14 कॉलररज : कहिता और काव्यभाषा

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. कॉलरिज के समीक्षा-सिद्धान्तों का प्रमुख स्रोत : बायोग्राफिया लिटरेरिया
  4. काव्य का स्वरूप
  5. कवि कौन होता है?
  6. कविता और छन्द
  7. कविता और काव्यभाषा
  8. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • स्वच्छन्दतावाद के प्रमुख आलोचक कॉलरिज के बारे में जानकारी प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • काव्य के स्वरूप के बारे में कॉलरिज के विचारों से परिचित हो सकेंगे।
  • कॉलरिज के अनुसार कवि कौन है, यह जान पाएँगे।
  • कविता और छन्द के सम्बन्ध को समझ सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

स्वच्छन्दतावाद के प्रवर्तकों में वर्ड्सवर्थ के साथ कॉलरिज (सन् 1772-1834 ईसवी) का नाम बहुत आदर से लिया जाता है। उनका पूरा नाम सेमुअल टेलर कॉलरिज था। उन्होंने अपना साहित्यिक जीवन कवि के रूप में आरम्भ किया। सन् 1798 में उन्होंने वर्ड्सवर्थ के साथ मिलकर एक युगान्तकारी कविता-संग्रह निकाला – लिरिकल बैलेड्स। इसमें अन्य कविताओं के अलावा उनकी प्रसिद्ध कविता एन्शिएण्ट मैरिनर  (प्राचीन मल्लाह) भी थी। किन्तु  शीघ्र ही वे काव्य-रचना से विरत होकर आलोचना की ओर उन्मुख हो गए। आलोचना के लिए यह अच्छा ही हुआ। उन्होंने साहित्य-समीक्षा को दर्शन और मनोविज्ञान से सम्बद्ध किया। उनका अध्ययन व्यापक और गम्भीर था। बायोग्राफिया लिटरेरिया (सन् 1817) उनकी प्रमुख आलोचना-कृति है, जिसमें दर्शन और साहित्य-समीक्षा का संयोग स्पष्ट दिखाई देता है। शेक्सपियर, मिलटन और वर्ड्सवर्थ उनके प्रिय कवि थे और उनकी रचनाओं के गम्भीर अनुशीलन के आधार पर उन्होंने अपने आलोचना-प्रतिमानों का विकास किया था। अपने आलोचनात्मक कृतित्व द्वारा वे रचना के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना चाहते थे। इसी सन्दर्भ में उन्होंने सृजन-प्रक्रिया और कवि-प्रतिभा की सूक्ष्म व्याख्या की और ‘कल्पना’ को स्वच्छन्दतावादी साहित्य के बीज शब्द के रूप में प्रतिष्ठित किया।

  1. कॉलरिज के समीक्षा-सिद्धान्तों का प्रमुख स्रोत : बायोग्राफिया लिटरेरिया

कॉलरिज की एक आकांक्षा यह थी कि वे अपने आलोचना-प्रतिमान दर्शनशास्‍त्र (और मनोविज्ञान) से आकलित करें और फिर उन सिद्धान्तों को साहित्य-समीक्षा में लागू करें। इस आकांक्षा का मूर्त्त रूप हमें उनकी प्रसिद्ध आलोचना-कृति बायोग्राफिया लिटरेरिया (1817) में देखने को मिलता है। बायोग्राफिया लिटरेरिया का शाब्दिक अर्थ है ‘साहित्यिक जीवनी’। यह एकमात्र आलोचना-कृति है, जो उनके जीवन-काल में प्रकाशित हुई।

 

बायोग्राफिया लिटरेरिया की कई बार यह कहकर आलोचना की गई है कि इसमें कोई आन्तरिक संगति नहीं है। जीवनी, रेखाचित्र, संस्मरण, पत्रकारिता, दर्शन, मनोविज्ञान, साहित्य-समीक्षा आदि सभी कुछ इसमें है लेकिन इसकी विषय-वस्तु इनमें से किसी के अन्तर्गत नहीं अटती। स्वयं कॉलरिज ने इसे ऐसे प्रकीर्ण संग्रह की संज्ञा दी है जिसमें कोई व्यवस्था नहीं है। किन्तु  यदि हम ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि इसमें अपनी तरह की संगति या व्यवस्था है – कॉलरिजीय व्यवस्था। कॉलरिज आवयविक रूप के पक्षधर थे। रचना पर कोई पूर्वनियोजित रूप आरोपित करने के पक्ष में वे नहीं थे। यह रूप, रचना की अन्तर्योजना से, स्वतः विकसित होना चाहिए। द्वन्द्वात्मक रूप में। पौधे की मानिन्द, अथवा सजीव प्राणी की तरह। साथ ही वे संरचना के भी पक्षधर थे, जो काफी हद तक पूर्वनियोजित होती है। कॉलरिज का मूल द्वन्द्व यही है, अर्थात् रचना सहज भी हो और विवेक-नियन्त्रित (संरचनात्मक) भी। शायद हर बड़े रचनाकार में यह द्वन्द्व देखने को मिलेगा। इसी द्वन्द्व या कशमकश से बायोग्राफिया लिटरेरिया का रूप आकार ग्रहण करता है।

 

एक प्रकार की लय के रूप में कॉलरिज के दिमाग में यह बात थी कि वे आलोचना को दर्शन से सम्बद्ध करें। आलोचना और दर्शनशास्‍त्र में गठबन्धन हो। “कोई भी कवि गम्भीर दार्शनिक हुए बिना महाकवि नहीं हो सकता”, ऐसा वे मानते थे। अतः यह गठबन्धन आलोचना में भी प्रतिफलित होना चाहिए। सिद्धान्त ग्रहण किए जाएँ दर्शन से, उन्हें लागू किया जाए व्यावहारिक आलोचना में। बायोग्राफिया लिटरेरिया के मूल ढाँचे में ही यह गठबन्धन दृश्यमान है। इसका पूर्वार्ध (बारहवें अध्याय तक) दर्शनशास्‍त्र से सम्बद्ध है, उत्तरार्ध (अध्याय चौदह से बाईस तक) व्यावहारिक आलोचना से, जिसमें दर्शनशास्‍त्र से आकलित सिद्धान्तों को शेक्सपियर की, और विशेष रूप से वर्ड्सवर्थ की, कविता पर लागू किया गया है। बीच में एक (तेरहवाँ) अध्याय कल्पना पर है, जो दर्शन और आलोचना के बीच सेतु का काम करता है, उन दोनों को जोड़ता है। यों भी कल्पना का सम्बन्ध साहित्य और दर्शन दोनों से है। पुस्तक की रूप-योजना में कल्पना की केन्द्रीय स्थिति, कॉलरिज के चिन्तन में और सामान्य रूप से स्वच्छन्दतावादी काव्य में, कल्पना की केन्द्रीय भूमिका को रेखांकित करती है। अतः कहना चाहिए कि बायोग्राफिया लिटरेरिया के रूप-विन्यास में व्यवस्था तो है, किन्तु वह व्यवस्था भी कॉलरिजीय है, रूप के बारे में कॉलरिज की अपनी धारणा के अनुरूप। आवयविक विकास की तरह, स्वयं वस्तु की अन्तर्योजना से उगी हुई। इसका स्वरूप समस्याधर्मी है। इसमें व्यवस्थित विवेचन पर उतना बल नहीं है जितना समस्या के मूल बिन्दुओं को उभारने पर।

 

बायोग्राफिया लिटरेरिया के पहले से चौथे अध्याय का मूल स्वर आत्मकथात्मक है। पाँचवें से बारहवें अध्याय का मूल स्वर दार्शनिक है। यहाँ वे दर्शन के मूल प्रश्नों पर निगाह जमाते हैं, अर्थात् हम ज्ञान कैसे प्राप्‍त करते हैं? मानव-ज्ञान की सीमाएँ क्या हैं? ज्ञान को नैतिक क्षेत्र में हम कर्म से कैसे जोड़ते हैं? शुद्धबुद्धि (reasons) का ईश्‍वरीय प्रयोजन से क्या सम्बन्ध है। बायोग्राफिया लिटरेरिया का केन्द्रीय भाग तो कल्पना के स्वरूप-विश्‍लेषण (अध्याय 13) से सम्बन्धित है, जहाँ वे कल्पना (इमेजीनेशन) और ललित-कल्पना (फैंसी) में अन्तर स्पष्ट करते हैं। किन्तु वे इस अन्तर तक दर्शनशास्‍त्र के रास्ते से ही पहुँचते हैं। दर्शन के क्षेत्र में कॉलरिज अपनी मानसिक यात्र लॉक, ह्यूम, हार्टले के अनुभववादी दर्शन के प्रभाव से शुरू करते हैं। किन्तु काण्‍ट, फिक्टे, श्‍लेगल बन्धुओं आदि जर्मनी के भाववादी दार्शनिकों के प्रभाव के तहत वे शीघ्र ही अनुभववादी दर्शन की निष्क्रिय-यान्त्रिक दृष्टि का परित्याग कर देते हैं। यह बात दूसरी है कि व्यवहार में वह दृष्टि उनका साथ नहीं छोड़ती। उनके कल्पना-सिद्धान्त में वह ललित-कल्पना के रूप में विद्यमान है। पूर्वार्ध में सबसे महत्त्वपूर्ण है बारहवाँ अध्याय, जहाँ वे अपनी दार्शनिक मान्यताओं के मूल सूत्र बताते हैं। साथ ही, अन्तर्जगत् और बाह्यजगत्, अथवा आत्मपरक और वस्तुपरक की एकता प्रतिपादित करते हैं। कारण, सारा ज्ञान वस्तु के साथ मन के संयोग पर निर्भर है।

 

बायोग्राफिया लिटरेरिया का एक उद्देश्य यदि साहित्य-समीक्षा के सिद्धान्तों को दर्शनशास्‍त्र से आकलित करना था, तो दूसरा उद्देश्य उन सिद्धान्तों को व्यावहारिक समीक्षा में लागू करना था। यह कार्य उन्होंने पुस्तक के उत्तरार्ध (अध्याय 14-22) में सम्पन्‍न किया। चौदहवें अध्याय में वे लिरिकल बैलेड्स की योजना का विवरण देते हैं। साथ ही कविता की परिभाषा, कवि के स्वरूप, कविता में छन्द की भूमिका, विरुद्धों के सामंजस्य के रूप में कल्पना की भूमिका आदि को लेकर कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण बातें कहते हैं। आदर्श कवि की उनकी धारणा का मूर्तिमान रूप है शेक्सपियर। बहुमुखी प्रतिभा के धनी शेक्सपियर के आलोचक के रूप में बायोग्राफिया लिटरेरिया काफी-कुछ नया जोड़ती है। पन्द्रहवें अध्याय में वे कवि-प्रतिमा और श्रेष्ठ काव्य की मूल विशेषताएँ बताते हैं। वह भी आगमनात्मक पद्धति से, शेक्सपियर की कुछ काव्य-पंक्तियों का विश्‍लेषण करके। सत्रहवें अध्याय से बाईसवें अध्याय तक वर्ड्सवर्थ के काव्य की सूक्ष्म और संवेदनशील व्याख्या है। यह एक ऐसे कवि के प्रति कॉलरिज की श्रद्धांजलि है, जिसे वे अपने युग का सर्वश्रेष्ठ कवि मानते थे और जिसके बारे में उन्होंने काफी पहले यह घोषित कर दिया था कि वह शेक्सपियर और मिलटन के बाद अंग्रेजी का तीसरा सबसे बड़ा कवि है। यहाँ हम कॉलरिज को वर्ड्सवर्थ की एक कविता द मैड मदर’ (पगली माँ) पर कल्पना-सिद्धान्त को लागू करते हुए देखते हैं कि इस कविता में कैसे संवेदना के साथ सूक्ष्म-गहन विचारों का सामंजस्य घटित किया गया है। साथ ही, उसमें कैसे एक बिम्ब या अनुभूति अनेक बिम्बों या अनुभूतियों को स्पष्ट करती है और एक प्रकार के समन्वय द्वारा अनेक बिम्बों या अनुभूतियों को बलात् मिलाकर एक कर देती है। वर्ड्सवर्थ के काव्य की इस मीमांसा में उन्होंने वर्ड्सवर्थ की अनेक रंगों की कविताओं से प्रचुर उदाहरण देते हुए उनके सौन्दर्य का उद्घाटन किया है।

  1. काव्य का स्वरूप

वर्ड्सवर्थ ने कविता को, ‘तीव्र मनोवेगों का सहज उच्छलन’  कहा था और ऐसा कहकर उन्होंने कविता में भाव की केन्द्रीयता स्थापित की थी। उनका कथन सीधा-सादा है, एक हद तक सपाट भी। यदि आप चाहें तो अपनी तरफ से इसमें संश्‍ल‍िष्टता का संयोग कर सकते हैं। यह कहकर कि इस ‘उच्छलन’ के पीछे जो दबाव होता है, वह अचेतन का दबाव होता है, जिसकी पहुँच हमारे सामूहिक अचेतन तक है। कॉलरिज ने भी कविता में भाव को महत्त्व दिया, किन्तु उनकी कथन-भंगिमा में संश्‍ल‍िष्टता कहीं ज्यादा है। उनके अनुसार अच्छी कविता में भाव का होना भर काफी नहीं है। जरूरी यह है कि यह भाव ‘मनोवेगों के सतत अन्तःप्रवाह’ के रूप में हो। यह मौजूद तो रचना के हर अंग में हो, किन्तु अलग चमत्कार-बिन्दु के रूप में बिरले ही हो। यहाँ भाव के साथ-साथ संरचना का संकेत भी है, जो कि बुद्धिगम्य है। श्रेष्ठ कविता में भाव पूरी रचना में व्याप्‍त रहता है, वह कहीं अलग से, अलग चमत्कार-बिन्दु के रूप में, केन्द्रित नहीं होता। कविता कल्पना का शाब्दिक प्रतिरूप है। यह वह “उदात्त शक्ति है जिसके द्वारा कोई महान प्रतिभा वही रूप ग्रहण कर लेती है, जिसका वह अनुचिन्तन करती है।” कविता को परिभाषित करते समय उन्होंने संरचना के महत्त्व को और भी खुलकर रेखांकित किया है।

 

गद्य और कविता दोनों का माध्यम तो एक ही है। दोनों माध्यम रूप में शब्दों का प्रयोग करते हैं। किन्तु दोनों का प्रयोजन भिन्‍न है। अपने प्रयोजन के अनुरूप दोनों शब्दों का विन्यास अलग ढंग से करते हैं। इसी प्रयोजन और विन्यास को आधार बनाकर कॉलरिज ने कविता को इन शब्दों में परिभाषित किया – “कविता रचना का वह प्रकार है, जो वैज्ञानिक कृतियों से तो इस अर्थ में भिन्‍न है कि इसका तात्कालिक प्रयोजन आनन्द है, सत्य नहीं। साथ ही रचना के अन्य सभी प्रकारों से इसका अन्तर यह है कि इसमें पूरी रचना से वही आनन्द प्राप्‍त होना चाहिए, जो उसके हर घटक से प्राप्‍त होने वाले परितोष के अनुरूप हो।”  यहाँ स्पष्ट ही कविता का जो रूप कॉलरिज के दिमाग में है, वह अधिक संश्‍ल‍िष्ट है। इसमें कई बातें ध्यान देने योग्य हैं। परिभाषा के पहले भाग में कॉलरिज ने रचनात्मक साहित्य और ज्ञान के साहित्य के बीच, ‘काव्य’ और ‘शास्‍त्र’ के बीच, अन्तर स्पष्ट किया है। प्रत्येक का एक तात्कालिक प्रयोजन है, दूसरा आत्यन्तिक। काव्य का (और कविता का भी) तात्कालिक प्रयोजन है आनन्द और शास्‍त्र या वैज्ञानिक कृति का तात्कालिक प्रयोजन है सत्य। कविता जो आनन्द प्रदान करती है, उसी से उसका मूल स्वरूप निर्धारित होता है, उसके आत्यन्तिक प्रयोजन से नहीं। इस आनन्द तत्त्व पर कॉलरिज का विशेष बल है। किसी कविता से जो आनन्द मिल रहा है उसका स्रोत क्या है, इस आधार पर वे उस कविता की गुणवत्ता आँकते थे। यों काव्य में कोई गम्भीर सत्य निहित हो सकता है और कोई वैज्ञानिक रचना अपने पाठक को आनन्द प्रदान कर सकती है। ये उनके आत्यन्तिक प्रयोजन हैं, तात्कालिक नहीं।

 

परिभाषा के दूसरे भाग में कॉलरिज ने कविता और रचनात्मक साहित्य के अन्य प्रकारों (नाटक, उपन्यास आदि) में अन्तर स्पष्ट करते हुए कविता की विशेषता रेखांकित की है। आनन्द तो दोनों में सामान्य है। किन्तु कविता में उसके अंगभूत हर घटक से भी स्पष्ट आनन्द की अनुभूति होगी और यह आनन्द कुल मिलाकर पूरी कविता के आनन्द के अनुरूप होगा। यहाँ स्पष्ट ही बल संरचनात्मक गठन पर है। “एक सुगठित रचना के सभी अंग अनिवार्य रूप से अपने से अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रमुख अंगों में समाहित होने चाहिए।” साहित्य की अन्य विधाएँ इतनी सुगठित नहीं होतीं। अन्यत्र उन्होंने गद्य और कविता का अन्तर बताते हुए लिखा – “गद्य शब्दों का उत्तम क्रम विधान है, कविता उत्तमोत्तम शब्दों का उत्तमोत्तम क्रमविधान है।”

 

कॉलरिज ने कविता में प्रगीत तत्त्व पर पर्याप्‍त बल दिया है और कई बार प्रगीतात्मकता को कवित्व का पर्याय माना है। इसी आधार पर वे लम्बी कविता का अस्तित्व नहीं मानते – “लम्बी कविता पूरी-की-पूरी न तो कवित्वपूर्ण हो सकती है और न होनी चाहिए।” यहाँ ‘न होनी चाहिए’ पदबन्ध ध्यान देने योग्य है। यह कॉलरिज जैसे महान आलोचक ही लिख सकते थे। अमरीकी कवि एडगर एलन पो ने कुछ समय बाद एक कदम और आगे बढ़कर कहा कि लम्बी कविता जैसी कोई चीज वास्तव में होती ही नहीं। कारण, भावावेग की जितनी मात्र उसे कविता कहलाने का अधिकारी बनाएगी उसे लम्बी रचना में कायम नहीं रखा जा सकता। पो कॉलरिज से बहुत प्रभावित भी थे। किन्तु दोनों में यहाँ थोड़ा अन्तर है। जहाँ कॉलरिज को लम्बी कविता रचे जाने के प्रति कोई आपत्ति नहीं है, वहाँ पो लम्बी कविता के अस्तित्व से ही इनकार करते हैं। कॉलरिज का मानना है कि जिन अंशों में काव्यात्मकता नहीं होगी, उनमें छन्द के प्रभाव से काव्यात्मकता का संचार हो जाएगा। आधुनिकबोध को प्रभावित करने वाली एक बात कॉलरिज ने यह कही कि काव्य सबसे ज्यादा आनन्द तभी प्रदान करता है जब उसे सामान्य तौर पर समझा जाए, पूरी तरह नहीं। यही बात कवि पर भी लागू होती है। जो यह कहे कि जो कुछ हमारे भीतर था वह सब हमारी कविता में आ गया है, उसमें काव्यानुभूति का अभाव समझना चाहिए।

  1. कवि कौन होता है ?

वर्ड्सवर्थ के समान कॉलरिज ने भी कवि के स्वरूप पर विचार किया है। ‘कवि कौन होता है?’ यह जानकर भी हमें कविता का स्वरूप समझने में मदद मिलती है। वर्ड्सवर्थ और कॉलरिज दोनों यह मानने को तैयार नहीं हैं कि कवि कोई विशिष्टवर्गीय प्राणी है। वास्तव में वह व्यापक मानवता का ही अंग है, उससे कटा हुआ नहीं है। इसीलिए कॉलरिज ने कल्पना को मानव-मात्र से सम्बद्ध माना है – वह हमारे इन्द्रियबोध का आधार है। साथ ही मुख्य कल्पना (जो मानवमात्र में होती है) और गौण (विधायक) कल्पना (जो रचनाकार में होती है) के बीच कोई प्रकारगत या गुणात्मक अन्तर वे नहीं मानते। उनमें जो भेद है वह ‘मात्रा और कार्यपद्धति’ का है।

 

वर्ड्सवर्थ ने कवि का निर्माण करने वाले जिन प्रमुख गुणों की पीछे चर्चा की है, उसमें यह निहित है कि कवि और सामान्य जनों में कोई गुणात्मक अन्तर नहीं है। वह अन्तर केवल मात्रा का है। दोनों में मूल अन्तर यह है कि कवि में, भाव और विचार की दृष्टि से, संवेदनशीलता की मात्रा अधिक होती है, जिससे वह किसी तात्कालिक बाह्य उत्तेजना के बिना ही अधिक शीघ्रता से प्रभावित हो सकता है। साथ ही उसके मन में जो भाव और विचार होते हैं, उन्हें वह अधिक सशक्‍त रूप में व्यक्‍त कर सकता है। यहाँ वर्ड्सवर्थ ने कवि के बारे में जो कुछ कहा है, उसे वर्ड्सवर्थ के साथ-साथ कॉलरिज की तरफ से भी माना जाना चाहिए। आखिर आमुख ‘एक हद तक कॉलरिज का भी मानसपुत्र’ था।

 

कविकर्म के सन्दर्भ में कॉलरिज ने संश्‍ल‍िष्टता और सम्पूर्णता को बहुत महत्त्व दिया है। आम जीवन में भी हम एक ही प्रयोजन लेकर कुछ भी नहीं करते। यही वजह है कि उनका आदर्श कवि कल्पनादर्शी न होकर संश्‍ल‍िष्ट व्यक्तित्व का धनी है –“अपने आदर्श रूप में कवि मानव की सम्पूर्ण आत्मा को गतिशील करता है और ऐसा करते समय वह उसकी शक्तियों को, उनके सापेक्षिक मूल्य और गरिमा के अनुरूप, एक-दूसरे के अधीन रखता है। पुनः यहाँ बल संरचना पर है अंगांगीभाव से पुष्ट पूर्णता पर। आत्मकेन्द्रित व्यक्ति इस सम्पूर्णता को हासिल नहीं कर सकता। कॉलरिज जिस सम्पूर्णता की चेतना की बात करते हैं वह व्यक्ति के इस बोध पर आधारित है कि सम्पूर्ण विश्‍व में एक ही शक्ति व्याप्‍त है। सन् 1803 में उन्होंने लिखा – “धूमिल विवेक पूर्ण एकता देखता है, शुद्ध विवेक सचेत रूप में इस शक्ति का दर्शन करता है। भेद और अनेकता तो मध्यवर्ती स्थिति है।” इस समग्रता के अभाव में सभी चीजें अमूर्त्र और विच्छिन्‍न दिखाई देंगी। यथार्थ चित्रण के लिए यह समग्र दृष्टि आवश्यक है – “सब-कुछ एक अनन्त गतिशील अमूर्त्रता है। सम्पूर्णता ही यथार्थ है।” कवि कर्म की आधारभूत शक्ति ‘कल्पना’, यही समग्र दृष्टि हासिल करने के लिए संघर्ष करती रहती है।

 

इस सम्पूर्णता पर बल देने के पीछे कुछ सामाजिक कारण भी हैं। नव्यशास्‍त्रवादी युग (अठारहवीं सदी) में एक आदर्श पाठक की कल्पना की गई थी। इस युग के प्रतिनिधि आलोचक डॉ. जॉनसन बराबर इस सामान्य पाठक की अभिरुचि को सम्बोधित करने की बात कहते हैं। कॉलरिज के सामने कोई सामान्य या आदर्श पाठक वर्ग नहीं है। औद्योगिक क्रान्ति के प्रभाव से एक विशाल पाठक वर्ग सामने आ रहा था, जिसमें पर्याप्‍त विविधता थी। व्यापक उथल-पुथल अथवा, कॉलरिज के शब्दों में, ‘दुश्‍च‍िन्ताओं के युग’ में, ऐसे भाव नहीं हो सकते थे ‘जिनकी प्रतिध्वनि हर हृदय में’ सुनाई दे। जो साहित्य इस नए पाठक वर्ग को सम्बोधित हो उसमें पर्याप्‍त विविधता वांछनीय थी। तभी वह औद्योगिक क्रान्ति के बाद आने वाले विविध और व्यापक पाठक वर्ग को चालित कर सकता था। सम्पूर्णता पर बल देने के पीछे इसी विविधता की आकांक्षा है। यह कॉलरिज का व्यक्तिगत आदर्श भी है।

 

विविधता के साथ-साथ कॉलरिज ने एकता पर भी बहुत बल दिया है। विविधता में एकता का मूर्तिमान रूप है कवि और कवि-कल्पना। कवि कौन होता है, कला का स्वरूप क्या है और पाठक पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, इन तीनों समस्याओं पर कॉलरिज एक ही सिद्धान्त लागू करना चाहते हैं। यह सिद्धान्त है एकता या अन्विति का सिद्धान्त। स्वयं जीवन को उन्होंने ऐसी शक्ति के रूप में परिभाषित किया है जो सभी चीजों को एक इकाई में ढालती है, ऐसी इकाई जिसके सभी अंगों में उसका पूर्वानुमान निहित है। एकता के अभाव में विविधता कोई समग्र प्रभाव नहीं छोड़ सकती। उन्होंने जोर देकर कहा है कि “सम्पूर्ण विवेक का लक्ष्य और प्रयोजन एकता और व्यवस्था है।” बल्कि “मानवीय विचार और मानवीय संवेदना का अन्तिम लक्ष्य एकता ही है।” इस सन्दर्भ में उन्होंने जेरेमी टेलर को उद्धृत किया है – “जिसके लिए सभी चीजें एक हैं, जो सभी चीजों को एक में और एक ही चीज में सभी चीजों को देखता है उसे सच्ची शान्ति प्राप्‍त होती है।” यहाँ कॉलरिज वेदान्ती की तरह विचार करते दिखाई देते हैं। किन्तु ध्यान रहे कि इस एकता के अन्तर्गत भेद भी शामिल है हालाँकि यह भेद पूर्ण विरोध या अलगाव का सूचक नहीं है। तर्क यह है कि सम्पूर्ण इकाई घटकों का योग होते हुए भी उस योग से कुछ अधिक होती है। इस धारणा पर कॉलरिज द्वन्द्ववाद को लागू करते हैं वाद, विवाद और संवाद के रूप में। यही विरुद्धों का सामंजस्य है।

 

कॉलरिज के अनुसार, श्रेष्ठ काव्य में जो एकता होती है, वह आवयविक या जैविक एकता होती है, यान्त्रिक नहीं। अठारहवीं सदी की नव्यशास्‍त्रवादी यान्त्रिक पद्धति के स्थान पर उन्होंने साहित्य को एक जीवित इकाई के रूप में समझने-समझाने का प्रयास किया। कविता कोई मशीन नहीं है, जिसके हिस्सों को आप जब चाहें तब अलग-अलग कर दें और फिर उन्हें जोड़ दें। कविता एक जैविक इकाई-जैसी चीज है। उसके विभिन्‍न अंगों में अंगांगीभाव या जैविक सम्बन्ध रहता है। इसके किसी अंग को निकाल देने पर विभिन्‍न अंगों का पारस्परिक सम्बन्ध तो प्रभावित होगा ही, समग्र रचना पर भी इसका घातक असर पड़ेगा – “किसी जैविक इकाई में सुन्दर-से-सुन्दर शरीर के सर्वोत्तम अंग को भी यदि अपने स्थान से काटकर अलग कर दिया जाए तो वह एकदम विरूप और भयावह दिखाई देगा।” अतः श्रेष्ठ कविता में किसी अंश को आप मनमाने ढंग से निकाल नहीं सकते। छन्द भी भाव को निरन्तरता प्रदान कर इस आवयविकता को पुष्ट करता है। शेक्सपियर जैसे बड़े रचनाकारों के समग्र रचना-संसार में आवयविकता का यह गुण देखने को मिलता है। इस गुण की वजह से आप उसकी रचना के किसी अंश को पूरी रचना के सन्दर्भ के बिना, और किसी एक रचना को उसके समग्र रचना-संसार को ध्यान में रखे बिना, समझ नहीं सकते। मेरे गीत और कला  निबन्ध में निराला ने अपनी कविताओं में इसी काव्य-गुण की ओर इशारा किया है और पन्त जी की कविताओं में इस गुण का प्रायः अभाव बताया है। आलोचना के सन्दर्भ में इसका निहितार्थ यह है कि सृजनशीलता या कल्पना कभी निरंकुश नहीं होती। एक बार को वह ‘नियतिकृत नियमों’ का अतिक्रमण कर सकती है, स्वयं रचना के नियमों का नहीं। रचना स्वयं अपने आन्तरिक नियमों के प्रति जवाबदेह होती है, किन्हीं बाहरी नियमों के प्रति नहीं।

 

अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान कॉलरिज ने अपने शिक्षक (जेम्स बोएर) की यह शिक्षा गाँठ बाँध ली थी कि “कविता का भी अपना निजी तर्क होता है जो विज्ञान के तर्क की ही तरह सुनिश्‍च‍ित और सटीक होता है।” अतः आलोचना करते समय रचना के नियम स्वयं रचना से निकलने चाहिए। उन्होंने लिखा – “कल्पना के नियम के स्वयं उद्भव और विकास की शक्तियाँ ही हैं।” उन शक्तियों को शब्दों की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता। शब्द तो उनकी रूपरेखा या बाहरी सादृश्य भर प्रस्तुत करते हैं। यदि कविता के नियम बाहर से ग्रहण किए गए (जैसे कि नव्यशस्‍त्रवादी युग में ग्रहण किए गए थे) तो कविता, कविता न रहकर, एक यान्त्रिक कला भर बनकर रह जाएगी। वह निर्मिति तो होगी, सृजन नहीं। उनके अनुसार काव्य-प्रतिभा एक ऐसे पौधे की तरह होती है, जो अत्यन्त कोमल-संवेदनशील तो है ही, अत्यन्त विरल भी है। शेक्सपियर पर अपने एक व्याख्यान में आवयविक (जैविक) कला और यान्त्रिक कला में अन्तर स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा – “जब हम किसी दी हुई सामग्री पर ऐसा पूर्वनिर्धारित रूप आरोपित कर देते हैं जो अनिवार्य रूप से उस सामग्री के मूल गुणों से न उपजा हो तो वह यान्त्रिक रूप कहलाएगा। इसके विपरीत जैविक या आवयविक रूप अन्तर्जात या सहज होता है। जैसे-जैसे अन्दर से इसका विकास होता है, वह आकार ग्रहण करता जाता है और उसके विकास की पूर्णता बाह्य रूप की पूर्णता के समरूप होगी। जैसा जीवन है, वैसा ही कविता का रूप है।” इसलिए जिस रचना में आवयविकता का यह गुण है उसके विभिन्‍न अंशों का पूरी रचना के सन्दर्भ को ध्यान में रखे बिना, आनन्द नहीं लिया जा सकता।

  1. कविता और छन्द

कॉलरिज ने कविता में भावावेग को बार-बार रेखांकित किया है। कविता को आवेगरूप होना ही चाहिए। काव्य-तकनीक के दो प्रमुख पक्षों पर इस भावावेग का प्रभाव देखा जा सकता है – अलंकृत भाषा और छन्द पर। तीव्र मनोवेगों को व्यक्‍त करने के लिए अलंकृत भाषा चाहिए। आम बोलचाल में जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है उसकी तुलना में भावदीप्‍त भाषा अधिक नपी-तुली और संयत होती है। स्वयं छन्द का सम्बन्ध भावदीप्‍त मनोदशा से है।

 

कॉलरिज ने छन्द के बारे में जो बातें कही हैं उनमें उनकी प्रतिभा का प्रमाण मिलता है। वर्ड्सवर्थ ने छन्द को कविता के आभ्यन्तर स्वरूप का अंग नहीं माना था। उनके अनुसार छन्द का आकर्षण ऊपरी चीज है। यह अनिवार्य नहीं है। कॉलरिज ने वर्ड्सवर्थ की इस मान्यता का विरोध करते हुए छन्द की उत्पत्ति और प्रभाव पर विचार किया। कॉलरिज के अनुसार भाव की गतिविधियों को नियन्त्रण में रखने के सहज प्रयास के प्रभाव से जो मानसिक सन्तुलन आता है, उसी से छन्द की उत्पत्ति होती है। आगे चलकर वे छन्द का सम्बन्ध भावदीप्‍त मनोदशा से जोड़ते हैं। इन दोनों स्थितियों में परस्पर विरोध है, किन्तु यह कॉलरिज की विवेचन-पद्धति के अनुरूप है। काव्य-प्रक्रिया की तरह छन्द में भी वे दो पक्ष देखते हैं। एक उसका स्वतःस्फूर्त पक्ष है, दूसरा विवेक-नियन्त्रित। छन्द का सम्बन्ध चूँकि भावदीप्‍त मनोदशा से है, अतः इसमें एक प्रकार की सहजता होती है। दूसरे, कविता में विभिन्‍न तत्त्व कृत्रिम रूप से, चेतन क्रिया द्वारा, छन्द में ढलते हैं। यह प्रक्रिया संज्ञान और इच्छाशक्ति के अधीन है। इसलिए छन्द चेतन भी है और अचेतन भी, स्वतःस्फूर्त भी है और विवेक-नियन्त्रित भी। इन दोनों की, चेतन और अचेतन तत्त्वों की, सहभागिता ही काफी नहीं है, सहअस्तित्व और सामंजस्य भी जरूरी है। यहाँ भी बल विरुद्धों के सामंजस्य पर है। छन्द के प्रभाव के विषय में कॉलरिज ने लिखा है कि छन्द सामान्य भावों की संवेदनशीलता में वृद्धि के साथ-साथ पाठक के अवधान को प्रेरित करता है उसके ध्यान को बाँधे रखता है। छन्द हमारी अनुभूति में उत्कर्ष लाता है और परिचित मनोभावों को सामान्यता के स्तर से ऊँचा उठा देता है।

 

छन्द को कविता की वस्तु और भाषा के अनुरूप होना चाहिए, स्मृति की सुविधा के लिए ऊपर से जोड़ा गया अलंकरण भर नहीं। जब छन्द भाषा और वस्तु के अनुरूप होता है, तो कविता के हर घटक की ओर, निरन्तर और स्पष्ट रूप से, ध्यान आकर्षित करता चलता है। वह पाठकीय उत्सुकता को तेजी से परिशान्त और पुनःउद्बुद्ध करता हुआ, एक प्रकार की आनन्दपूर्ण मनोदशा में, अन्त तक आगे बढ़ता जाता है। काव्यास्वाद की इस यात्रा में वह न तो विभिन्‍न घटकों के सौन्दर्य से आकर्षित होकर वहाँ ठहरता है, न इन घटकों से तटस्थ रहकर अन्त की ओर पहुँचने की उसे कोई जल्दी रहती है। यह घटकों से सम्पूर्णता की ओर एक प्रकार की आमोद-यात्रा जैसा है जिसमें वायु से गुजरती हुई ध्वनि-तरंगों की तरह, अथवा सर्प की गति (जिसे मिस्रवासी बौद्धिक शक्ति का प्रतीक मानते थे) की तरह, निरन्तर आगे-पीछे जाना होता है। सर्प चलते समय हर कदम पर रुकता है, थोड़ा पीछे की ओर लौटता है, पीछे की ओर लौटकर शक्ति-संचय करता है और यही शक्ति उसे पुनः आगे की ओर ले जाती है। कुछ-कुछ यही स्थिति काव्य-रचना के समय कवि की, और उसकी रचना का आस्वाद लेते समय संवेदनशील पाठक की होती है। छन्द को अर्थानुगामी, साथ ही काव्य-वस्तु को छन्द के अनुरूप, होना ही चाहिए। यदि काव्यवस्तु छन्द के अनुरूप नहीं हुई तो एक प्रकार का झटका-सा लगता है। यह झटका कुछ-कुछ ऐसा ही है जैसे कि हम अँधेरे में जीने की अन्तिम सीढ़ी से कूदे हों, जबकि हमने अपनी माँसपेशियों को तीन-चार सीढ़ियाँ कूदने के लिए तैयार कर रखा हो।

  1. कविता और काव्यभाषा

काव्यभाषा से सम्बन्धित समस्याओं और शब्द-मीमांसा में कॉलरिज की विशेष रुचि थी। लिरिकल बैलेड्स के दूसरे संस्करण (सन् 1800) के आमुख में वर्ड्सवर्थ ने काव्यभाषा को लेकर जो विचार व्यक्‍त किए थे, उनकी तीखी आलोचना हुई थी। इस आलोचना में भी कॉलरिज ने अग्रणी भूमिका निभाई थी। कॉलरिज के काव्यभाषा सम्बन्धी विचार, मुख्य रूप से, वर्ड्सवर्थ के काव्यभाषा-सम्बन्धी विचारों की आलोचना के सन्दर्भ में आए हैं। काव्यभाषा के अलावा, शैली और शब्द-प्रयोग के विषय में भी कॉलरिज ने महत्त्वपूर्ण बातें कही हैं। अपने अध्ययन और चिन्तन-मनन से उन्होंने दो आलोचनात्मक सूत्र निकाले थे, जिन्हें वे काव्य-शैली का प्रतिमान मानते थे। पहला यह कि “जो कविता हमने पढ़ी भर नहीं है, वरन् अधिकतम आनन्द के साथ जिसे हम बार-बार पढ़ना चाहते हैं, उसी में सच्ची प्रभाव-क्षमता है और वही सही मायनों में कविता कहलाने के योग्य है।” दूसरा सूत्र यह कि “जिन काव्य-पंक्तियों को, उनके साहचर्यगत या भावात्मक अर्थ में कोई कमी लाए बिना, उसी भाषा में दूसरे शब्दों में अनूदित किया जा सके वहाँ तक वे काव्यभाषा की दृष्टि से सदोष हैं।” दूसरे सूत्र में उनके स्कूल-शिक्षक जेम्स बोएर की शिक्षा की प्रतिध्वनि है, जिसके अनुसार सच्चे महाकवियों में “हर शब्द का ही नहीं, हर शब्द की स्थिति का भी कोई-न-कोई कारण होता है।”

 

कविता में ऐसे शब्दों का ही चुनाव करना चाहिए जो वांछित अर्थ को व्यक्‍त करने में अधिकाधिक समर्थ हों। कविता की मृदु-मसृण ध्वनियों और सहज प्रवाह के धोखे में हमें नहीं आ जाना चाहिए, अलंकारों की सजावट के धोखे में। हमें रचना की बुनियाद पर, शब्दों के भीतरी तत्त्व पर, ध्यान देना चाहिए। हमें यह देखना चाहिए कि अलंकार महज बाहरी प्रसाधन या मिथ्या शब्दाडम्बर के सूचक हैं या फिर उनमें रक्‍त की स्वाभाविक लालिमा है, अर्थात् वे सच्‍चे अर्थ के द्योतक हृदय से निकले उद्गार हैं। वर्ड्सवर्थ की काव्यभाषा पर विचार करते समय उन्होंने पुनः कहा कि “निर्दोष शैली का अचूक निकष है उसी भाषा के दूसरे शब्दों में उसकी अननुवाद्यता।” और अर्थ क्या है? “किसी शब्द के अर्थ के अन्तर्गत मैं उसकी सूचक वस्तु को ही नहीं वरन् उससे जुड़ी हुई समस्त अर्थछायाओं को भी शामिल करता हूँ। कारण, केवल वस्तु का बोध कराने के लिए ही भाषा की रचना नहीं की जाती। इसके अलावा, उसके द्वारा उस व्यक्ति के चरित्र, मनोदशा और अभिप्रायों को भी व्यक्‍त किया जाता है, जो उसे प्रस्तुत कर रहा है।” कवि का दायित्व है कि वह अपनी मातृभाषा की शुद्धता की रक्षा करे क्योंकि “भाषा मानव-मन का शस्त्रागार है जिसमें अतीत के विजय-स्मारक और भावी विजय के शस्‍त्र एक-साथ छिपे रहते हैं।” अर्थात् अतीत के प्रयोगों के आधार पर भाषा की शक्तियों का ज्ञान होता है और नए-नए सन्दर्भों में प्रयोग करके उसके अर्थ का विस्तार किया जा सकता है।

 

कभी-कभी कॉलरिज कल्पना की दुनिया में सृजनात्मक शब्दों की चर्चा करते हैं। शब्द अपने-आप में काव्यात्मक या अकाव्यात्मक नहीं होते। प्रयोग द्वारा, चित्रण का अंग बनकर, वे सृजनात्मक आयाम ग्रहण करते हैं। कवि को कल्पना को लक्ष्य में रखकर चित्रण करना चाहिए, ललित-कल्पना को लक्ष्य में रखकर नहीं। ऐसा चित्रण मिलटन में प्रचुरता से मिलेगा –

 

बरगद का पेड़, वह नहीं जो अपने फलों के लिए विख्यात है

वरन् वह जिससे भारतीय जन परिचित हैं

मालाबार या दक्‍कन में, अपनी बाँहें फैलाए

शाखाएँ हैं जिसकी इतनी लम्बी-चौड़ी और विशाल

कि उसकी झुकी हुई टहनियाँ जड़ पकड़ लेती हैं जमीन में

और उग आती हैं अनेक पुत्रियाँ मातृवृक्ष के इर्द-गिर्द

स्तम्भ-सा बनातीं, नीचे शीतल छाया, ऊपर मेहराबें

और बीच-बीच में गुँजरित विहार-स्थल

शीतल छाँव तले जिसकी बैठते हैं भारतीय चरवाहे, चिलचिलाती धूप में

और रखवाली करते रहते हैं अपने पशुओं की

सघन छाया के बीच-बीच दृश्यमान दरारों से।

 

यहाँ जैसे किसी ज्यामितिक साध्य को धीरे-धीरे, एक-एक रेखा खींचते हुए, आकार दिया जा रहा है। इसमें ऐसा लगता है जैसे किसी नक्शे के कटे हुए हिस्सों को उसके खाँचे से बाहर निकाल लिया जाए। पहले हम उसके एक हिस्से को देखते हैं, फिर दूसरे को और इसी प्रक्रिया से उन्हें जोड़कर हम पूरे नक्शे का सामंजस्य बिठा लेते हैं। अवधान की यह प्रक्रिया जब पूरी हो जाती है तो हम पीछे लौटते हैं, और पूरे नक्शे को अपनी सम्पूर्णता में देखते हैं। यह चित्रण नहीं, सृजन है। और यदि यह चित्रण है भी, तो ऐसा चित्रण है जिसमें पूरा चित्र अपनी सम्पूर्णता में हमारी आँखों के सामने कौंध जाता है। यह दृश्य-चित्रण और भी व्यंजक इसलिए है कि इसका सम्बन्ध भारतीय दृश्य-परिवेश से है। ‘गुँजरित विहार-स्थल’ में ध्वनि-बिम्ब के द्वारा दृश्य-बिम्ब को साकार किया गया है।

  1. निष्कर्ष

स्वच्छन्दतावाद के प्रवर्तकों में कॉलरिज का नाम श्रद्धा से लिया जाता है। उन्होंने साहित्य-समीक्षा का सम्बन्ध दर्शनशास्‍त्र और मनोविज्ञान से जोड़ा। बायोग्राफिया लिटरेरिया  उनकी चर्चित समीक्षा कृति है। उन्होंने कविता का प्राथमिक उद्देश्य आनन्द माना। उन्होंने कवि कर्म में संश्‍ल‍िष्टता और सम्पूर्णता का बहुत महत्त्व दिया। उनका आलोचना-साहित्य अन्तर्दृष्टियों का कोष है।

 

अतिरिक्त जानें :

 

पुस्तकें :

  1. विश्व साहित्यशास्त्र, डॉ. नगेन्द्र, किताबघर, नई दिल्ली।
  2. कॉलरिज आलोचना सिद्धान्त, डॉ.कृष्णदत्त शर्मा, अनामिका प्रकाशन, दिल्ली
  3. A History of Modern Critisicim:1750-1950 by Rene Wellek, Jonathan Cape,London. Coleridge’s Poetic, Paul Hamilton, B. Blackwell, London, Oxford.
  4. A Preface to Coleridge, Allan Grant, Longman, London.
  5. Samuel tylor Coleridge, Stephen Bygrave, Verso, London.

   

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