24 एफ.आर. लीविस

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. आलोचक के रूप में एफ.आर. लीविस का अन्तर्विकास
  4. मुख्य स्थापनाएँ
  5. अंग्रेजी उपन्यास : एक महान परम्परा की शुरुआत
  6. दो संस्कृतियों की धारणा की समालोचना
  7. लीविस का सिद्धान्त विरोध उर्फभाषा-सिद्धान्त
  8. लीविस की आलोचना-प्रक्रिया
  9. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • एफ.आर. लीविस का साहित्यिक परिचय प्राप्त करेंगे।
  • लीविस और उनके समकालीन एम्पसन की आलोचना दृष्टि का भेद जानेंगे।
  • साहित्यिक आलोचक के रूप में लीविस का विकासक्रम देखेंगे।
  • लीविस की मुख्य स्थापनाएँ जानेंगे।
  • अंग्रेजी उपन्यास सम्बन्धी लीविस की मान्यताओं के बारे में जानेंगे।
  • लीविस की आलोचना-प्रकिया से अवगत होंगे।
  1. प्रस्तावना

फ्रैंक रेमण्ड लीविस (सन् 1895-सन् 1978) को अंग्रेजी की आधुनिक आलोचना में बड़े आलोचकों में गिना जाता है। आधुनिक आलोचना के आधार स्तम्भ माने जाने वाले आई.ए. रिचर्ड्स और टी.एस. इलियट के बाद इंग्लैण्ड में ‘नई आलोचना’ का जो नया दौर आरम्भ हुआ, उसमें एफ.आर. लीविस प्रमुख माने जाते हैं।

 

लीविस ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा ‘डाउनिंग कॉलेज’ में अध्यापन करते हुए बिताया। बतौर आलोचक उनका जो महत्त्व स्थापित हुआ, उसमें उन के ‘अध्यापकीय व्यक्तित्व’ का बड़ा योगदान था। लीविस ने अध्यापकीय  आलोचना को श्रेष्ठ आलोचना के प्रतिमान के रूप में स्थापित किया। वे आलोचना में अनुशासन, गम्भीरता और अध्ययन को बहुत महत्त्व देते थे। लीविस मूलतः ‘इतिहास’ के छात्र थे। बाद में वे अंग्रेजी साहित्य के अध्ययन में लग गए। शायद इसीलिए साहित्य और उसके भाषा पाठ के भीतर प्रवेश करते हुए वे परोक्ष रूप में ‘इतिहास की आँख’ से देखने का प्रयास भी करते रहे।

 

लीविस अपनी ‘सन्तुलित’ एवं ‘पारदर्शी’ आलोचना के लिए जाने जाते हैं। उनके समकालीनों में विलियम एम्पसन को भी महत्त्वपूर्ण आलोचक माना जाता है। एम्पसन ‘मौलिक’ एवं ‘विवादास्पद’ माने जाते हैं। लीविस और एम्पसन की गणना ‘नए’ आलोचकों के रूप में ही की जाती है। ये दोनों आलोचक एक मंच पर खड़े प्रतीत होते हैं। ये दोनों ही ‘पाठ के भीतर इतिहास और संस्कृति की गहराइयों’ को खोजने का प्रयास करते हैं। विमसाट, क्लिन्थ  व्रुक्स, एलेन टेट अथवा ब्लैकमर उनके अन्य समकालीन आलोचक हैं।

 

‘नई आलोचना’ को व्यवस्थित और प्रयोजनधर्मी रूप प्रदान करने तथा इसमें ‘मौलिक अन्तर्विकास की सम्भावनाएँ’ खोजने के लिहाज से लीविस का कार्य ऐतिहासिक माना जाता है। लीविस ने ‘विवादपूर्ण वक्तव्यों’ की बजाय ‘सन्तुलित’ व ‘विवेक सम्मत’ मूल्यांकन के लिए आधारों या कसौटियों का रेखांकन करने में सफलता पाई। इसीलिए इनको अंग्रेजी आलोचना में स्वीकृति मिली। कहना न होगा कि लीविस एम्पसन की तुलना में ज्यादा लोकप्रिय हैं। लीविस अपनी रुचि और मान्यताओं के बहुत आग्रही थे। उन्होंने अपने जीवन और लेखन में अनेक विरोधी बनाए। अपने लेखन के अन्तिम दौर में उन्होंने टी.एस. इलियट की आलोचना की। सी.पी. स्‍नो और एफ.डब्लू. बेटसन से उनका लम्बा विवाद चला। मार्क्सवादी आलोचना से उनकी असहमतियाँ थीं। वे पत्रकारिता और मीडिया में साहित्य की प्रस्तुति का विरोध करते थे। शिक्षा जगत में भी एफ.आर. लीविस को विरोध का सामना करना पड़ा। रैने वेलेक ने उनके व्यक्तित्व पर टिप्पणी करते हुए लिखा कि लीविस अपने व्यवहार में कूटनीति का इस्तेमाल नहीं करते थे। यहाँ तक कि वे सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह भी ठीक से नहीं कर पाते थे। इसके बावजूद वे अंग्रेजी में इलियट के बाद दूसरे सबसे बड़े आलोचक हैं (A History of Modern Criticism 1750-1950 Volume 5, पृ. 241, Rene Wellek, Jonathan Capes, London) अक्सर उन पर निजी अभिरुचि थोपने के आग्रह का आरोप भी लगता रहा। हालाँकि वे इसका प्रत्याख्यान करते रहे। दरअसल वे अपनी साहित्यिक अभिरुचि के कायल थे और किसी अन्य तथाकथित वस्तुनिष्ठ सिद्धान्त के समर्थक नहीं थे।

 

लीविस ने अंग्रेजी साहित्य और पत्रकारिता के रिश्तों को समझने से जुड़ा अपना शोध कार्य किया। इससे वे साहित्य के समकालीन परिदृश्य और उसकी सीमाओं को अच्छी तरह से समझ सके। पत्रकारिता का यह पहलू बाद में भी अनेक रूपों में उनकी आलोचना में देखने को मिलता है। अध्यापन के साथ-साथ उन्होंने स्क्रूटिनी नाम की एक साहित्यिक पत्रिका भी निकाली। इसका उन्होंने सन् 1932 से सन् 1953 सम्पादन किया। उनके अधिकांश आलोचनात्मक आलेख  इसी पत्रिका में प्रकाशित होते रहे। बाद में इन लेखों को उन्होंने संकलित या सम्पादित कर पुस्तकों की शक्ल दी।

 

एक आलोचक के तौर पर एफ.आर. लीविस ने समकालीन साहित्य का मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ, वैज्ञानिक, विवेक-सम्मत और निष्पक्ष ढंग से करने का प्रयास किया। उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में ‘मूल्यांकन के प्रतिमान’ स्थापित करने में सफलता पाई।

  1. आलोचक के रूप में लीविस का अन्तर्विकास

एफ.आर.लीविस के आलोचना-कर्म को तीन भागों में बाँटा जा सकता है। पहले भाग में उनकी काव्य सम्बन्धी आलोचना को रखा जा सकता है। वे जिस दौर की उपज थे, उसमें उन्होंने टी.एस. इलियट और एजरा पाउण्ड की रचनाशीलता को सक्रिय रूप में देखा था। यह उनकी अन्तर्दृष्टि का परिणाम था कि उन्होंने समकालीन रचनाशीलता के मूल्यांकन-क्रम में अपने इन महान लेखकों की प्रतिमा को जन-संस्कृति में गहरी पैठ लगाने लायक समझा था। एक आलोचक के रूप में भी वे टी.एस. इलियट से काफी प्रभावित थे। अपने इस पहले दौर में उन्होंने पत्रकारिता और साहित्य के रिश्तों पर कार्य करते हुए ‘जन-संस्कृति’ के सम्बन्ध में भी अनेक उल्लेखनीय धारणाएँ प्रस्तुत की थीं। सन् 1932 में उनकी किताब New Bearings in English Poetry प्रकाशित हुई। यह किताब परम्परा और विकास पर केन्द्रित थी। इसमें उन्होंने पूरी काव्य परम्परा पर नजर दौड़ाते हुए समकालीन काव्य के महत्त्व को स्थापित किया था।

 

लीविस के आलोचना-कर्म का दूसरा दौर मुख्यतः कथा को समर्पित था। सन् 1948 में वे अपनी प्रसिद्ध पुस्तक महान परम्परा (The Great Tradition) के साथ सामने आए। इस पुस्तक में उन्होंने चार बड़े उपन्यासकारों को स्थापित किया। जेन ऑस्टिन, जॉर्ज इलियट, हेनरी जेम्स और जोसेफ कोनराक। आगे चलकर उन्होंने उपन्यासकार के रूप में डी. एच. लॉरेन्स को महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार के रूप में स्थापित किया।

 

लेविस का तीसरा दौर रचनाशीलता के सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को समर्पित रहा। वे सिद्धान्त और विमर्श के तल पर आ कर कभी अपने मत को विराट रूप में प्रस्तुत नहीं करते थे। अपने लेखन-कार्य के इस अन्तिम दौर में वे सन् 1962 में सी.पी. एनो की आलोचना करते हुए ‘सांस्कृतिक परिदृश्य’ के दो हिस्सों में विभाजित होने को लेकर अपने समन्वय प्रस्ताव के साथ सामने आए थे।

  1. मुख्य स्थापनाएँ

अपने आप में सामाजिक-राजनीतिक पूर्णता से युक्त होने के कारण साहित्य को लीविस ‘जीवन्त’ वस्तु की तरह देखते थे। इस दृष्टि से वे अन्य ‘नए आलोचकों’ के समान होते हुए भी उनसे थोड़े अलग हैं। उन्होंने स्पष्ट तौर पर यह बात हमारे सामने रखी कि अंग्रेजी काव्यधारा में कौन-सा काव्य जीवन्तता की कसौटी पर खरा उतरता है? कौन खरा नहीं उतरता? इस सन्दर्भ में व्यावहारिक आलोचना सम्बन्धी उनकी मुख्य स्थापनाएँ इस प्रकार हैं‒

  1. कथा-कृति में सामाजिक-राजनीतिक पूर्णता तभी सम्भव है, जब उसके विविध घटक ऐसे ‘सन्तुलन’ एवं अनुपात में हों कि वें उसे ‘जीवन जैसा’ लगे, तथा उसे ‘मानवीय’ बनाए।
  2. टी.एस. इलियट की ‘संवेदनधर्मिता के विच्छेद’ को ‘आधुनिक काव्य’ के लिए चुनौती मानते हुए लीविस ने इस विच्छेद का निम्नलिखित-रूपों में विकास-विस्तार किया :

 

क. इलियट के विचार और भाव के बीच असन्तुलन होने की धारणा लीविस के लिए ‘बौद्धिकता’ और ‘रागात्मकता’ के बीच की दूरी की धारणा में परिवर्तित हो जाती है।

ख. इसे और गहराते हुए लीविस इसे ‘ज्ञानानुशासनमूलक वैज्ञानिकता और तर्क-संगत’ की ‘सम्यक रचनाशीलता से दूरी’ कहते हैं।

ग. फिर वे ‘वैज्ञानिकता और रचनाशीलता के बीच के अतःसमन्वयों की सम्भावनाओं पर विचार करते हैं।

व्यवहारिक धरातल पर लीविस के इस सिद्धान्त को समझने का प्रयास किया जाए तो कुछ निम्नलिखित निष्कर्ष सामने आते हैं‒

क. टी.एस. इलियट, एजरा पाउण्ड और यीट्स जैसे ‘आधुनिक कवि’ अपने से पहले के ‘विक्टोरियन’ कवियों की तुलना में बेहतर हैं। वे यथासम्भव संवेदनात्मक अन्तःविच्छेद से उलटने का प्रयास करते हैं।

ख. विक्टोरियन दौर के कवियों­­­­­­­­­­­­­­­ – जैसे टेनिसन और ब्राउनिंग में ‘बौद्धिकता’ उनकी ‘रागात्मकता पर हावी होती नजर आती है। अतः उनकी कविता श्रेष्ठ काव्य का उदाहरण नहीं है।

ग. विक्टोरियन युग से पीछे के ‘स्वच्छन्दतावादी’ दौर के कवियों में ‘कल्पनात्मक अन्तःसमन्वयन’ की बड़ी क्षमताएँ हैं। कल्पना के अति-प्रसार के कारण वहाँ रागात्मकता को पतनशील औद्योगिक दौर की बौद्धिकता के मुकाबले बेहतर मानकर अधिक महत्त्व दिया गया।

घ. स्वच्छन्दतावादी कवि, विक्टोरियन युग के कवियों से इसलिए बेहतर हैं, क्योंकि वहाँ सजग समन्वय गहरे मानवीय स्तरों तक चला जाता है। इस लिहाज से वे वर्ड्सवर्थ, शेली, कीट्स जैसे कवियों को इलियट व पाउण्ड तक पहुँचा सकने की आधार-भूमि तैयार करता हुआ देखते हैं।

ङ. लीविस की दृष्टि में उससे भी पीछे के एलिजाबेथ काल के शेक्सपियर तथा पुनर्जागरण काल के मिलटन प्रशंसा के पात्र सिद्ध होते हैं। इसका कारण लीविस यह बताते हैं कि तब तक संवेदनात्मक अन्तःविच्छेद के हालात ही पैदा नहीं हुए थे। अतः इन कवियों में एक अलग तरह की ‘जीवन्तता’ और जैविक अतःसमग्रता दिखाई देती है।

  1. अंग्रेजी उपन्यास : एक महान परम्पराकी शुरुआत

यूरोपीय उपन्यासों के सन्दर्भ में लीविस ने अंग्रेजी के इंग्लैण्ड रचित आधुनिक काल के उपन्यास को ‘रचनाशीलता की एक महान परम्परा’ का सूत्रपात करने वाला माना है। लीविस ने उस दौर के कुछ उपन्यासकारों में समकालीन यथार्थ की समग्रता और जीवन्तता सन्तुलित व निर्वैयक्तिक अभिव्यक्ति प्रदान करने की प्रशंसनीय रचनात्मक सम्भावनाएँ देखी थी। इस सन्दर्भ में उनकी कुछ उल्लेखनीय स्थापनाएँ इस प्रकार हैं‒

 

क. साहित्य समाज की चेतना के सभ्यताकरण एवं मानवीयकरण का हेतु है। आधुनिक अंग्रेजी उपन्यास के इस कसौटी पर खरा उतरने के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं।

ख. समाज के परम्परागत नैतिक मूल्यों को ‘भाषागत सामाजिक अन्तःक्रिया’ में बदलने की, सजग और सक्रिय भूमिका उपन्यास निभा सकते हैं। अतः समय-समय पर उसकी भूमिका काव्य के मुकाबले अधिक दायित्वपूर्ण हो जाती है।

ग. अंग्रेजी उपन्यास आधुनिक काल में प्रवेश करता हुआ, विक्टोरिया काल की नैतिक रूढि़यों से ऊपर उठता है। वह उनके मानवीयकरण के लिए अधिक सम्प्रेषणीय रचनाशीलता का परिचय देता है।

घ. सामाजिक-राजनीतिक समग्रता व जीवन्तता से युक्त अंग्रेजी उपन्यास ‘भाषा के सौन्दर्यात्मक रूप-विधान’ के साथ परोक्ष ‘नैतिक दायित्व’ का निर्वाह करने की कसौटी पर खरा उतरता है। इसलिए उसे श्रेष्ठ कहा जा सकता है। इस परम्परा के प्रतिनिधि हैं‒ जॉर्ज इलियट, जेन ऑस्टिन, हेनरी जेम्स और जोसेफ कॉनराड।

ङ. आगे चलकर लीविस ने इस सूची में दो और नाम भी शामिल किए। उनकी किताब महान परम्परा उपर्युक्त चार उपन्यासकारों पर केन्द्रित है। यह सन् 1948 में प्रकाशित हुई। इस समय का अलग महत्त्व है। यह द्वितीय विश्‍वयुद्धोत्तर समय की रचनाशीलता का प्रतिनिधित्व करने वाली परम्परा का समय है। इस सूची में स्वतन्त्र रूप में जिन दो अन्य उपन्यासकारों पर लीविस की कथालोचना की किताबें प्रकाशित हुईं, वे हैं‒ डी.एच. लारेन्स और चार्ल्स डिकेन्स।

  1. दो संस्कृतियोंकी धारणा की समालोचना

लीविस ने सी.पी. स्‍नो द्वारा प्रस्तावित ‘दो संस्कृतियों के अन्तःविच्छेद’ की धारणा पर अपने समन्वयात्मक विचार रखे। ‘दो संस्कृतियों’ के अन्तःविच्छेद की चर्चा सी.पी. स्‍नो से भी बहुत पहले, जॉन डुवी के समय से चली आ रही थी। अल्डुस हक्सले इसका बेहद गम्भीर विवेचन कर चुके थे। इस अन्तःविच्छेद के पीछे की बात वही थी, जो दूसरी शब्दावली में टी.एस. इस्तेपर  के ‘संवेदनात्मक अन्तःविच्छेद’ के तौर पर सामने आ चुकी थी।

 

लीविस खुद विज्ञान, विमर्श, ज्ञान-मीमांसा और सैद्धान्तिक चर्चा से दूर रहने वाले समालोचक थे। परन्तु इस विवाद के सन्दर्भ में उन्होंने यह बात सामने रखी थी कि वैज्ञानिक विकास के दौर के कारण ज्ञान-मीमांसा की अनदेखी नहीं की जा सकती। रचनाशीलता, ज्ञान-मीमांसा को ‘परोक्ष’ या ‘अचेतन मानस’ के धरातल पर ही ग्रहण करती है। इस सिद्धान्त को रचनाशीलता पर सजग रूप में नहीं लादना चाहिए। उसे अवचेतन की भूमि में मौजूद रहने से भी नहीं रोकना चाहिए। इस प्रकार लीविस ने इन दो संस्कृतियों के बीच के विभाजन को ‘चेतना’ के स्तर पर सुलझाने का प्रयास किया और सी.पी. स्‍नो की मान्यताओं का खण्डन किया।

 

एफ.आर. लीविस मुख्यतः व्यावहारिक आलोचक हैं। वे कृति का रचनात्मक विश्‍लेषण करना पसन्द करते हैं। उन्होंने अपनी अभिरुचि के अनुरूप अंग्रेजी साहित्य की आलोचना की और अंग्रेजी साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन किया। इस मूल्यांकन के अपने तर्क हैं। इसमें सहमति और असहमति के अपने बिन्दु हैं। इस व्यावहारिक आलोचना के भीतर से हम लीविस की साहित्य सम्बन्धी मान्यताओं को सूत्रबद्ध कर सकते हैं और तब लीविस पाश्‍चात्य काव्यशास्‍त्र का हिस्सा बन सकते हैं।

 

इस सन्दर्भ में लीविस की मान्यता है कि साहित्य एक भाषा-पाठ है अर्थात् उनकी यह मान्यता ‘नई समीक्षा’ की ही मान्यता है। लेकिन वे शैली वैज्ञानिक और भाषा वैज्ञानिक आलोचक नहीं हैं। साहित्य में भाषा सतह पर होती है। भाषा के शब्द अपने आप में कुछ महत्त्व नहीं रखते। वे किसी और वस्तु या यथार्थ की तरफ इशारा करते हैं। अर्थात् लीविस भाषा-पाठ के अध्ययन को महत्त्व देते हैं, परन्तु पाठ तक अपने आपको सीमित नहीं रखते। साहित्य का अन्तिम मूल्य तो जीवन है। वह मानवीयता का समर्थक है और इस तरह वे यथार्थवादी कला के समर्थन में आ जाते हैं। इस बिन्दु पर रैने वेलेक ने लीविस के विचारों में अन्तर्विरोध देखा है। कहाँ साहित्य भाषा-पाठ है और कहाँ वह जीवन की अभिव्यक्ति है। हालाँकि लीविस मानते हैं कि कवि को नैतिक होना चाहिए, परन्तु उपदेशात्मक नहीं होना चाहिए। इसी तरह साहित्यिक परम्परा ‘मुख्यतः भाषा के विकास’ की परम्परा तो है, परन्तु यह परम्परा सामाजिक-सांस्कृतिक परिधि में ही घटित हो पाती।

 

लीविस अपनी ‘अभिरुचि’ को बहुत महत्त्व देते हैं। रैने वेलेक के अनुसार लीविस की ‘अभिरुचि’ का आधार 19वीं सदी के आलोचनात्मक यथार्थवाद में है। इसी अभिरुचि से उन्होंने टी.एस. इलियट की आरम्भिक कविताओं और डी.एच. लॉरेन्स के उपन्यासों को पसन्द किया है और इसी कारण वे आधुनिकतावाद, अवांगर्द और जेम्स जॉयस का विरोध करते हैं। वे उन सबका विरोध करते हैं जिनका महत्त्व सन् 1930 के बाद बढ़ा। (A History of Modern Criticism, Volume 5, पृ. 252)

 

रैने वेलेक इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि एफ.आर. लीविस उन चिन्तकों और विचारकों में से हैं जो मशीनी सभ्यता के विकास का विरोध करते हैं और पुराने सामुदायिक, पूर्व औद्योगिक समाज को नॉस्टेलजिया की तरह याद करते हैं। हालांकि लीविस अतीत के पुरागमन की सम्भावना में विश्‍वास नहीं करते। परन्तु वे उस अतीत को हसरत से याद करते हैं। इसलिए ‘जीवन’ पर बल देने के कारण वे अंग्रेजी ग्रामीण परम्परा का समर्थन करते हैं और इसी कारण शेक्सपीयर, जेन ऑस्टिन, जॉर्ज इलियट, डी.एच. लॉरेन्स उनको पसन्द आते हैं। (A History of Modern Criticism, Vol. 5, पृ. 252)

 

जो भी हो, लीविस इस मत पर दृढ़ आस्था रखते थे कि साहित्य अपने समय की महत्त्वपूर्ण सामाजिक और नैतिक शक्ति है। इस शक्ति का विश्‍लेषण सामान्य व्यक्ति नहीं कर सकता। इसके लिए अनुशासित विशेषज्ञता की जरूरत होती है। यह गम्भीरता विश्‍वविद्यालय के शिक्षकों में होती है और होनी चाहिए।

 

साहित्य में जीवन तो होता है, होना भी चाहिए, परन्तु इसे पाठ के बाहर से खोजकर पाठ पर लागू करना सही नहीं है। लीविस इसका विरोध करते हैं। इसलिए वे मनोवैज्ञानिक, जीवनीपरक, ऐतिहासिक आलोचना का विरोध करते हैं। मार्क्सवादी और कैथोलिक दृष्टि का विरोध करते हैं। यहाँ तक कि साहित्य के इतिहास और दर्शन का भी विरोध करते हैं। एफ.डब्लू. बेटसन से लीविस की लम्बी, रोमांचक बहस हो चुकी है।

 

कविता भाषा-पाठ है, तो उसमें शब्द होते हैं। कविता में शब्द इसलिए नहीं होते कि हम उनके बारे में सोचें और जाने, वरन् इसलिए होते हैं कि हम शब्दों के भीतर अनुभव करें। ताकि उस जटिल अनुभव का साक्षात्कार कर सकें, जो उन शब्दों ने पाठक को दिए हैं। यहाँ लीविस ‘नई समीक्षा’ और मार्क्सवाद दोनों से अलग हो जाते हैं।

 

लीविस अपने आलोचनात्मक लेखन में बार-बार यह घोषणा करते हैं कि उनकी दार्शनिक सिद्धान्तों में कोई रुचि नहीं है। साहित्य-समीक्षा और दर्शन दोनों अलग-अलग ज्ञानानुशासन है। इसलिए लीविस ने कहीं साहित्य-सिद्धान्तों का चिन्तन नहीं किया। वे मानते हैं कि कविता का आलोचक पूरी तरह से कविता का पाठक होता है। इसीलिए वे यह सूत्र देते हैं कि कविता का ‘आदर्श आलोचक आदर्श पाठक’ होता है। आप कविता के आस्वाद के दौरान जो कुछ अनुभव, ज्ञान प्राप्त करते हैं। वह सब काव्यात्मक होता है, शेष सब काव्य से इतर होता है। बाहर से कोई विचार लाकर कविता को समझने की पद्धति ही दोषपूर्ण है। इसलिए वे ऐसे महत्त्वपूर्ण पाश्‍चात्य आलोचक हैं जो यह घोषित करते हैं कि अरस्तू का ‘काव्यशास्‍त्र’ पढ़कर कोई आलोचक नहीं बन सकता। साहित्य का इतिहास पढ़कर साहित्य का आस्वाद नहीं किया सकता। यह सब तो ‘जानकारी’ मात्र है, जो अपने आपमें गैर काव्यात्मक है।

 

इसलिए वे शास्‍त्र के स्थान पर व्यवहार को महत्त्व देते हैं। साहित्यिक संवेदनशीलता पाठकीय अनुभव से आती है। इसलिए लीविस के अनुसार ‘कविता में समझदारी से भरी हुई अभिरुचि’ महत्त्वपूर्ण है। इसलिए वे आलोचना के आधारों की चर्चा तो करते हैं, परन्तु वे यह भी स्थापित करते हैं कि ये आधार आलोचना की अपनी प्रक्रिया से आने चाहिए। जो अध्ययन साहित्य की जानकारी तक आकर समाप्त होता है, वह साहित्य की आलोचना के लिए निरर्थक है।

  1. लीविस की आलोचना–प्रक्रिया

लीविस के लिए कृति का भाषा-पाठ एक तरह की अन्तःविमर्शात्मक संरचना जैसी है। वह एक समग्र रचनात्मक विमर्श है। इसे आलोचक या पाठक पुनः अभिव्यक्त करता है। कृति की अर्थगत समग्रता इस अभिव्यक्ति की कसौटी  होती है। कृति का ‘पूरा मतलब’ पकड़ में आ जाने पर जो अभिव्यक्ति विमर्श होगा, उसे कृति की आलोचना कहेंगे। पाठक-समालोचक कृति के भाषा प्रवाह के भीतर मौजूद ‘जीवन के अनुभव’ की, अपने अनुभव की सापेक्षता में समझते और अभिव्यक्त करते हैं। अनुभव-क्षेत्रीय आपसदारी कृति के अर्थ में परस्पर-पूरक होता है। अन्तःकृति के अनेक पाठकवादी अर्थ हो सकते हैं, लेकिन उनमें कृति के ‘समग्र अर्थ’ की छवि अवश्य होनी चाहिए। लीविस के लिए अन्ततः स्वयं ‘जीवन’ एक कसौटी है। इस कसौटी को हमें कृति के भाषा-पाठ के भीतरी संसार से उपलब्ध करना होता है।

 

समाज में जिस तरह हम एक दूसरे से भेंट करते हुए अपने अनुभव व ज्ञान का विकास व विस्तार कहते हैं, उसी रूप में हमें कृति के भाषा-पाठ को आपसी संवाद की तरह ग्रहण करना चाहिए। रूपगत व्यवस्थापन की श्रेष्ठता, कृति के महान अर्थबोध की सूचक होती है। रूप की कमजोरियाँ कृति को कमजोर करती हैं। उसकी अन्तर्वस्तु की अभिव्यक्ति में अवरोध होती हैं। निर्णय एवं मूल्यांकन के अभाव में समालोचना का कार्य पूरा नहीं होता। मूल्यांकन का आधार है- कृत्रिम अन्तःसन्तुलन, समायोजन, आनुपातिकता एवं समग्र ‘संवेदनात्मक अन्तःविच्छेद’। ये तत्त्व कृति की इस अन्तरंग समग्रता को बिखेरते हैं और उसे एक कृति के रूप में कमजोर बनाते हैं। एक आलोचक श्रेष्ठ कृतियों की ‘श्रेष्ठता’ का निर्धारण करता हुआ ‘जनमत तैयार’ करता है। जन समाज का सभ्यताकरण एवं मानवीकरण ही इसका लक्ष्य होता है।

  1. निष्कर्ष

एफ.आर. लीविस आलोचना को ‘जनमत तैयार करने’, ‘रचनाशीलता की संस्कृति’ का विकास करने तथा ‘सामाजिक संवेदनशीलता को गहराने’ के लिए इस्तेमाल में लाए जाने की वकालत करते थे। उन्हें ‘संस्कृति आलोचक’ भी कहा जाता है। हमारे समय में संस्कृति भी गहरे संकट में है। उद्योगीकरण, पूँजीवादी शोषण, राजनीतिक अवसरवाद और विभिन्‍न कट्टरपन्थी ताकतों की वजह से मानवता कराह रही है। आलोचक सिर्फ साहित्य को ही नहीं, संस्कृति को भी चाहिए। ऐसे में एफ.आर. लीविस हमारे सामने एक महत्त्वपूर्ण संस्कृति आलोचक के रूप में आते हैं।

 

लीविस एक सजग और अनुशासनप्रिय आलोचक के रूप में जाने जाते हैं। आलोचना में वे दृढ़ता और कठोरता पसन्द करते हैं। उन्हें आलोचना और रचना में रोमैण्टिक मनोभाव पसन्द नहीं हैं। वे रचना के व्यापक सरलीकरण की बजाय एक विश्‍लेषणात्मक आलोचना का रास्ता चुनते हैं। शायद इसीलिए टी.एस. इलियट के बाद वे सबसे बड़े आलोचक माने गए हैं। लीविस की आलोचना की ताकत मिल्टन और शेली सम्बन्धी उनकी आलोचना में देखी जा सकती है। उन्होंने बहुत ही स्पष्टता और कठोरता से इन दोनों बड़े कवियों की आलोचना की है। जो काम इलियट ने अंग्रेजी कविता के लिए किया, वही काम लीविस ने अंग्रेजी की साहित्यिक आलोचना के लिए किया।

 

लीविस ने आलोचक को ‘साहित्य के अधिक सजग पाठक’ की तरह देखा। इसी में उसकी सामाजिक भूमिका को निहित माना। वह मानते थे कि आलोचना भी रचना होती है और आलोचक एक रचनाकार। उसका कद लेखक की तुलना में छोटा नहीं होता। वे साहित्य और रचनाशीलता की संस्कृति के विकास के लिए आलोचक को ही अधिक महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनका मानना था कि एक आलोचक ही ‘संस्कृति’ का विकास करने के लिए समाज के समक्ष ‘विवेकसम्मत’ मूल्यांकन के साथ सामने आ सकता है। एक आलोचक पर लोगों का भरोसा होता है कि वे ही उन्हें श्रेष्ठ साहित्य को पढ़ने के लिए चुनाव करने का आधार प्रदान करते हैं। कभी-कभार आलोचक अपने मत से समाज को प्ररित करने का हेतु भी हो सकता है।

 

लीविस की स्थिति ‘एक विशुद्ध आलोचक’ के रूप में हमारे सामने आती है। अन्य आलोचकों की तरह उन्होंने ‘अन्य ज्ञानानुशासनों के विमर्शों’ को साहित्य के अध्ययन का आधार नहीं बनाया। उन्होंने आलोचना की अपनी सैद्धान्तिकी’ भी नहीं दी। लीविस के साहित्य व आलोचना-सिद्धान्त के पक्ष और विपक्ष दोनों हैं। ये दोनों पक्ष क्रमशः आधुनिक भाषाविज्ञान सम्मत और भाषा-पाठ केन्द्रित उत्तराधुनिक आलोचकों के हैं। लीविस के भाषा-विज्ञान सम्मत आलोचक लीविस के  दृष्टिकोण को ‘थोड़ा सीमित’ मानते हुए भी, उसे साहित्य व रचनाशीलता की हिफाजत करने वाला मानते हैं । दूसरी ओर टेरी ईगलटन  जैसे मार्क्सवादी आलोचक हैं। ईगलटन ने ‘विचारों की स्पष्टता’ के लिए लीविस की प्रशंसा करते हुए भी ‘अति पाठवादी वस्तुकरण’ के लिए उन्हें दोषी माना है। इससे ‘भाषा-पाठ’ स्वयं में एक वस्तु-मूल्य हो जाता है। जो रचनाशीलता की मानवीय सम्भावनाओं को पहचानने के रास्ते में रुकावट हो सकता है।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. The Literary Criticism of F. R. Leavis,  r.p bilan,Cambridge, university,press
  2. Theory of Literature, Paul H. Fry, Yale University Press, New Haven.
  3. The English Literature Companion, Julian Wolfreys, Palgrave Macmillan, New York
  4. Literary criticism a short history, William k.wimsatt, JR.& Cleanth Brooks , oxford,New Delhi
  5. The Great Tradition, F. R. Leavis, faber&faber
  6. A History Of Modern Criticism: 1750-1950, Rane Wellek, Jonathan Cape ltd, London

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/F._R._Leavis
  2. http://www.newworldencyclopedia.org/entry/F._R._Leavis
  3. http://www.britannica.com/biography/F-R-Leavis