11 क्रोचे का अभिव्यंजनावाद

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. कला क्या है? : कला और सहजानुभूति का सम्बन्ध
  4. सौन्दर्यशास्‍त्र और आदर्शवादी दर्शन
  5. सहाजानुभूति और अभिव्यंजना
  6. सौन्दर्य : रूप और अन्तर्वस्तु का सम्बन्ध
  7. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • क्रोचे की दृष्टि में कला सम्बन्धी विचार समझ पाएँगे।
  • कला और सहजानुभूति का सम्बन्ध जान पाएँगे।
  • सहजानुभूति और अभिव्यंजना का सम्बन्ध जान पाएँगे।
  • रूप और अन्तर्वस्तु का सम्बन्ध समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

सन् 1901 में इटली के दार्शनिक सीनियॉर बेनेडेटो क्रोचे ने इस्थेटिका शीर्षक से सौन्दर्यशास्‍त्र की एक पुस्तक लिखी। बारह वर्षों बाद इटली की राइस संस्था द्वारा सौन्दर्यशास्‍त्र पर आयोजित गोष्ठी के में उन्होंने चार व्याख्यान किए। व्याख्यान का शीर्षक था – कला क्या है?, कला-विषयक भ्रान्त धारणाएँ, अन्तरात्मा और मानव समाज में कला का स्थान, तथा समालोचना और कला का इतिहास। विचार औऱ प्रगति के मानदण्ड से क्रोचे की स्थापनाएँ अब बहुत पुरानी पड़ चुकी हैं, और बहुत हद तक निरर्थक भी। किन्तु तथ्य है कि सौन्दर्यशास्‍त्र के इतिहास में क्रोचे का हस्तक्षेप ऐसी घटना है, जिसने सौन्दर्य मीमांसा को दार्शनिक आधार दिया और लम्बे समय तक परवर्ती विचारकों के मन में इस भ्रम को जिलाए रखा कि कला और साहित्य एक पूर्णतः स्वतन्त्र एवं स्वायत्त दुनिया होती है, जो न केवल अन्य भौतिक प्रपञ्चों से भिन्‍न होती है, बल्किउसका निषेधक भी होती है। आज उस विचार को ‘कला कला के लिए’ अथवा ‘अभिव्यंजनावाद’ के नाम से जाना जाता है। उसकी जबर्दस्त प्रभावशीलता को तो आचार्य शुक्ल ने स्वीकारा, पर क्रोचे की मान्यताओं का तार्किक विश्‍लेषण करते हुए अपने लम्बे निबन्ध काव्य में अभिव्यंजनावाद  में उन्हें प्रायः छिन्‍नमूल कर दिया। किन्तु क्रोचे ने जिस कलावाद को जन्म दिया, उसके जीवाणु आज भी भिन्‍न रंग-रोगन और अलग-अलग वेषभूषा में उत्तर-औपनिवेशिक साहित्य-सैद्धान्तिकी-शैली विज्ञान, रूपवाद, संरचनावाद, उत्तर संरचनावाद एवं कुछ हद तक देरिदा के विखण्डनवाद में भी मौजूद है। अब उसके ढंग और ढब बदल गए हैं।

 

एक सिद्धान्त के रूप में कला कला के लिए अथवा अभिव्यंजनावाद ने एक लम्बे समय तक साहित्य-चिन्तकों को अपने प्रभाव में रखा। इसलिए क्रोचे के सिद्धान्तों-स्थापनाओं को सबसे पहले उन्हीं के शब्दों में पढ़ें और समझें।

  1. कला क्या है? : कला और सहजानुभूति का सम्बन्ध

सन् 1901 की इस्थेटिका में क्रोचे ने कला ने कला को ‘सहजानुभूति’ कहा। बारह साल बाद उन्होंने सहजानुभूति को ‘गीतात्मक’ कहा, अर्थात गीतात्मक सहजानुभूति। राइस वाले भाषण में उन्होंने कला क्या है?’  वाले प्रसंग में कहा, “कला सम्प्रतीति (विजन) अथवा सहजानुभूति है। कलाकार एक बिम्ब अथवा छायामास का सृजन करता है। जो कोई कला का रसास्वादन करता है, वह कलाकार की ही व्यंजना पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है और कलाकार द्वारा खोले हुए वातायण से झाँकता है और अपने अन्तर में उस बिम्ब की प्रति सृष्टि करता है।” (सौन्दर्यशास्‍त्र के मूल तत्त्व, राइस संस्थान के व्याख्यानों का हिन्दी अनुवाद, अनुवादक – श्रीकांत खरे, किताब महल, इलाहाबाद, 1967, पृ. 8)

 

क्रोचे के यहाँ ‘सहजानुभूति’ एक निषेधात्मक अवधारणा है, जो उसे ‘अन्यों’ से अलग करती है। उसके अनुसार – “सबसे पहले तो यह (सहजानुभूति) इस बात का खण्डन करता है कि कला एक भौतिक वस्तु है। उदाहरण के लिए कुछ निश्‍चित रंग या रंगों के आपसी सम्बन्ध; कुछ आकृतियों के सुनिश्‍चित रूप; कुछ निश्‍चित स्वर या स्वर सम्बन्ध; ऊष्मा या विद्युत के गोचर तत्त्व-सारांश में जिस किसी चीज को ‘भौतिक’ कहा जा सके। कला के भौतिकीकरण की यह भ्रान्तिपूर्ण प्रवृत्ति साधारण विचार-विमर्श में पहले से ही विद्यमान है। और जैसे बच्चे छूते तो साबुन की फेन है, पर कामना करते हैं इन्द्रधनुष पकड़ने की, वैसे ही सुन्दर वस्तुओं की सराहना करने वाली मानव आत्मा स्वतः उन (वस्तुओं) के कारणों का बाह्य जगत में पता लगाने के लिए उतावली रहती है।

 

…और अगर यह पूछा जाए कि कला एक भौतिक वस्तु क्यों नहीं हो सकती? तो हमें जवाब देना होगा कि पहले तो भौतिक वस्तुएँ सत्यरूप नहीं होती। पर ऐसी कला परम सत्य-रूप होती है जिसके लिए बहुत सारे लोग अपना पूरा जीवन अर्पित कर देते हैं और जो सबमें एक अलौकिक आनन्द भर देती है। अतएव इसका तादात्म्य एक भौतिक वस्तु से नहीं हो सकता जो सर्वथा असत्य रूप होती है (उपर्युक्‍त, पृ. 9-10)।”

 

उक्‍त उद्धरण से सहज ही निष्कर्ष निकलता है कि कला के स्वरूप और सृजन कर्म में उसके भौतिक परिवेश का निषेध होता है, क्योंकि सहजानुभूति के रूप में गृहीत कला अपने से बाहर वाले भौतिक परिवेश का अस्तित्व नहीं मानती। भौतिक परिवेश तो मनुष्य के प्रत्ययमूलक ज्ञान अथवा निश्‍चयात्मिका बुद्धि का व्यापार है। क्रोचे अन्य आदर्शवादियों की तरह बाह्य जगत की वस्तुओं को चेतना-मानसिक रूपों का प्रतिबिम्ब अथवा छाया-घर मानते हैं। इसलिए क्रोचे के यहाँ कला में अभिव्यंजना का जो व्यापार घटित होता है वह बाह्य और अन्तरप्रकृति दोनों से परे विशुद्ध आत्मावान सचेतना की क्रिया है, जीवन-जगत से पूर्णतः निरपेक्ष।

 

क्रोचे लिखते है, “यदि कला सहजानुभूति है और सहजानुभूति ‘भावन’ (कण्टेम्प्लेसन) के मौलिक अर्थ सिद्धान्त की पर्याय है, तो कला एक ‘उपयोगी’ व्यापार नहीं हो सकती। चूँकि हर उपयोगी व्यापार का लक्ष्य सदैव सुख की प्राप्ति और दुःख से निवृत्ति होता है, इसलिए सच्ची कला का ‘उपयोगिता’, ‘सुख’, ‘दुःख’ आदि से कोई सम्बन्ध नहीं। वास्तव में बिना अधिक झंझट के यह सर्वथा मान्य होना चाहिए।” (उपरोक्‍त, पृ.11) गरज कि क्रोचे की दृष्टि में कलानुभूति एवं जीवनुभूति में कोई सम्बन्ध नहीं होता। सहजानुभूति की निषेधात्मकता का दूसरा पक्ष है।

 

‘कला सहजानुभूति है’ इस परिभाषा से जिस तीसरे निषेध की व्यंजना होती है, वह यह कि कला नैतिक व्यापार नहीं है। वह एक ऐसा व्यापार है जो उच्‍चतर मानसिक क्षेत्र से सम्बन्धित होता है। क्रोचे लिखते हैं, ‘सहजानुभूति एक अमूर्त्त या काल्पनिक व्यापार होने के कारण सभी प्रकार के व्यावहारिक व्यापारों के विरुद्ध होती है। कला संकल्पजन्य नहीं होती, यानी ‘ऐन एक्ट ऑफ विल।’ सत्संकल्प नीतिपरक व्यक्ति का अविच्छिन्‍न गुण है, कलाकार का नहीं। चूँकि कला किसी संकल्प (या इच्छा कह लें) की उपज नहीं होती, इसलिए इस पर नैतिक उहापोह लागू नहीं होते।… एक कलात्मक चित्र नैतिक दृष्टि से श्‍लाघ्य या हेय कार्य को प्रस्तुत करता है; पर वह चित्र, चित्र के रूप में न तो नैतिक दृष्टि से श्‍लाघ्य होता है, न हेय ही। एक चित्र को जेल भेजने या मृत्युदण्ड देने के लिए कोई व्यवस्था नहीं (उपर्युक्‍त, पृ. 13-14)।” यानी कला में नैतिकता, शैक्षिक प्रयोजनशीलता, जीवनादर्शों पर प्रतिबन्ध आदि लागू नहीं है।

 

इस सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण है क्रोचे द्वारा किया गया कला-सम्बन्धी ज्ञान और तर्क-सम्बन्धी ज्ञान का द्विविभाजन। क्रोचे बताते हैं कि ज्ञान के दो रूप हैं – एक तो सहज है और दूसरा तर्क-शक्ति द्वारा प्राप्‍त। अर्थात सहजानुभूत ज्ञान और प्रज्ञामूलक अवधारणात्मक ज्ञान। गर्म वस्तु को छूने से जलन होती है, सहजानुभूत ज्ञान है। अधीनस्थ वर्गों का शोषण अवधारणात्मक ज्ञान है। पहले का सम्बन्ध कल्पना प्रसूत ज्ञान से है, जो चित्र, काव्य, संगीत, नृत्य, प्रेरणा, उच्छ्वास, शब्द, कोमलता आदि से मिलता है। उसे हम मनोभावों के रूप में ग्रहण करते हैं। तर्क ज्ञान का सम्बन्ध वैयक्तिक अथवा सार्वत्रिक (समष्टिगत) ज्ञान, विशिष्ट वस्तुओं का ज्ञान अथवा उनके परस्पर सम्बन्धों का ज्ञान, जिसे हम दार्शनिक सूत्र वचनों अथवा विकल्पात्मक बुद्धि द्वारा प्राप्‍त करते हैं। मस्तिष्क तथा सहज ज्ञान; अथवा तर्क तथा कल्पना; ज्ञान के दो मूल स्त्रोत हैं। ये स्त्रोत भिन्‍न ही नहीं हैं, विरोधी भी हैं। परस्पर शत्रुता की हद तक। सभी ज्ञान अभिव्यंजना है, किन्तु सभी अभिव्यंजना कला नहीं है।

 

क्रोचे ने इनकी परस्पर भिन्‍नता और शत्रु-भाव के विषय में लिखा “सहजानुभूति-कला प्रत्ययमूलक ज्ञान का खण्डन है। अपने सच्चे अर्थात दार्शनिक रूप में प्रत्ययमूलक ज्ञान (कंसेप्चुअल नॉलेज) नित्य यथार्थवादी होता है। इसका ध्येय या तो असत्य के विरुद्ध सत्य की स्थापना करना होता है, या उस (सत्य) के अन्तर्गत निविष्ट करके और उसी का एक उपाश्रित अंग मानकर असत्य का अपक्षय करना। पर सहजानुभूति का अर्थ है किसी चित्र का चित्र-रूप में ग्रहण, चित्र की नितान्त आदर्शमयता (जो चित्रकार-मन में पहले से आदर्श-रूप में प्रतिष्ठित होता है) इस मूलभूत स्वरूप (कला) का स्वतन्त्र अस्तित्व है। इस ज्ञान की उपमा काल्पनिक जीवन के स्वप्‍न (निद्रा नहीं स्वप्‍न) से दी जाती है और दर्शन की उसके जागरण से। अतः सहजानुभूत्यात्मक और प्रत्ययमूलक अथवा बुद्धिपरक ज्ञान परस्पर विरोधी हैं।… आदर्शमयता (वह गुण जो सहजानुभूति को प्रत्यय से, कला को सामान्य प्रत्यय का प्रतिपादन करने वाले दर्शन और घटना-विवरण वाले इतिहास से अलग करती है) कला की अपनी विशेषता है। ज्योंही उस आदर्शमयता से चिन्तन और निर्धारण का विकास होता है, त्योंही कला छिन्‍न-भिन्‍न होकर मर जाती है… (दरअसल) कला में उस चिन्तन का अभाव है, जो पुराण के लिए अनिवार्य है। कला में उस आस्था का अभाव है जो चिन्तन-तत्त्व से उत्पन्‍न होती है। कलाकार अपने चित्र में न तो विश्‍वास करता है और न अविश्‍वास, वह उसका सृजन करता है।” (उपर्युक्‍त, पृ.17-18-19)

इस आदर्शमयता का रहस्य क्या है, जिससे टूट कर कला विपथगा हो जाती है? उसे समझना चाहिए।

  1. सौन्दर्यशास्‍त्र और आदर्शवादी दर्शन

क्रोचे का अखण्ड विश्‍वास है कि कलाकार के मानस में अनेक रूपेण प्रभाव विचरण किया करते हैं और कलाकार सहज ज्ञान द्वारा मानसिक क्षेत्र के अन्दर उसका कलात्मक आनन्द उठाया करते हैं। उनका यह भी विश्‍वास है कि वह कला, जो नीति, सुख या दर्शन पर निर्भर करती है, वह नीति, सुख या दर्शन ही है, कला नहीं। सहजानुभूति के रूप में कला भौतिक जगत और व्यावहारिक, नैतिक और प्रत्ययमूलक व्यापारों से भिन्‍न है, क्योंकि वास्तव में उनका अस्तित्व होता ही नहीं है। इसलिए ‘नग्न अभिव्यंजना का सम्बन्ध विचार और दर्शन (तर्क-वितर्क) से है और अलंकृत अभिव्यंजना का काव्य और कल्पना से।’ (उपर्युक्‍त, पृ.50)

 

क्रोचे का विचार है कि सत्य तथा यथार्थ का केवल एक ही केन्द्र है और वह है, मानव मस्तिष्क। जो विचारक यह समझते हैं कि सत्य और यथार्थ-मनुष्य का अन्तर्बाह्य जीवन-दो रूप हैं, गलती करते हैं। केवल मस्तिष्क में ही दोनों निहित रहते हैं। बाह्य संसार में उनका कोई स्थान नहीं है। दूसरे शब्दों में जो भी हमारे मन में प्रतिष्ठित है, वही सत्य तथा यथार्थ है, और जो भी बाह्य रूप में हमारे सम्मुख स्थित हैं, वह सत्य और यथार्थ से कहीं दूर है। जो कुछ भी बाह्य-रूप हम देखते हैं, उसे मानव-मन ने स्वतः अपनी सहूलियत के लिए निर्मित कर लिया है, क्योंकि इसके द्वारा वह आसानी से अपना कार्य-सम्पादन कर लेता है।

 

दरअसल क्रोचे की सहजानुभूति में निहित दार्शनिकता पुराने प्लेटोवाद का नया भाष्य है। प्लेटो की तरह क्रोचे भी स्वीकार करते हैं कि “जब यह विश्‍वास किया जाता था कि ज्ञान द्वारा अपनी-अपनी आत्मा को ईश्‍वर तक, आदर्श तक, विचारों के संसार तक, प्रत्यक्ष मानवीय संसार से ऊपर निरपेक्ष तत्त्व तक उठाया जा सकता है; और यह स्वाभाविक ही था, उस विचार-तत्त्व का सामना उस सत्य से हो गया, जो सत्य नहीं रहा।” (उपर्युक्‍त, पृ. 72) इसलिए ‘वे युग कविता के विकास के लिए उर्वर नहीं होते, जिनमें गणित और भौतिकशास्‍त्रों का बोलबाला होता है।” (उपर्युक्‍त, पृ. 20) आदर्शमयता ही वास्तविक सत्य है।’ (उपरोक्‍त, पृ. 82) इसमें भ्रान्ति हो सकती है। क्रोचे जोर देकर कहते है कि ‘भ्रान्ति कभी विशुद्ध नहीं होती। और, अगर विशुद्ध हो तो वह सत्य हो जाएगी।’ (उपर्युक्‍त, पृ. 20) अर्थात सत्य विशुद्ध भ्रम होता है, दुनिया भर के आदर्शवादी दार्शनिक इस पर एकमत हैं। वे भौतिकवाद को कला का परम शत्रु मानते हैं।

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने सन् 1935 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चौबीसवें अधिवेशन में साहित्य परिषद् के सभापति पद से एक व्याख्यान दिया था, जो बाद में काव्य में अभिव्यंजनावाद  शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उन्होंने अपने व्याख्यान में क्रोचे के सौन्दर्य-चिन्तन का मर्म समझाया है। सहजानुभूति की कलात्मक अभिव्यंजना के लिए क्रोचे ने कला-सम्बन्धी ज्ञान को स्वयंप्रकाश ज्ञान बताकर प्रत्यक्षमूलक ज्ञान से उसे अलग किया था। आचार्य शुक्ल ने समझाया कि “स्वयंप्रकाश ज्ञान का अभिप्राय है मन में आप से आप, बिना बुद्धि की क्रिया या सोच-विचार के, उठी हुई मूर्त्त भावना, जिसकी वास्तविकता-अवास्तविकता का कोई सवाल नहीं।” (‘सूक्ष्म रूप में सहजानुभूति का अर्थ है सत्यासत्य का अभेद क्रोचे, उपर्युक्‍त, पृ. 17) यह मूर्त्त भावना या कल्पना आत्मा की अपनी क्रिया है, जो दृश्य जगत के नाना रूपों और व्यापारों को (मन में संचित उनकी छापों या संस्कारों को) द्रव्य या उपादान की तरह लेकर हुआ करती है। दृश्य जगत के नाना रूप-व्यापार है, द्रव्य। इसी द्रव्य के सहारे आत्मा की क्रिया मूर्त्त रूप में अपना प्रकाश करती है।… मनुष्य की आत्मा द्रव्य की प्रतीति मात्र करती है, उसकी सृष्टि नहीं करती। आत्मा की अपनी स्वतन्त्र क्रिया है कल्पना, जो रूप का सूक्ष्म साँचा खड़ा करती है और उस साँचे में स्थूल द्रव्य को ढालकर अपनी कृति को गोचर या व्यक्‍त करती है। यह साँचा आत्मा की कृति या आध्यात्मिक वस्तु होने के कारण, परमार्थतः एकारस और स्थिर होता है। उसकी अभिव्यंजना में जो बहुलता दिखाई पड़ती है, वह स्थूल ‘द्रव्य’ के कारण; और वह परिवर्तनशील होता है। कला के क्षेत्र में यही ‘साँचा’ (Form) सब कुछ है; ‘द्रव्य’ या सामग्री ध्यान देने की वस्तु नहीं।

 

“स्वयंप्रकाश ज्ञान का साँचे में ढलकर व्यक्‍त होना ही कल्पना है, और कल्पना ही मूल अभिव्यंजना है जो भीतर होती है, और शब्द रंग आदि द्वारा बाहर प्रकाशित की जाती है।” (मुद्रक पं. जानकी शरण त्रिपाठी, सूर्य प्रेस, काशी, 1935, पृ.  20-21) क्रोचे ने कलात्मक सहजानुभूति और अभिव्यक्ति-अभिव्यंजना के बीच के को स्‍पष्‍ट किया है।

  1. सहाजानुभूति और अभिव्यंजना

क्रोचे का तर्क है कि अभिव्यंजना सिर्फ रूप की होती है। कला-सृजन में रूप-निर्माण में अभिव्यंजना की स्वाभाविक क्षमता होती है। रेखा, रंग, ध्वनि, चित्र, संगीत, वाग्मिता आदि द्वारा अभिव्यंजना-क्रिया पूरी होती है, क्योंकि सहजानुभूति अभिव्यंजना के रूपों के साथ जन्म लेती है। मसलन रेखागणित या अंकगणित की सहजानुभूति हमें तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि उसका कोई ऐसा रूप न हो जिसे कागज पर उतारा न जा सके। भावों के रूपाकृति में ढलने के क्षणों में ही व्यक्ति को रूप के आन्तरिक प्रकाश का अनुभव होता है। यह आन्तरिक प्रकाश प्रातिभ ज्ञान या ‘इण्ट्यूशन’ है, जो अकस्मात उदित होकर प्रकट होता है।

 

क्रोचे का पुनः तर्क है कि यदि स्वयं प्रकाश ज्ञान, प्रातिभ ज्ञान का सचमुच उदय हुआ है, भीतर उसकी अभिव्यंजना हुई है, तो वह बाहर प्रकाशित हुए बिना नहीं रह सकती। जो भावना या कल्पना व्यक्‍त नहीं हुआ, उसका पूर्ण परिपाक नहीं हुई। अतः क्रोचे इस तर्क को नहीं मानते कि कवि के मन में बहुत सारी भावनाएँ थीं, जिन्हें वह अच्छी तरह व्यक्‍त नहीं कर सका।

 

सहजानुभूति और अभिव्यंजना अभेद हैं। इसी आधार पर वह साहित्य-विधाओं के वर्गीकरण को निरर्थक मानते हैं। “वे कला की सिद्धि में कोई योग न देकर केवल तर्क या शास्‍त्र पक्ष में सहायक होते हैं। इन सबका मूल्य केवल वैज्ञानिक समीक्षा में है, कला निरूपिणी समीक्षा में नहीं।” (रामचन्द्र शुक्ल, उपर्युक्‍त, पृ. 22-23)  इसी तर्क से वह मुक्‍तक सुखान्तिकी-दुःखान्तिकी, रोमांस, महाकाव्य, ग्राम्यगीत, हास्य, चित्रकला, संगीत कला, शिल्प कला, नाटक आदि के रूप में किए गए विभेदों को खारिज करते हैं। उनका दृढ़ विश्‍वास है कि “कला के विशिष्ट रूपों में विभेद किया जा सकता, उनमें से प्रत्येक को अपने विशिष्ट प्रत्यय और अपनी विशिष्ट सीमाओं में निर्धारित किया जा सकता है; भ्रान्तिपूर्ण सिद्धान्त है।” (सौन्दर्यशास्‍त्र के मूल तत्त्व, पूर्वोक्‍त, पृ. 53)

 

ऐसा क्रोचे को दो कारणों से प्रतीत होता है। एक तो ‘विभेदों और कलाओं के बीच न्यायसंगत सीमा-रेखा खींचना असम्भव हो जाता है – (तथा) उनकी सभी परिभाषाओं की जब सूक्ष्म रूप से परीक्षा की जाती है, तो वे या तो कला की व्यापक परिभाषा में विलीन हो जाती है, या तर्क के कठोर स्तर पर इन विभेदों और नियमों को उठा दिया जाता है, (जो प्रत्ययमूलकता कला का प्राण ही नहीं है)।’ (उपर्युक्‍त, पृ.56) दूसरा, कि विभेद के परिणामस्वरूप ‘कला के लिए सुनिश्‍चित क्षेत्र नियुक्‍त हो जाने पर कौन-सा ‘विभेद’ और कौन-सी कला उच्‍चतर है।’ (उपर्युक्‍त) का प्रश्‍न खड़ा हो जाता है।

 

इसका समाहार क्रोचे ने यह कहकर किया कि “कला सहजानुभूति या गीतात्मक सहाजनुभूति है, इस धारणा का ही पक्ष है; और चूँकि एक कलाकृत्ति एक मनःस्थिति को अभिव्यंजित करती है, और वह मनःस्थिति सदैव व्यक्तिगत और नवीन होती है; अतएव ‘सहजानुभूति’ से अनन्त सहजानुभूतियाँ उपलक्षित होती हैं, जिन्हें ‘विभेदों’ के कठघरे में तब कर बन्द नहीं किया जा सकता, जब तक उसमें अनन्त कठघरे न हों, और इस प्रकार ‘विभेदों’ के नहीं, अपितु सहजानुभूतियों के कठघरे (उपर्युक्‍त, पृ. 57)।” चूँकि कला की गुणवत्ता उसके अलंकारादि बाह्य उपकरणों से तय नहीं होती, आत्मा पर उसके पड़ने वाले प्रभाव से तय होती है, इसलिए अभिव्यंजना के भौतिक साधनों अथवा इसी तरह के दूसरे विभेद और वर्गीकरण निरर्थक हैं। इसका अर्थ यह है कि कला-विभाजन के सभी सिद्धान्त निराधार हैं। एतदर्थ केवल एक विभेद या वर्ग है, वह है स्वयंकला या सहजानुभूति। अतः क्रोचे की स्थापना है कि “सहजानुभूत ज्ञान अभिव्यंजनात्मक ज्ञान है। वह बौद्धिक क्रिया से स्वतन्त्र और स्वायत्त है, परवर्ती अनुभवाश्रित प्रभेदों, यथार्थ और अयथार्थ, स्थान और काल के रूप-संघटनों और अवबोधन के प्रति वह उदासीन है। सहजानुभूति अथवा प्रातिभ ज्ञान रूप है और इसलिए उससे भिन्‍न जो अनुभव है, वह संवेदन के प्रवाह अथवा तरंग से भिन्‍न है, वह मानसिक वस्तु से भिन्‍न है। यह रूप, यह अधिकृत अभिव्यंजना है। सहजानुभूति होना अभिव्यंजित होना है, और सिर्फ अभिव्यंजित होना है इससे न कुछ अधिक न कम।” (सम्पादक – डॉ. नगेन्द्र, पाश्‍चात्य काव्यशास्‍त्र – सिद्धान्त और वाद, हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्‍वविद्यालय प्रकाशन, पृ.201, इस्थेटिक  से मूल विचारों के अनुवाद से)

  1. सौन्दर्य : रूप और अन्तर्वस्तु का सम्बन्ध

क्रोचे ने कला में ‘सुन्दर’ शब्द को एक विशेष अर्थ में स्वीकार किया है। चूँकि कला में सुखात्मक-दुःखात्मक, उपयोगी, लाभकारी-हानिकारक का कोई मूल्य नहीं है, नैतिकता-अनैतिकता का कोई स्थान नहीं है, ये सब मनुष्य की व्यवसायात्मिका बुद्धि के चमत्कार हैं, इसलिए काव्य और कला का मूल्य सिर्फ ‘सुन्दर’ शब्द से बताया जा सकता है। वहाँ सुन्दर से अभिप्राय सिर्फ अभिव्यंजना के सौन्दर्य से है, उक्ति कौशल से है, न कि किसी वस्तु या प्रस्तुत के सौन्दर्य से। भौतिक सृजन में, रूपनिर्माण में, अभिव्यक्‍त कौशल में स्वयं-प्रकाश्य आत्मा में सौन्दर्य है। भौतिक जीवन में सौन्दर्य नहीं होता। जब वह वक्रोक्ति आदि उक्ति वैचित्र्य में प्रकट होता है, तो सुन्दर दिखाई देने लगता है। दैनन्दिन अनुभवों को क्रोचे ने सौन्दर्य से बाहर रखा। कला में सुन्दर-असुन्दर दोनों उक्ति ही है, अभिव्यंजना की उक्ति के स्वरूप में है।

 

क्रोचे मानते हैं कि सहजानुभूति सिर्फ रूप की होती है, वस्तु या प्रस्तुत विधान की नहीं। भौतिक अभिव्यंजनाएँ, जैसे कवि के शब्द, चित्रकार की खींची गई आकृतियाँ (सौन्दर्यात्मक कृति) सदैव आन्तरिक होती हैं, और जिसे बहिर्गत कहा जाता है, वह कलाकृति नहीं। सहजानुभूति अभिव्यंजना के लिए अपने अनुकूल सहजानुभूत रूप की कल्प-सृष्टि करती चलती है क्योंकि उसकी प्रकृति ही रूपात्मक होती है।

  1. निष्कर्ष

सहज निष्कर्ष निकलता है कि सौन्दर्य-सिद्धि रूप-सिद्धि है। वह एक मानसिक क्रिया है जो जीवनानुभवों से स्वतन्त्र होकर कलात्मक अभिव्यक्ति के स्थान का अधिकारी होता है, उसकी पूर्ण स्वायत्तता की रचना करता है। क्रोचे की दृष्टि में कलाकार के अनुभव का कोई महत्त्व नहीं है। कलाकार के लिए महत्त्वपूर्ण है वह रूप, जिसे वह कल्पना द्वारा आकृति देता है, न कि वे जीवनानुभूतियाँ, जो देश-कालगत परिस्थितियों के अनुकूल नई कला-विधाओं अथवा कला-रूपों को जन्म देती हैं। मसलन आधुनिक काल में देवताओं की दुनिया वाले महाकाव्य विधा की विदाई और समस्यामूलक नायक के साथ आधुनिक उपन्यास का उदय। वस्तुतः क्रोचे का अभिव्यंजनावाद वस्तु के अन्तरंग को बहुरंग बनाए बिना प्रकट करना चाहता है।

 

आचार्य शुक्ल ने क्रोचे के अभिव्यंजनावाद की सीमा बताई है कि उसके अनुसार “कला में अभिव्यंजना ही सब कुछ है – अभिव्यंजना से अलग कोई अन्य अभिव्यंज्य वस्तु या अर्थ नहीं होता। अतः काव्य में उक्ति से अलग कोई दूसरा अर्थ, दूसरी वस्तु, तथ्य या भाव नहीं होता। कवि की उक्ति किसी दूसरी उक्ति का प्रतिनिधि नहीं। जो अर्थ किसी उक्ति के शब्दों से निकलता है उसका सम्बन्ध किसी दूसरे अर्थ से नहीं होता। साहित्य की परिभाषा में इसे यों कह सकते हैं कि काव्य में वाच्यार्थ का कोई व्यंग्यार्थ नहीं होता।” (उपर्युक्‍त, पृ. 17-18) कलावाद की इस संकीर्णता ने साहित्य के मूल्य को रूप, साध, बेल, बूटे, नक्काशी एवं मनोरंजन तक सीमित कर दिया। क्रोचे के सिद्धान्तों की गहरी तत्त्वोन्वेषी दृष्टि से मूल्यांकन करने के बाद आचार्य शुक्ल ने खीझ कर कहा था, ‘कला कला के लिए’ वाली बात को जीर्ण होकर मरे बहुत दिन हुए। एक क्या कई क्रोचे उसे फिर जिला नहीं सकते (उपर्युक्‍त, पृ. 37)।”

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. सौन्दर्यशास्त्र के मूल तत्त्व, राइस संस्थान के व्याख्यानों का हिन्दी अनुवाद, अनुवादक–श्रीकांत खरे, किताब महल, इलाहाबाद।
  2. आलोचक और आलोचना,बच्चन सिंह,विश्वविद्यालय प्रकाशन,वाराणसी
  3. पाश्चात्य काव्य-चिन्तन, करुणाशंकर उपाध्याय,राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. रससिद्धान्त और सौन्दर्यशास्त्र,निर्मला जैन, वाणी प्रकाशन नई दिल्ली
  5. History, as the story of liberty, Benedetto Croce, George Allen & Unwin, London
  6. Aesthetic as science of expression & general linguistic, Benedetto Croce, Rupa & Company, Kolkata.
  7. Expressionism, R. S. Furness, Methuen, London.

 

वेब लिंक्स                                                                      

  1. https://www.youtube.com/watch?v=4_deGUnQQgg
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/Benedetto_Croce
  3. http://www.britannica.com/biography/Benedetto-Croce
  4. http://plato.stanford.edu/entries/croce-aesthetics/