5 अनुकरण का सिद्धान्त

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त
  4. अनुकरण की पद्धतियाँ
  5. यथार्थवाद से आदर्शवाद का द्वन्द्व
  6. अनुकरण का सिद्धान्त और काव्य की प्रकृति
  7. अनुकरण और कवि प्रतिभा
  8. अनुकरण और प्रकृति
  9. अनुकरण के महत्त्व का कारण
  10.  अनुकरण की सीमाएँ
  11. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त की परिभाषा जान सकेंगे।
  • अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त की पद्धतियों से परचित हो सकेंगे।
  • प्लेटो और अरस्तू के अनुकरण सिद्धान्त में फर्क कर सकेंगे।
  • अनुकरण के सिद्धान्त और काव्य-प्रकृति को समझ सकेंगे।
  • अनुकरण और कवि-प्रतिभा पर अरस्तू के विचार जान सकेंगे।
  • अनुकरण सिद्धान्त के महत्त्व का कारण समझ सकेंगे।
  • अनुकरण की सीमाएँ जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

प्लेटो के अनुसार संसार की हर वस्तु का एक नित्य रूप होता है। यह रूप ईश्‍वर निर्मित हुआ करता है। रचनाकार इसी रूप को इसी, विचार को आधार बनाकर रचना करता है। अतएव रचनाकार एक नकलकर्ता होते हैं। उनकी अपनी कोई मौलिकता नहीं होती। प्लेटो के प्रिय शिष्य अरस्तू ने प्लेटो के इस सिद्धान्त से असहमति दिखाई। उन्होंने इसे एक नए रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने अनुकरण शब्द का व्यवहार ‘नकल’ से भिन्‍न अर्थ में किया। इसी को अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त कहा जाता है।

  1. अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त

अरस्तू ने काव्य को प्रकृति की अनुकृति माना है। उनके अनुसार यह अनुकृति तीन प्रकार की होती है। पहली अनुकृति वैसी ही होगी जैसी कोई वस्तु है या थी। दूसरी अनुकृति वह होती है जैसी कोई वस्तु कही या मानी जाती है। तीसरी अनुकृति वह है जिसमें अनुकर्ता यह दिखाता है कि कोई वस्तु कैसी होनी चाहिए। कोई भी रचनाकार शुद्ध नकल नहीं करता है। काव्य रचते समय कवि का अनुभव व्यापार और प्रतिभा उसे मदद करती है। यही कारण है कि भारत में कई रामकथाएँ लिखी गई लेकिन, जो लोकप्रियता तुलसी की रामकथा को मिली, वह किसी और कथा को न मिल सकी। अगर रचनाकार सिर्फ नकलकर्ता ही होता तो ऐसा नहीं होता।

  1. अनुकरण की पद्धतियाँ

सौन्दर्यशास्‍त्र में अनुकरण की तीन पद्धतियाँ मिलती हैं। पहला है, प्लेटो की बाह्य यथार्थ की यथावत अनुकृति। यह पद्धति आधुनिक कला-सृजन के उन रूपों में दिखाई देती है, जो बाहरी जगत की हू-ब-हू नक़ल पर आधारित हैं। मसलन, फोटोग्राफी, लैण्‍डस्केप एवं फिल्म तकनीक आदि इसके प्रमुख उदाहरण हैं। आधुनिक काल के साहित्य सृजन में अनुकरण की प्लेटो वाली धारणा की अनुगूँज प्रकृतवादी, अतियथार्थवादी लेखन में मौजूद है। जोला और फ्लाबेयर के उपन्यासों में भी उसकी झलक दिखाई देती है।

 

अनुकरण की दूसरी पद्धति अरस्तू की है। वे गोचर विश्‍व के साथ मानव-मन की अगोचर दुनिया को भी अनुकरण के अन्तर्गत रखते हैं और इस तरह सतह के नीचे सार तत्त्व का भी अनुकरण सम्भव मानते हैं। दुनिया भर के सर्जनात्मक लेखन में यथार्थवादी साहित्य लेखन के साथ उसका विकास हुआ जिसका प्रतिनिधित्व उन्‍नीसवीं सदी के महान लेखक बाल्जाक, टालस्टाय और टॉमसमान के उपन्यासों ने किया। जार्ज लुकाच आलोचना के क्षेत्र में आधुनिक काल के सिद्धस्थ भाष्यकार हैं, वे आलोचनात्मक यथार्थवाद के सिद्धान्‍त के लिए ख्यात हैं।

 

अनुकरण का तीसरा सिद्धान्त यूनानी दार्शनिक डेमोक्रेट्स की अनुकरण प्रणाली है जो यूरोप में नवजागरण के बाद पनपी। इस पद्धति में अनुकरण का अर्थ मनुष्य, समाज और प्रकृति की गतिशील द्वन्द्वात्मक सत्ता का अनुकरण है। आधुनिक काल में इसे फ़्रांसिसी संरचनावादी लुई अल्थूजर, लेविस्‍त्रॉस एवं रोलाँ बार्थ ने अपनाया।

 

इन तीनों में अरस्तू की अनुकरण प्रणाली सर्वाधिक प्रभावशाली है। अरस्तू ने सौन्दर्य चिन्तन की पूरी व्यवस्था तैयार की।

  1. यथार्थवाद से आदर्शवाद का द्वन्द्व

अरस्तू अपने समय के महान यथार्थवादी थे परन्तु, उनका रास्ता आसान न था। इस रास्ते की सबसे बड़ी बाधा प्लेटो थे। प्लेटो अरस्तू के गुरु थे। उन्होंने भौतिक जगत की वस्तुगत स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार नहीं किया। उसे ईश्‍वर निर्मित विचारों का प्रतिबिम्ब, अर्थात असल की नकल, अर्थात असार माना।

 

प्लेटो ने इस संसार को असल की नकल बताकर कला को नकल की नकल कहा और कवियों-कलाकारों को देश निकाला का अध्यादेश जारी कर दिया। ऐसे सिद्ध गुरु के समर्थ शिष्य अरस्तू ने जो उत्तर दिए वे आज तक नए साहित्य-सिद्धान्तों की निर्मिति में अपने कमोबेश परिवर्तन के बावजूद दिशा-निर्देशक हैं। अरस्तू को अपने गुरु प्रिय अवश्य थे किन्तु उससे भी प्रिय थी सत्य की प्यास। अतः अरस्तू ने ऐलान किया कि वह अपने गुरु के साथ सही ठिकाने पर पहुँचने के बजाए भटकना पसन्द करेंगे। यह सत्य था, भौतिक जगत की नित्यता की स्वीकृति; जिसे प्लेटो बार-बार ठुकरा चुके थे। इसलिए अनुकरण को पुनः परिभाषित करना जरूरी था।

 

अरस्तू ने एस्किलस, एरिस्टोफेनिस, यूरोपडिज, होमर आदि के दुखान्त नाटकों को आधार बनाकर अनुकरण की नई व्याख्या की। उन्होंने अनुकरण के रचनात्मक एवं शिक्षाप्रद मूल्यों के सन्दर्भ में त्रासदी की महानता सिद्ध की और अपना प्रसिद्ध विरेचन सिद्धान्त रखा। काव्य मानव-प्रकृति का व्यापार है। मनुष्य की मूल प्रकृति ही अनुकरणात्मक और संगीतप्रिय है। दोनों प्रकृतियों ने मिलकर काव्य को जन्म दिया। प्लेटो ने भी काव्य को अनुकरण माना था, किन्तु अरस्तू ने अपने गुरु की तरह उसे ‘मक्षिका स्थाने मक्षिका’ की तरह स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अनुकरण को एक औजार की तरह इस्तेमाल किया, जिसकी सहायता से कलाकार क्रियात्मक रूप से नवीन स्वप्नों का सृजन करता है, जो केवल बीज रूप में ही सृष्टि में होते हैं। दरअसल कवि और कलाकार वास्तविक दुनिया से विषयवस्तु का चुनाव करते हैं और अतिसामान्य वस्तु से भी अनेक नूतन उद्भावनाओं की सृष्टि करते हैं। वे उनके यथार्थरूप में भी सम्भाव्य रूपों को संकेतित करते हैं, उनके अधूरे रूपों में भी अपनी भावना का प्रकाश डालकर पूर्णता की अनुभूति कराते हैं।

  1. अनुकरण का सिद्धान्त और काव्य की प्रकृति

अरस्तू ने कला को मानवीय विकास की सर्वोत्तम उपलब्धि कहा है। अपने ग्रन्थ पोइटिक्स  में उन्होंने कहा कि “कवि और इतिहास केवल इस बात में भिन्‍न नहीं होते हैं कि एक पद्य में लिखा जाता है और दूसरा गद्य में। दोनों का भेद इस तथ्य में निहित है कि इतिहासकार केवल तथ्यों का वर्णन करता है, जबकि कवि ‘अतीत की घटनाओं के गुणधर्म’ बताता है। इतिहास की अपेक्षा काव्य में कहीं अधिक दार्शनिकता होती है, क्योंकि कविता अधिक सार्वजनिक होती है, इतिहास विशिष्ट होता है।” उन्होंने काव्य को मानव-जीवन और मानव-विचार के सार्वभौम और सार्वजनीन भावों का स्पष्टीकरण कहा। सार्वभौम और सार्वजनीन से उनका आशय था कि उस चीज का चित्रण जो किसी व्यक्‍त‍ि को सम्भावना अथवा आवश्यकता के अनुसार अवश्य ही कहनी या करनी चाहिए। इस मायने में जहाँ तक कला का प्रश्‍न है, अरस्तू ने बिलकुल ठीक कहा था कि कलाकार की प्राथमिक चिन्ता ‘अतीत की घटनाओं का गुणधर्म’ बताना होता है।

 

काव्य न तो विशुद्ध यथार्थ है, न किसी दार्शनिक के विचारों का आध्यात्मिक इन्द्रजाल। कवि कल्पना द्वारा साधारण से असाधारण अनुभूतियों एवं संवेदनाओं का सृजन करता हुआ दार्शनिकों के तात्त्विक चिन्तन की बराबरी करता है। अरस्तू ने स्वीकार किया कि सत्य का निरूपण काव्य और दर्शन दोनों समान शक्‍त‍ि से कर सकते हैं। कवि अपनी प्रतिभा से यथार्थ के गोचर उद्घाटित अर्थ से परे सम्भाव्य अर्थ का आकलन करने में भी समर्थ होता है।

 

मनुष्य के सीखने के मूलभूत स्वभाव के अर्थ में अरस्तू ने अनुकरण को ग्रहण किया। बच्‍चा अनुकरण द्वारा बोलना, लिखना और पढ़ना सीखता है। खिलाड़ी खेल के नियमों का अनुकरण करते हैं। विद्वान विचारों की अनुकरणात्मक समीक्षा करते हैं। कवि सौन्दर्य की प्रतिष्ठा में भावों एवं अनुभूतियों का अनुकरण करते हैं। अरस्तू के यहाँ अनुकरण का अर्थ पुनर्सृजन है।

 

अरस्तू के अनुसार अनुकरण केवल वास्तविक जगत के बाह्य व्यापारों का ही नहीं होता, काव्य में आन्तरिक सम्बन्धों, मानसिक अवस्थाओं, मनोवैज्ञानिक आवेगों तथा रागात्मक प्रतिक्रियाओं का भी प्रतिबिम्बन होता है। प्रेमचन्द ने ईदगाह कहानी में मेला घूमने गए हामिद के बाल-मन के आवेगों-अन्तर्द्वन्दों का और कफ़न  कहानी में अलाव पर पकते हुए आलू पर नज़र टिकाए तथा बाज़ार में कफ़न के लिए घूमते हुए घीसू और माधव के मनोविज्ञान का सटीक चित्रण जैसा किया है, वह इस दशा का विलक्षण उदाहरण है।

 

काव्य केवल यथार्थ जगत का ही अनुकरण नहीं है। उसमें मनुष्य और प्रकृति के बाह्य एवं अभ्यान्तर दोनों शामिल हैं। अनुकरण की इस प्रक्रिया में कवि-कलाकार न केवल नूतन सृजन करता है, बल्कि स्वयं अपनी सर्जक वृत्ति का परिशोधन भी करता है।

 

रेमण्ड विलियम्स ने द लांग रिवोल्यूशन  में लिखा, “प्लेटो ने जहाँ अनुकरण को मिथ्या प्रतीति (फिक्शन ऑर फाल्हुड) मानकर यह बताया है कि वह सार्वभौम सत्य का अनुकरण नहीं होता, बल्कि उसकी प्रकृति महज सतही होती है, वहीं अरस्तू ने अनुकरण को सीखने की सर्वोत्तम प्रणाली माना।”

  1. अनुकरण और कवि-प्रतिभा

अरस्तू के पोइटिक्स  में कवि-प्रतिभा पर बड़ा बल है। उन्होंने तर्क दिया कि मनुष्य से मनुष्य जन्म लेता है; पलंग से पलंग उत्पन्‍न नहीं हो सकता। वृक्ष की लकड़ी से पलंग बनता है। जमीन में बीज दबा दें तो पौधा उग सकता है, पलंग दबा देने से पलंग नहीं उग सकता।… आशय यह है कि पलंग का निर्माण बढ़ई करता है, उसमें उसके हाथ की सफाई की भूमिका होती है। उसी तरह काव्य-निर्माण में भी कवि की सृजन और क्षमता अनुकरण के रूप में व्यक्त होती है। कवि अन्तर्बाह्य जगत के उपादानों को निम्‍नस्तर से उच्‍च स्तर की ओर, सतह-प्रतीति से भाव-प्रतीति की ओर ले जाता है।

 

संक्रमण की यह प्रक्रिया अनुकरण की गत्यात्मकता के कारण सम्भव होती है। उसमें कवि-प्रतिभा की भूमिका असन्दिग्ध होती है। काव्य रूप में वस्तु का स्वरूप उपस्थित होता है। इस रूप के निर्माता कवि-कलाकार होते हैं। कोई कलाकार किसी दैवी प्रेरणा से काव्य सृजन में प्रवृत्त हो सकता है, किसी आध्यात्मिक सुगन्ध से प्रेरित हो सकता है। किन्तु अपने अन्तर्बाह्य जीवन के अनुभवों के चित्रण हेतु कलाकार को प्रतिभा की जरूरत होती है। सतत अभ्यास के बिना वह श्रेष्ठ काव्य की रचना नहीं कर सकता, ऐसा अरस्तू स्वीकार करते हैं। इसी मायने में कला पुनर्सृजन है। वहाँ हूबहू अनुकरण की गुंजाइश नहीं होती। चोर बाज़ार में कलाकारों के पाइरेटेड सीडी मिलेंगे। लेकिन सभ्य सुपरमार्केट में पाइरेटेड शेक्सपीयर अथवा कालिदास नहीं मिलेंगे। दुलारेलाल भार्गव ने भी सतसई लिखा था। वह भोंडा अनुकरण प्रमाणित हुआ।

  1. अनुकरण और प्रकृति

कला प्रकृति की अनुकृति है। यह कला और अनुकरण दोनों के विवेचन का मूल सूत्र है। यहाँ अनुकरण की अपेक्षा प्रकृति शब्द अधिक विवेच्य है। होरेस के आधार पर नव्यशास्‍त्रवादियों ने कहा कि प्रकृति का अर्थ नीति निर्देशित जीवन है और अनुकरण का अर्थ यथावत् प्रत्यंकन है। इस प्रकार अरस्तू का यह सूत्र रीतिबद्ध काव्य-रचना का प्रेरक मन्त्र बन गया। किन्तु प्रकृति के अर्थ को इस प्रकार सीमित करने का कोई कारण नहीं है।

 

यहाँ प्रकृति जीवन के समग्र रूप का पर्याय है। मानवेतर प्रकृति का अनुकरण, अनुकरणात्मक कला का नाम नहीं है। कवि या कलाकार प्रकृति की सृजन-प्रक्रिया का अनुकरण करता है। अनुकरण का विषय केवल गोचर वस्तुएँ ही नहीं उनमें निहित प्रकृति-नियम भी है। अरस्तू का मानना है कि प्रत्येक वस्तु पूर्ण विकसित होने पर जो होती है उसे ही हम उसकी प्रकृति कहते हैं। प्रकृति इस आदर्श रूप की उपलब्धि की ओर निरन्तर कार्यरत रहती है। किन्तु कई कारणों से वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो पाती। अनुकरण में प्रकृति के इन अभावों को कला द्वारा पूरा किया जा सकता है।

 

इस प्रकार अनुकरण एक सृजन-क्रिया है। काव्य-कला प्रकृति की सृजन-प्रक्रिया का अनुकरण करती हुई प्रकृति के अधूरे कार्य को पूर्ण करती है। इसी से काव्य में अनुकरण तत्त्व की महत्ता है।

  1. अनुकरण के महत्त्व का कारण

यह जिज्ञासा स्वाभाविक रूप से होती है कि अरस्तू ने काव्य-विवेचन में अनुकरण को इतना महत्त्व क्यों दिया? इस सन्दर्भ में निम्‍नलिखित कारणों का उल्लेख किया जा सकता है –

  • अरस्तू से पूर्व उनके गुरु प्लेटो ने काव्य तथा अन्य कलाओं को अनुकृति से सम्बद्ध होने के कारण हीन माना था। अरस्तू ने उसे मात्र सृष्टि के सम्बन्ध में ग्रहण किया और अनुकरण की अर्थ-ध्वनियाँ बदल दीं।
  • अरस्तू ने काव्य में त्रासदी को सर्वाधिक महत्त्व दिया। उनका समस्त काव्य-विवेचन त्रासदी के विवेचन से सम्बद्ध है। त्रासदी में अनुकरण की प्रधानता होती है, फलस्वरूप उनके काव्य-विवेचन में अनुकरण की प्रधानता स्वाभाविक है।
  • ग्रीक भाषा में कवि के लिए ‘पोयतेस’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका व्युत्पत्यर्थ कर्त्ता या रचयिता है। कवि घटनाओं का कर्त्ता नहीं, अनुकर्त्ता है। इस प्रकार अनुकरण की प्रधानता का सम्बन्ध ‘पोयतेस’ के व्युत्पत्यर्थ से जुड़ जाता है।
  1. अनुकरण की सीमाएँ

अनुकरण में व्यक्‍त‍िपरक भाव-तत्त्व की अपेक्षा वस्तुपरक भाव-तत्त्व को अधिक महत्त्व दिया गया, जो निश्‍चय ही अनुचित है। इसमें कवि की अन्तश्‍चेतना को उतना महत्त्व नहीं दिया गया, जितना दिया जाना चाहिए था। फलस्वरूप उसकी परिधि संकुचित हो गई।

  • संख्या में सर्वाधिक होते हुए भी विश्‍व का गीति-काव्य अनुकरण की परिधि में नहीं समा सकता, क्योंकि उसकी आत्मा है – भाव, जो प्रेरणा के भार से दबकर फूटता है।
  • कलाकार के मानस में घटित होनेवाले सहजानुभूति सिद्धान्त के अनुसार अनुकरण का कला-सृजन में कोई महत्त्व नहीं, जबकि अरस्तू अनुकरण को ही कला कहते हैं।
  • अरस्तू द्वारा अपनाए गए ‘मिमेसिस’ शब्द की अर्थ-परिधि में ‘पुनर्सृजन’, ‘कल्पनात्मक पुनर्निर्माण’ आदि अर्थों का अन्तर्भाव नहीं हो सकता।
  1. निष्कर्ष

अरस्तू के साथ काव्यशास्‍त्र की दुनिया में एक नए चरण का सूत्रपात हुआ जो प्लेटो की तुलना में अधिक वैज्ञानिक और वस्तुनिष्ठ चिन्तन था। विम्साट एवं ब्रुक्स ने लिखा है– प्लेटो के लिए अनुकरण का अर्थ सत्य, अर्थात ईश्‍वर की सत्ता से अलगाव और विरूपण है, कम से कम जब वे अनुकरण को काव्य और कला पर लागू करते हैं। अरस्तू के लिए उसका अर्थ स्पष्टतः यथार्थ का उच्‍चतम रूप है। यहाँ अरस्तू अधिक वैज्ञानिकता के साथ कला और प्रकृति के अनुकरणात्मक सम्बन्धों को विश्‍लेषित करते हैं (लिटरैरी क्रिटिसिज्म ए शॉर्ट हिस्ट्री, पृ. 26)।

 

अरस्तू के अनुसार ‘कला प्रकृति का अनुकरण’ है (मेटेरोलोजी IV.3)‌। ‘प्रत्येक कला और शिक्षा शाखा प्रकृति के अधूरे कार्यों को पूरा करती है (पॉलिटिक्स, IV (VI), 17)।’ ‘कला प्रकृति के उन अंशों का अनुकरण है जो छूट गए हों, अधूरे हैं (फिजिक्स II, 8)।’ अभिनवगुप्‍त ने भी ‘अपारे काव्य संसारे कवि रेव प्रजापतिः’ कहकर उसी ओर संकेत किया था। उन्होंने कवि को प्रजापति-ब्रह्म कहा। यह नया सृजनहार ‘यथा रोचते विश्वं तथैवं परिवर्त्तते’। अर्थात उन्हें जैसा रुचता है, संसार को बदल देता है। उसे बदलने की जरूरत इसलिए पड़ी कि वे वर्तमान दुनिया से असन्तुष्ट है और नए का सृजन करना उसका जन्मसिद्ध अधिकार है। इसी अर्थ में ‘कविकर्म निषिः परिभूः स्वंभूः’। वाल्मीकि ने ‘मां निषाद प्रतिष्ठां…’ लिखकर हत्या के स्थान पर मानवीय करुणा को स्थापित किया और प्रकृति की क्रूरता, उसके अधूरेपन को दूर किया। स्पष्ट है कि अरस्तू और अभिनवगुप्‍त ने काव्य में अनुकरण को नया अर्थ विस्तार दिया। अरस्तू की राय में इतिहास में सब कुछ सत्य होते हुए भी मिथ्या है, काव्य काल्पनिक होते हुए भी सच है।

 

अरस्तू द्वारा अनुकरण पद्धति के आधार पर कला-विधाओं का वैज्ञानिक वर्गीकरण तो और रोचक है। ‘महाकाव्यात्मक कविता, त्रासदी, कामदी, बाँसुरीवादन, वीणावादन सभी अनुकरण की पद्धतियाँ हैं (पोइटिक्स, 1447a,1448a)। अनुकरण की वस्तु, माध्यम एवं रीति के आधार पर विभिन्‍न काव्य-विधाओं – महाकाव्य, नाटक (सुखान्तिक-दुखान्तिक) गीत आदि में अरस्तू ने फर्क किया है। वे इसी आधार पर संगीत, चित्र, वास्तु, नृत्य आदि कलाओं से काव्यकला का अन्तर समझाते हैं। इन कलाओं की अन्तर्वस्तु जो भी हो, पर उसके अनुकरण की रीति में बड़ा फर्क है। संगीत में अनुकरण का माध्यम सुर, ताल, लय स्वरों का आरोह-अवरोह है। चित्रकला रंग, कूची, कैनवास का व्यापार है। वास्तु में ईंट-गारा-चूना-पत्थर अनुकरण के माध्यम हैं। नृत्य में आंगिक-कायिक-भ्रूसंचालन माध्यम हैं। काव्य शब्द-कर्म है। अनुकरण के माध्यम और रीति के कारण इनमें अन्तर है। इसलिए हर कलारूप से एक ही विषय-वस्तु की माँग सही नहीं है, यह समझ अरस्तू ने दी है। आचार्य शुक्ल ने महाकाव्य को विस्तृत वनस्थली और मुक्तक को चुने हुए फूलों का गुलदस्ता कहा। जाहिर है कि दोनों की संरचनात्मक बनावट की भिन्‍नता के कारण ही उन्होंने ऐसा कहा।

 

अरस्तू ने अनुकरण को तीन भागों में बाँटा है। अनुकरण की वस्तु के अन्तर्गत उन्होंने कथावस्तु, चरित्र और विचार को रखा। अनुकरण का माध्यम शैली और संगीत – अनुकरण की रीति के अन्तर्गत दृश्य विधान को रखा। अरस्तू ने गीत की चर्चा अलग से नहीं की है। उसका प्रयोग सहगायक करते हैं और संवाद में छन्दयुक्त कविता का प्रयोग होता है। भारतीय काव्यशास्‍त्र में भरतमुनि के यहाँ भी अनुकरण को नाटक का मूल तत्त्व माना गया है। किन्तु वहाँ नाटक को काव्य के अन्तर्गत कविता के अंतर्गत रखा गया है; अरस्तू के यहाँ ऐसा नहीं है। महाकाव्य के समान नाटकों का पाठ नहीं होता, रंगमंच पर उसका अनुकरण होता है, क्योंकि त्रासदी में (नाटक में) अनुकरण हमेशा किसी घटना का होता है, अनेक घटनाओं के अनुकरण से नाटक की सम्पूर्ण संरचना निर्मित होती है। वहाँ नाटककार उपस्थित होकर अपने विचारों का आख्यान नहीं करता, घटनाओं का अभिनय के माध्यम से रंगमंच पर संप्रेषित करता है।

 

अरस्तू की आलोचना कला को कला की तरह देखने में मदद करती है। उसके मूल में सौन्दर्यानुभूति है। वह भिन्‍न प्रकृति वाली काव्य विधाओं को उनकी विशिष्ट संरचनात्मक प्रकृति के अनुकूल परखने की दृष्टि देती है।

 

अतिरिक्त जाने

 

पुस्तकें                              

  1. पाश्चात्य साहित्यचिन्तन : निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  2. अरस्तू का काव्यशास्त्र : डॉ नगेन्द्र, हिन्दी अनुवाद परिषद, दिल्ली।
  3. साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
  4. यूनानी और रोमी काव्यशास्त्र, कृष्णदत्त पालीवाल, सन्मार्ग प्रकाशन दिल्ली
  5. पाश्चात्य काव्यशास्त्र,देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
  6. पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा,डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
  7. Figural Realism : studies in the mimesis effect, Hayden White, John Hopkins University Press, London, Baltimore.
  8. Mimesis in contemporary theory : an interdisciplinary approach, edited by Ronald Bogue, J. Benjamin Publication, Philadelphia.
  9. Fantasy and mimesis : response to reality in western literature, Kathryn Hume, Methuen, New York.
  10. Mimesis, Matthew Potolsky, Routledge, London, New York.
  11. Anti-mimesis : from Plato to Hitchcock, Tom Cohen, Cambridge University Press, Cambridge.

 

वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%81_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%85%E0%A4%A8%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A4%A3_%E0%A4%B8%E0%A4%BF%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%A7%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A4
  2. http://en.wikipedia.org/wiki/Aristotle
  3. http://en.wikipedia.org/wiki/Poetics_%28Aristotle%29
  4. https://sites.google.com/site/nmeictproject/home/plato-s-theory-of-mimesis-and-aristotle-s-defence