18 टी.एस. इलियट का काव्य सिद्धान्त

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. निर्वैयक्‍त‍िकता का सिद्धान्त
  4. वस्तुपरक सापेक्षता का सिद्धान्त
  5. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ को पढ़ने के उपरान्त आप­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­­ –

  • टी.एस. इलियट के काव्य सिद्धान्तों को समझ सकेंगे।
  • टी.एस. इलियट का निर्वैयिक्तकता का सिद्धान्त जान सकेंगे।
  • टी.एस. इलियट का परम्परा का सिद्धान्त समझ सकेंगे।
  • टी.एस. इलियट का स्वछन्दन्तावाद सम्बन्धी मत जान पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना

 

बीसवीं सदी के अंग्रेजी साहित्य में इलियट का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इलियट मूलतः कवि थे। अपने साहित्य चिन्तन को उन्होंने ‘वर्कशॉप क्रिटिसिज्म’ कार्यशालाई आलोचना कहा। अर्थात् काव्य सृजन के प्रसंग में उसे अपने चिन्तन का विस्तार कहा है। दूसरे शब्दों में अपनी कविताओं की रचना प्रक्रिया के दौरान उन्हें जो अनुभव मिले उसी आधार पर उन्होंने आलोचनात्मक निबन्ध लिखे। हिन्दी में अज्ञेय, साही आदि कवि लेखकों द्वारा लिखी गई आलोचनाएँ  इसी कोटि के अन्तर्गत आती हैं। इलियट रूढ़ अर्थों में आलोचक नहीं हैं। उन्होंने विस्तृत और क्रमबद्ध रीति से किसी नवीन सिद्धान्त की स्थापना भी नहीं की है। उनके निबन्धों में व्यावहारिक समीक्षा के साथ घुलमिल कर ही सिद्धान्त सामने आए हैं।

 

इलियट के आलोचनात्मक विचारों का पहला महत्त्वपूर्ण निबन्ध परम्परा और व्यक्‍त‍िगत प्रतिभा (ट्रेडिशन एण्ड इण्डिविजुअल टैलेण्ट) सन् 1919 में प्रकाशित हुआ। इसी क्रम में उनके दो निबन्ध द परफेक्ट क्रिटिक और द इम्परफेक्ट क्रिटिक  प्रकाशित हुए। ये निबन्ध सन् 1920 में प्रकाशित इलियट की पुस्तक द सेक्रेड वुड (पवित्र जंगल) में संकलित है। ये निबन्ध इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि इनमें न केवल काव्य की रचना प्रक्रिया को समझाया हैं बल्कि आलोचना प्रक्रिया का रहस्य भी बताया है। इन निबन्धों की एक विशेषता यह भी है की उनसे अंग्रेजी काव्य में एक नई चिन्तन प्रक्रिया की शुरुआत हुई, जिसकी परिणति नई आलोचना एंग्लो अमेरिकन न्यू क्रिटिसिज्म में हुई। ये निबन्ध रोमैण्टिक काव्य के विरुद्ध ‘क्लासिकल’ शास्त्रीय काव्य-सिद्धान्तों की स्थापना करते हैं।

 

इलियट ने अरस्तू को अपना आदर्श माना है। इससे भी उनके क्लासिकी विश्वासों का पता चलता है। इलियट ने रेमिडी गोमों का भी ऋण स्वीकार किया है। फ्रेंच प्रतीकवादियों का प्रभाव भी इलियट पर दिखाई देता है। फ्रेंच प्रतीकवादियों की यह धारणा थी कि कविता का अर्थ-ग्रहण संकेत से होना चाहिए, किसी विस्तृत सूचना द्वारा नहीं। इलियट पर टी.ई. ह्यूम का प्रभाव महत्त्वपूर्ण है। दोनों विचारकों के परम्परा सम्बन्धी विचारों में काफ़ी समानताएँ हैं, किन्तु इससे भी अधिक ध्यान देने योग्य है, ह्यूम की मूर्त्त अभिव्यक्‍त‍ि सम्बन्धी धारणा। इलियट के ‘ऑब्जेक्टिव कोरिलेटिव’ वस्तुपरक सादृश्य से मिलती जुलती अनेक बातें ह्यूम ने लिखीं हैं। वह भावनाओं और विचारों को मूर्त्त अभिव्यक्‍त‍ि प्रदान करने के पक्षपाती थे। इलियट पर एजरा पाउण्ड का भी प्रभाव दिखता है, जो फ़्रांस में बिम्बवादी आन्दोलन के जनक थे। उन्होंने सन् 1910 में यह स्वीकार किया कि “कविता उस अंकगणित की तरह है जो मानव संवेगों के लिए समीकरण प्रस्तुत करता है।” बाद में सन् 1935 में वे कहते हैं कि “कविता सिर्फ संकेत करती है, वस्तुस्थापना नहीं।” इन्हीं प्राचीन और नवीन प्रभावों को आत्मसात करके इलियट ने आधुनिक क्लासिसिजम का निर्माण किया।

 

पूर्व की स्थापनाओं को ध्वस्त किये बिना कोई भी चिन्तक अपनी मान्यताओं को स्वीकृति नहीं दिला सकता। इलियट ने मैथ्यू अर्नाल्ड की साहित्य की परिभाषा कि वह अन्ततः जीवन की आलोचना है, को आधारहीन कहा क्योंकि अर्नाल्ड कविता से नैतिकता की माँग करते थे और आधुनिक औद्योगिक सभ्यता द्वारा निर्मित लोकप्रिय संस्कृति के साहित्य पर पड़ने वाले दुष्परिणामों का आकलन कर साहित्य सर्जकों के अल्पसंख्यकों की संस्कृति के पक्षधर थे। सेण्ट्सबरी की ऐतिहासिक एवं जीवनीपरक आलोचना पद्धति भी इलियट को दोषपूर्ण प्रतीत हुई। वे उसके खण्डन में लिखते हैं कि “ईमानदार आलोचना और संवेदनशील अनुशीलन का विषय कवि नहीं कविता होती है।” इसी तरह वाल्टर पेटर और ऑस्कर वाइल्ड की व्यक्‍त‍िवादी प्रभावपरक आलोचना के खण्डन में उन्होंने तर्क दिया कि पाठक पर रचना के पड़ने वाले प्रभाव की सत्यता को आलोचक कैसे बता सकता है? वह भी उस स्थिति में जबकि एक ही रचना का अलग-अलग व्यक्‍त‍ि पर पड़ने वाला प्रभाव भिन्‍न हो। किन्तु इलियट के आक्रमण का शिकार सबसे ज्यादा रोमैण्टिक  कवि-आलोचक हुए।

 

स्वछन्दतावादी-रोमैण्टिक कवियों और आलोचकों ने काव्य को आत्माभिव्यक्‍त‍ि माना। आत्म से तात्पर्य है वैयक्‍त‍िकता और अभिव्यक्‍त‍ि से अभिप्राय है स्वतःस्फूर्त अभिव्यंजना। वर्ड्सवर्थ ने काव्य के सम्बन्ध में स्थापना दी कि वह एकान्त में जन्मे हुए शक्‍त‍िशाली भावों और अनुभूतियों का सहज स्फुरण है। काव्य के नियम कवियों की आकांक्षाओं और संवेदनाओं से निर्धारित होते हैं। इलियट ने स्वछन्दतावादी काव्यदृष्टि के विरुद्ध विद्रोह किया। स्वछन्दतावादियों की यह धारणा कि मानव व्यक्‍त‍ित्व में असीम सम्भावनाएँ होती हैं, इलियट ने सिरे से ख़ारिज किया। ह्यूम की तरह उनका भी कहना था कि मनुष्य का व्यक्‍त‍ित्व सीमित होता है। इलियट ने कवि-उपन्यासकार डी.एच. लारेंस के सम्बन्ध में लिखा है कि उनकी आन्तरिक ज्योति उनका मार्गदर्शन कर रही थी किन्तु यह आन्तरिक ज्योति परम अविश्‍वसनीय और धोखेबाज मार्गदर्शक है। अगर आलोचना का लक्ष्य उन वस्तुगत प्रतिमानों की खोज करना है जिसके आधार पर कला का मूल्यांकन हो तो कवि की आन्तरिक आवाज जैसी अमूर्त्त शब्दावली को छोड़ना होगा।

 

इलियट से पूर्व टी.ई. ह्यूम सन् 1913 में रोमैण्टिक  काव्यदृष्टि का विरोध कर चुके थे और भावुकतापूर्ण रूमानियत और तरलता के स्थान पर वस्तुनिष्ठता और बौद्धिक रुखाई को श्रेष्ठ काव्य की पहचान बतला चुके थे। सन् 1928 में इलियट ने एक घोषणा की, “मैं राजनीति में राज्सत्तावादी, धर्म में एंग्लोकैथोलिक तथा साहित्य में परम्परावादी हूँ।” रोमैण्टिक कविता की पृष्ठभूमि में प्रोटेस्टेण्ट मत की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। इलियट ने माना कि चूँकि रोमैण्टिक कविता के मूल में प्रोटेस्टेण्ट मत है, इसी कारण यह इतना लोकप्रिय हुआ। एंग्लोकैथोलिक होने की वजह से भी इलियट उसके विरोधी थे। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी कविता स्ट्रेंज गॉड  में भी किया है। उन्होंने अन्यत्र भी लिखा है, “जब नैतिकता और नैतिक मानदण्ड परम्परा और मताग्रह के अधीन नहीं रह जाते और जब प्रत्येक मनुष्य नैतिकता के निजी नियमों का नियामक बन जाता है तो व्यक्‍त‍ित्व खतरनाक ढंग से महत्त्वपूर्ण हो जाता है।” प्रोटेस्टेण्ट मत ने इस प्रकार की अराजकता को प्रारम्भ किया। उसके प्रभाव में रोमैण्टिक  कवि भी आये जिसके फलस्वरूप कविता वैयक्‍त‍िकता से भरी जाने लगी। इलियट इसके विकल्प में समूह के शरणागत हुए और वह समूह है ‘परम्परा’।

 

इलियट ने लिखा है कि “कलाकार की प्रगति एक सतत आत्मदान की, सतत तिरोभाव की प्रक्रिया है।” अहम् का विसर्जन इलियट का महत्त्वपूर्ण काव्य सिद्धान्त है जिसे ‘निर्वैयक्‍त‍िकता का सिद्धान्त’ भी कहते हैं। उन्होंने काव्य की नई परिभाषा दी। स्वछन्दतावादी काव्य के समानान्तर और उसके वजन पर उन्होंने लिखा कि “कविता भावों की अभिव्यक्‍त‍ि नहीं, भावों से पलायन है; वह व्यक्‍त‍ित्व अथवा अहम् की अभिव्यक्‍त‍ि नहीं, उसका निषेध है।” अहम् के निषेध का अर्थ है किसी विराट सत्ता में स्वयं को घोल देना, लीन कर देना। यह विराट सत्ता काव्य-परम्परा है। इस परम्परा से अपने को जोड़ देना, अपने अहम् को,व्यक्‍त‍ित्व को विलयित करना ही सर्जक को निर्वैयक्‍त‍िक बनाता है क्योंकि परम्परा-परम्पराओं का निर्माण एक सामूहिक प्रयास का परिणाम है। कलाकार के सीमित व्यक्‍त‍ित्व का तिरोहन वृहत्तर साहित्य परम्परा में हो तो यह कवि के विकास का लक्षण है, उसके अवरुद्ध सृजनशीलता का नहीं। अतः परम्परावादी होना सदैव पिछड़ेपन का सूचक नहीं है। दरअसल एक जागरूक वर्तमान अतीत की एक नए ढंग की और नए परिणाम में अनुभूति का नाम है, जैसी और जितनी अनुभूति अतीत को स्वयं न थी। जिसे परम्परा का ज्ञान नहीं, वह अन्ध परम्परापूजक है। वह साधक नहीं हो सकता क्योंकि साधना की शक्‍त‍ि परम्परा से ही मिलती है। अज्ञेय ने ‘त्रिशंकु’ में संकलित अपने निबन्ध रूढ़ि और मौलिकता’ में लिखा है “…परम्परा के विरुद्ध हमारा कोई विरोध हो सकता है तो यही कि हम अपने को परम्परा के आगे जोड़ दें।” यह अकारण नहीं है कि इलियट ने अपने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण निबन्ध का नाम परम्परा और वैयक्‍त‍िक प्रतिभा ट्रेडिशन एण्ड इन्डिविसुअल टैलेण्ट रखा जिसका स्पष्ट गुणधर्म है। एक उच्‍च स्तर का कलाकार निरन्तर अपने छोटे व्यक्‍त‍ित्व को, अपने तात्कालिक क्षणिक अस्तित्व को एक महान और विशाल अस्तित्व पर न्योछावर करता है। उसका यह सतत आत्मदान उसके व्यक्‍त‍ित्व की मृत्यु का परिचायक नहीं है और न ही उसकी सर्जनात्मक प्रतिभा का अन्त ही। इसके विपरीत ऐतिहासिक चेतना के सहारे वह वस्तुतः उस परम्परा को भी शोधित और परिवर्धित करता है जिस पर वह स्वयं न्योछावर है। इस प्रकार कलाकार छोटे व्यक्‍त‍ित्व से बड़े व्यक्‍त‍ित्व की ओर बढ़ता है जो उसकी प्रगति का सूचक है।

 

इलियट ने परम्परा का व्यापक अर्थ दिया है। उन्होंने लिखा है कि “व्यक्‍त‍ि परम्परा के साथ जन्म नहीं लेता। उसे सायास ग्रहण करना पड़ता है। उसकी सिद्धि के लिए मेहनत जरुरी है। यह लेखक को उसके समय, स्थान एवं समकालीनता का परिचय देती है… कोई भी कवि या कलाकार अकेले अपना कोई अर्थ नहीं रखता है। उसका महत्त्व, उसका सही मूल्यांकन उसके पीछे के कवि-कलाकारों से उसकी तुलना भेद आदि में निहित होता है। ऐसे में कवि व्यक्‍त‍ित्व के प्रकाशन हेतु शायद ही कोई जगह हो…। इलियट का तर्क है कि वैयक्‍त‍िकता जिस पर रोमैण्टिक कविता में इतना बल है, कोई शाश्‍वत प्रपंच नहीं है। बल्कि वह हानिप्रद है। बड़ा कवि वह है जो वैयक्‍त‍िकता के प्रदर्शन का निषेध करे, परम्परा को साधे। वैयक्‍त‍िक अनुभूति के प्रकाशन को लेकर चलने वाला बड़ा सर्जक नहीं हो सकता। परम्परा की जगह काव्य रचना में सुरक्षित होनी चाहिए। कवि की प्रतिभा केवल मध्यस्थ रूप में उसी को काव्य में प्रतिफलित होने में सहायक है। इलियट की यह धारणा रोमैण्टिक  काव्य के विरुद्ध है।

 

‘परम्परा’ से इलियट का मतलब है, इतिहासबोध। परम्पराबोध का दूसरा नाम है इतिहासभावना, जिसमें अतीत की अतीतता का नहीं, उसकी वर्तमानता का ज्ञान भी समाविष्ट है। आशय यह है कि कोई कृति जिस समय में लिखी गई और आज जिस माहौल में वह पढ़ी जा रही है, उसके अलग-अलग किन्तु समानान्तर युगबोध ही इतिहासबोध है। मसलन तुलसीदास को पढ़ते हुए उनके समय और समाज की संवेदनशीलता, रचनाशीलता  और आज के समय और समाज की देश-कालगत सापेक्ष भिन्‍नता की अलग-अलग किन्तु पारस्परिक अन्तःसम्बद्धता की युगपत पहचान ही वह इतिहासबोध है जो जन्म के साथ नहीं मिलता, उसे श्रमपूर्वक हासिल करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, आइना चेहरे के बहुत करीब हो चेहरा नहीं दिखेगा; वह बहुत दूर हो तब भी नहीं दिखेगा। यह समझ हासिल करनी पड़ती है। इलियट की दृष्टि में यह जितना सर्जनात्मक स्तर पर सही है, उतना ही आलोचनात्मक स्तर पर भी। यह कहकर इलियट ने परम्परा की नक़ल या अनुकरण की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी है। उनके तईं अतीत की वर्तमानता का अर्थ है उसमें निहित जीवित अंश की पहचान और उसके सर्जनात्मक उपयोग की दक्षता जो सर्जनशील प्रयास से मिलती है अर्थात् वैयक्‍त‍िक प्रतिभा।

 

3. निर्वैयक्‍त‍िकता का सिद्धान्त

 

निर्वैयक्‍त‍िकता के पक्ष में इलियट का एक दूसरा प्रभावी तर्क है, “कवि के पास अभिव्यक्त करने के लिए कोई व्यक्‍त‍ित्व नहीं होता, एक विशिष्ट माध्यम होता है… व्यक्‍त‍ित्व नहीं। जिसमें मन पर पड़े हुए प्रभाव अजीब और अप्रत्याशित ढंग से संयुक्त होते हैं। अपने तर्क के समर्थन में उन्होंने विज्ञान का सहारा लिया। जिस तरह प्लेटिनम की उपस्थिति में ऑक्सीजन और सल्फर डाई आक्साइड के योग से एक तीसरे यौगिक सल्फ्युरस एसिड का निर्माण होता है, किन्तु प्लेटिनम किसी भी रासायनिक प्रतिक्रया से अप्रभावित रहता है उसी तरह कवि का मन विभिन्‍न भावनाओं, विचार और अनुभूतियों के संयोग में सिर्फ उत्प्रेरक की भूमिका निभाता है। इस संयोग से ही कविता का जन्म होता है किन्तु कवि व्यक्‍त‍ित्व मन प्लेटिनम के टुकड़े की तरह अप्रभावित रहता है। कविता के उपादानों से न तो कवि प्रभावित होता है, न ही कवि व्यक्‍त‍ित्व का कोई अंश ही कविता में होता है। इलियट ने कविता के मायावी ऐन्द्रजालिक प्रभा-मण्डल को तोड़ने के लिए सायास वैज्ञानिक सादृश्य का सहारा लिया। उन्होंने कवि व्यक्‍त‍ित्व को उत्प्रेरक माध्यम कहा तो सिर्फ उसकी निष्क्रियता प्रमाणित करने के लिए।

 

‘व्यक्‍त‍ित्व’ और ‘माध्यम’ शब्दों से ही वैयक्‍त‍िक और निर्वैयक्‍त‍िक कविता का अन्तर स्पष्ट है। जिस तरह सृष्टि का कर्ता ईश्‍वर है, किन्तु वह दिखाई नहीं देता, उसी तरह कवि कविता की रचना अवश्य करता है किन्तु वह पूरी रचना में अन्तर्धान बना रहता है। कवि में अपनी सृष्टि में विलुप्‍त होने की योग्यता और क्षमता होनी चाहिए क्योंकि “वस्तुतः वह ऐसा परिष्कृत पूर्ण माध्यम होता है जिसमें विशेष अथवा अत्यन्त वैविध्यपूर्ण भावनाओं को नए संयोगों में ढलने की स्वतन्त्रता होती है।”

 

इस सन्दर्भ में इलियट का तीसरा तर्क है : भोक्ता मनुष्य है और रचता मन है और इन दोनों में जितना अन्तर होगा कवि या कलाकार उतना ही महान होगा। कलाकार जितना सिद्धस्त होगा उतना ही उसमें भोक्ता मानव और स्रष्टा मन परस्पर पृथक रहेंगे और उतनी ही शुद्ध रीति से मन अपने उपादान रूप वासनाओं को आत्मसात और रूपान्तरित करेगा।

 

यहाँ अनुभव और सृजन में अन्तर किया गया है। यह अन्तर ही कवि की महानता का आधार होता है। प्रत्यक्षानुभूति और रसानुभूति में जो अन्तर होता है उसी अन्तर को इस सिद्धान्त में इलियट ने प्रकारान्तर से स्पष्ट किया है। भोगने और रचने में निहित क्षमता का स्तर एक जैसा नहीं होता। पन्त ने लिखा है – “अपने मधु में लिपटा भ्रमर/नहीं कर सकता गुंजन।” स्वयं इलियट ने लव सांग ऑफ़ अल्फ्रेड प्रूफाक  में लिखा है कि “होंठ तभी गुनगुनाते हैं, जब चूम नहीं पाते।” मधुपान और गुंजन, गुनगुनाना और चूमना, भोगना और रचना दो भिन्‍न क्रियाएँ हैं। यह अन्तर न हो या कम हो तो कविता या कला कच्चा माल या अपरिपक्वावस्था होगी। ऐसी रचनाएँ प्रकृतवादी होंगी अर्थात् नितान्त अनुकृति। उसमें रचनाकार के अनुभवों का परिष्कार नहीं हो सकता। दोनों का अन्तर रचनाकार को परिष्कृत-परिपक्व बनाता है, सर्जनात्मक बनाता है।

 

इलियट ने लिखा है कि “महत्त्व भावों, घटक तत्त्वों की महानता या तीव्रता का नहीं बल्कि कलात्मक प्रक्रिया की तीव्रता का है जिसके कारण ये तत्त्व घुलमिल कर एकात्म हो जाते हैं। भाव के रूपान्तरण में महान वैविध्य सम्भव होता है।” आशय यह है कि महान या तीव्र अनुभूतियों अथवा भावों के उद्रेक से कविता नहीं होती बल्कि ये घटक तत्त्व जिस प्रक्रिया के द्वारा एकात्म होते हैं, उस प्रक्रिया की प्रभावशीलता कविता को महान बनाती है। कलात्मक प्रक्रिया की तीव्रता या दबाव महत्त्वपूर्ण है, वही निर्णायक होता है, स्वयं घटक तत्त्वों की तीव्रता या महानता महत्त्वपूर्ण नहीं है। उदाहरण के लिए भवभूति की महानता मानवीय करुणा के चुनाव में नहीं बल्कि उस चुनाव को कलात्मक प्रक्रिया से गुजर कर अभिव्यक्‍त‍ि देने में हैं। उसी से यह पुष्ट होता है कि भोक्ता मानव और रचयिता मानस परस्पर सम्बद्ध होते हुए भी पृथक हैं। रोमैण्टिक कविताएँ इसलिए महान नहीं हुई कि वहाँ भोक्ता मानव एवं रचना मानस मिल कर एक हो गए हैं।

 

इलियट ने कविता को निर्वैयक्‍त‍िक कहकर उसे कवि से पूर्णतः अलग कर दिया तथा कविता को शुद्ध मनोरंजन की दृष्टि से देखा – “कविता उच्‍च कोटि का मनोरंजन है, इसको मनोरंजन कहने का मतलब यह नहीं है कि… हम इसकी कोई नई परिभाषा दे रहें हैं… इसके अतिरिक्त और कुछ कहेंगे तो और बड़ा झूठ होगा।” कविता को उच्‍च कोटि का मनोरंजन मानकर इलियट ने साहित्य को तमाम सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त रखा और कविता की शुद्धता पर बल दिया।

 

4. वस्तुपरक सापेक्षता का सिद्धान्त

 

निर्वैयक्‍त‍िकता से सम्बन्धित इलियट का एक अन्य सिद्धान्त है, ‘वस्तुपरक सापेक्षता’। पाठक और कविता का सम्बन्ध ‘वस्तुपरक सादृश्य’ के द्वारा निरूपित होता है। उसके विषय में इलियट का मत है कि “यदि किसी भाव को कला के रूप में व्यक्त करना है तो वह है एक ऐसे सम्बद्ध वस्तुगत तथ्य की खोज जिसके द्वारा दूसरे व्यक्‍त‍ि वैसे ही भाव अपने मन में अनुभव कर सकें। दूसरे शब्दों में, वस्तुओं का एकीकरण, एकस्थिति, घटनाओं की शृंखला का एक समीकरण के रूप में जिक्र होना चाहिए जिससे कि वही भाव तुरन्त उद्बुद्ध हो जाएँ जो कवि का भी अपना है।”

 

अंग्रेज आलोचक फ्रैंक करमोड ने  रोमैण्टिक इमेज  नामक पुस्तक में वस्तुपरक सादृश्य को कवि मन की अभिव्यक्‍त‍ि का साधन कहा है और एजरा पाउण्ड ने उसकी तुलना अंकगणित के समीकरण से की है जो अमूर्त्त भावों का मूर्तिकरण करते हैं। उसी से कविता में चित्रात्मक-बिम्ब निर्मित होता है और अमूर्त्तन की जगह वस्तुपरकता लेती है। हेमलेट एण्ड हिज प्राब्लम्स  निबन्ध में इलियट ने हेमलेट नाटक को एक असफल कृति कहा क्योंकि उसमें शेक्सपियर हेमलेट-नायक के मनोविज्ञान को व्यक्त करने में उपयुक्त वस्तुपरक सादृश्य का चुनाव नहीं किया है। आचार्य शुक्ल भी स्वीकार करते हैं कि “कविता में विभावन व्यापार होता है।” इसे बिम्ब विधान भी कहा जा सकता है क्योंकि कविता में काम अर्थ ग्रहण से नहीं चलता, बिम्ब विधान जरुरी है। आशय कि काव्यभाषा चित्रात्मक होनी चाहिए। अमूर्त्त और अप्रत्यक्ष का प्रत्यक्षीकरण है, वस्तुपरक सादृश्य क्योंकि जो अमूर्त्त और अप्रत्यक्ष है वह पाठक के बोध का विषय नहीं हो सकता और जो बोध का विषय नहीं है, उसका साधारणीकरण भी नहीं  हो सकता। इसलिए इलियट बल देकर कहते हैं, ”जब हम कविता पर विचार करते हैं तो सबसे पहले उस पर कविता के रूप में विचार करना चाहिए, न कि किसी अन्य रूप में।”

 

इस प्रकार इलियट ने आलोचना के नाम पर फैले गदलश्रु भावुकतापूर्ण रोमैण्टिक उद्गारों और वक्तव्यों का विरोध करते हुए कविता की आलोचना में वैयक्‍त‍िकता के स्थान पर वस्तुपरकता पर जोर दिया। साथ ही अपने पूर्व समीक्षा के सभी सिद्धान्तों की समीक्षा की और जिस नई पद्धति को सामने रखा उसे ‘न्यू क्रिटिसिज्म’ के नाम से जाना जाता है। इस तरह उन्होंने साहित्य-सृजन और उसके आस्वाद-विश्‍लेषण की वैज्ञानिक समीक्षा-पद्धति का सूत्रपात किया।

 

5. निष्कर्ष     

 

संक्षेप में, बीसवीं सदी की साहित्यिक आलोचना में इलियट ने साहित्यिक समीक्षा के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का प्रणयन किया। परम्परा पर आधुनिक दृष्टिकोण से विचार करते हुए उसने परम्परा को सर्वथा त्याज्य नहीं बताया। रचना में निर्वैयक्‍त‍िकता का समावेश कर उसे गलदश्रु भावुकता व आत्माभिव्यक्‍त‍ि के चित्रण से परे हटाया, जिससे कलाकृति एक कवि से इतर महान स्वरुप निर्मित हो सके।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें                                      

  1. पाश्चात्य काव्यशास्त्र, देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
  2. पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा, डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
  3. पाश्चात्य काव्यशास्त्र का इतिहास, ताकरनाथ बाली, शब्दकार प्रकाशन, दिल्ली
  4. टी.एस. इलियट, डॉ. कृष्णदत्त शर्मा, अमनिका प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
  6. रससिद्धान्त और सौन्दर्यशास्त्र,निर्मला जैन, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
  7. पाश्चात्य काव्य-चिन्तन, करुणाशंकर उपाध्याय,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. आलोचक और आलोचना,बच्चन सिंह,विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी
  9. T. S. Eliot’s Theory of Personal Expression, Allen Austin, PMLA, Vol. 81, No. 3, June 1966, Modern Language Association, New York.
  10. Selected Essays, T.S.Eliot, Faber and Faber, London.
  11. T.S.Eliot,  Peter Ackroyd, Hamis Hamilton, London.
  12. T.S.Eliot : A bibliography, Donal Clifford, Faber and Faber, London.
  13. Poetic Theory and Practice of T.S.Eliot, D.K.Rampal, New Delhi.
  14. The Sacred Wood : Essays on poetry and criticism, T.S.Eliot, Methuen, London.
  15. The Three Voices of Poetry, T.S.Eliot, Oxford University Press,Oxford,London.

 

वेब लिंक्स

  1. https://www.youtube.com/watch?v=RDwqMW441UQ
  2. https://www.youtube.com/watch?v=hTNZu272Bw4
  3. https://en.wikipedia.org/wiki/T._S._Eliot
  4. http://www.britannica.com/biography/T-S-Eliot