29 अतियथार्थवाद

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. अतियथार्थवाद की मान्यताएँ
  4. कला-परिदृश्य
  5. साहित्य-परिदृश्य
  6. प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं अभिव्यक्ति-शैलियाँ
  7. हिन्दी साहित्य में अतियथार्थवाद
  8. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • अतियथार्थवाद क्या है? इसे जान पाएँगे।
  • यथार्थवाद और अतियथार्थवाद के अन्तर को समझ सकेंगे।
  • अतियथार्थवाद की मूल मान्यताओं से परिचित हो सकेंगे।
  • साहित्य और कला के क्षेत्र में अतियथार्थवाद के योगदान को जान पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

अतियथार्थवाद मूलतः एक कला-आन्दोलन है। यूरोप में यह आन्दोलन सन् 1920 से सन् 1940 तक चर्चित रहा। अतियथार्थवाद यथार्थवाद का विस्तार नहीं है, जैसा कि इसके नाम से प्रकट होता है। यह यथार्थ की अधिकता का भी द्योतक नहीं है, वरन् गहरे अर्थों में यह यथार्थवाद का विरोधी कला आन्दोलन है। हालाँकि अतियथार्थवादियों का मत है कि “हम सतही यथार्थ के स्थान पर गहन यथार्थ को प्रस्तुत करते है।” (https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6) विकिपीडिया के अनुसार, “अतियथार्थ यथार्थ से, दृश्य-श्रव्य जगत से परे है। यह वह परम यथार्थ है जो अवचेतन में निहित होता है; सुषुप्‍त, तन्द्रित, स्वप्निल अवस्थाएँ असाधारण कल्पित, अकल्पित, अप्रत्याशित अनुभूतियों के रूप में अनायास आवेगों द्वारा मानस के चित्रपट पर चढ़ता उतरता रहता है। जो विषय अथवा दृश्य साधारणतः तर्कतः परस्पर असम्बद्ध लगते हैं, वास्तव में उनमें अलक्षित सम्बन्ध है, जिसे मात्र अतियथार्थवाद प्रकाशित कर सकता है।” (https://en.wikipedia.org/ wiki/Surrealism)

 

अतियथार्थवादियों के अनुसार यथार्थ वह नहीं हैं जिसे हम अपनी इन्द्रियों से देख सकते हैं, बल्कि यथार्थ वह है जो यथार्थ के भीतर कहीं छिपा हुआ है। वह हमारी इन इन्द्रियों को दिखाई नहीं देता। इस यथार्थ को हम सामान्य बौद्धिक तर्कों से नहीं समझ सकते वह स्वप्‍न और यथार्थ का मिला जुला रूप है। स्वप्‍न भी असत्य नहीं है, अयथार्थ नहीं है। वह भी यथार्थ है। सिर्फ तर्क से हम यथार्थ को नहीं जान सकते। इस दृष्टि से पाठक के यथार्थ की धारणा का विस्तार होता है। अतियथार्थवादियों की प्रतिज्ञा है कि हमारे सारे कार्यों का उद्गम अवचेतन मानस है। वही हमारे कार्यों को गति और दिशा देता है। इससे प्रस्फुटित होने वाले मनोभावों को दृष्टिगम्य, स्थूल, रससिक्त आकृति प्रदान की जा सकती है।”(https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6)

 

सन् 1920 से सन् 1940 तक का कालखण्ड दो विश्‍वयुद्धों के बीच की अवधि से सम्बद्ध है। अनेक कलामर्मज्ञों का विचार है कि अतियथार्थवाद का सम्बन्ध यूरोप में छिड़े पहले विश्‍वयुद्ध के पीछे मौजूद कारणों के प्रति ‘विक्षोभ और विद्रोह भाव’ को अभिव्यक्ति देने के साथ गहराई में जुड़ा हुआ है। यूरोप के उस दौर के कलाकारों को लग रहा था कि यूरोपीय साहित्येतिहासकार इस दौर के यूरोपीय एवं अमेरिकी साहित्य को, इससे पूर्व मौजूद ‘विक्टोरियन काल’ के ‘विज्ञानवाद’, ‘बुद्धिवाद’ और ‘बुर्जुआ नैतिकवाद’ के प्रति विद्रोह-भाव से युक्त ‘आधुनिकबोध की अभिव्यक्ति’ का काल मानते है।

 

यूरोप में कला के तौर पर मुख्यतः ‘पेण्टिंग’ बुर्जुआ वर्ग द्वारा स्थापित ‘भव्य पर महँगी कला दीर्घाओं’ तक सीमित थी। शिल्पकला के रूप में भवन-स्थापत्य को अधिक महत्त्व दिया जाता था। इस कला-परिदृश्य का सम्बन्ध आम आदमी के साथ एवं उसकी सामान्य जीवनशैली एवं व्यवहार-दशाओं के साथ लगभग न के बराबर था। इन कलाकारों ने कला को कला-दीर्घाओं से बाहर निकाला और सामान्य जीवन में काम आनेवाले वस्तुओं को ‘कलामय’ बना कर सामान्य लोगों तक पहुँचाने का प्रयास किया। इस तरह भारतीय-जापानी कपड़ा रंगाई या साड़ी-कालीन निर्माण से जुड़ी जो ‘कलारम्यता’ की परम्परा थी, वह शक्ल बदल कर यूरोप में सभी उपभोक्ता वस्तुओं तक फैल गई। क्रॉकरी, दरवाजे, लैम्प जैसी चीजें भी कला-वस्तुओं की तरह का रूप लेकर घर-घर पहुँचने लगी। यहाँ तक कि फ्रांस की फैशनेबल महिलाओं ने अपने गालों को ‘पूरे बगीचों’ की शक्ल में सिर के उपर बड़े ‘हैट्स’ में सजाना आरम्भ कर दिया। सत्तर के दशक में हिन्दी फिल्मों की नायिकाओं के देशविन्यास इसमें उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है, जैसे– रेखा, मुमताज।

 

एक तरह से यह कह सकते हैं कि यूरोप की ‘औपनिवेशिक विस्तारवादी’ प्रवृत्ति ने उलट कर, स्वयं यूरोप को कला के सन्दर्भ में ‘उपनिवेशों’ की सौन्दर्य-चेतना को अपनी जीवनशैली बनाने की भूमिका बनाई, यदि हम इस ‘औपनिवेशिक अन्तर्वस्तु’ को निगाह में रखेंगे तो समझ में आ सकेगा कि उसके बाद प्रकट होने वाला ‘दादावाद’ क्यों यूरोप की ‘साम्राज्यवादी औपनिवेशिकता’ के खिलाफ़ इतना मुखर हो सका था?

 

दादावाद को यूरोप में ‘कलाविरोधी’ (एण्टी आर्ट) आन्दोलन की तरह भी देखा जाता है। पहला विश्‍वयुद्ध शुरू होने पर दादावादी कलाकार खुलकर यूरोपीय साम्राज्यवादी-उपनिवेश के खिलाफ लामबन्द रूप में सामने आए। उन्हें इस युद्ध के पीछे वह बुद्धिवाद-विज्ञानवाद-अभिजात्य नैतिकवाद खड़ा नजर आ रहा था, जो पूरी तरह उच्‍चवर्गीय बुर्जुआ और लालची शासकवर्ग एवं ‘नवधनाढ्य वर्ग’ की मानसिकता का नतीजा था। कलाकार पहले से ही कला के आभिजात्य रूपों की बजाय सामान्य जनजीवन से जुड़े रूपों की ओर आ चुका था। वह विकल्प था। अब दादावादी ‘कला के आभिजात्य रूप’ को ही ‘खण्डित करने’ के बारे में गम्भीर एवं उग्र प्रयास कर सकते थे। कला के सभी पारम्परिक आभिजात्य नियमों, रूपों एवं विधियों तक को दादावाद ने नकार दिया। वे ‘स्वतः स्फूर्त’ (स्पोण्टेनियस) कला की बात करने लगे। यहाँ दादावाद की ‘अराजकता’ के स्रोतों के रूप में कुछ यूरोपीय चिन्तक ‘बौद्धों के शून्यवाद’ की ओर भी देखते है। बाद में अतियथार्थवाद कलाकारों में से कुछ ने बौद्ध कला-परम्परा को स्वतः स्फूर्त आध्यात्मिकता के रूप में कला के प्रयोजनों में शामिल किया है।

  1. अतियथार्थवाद की मान्यताएँ

अतियथार्थवाद को विधिवत आन्दोलन के रूप में स्थापित करने का श्रेय आन्द्रे ब्रेतों (सन् 1896-1966) को दिया जाता है। उनके द्वारा अतियथार्थवाद का एक ‘घोषणापत्र’ प्रसारित किया गया था। इसमें उन्होंने अतियथार्थवाद को ‘चेतन और अचेतन के बीच पुल बाँधने’ वाले कला-विमर्श के रूप में प्रस्तुत किया था। आन्द्रे ब्रेतों तथा अन्य अतियथार्थवाद चिन्तकों के द्वारा ‘अचेतन की भूमिका’ को अधिक महत्त्व देने के पीछे जो कारण थे, वे निम्न है–

 

(i) सचेतन मन के क्रियाकलाप उस बुद्धिवाद और विज्ञानवाद से सम्बन्ध रखते है, जिनकी अतिशयता यूरोप को साम्राज्यवादी विस्तारवाद से जुड़ी पतनशीलता में ले गई है। जिससे उपजी लोभ-लिप्सु प्रवृत्तियों ने यूरोप को महायुद्ध की विभीषिका में ढकेल दिया है।

 

(ii) सचेतन मन का अति तर्कमीमांसावादी व्यवहार नाममात्र को ही ‘वैज्ञानिक’ होता है, क्योंकि गहरे में वह ‘वस्तुनिष्ट यथार्थ की व्याख्या’ करने वाला न होकर, केवल उस यथार्थ का विमर्श प्रस्तुत करता है, जो हमारे ‘अवबोध और स्मृतियों के सीमित संसार’ से बँधा होता है।

 

(iii) चेतन मन भी यथार्थ के उन पहलुओं का ज्ञान व अनुभव हमें प्रदान करता है, जो हमारी ‘सीमित इन्द्रियों’ से भीतर के उस संसार के बारे में बताता है– जो होता तो ‘वास्तविक’ है, परन्तु जिसकी ‘वैज्ञानिक रूप में’ पूरी ‘वस्तुनिष्ठता से पैमाइश’ नहीं होती है।

 

अतः अतियथार्थवादी यथार्थ के वस्तुनिष्ठ और स्वप्‍नगत दोनों तरह के संसारों से सम्बन्ध बनाता है और उनकी कलात्मक अभिव्यक्ति करता है।

  1. कला-परिदृश्य

अति यथार्थवादी कला ने ‘हृदय’ की सीमाओं को लाँघते हुए, ‘अदृश्य के दृश्यत्व’ को भी कला का विषय बनाने का प्रयास किया। ये कलाकार ‘आन्तरिक यथार्थ’ की अभिव्यक्ति के लिये गुंजाइश बनाने के लिये दृश्य के ज्यामितीय नियमों, अनुपातों व सन्तुलनों को नए समीकरण में ढालने का प्रयास करते है। सल्वाडोर डाली (सन् 1900-1989) और पाब्लो पिकासो (सन् 1881-1973) अतियथार्थवादी काव्यान्दोलन के प्रमुख स्तम्भ हैं। सल्वाडोर डाली की कुछ बेहद चर्चित पेण्टिंगें हैं– द परसिस्टेंस ऑफ मेमोरी (सन् 1931), रवैन्ज रिफलेक्टिंग एलीफेंट्स (सन् 1937), ड्रीम्ज काज्ड बाई द फ्लाइट ऑफ अबी (सन् 1944) और क्राइस्ट ऑफ सेण्ट जॉन ऑफ द क्रॉस (सन् 1951) मानी जाती है।

 

‘स्मृति में देर तक टिके रहने’ वाली डाली की पेण्टिंग में एक घड़ी पिघल कर दूसरे आयाम में बहती नजर आती है। यहाँ समय के ‘अन्तरानुभव’ का दृश्य में बाँध दिया गया है। पिकासो की विश्‍व प्रसिद्ध पेण्टिंग ‘गवर्निका’ में विश्‍वयुद्ध की विभीषिका चित्रित है। यह पेण्टिंग ‘दृश्य के युगगत बिखराव’ और व्यापक संहार की चीखो-पुकार के दृश्य के अंकन के कारण श्रेष्ठ अतियथार्थवादी कला का उदाहरण बन जाती है। जहाँ हम दृश्य के बिखराव में उसके उस पार तक चले जाते है।

  1. साहित्य-परिदृश्य

कला से साहित्य में प्रवेश करते हुए अतियथार्थवाद ने अभिव्यक्ति के भाषिक-रूपों को भी पहले की तुलना में बहुत अधिक बदल डाला; अनेक नई अभिव्यक्ति एवं कथा शैलियों का विकास हुआ। उनकी चर्चा से पूर्व विभिन्‍न साहित्यिक विधाओं के जरिए कुछ ऐसे साहित्यकारों की बाबत जानते है, जिनके साहित्य को अतियथार्थवाद से प्रभावित कहा जा सकता है।

 

(i) नाटक : सर्वाधिक प्रयोगशील रूप में अतियथार्थवाद नाटक के क्षेत्र में परिवर्तन लेकर प्रस्तुत हुआ। यह असर इतना गहरा था कि यूरोप में इसके असर से एक नए तरह के रंगमंच का ही उदय हो गया जिसे ‘थियेटर ऑफ द एब्सर्ड’ कहा जाता है। एब्सर्ड का अर्थ है वह जो बुद्धिवादी-तर्कवादी व्याख्याओं के परे है। इसे केवल ‘व्यर्थता-बोधक’ धारणा कहना समुचित नहीं है। वह यथार्थ का ही ऐसा आयाम है, जिसकी वैज्ञानिक वस्तुनिष्ठ नियमों से व्याख्या नहीं हो पाती है। जिस वजह से वह अराजक और अतर्क्य (एब्सर्ड) प्रतीत होता है। इससे जुड़े कुछ प्रसिद्ध नाटककार है– सेमुल बेकेट, यूजीम आयनेस्को, एडवर्ड एल्बी और हेरल्ड पिण्टर। हिन्दी में भुवनेश्‍वर का ताम्बे के कीड़े  इसी तरह का नाटक माना जाता है।

 

सेमुअल बैकेट के नोबेल पुरस्कार प्राप्‍त नाटक वेटिंग फार गोदो  में ‘गोदो’ नामक पात्र का इन्तजार होता रहता है, परन्तु वह अन्त तक नहीं आता। ‘गोदो’ दरअसल ‘गाड’ का अपभ्रंश है, जो आस्थामूलक इन्तजार की असम्भावना पर एक टिप्पणी बन जाता है। एडवर्ड एल्बी का द जू स्टोरी  मनुष्यों के पशुओं के समान ‘सामाजिक चिड़ियाघर’ में व्यवहार करने की कथा है। पिण्टर की बर्थ डे पार्टी  में एक ऐसे पात्र को संवादों से ‘जीवित’ बनाया जाता है, जो दरअसल होता ही नहीं।

 

(ii) उपन्यास : अतियथार्थवाद से गहरे में सम्बद्ध यह ऐसी विधा है, जिसने इस आधार पर अलग व नई अभिव्यक्ति शैली का विकास किया। इस दृष्टि से वर्जीनिया वुल्फ के द्वारा विकसित की गई ‘चेतना प्रवाह पद्धति’ (स्ट्रीम ऑफ कांशियसनेस) तथा काफ्का की ‘स्वप्‍न शृंखला पद्धति’ को उल्लेखनीय माना जा सकता है।

 

(iii) काव्य : काव्य में अतियथार्थवाद ने ‘बिम्बवाद’ को एक नया उत्कर्ष प्रदान किया। अतियथार्थवाद रूप में बिम्बवाद के प्रयोक्ता उल्लेखनीय कवि है – (i) स्टीफन मलार्मे तथा (ii) रिम्बो।

  1. प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं अभिव्यक्ति-शैलियाँ

जैसा कि हमने ऊपर स्पष्ट किया है कि अतियथार्थवाद का सम्बन्ध ‘दृश्यातीत’, ‘तर्कातीत’, ‘मनोवैज्ञिक’ यथार्थ को ‘दृश्यगत’ एवं ‘बोधगम्य’ अभिव्यक्ति प्रदान करने से होता है। इसे ही सम्भव बनाने के लिए जिन नई पद्धतियों का विकास किया गया, उनका संक्षिप्‍त सूत्रवत परिचय इस प्रकार है–

(i) चेतना प्रवाह पद्धति : जिस क्रम में हम एक सामान्य दृश्य में तमाम असामान्य-असम्बद्ध बिम्बों, दृश्यों, पात्रों को ‘पूरी दृश्य’ में मौजूद पाते हैं, पर अक्सर उनकी ओर ध्यान नहीं देते, उनको भी ‘सह-अभिव्यक्ति’ प्रदान करना चेतना प्रवाह पद्धति कहलाता है।

 

(ii) स्वप्‍न शृंखला पद्धति : सोकर जागने के बाद स्वप्‍न की जागृत अवस्था में स्मृतिमूलक मौजूदगी, जागृत यथार्थ के संसार को जिस रूप में प्रभावित करती है, उसे इस में अभिव्यक्ति दी जाती है। अन्य मनोवैज्ञानिक दशाओं का भी अभिव्यक्ति के लिए उपयोग किया जाता है, जो निम्न है – (क) दिवा-स्वप्‍न, (ख) मतिभ्रम (डिल्यूजन), (ग) स्वप्‍नमय का ‘पैरानोइक’ विस्तार व (घ) दो व्यक्तियों में ‘शिज़ोफ्रेनिक विखण्डन’।

 

(iii) बिम्बवाद : दृश्य को बिम्बों की शृंखला के रूप में देखते हुए, उसके माध्यम से अनुभव की जटिलता को व्यंजित या ध्वनित करना। इस विधि में शब्दों के द्वारा व्याख्या की बजाय बिम्बों की दृश्य-सामर्थ्य को बोलने का अवसर अधिक प्रदान किया जाता है।

 

अचेतन की संरचना में ‘भाषा कम’ तथा ‘दृश्यत्व अधिक’ होता है। अतः बिम्बवाद इसकी अभिव्यक्ति के लिए अधिक समर्थ है।

 

साहित्य द्वारा विकसित उपर्युक्त अभिव्यक्ति पद्धतियों के अलावा अनेक ऐसी प्रवृत्तियाँ भी साहित्य में आई हैं, जिन्हें कला की अतियथार्थवादी पद्धतियों से प्रभावित कहा जा सकता है। इनकी एक सूची नीचे दी जा रही है–  (क) अतिशयोक्ति; (ख) कथानक व पात्रों का विलय तथा संवादों, स्थितियों, भंगिमाओं, वस्त्रों आदि का प्रतीकात्मक महत्त्व अधिक होना;   (ग) भाषा में वाक्य-संरचना को तोड़ना और नई तरह की वाक्य-रचना करना; (घ) कथानक में समय-क्रम का उलटना तथा एकरेखीय समय की जगह अनेक पर्तों वाले समय को अभिव्यक्त करना; (ङ) घटनाओं आदि कथानक के संघटकों में समय, स्थान, आयाम, तर्क आदि से जुड़ी क्रम-संगतियों में उलटफेर व (च) नाटक में मंच सज्जा पर कम से कम सामग्री का प्रयोग।

 

अनेक ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं जिनका इस्तेमाल होता तो मुख्यतः कला-विधियों के रूप में है, तथापि उनके समानान्तर साहित्य लेखन की विधियों को भी विकसित कर लिया जाता है, उनमें से कुछ निम्न है–

 

(i) योगमूलक अथवा संयोगमूलक प्रवृत्तियाँ : इनमें बहुत सी असम्बद्ध चीजों-बिम्बों, ध्वनियों, भंगिमाओं, कार्यकलापों, सूचनाओं, खबरों आदि-को एक ही ‘दृश्य’ में ‘कोलाज’ या ‘मोन्ताज’ के रूप में योगमूलक (एडिटिव) तरीके से पेश किया जाता है। साहित्य में इसके समानान्तर ‘शब्द चित्र’ उकेरे जाते है।

 

(ii) अवशेषमूलक प्रवृत्तियाँ : इनमें मुख्य ‘दृश्य-बिम्ब’ के कुछ अंशों को हटा लिया जाता है। कई दफा ‘पॉजिटिव’ की जगह ‘नेगेटिव’ के बिम्ब को प्रस्तुत किया जाता है। कई दफा ‘रंगों’ को जलाकर उनके ‘राख जैसे अवशेष’ को प्रस्तुत किया जाता है। कला के इन विधियों को फिल्मों में ‘अंश के शॉट’ की तरह तथा साहित्य में ‘अंशमूलक शब्दचित्र’ के द्वारा उकेरा जाता है।

 

(iii) संघनन एवं आरोपण की प्रवृत्ति : बहुत से दृश्यों के संघनित करके या एक के ऊपर दूसरे चित्र को आरोपित करते हुए इस प्रवृत्ति को कला-प्रविधि का रूप दिया जाता है।

 

(iv) अराजकता एवं अर्थहीनता की प्रवृत्ति : पिकासो की गवर्निका में युद्धजनित विनाश से पैदा अराजकता की दृश्य-विधि का उल्लेख पीछे किया जा चुका है। साहित्य में कुछ लेखक ‘प्रलाप’ एवं ‘अर्थविहीन’ सायास शब्द संरचनाओं का इस्तेमाल करके ऐसा प्रभाव पैदा करते है।

  1. हिन्दी साहित्य में अतियथार्थवाद

अतियथार्थवाद का यूरोप में प्रचलन-प्रसारण सन् 1920 से सन् 1940 के बीच के दौर में होता है। पहले विश्‍वयुद्ध के प्रति प्रतिक्रिया में अतियथार्थवाद प्रकट होता है, और दूसरे विश्‍वयुद्ध के आरम्भकाल में उसे ‘बिखराववादी’ और ‘विनाशवादी’ भूमिका निभाने की वजह से ही खारिज कर दिया जाता है। जैसे कि वह एक नकारात्मकता से उपजी दूसरी नकारात्मकता हो। यूरोप में उसके बाद उसकी जगह अधिक सन्तुलित ‘संरचनावाद’ आ जाता है। जबकि हिन्दी साहित्य एवं भारतीय कला में अतियथार्थवादी प्रवृत्तियाँ दिखाई ही सन् 1950 के आसपास देनी आरम्भ होती है। यानी हम विश्‍वयुद्धोत्तर काल में, अन्तर-विश्‍वयुद्धगत विमर्श को अपने यहाँ, अपनी रचनाशीलता के लिए महत्त्वपूर्ण पाते है। इसका अर्थ यह है कि सन् 1950 से पहले के समय तक हमारी रचनाशीलता के केन्द्र में सामाजिक-सांस्कृतिक पुनर्गठन और सम्राज्यवाद-उपनिवेशवाद से पैदा हुए संकटों-तनावों में खुद को उबारने के प्रयास विविध रूपों में नजर आते है। पर पश्‍चिमी बुद्धिवाद-विज्ञानवाद के खिलाफ खड़े होकर व्यक्तित्व और चेतना की गहराइयों से जुड़ी ‘आन्तरिक एवं मानवीय यथार्थ’ की खोज का काम सन् 1950 के बाद ही मुमकिन हो पाता है। इससे पहले के छायावादी, उत्तरछायावादी परिदृश्य में हम ‘दृश्य और बुद्धि के समन्वय-सन्तुलनों’ का साहित्य ही रच रहे थे।

 

हिन्दी साहित्य में सन् 1950 के आसपास वे सभी विमर्श हमें अपने यहाँ, ‘अपने तरीके की’ उपस्थिति दर्ज कराते दिखाई देने लगती हैं, जो पश्चिम में सन् 1920 से सन् 1940 के बीच, ‘भिन्‍न कारणों’ से महत्त्वपूर्ण हुए थे। इस भिन्‍नता को निगाह में रखे बिना, हमारा अपने साहित्य का विवेचन ‘अकादमिक विशुद्धता वाला’ तो हो सकता है, पर वह ‘अर्थपूर्ण’ कदापि नहीं हो सकता।

 

एक : नदी के द्वीप :  सन् 1952 में प्रकाशित इस उपन्यास को हिन्दी में पहला अतियथार्थवादी उपन्यास कह सकते हैं। यह योगमूलक प्रविधि का इस्तेमाल करता है। बाहरी यथार्थ के बीच आभ्यन्तर यथार्थ का एक द्वीप खड़ा किया गया है, जो ‘काल्पनिक’ और ‘वास्तविक’ दोनों कसौटियों पर खरा उतरता है।

 

दो : डेढ़ इंच ऊपर : निर्मल वर्मा की यह कहानी ‘चेतना प्रवाह’ पद्धति का ‘पैरम्बुलेटर’ सहित, उदाहरण तो है ही, इसमें किए गए एक प्रयोगों को खासतौर पर देखें। पत्नी की गेस्टापो पुलिस ने क्रान्तिकारी होने के कारण हत्या कर दी है। वह अब ‘नहीं’ है पर नायक घर जाने की इच्छा इसलिए जाहिर करता है क्योंकि वहाँ एक बिल्ली आकर इन्तजार कर रही है। ‘बिल्ली और पत्‍नी के रहस्य आप कभी नहीं जान सकते’ जैसी पंक्तियाँ एक ‘रहस्यपूर्ण यथार्थ’ को एक ‘दृश्य’ में बदलती है। यह सीधे-सीधे अतियथार्थवादी प्रयोग है।

 

तीन : संशय की एक रात :  नरेश मेहता का यह काव्य-नाटक राम के भीतर के ‘राम’ का, एक ‘प्रामाणिक व्यक्तित्व’ को ‘अप्रामाणिक’ से अलहदा करके, खोजने का प्रयास है। ‘परिषद के चुनाव’ को ‘अपना चुनाव’ मानने की वजह से राम बहुत स्पष्ट तरीके से अस्तित्ववादी विमर्श का पर्याय हो जाते।

 

चारब्रह्मराक्षस : मुक्तिबोध की यह कविता आधुनिक बुद्धिजीवी के न ‘परम्परा’ का और न  ‘आधुनिकता’ का हो सकने के कारण ‘ब्रह्मराक्षस’ की नियति का शिकार होना दिखाते हैं। यहाँ ‘बुद्धिजीवी’ की बजाय ‘ब्रह्मराक्षस’ बोलता है, जो ‘अपरिचयीकरण’ की रूसी रूपवादी पद्धति है।

  1. निष्कर्ष

साहित्य में अतियथार्थवाद ने यथार्थ और कल्पना की दूरी को समाप्‍त करने का प्रयास किया। इसके अनुसार यथार्थ सिर्फ वही नहीं है, जो आम जीवन में प्रत्यक्षतः दिखाई देता है या जिसमें कोई तार्किक संगति होती है; बल्कि वास्तविक यथार्थ वह भी है जो आम जीवन में या तो दिखाई नहीं देता या तर्कों से समझ में नहीं आता है। अतियथार्थवादियों की मान्यता थी कि असम्बद्ध चीजों में भी सम्बन्ध होता है। इसी कारण इन्होंने उपन्यासों और कहानियों में कार्य-कारण शृंखला का विरोध किया और कथानक के स्थान पर पात्रों के मनोजगत में रुचि ली। इन्होंने स्वप्निल यथार्थ पर बल दिया जो इनके अनुसार वास्तविक यथार्थ था इसलिए अतियथार्थवाद पाठक की यथार्थ की धारणा का विस्तार भी करती है। चूँकि अतियथार्थवाद का विकास दो विश्‍वयुद्धों के बीच  हुआ था इसलिए अतियथार्थवादियों का मानना था कि बुद्धिवाद और तर्कवाद ने दुनिया पर युद्ध लाद दिया है। इसी वजह से इन्होंने ने सचेतन की जगह अचेतन जगत को महत्त्व दिया। अतियथार्थवाद के ने सारे कार्यों का मूल अवचेतन मानस को माना इसलिए यह मनोविश्‍लेषणवाद से भी प्रेरित था। फ्रायड के मुक्त-साहचर्य, स्वप्‍न-विश्‍लेषण और अचेतन की धारणा अतियथार्थवाद में मूल में है। अतः अतियथार्थवाद सचेतन और अवचेतन यथार्थ के सम्बन्धों की कलात्मक अभिव्यक्ति है।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें :

  1. एन्द्रें ब्रेटन, मेनिफेस्टो ऑफ सर्रियलिज़्म, अनुवाद – रिचर्ड सीवर एण्ड हेलेन लेन, यूनीवर्सिटी ऑफ मिशगन प्रेस, एन आर्बर, 1969
  2. माइकल करेजिज, एंन्द्रे ब्रेटन एण्ड द बेसिक कसेप्ट ऑफ सर्रियलिज्म, अनुवाद – मॉरा फ्रेडरस्टन, यूनीवर्सिटी ऑफ एलेबामप्रेस, एलेवामा, 1974
  3. Philosophy of Surrealism, Ferdinand Alquie, Ann Arbor, Michigan.
  4. Manifesto of Surrealism, Andre Breton, Ann Arbor, Michigan.
  5. Surrealism and Novel, J. H. Matthew, University of Michigan Press, Michigan.
  6. History of Surrealism, Maurice Nadeau, Collier Books, New York.
  7. A History Of Modern Criticism:1750-1950,Rane Wellek,Jonathan Cape ltd,London
  8. Literary criticism a short history,William k.wimsatt,JR.& Cleanth Brooks , oxford,New Delhi

 

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