हैं कि त्रासदी का नायक न तो निर्दोष व्यक्ति हो सकता है, न कोई दुर्जन व्यक्ति ही। दोनों स्थितियां त्रासदी के नायक के लिए अनुकूल नहीं हैं। पहली स्थिति में अमर्ष उत्पन्न होगा, करुणा नहीं; दूसरी में घृणा उत्पन्न होगी, भय नहीं। जे.एन. मुंद्रा ने लिखा है कि ‘एक निर्दोष व्यक्ति की त्रासदी से विरोध जन्म लेगा और उसके अनपेक्षित दुःख इतने गहन हों कि हम उन्हें सहन न कर पाएं।’ (द ट्रैजिक ऑफ अ फाल्टलेस मैन रिप्लेस अस, द अनडिजर्वड सफरिंग्स ऑफ ऐन इनोसेंट पर्सन वुड बी टू टिरेबल फॉर अस टू एनड्योर, एडवान्स लिटररी एसेज, पृ. 272)
इसके विपरीत, अरस्तू बताते हैं कि उच्च कुल-वय-शील व्यक्तियों में एक छोटी सी कमजोरी देकर त्रासदीकार जब उनके दुर्भाग्य अथवा उनपर पड़ी विपत्तियों को दिखलाता है तो दर्शक का हृदय करुणा से भर उठता है और भय का प्रसार अधिक गहरे रूप में होता है। उसके द्वारा आपद्काल की तीव्रता कहीं अधिक बढ़ जाती है। ऐसा प्रतीत होने लगता है कि ट्रैजिक नायक किसी अनपेक्षित दुखों का भोक्ता नहीं है। ए. सी. वार्ड ने शेक्सपीरियन ट्रैजिक नामक पुस्तक में इसे ही त्रासदीय त्रुटि ‘ट्रैजिक फ्लॉ’ कहा है जो त्रासदी नायक के चरित्र में इस तरह घुला-मिला होता है कि वह अन्त तक या तो उससे बेखबर होता है या फिर जब वह उसके प्रति सचेत होता है तब तक उसका विनाश या अन्त निश्चित हो चुका होता है। डब्लू.एम. डिक्शन ने ट्रैजिक चरित्र के बारे में लिखा है, ‘उसके कार्य की प्रतिक्रिया ही उसके पतन का कारण बनती है।’ उल्लेखनीय है कि जहाँ पतन या विनाश का कारण कार्यों और व्यवहारों का प्रतिफलन न होकर कोई अन्य बाहरी कारण होता है, जैसे दुर्घटना आकस्मिक मृत्यु, देवी प्रकोप आदि– वहाँ अरस्तू न तो त्रासदी का जन्म सम्भव मानते हैं, न त्रासदी के नायक का निर्माण स्वीकारते हैं। अपने कर्म और भाग्य की चुनौतियों से संघर्ष करता हुआ व्यक्ति ही ट्रैजिक नायक का दर्जा पाने का हकदार है।
4.3. पद योजना (भाषा) : अरस्तू ने पदावली को शब्दार्थमय अभिव्यक्ति माना है। उन्होंने त्रासदी का माध्यम अलंकृत भाषा को माना है। अलंकृत भाषा से अरस्तू का अभिप्राय यह है कि ऐसी भाषा जिसमें लय, सामंजस्य, और गीत का सामंजस्य हो। उनक मानना है कि त्रासदी की भाषा प्रसन्न, समृद्ध और उदात्त होनी चाहिए।
4.4 विचार : विचार के विषय में अरस्तू कहते हैं कि वे इसकी व्याख्या अपने भाषणशास्त्र में कर चुके हैं। के अनुसार विचार का अर्थ है परिस्थिति के अनुरूप सम्भव और संगत के प्रतिपादन की क्षमता। अरस्तू ने कहा, “विचार वहाँ विद्यमान रहता है, जहाँ किसी वस्तु का भाव या अभाव सिद्ध किया जाता है, या किसी सामान्य सत्य की व्यंजक सूक्ति का आख्यान होता है।” (पाश्चात्य साहित्य-चिन्तन, निर्मला जैन, पृ. 57)
4.5. दृश्य विधान : अरस्तू के अनुसार त्रासदी के प्रबल प्रभाव की अनुभूति दृश्य-विधान (रंगमंचीय प्रस्तुति) के बिना भी सम्भव है।
4.6. गीत : त्रासदी में गीत का महत्वपूर्ण स्थान मानते हुए भी अरस्तू ने गीत को त्रासदी के आभूषण का ही स्थान दिया है।
अरस्तू ने त्रासदी के ये विभाग त्रासदी की नाटक विधा को ध्यान में रखकर किया है। वर्तमान समय में त्रासदी का इस्तेमाल फिल्म और साहित्य की दूसरी विधाओं में भी किया जाने लगा है। साहित्य की विधा उपन्यास में त्रासदी का व्यवहार होने लगा है। कला माध्यमों में फिल्म चूँकि नाटक के काफी करीब है इसलिए त्रासदी का सफलतापूर्वक निर्वाह सबसे अधिक फिल्मों में ही देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए हिन्दी फिल्म शोले को देखा जा सकता है। ध्यान से देखा जाय तो इस फिल्म में त्रासदी के सारे तत्त्व मौजूद मिलेंगे। इस फिल्म का कथानक बहुत ही शक्तिशाली और गठा हुआ है। घटनाओं की संरचना और उनका प्रस्तुतिकरण बहुत ही सुसंगत ढंग से किया गया है। दृश्यों को कैमरे के कौशल से एकदम जीवन्त बना दिया गया है।
चरित्र निर्माण में भी यह फिल्म बेमिशाल है। इस फिल्म का छोटे से छोटा चरित्र भी दर्शक के मन पर अपना प्रभाव छोड़ने में पूरी तरह सफल होता है। इस फिल्म के संवाद बेजोड़ हैं। जनता की जबान पर सहज ही इसके संवाद आ जाते हैं। फिल्म में अच्छाई की जीत होती है। इसके बावजूद फिल्म के एक नायक जय की मृत्यु और ठाकुर की बहु का दुख इस फिल्म को त्रासदी के करीब पहुँचा देते हैं।
- त्रासदी और महाकाव्य की तुलना
त्रासदी की तरह ही महाकाव्य की भी कथावस्तु सरल या जटिल, नैतिक या कारुणिक हो सकती है। त्रासदी में महाकाव्य के सभी अंग मौजूद होते हैं परन्तु महाकाव्य में त्रासदी के सभी अंग मौजूद नहीं होते हैं। महाकाव्य में गीत और दृश्य नहीं होते हैं। संगीत और दृश्य के कारण त्रासदी का प्रभाव बढ़ जाता है। संगीत की मोहकता तथा दृश्य की अच्छी योजना से त्रासदी आकर्षक हो जाती है। महाकाव्य और त्रासदी दोनों में विचार और पद-योजना का कलात्मक होना आवश्यक है।
महाकाव्य छन्दोबद्ध होता है। आख्यानात्मक होने के कारण उसका विस्तार अधिक निर्बंध होता है। त्रासदी की तरह उसमें दृश्यों अथवा पात्रों का बन्धन नहीं होता है। उदाहरण के लिए महाकाव्य में हनुमान का समुद्र लांघ जाना बहुत ही सहजता से दिखाया जा सकता है, लेकिन त्रासदी में यह दृश्य मंच पर दिखाने में असुविधा हो सकती है। साथ ही इस दृश्य की विश्वसनीयता भी कम होगी। त्रासदी का आनन्द देखकर और पढ़कर भी उठाया जा सकता है। महाकाव्य के साथ ऐसी बात नहीं है।
6. ट्रैजिक ऑयरनी
नियति की विडम्बना (ऑयरनी) प्रायः सभी ग्रीक त्रासदियों का आधार है। यह एक तरह से भाग्य का खेल है। यह खेल दैवीय शक्तियों द्वारा नियन्त्रित है। इसलिए इसकी अटलता से लड़ने का प्रत्येक प्रयास निरर्थक होकर जाने-अनजाने नियति के उन्हीं क्रूर उद्देश्यों की सिद्धि करता चलता है। ग्रीक त्रासदियों का यह तत्त्व अत्यन्त मार्मिक प्रभाव उत्पन्न करनेवाला होता है।
ट्रैजिक ऑयरनी विरोधाभासी स्थितियों में जन्म लेती है। यहाँ उद्देश्य की अनुकूलता के बावजूद परिणाम प्रतिकूल आता है। अरस्तू की दृष्टि में जटिल घटना-विन्यास वाली त्रासदी का क्रिया-व्यापार सरल कथानक वाले कॉमेडी के विन्यास से श्रेष्ठ होता है। अर्थात् कई बार किसी बात का आशा के विपरीत परिणाम निकलता है। रामायण में विभीषण रावण को उसकी भलाई के लिए सीता को वापस करने की सलाह देता है, पर रावण इसे अपना अपमान समझता है और अपने भाई विभीषण को अपनी लंका से बाहर निकाल देता है।
7. निष्कर्ष
त्रासदी दुःख की कथा है, किन्तु वह केवल दुःख कथा नहीं है। उस दुःख के साथ कुछ ऐसे प्रसंग जुड़े होते हैं जिसका आभास या स्वप्न में भी त्रासदी नायक को नहीं होती। संकटकाल में विपत्ति उन लोगों द्वारा लायी गई हो जो परम विश्वासपात्र हों, निकट सम्बन्धी हों या मित्र हों जिनपर त्रासदी नायक का अगाध विश्वास हो कि वे ऐसा नहीं कर सकते। ऐसे में जो विस्मय या आश्चर्य अर्थात् जो नहीं होना चाहिए वह घटित हो रहा है, का भाव उत्पन्न हो, महान त्रासदी एवं त्रासदी नायक उसी भाव से जन्म लेते हैं। आज भी शेक्सपीयर के नाटक जुलियस सीजर में छुरे के अन्तिम प्राणलेवा प्रहार पर सीज़र की यह उक्ति मुहावरे के रूप में दुहराई जाती है, ‘दाऊ टू ब्रूटस’, यद्यपि ब्रुट्स सीज़र का परम मित्र था।
कहा जा सकता है कि अरस्तू की सबसे बड़ी देन है काव्य की स्वायत्तता की स्थापना। प्लेटो ने त्रासदी को लेकर जो नकारात्मक विचार दिये थे, अरस्तू ने उन विचारों से अपनी असहमति जाहिर की, त्रासदी और काव्य को नई ऊँचाई दी।
त्रासदी का सम्बन्ध पहले सिर्फ नाटक से हुआ करता था। अब ऐसी बात नहीं है। समय के साथ ‘त्रासदी’ पद का अर्थ विस्तार हुआ है। समाज में घटित किसी अप्रिय घटना को भी अब त्रासदी कहा जाता है। जैसे भोपाल गैस त्रासदी। इसी तरह साहित्य की कई विधाओं में भी त्रासदी का सृजन किया जा सकता है या त्रासदी ढूंढ़ी जा सकती है। प्रेमचन्द के उपन्यास गोदान को कई आलोचकों ने एक त्रासदी की तरह देखा है। हालांकि होरी कोई महापुरुष या महानायक नहीं है जिसको लेकर प्रेमचन्द ने किसी त्रासदी की रचना की हो। दरअसल आधुनिक काल में साहित्य का भी लोकतन्त्रीकरण हुआ। इसलिए नायक भी सामान्य जन के भीतर का कोई व्यक्ति हो सकता है। कहना न होगा हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में इस तरह के नायक को गढ़ने की विधिवत शुरुआत प्रेमचन्द ने ही की।
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- अरस्तू का काव्यशास्त्र : डॉ नगेन्द्र, हिन्दी अनुवाद परिषद, दिल्ली।
- पाश्चात्य साहित्य–चिन्तन : निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
- अरस्तू का काव्यशास्त्र : डॉ नगेन्द्र, हिन्दी अनुवाद परिषद, दिल्ली।
- साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
- यूनानी और रोमी काव्यशास्त्र, कृष्णदत्त पालीवाल, सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली
- पाश्चात्य काव्यशास्त्र,देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
- पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा,डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
- Aristotle’s Poetics, Stephen Halliwell, Gerald Duckworth, London.
- A Comparative Study Of the Indian Poetics and Western Poetics, Mohit K. Ray, Sarup & Sons, Delhi.
- Reflection of aesthetic and poetics, Arun Ranjan Mishra, Pratibha prakashan, Delhi.
- The Cambridge introduction to tragedy, Jennifer Wallace, Cambridge University press, Cambridge, New York.
- The Birth of Tragedy and the case of Wagner, Friedrich Nietzsche, Translated by Walter Kaufmann, Vintage Books, New York.
- The Cambridge Companion to Greek Tragedy, edited by P.E. Easterling, Cambridge University Press, Cabridge.
- Greek Tragedy : a literary history, Kitto Routledge Classics, London.
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