15 कल्पना-सिद्धान्त

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. कल्पना : विविध धारणाएँ
  4. कल्पना का स्वरूप : मुख्य (प्राथमिक) कल्पना और गौण (विधायक) कल्पना
  5. विधायक कल्पना के प्रकार्य
  6. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • कल्पना की विविध धारणाओं से परिचित हो सकेंगे।
  • कल्पना के सन्दर्भ में कॉलरिज के विचारों से परिचित हो सकेंगे।
  • कल्पना के स्वरूप को समझ पाएँगे।
  • विधायक कल्पना के विविध कार्यों को जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

कॉलरिज की सैद्धान्तिक आलोचना उनकी एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। उनका ‘कल्पना सिद्धान्त’ इस सैद्धान्तिक आलोचना का शिखर है। उन्होंने सृजनशीलता को ‘कल्पना’ नाम दिया। ‘कल्पना’ के अपने आशय को स्पष्ट करने में उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। इस अवधारणा के अन्तर्गत उन्होंने रचनाशीलता से जुड़ी पूरी संश्‍ल‍िष्टता को समेटने का प्रयास किया और ‘कल्पना’ को स्वच्छन्दतावादी आलोचना के बीज शब्द के रूप में प्रतिष्ठित किया।

  1. कल्पना : विविध धारणाएँ

कॉलरिज से पहले इंग्लैण्ड और जर्मनी में अनेक साहित्यकार-विचारक कल्पना के स्परूप पर विचार कर चुके थे। इनमें ड्राइडन, एडिसन, हॉब्स और काण्ट का विवेचन तो पर्याप्‍त प्रसिद्ध है। ऐसे में सहज ही हमारे मन में यह प्रश्‍न उठता है कि कल्पना को लेकर इतने ऊहापोह के बावजूद कॉलरिज ने ऐसा क्या कहा जो इस अवधारणा के साथ उनका नाम अभिन्‍न रूप से जुड़ गया। इससे हमें इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि उन्होंने इस विषय में अवश्य ही ऐसा कुछ कहा होगा जो परवर्ती पीढि़यों को सबसे ज्यादा ग्राह्य हुआ। सृजनशीलता एक ऐसा तत्त्व है, जो केवल काव्य या साहित्य तक सीमित नहीं है। अन्य ज्ञान-निकायों से भी इसका सम्बन्ध है। निश्‍चय ही उनके विवेचन में ऐसी सामर्थ्य होगी कि वह ज्ञान के अन्य क्षेत्रों पर भी लागू हो सके। इस परिकल्पना के साथ हम कॉलरिज के ‘कल्पना सिद्धान्त’ पर विचार कर सकते हैं।

 

कॉलरिज ने दार्शनिक सिद्धाऩ्तों को अपनी साहित्य-समीक्षा का आधार बनाया। वे आलोचना को एक व्यवस्थित प्रणाली का रूप देना चाहते थे। रचना के गुण-दोष-विवेचन में उनकी उतनी दिलचस्पी नहीं थी। उन्होंने इस मूल प्रश्‍न पर निगाह जमाई कि सम्बद्ध रचना रची कैसे गई। कॉलरिज के अनुसार, “आलोचना का उद्देश्य साहित्य-रचना के नियमों का पता लगाना है, दूसरों के लिखे हुए पर निर्णय देना नहीं।” इन सिद्धान्तों को उन्होंने ‘मानव-प्रकृति’ में खोजने की कोशिश की, क्योंकि मानव-आत्मा की सर्जनात्मक शक्तियाँ ही उसे जन्म देती हैं। उनके चिन्तन का केन्द्र वह सृजन-प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से कविता रूप ग्रहण करती है। यही वजह है कि कविता की व्याख्या पर उनका उतना बल नहीं रहता, जितना उसकी सृजन-प्रक्रिया पर। उन्होंने ज्यादा बल इस बात पर दिया कि कलाकृति का मूल्यांकन उसी भावना से किया जाना चाहिए, जिससे उसकी रचना की गई थी। परिणामस्वरूप सृजन-प्रक्रिया, कवि-प्रतिभा और विशेष रूप से कल्पना का विवेचन-विश्‍लेषण जरूरी हो उठा।

 

कॉलरिज से पहले कल्पना के बारे में कई तरह की संगत-असंगत धारणाएँ प्रचलित थीं। एक धारणा तो यह थी कि कल्पना एक दिव्य या रहस्यमय शक्ति है, जिसकी तर्कसंगत व्याख्या सम्भव नहीं है। यह अव्याख्येय है। ड्राइडन के अनुसार, ”उचित प्रतिभा प्रकृति का वरदान है।… इसमें परिष्कार कैसे किया जाए, यह अनेक ग्रन्थ बतला सकते हैं, किन्तु इसे प्राप्‍त कैसे करें, यह बताने वाला कोई ग्रन्थ नहीं है।’’ वर्ड्सवर्थ ने ‘एक खास तरह की दिव्य दृष्टि’ के रूप में इसका बार-बार उल्लेख किया है। यह दृष्टि हमारे सामने या तो प्रकट होती है या फिर नहीं होती। इसलिए हमें उसको खोजने का प्रयास नहीं करना चाहिए। हमें तो बस उसके प्रकट होने का इन्तजार करते रहना चाहिए; उस समय तक जब तक वह अचानक हमारे सामने उद्भासित न हो उठे। दूसरे, कवि-प्रतिभा का सम्बन्ध उन्माद से जोड़ा गया था। यह धारणा काफी पुरानी थी और इसे कई प्रतिष्ठित दार्शनिकों और रचनाकारों का समर्थन प्राप्‍त था। प्लेटो ने कहा ही था कि कवि जिस समय रचना करता है, वह एक प्रकार की आविष्ट या असामान्य मनोदशा में होता है। शेक्सपियर ने ‘पागल, प्रेमी और कवि’ को एक स्तर पर रखा है, क्योंकि इन तीनों में कल्पना का अतिरेक होता है। ड्राइडन ने यह मान्यता व्यक्त की है कि ‘महान प्रतिभा का पागलपन से निश्‍चय ही नजदीकी रिश्ता होता है।’ स्वयं स्वच्छन्दतावादी युग में असामान्य वेशभूषा, मद में झूमते हुए चलने और विशेष रूप से तुनकमिजाजी को कवि या प्रतिभासम्पन्‍न व्यक्ति का लक्षण माना जा रहा था और कई कवि अपने-आपको प्रतिभावान सिद्ध करने के लिए इस तरह का आचरण करते दिखाई देते थे। तीसरी धारणा हॉब्स, लॉक, ह्यूम, हार्टले आदि अनुभववादी-साहचर्यवादी दार्शनिकों के माध्यम से सामने आई थी; जिनके अनुसार कल्पना एक बिम्बविधायिनी शक्ति है। इसका मुख्य काम है इन्द्रिय-संवेदन को मनश्‍च‍ित्रों में रूपान्तरित करना। इस धारणा के अन्तर्गत कल्पना, स्मृति की तरह, एक यान्त्रिक शक्ति भर बनकर रह गई थी, जिसमें सृजन या नवोन्मेष के लिए कोई स्थान नहीं था। चौथे, जर्मनी के भाववादी दर्शन में कल्पना के स्वरूप पर विचार किया गया था, विशेष रूप से काण्ट में। काण्ट के अनुसार कल्पना एक मध्यवर्ती शक्ति है, जो इन्द्रियबोध को विचार में बदलती है। कल्पना के बिना न तो इन्द्रियबोध सम्भव है, न विचार।

 

जाहिर है कि कल्पना के बारे में उक्त धारणाएँ कॉलरिज को मान्य नहीं थीं। कल्पना को एक ‘दिव्य शक्ति’ मानते हुए भी वे उसे रहस्यमय नहीं मानते थे। कारण, उसे रहस्यमय मानने का अर्थ होगा अपनी अक्षमता पर परदा डालना। उनके अनुसार कवि-प्रतिभा की व्याख्या ऐसी होनी चाहिए, जो सामान्य बुद्धि को सहज ग्राह्य हो। कवि-प्रतिभा और उन्माद के सम्बन्ध को लेकर कॉलरिज का मानना है कि यह धारणा अर्धसत्य है, कल्पना के केवल एक पक्ष पर बल देने का परिणाम। सामान्य जन की संवेदना की तुलना में कवि की संवेदना अधिक तीव्र और प्रखर होती है। यह संवेदनशीलता प्रतिभा की विशेषता ही नहीं, उसका अविभाज्य अंग है। यह तीव्र संवेदना निश्‍चय ही कवि-प्रतिभा का अनिवार्य घटक है। इससे यह सम्भावना बनती है कि कवि ‘मानसिक असन्तुलन की दिशा में’ चला जाए। किन्तु यह तो कवि-प्रतिभा का एक घटक है। इसके साथ कवि में ‘सामान्य से अधिक गति से वस्तुओं में सम्बन्ध-स्थापन की योग्यता होती है; एक विचार से दूसरे विचार तक, और एक बिम्ब से दूसरे बिम्ब तक, जाने की सामान्य से अधिक योग्यता।’ यह घटक भी उतना ही जरूरी है। सच्‍ची प्रतिभा इन दोनों घटकों के परस्पर संशोधन-सन्तुलन में निहित है।’ चिड़चिड़ापन और तुनकमिजाजी भी, कॉलरिज के अनुसार, छोटी या छद्म-प्रतिभाओं में देखने में आती है। जो वास्तव में प्रतिभासम्पन्‍न हैं, उनकी तुलना में ऐसे लोगों की संख्या कहीं ज्यादा होती है, जो प्रतिभासम्पन्‍न समझे जाते हैं। तुनकमिजाजी का नाटक ऐसे ही छद्म प्रतिभावान अधिक करते हैं। बड़ा रचनाकार दूसरों के दुख या पीड़ा से तो तत्काल द्रवीभूत हो उठता है, किन्तु अपनी पीड़ा के बारे में प्रायः शान्त-संयत रहता है।

 

लॉक-हार्टले आदि अनुभववादी-साहचर्यवादी दार्शनिकों से तो कॉलरिज एकदम असहमत थे। उनके अनुसार मन की जो शक्ति साहचर्य-सिद्धान्त पर आधारित है और जो बिम्ब निर्माण में सक्रिय रहती है, वह निष्क्रिय और यान्त्रिक है। कल्पना की सृजनशीलता से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। उसका सम्बन्ध तो ललित-कल्पना (फैंसी) और स्मृति से है। ललित-कल्पना और स्मृति के बाद मानव-मन के जो काम शेष रहते हैं, उनका सम्बन्ध विवेक और कल्पना से है। यही नहीं, इन्द्रियबोध, प्रत्यक्षण आदि सभी स्तरों पर इच्छाशक्ति और विवेक की निर्णायक भूमिका रहती है। हम वही देखते हैं, जो देखना चाहते हैं। हर स्थिति में और हर समय ‘इच्छाशक्ति और विवेक’ सक्रिय रहते हैं। वे पूरी तरह निलम्बित कभी नहीं होते। जर्मन दर्शन के अन्तर्गत काण्ट की इस धारणा से तो वे सहमत हैं कि कल्पना हमारे इन्द्रियबोध का आधार है; कल्पना की अपनी प्रसिद्ध परिभाषा में उन्होंने इस विचार को शामिल भी किया है; किन्तु काण्ट की इस मान्यता से वे सहमत नहीं हैं कि ‘इन्द्रियबोध और विचार के बीच’ कल्पना एक मध्यवर्ती की भूमिका निभाती है। वे उसे अधिक निर्णायक और केन्द्रीय भूमिका देना चाहते हैं, प्रायः ईश्‍वर के समकक्ष। वे ईश्‍वर, मानव-मन और कल्पना को एक ही स्तर पर रखने के पक्षधर हैं।

 

कल्पना की परम्परागत धारणाओं से सन्तोष न होने पर कॉलरिज ने अठारहवीं सदी की अंग्रेजी काव्य-परम्परा में इसका साक्ष्य खोजने की कोशिश की। पोप और उनके अनुयायियों, अथवा फ्रांसीसी काव्य-परम्परा से उन्हें कोई सहानुभूति नहीं थी। उनके काव्य में कृत्रिमता और जहाँ-तहाँ ‘महज नवीनता’ की आकांक्षा थी। जीवित कवियों में केवल कूपर और बाउल्स ही पहले ऐसे कवि मिले, जिनमें उन्हें ‘हृदय और बुद्धि का वह सामंजस्य’ दिखाई दिया, जिसे वे कल्पना की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता मानते थे। कल्पना को लेकर इसी ऊहापोह के दौर में उनकी पहली बार वर्ड्सवर्थ से भेंट हुई। वर्ड्सवर्थ ने अपनी पाण्डुलिपि से एक कविता पढ़कर कॉलरिज को सुनाई। कविता सुनकर उनके मन पर बिजली-जैसा असर हुआ और उन्हें ऐसा लगा जैसे कल्पना स्वयं रूप धरकर उनके सामने प्रत्यक्ष हो गई हो। बायोग्राफिया लिटरेरिया के चौथे अध्याय में इस प्रत्यक्षीकरण का बड़ा ही जीवन्त विवरण कॉलरिज ने दिया है। पूरी कविता में विचार सहज, भाषा सहज। बिम्बों का कोई अतिरंजित जमाव नहीं।… यह गहन भावों का गम्भीर विचारों के साथ सामंजस्य था। वहाँ भाव और विचार में कोई भेद नहीं था। कॉलरिज से पहले ‘कल्पना’ और ‘ललित कल्पना’ (फैन्सी) में कोई भेद नहीं था। उन्हें या तो एक-दूसरे का पर्याय माना जाता था, या फिर एक ही शक्ति का उच्‍च और निम्‍न स्तर। वर्ड्सवर्थ के मुख से कविता सुनते-सुनते अचानक उन्हें यह लगा कि कल्पना और ललित कल्पना दो अलग-अलग और एक-दूसरे से नितान्त भिन्‍न शक्तियाँ हैं। बाद में चिन्तन-मनन से उनकी यह धारणा पुष्ट भी हुई। यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कॉलरिज को कल्पना के बारे में सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र समसामयिक रचनाशीलता से मिला।

  1. कल्पना का स्वरूप : मुख्य (प्राथमिक) कल्पना और गौण (विधायक) कल्पना

कल्पना को परिभाषित करते समय कई समस्याएँ कॉलरिज के दिमाग में थीं। कल्पना का एक स्तर ऐसा है, जिसमें कवि और अन्य लोगों में कोई अन्तर नहीं होता । वे दोनों एक-समान हैं। यह कल्पना का व्यापक स्तर है। दूसरे, कल्पना की सम्पूर्ण प्रक्रिया में कुछ अंश निष्क्रिय और यान्त्रिक भी होता है, जैसे इन्द्रियबोध को बिम्बों या मनश्‍च‍ित्रों में रूपान्तरित करना, स्मृति आदि। सृजनशीलता में इनकी कुछ-न-कुछ भूमिका रहती है, बेशक यह भूमिका सृजनात्मक नहीं होती। कल्पना के स्वरूप-विवेचन में इस यान्त्रिक भूमिका की क्या स्थिति रहे? तीसरे, निष्क्रिय तथा यान्त्रिक कार्य के बाद जो अन्य भूमिकाएँ बच रहती हैं, वे किसके हिस्से में आएँ? सामान्य जन की कल्पना से भिन्‍न कवि-कल्पना के स्वरूप और उसके प्रकार्य को कहाँ स्थान मिले? कल्पना या सृजनशीलता के विवेचन का मुख्य लक्ष्य तो कवि-कल्पना ही है। कवि-कल्पना करती क्या है, उसके मुख्य प्रकार्य क्या हैं, इस बारे में कवि के रूप में स्वयं उनके अनुभव भी थे, जिनका सन्‍न‍िवेश वे कल्पना के स्वरूप-विवेचन में करना चाहते थे। बल्कि कहना चाहिए कि इन पर उनका विशेष बल था। फिर, कल्पना से मिलती-जुलती जो अन्य अवधारणाएँ हैं, जैसे प्रज्ञा (Talent) और प्रतिभा (Genius),उन्हें कहाँ रखा जाए? कल्पना के सन्दर्भ में उनकी क्या स्थिति रहे? इन सारी समस्याओं को ध्यान में रखकर वे कल्पना को इस रूप में परिभाषित करना चाहते थे, जिसमें एक हद तक इन समस्याओं का समाधान मिले?

 

अपने विचारों को अविस्मरणीय शब्दावली में ढालने की कॉलरिज में अद्भुत क्षमता थी। यही वजह है कि पूर्व-स्वच्छन्दतावादी और स्वच्छन्दतावादी युगों में कल्पना के स्वरूप और प्रकार्य को लेकर जो चर्चा हुई है, उसमें कॉलरिज की चर्चा की ओर पाठकों और आलोचकों का ध्यान सबसे पहले जाता है। उनकी कल्पना-विषयक परिभाषा को प्रतिनिधि स्वच्छन्दतावादी परिभाषा माना जा सकता है। इसमें उन्होंने स्वच्छन्दतावादी दौर की रचनाशीलता की पूरी संश्‍ल‍िष्टता को समाहित करने की कोशिश की। बायोग्राफिया लिटरेरिया के तेरहवें अध्याय के अन्त में उन्होंने कल्पना को इन शब्दों में परिभाषित किया– मेरे विचार से कल्पना या तो मुख्य होती है या फिर गौण । मुख्य कल्पना एक जीवन्त शक्ति है और मानव के सम्पूर्ण इन्द्रियज्ञान का प्रमुख साधन है। यह सीमित मन में असीम सत्ता की सृजन-शक्ति की आवृत्ति है। गौण कल्पना को मैं इसी मुख्य कल्पना की प्रतिध्वनि मानता हूँ। इसका अस्तित्व चेतन इच्छा शक्ति के साथ होता है, किन्तु फिर भी साधन के प्रकार की दृष्टि से यह मुख्य कल्पना के समरूप ही होती है। इसमें जो भेद है वह केवल मात्र और कार्य पद्धति का है। यह पुनःसृजन के उद्देश्य से, मुख्य कल्पना से, प्राप्‍त सम्पूर्ण सामग्री का, विलयन करती रहती है, उसे गलाती-पिघलाती रहती है; अथवा जहाँ यह प्रक्रिया सम्भव नहीं हो पाती वहाँ भी हर हाल में यह आदर्शीकरण और एकीकरण के लिए संघर्ष करती है। यह अनिवार्य रूप से जीवन्त होती है, जबकि सभी वस्तुएँ (वस्तु के रूप में) अनिवार्यतः स्थिर और जड़ होती हैं। इसके विपरीत ललित-कल्पना में स्थिरता और सुनिश्‍च‍ितता के अलावा ऐसे कोई साधन नहीं होते, जिनको लेकर वह व्यस्त रहे। वास्तव में ललित-कल्पना देश काल के बन्धन से मुक्त-स्मृति का ही एक प्रकार है। यह इच्छा-शक्ति की उस अनुभवमूलक क्रिया से मिश्रित और रूपान्तरित होती है, जिसे हम शब्द चयन से व्यक्त करते हैं, किन्तु सामान्य स्मृति के साथ ही यह अपनी सम्पूर्ण सामग्री, जो पहले से बनी-बनाई होती है, बराबर साहचर्य-नियम द्वारा ही ग्रहण करती है।

 

उपर्युक्त परिभाषा के पहले अनुच्छेद में कॉलरिज ने कल्पना के दो भेद बताए हैं और दोनों भेदों के स्वरूप और कार्यों का निर्देश किया है। दूसरे अनुच्छेद में ललित कल्पना का निरूपण है।

 

कॉलरिज के अनुसार कल्पना के दो भेद हैं – मुख्य और गौण। मुख्य कल्पना हमारे इन्द्रियबोध का आधार है। मुख्य कल्पना के सहयोग के बिना हमें इन्द्रियों से जो कुछ प्राप्‍त होगा, वह एकदम अव्यवस्थित, खण्डित और गड्ड-मड्ड होगा। मुख्य कल्पना इन्द्रियसंवेदन को इन्द्रियबोध में बदलती है। उसकी यह क्रिया सृजनात्मक है। मन इच्छाशक्ति-सम्पन्‍न स्रष्टा है। मन की यह सृजनशीलता इन्द्रियसंवेदन को यान्त्रिक प्रक्रिया भर नहीं रहने देती। इन्द्रियबोध की प्रक्रिया को उन्होंने सृजनात्मक इसलिए कहा कि वे इसमें मन की सक्रिय भूमिका को रेखांकित करना चाहते हैं। यह प्रक्रिया न तो सीधा-सादा बाह्यीकरण है, न तटस्थ भाव से इन्द्रियसंवेदन का आभ्यन्तरीकरण। यह इन दोनों प्रक्रियाओं का अत्यन्त सूक्ष्म सन्तुलन है। कल्पना वह सामान्य आधार है, जहाँ से संवेदना और विवेक दोनों का उदय होता है। इन्द्रियसंवेदन के साथ मुख्य कल्पना का सन्‍न‍िकर्ष होने पर ही हमें दृश्य जगत का व्यवस्थित ज्ञान प्राप्‍त होता है। इन्द्रियज्ञान का आधार होने की वजह से मुख्य कल्पना का सम्बन्ध सभी चिन्तनशील प्राणियों से है। चूँकि इसका सम्बन्ध मानव-मात्र से है, इसका आधार-फलक अत्यन्त व्यापक है, अतः इसे ‘मुख्य कल्पना’ कहना उचित ही है। यह ‘मन की सम्पूर्ण समन्वित गतिविधि’ की द्योतक है। यह विचार फ्रांसीसी क्रान्ति द्वारा प्रेरित लोकतान्त्रिक विचारों के मेल में भी है।

 

मुख्य कल्पना की दूसरी विशेषता है जीवन्तता। यह एक जीवन्त शक्ति है। ‘जीवन्त’ से कॉलरिज का आशय है सक्रिय और जैविक, निष्क्रिय और यान्त्रिक नहीं। यान्त्रिक और जैविक रूपविधान में कॉलरिज ने अन्तर भी स्पष्ट किया, वह भी अविस्मरणीय शब्दावली में। इन्द्रियों से जो सामग्री प्राप्‍त होती है, उसमें मुख्य कल्पना जीवन्तता का संचार करती है और उसे जैविक अन्विति में ढालती है। सांसारिक ‘वस्तुएँ, वस्तु के रूप में, स्थिर और जड़’ हैं। वे अनिवार्य रूप से सीमित हैं, और उनमें अपने-आप में क्रियाशक्ति की योग्यता नहीं है। किन्तु जब किसी जाने-पहचाने भूदृश्य पर ‘चाँदनी की किरणें’ या ‘संध्या के धूपछाँही रंग’ पड़ते हैं, तो उसका कायाकल्प हो जाता है, उसी प्रकार स्मृति और ललित-कल्पना से हमें जो सामग्री प्राप्‍त होती है वह यान्त्रिक और निर्जीव होती है, किन्तु प्रकृति और मानव-आत्मा के परस्पर सम्बद्ध होने से, और कल्पना के रंगों से, उसमें नवजीवन का संचार हो जाता है। कल्पना ऐसी जादुई शक्ति है, जो हमें मिथ्यात्व का अहसास नहीं होने देती। इसके अतिरिक्त, मुख्य कल्पना ‘सीमित मन में असीम सत्ता की सर्जना-शक्ति की आवृत्ति है।’ दूसरे शब्दों में, इन्द्रियबोध के दौरान मन की जो सृजन-शक्ति है, वह सृजन के दौरान ईश्‍वरीय शक्ति की ही आवृत्ति है। यहाँ कॉलरिज कहना चाहते हैं कि मुख्य कल्पना मनुष्य में ईश्‍वर की प्रतिनिधि है। द फ्रेण्ड में उन्होंने लिखा – ‘विधाता ने आत्मरूप में ही मानव की सृष्टि की।’ कॉलरिज ईश्‍वर, मानव-मन और कल्पना को एक ही स्तर पर रखते हैं, अतः जो विशेषताएँ ईश्‍वर में हैं, वे मानव-मन और कल्पना में भी दिखाई देंगी। मानव-मन ईश्‍वर के मानस का सबसे सशक्त प्रतीक है। इसीलिए आत्मविश्‍लेषण मूल्यवान क्रिया है। अपने-आपको जानने का प्रतीकात्मक अर्थ है, ईश्‍वर को जानना। कल्पना उस ईश्‍वर को जानने की कुंजी है। बल्कि कल्पना को वे ईश्‍वर का अत्यन्त विराट प्रतिरूप मानते हैं। जैसे ईश्‍वर संसार में सर्वत्र व्याप्‍त रहता है, किन्तु कहीं दिखाई नहीं देता उसी प्रकार शेक्सपियर जैसे महान रचनाकार अपनी रचनाओं में सर्वत्र व्याप्‍त रहते हुए भी अलक्षित रहते हैं, अपने निजी व्यक्तित्व को कहीं आरोपित नहीं करते।

 

गौण (या विधायक) कल्पना ‘मुख्य कल्पना की प्रतिध्वनि’ है; मुख्य कल्पना की सृजनशीलता की प्रतिध्वनि। इन्द्रियबोध के दौरान जो सृजन-शक्ति मुख्य कल्पना में कार्यरत रहती है, उसी की प्रतिध्वनि गौण कल्पना है। ‘प्रतिध्वनि’ शब्द से कॉलरिज संकेत करना चाहते हैं कि मुख्य कल्पना का पूर्व-अस्तित्व गौण कल्पना के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। इन दोनों में कॉलरिज कोई गुणात्मक अन्तर नहीं मानते। कलात्मक सृजन हमारे दैनन्दिन इन्द्रियबोध जैसा ही है। उनमें जो अन्तर है वह ‘केवल मात्रा और कार्य-पद्धति’ का है, प्रकारगत या गुणात्मक नहीं। विधायक कल्पना के लिए संवेदनशीलता अधिक चाहिए, आवयविक इकाई में ढालने की योग्यता अधिक चाहिए। दोनों की कार्य-पद्धति में अन्तर यह है कि मुख्य कल्पना जहाँ केवल निर्माण करती है, वहाँ गौण कल्पना नाश और निर्माण दोनों। यह अन्तर आगे के विवेचन से और स्पष्ट होगा।

  1. विधायक कल्पना के प्रकार्य

कल्पना के बारे में कॉलरिज के उक्त विचारों में दार्शनिकता का पुट है। मुख्य कल्पना सीमित मन में असीम सत्ता की सृजन-शक्ति की आवृत्ति है और गौण या विधायक गौण कल्पना उस आवृत्ति की प्रतिध्वनि। इससे हमें अद्वैतवादियों के ब्रह्म और आत्मा का स्मरण हो आता है। काण्ट, शेलिंग आदि जर्मनी के भाववादी विचारकों का प्रभाव यहाँ प्रत्यक्ष है। मुख्य कल्पना का सम्बन्ध जहाँ मनुष्य-मात्र से है, वहाँ विधायक गौण कल्पना कवि-कलाकार का विशेष वरदान है। मुख्य कल्पना की तुलना में सूक्ष्मता और गहराई अधिक होने के बावजूद, इसका आधार-फलक अपेक्षाकृत सीमित है। इसका सीधा सम्बन्ध कवि-रचनाकारों से है, व्यापक जन-समुदाय से नहीं। शायद इसीलिए कॉलरिज ने इसे ‘गौण कल्पना’ कहा है। वास्तव में कॉलरिज की प्रतिभा का निदर्शन कल्पना के स्वरूप-विवेचन में उतना नहीं दिखाई देता, जितना विधायक कल्पना की कार्यविधि निरूपित करने में; अर्थात् यह बताने में कि काव्य-सृजन के दौरान वह क्रियाशील कैसे होती है। स्वच्छन्दतावादी कवि के रूप में स्वयं अपने अनुभव से भी उन्हें इसके विश्‍लेषण में मदद मिली होगी। कॉलरिज के ‘कल्पना-सिद्धान्त’ का सबसे शक्तिशाली पक्ष विधायक कल्पना की कार्यविधि का निरूपण ही है। यह निरूपण वर्तमान विमर्शों के सन्दर्भ में भी प्रासंगिक है।

 

विधायक कल्पना का सर्वप्रमुख कार्य है मुख्य कल्पना से प्राप्‍त सामग्री का विखण्डन और विलयन। यह विखण्डन या विलयन निरुद्देश्य नहीं होता। इसके पीछे उद्देश्य रहता है पुनःसृजन; पुरानी संरचनाएँ तोड़कर नई संरचना बनाना। स्वयं कॉलरिज के शब्दों में ‘विधायक कल्पना पुनःसृजन के उद्देश्य से, मुख्य कल्पना से प्राप्‍त सम्पूर्ण सामग्री का, विलयन करती रहती है, उसे गलाती-पिघलाती रहती है।’ वह नाश भी करती है और निर्माण भी। कहना चाहिए कि नाश पुनःसृजन के उद्देश्य से प्रेरित होता है। किसका नाश? स्पष्ट ही मुख्य कल्पना से प्राप्‍त सामग्री का। इस सामग्री को विधायक कल्पना ज्यों-का-त्यों उपयोग में नहीं लाती। पहले वह मुख्य कल्पना के विन्यास को विखण्डित या विस्थापित करती है, फिर उसे नया विन्यास देती है, उसे एक नई संरचना में ढालती है। विखण्डन-विस्थापन का यह कार्य, नवीन विश्‍व-दृष्टि के अनुरूप, कविता की एक नई दुनिया रचने के उद्देश्य से प्रेरित होता है। कविता की नई दुनिया रचने के लिए पहले वह मुख्य कल्पना की दुनिया को भली-भाँति विखण्डित करती है, उसे तोड़ती-फोड़ती है, गलाती-पिघलाती है। पहले विस्थापन-विखण्डन, फिर सृजन। नाश और निर्माण की इस द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया में कॉलरिज ने नाश या विखण्डन पर पर्याप्‍त बल दिया है। नाश के लिए उन्होंने नाश से मिलते-जुलते अर्थ की सूचक तीन क्रियाओं का प्रयोग किया है ‘डिजाल्व्स’, ‘डिफ्यूजे़ज़’ और ‘डिस्सीपेट्स’। इन तीनों क्रियाओं में ‘डि’ की आवृत्ति से जो ध्वनि-बिम्ब बनता है, वह नाश के अर्थ को पुष्ट करता है, उसे और गहराता है। सृजनशीलता के सन्दर्भ में विखण्डन की यह क्रिया अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण है और शायद अधिक कठिन भी। चिन्तन के पुराने साँचों को तोड़ना है भी ज़रा मुश्किल। किन्तु यह भी सच है कि उन साँचों को तोड़े बिना कुछ भी नया रच पाना सम्भव नहीं है।

 

चिन्तन की ये पुरानी सरणियाँ आखिर टूटेंगी कैसे? कॉलरिज के उक्त उद्धरण में ‘पुनःसृजन’ का अर्थ तो स्पष्ट ही है, किन्तु ‘विलयन’ और ‘गलाने-पिघलाने’ से, ‘विस्थापन और विखण्डन’ से, क्या आशय है? यहाँ महत्त्वपूर्ण बात है कि कॉलरिज महज सिद्धान्त-निरूपण में अपने आलोचकीय दायित्व की इतिश्री नहीं मान लेते। ऐसा करने पर वे विमर्शकार तो होते, आलोचक नहीं। उन्होंने विधायक  कल्पना की कार्यविधि से सम्बन्धित उक्त अवधारणा को व्यावहारिक आलोचना में लागू भी किया। केवल सिद्धान्त-चर्चा करके नहीं रह गए। शेक्सपियर की रचना-पद्धति का विश्‍लेषण करते समय उन्होंने उक्त धारणा का रचनात्मक उपयोग भी किया। शेक्सपियर की रचना-पद्धति क्या थी? क्या वे किसी दैवी-शक्ति से आविष्ट थे? कॉलरिज यह प्रश्‍न पूछते हैं और फिर उत्तर भी देते हैं – शेक्सपियर न तो महज प्रकृति की देन थे, न कोई स्वतःस्फूर्त प्रतिभा के प्रतिरूप, न किसी दैवी आत्मा से आविष्ट प्रेरणा के माध्यम।’ उनका रास्ता तो एकदम सीधा-सादा था, सीधा-सादा और मानवीय–‘शेक्सपियर ने…पहले धैर्य से अध्ययन किया, गहराई से चिन्तन-मनन किया, रेशे-रेशे को समझा, जब तक कि वह ज्ञान उनके व्यक्तित्व का सहज अंग नहीं बन गया… ।’ निरन्तर अध्ययन-चिन्तन-मनन से मुख्य कल्पना की दुनिया को तोड़ा या विखण्डित किया जा सकता है, उसे गलाया-पिघलाया जा सकता है। अन्ततः जब वह गल-पिघलकर व्यक्तित्व का सहज अंग बन जाए, तभी उसका रचनात्मक उपयोग सम्भव है, उससे पहले नहीं। विधायक कल्पना का सर्वप्रमुख कार्य यही है।

 

यहाँ कॉलरिज और देरीदा की तुलना दिलचस्प होगी। रचना/पाठ-निर्माण के सन्दर्भ में दोनों ही संरचना-निर्मिति के पक्षधर हैं, किन्तु रचनाशीलता (नवनवोन्मेष) की अनिवार्य शर्त के रूप में संरचना के विखण्डन पर बल देते हैं। अच्छी रचना या पाठ में अन्विति होना जरूरी है। यह अन्विति आएगी संरचना से। किन्तु रचना/पाठ में नवीनता के उन्मेष के लिए पुरानी संरचनाओं को तोड़ना भी बेहद जरूरी है। संरचना बनाना रचना/पाठ-निर्माण की अनिवार्य शर्त है, जबकि संरचना तोड़ना रचनाशीलता की। इस प्रकार कॉलरिज और देरीदा दोनों संरचना के पक्षधर भी हैं और उसे अतिक्रान्त भी करते हैं। दोनों में अन्तर यह है कि देरीदा का विखण्डनवादी सिद्धान्त पाठक-केन्द्रित है, जबकि कॉलरिज का कल्पना सिद्धान्त कवि-केन्द्रित– हालाँकि कॉलरिज में द्वन्द्वात्मकता है, जिसमें लेखक-पाठक दोनों का अन्तर्भाव है। देरीदा में कई बार ऐसा लगता है कि इसमें विखण्डन के लिए विखण्डन है। इसके विपरीत कॉलरिज विखण्डन के पीछे पुनःसृजन की प्रेरणा मानते हैं। रचनाशीलता के लिए विखण्डन जरूरी है इसमें सन्देह नहीं। किन्तु यह विखण्डन नवीन सृजन के उद्देश्य से प्रेरित होना चाहिए।

 

पुनःसृजन की उक्त प्रक्रिया जहाँ सम्भव नहीं हो पाती, वहाँ कल्पना ‘आदर्शीकरण और एकीकरण’ के लिए संघर्ष करती है। आदर्शीकरण एक मूल्यपरक प्रक्रिया है। आदर्शीकरण का कार्य है साहित्य को यथार्थ की सतह से ऊपर उठाना। केवल यथार्थ काफी नहीं है। जो बराबर सतह पर रहता है, वह क्षुद्रता का आभास देता है। अच्छी रचना के लिए सतह से थोड़ा ऊपर उठना जरूरी है। मुक्तिबोध की एक कहानी है सतह से उठता आदमी। इस शीर्षक में यही अर्थगर्भित है। यथार्थ और कल्पना (या आदर्श) दोनों अलग-अलग क्षुद्रता का आभास देते हैं। काव्य-प्रतिभा के निदर्शक वे तभी बनते हैं, जब यथार्थ में कल्पना का उत्कर्ष हो और कल्पना के पीछे यथार्थ का आधार रहे। जब ज्ञान संवेदनात्मक हो और संवेदना ज्ञानात्मक।

 

एकीकरण पर कॉलरिज ने बहुत बल दिया है। कल्पना विविधता में एकता खोजने की अन्तर्दृष्टि प्रदान करती है। सच्चा दर्शन भी यही करता है। छन्द में भी यही प्रवृत्ति दिखाई देती है। हम जबरन किसी में इस दृष्टि का उन्मेष नहीं करा सकते। उसे ‘ईश्‍वरीय वरदान’ कहने के पीछे यही आशय समझ आता है। खास तौर से औद्योगिक सभ्यता में जिस तरह का मनुष्य अस्तित्व में आ रहा है, जिसका मानस ‘वस्तुओं के उपभोग और उनका घात-प्रतिघात सहते-सहते’ संवेदनाशून्य हो गया है, वह इस एकता को नहीं देख सकता। कल्पना की कार्यपद्धति के सन्दर्भ में कॉलरिज ने एक नए शब्द की उद्भावना की – ‘एसेम्प्लैस्टिक’ जिसका अर्थ ही है ‘मिलाकर एक करना’। यह प्रक्रिया संरचना-निर्मिति की सूचक है। यह एक प्रकार की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया है। यह ऐसी शक्ति है, जिसके द्वारा किसी बिम्ब या भाव को अन्य अनेक बिम्बों या भावों द्वारा स्पष्ट किया जाता है। साथ ही अनेक बिम्बों या भावों को बलात् मिलाकर एक बिम्ब या भाव का अंग बना दिया जाता है। इसी विशेषता के आधार पर कवि संवेदना और विचार का सामंजस्य कराता है। ‘कल्पना और भाव की समन्वयकारिणी और मिलाकर एक करने की शक्ति’ द्वारा कवि संवेदना और गहन विचार का सामंजस्य कैसे कराता है, यह कॉलरिज ने अन्यत्र वर्ड्सवर्थ की कविता का एक उदाहरण देकर स्पष्ट किया है। यहाँ ‘कल्पना’ और ‘भावावेग’ को साथ-साथ रखना सर्वथा उचित है। भारतीय काव्य-चिन्तन में कल्पना की अलग से चर्चा नहीं की गई है। वहाँ इसे भावावेग के अन्तर्गत ही शामिल किया गया है। एकान्विति और गति द्वन्द्वात्मक रूप में एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। एकान्विति है संरचना, गति है इतिहास। गति के बिना संरचना जड़ है। संरचना के बिना गति सीधी-सपाट है। उसमें व्यापकता और गहराई नहीं है। संरचना के पीछे एक विश्‍व-दृष्टि रहती है, जो युग और ऐतिहासिक शक्तियों के दबाव से निर्मित होती है। इतिहास के विनियोग से रचना के दिक् और काल व्यापक हो जाते हैं। केवल शब्द-विन्यास से प्रेरित संरचना तो रूपवाद की शक्ल अख्तियार कर लेगी। इस प्रकार विधायक कल्पना बाह्य जगत के इन्द्रियबोध और अनुभवों को गला-पिघलाकर एक नए रूपाकार में ढालती है, उसे नया आकार देती है, जिससे उसमें नवीन परिचय की दीप्ति आ जाती है। असम्बद्ध चीजों में सम्बद्धता की तलाश, बिखरी हुई चीजों में अन्विति की खोज, यह विधायक कल्पना का दूसरा प्रमुख कार्य है। मुख्य कल्पना की तरह विधायक कल्पना का यह कार्य स्वतःस्फूर्त ढंग से नहीं करती, बल्कि वह इच्छा और ज्ञान से परिचालित होती है। इस प्रकार दृश्य जगत की सामान्य और असम्बद्ध वस्तुएँ, विधायक कल्पना के स्पर्श से परस्पर सम्बद्ध हो जाती है। साथ ही वे विशिष्ट और रमणीय दिखाई देने लगती हैं।

 

विलियम के विमसैट और क्लीन्थ ब्रुक्स ने इन विरोधी युग्मों को तालिकाबद्ध कर रखा है, जिससे इन्हें समझने में आसानी हो सकती है। कल्पना निम्‍नलिखित विरोधी तत्त्वों (क-ख) के बीच सामंजस्य (सन्तुलन या संगति) स्थापित करती है

(क)                                                                     (ख)

  1. साम्य                                                                 वैषम्य
  2. सामान्य                                                             विशेष
  3. प्रत्यय                                                                बिम्ब
  4. प्रातिनिधिक                                                        वैयक्तिक
  5. परिचय                                                              नवीनता
  6.  संयम                                                                भावावेश
  7.  विवेक                                                               उमंग
  8.  कृत्रिम                                                               प्रकृत या सहज

कल्पना नीचे दिए गए ‘ख’ वर्ग की तुलना में ‘क’ वर्ग को गौण मानती है

(क)                                                                                (ख)

  1. कला                                                                              प्रकृति
  2. रूप/शैली                                                                        वस्तु
  3. कवि के प्रति हमारा आदर-भाव                                           कविता के प्रति हमारी सहानुभूति

ये विरोधी युग्म एक-दूसरे की सीमा को अतिक्रान्त करते हैं, इसमें सन्देह नहीं। फिर भी ये कल्पना की कार्यविधि का बखूबी बयान करते हैं। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि विरोधी तत्त्वों के ऐसे जोड़े और भी हो सकते हैं। विधायक कल्पना की यह कार्यविधि केवल साहित्य तक सीमित नहीं है; यह कला मात्र पर लागू होती है। मन और प्रकृति की कार्यविधि भी यही है। द फ्रेण्ड में उन्होंने लिखा – “प्रकृति और आत्मा की हर शक्ति अपनी विरोधी शक्ति को जन्म देती है। उसके व्यक्त होने की एकमात्र शर्त और साधन यही है। और सभी विरोधी तत्त्वों में पुनः सामंजस्य की प्रवृत्ति पाई जाती है। दो विरोधी तत्त्वों की सहस्थिति का यही सार्वभौम नियम है।”

 

विभिन्‍न विरोधी तत्त्वों में सामंजस्य स्थापित करते समय कल्पना ‘कला को प्रकृति के, रूप को वस्तु के, और कवि के प्रति हमारे आदर-भाव को कविता के प्रति हमारी सहानुभूति के अधीन रखती है।’ दूसरे शब्दों में, कला की तुलना में प्रकृति का, रूप की तुलना में वस्तु का और कवि की तुलना में कविता का महत्त्व कहीं ज्यादा है। प्रकृति और कला में सामंजस्य करते समय कवि प्रकृति की तुलना में कला को गौण स्थान देता है। यहाँ कला से आशय शिल्प या तकनीक है, कलाकृति नहीं। स्वच्छन्दतावादी आलोचना की सामान्य प्रवृत्ति यह है कि उसमें रचना से ध्यान हटाकर रचनाकार की ओर मोड़ दिया जाता है। इसमें बाह्य जगत की तुलना में मानव-मन को अधिक प्रमुखता दी जाती है। ऐसे में कवि की अपेक्षा कविता को अधिक महत्त्व देना एक प्रकार से धारा के विपरीत जाना है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह रुझान आधुनिक आलोचना-दृष्टि के भी अनुकूल है।

 

कॉलरिज से पहले ललित-कल्पना (फैंसी) और कल्पना (इमेजिनेशन) में कोई अन्तर नहीं था। वे या तो परस्पर पर्याय थे या फिर एक ही शक्ति के उच्‍च और निम्‍न स्तर। कॉलरिज ने इनमें गुणात्मक अन्तर माना। दोनों मानसिक शक्तियाँ हैं और सृजनशीलता में दोनों की भूमिका रहती है। मन की जो शक्ति बिम्ब-निर्माण में सक्रिय रहती है, और जो निष्क्रिय तथा यान्त्रिक है, उसे उन्होंने ललित-कल्पना कहा और मानव-मन के सृजनात्मक पक्ष को कल्पना नाम दिया। कल्पना और ललित-कल्पना जिस सामग्री को आधार रूप में ग्रहण करती हैं, उसकी प्रकृति एक-जैसी (स्थिर और जड़) होती है। किन्तु जहाँ कल्पना जिन पदार्थों का स्पर्श करती है उनमें जीवन्तता का संचार कर देती है; वहाँ ललित-कल्पना उनका यान्त्रिक रूप में संयोजन भर करती है। कॉलरिज के अनुसार, ललित-कल्पना स्मृति का ही एक रूप है–‘ललित-कल्पना देश काल के बन्धन से मुक्त स्मृति का ही एक प्रकार है।’ ललित-कल्पना और स्मृति दोनों मानसिक शक्तियाँ हैं। ललित-कल्पना में निष्क्रियता की प्रधानता है और स्मृति में यान्त्रिकता की। ललित-कल्पना ऐसी स्मृति है, जो देशकाल के बन्धन से मुक्त हो। ललित-कल्पना और कल्पना दोनों मानसिक शक्तियां हैं। एक का काम है यांत्रिक, दूसरी का सर्जनात्मक। कल्पना और ललित-कल्पना दोनों को आधार-सामग्री स्मृति से मिलती है, किन्तु दोनों के परिणाम में अन्तर है–कल्पना जहाँ उस सामग्री का कायाकल्प कर देती है, उसमें गुणात्मक अन्तर ला देती है, वहाँ ललित-कल्पना उनका संयोजन भर करती है। कॉलरिज के शब्दों में, ‘यह अपनी सम्पूर्ण सामग्री, जो पहले से बनी-बनाई होती है, बराबर साहचर्य नियम द्वारा ग्रहण करती है।’ कहने की आवश्यकता नहीं कि ललित-कल्पना का स्वरूप-निर्देश करते समय कॉलरिज के दिमाग में नव्यशास्‍त्रवादी काव्य है, जबकि कल्पना का विवेचन करते समय उनके मन में समसामयिक स्वच्छन्दतावादी काव्य का बिम्ब रहता है।

  1. निष्कर्ष

मुख्य कल्पना का स्थान पहले है, गौण कल्पना का बाद में। इन्द्रियबोध का आधार होने की वजह से मुख्य कल्पना स्वतःस्फूर्त और अनैच्छिक होती है, जबकि गौण कल्पना चेतन और ऐच्छिक। मुख्य कल्पना मानव-मात्र में पाई जाती है, जबकि गौण या विधायक कल्पना कवि का विशेष वरदान है। मुख्य कल्पना केवल निर्माण करती है, गौण कल्पना निर्माण के साथ-साथ नाश भी।

 

कल्पना और ललित-कल्पना में गुणात्मक अन्तर है। कॉलरिज ने ललित-कल्पना को ‘देशकाल के बन्धन से मुक्त स्मृति का एक प्रकार“ माना है। ललित-कल्पना प्रत्यक्ष बोध और स्मृति से उच्‍चतर है, लेकिन कल्पना से निम्‍नतर। वह स्थिर वस्तुओं का संयोजन मात्र करती है। किन्तु कल्पना एक सृजनात्मक और रूपायन करने वाली शक्ति है, जो अनेक का एक में और एक का अनेक में साक्षात्कार करती है। विविधता में एकता और एकता में विविधता का साक्षात्कार। कॉलरिज के शब्दों में, “बुद्धि काव्य-आत्मा का शरीर है, ललित-कल्पना उसका प्रसाधन है, किन्तु विधायक कल्पना उसकी आत्मा है जो सर्वत्र व्याप्‍त रहते हुए प्रत्येक अंग को अनुप्राणित करती है।”

 

प्रतिभा (जीनियस) और प्रज्ञा (टेलेण्ट) में भी कॉलरिज ने अन्तर माना है। प्रतिभा जन्मजात होती है जबकि प्रज्ञा अर्जित। प्रतिभा कल्पना के समान है जबकि प्रज्ञा ललित-कल्पना के। प्रतिभा में सृजनशीलता है, नवनिर्माण की क्षमता है, जबकि प्रज्ञा वस्तुओं का संयोजन अर्थात् उन्हें एक-साथ प्रस्तुत भर करती है। प्रतिभा आत्मनिर्भर या मौलिक होती है जबकि प्रज्ञा पराश्रित। प्रतिभा अचेतन या स्वतःस्फूर्त है जबकि प्रज्ञा चेतन और विवेक-नियन्त्रित। ‘स्वयं प्रतिभा में एक अचेतन प्रक्रिया चलती रहती है। बल्कि कहना चाहिए प्रतिभा सम्पन्‍न व्यक्ति में वही सच्‍ची प्रतिभा है।’ प्रज्ञा प्रतिभा के अभाव में भी क्रियाशील हो सकती है, किन्तु प्रतिभा प्रज्ञा के बिना अपने-आपको प्रकट नहीं कर सकती।

 

अतिरिक्त जानें :

 

पुस्तकें

  1. Coleridge’s Poetics, Paul Hamilton, B. Blackwell, London, Oxford.
  2. Coleridge, Katharine Cooke, Routledge & Kegal Paul, London.
  3. Coleridge : critic of Shekeshpeare, M.M. Badawi, Cambridge University Press, Cambridge.
  4. A Preface to Coleridge, Allan Grant, Longman, London.
  5. Coleridge, his contribution to English criticism, L.S.Sharma, Arnold-Heinemann, New Delhi.

 

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