10 जॉन ड्राइडन
पाठ का स्वरूप
- पाठकाउद्देश्य
- प्रस्तावना
- युग और परिवेश
- ‘नाट्य काव्य’ और निबन्ध
- आलोचना सिद्धान्त
- काव्यकास्वरूप
- प्रयोजन : आनन्द और शिक्षा
- अनुकरण, प्रतिभा और कल्पना
- नवीन काव्यभाषा का विकास
- तुलनात्मक और व्यावहारिक आलोचना
- ड्राइडन और नव्यशास्त्रवाद
- निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- अंग्रेजी आलोचना में ड्राइडन के महत्त्व से परिचित हो सकेंगे।
- ड्राइडन के युग (पुनःस्थापन युग) के बारे में जान सकेंगे।
- ‘नाट्य काव्य’ निबन्ध की विषय-वस्तु का परिचय प्राप्त कर सकेंगे।
- ड्राइडन के आलोचना-सिद्धान्तों की चर्चा और समीक्षा कर सकेंगे।
- नव्यशास्त्रवाद से ड्राइडन का सम्बन्ध समझ सकेंगे।
- प्रस्तावना
जॉन ड्राइडन (सन् 1631-1700) को अंग्रेजी की विश्लेषणात्मक (आधुनिक) आलोचना का संस्थापक माना जाता है। वे मूलतः नाटककार थे, लेकिन अंग्रेजी गद्य और आलोचना को आधुनिक रूप देने में भी उन्होंने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसीलिए उन्हें आधुनिक अंग्रेजी गद्य और आलोचना का जनक माना जाता है। ड्राइडन से पहले आलोचना की कोई व्यवस्थित परम्परा नहीं थी। पूर्ववर्ती पुनर्जागरण युग रचनात्मक दृष्टि से अत्यन्त ऊर्वर था। उसमें मार्लो (सन् 1564-1593), शेक्सपियर (सन् 1564-1616) और बेन जॉनसन (सन् 1573-1637) जैसे नाटककार हुए थे, जिनमें सृजनात्मक ऊर्जा का विस्फोट हुआ था। किन्तु इस समय की आलोचना प्रायः निर्णयात्मक और शास्त्रीय उद्धरणों से बोझिल है। उसमें न तो किसी रचना के विवेचन-विश्लेषण का प्रयास है, न मूल्य-निर्णय में समसामयिक रचनाशीलता को आधार बनाया गया है। प्राचीन (यूनान-रोमी) काव्य-प्रतिमानों का आतंक इतना हावी है कि आलोचक उनसे बाहर जाने की बात सोच ही नहीं पाते। नियमों के बाह्य विधान पर जितना बल है उतना उनकी आत्मा पर नहीं। ड्राइडन ने अपने आलोचनात्मक लेखन द्वारा इन सीमाओं को अतिक्रान्त करने की कोशिश की।
- युग और परिवेश
ड्राइडन के सम्पूर्ण रचनाकाल का सम्बन्ध पुनःस्थापन युग (सन् 1660-1700) से है। लगभग ग्यारह वर्ष के लोकतान्त्रिक प्रयोग के बाद सन् 1660 में राजशाही की फिर से स्थापना हुई थी। इसीलिए इस युग को ‘पुनःस्थापन युग’ (रेस्टोरेशन पीरियड) नाम दिया गया। ऊपर-ऊपर देखने पर लोकतन्त्र का प्रयोग विफल रहा। किन्तु सचाई यह है कि एक बार आरम्भ होने के बाद लोकतान्त्रिक मूल्यों के विकास की प्रक्रिया रुकी नहीं। चार्ल्स द्वितीय के पुनःस्थापन (सन् 1660) से एक नए समाज और नवीन साहित्य का आरम्भ हुआ। ड्राइडन इस नई चेतना के वाहक रचनाकार हैं।
गणतन्त्र के लिए संघर्ष शुद्धतावादियों (puritans) (शुद्धतावादी चर्च में ज्यादातर लोग क्रान्तिकारी सुधारों के पक्षधर थे। सत्रहवीं सदी में सिविल वार के दौरान शुद्धतावादियों का वर्चस्व रहा। क्रामवैल (सन् 1599-1658) के नेतृत्व में राजशाही को उखाड़ फेंकने में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई। उनका बल आचरण की शुद्धता पर था। इसीलिए गणतन्त्र काल में इंग्लैण्ड में शराबगृह और नाट्यगृह बन्द कर दिए गए थे।) के नेतृत्व में हुआ था। इन शुद्धतावादियों ने सभी प्रकार के आनन्द और उल्लास पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। फलस्वरूप इंग्लैण्ड में सन् 1642 से सन् 1660 के बीच नाट्यगृह बन्द रहे। ऐसे में नाट्य रचना की भी कोई प्रासंगिकता नहीं थी। पुनःस्थापन के साथ ही ये नाट्यगृह फिर से खुल गए और जन समारोहों की बाढ़-सी आ गई। फिर भी तार्किकता के विकास की वजह से इस समय के साहित्य में विशेष आवेग और उत्साह नहीं दिखाई देता।
पुनःस्थापन से पहले पुनर्जागरण का युग था। यह एलिजाबेथ और शेक्सपियर का युग था। इस युग की उपलब्धियाँ अप्रतिम थीं। पुनःस्थापन युग के रचनाकारों – विशेष रूप से ड्राइडन की स्मृति में यह युग बसा हुआ है। उन्होंने ‘पूर्ववर्ती युग’ कहकर इसका बार-बार उल्लेख किया है। इस युग के साहित्य में प्रेरणा-प्रसूत आवेग और कल्पनाशीलता की प्रधानता है। किन्तु पुनर्जागरण से पुनःस्थापन में संक्रमण के दौर में लेखकों की मनोवृत्ति और साहित्य में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा था। ज्ञान-प्रसार के साथ-साथ संवेदना में संश्लिष्टता और जटिलता की मात्रा बढ़ती जा रही थी। भाव-प्रधान साहित्य का स्थान विचार-प्रधान साहित्य लेता जा रहा था। व्यवस्था और सन्तुलन पर बल था। कला में बौद्धिकता का प्रभाव बढ़ रहा था क्योंकि बौद्धिकता से ही व्यवस्था और सन्तुलन को बल मिलता है। इस बौद्धिकता की वजह से जीवन के हर क्षेत्र में तर्क और शोध की भावना का विकास हुआ। देकार्त (सन् 1596-1650) की रचनाओं से दार्शनिक चिन्तन में स्पष्टता और व्यवस्था को बढ़ावा मिला। अंग्रेजी दार्शनिक हॉब्स (सन् 1588-1679) की कृतियों में मानव-बुद्धि का विधिवत अध्ययन किया गया।
सत्रहवीं सदी को विज्ञान की शताब्दी माना जाता है। इस काल में विज्ञान युग का फैशन बन गया था। विलियम हार्वे (सन् 1578-1657) ने रक्त-संचार की खोज कर ली थी। गैलीलियो (सन् 1564-1642) की प्रमुख उपलब्धियाँ इसी दौर की हैं। इंग्लैण्ड की रॉयल सोसायटी (जिसकी स्थापना वैज्ञानिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए की गई थी) वैज्ञानिक सरगर्मी का केन्द्र बनती जा रही थी। न्यूटन (सन् 1642-1727) ने अपने अनेक शोध-परिणाम पहले-पहल इसी सोसायटी में उद्घाटित किए थे। वैज्ञानिक चेतना के उदय और प्रसार से भी तार्किकता की प्रवृत्ति पुष्ट और दृढ़ हुई। इस प्रवृत्ति से गद्य में भी एक प्रकार की ताजगी आई। ड्राइडन के गद्य में यह ताजगी और पारदर्शिता सबसे ज्यादा है। इसलिए उन्हें आधुनिक अंग्रेजी गद्य का जनक भी माना जाता है।
पुनःस्थापन काल में फ्रांस का प्रभाव अधिक मुखर रूप में सामने आया। पुनर्जागरण काल में यूनानी-रोमी प्रभाव इटली के माध्यम से सामने आया था। अब इस प्रभाव का स्रोत फ्रांस बन गया। फ्रेंच गद्य ने भी अंग्रेजी गद्य को प्रभावित किया। भाषा के माध्यम से यह प्रभाव धीरे-धीरे भाव और चिन्तन के क्षेत्र में पहुँचा। इसने तत्कालीन साहित्यिक अभिरुचि को भी प्रभावित किया। कालान्तर में यह प्रभाव इतना सर्वग्रासी हो उठा कि इसकी प्रतिक्रियास्वरूप सांस्कृतिक क्षेत्र में एक प्रकार की राष्ट्रीय भावना को बल मिला। सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की यह भावना ड्राइडन के आलोचना का मूल स्वर है।
- ‘नाट्य काव्य’ निबन्ध
औपचारिक दृष्टि से सैद्धान्तिक आलोचना पर ड्राइडन का एक ही निबन्ध है – ‘नाट्य काव्य’ (सन् 1968)। इस निबन्ध में उन्होंने नाट्य विधा को आधार बनाकर साहित्य-समीक्षा से सम्बन्धित कुछ व्यापक प्रश्न उठाए और उनपर गहराई से विचार किया। यह निबन्ध उनके आलोचना-सम्बन्धी विचारों का मुख्य स्त्रोत है। ड्राइडन के सामने प्राचीन (यूनानी-रोमी) नाटक की उपलब्धियाँ थीं, सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध का फ्रेंच नव्यशास्त्रवादी नाट्य साहित्य था, आधुनिक (पुनःस्थापनकालीन) नाटक था और पिछले युग– शेक्सपियर के युगकी पुनर्जागरणकालीन नाट्य परम्परा थी। ड्राइडन पूरी समस्या पर इस रूप में विचार करना चाहते थे कि उक्त चारों नाट्य परम्पराओं के उपयोगी और सृजनात्मक पहलू सामने आ जाएँ, जिससे नाट्य रचना के मूल सिद्धान्तों का अधिक पूर्ण और व्यापक फलक निर्मित हो सके। वे आधुनिक संवेदना के वाहक रचनाकार थे, अतः समसामयिक रचनाशीलता के प्रति उनकी सहानुभूति स्वाभाविक थी। साथ ही वे अंग्रेज थे, अतः अंग्रेजी नाट्य साहित्य की महत्त्व-प्रतिष्ठा द्वारा राष्ट्रीय स्वाभिमान की रक्षा भी एक पूर्वनियोजित उद्देश्य था।
राष्ट्रीय अस्मिता के लिए मुख्य चुनौती फ्रांस से थी। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में फ्रांस ने यह दर्शाया था कि नाट्य के क्षेत्र में शास्त्रवादी (यूनानी-रोमी) प्रतिमानों का कितना अच्छा प्रयोग किया जा सकता है। वहाँ कार्नेई (सन् 1606-1684) और रासीन (1639-1709) जैसे उच्च कोटि के नाटककार हुए थे, जिनके नाटकों में आभिजात्यवादी कला-प्रतिमानों का पूरी तत्परता से पालन किया गया था। फ्रांसीसी रंगमंच की तुलना में अंग्रेजी रंगमंच अनगढ़ दिखाई देता था। उसमें परिष्कार का अभाव था। फ्रांस में अंग्रेजी नाटककारों को नितान्त असंस्कृत और बर्बर माना जा रहा था। शेक्सपियर भी इस आलोचना का अपवाद नहीं था। इस विरोधी आलोचना का असर इंग्लैण्ड में भी पड़ रहा था क्योंकि यूरोप के सांस्कृतिक परिदृश्य पर उन दिनों फ्रांस का वर्चस्व था। अपने ‘नाट्य काव्य’ निबन्ध में ड्राइडन ने पहली बार शेक्सपियर और उस काल के कुछ अन्य नाटककारों की अकुण्ठ भाव से सराहना की और इस प्रकार अपनी राष्ट्रीय अस्मिता को रेखांकित किया। यह बड़ा ही समयोचित कार्य था। निबन्ध के आरम्भ में, पाठक को निर्दिष्ट भूमिका में, उन्होंने लिखा – “लेखक का उद्देश्य ऐसे लोगों की निन्दा से अंग्रेज लेखकों के सम्मान की रक्षा करना है, जो सम्पूर्ण न्याय-भावना को ताख पर रखकर, उनकी तुलना में, फ्रान्सीसी लेखकों को अधिक पसन्द करते हैं।”
पूरा निबन्ध संवाद शैली में है। इसमें प्लेटो के बजाय सिसरो की व्याख्यात्मक संवाद-पद्धति को आधार बनाया गया है। संवाद में चार पात्र भाग लेते हैं – क्रिटेस, यूजेनियस, लिसिडीयस और निएण्डर। इन पात्रों की ऐतिहासिक पहचान भी की गई है। निएण्डर (जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘नया आदमी’) स्वयं ड्राइडन हैं। संवाद के क्रम के अनुरूप पूरे विवेचन को तीन भागों में रखा जा सकता है –
(क) प्राचीन (यूनानी-रोमी) बनाम आधुनिक (पुनःस्थापनकालीन अंग्रेजी) नाटक;
(ख) फ्रांसीसी (नव्यशास्त्रवादी) बनाम अंग्रेजी (पुनर्जागरणकालीन) नाटक; और
(ग) अतुकान्त बनाम तुकान्त छन्द।
इस योजना के अनुरूप छह पूर्वनिर्धारित वक्तव्य हैं – क्रिटेस प्राचीन (यूनानी-रोमी) लेखकों का पक्ष लेते हैं और यूजेनियस आधुनिक (पुनःस्थापनकालीन) लेखकों का; लिसिडीयस सत्रहवीं सदी के फ्रेंच नव्यशास्त्रवादी नाटकों का पक्ष ग्रहण करते हैं और निएण्डर ‘पिछले युग’ (शेक्सपियर के युग) के अंग्रेजी नाट्य साहित्य का; अन्तिम वक्तव्य में क्रिटेस अतुकान्त छन्द (ब्लैंक वर्स) का समर्थन करते हैं और निएण्डर पुनःस्थापनकालीन तुकान्त छन्द का। निबन्ध के विधान से ही अंग्रेजी नाट्य साहित्य की केन्द्रीयता प्रकट होती है। जहाँ यूनानी-रोमी नाट्य साहित्य पर मुख्यतः पहले भाग में और फ्रांसीसी नाटक पर मुख्यतः दूसरे भाग में विचार किया गया है, वहाँ अंग्रेजी नाट्य साहित्य तीनों भागों में विवेचन के केन्द्र में रहता है।
- आलोचना सिद्धान्त
पुनःस्थापन काल की मुख्य विधा नाटक थी। इससे पहले पुनर्जागरण या शेक्सपियर के युग में भी नाटक ही केन्द्रीय विधा के रूप में उभरकर सामने आया था। स्वयं ड्राइडन के कृतित्व के दो-तिहाई अंश का सम्बन्ध नाटक से है। उन्होंने अपने काव्य-सिद्धान्तों को मुख्य रूप से नाट्य विधा के विवेचन-विश्लेषण के माध्यम से व्यक्त किया है।
5.1 काव्य का स्वरूप
ड्राइडन के अनुसार नाटक “मानव प्रकृति का यथातथ्य और जीवन्त प्रतिबिम्ब है। उसमें मानव-जाति के आनन्द और शिक्षा के लिए उसके भावों, मनोदशाओं और नियति के उतार-चढ़ाव का चित्रण किया जाता है।” यह परिभाषा नाटक के अलावा सृजनात्मक साहित्य के अन्य रूपों पर भी लागू होती है। परिभाषा के पहले भाग में नाटक या काव्य के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है – अर्थात् नाटक ‘मानव-प्रकृति का यथातथ्य और जीवन्त प्रतिबिम्ब है।’ इसमें चार शब्द हैं, जो व्याख्या-सापेक्ष हैं– प्रतिबिम्ब, यथातथ्य, जीवन्त और मानव-प्रकृति। ‘प्रतिबिम्ब’ शब्द के द्वारा ड्राइडन जीवन के आभासी स्वरूप पर बल देते दिखाई देते हैं। काव्य या नाटक में जीवन, यथार्थ में, जैसा है वह नहीं, वरन् जैसा रचनाकार को प्रतीत होता है, वह महत्त्वपूर्ण हैं। ‘आभासी स्वरूप’ से यह संकेत मिल सकता है कि उसमें जो जीवन चित्रित होता है, वह सत्य नहीं है। मिथ्या है। इस सम्भावना के निराकरण के लिए ड्राइडन ने ‘यथातथ्य’ विशेषण का प्रयोग किया है। वस्तुतः वे मानव-प्रकृति के प्रतिबिम्ब और मानव-प्रकृति के सत्य में कोई अन्तर नहीं मानते। प्रतिबिम्ब यदि यथातथ्य हुआ, उसके पीछे यदि यथार्थ का आधार हुआ, तो वह सच्चा भी होगा। इसके अतिरिक्त, इस प्रतिबिम्ब में यथातथ्यता ही न हो, जीवन्तता भी हो। जीवन्तता का यथातथ्य विवरण कोई मनोवैज्ञानिक भी दे सकता है, किन्तु वह न तो जीवन्त होगा, न प्रतिबिम्ब। इसी प्रकार यह भी सम्भव है कि कोई प्रतिबिम्ब जीवन्त तो हो (जैसे परियों की कहानियाँ) लेकिन यथातथ्य न हो। इसके विपरीत, मानव-प्रकृति का यथातथ्य प्रतिबिम्ब जीवन्त होने के बजाय निर्जीव भी हो सकता है। ये सभी विशेषताएँ एक-साथ नाटक या सर्जनात्मक साहित्य में ही मिल सकती हैं, ज्ञान के अन्य रूपों में नहीं।
नाटक या काव्य की प्रतिबद्धता ‘मानव-प्रकृति’ के प्रति है। उसमें मानव-प्रकृति का अनुकरण या चित्रण रहता है। मानव-प्रकृति के निर्धारक तत्त्व हैं उसके भाव (passions) और मनोदशाएँ (humours)। दोनों मिलकर, मानव-प्रकृति की बौद्धिक और संवेदनात्मक प्रतिक्रिया का अर्थ व्यक्त करते हैं। शास्त्रवादी (क्लैसीकल) कला-चिन्तन में मानव-प्रकृति को स्थायी मान लिया गया था। भारतीय काव्य-चिन्तन में भी स्थायी भावों की चर्चा है। ड्राइडन के अनुसार मानव-प्रकृति कोई स्थिर या जड़ इकाई नहीं है। वह सतत परिवर्तनशील है। ऐतिहासिक विकास-क्रम में जैसे-जैसे हमारे ज्ञान का विस्तार होता गया है, वैसे-वैसे हमारे भावों में संश्लिष्टता और जटिलता की मात्रा बढ़ती गई है। अतः साहित्य किन्हीं पूर्वनिर्धारित नियमों को शाश्वत मानकर नहीं चल सकता। साहित्य की मूल प्रतिबद्धता इस सतत परिवर्तनशील मानव-प्रकृति के प्रति है, अरस्तू-होरेस आदि द्वारा निर्धारित शास्त्रीय नियमों के प्रति उतनी नहीं। इसलिए देशकाल के भेद के अनुसार साहित्य के स्वरूप में भी कुछ-न-कुछ परिवर्तन अवश्यम्भावी है। अतः ड्राइडन की मान्यता है कि नए साहिय के मूल्यांकन में पुराने निकष ज्यों-के-त्यों उपयोगी नहीं हो सकते। नई परिस्थितियों के अनुरूप उनमें संशोधन-परिवर्तन जरूरी है।
5. 2 प्रयोजन : आनन्द और शिक्षा
परिभाषा के दूसरे भाग में नाटक या काव्य के प्रयोजन को स्पष्ट किया गया है – “उसमें मानव-जाति के आनन्द और शिक्षा के लिए उसके भावों, मनोदशाओं और नियति के उतार-चढ़ाव का चित्रण किया जाता है।” परिभाषा के इस भाग के आधार पर काव्य का प्रयोजन है आनन्द और शिक्षा – पहले स्थान पर आनन्द, फिर शिक्षा। प्लेटो ने काव्य में शिक्षा को महत्त्व दिया था, अरस्तू ने आनन्द को, होरेस ने आनन्द और शिक्षा दोनों को और लोंजाइनस ने भाव-विह्वलता को। ड्राइडन ने लिखा – “कविता का प्रमुख उद्देश्य है आनन्द, भले ही वह एकमात्र उद्देश्य न हो। शिक्षा को स्वीकार तो किया जा सकता है, लेकिन दूसरे स्थान पर, क्योंकि कविता आनन्द प्रदान करने की प्रक्रिया में ही शिक्षा देती है।” अन्यत्र ड्राइडन ने आनन्द को कवि के प्रयोजन के साथ सम्बद्ध किया है और शिक्षा को कविता के प्रयोजन के साथ। यदि कवि का कार्य अपने श्रोताओं को आनन्द प्रदान करना है, तो इससे यह संकेत मिलता है कि हर युग में लोगों की जैसी प्रवृत्ति हो, जैसे फैशन हो, कवि वैसा ही लिखे। ड्राइडन इस मान्यता को पूरा समर्थन नहीं देते। कारण, आनन्द का सम्बन्ध पाठक या दर्शक वर्ग की अभिरुचि से भी है। जरूरी नहीं कि दर्शक हमेशा अच्छे नाटकों को देखकर ही आनन्दित होते हों। सही प्रतिक्रिया के लिए पाठकीय अभिरुचि में सुधार-परिष्कार जरूरी होगा। ऐतिहासिक विकास-क्रम में मानव-प्रकृति में संश्लिष्टता और जटिलता की मात्रा बढ़ती गई है। ऐसे में जिस साहित्य में संश्लिष्टता और जटिलता जितनी ज्यादा होगी, उतना ही वह मानव-प्रकृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब होगा और उसी अनुपात में उसमें आनन्द प्रदान करने की क्षमता भी ज्यादा होगी। संकेत यह कि यूनानी-रोमी तथा फ्रांसीसी नाट्य साहित्य की तुलना में एलिजाबेथयुगीन नाटकों में यह विवधता और संश्लिष्टता कहीं ज्यादा है। इसीलिए उनमें आनन्द प्रदान करने की क्षमता भी अधिक है।
कोई कविता आनन्द प्रदान तो करे, किन्तु उसमें नियमों का पालन न किया गया हो, दूसरी ओर कोई कविता नियमों के अनुसार तो हो किन्तु आनन्द प्रदान न करे, इन दोनों सम्भावनाओं से ड्राइडन इनकार करते हैं। यदि कोई कविता आनन्द प्रदान करती है तो उसमें नियमों का पालन अवश्य किया गया होगा, क्योंकि नियम भी अन्ततः मानव-प्रकृति को आधार मानकर चलते हैं। इसी प्रकार किसी रचना में यदि सही मायनों में नियमों का अनुपालन हुआ है, तो वह आनन्द प्रदान करेगी-ही-करेगी। यदि ऐसा नहीं होता, तो इसके दो ही कारण हो सकते हैं – या तो हमारी अभिरुचि विकृत है, या फिर हम ऐसे यान्त्रिक-रीतिबद्ध नियमों को ही भ्रमवश वास्तविक नियम समझ बैठे हैं, जो कतई आधारभूत नहीं है।
5. 3 अनुकरण, प्रतिभा और कल्पना
‘प्रकृति का अनुकरण’ ड्राइडन के सैद्धान्तिक विवेचन की आधारशिला है। इसी का आधार लेकर वे शास्त्रीय जड़ता को तोड़ने का प्रयास या नवीनता का उन्मेष करते हैं। ‘अनुकरण’ शब्द का उन्हें अरस्तू द्वारा निर्दिष्ट अर्थ मान्य है। प्लेटो के मत (जिसके अनुसार कला नकल की नकल है) के विपरीत अरस्तू ने पुनर्रचना या पुनःसृजन के अर्थ में ‘अनुकरण’ शब्द का इस्तेमाल किया है, जिसे हम और अधिक स्पष्ट शब्दावली में ‘यथार्थ का कल्पनात्मक पुनर्सृजन’ कह सकते हैं। यही अर्थ ड्राइडन को भी ग्राह्य है। कलाकार प्रकृति का यथावत् प्रत्यंकन नहीं करता। वह प्रकृति से केवल उतनी सामग्री लेता है, जिसके आधार पर सम्पूर्णता का सुन्दर सादृश्य प्रस्तुत किया जा सके। वह अपनी आधार-सामग्री तो प्रकृति से लेता है, किन्तु कल्पना की सहायता से उसे ऐसा रूप दे देता है कि उसमें नवीन परिचय की दीप्ति आ जाती है। ड्राइडन के अनुसार किसी कलाकृति में आधार-सामग्री का मूल्य नगण्य होता है। कविकर्म में कवि-कौशल की निर्णायक भूमिका होती है– ‘सामान्य तौर पर कवि का कार्य किसी बन्दूक बनाने वाले या घड़ीसाज के काम की तरह है। इस्पात या चाँदी उसकी अपनी नहीं होती। किन्तु जो तत्त्व उन्हें मूल्यवत्ता प्रदान करता है वह इन धातुओं में निहित नहीं होता है। उसका मूल्य पूरी तरह उसकी कारीगरी में निहित होता है।’
कल्पना वह शक्ति है जो अनुकरण को सृजन में रूपान्तरण करती है। प्रतिभा और कल्पना के सन्दर्भ में ड्राइडन ने तीन शब्दों का प्रयोग किया है – विट (wit), इमेजिनेशन (imagination) और फैन्सी (fancy)। आज हम इन्हें क्रमशः विदग्धता, कल्पना और ललित कल्पना कहेंगे। किन्तु ड्राइडन के समय में इनकी अर्थरेखाएँ इतनी स्पष्ट न थीं। ये तीनों शब्द थोड़े-बहुत अन्तर के साथ, प्रतिभा या कल्पना के सूचक थे। उनके अर्थ परस्पर समावेशी थे, हालाँकि मोटे तौर पर उनमें अर्थभेद भी था। इन तीनों में सबसे अधिक व्यापक है ‘विट’। ड्राइडन में इसका प्रयोग भी सबसे ज्यादा है – शेष दोनों शब्दों (‘इमेजिनेशन’ और ‘फैन्सी’) के सम्मिलित प्रयोग से भी ज्यादा। आज इस शब्द का विदग्धता वाला अर्थ इतना प्रधान हो उठा है कि उसने शेष दोनों अर्थों को कमोवेश विस्थापित कर दिया है। ड्राइडन के युग में कवि-कल्पना (प्रतिभा) वाला अर्थ प्रधान था। इसका वास्तविक रहस्य न तो मार्मिक सूक्ति की तीक्ष्ण धार में निहित है, न विरोधाभास में, न श्लिष्ट प्रयोग की अर्थ-ध्वनि में। वह तो अलंकृत भाषा के माध्यम से ऐसे सटीक चित्रण में निहित है जो अप्रस्तुत वस्तुओं को इस रूप में प्रस्तुत कर दे जैसे कि वे प्रस्तुत हों।
युग के अन्य आलोचकों की तरह ड्राइडन ने भी ‘फैन्सी’ और ‘इमेजिनेशन’ शब्दों का प्रयोग पर्यायवत् किया है। किन्तु एक जगह जहाँ सृजन-प्रक्रिया की चर्चा है, वहाँ ड्राइडन ने ‘फैन्सी’ को ‘इमेजिनेशन’ का एक भेद माना है। इससे यह संकेत मिलता है कि ‘फैन्सी’ की तुलना में ‘इमेजिनेशन’ अधिक व्यापक है। इस प्रसंग में ड्राइडन ने कवि-कल्पना (poetic imagination) अभिव्यक्ति का प्रयोग किया है, जो काफी हद तक ‘प्रतिभा’ का सूचक है। इसके तीन घटक हैं – उद्भावना, कल्पना और अभिव्यक्ति।
‘कवि-कल्पना का पहला सौभाग्य है उद्भावनाओं (invention) या सम्बद्ध विचार की खोज। दूसरा है कल्पना (fancy) या उस विचार का रूपान्तरण, उसे गढ़ना, या उसका संवेदनात्मक प्रत्यक्षीकरण… तीसरा है अभिव्यक्ति (elocution) अर्थात् इस तरह से उपलब्ध और रूपान्तरित विचार को सटीक, अर्थपूर्ण और ध्वन्यात्मक शब्दावली में विभूषित करना। उद्भावना में कवि-कल्पना की तीव्रता दिखाई देती है, कल्पना में नवनवोन्मेष और अभिव्यक्ति में सटीकता।’
ऊपर के उद्धरण के आधार पर सृजन-प्रक्रिया का पहला चरण है उद्भावना या सम्बद्ध विचार की खोज। दूसरा है कल्पना या वस्तु का सन्धान। इसमें किसी नवीन रचना के ‘आकस्मिक अंकुरण’ का भाव निहित है। तीसरा है उसे संरचना में ढालना। यह अंशतः बुद्धि का काम है, अंशतः कल्पना का। विवेक संरचना को आकार देता है, कल्पना उसमें जीवन्तता का संचार करती है। कल्पना का काम जब सम्पन्न हो जाता है, तभी उसे शब्दबद्ध करने, उस विचार को विभूषित करने और अलंकृत करने का चरण आता है। ‘ध्वन्यात्मक’ विशेषण में यह संकेत निहित है कि ऐसे शब्दों का चुनाव किया जाए, और उनका संयोजन इस रूप में हो, जो उद्भावित वस्तु की मनोदशा को व्यंजित करने में समर्थ हो।
कवि-प्रतिभा के दो घटक हैं – विवेक या बुद्धि और कल्पना। ड्राइडन ने बुद्धि की इस दुहरी भूमिका पर बार-बार जोर दिया है – एक तो संरचना-निर्मिति, दूसरे कल्पना पर अंकुश रखना। कल्पना असमान चीजों में अप्रत्याशित समानता की खोज करती है, जिससे उपमा, रूपक तथा अन्य अलंकारों का उदय होता है। इसके विपरीत बुद्धि समान दिखाई देने वाली चीजों में असमानता का सन्धान करती है। आगे चलकर कॉलरिज (सन् 1772-1834) ने अपने कल्पना सम्बन्धी विवेचन में ड्राइडन की इस अन्तर्दृष्टि का उपयोग किया है। कल्पना तर्क के आधार को नष्ट नहीं करती, वरन् उस पर एक प्रकार का कुहरा-सा डाल देती है। दोनों एक प्रकार के द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध में बँधकर गतिशील होते है– ‘कल्पना और तर्क दोनों साथ-साथ चलते हैं, पहला दूसरे को पीछे नहीं छोड़ सकता। यद्यपि कल्पना गहरी खाई के बावजूद गतिशील हो सकती है, किन्तु ऐसे अवसर पर तर्क उसे रोक देता है। यदि उन दोनों ने बीच खाई बहुत गहरी हुई, तो विवेक छलाँग लगाने से इनकार कर देता है।’
5.4 नवीन काव्यभाषा का विकास
ड्राइडन की काव्य विषयक परिभाषा में एक नई काव्यभाषा के विकास का संकेत मिलता है। काव्य यथार्थ का प्रतिरूप नहीं है। उसका प्रतिबिम्ब है। वह न पूरी तरह यथार्थ (सत्य) है, न पूरी तरह कल्पना (मिथ्या)। उसमें यथार्थ और कल्पना का सामंजस्य रहता है। ज्ञान जब तक संवेदनात्मक रूप न ग्रहण कर ले, और संवेदना जब तक ज्ञानात्मक आधार लेकर न खड़ी हो, उसे सही मायनों में काव्य की संज्ञा नहीं दी जा सकती। किन्तु इस निष्कर्ष तक ड्राइडन एक लम्बी प्रक्रिया के बाद पहुँचते हैं।
ड्राइडन के सामने काव्यभाषा की एक तो पुनर्जागरण के अन्तिम चरण की परम्परा थी। इसके प्रतिनिधि थे डन, काउले आदि तत्त्ववादी (मेटाफिजिकल) कवि। इनमें कल्पनाशीलता की प्रधानता थी। कल्पना का अतिरेक था इनमें। दूसरी परम्परा अनुभववादी ज्ञान की थी जो बेकन से आरम्भ होकर हॉब्स (सन् 1588-1679) और लॉक (सन् 1632-1704) के विचारों में विकसित हुई थी और जिसे आगे चलकर एडिसन (सन् 1672-1779) ने साहित्य-सिद्धान्त का रूप दिया। इनमें एक में कल्पना का अतिरेक है, दूसरे में कल्पना का नितान्त अभाव। एक में कल्पनाशीलता का अतिरेक है, दूसरे में यथातथ्यता का। एक बहुत ऊँचा है, दूसरा बहुत नीचा। किन्तु परिणाम दोनों में एक जैसा है – दोनों ही तुच्छता का आभास देते हैं। काव्य-प्रतिभा के निदर्शक वे तभी बनते हैं, जब दोनों परस्पर सहयोग करते हुए गतिशील हों और एक-दूसरे को बल प्रदान करें। जब ज्ञान संवेदनात्मक रूप रखकर आए और संवेदना ज्ञानात्मक रूप रखकर। जब संवेदना ज्ञानात्मक हो और ज्ञान संवेदनात्मक। इसलिए ड्राइडन ऐसी काव्यभाषा की तलाश में थे, जिसमें वैज्ञानिकता के साथ-साथ कल्पनाशीलता भी हो, और साथ ही जो उत्तरोत्तर जटिल होती संवेदना को पूरी जीवन्तता के साथ व्यक्त कर सके। परिभाषा में जो प्रतिबिम्ब या बिम्ब (इमेज) शब्द आया है, वह इसी उद्देश्य की पूर्ति करता है।
- तुलनात्मक और व्यावहारिक आलोचना
ड्राइडन की आलोचना की एक महत्त्वूपूर्ण तकनीक है तुलना। वे एक तरह से साहित्यिक मूल्यों को हमेशा दूसरी तरह के साहित्यिक मूल्यों के सन्दर्भ में रखकर देखते हैं। ‘नाट्य काव्य’ निबन्ध में उन्होंने शेक्सपियर का जो चरित्रांकन किया है, वह तुलनात्मक परिप्रेक्ष्य लिए हुए है। अन्यत्र बेन जॉनसन और शेक्सपियर की तुलना करते हुए उन्होंने लिखा है कि जॉनसन के प्रति मेंरे मन में सराहना का भाव है, जबकि शेक्सपियर को मैं प्यार करता हूँ। अरस्तू ने महाकाव्य की अपेक्षा त्रासदी को अधिक महत्त्वपूर्ण माना था, किन्तु ड्राइडन ने महाकाव्य को अधिक महत्त्व दिया। इसीलिए विस्तार से तुलना जरूरी हो उठी। सामान्यतः तुलना में हमारा ध्यान मूल्यांकन पर रहता है, एक चीज को मूल्यवान मानना और दूसरी का मूल्य कम करके आँकना। किन्तु तुलना करते समय ड्राइडन का बल मूल्यांकन के बजाय विश्लेषण पर रहता है। होमर और वर्जिल की तुलना करते हुए उन्होंने लिखा – “वर्जिल के महाकाव्य का अपने युग के रोमवासियों के लिए वैसा ही महत्त्व है, जैसा कि होमर के महाकाव्य का अपने युग के यूनानियों के लिए था।” नाटक और महाकाव्य की तुलना में विधागत सापेक्षता थी, यहाँ सांस्कृतिक सापेक्षिता है। दोनों ही उदाहरणों में प्रभाव एक जैसा है – मूल्यांकन के बजाय विश्लेषण।
बेन जॉनसन के एक नाटक द साइलण्ट वुमन का मूल्यांकन प्रस्तुत करके ड्राइडन ने अंग्रेजी में व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात किया। अंग्रेजी में इस तरह का यह पहला प्रयास है, बल्कि अन्य यूरोपीय भाषाओं के अन्तर्गत भी यह आरम्भिक प्रयासों में से है। उनका यह विवेचन शास्त्रवादी प्रतिमानों के आधार पर है, इसमें सन्देह नहीं। ड्राइडन ने यह दिखाने की कोशिश की है कि इसका कथानक सुगठित है, दृश्य संयोजन में अन्वितियों का पालन किया गया है, इसमें मानव-प्रकृति की विविधता का प्रतिफलन है और कथानक का गठन इस रूप में है कि अन्तिम निर्वहण तक हमारी रुचि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है। यह विश्लेषण तकनीकी किस्म का है, लेकिन विश्लेषण तो है। उन्हें इसका पूरा बोध है कि एक एलिजाबेथयुगीन नाटक और एक पुनःस्थापनयुगीन नाटक के मूल्यांकन के लिए अलग-अलग प्रतिमानों की जरूरत होगी, क्योंकि वे जिस नाट्य रूढ़ियों पर आधारित हैं, वे अलग-अलग हैं। समीक्षाधीन रचना के अनुरूप ही उनकी आलोचना-पद्धति बदल जाती है। अपनी एक टिप्पणी में उन्होंने लिखा – “अरस्तू ने ऐसा कहा है, इतना ही काफी नहीं है, क्योंकि अरस्तू ने अपने त्रासदी के आदर्श सोफोक्लेस और यूरोपदेश से ग्रहण किए थे और यदि उन्होंने हमारे नाट्य आदर्शों को देखा होता, तो वे अपने नियम बदल देते।
- ड्राइडन और नव्यशास्त्रवाद
ड्राइडन पुनर्जागरण से पुनःस्थापन काल में संक्रमण के दौर की अन्तिम महान विभूति हैं। वे पुनर्जागरण को नव्यशास्त्रवादी युग से जोड़ने वाली कड़ी हैं। इसलिए ड्राइडन में सहजता भी है और अनुशासन भी। शास्त्रवाद की दिशा में जो विकास हो रहा था, उसे उन्होंने नेतृत्व प्रदान किया किन्तु इस क्षेत्र में वे बहुत दूर तक नहीं गए। वे अपने युग के हैं और उसे अतिक्रान्त भी करते हैं। समसामयिक रचनाशीलता को नेतृत्व प्रदान करना उनकी बौद्धिक जिम्मेवारी है, किन्तु उनका हृदय शेक्सपियर आदि पुनर्जागरणकालीन रचनाकारों के साथ है। इसीलिए उनमें एक ओर स्पष्टता, अनुपात, नियमनिष्ठता और वैज्ञानिकता के तत्त्व हैं, तो दूसरी ओर कल्पना का ऐश्वर्य, शक्ति और जीवन्तता के प्रति लगाव, ओजस्वी छन्द-विधान और मूर्त्त प्रत्यक्षीकरण की प्रतिभा भी है। नव्यशास्त्रवाद को लेकर उनके मन में द्वन्द्व है, इसलिए उन्हें ठीक-ठीक नव्यशास्त्रवादी की संज्ञा नहीं दी जा सकती। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध (जो ड्राइडन का रचना-काल है) में फ्रान्स में तो नव्यशास्त्रवाद का वर्चस्व है, इंग्लैण्ड में नहीं। इंग्लैण्ड में अठारहवीं सदी नव्यशास्त्र का युग है और इसके प्रतिनिधि आलोचक हैं डॉ. जॉनसन।
- निष्कर्ष
ड्राइडन ने शास्त्रबद्ध अंग्रेजी आलोचना को आधुनिक बनाया और उसे व्यापक आधार प्रदान किया। परम्परा का आधार ग्रहण करने के बावजूद वे नई चेतना के वाहक बने। शास्त्र के अनुकरण के बजाय उन्होंने प्रकृति के अनुकरण को आधार-सिद्धान्त माना और उसमें ऐतिहासिक आयाम का संयोग किया। शास्त्रवादी आलोचना में यह ऐतिहासिक घटक नहीं था। शास्त्र को उन्होंने केवल प्रस्थान-बिन्दु माना जो बहुत दूर तक उनकी मदद नहीं करता। आलोचना को आधुनिक रूप देने के सिलसिले में उन्होंने कई क्षेत्रों में पहल की। युग चेतना और ऐतिहासिक चेतना के आधार पर उन्होंने क्लासिकी काव्य-सिद्धान्तों में अपेक्षित संशोधन-परिवर्तन की बात कही। होमर और वर्जिल, ओविड और चॉसर, शेक्सपियर और बेन जॉनसन की तुलना करके तुलनात्मक आलोचना का मार्ग प्रशस्त किया। इसके अलावा बेन जॉनसन के एक नाटक द साइलण्ट वुमन (मूक महिला) का मूल्यांकन प्रस्तुत करके आधुनिक या विश्लेषणात्मक आलोचना का मार्ग प्रशस्त किया। अंग्रेजी आलोचना के लिए ये नई चीजें थीं और कुल मिलाकर आलोचना मात्र के सन्दर्भ में स्थायी महत्त्व की सिद्ध हुईं। प्राचीन के प्रति निष्ठावान रहते हुए भी नवीन के प्रति उनका आकर्षण कम नहीं है। परम्परा उन्हें मान्य है, किन्तु युग के अनुरोध से वे बराबर उसमें संशोधन-परिवर्तन करने के पक्ष में हैं। इन्हीं विशेषताओं की वजह से नव्यशास्त्रवादी दौर के प्रतिनिधि आलोचक डॉ. जॉनसन ने उन्हें ‘आधुनिक अंग्रेजी आलोचना का जनक’ कहा है।
अतिरिक्त जानें :
पुस्तकें :
- ड्राइडन के आलोचना सिद्धान्त, कृष्णदत्त शर्मा, हिन्दी माध्यम कार्यन्वय निदेशालय दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली।
- A History of Modern Critisicim:1750-1950 by Rene Wellek, Jonathan Cape,London.
- Dramtic poetry and other essays, John Dryden, J.M.Dent. London.
- The life of john Dryden, Charles Eugene Ward, University of North Carolina Press, Chapell Hill.
- Dryden to Johnson, edited by Rodger Lonsdale, Barrie & Jenkins, London.
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