12 क्रोचे के चिन्तन में कला और नैतिकता

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. कला
  4. नैतिकता
  5. सौन्‍दर्यबोध
  6. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • कला सम्बन्धित क्रोचे के विचार जान सकेंगे।
  • कला और नैतिकता पर क्रोचे के विचार जान सकेंगे।
  • सौन्दर्यबोध की क्रोचे की अवधारणा समझ सकेंगे।
  • अभिव्यंजना में कला, नैतिकता और सौन्दर्यबोध का महत्त्व जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

अभिव्यंजनावाद के प्रवर्तक क्रोचे का जन्म इटली में हुआ था। वे न केवल एक कला-मीमांसक अपितु एक गम्‍भीर तत्त्ववेत्ता दार्शनिक भी थे। हिन्दी जगत से क्रोचे का पहला परिचय आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कराया। वे क्रोचे के अभिव्यंजनावाद को हिन्दी साहित्य के लिए अच्छा नहीं मानते थे। उनको डर था कि क्रोचे का अभिव्यंजनावाद कहीं हिन्दी कविता को भी कलावाद के रास्ते पर न ले जाए। दरअसल इटली में शुरू से ही चित्रकला, मूर्तिकला, नक्काशी आदि की तरह, कविता को भी कला का एक रूप माना जाता था। परिणाम यह हुआ कि कविता में भी ‘एक्सप्रेशन’ या अभिव्यंजना को सब कुछ माना जाने लगा। कला, नैतिकता और सौन्दर्यबोध पर भी क्रोचे ने अपने विचार रखे हैं। उनके इन्हीं विचारों को समझने-बूझने का प्रयास यहाँ किया जाएगा।

 

बेनेदेत्तो क्रोचे (सन् 1866-1952) से पहले उन्नीसवीं शताब्दी में ‘कला कला के लिए’ का सिद्धान्त उभर चुका था। उसे दृढ़ आधार प्रदान करने में क्रोचे की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। उन्होंने प्रक्टिकल इनोसेन्स ऑव आर्ट की मान्यता प्रस्तुत की एवं कलावाद तथा स्वच्छन्दतावाद को स्थापित किया। उनके लिए कला व्यावहारिक रूप से जगत निरपेक्ष, अखण्ड, नियमों से परे, उपदेशविहीन, सौन्दर्य से पूर्ण और अन्त:प्रज्ञा से नि:सृत है। कला नैतिक या अनैतिक नहीं होती। कला बस कला होती है। क्रोचे के लिए कला किसी भी नियम और नैतिकता से मुक्‍त अपने आप में सम्पूर्ण है। उसका काम समाज सुधार नहीं होता है। आनन्द प्रदान करना भी उसका दायित्व नहीं है।

 

अभिव्यंजनावाद के प्रवर्तक बेनेदेत्तो क्रोचे मूलतः एक आत्मवादी दार्शनिक हैं। उनका उद्देश्य साहित्य  में आत्मा की अन्तसत्ता स्थापित करना था। इनसे पूर्व काण्ट ने मन तथा बाह्य जगत् के तादात्म्य और समन्वय का प्रतिपादन करते हुए दृश्य जगत् की उपेक्षा की और हीगेल ने काण्ट की मान्यता स्वीकार करते हुए दृश्य जगत् को भी महत्त्व प्रदान किया। इसके विपरीत क्रोचे ने केवल मानसिक प्रक्रिया को ही महत्त्व दिया। उनकी दृष्टि में बाह्य उपकरण गौण साधन मात्र हैं। क्रोचे का अभिव्यंजनावाद कला के मूल तत्त्व की खोज का प्रयास है। कला का वास्तविक तत्त्व क्या है, अथवा उसकी आत्मा क्या है? इस विषय में क्रोचे ने अपना गम्भीर विवेचन प्रस्तुत किया है, जो सूक्ष्म है। क्रोचे के समस्त सौन्दर्य-विवेचन में आत्म-तत्त्व प्रतिष्ठित है। यह आत्म-तत्त्व कलाकार की चेतना है। इस आत्म-तत्त्व को क्रोचे ने आन्तरिक अभिव्यक्ति कहा है, जो इस जगत् में मुख्य रूप से दो प्रकार की प्रतिक्रिया करता है।

 

क्रोचे के अनुसार मानसिक (ज्ञान की) क्रियाओं के दो भेद हैं– सैद्धान्तिक और व्यावहारिक। इन्हीं को उन्होंने क्रमशः सांसारिक ज्ञान बोध और सांसारिक क्रियाएँ भी कहा है।

 

कलाकार की मानसिक शक्ति या उसका सांसारिक बोध दो प्रकार से व्यक्‍त होता है। एक प्रकार सहज बोध का है, जो भावात्मक है। इसमें तर्क का आश्रय नहीं लिया जाता, अपितु हृदय की सहज गति को अंकित करने का प्रयास रहता है। इसे क्रोचे ने सहजानुभूति या अन्तःप्रज्ञात्मक कहा है। इसी सहजानुभूति से कला का जन्म होता है। मानसिक बोध का दूसरा प्रकार बुद्धि प्रधान है। इसमें व्यक्ति विचार या तर्क द्वारा जगत् के रहस्यों को समझता है और उनके विषय में अपनी धारणा बनाता है। इसे क्रोचे ने तर्कज्ञान कहा है। व्यावहारिक क्रिया पक्ष के भी दो प्रकार हैं– एक आर्थिक और दूसरा नैतिक। आर्थिक का अर्थ है उपयोगिता तथा नैतिक का अर्थ है जीवन और जगत् के व्यवहारों का सामाजिक दृष्टि से मूल्यांकन।

 

इनमें सहजानुभूति क्रिया ही प्रमुख है। वही क्रोचे के कला-विवेचन का आधार प्रस्तुत करती है। ये चार व्यापार हैं– सहज-ज्ञान, तर्क-ज्ञान, आर्थिक और नैतिक।

  1. कला

क्रोचे ने अपनी सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक स्थेटिक एज़ द साइन्स ऑव एक्सप्रेशन एण्ड जनरल लिंग्विस्टिक (सन् 1902) में कला को मनुष्य के ज्ञान का केन्द्र माना। उन्होंने कहा कि मनुष्य सामान्य जीवन के नियमों को कला पर लागू नहीं करता। साधारण जीवन में लगातार रुझान अन्त:प्रज्ञात्मक ज्ञान के प्रति रहता है। कहा जाता है कि कुछ सत्यों को अभिव्यक्‍त करना असम्भव है, ये न्याय वाक्यों द्वारा प्रकट नहीं किए जा सकते, इन्हें अन्तःप्रज्ञात्मक तौर पर ही ग्रहण किया जा सकता है।

 

क्रोचे की मान्यता है कि अन्तःप्रज्ञा  और अभिव्यंजना अखण्डित हैं, अविभाज्य हैं, अत: कला भी अखण्ड होती है। कोई भी कलाकृति किसी कलाकार के मन में अखण्ड और अविभाज्य रूप में ही स्फुरित होती है। इस स्फुरण में ही वह अभिव्यंजित होती है, यह अभिव्यंजना ही कलात्मक रूप ग्रहण करती है। इस तरह कला आन्तरिक रूप में घटित होती है। वह पहले कलाकार के हृदय में कौंधती है। कोई चित्रकार या मूर्तिकार किसी चित्र या मूर्ति को खण्डित रूप में नहीं देखता। उसके मन में पूरा चित्र या सम्पूर्ण मूर्ति ही कौंधती है। बाह्य अभिव्यंजना अवश्य ही कई चरणों में पूरी होती है। चित्रकार धीरे-धीरे रंग भरकर चित्र पूरा करता है। मूर्तिकार एक-एक अंश तराश कर पूरी मूर्ति तैयार करता है।  किन्तु कला अपने अभिव्यंजना काल में खण्डित नहीं बल्कि अखण्ड रूप में मौजूद होती है। क्रोचे का यह भी मानना है कि कला वास्तव में अभिव्यंजना के रूप में प्रकट होती है, पर इसका अर्थ यह नहीं कि प्रत्येक अभिव्यंजना कला होगी।

 

क्रोचे ने कला को ज्ञान की कुंजी माना। कला को ज्ञान नहीं माने जाने का उन्होंने विरोध किया। उन्होंने कहा कि आलोचकों ने कला को एक भावना के रूप में ग्रहण किया है, उन्होंने इसे सैद्धान्तिक तथ्य में अस्वीकृति दी है।

 

कलाकार अपने समाज की उपज होता है, वह वहीं से संस्कार ग्रहण करता है। लोक एवं शास्‍त्र उसके ज्ञान और अनुभव का आधार होते हैं। कला की अभिव्यंजना से कलाकार के हृदय में सौन्दर्यपरक आनन्द उपजता है। उसके आनन्द आस्वादन की वाह्य अभिव्यक्ति कला को उसका रूप प्रदान करती है। इस प्रक्रिया में उक्‍त में से प्रथम तीन व्यापार आन्तरिक रूप से घटित होते हैं, अन्तिम भाग वाह्य संसार में स्वरूप पाता है।

 

क्रोचे के अनुसार कला मुक्ति है। मनुष्य अपने संस्कारों को विस्तृत भाव से प्रस्तुत कर स्वयं मुक्ति पा लेता है। अपने संस्कारों को ठोस रूप में प्रकट कर वह स्वयं को उनसे अलग कर लेता है। कला की क्रियात्मकता के दो महत्त्वपूर्ण पक्ष हैं–मुक्तिदायक एवं शुद्धिपरक। अपनी भावनाओं, संस्कारों की अभिव्यंजना कर मानव, मुक्ति का आनन्द पाता है। कला की सौन्दर्यपरकता उसे और शुद्ध करती चलती है।

 

अपने सामाजबोध और संस्कारों से कलाकार जो ज्ञान प्राप्‍त करता है, उसी के अनुरूप वह कला को ठोस रूप देता है जिसे हम शिल्प के नाम से जानते हैं। कला और शिल्प में भेद नहीं होता है। वास्तव में शिल्प कलाकार का अपना वैशिष्ट्य होता है, जो उसे दूसरे कलाकार से अलग करता है। कलाकार की प्रतिभा और शिल्प निरन्तर उसे आनन्द, मुक्ति और शुद्धि प्रदान करते हैं।

 

यद्यपि क्रोचे कला-सृष्टि में कलाकार की पराधीनता की भी बात करते हैं। कला स्वत:स्फुरित होती है। अत: उसके चयन का प्रश्‍न ही नहीं उठता। उनके अनुसार कला के विचार के प्रसंग में कला के प्रयोजन और वस्तु-चयन का प्रश्‍न नहीं उठना चाहिए। एक सच्‍चा कलाकार वास्तव में अपनी कला के साथ स्वयं को एकात्मक अनुभव करता है। वह कला सृजन के क्षण के निकट आने का अनुभव कर सकता है, किन्तु ‘कैसे’ और ‘कब’, नहीं कहा जा सकता है। वह इसे अपनी इच्छानुसार भी नहीं रख सकता।

 

कला जब बाह्य संसार में प्रकट होकर भावक के पास पहुँचती है, तब वह भी अपनी  ज्ञानेन्द्रियों द्वारा उसका आस्वादन करता है, उसमें भी वही कलात्मक अन्तःप्रज्ञा  जागती है, जो कलाकार में जाग्रत हुई थी। इस अन्तःप्रज्ञा  के जागने पर भावक भी कलाकार जैसा आनन्द पाता है। भारतीय काव्यशास्‍त्र में इस प्रक्रिया को साधारणीकरण कहा जाता है। साधारणीकरण में सहृदय को कलाकार जैसी रसानुभूति होती है।

  1. नैतिकता

नितान्त वैयक्तिक होने के कारण, कला की नैतिकता के समाज सापेक्ष होने के आग्रह का निर्वाह कठिन हो जाता है। कलाकार यद्यपि अपने प्रभाव और संस्कार समाज से ग्रहण करता है फिर भी कला की उत्पत्ति वैयक्तिक हो जाती है, क्योंकि उसके बाह्य अभिव्यंजना और उसका रूप कलाकार का निजी मामला बन जाता है। कला अन्तत: आत्मनिष्ठ वस्तु के रूप में सामने आती है।

 

नैतिकता के सम्बन्ध में क्रोचे का मानना है कि “चूँकि मनुष्यों के बहुलांश में एक सक्रिय नैतिक आत्म पाया जाता है और इसकी सम्पूर्ण अनुपस्थिति एक दुर्लभ और सम्भवत: अविद्यमान दुष्टता है। अत: यह माना जा सकता है कि जीवन में आर्थिक सक्रियता में नैतिकता भी समाहित रहती है। वे उपयोगितावादियों की आलोचना करते हैं। उपयोगितावादियों की दृष्टि में नैतिकता बाहर की वस्तु है जबकि क्रोचे नैतिकता को आन्तरिक तत्व मानते हैं। व्यावहारिक जीवन में सौन्दर्यपरक अन्त:प्रज्ञा घटना या प्रकृति से परिचित होती है तथा दार्शनिक अन्तःप्रज्ञा  परासत्ता या आत्म में सम्बद्ध है। इनके साथ नैतिक क्रिया सच्चे आत्म की आकांक्षा और स्वरूप के रूप में पहचानी जानी चाहिए। सौन्दर्य, नैतिकता एवं तर्क भाव को सुन्दर, नैतिक एवं बौद्धिक रंगों में प्रकट करने के माध्यम है। भाव को श्रेणियों में विभाजित न कर उसका अध्ययन करना अधिक श्रेयस्कर है।

 

थियरी ऑफ प्ले के अन्तर्गत क्रोचे ने सौन्दर्यपरक सुखवाद की चर्चा की हैं। उन्होंने कहा कि खेल क्रीड़ा की धारणा अभिव्यंजित तथ्य को समझने में कभी-कभी सहायिका होती है। मनुष्य जब स्वयं को प्राकृतिक एवं मशीनी दुर्घटनाओं से मुक्‍त कर आध्यात्मिक धरातल पर सक्रिय होता है, तब उसकी प्रथम क्रीड़ा कला है। इसमें सौन्दर्य क्रीड़ा का निर्मित अंश है, किन्तु क्रीड़ा के उद्देश्य से नैतिकता का संचार नहीं किया जा सकता। क्रीड़ास्थल पर इसे उत्पन्‍न नहीं किया जा सकता बल्कि यह क्रीड़ा को प्रभावित और नियन्त्रित करने वाली है। सौन्दर्यशास्‍त्रीय सुखवाद और नैतिकशास्‍त्र के अन्तर्गत क्रोचे कहते हैं कि कला को सुखवाद के रूप में रखा गया है, किन्तु दार्शनिक इसे पूर्णत: स्वीकार नहीं करते। वे एक या एकाधिक आध्यात्मिक मूल्य या मूल्यों, सत्य अथवा नैतिकता को उसमें जोड़ देते हैं।

  1. सौन्दर्यबोध

क्रोचे आत्मवादी दार्शनिक हैं। उनकी सौन्दर्य विवेचना में आत्मवाद प्रतिष्ठित है। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक एस्थेटिक एज़ साइन्स ऑव एक्सप्रेशन एण्ड जनरल लिंग्विस्टिक  में उन्होंने ईस्थेटिक शब्द पर विचार किया। ‘ईस्थेटिक’ शब्द ग्रीक शब्द आइस्थेसिस ‘आइस्थेतिक्रोस’ से निष्पन्‍न है जिसका सामान्य अर्थ है इन्द्रिय प्रत्यक्ष अथवा इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया गया ज्ञान किन्तु क्रोचे द्वारा इस शब्द के व्यवहार के पश्‍चात यह सौन्दर्यात्मक ज्ञान के लिये रूढ़ हो गया जिसका हिन्दी अनुवाद सौन्दर्यशास्‍त्र मान्य हुआ। अपनी पुस्तक ‘ईस्थेटिक’ के प्रथम भाग में क्रोचे ने सौन्दर्यशास्‍त्र का सैद्धान्तिक विश्‍लेषण किया है तथा द्वितीय भाग में उसका इतिहास निरूपित किया है। क्रोचे ने सौन्दर्यवादी दृष्टिकोण से साहित्य, कला और शिल्प की विवेचना की।

 

सौन्दर्य की अन्तर्वस्तु और रूप पर विचार करते हुए क्रोचे कहते हैं, “वस्तु और रूप का सम्बन्ध अथवा अन्तर्वस्तु और रूप का सम्बन्ध जो कि सामान्यत: कहा जाता है, सौन्दर्यशास्‍त्र के सबसे विवादास्पद प्रश्नों में से एक है। क्या सौन्दर्य केवल अन्तर्वस्तु में है, अथवा केवल रूप में है, या दोनों में है?” कला पर विचार करते समय सौन्दर्य की चर्चा आवश्यक हो उठती है क्योंकि किसी भी वस्तु, व्यक्ति, स्थान या कृति की कलात्मकता के साथ सौन्दर्य आन्तरिक तत्त्व है। उसका आस्वादन एक बड़ी सीमा तक सौन्दर्य के आस्वादन से आबद्ध है। इसलिए क्रोचे कला को केवल अन्तर्वस्तु मानने के सिद्धान्त को अस्वीकार करते हैं। उनका मानना है कि सौन्दर्यशास्‍त्रीय तत्त्वों में सौन्दर्यात्मक क्रियाएँ, प्रभाव से न केवल मिलती है बल्कि इससे स्थापित और विकसित भी होती हैं। प्रभाव अभिव्यंजना में पुन: उभर कर सामने आता है, ठीक वैसे ही, जैसे पानी छाने जाने पर पुन: पानी ही रहता है, यद्यपि उसमें अन्तर आ जाता है। अत: सौन्दर्यात्मकता केवल रूप है, रूप के अतिरिक्‍त कुछ नहीं।

 

क्रोचे कहते हैं कि सभी संस्कार सौन्दर्यात्मक अभिव्यंजना और निर्माण में सम्मिलित हो सकते हैं, पर इनमें से कोई भी ऐसा करने को बाध्य नहीं है। क्रोचे की धारणा है कि शुद्ध सौन्दर्य से ही कला का निर्माण हुआ है। इसे सुखवाद और शिक्षाशास्‍त्रीय सौन्दर्यशास्‍त्र के विरुद्ध खड़ा किया जाता है। कला को केवल ऐन्द्रिक सुख तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए, यह आत्मा की गहरी और ऐसी रहस्यात्मक अनुभूति हो सकती है, जिससे यह जगत अपरिचित है। किसी कला की सार्थकता उसकी अभिव्यंजना में है, उसका सौन्दर्य भी। सौन्दर्य का कोई मानदण्ड नहीं होता। सौन्दर्य के स्तर की भिन्‍नता को मापा नहीं जा सकता, जबकि कुरूपता के स्तर को मापा जा सकता है। तनिक कुरूप और अत्यधिक कुरूप में अन्तर है। यदि कोई सम्पूर्णत: कुरूप है, तो यह सुन्दरता रहित होना है। ऐसा होते ही कोई कुरूप नहीं रहेगा, क्योंकि इसके अस्तित्व का आधार अन्तर्विरोध  ही यदि समाप्‍त हो गया तो इसका अस्तित्व (कुरूपता) भी समाप्‍त हो जाएगा।

 

क्रोचे सम्‍प्रत्ययों एवं सौन्दर्यशास्‍त्रीय सम्‍प्रत्ययों पर विचार करते हैं। वे मन्तव्य देते हैं कि सौन्दर्यशास्‍त्रीय तत्त्वों में सांसारिक घटनाओं और पदार्थों का समावेश कलाकार करता है। कई बार यह आकस्मिक होता है और कई बार यह प्रक्रिया में निबद्ध होता है।

 

क्रोचे के लिए कला में सौन्दर्य की प्रधानता अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। उनके अभिव्यंजनावाद की प्रस्तुति जिस स्थेटिक एज़ साइन्स ऑव एक्सप्रेशन एण्ड जनरल लिंग्वस्टिक नामक ग्रन्थ में हुई है, उसमें ‘एस्थेटिक’ अर्थात सौन्दर्यशास्‍त्र सम्बन्धी मीमांसा ही प्रमुख है। कह सकते हैं कि क्रोचे के कला-दर्शन की आधारभूमि सौन्दर्य है। वे उन आलोचकों से तत्त्वत: भिन्‍न हैं, जो कला को खण्डश: विश्‍लेषित करते हैं। क्रोचे समुचित सौन्दर्य के समर्थक हैं, जो कला में सम्पूर्णतः रहता है, उसके किसी खण्ड में नहीं। उनकी अभिव्यंजना का मूल्यबोध सौन्दर्य है। केवल सौन्दर्य। वे कलात्मक, बौद्धिक, आर्थिक एवं नैतिक मूल्यों अथवा मूल्यहीनता को जिन पदबन्धों से उपस्थित करते हैं, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है सुन्दर। केवल सफल अभिव्यंजना ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक सत्य में भी सुन्दरता महत्त्वपूर्ण है। किसी सफल उपलब्धि, नैतिक कार्य, बौद्धिक कार्य में भी सौन्दर्य का प्रधान स्थान है। वे बौद्धिक सौन्दर्य, सुन्दर क्रिया या कार्य, नैतिक सौन्दर्य की बात करते हैं। आलोचकों को भ्रम से बचाने के लिए वे ‘सौन्दर्य’ शब्द का प्रयोग सफल अभिव्यंजना के लिए न करने की बात भी करते हैं किन्तु इसके साथ ही यह भी कहते हैं कि हम सुन्दरता को सफल अभिव्यंजना कह सकते हैं या इससे बेहतर केवल अभिव्यंजना कह सकते हैं, इसके अतिरिक्‍त कुछ नहीं, क्योंकि असफल अभिव्यंजना, अभिव्यंजना ही नहीं है।

 

क्रोचे कुरूपता को भी सुन्दरता के अस्तित्व से व्याख्यायित करते हैं। ‘कुरूप तथा सौन्दर्य के तत्व जिनसे कुरूपता निर्मित है शीर्षक लेख के अन्तर्गत वे असफल अभिव्यंजन को कुरूप मानते हैं। यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि क्रोचे के यहाँ कला, अन्त:प्रज्ञा, अभिव्यंजना, कल्पना, रम्य-कल्पना, सौन्दर्य आदि शब्दों के अनेकार्थ प्रयोग हुए हैं। कई बार ये शब्द-रूप में प्रयुक्‍त होते हैं, जिससे उनका अर्थ आसानी से समझने में उलझन होती है। क्रोचे कृत्रिम सौन्दर्य से कला के पुनरुत्पादनों के साधनों को विलग करते हैं। लेखन में वर्ण, अक्षर, संगीत के ध्वनि-चिह्न, तथा सभी छद्म भाषाओं को वे फूलों और झण्डों की भाषा से अलग करते हैं। वे लेखन को कलात्मक आवश्यकता-सा सीधा भौतिक तथ्य नहीं मानते। वे इसे केवल संकेत मानते हैं, जो भौतिक तथ्यों की अभिव्यक्ति के साधन भर हैं।

 

क्रोचे कलात्मक और हीन कलात्मक या कम कलात्मक के भेद का उपहास करते हैं। इसे वे सुन्‍दर वस्तुओं के संग्रह से समझाते हैं और लिफ़ाफ़े का उदाहरण देते हैं। भाँति-भाँति के सुन्‍दर-असुन्‍दर, उपयोगी-अनुपयोगी लिफ़ाफे। एक लिफ़ाफ़ा एक कार्य के लिए उपयोगी तो दूसरे के लिए अनुपयोगी। पीला लिफ़ाफ़ा कानूनी नोटिस भेजने के लिए उपयुक्‍त तो प्रेमपत्र भेजने के लिए अनुपयुक्‍त। इनमें कौन-सा सुन्दर है कौन-सा असुन्दर है? सौन्दर्य की कोई भौतिक सत्ता नहीं है। अत: ऐसे उत्साहियों को इस हास्यास्पद प्रयासों की कठिनाइयों से बचाया जाना चाहिए अपनी पुस्तक में क्रोचे ऐसे उत्साही, किन्तु बचकाने सौन्दर्य-प्रेमियों पर और समय नष्ट करने से मना कर देते हैं।

  1. निष्कर्ष

आत्मवादी दार्शनिक क्रोचे के समग्र विवेचन में आत्मवाद की प्रतिष्ठा है, विशेषकर उनके सौन्दर्य विवेचन में। कोई भी अभिव्यंजना सौन्दर्य निरपेक्ष नहीं होती। यह एक भ्रम मात्र है कि ऐसी अभिव्यंजना सम्भव है, जो न सुन्दर हो न कुरूप। कलात्मक क्रियाएँ सुन्दर और कुरूप के विशिष्ट संज्ञान से लैस होती हैं, अत: उनमें सौन्दर्य की उपस्थिति और अनुपस्थिति-दोनों ही उसकी आधारभूत आवश्यकताएँ हैं।

 

कुरूपता को यदि कला में स्थान मिलता है तो इसलिए कि वह सौन्दर्य को पराकाष्ठा पर पहुँचाए। कला में कुरूपता सौन्दर्य के सेवक और उत्प्रेरक का कार्य करती है कला के प्रगटन या उत्पादन के चार चरणों से सम्पूर्ण चक्र में सौन्दर्य का आनन्द उठाना सबसे महत्त्वपूर्ण अंश प्रतीत होता है। क्रोचे शारीरिक सौन्दर्य या वस्तु के सौन्दर्य के अभिमत से सहमत नहीं हैं, सौन्दर्य एक भौतिक तथ्य नहीं है, यह वस्तु में नहीं होता; यह मनुष्य की क्रियाओं और उसकी आध्यात्मिक ऊर्जा में होता है।

 

क्रोचे प्राकृतिक सौन्दर्य और कृत्रिम सौन्दर्य की चर्चा करते हुए, प्रकृति को सुन्दर मानते हैं। जब हम किसी प्राकृतिक दृश्य को सुन्दर कहते हैं तो उसे कलात्मक रूप से नहीं भोगते। किसी प्राकृतिक वस्तु के कलात्मक स्तर पर आस्वादन हेतु, हमें उसे उसकी भौतिक तथा ऐतिहासिक बन्दिशों से मुक्‍त करना होगा। प्राकृतिक दृश्यों की सुन्दरता का जैसा आनन्द कलाकार उठाता है, वैसा ही आनन्द कोई प्राणीविज्ञानी या वनस्पतिशास्‍त्री नहीं उठा सकता। प्रकृति में कल्पना के समावेश के बिना कुछ भी सुन्दर नहीं है। कल्पना के समावेश के साथ ही प्राकृतिक वस्तु या दृश्य अभिव्यंजना योग्य हो जाती हैं। वे आत्मा के अनुसार किसी मामूली ही सही,  उदास या प्रसन्‍न, महान या तुच्छ, मीठी या उपहासास्पद, पर निश्‍च‍ित अभिव्यंजना योग्य हो जाते हैं, जो अन्तत: इस ‘प्राकृतिक सौन्दर्य’ तक पहुँचते हैं।

 

कलाकार में कला का स्फुरण एकाएक होता है, इसलिए वह इसके चयन में स्वाधीन नहीं है। कला के स्फुरण के साथ ही उसकी अभिव्यंजना भी हो जाती है। इस अभिव्यंजना से चयन का ही नहीं, सौन्दर्यात्मक बोध का प्रश्‍न भी जुड़ा हुआ है। क्रोचे इस बोध की समस्या को ‘संस्कार और अभिव्यंजना तथा रूप को अन्तर्वस्तु से विशिष्ट रूप में न देखे जाने से जोड़ते हैं।’

 

क्रोचे कला की वैयक्तिकता की बात करते हैं। कला सम्पूर्णत: कलाकार की निजी अन्त:प्रज्ञा और अभिव्यंजना पर निर्भर करती है। कलाकार ही उसे बाह्य और ठोस, रूप प्रदान करता है। परिणामत: क्रोचे ‘कला कला के लिए’ के संमर्थक के रूप में सामने आते हैं। क्रोचे द्वारा कला को सभी प्रकार की नैतिकताओं से सर्वथा मुक्‍त या निरपेक्ष माने जाने की बृहद आलोचना हुई है। कला सामाजिक उत्पादन के रूप में देखे जाने पर उसकी उपयोगिता भी काम्य है। इस सब की अनुपस्थिति में कला मूल्यों का निर्धारण अपेक्षाकृत कठिन कार्य हो जाएगा। कहा जा सकता है कि क्रोचे ने कला, नैतिकता और सौन्दर्य पर विस्तार से विचार किया है। उनकी मान्यताओं से सम्पूर्ण सहमति भले ही न जताई जा सके किन्तु उनकी विलक्षणता सन्देह से परे है।

 

क्रोचे के विचारों से स्पष्ट है कि वे कला-सृजन और कला-आस्वादन की प्रक्रिया में कोई अन्तर नहीं मानते। दोनों क्रियाएँ  एक ही क्रिया के दो रूप हैं या यों कहें कि जिस मार्ग पर चल कर कलाकार जिस मंजिल पर पहुँचता है, उसी मंजिल पर सामाजिक भी उसी मार्ग से पहुँचता है। इतना अन्‍तर अवश्य है कि कलाकार की क्षमताएँ अधिक होती हैं, अत: वह नेतृत्व करता है जबकि सामाजिक कलाकार का अनुकरण करता है।

 

क्रोचे के विचार से सामान्य अनुभूति और कलाजन्य अनुभूति में गहरा अन्‍तर है। सामान्य अनुभूति के मुख्यत: दो रूप हैं – सुख और दुःख। सुख-दुःख का सम्बन्ध हमारी चार मूलभूत प्रवृत्तियों में से आर्थिक और व्यावहारिक से है, जबकि कला का सम्बन्ध सहजानुभूति से है। क्रोचे सामान्य प्रसन्‍नता और कलाजन्य आनन्द में गुणों का नहीं – मात्रा का अन्‍तर मानते हैं। नाटक के नायक की विभिन्‍न परिस्थितियों को देखकर हम हँसते हैं, आँसू बहाते हैं और आनन्द का अनुभव करते हैं। किन्तु हमारा यह हँसना, आँसू बहाना या आनन्द सामान्य सुख-दुःख से हलका होता है। सामान्य जीवन के सुख-दुःख वास्तविक एवं गम्‍भीर होते हैं जबकि कलाजन्य सुख-दुःख अवास्तविक–काल्पनिक–ऊपरी होते हैं। अत: क्रोचे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कलाजन्य अनुभूति सामान्य अनुभूति से भिन्‍न होती है। असंगतियों और त्रुटियों के बावजूद इतना अवश्य स्वीकार किया जा सकता है कि उसके प्रभाव के कारण कला और साहित्य को दार्शनिकता, बौद्धिकता, नैतिकता एवं उपयोगिता के नियन्त्रण से मुक्ति मिली तथा शैली के बाह्य और आरोपित चमत्कारिक तत्त्वों की अपेक्षा अनुभूति की सहज अभिव्यक्ति को बल मिला। कला का लक्ष्य केवल कला या सौन्‍दर्य मानने वालों की दृष्टि से क्रोचे का महत्त्व अत्यधिक है – ऐसा निस्संकोच कहा जा सकता है।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. सौन्दर्यशास्त्र के मूल तत्त्व, राइस संस्थान के व्याख्यानों का हिन्दी अनुवाद, अनुवादक–श्रीकांत खरे, किताब महल, इलाहाबाद।
  2. आलोचक और आलोचना,बच्चन सिंह,विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी
  3. पाश्चात्य काव्य-चिन्तन, करुणाशंकर उपाध्याय,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. रससिद्धान्त और सौन्दर्यशास्त्र,निर्मला जैन, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
  5. History, as the story of liberty, Benedetto Croce, George Allen & Unwin, London
  6. Aesthetic as science of expression & general linguistic, Benedetto Croce, Rupa & Company, Kolkata.
  7. Expressionism, R. S. Furness, Methuen, London.

 

वेब लिंक्स                                                                      

  1. https://www.youtube.com/watch?v=4_deGUnQQgg
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Benedetto_Croce
  3. http://www.britannica.com/biography/Benedetto-Croce
  4. http://plato.stanford.edu/entries/croce-aesthetics/
  5. https://www.marxists.org/reference/archive/croce/
  6. http://www.britannica.com/biography/Benedetto-Croce