30 अपरिचयीकरण

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. आलोचना की शुरुआत
  4. प्रकाशित पुस्तकें
  5. अपरिचयीकरण : स्वरूप-निर्णय
  6. अपरिचयीकरण : एक रूपवादी अवधारणा
  7. अपरिचयीकरण : प्रमुख धारणाएँ व स्थापनाएँ
  8. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्धेश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • विक्टर श्‍लोव्स्की का साहित्यिक परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • विक्टर श्‍लोव्स्की की प्रमुख पुस्तकों और उनके प्रमुख सिद्धान्तों के बारे में जानेंगे।
  • अपरिचयीकरण के सिद्धान्त से परिचित हो सकेंगे।
  • अपरिचयीकरण की विशेषताओं और सीमाओं को जान सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

यह पाठ विक्टर बोरिसोविच श्‍लोव्स्की (सन् 1893-1984) और उनके अपरिचयीकरण के सिद्धान्त पर केन्द्रित है। श्‍लोव्स्की रूसी रूपवाद के प्रवर्तक माने जाते हैं। उनका महत्त्व इस बात में है कि उन्होंने साहित्य को देखने-परखने की एक नई दृष्टि दी। उनकी यह दृष्टि इस बात की खोज करती है कि कोई साहित्यकार अपनी कृति में हमारी जानी-पहचानी चीजों को भी एक नए रूप में क्यों पेश करता है? ऐसा वह जानबूझ कर करता है या अनजाने में करता है? इन सवालों के जवाब ढूंढते हुए विक्टर श्‍लोव्स्की इस नतीजे पर पहुँचे कि कोई भी बड़ा साहित्यकार अपनी रचना में हमारे रोज-रोज के देखने में छूट गये को दिखाने की कोशिश करता है। इसे विक्टर श्‍लोव्स्की ने अपरिचयीकरण का सिद्धान्त कहा। अपने इस एक सिद्धान्त की वजह से ही विक्टर श्‍लोव्स्की को अकादमिक जगत में अपार लोकप्रियता मिली। रूपवादियों के साथ ही अन्य विचारधाराओं के आलोचकों ने भी विक्टर श्‍लोव्स्की के इस सिद्धान्त का इस्तेमाल अपनी आलोचना में किया।

  1. आलोचना की शुरुआत

विक्टर श्‍लोव्स्की ने सेंट पीटर्सबर्ग विश्‍वविद्यालय से अध्ययनोपरान्त सन् 1916 में एक संस्था ‘ओपोयाज’ (OPOYAZ) का सूत्रपात किया। साहित्यालोचन का केन्द्र हो जाने वाली इस संस्था ने रूस के बहुत से बुद्धिजीवियों, लेखकों और आलोचकों को अपनी ओर आकृष्ट किया। इनमें बोरिस आइकनवाम, तिन्यानोवे ब्लादीमीर प्राप आदि रूसी रूपवादी संकाय के आलोचक शामिल थे। बाद में इसमें ‘मॉस्को संकाय’ से अलहदा हो जाने वाले रोमन याकोब्सन के अलावा बाख्तिन जैसे आलोचक भी शामिल हो गये थे। सोवियत रूस में सन् 1917 में वोल्शेविक क्रान्ति हो जाने के बाद रोमन याकोब्‍सन रूसी रूपवाद के विकास के लिये रूस को अनुकूल न पाकर चेकोस्लोवाकिया चले गए थे। वहाँ उन्होंने ‘प्राग भाषाशास्त्रीय संकाय’ की स्थापना की थी। बाख्तिन भी उन्हीं के साथ, कई देशों से होते हुए, अन्ततः अमेरिका जा पहुंचे, परन्तु विक्टर श्‍लोव्स्की का कर्मक्षेत्र मुख्यतः रूस ही रहा।

 

सन् 1917 की रूसी समाजवादी क्रान्ति में श्‍लोव्स्की ‘रेड आर्मी’ का हिस्सा होकर सामाजिक परिवर्तन के लिये युद्ध में शामिल हुए थे। इस युद्ध में  वे पर्शिया के मोर्चे पर घायल भी हो गए थे। युद्ध से लौट कर आने के बाद वे अपने ‘कलावादी’ या ‘रूपवादी’ दृष्टिकोण की वजह से कला और साहित्य के समाजवादी राजनीतिक दलगत निर्देशों से सहमत नहीं हो सके थे। उन्हें सिद्धान्तों की बन्धी-बन्धाई लीक पर चलना मंजूर नहीं था। अतः उन्होंने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए चिन्तन का एक नया रास्ता बनाने की कोशिश की। साहित्य और कला को देखने-परखने का उनका एक अलग ही अन्दाज था। उन्होंने अन्य रूपवादियों से हटकर इस बात पर जोर दिया कि रचनाकार सिर्फ भाषा और रूप को ही नहीं बल्कि उसके विषयवस्तु को भी एक नई भंगिमा देने की कोशिश करता है।

  1. प्रकाशित पुस्तकें
  • विटनेस टू एन एरा तथा अ सेटीमेंटल जर्नी  : ‘विक्टर श्‍लोव्स्की  विटनेस टू एन एरा’ (विक्टर श्‍लोव्स्की : एक युग का साक्षी) शीर्षक से छपी किताब में सेरेना विताले के द्वारा लिए गए उनके साक्षात्कार अनूदित होकर अंग्रेजी में उपलब्ध है। इस किताब में वे सन् 1917 की क्रान्ति के दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि तब वे भी अन्य तमाम रूसी क्रान्तिकारियों की तरह यही सोचते थे कि वे रूस को ही नहीं, रूस के पीछे-पीछे पूरी दुनिया को बदल कर रख देंगे। परन्तु जैसे ही श्‍लोव्स्की को सत्ता-परिवर्तन  के बाद के दिनों में लगा कि ‘सामाजिक मुक्ति’, ‘कला की मुक्ति’ तक जाने का हेतु नहीं हो सकती, वे अपने कुछ हम-ख्याल मित्रों, यानी बोरिस, आइखनबाम तथा तिनियानोव के साथ मिलकर ‘ओपोयाज़’ को अपने विचारों की खुली अभिव्यक्ति का हेतु बनाने लगे। उनके इन मित्रों से उनकी इस सम्बद्धता को रूस के समाजवादी शासकों ने ‘प्रतिक्रियावादी’ माना। प्रतिबन्धित होने के बाद गिरफ्तारी के भय से आक्रान्त वे कुछ समय के लिए फिनलैण्ड के रास्ते जर्मनी में बर्लिन जा पहुँचे। वहाँ सन् 1923 में उनकी किताब अ सेण्टीमेण्टल जर्नी : 1917-22 का प्रकाशन हुआ। यह किताब श्‍लोव्स्की को समाजवादी क्रान्ति के काल में कला-युक्ति की अपनी अलग क्रान्ति का उद्घोषक बनाती है। इस आधार पर किया गया अनेक विद्वानों का मूल्यांकन उन्हें ‘समान्तर क्रान्ति के पितामह’ की तरह प्रस्तुत करता है।
  • लिटरेचर एण्ड सिनेमेटोग्राफी : सन् 1923 में मक्सिम गोर्की के प्रयासों से वे सेंट पीटर्सबर्ग लौट आए। सन् 1916 से लेकर 1922 तक उन्होंने साहित्य के अतिरिक्त फिल्मों में पटकथा-लेखन का कार्य भी किया था। इससे उन्हें साहित्य के फिल्मों के साथ रिश्तों को समझने में मदद मिली। दूसरी बात यह थी कि फिल्म एक दृश्य-श्रव्य माध्यम था। साहित्य के उससे रिश्ते ने उन्हें साहित्य को एक ‘भाषागत कला माध्यम’ की तरह समझने में मदद की। अपने इन अनुभवों को उन्होंने अपनी इस पुस्तक में शामिल किया।
  • आर्ट इज डिवाइस : सन् 1925 में इस शीर्षक से प्रकाशित उनके आलेख को रूसी रूपवाद का ‘घोषणापत्र’ (मेनीफेस्टो) भी कहा जाता है। आलोचना-सैद्धान्तिकी के विकास के लिए यह बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका बनाता है। हालांकि उनका यही आलेख उनके विचारों का तथा रूसी रूपवाद के स्वरूप की व्याख्या का आधार हो गया है, तथापि यह बात उल्लेखनीय है कि वे अपने बाद के लेखन में इसकी कई धारणाओं का ‘विकास’ या ‘आंशिक विरोध’ तक करते दिखाई देते हैं।
  • थ्योरी ऑफ प्रोज  : यह श्‍लोव्स्की की सर्वाधिक चर्चित पुस्तकों में से एक है। इसमें मुख्यत: निम्न प्रश्नों को उठाया गया है– (i) सामान्य भाषा एवं काव्य भाषा में अन्तर; (ii) काव्य भाषा और गद्य भाषा में अन्तर; (iii) लियो तॉल्स्ताय के बाद आया साहित्य-दृष्टि का रूपान्तर व (iv) गद्य भाषा को कला के रूप में समझने का प्रयास। यह किताब अनेक गद्य-लेखकों के अलावा कुछ कवियों को भी ‘तुलना’ के तौर पर भाषा-विवेचन का हिस्सा बनाती है। इस पुस्तक में मुख्य तौर पर विवेचित लेखक हैं, हीगेल, कार्ल मार्क्स, दोस्तोव्स्की, लियो तॉल्स्ताय, शेक्सपीयर, तोदोरोव, हेनरी जेम्स, टॉमस मान और लॉरेंस स्टर्न। इसके साथ ही मायकोव्स्की तथा बोरिस पास्तरनाक जैसे अपने प्रिय कवि-मित्रों का उल्लेख वे तुलना के तौर पर करते हैं।
  • द थर्ड फैक्ट्री : सन् 1926 में प्रकाशित यह किताब श्‍लोव्स्की के लेखन में अन्तर्विकास की जीवनीपरक अन्तर्वस्तु को हमारे सामने लाती है। वे लेखन को ‘फैक्ट्री’ के उत्पाद  की तरह देखते हुए इसे तीन तरह की ‘सांस्कृतिक फैक्ट्रियों’ से जोड़ते हैं। यहाँ साहित्य और फिल्मों की दुनिया को दो फैक्ट्रियों के तौर पर देखा गया है, तो तीसरी का सम्बन्ध उनके जीवन के संघर्षों से है। कला इन से ‘उपजती’ है, परन्तु एक ‘उत्पाद’ के तौर पर वह ‘अपने ही नियमों से संचालित एक अलग दुनिया’ होती है।
  • ब्राउजिंग : ऑन द डिसिमिलेरिटी ऑफ द सिमिलर : बड़े आकार की श्‍लोव्स्की की यह किताब ‘गद्य के सिद्धान्त’ में उल्लिखित अधिकांश लेखकों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करती है। उनका ‘कला एक उपकरण है’ वाला निबन्ध ‘अपरिचयीकरण’ की धारणा को हमारे सामने लाता है। यहाँ वे इस धारणा का विकास ‘भिन्‍नता’ की अपनी अवधारणा के रूप में करते है।
  • एनर्जी ऑफ डिल्यूजन : अ बुक ऑन प्लॉट : यह उनके आलोचक के रूप में जीवन की आखिरी उल्लेखनीय पुस्तक है। इसमें वे अपने ‘गद्य के सिद्धान्त’ को कहानी-उपन्यास की गहन व्याख्या के रूप में आगे बढ़ाते हैं।
  1. अपरिचयीकरण : स्वरूप-निर्णय

विक्टर श्‍लोव्स्की ने अपरिचयीकरण के लिए जिस रूसी शब्द का प्रयोग किया है, उसे अंग्रेजी के ज्यादातर विद्वान ‘एनस्ट्रेजमेण्ट’ के रूप में अनूदित करते हैं। परन्तु शब्दों को प्रयोग में लाते हुए यदि उन्हें ‘अजनबी’ बना दिया जायेगा, तो सम्भवतः किसी अन्य लोक से सम्बन्ध प्रतीत होंगे और तब उनका सही अर्थग्रहण ही कठिन हो जाएगा। इस दिक्कत के कारण ‘अपरिचयीकरण’ (डी-फेमिलियराइजेशन) शब्द को बहुतों ने सम्यक मानकर स्वीकार कर लिया। आम पहचान में आने वाली ‘परिचित’ भाषा के ‘अपरिचित-जैसी’ भाषा में बदल दिए जाने से भी ठीक वही दिक्कत हमारे सामने आती है। अंग्रेजों की मार्फत हिन्दी में आए ये दोनों शब्द ‘नकार’ या ‘निषेध’ की ध्वनि वाले हैं। दूसरी तरफ श्‍लोव्स्की का ‘ओस्‍त्रनिन’ (ostranin) एक ‘विधायक’ शब्द है। सामान्य भाषा की प्रयोग में आने वाली मिलती-जुलती भाषा से ‘भिन्‍नता’ ‘ओस्‍त्रनिन’ का प्रयोजन है। साहित्य की ‘साहित्यिकता’ को श्‍लोव्स्की भाषा की ‘भिन्‍नता’ या उसके ‘अजनबी’ अथवा सामान्यतः अपरिचित रूप में खोजते हैं।

  1. अपरिचयीकरण : एक रूपवादी अवधारणा

रूसी रूपवाद ने बीसवीं सदी के दूसरे दशक के मध्य में प्रकट होकर तीसरे दशक तक खूब विकास किया। चौथे दशक में उसका अवसान होना आरम्भ हो गया। इसके बाद चौथे-पाँचवें दशक में वह यूरोप में, खास तौर पर इंग्लैण्ड केन्द्रित ‘नयी आलोचना’ वाले चरण से होता हुआ ‘रूपवाद’ तक विधिवत सफर तय करता है। सन् 1950 के बाद ‘संरचनावाद’ में उसका एक तरह का विलय हो जाता है। इसके बीस वर्षों के भीतर यह संरचनावाद, अपने भीतर से ‘उत्तर संरचनावाद’ के प्रकट होने का साक्षी होता है। इसे रूपवाद के अन्त की तरह देखा जाता है, परन्तु सन् 1990 के आसपास अमेरिका में वह ‘नवरूपवाद’ के रूप में पुनः प्रकट हो जाता है। यहाँ आगे बढ़ने से पहले यह देखना-समझना जरूरी लगता है कि कैसे रूस में यह ‘कलावादी रूपवाद’ ठीक उस कालखण्ड में विकास करता है, जब वहाँ ‘समाजवादी क्रान्ति’ के बाद ‘मार्क्सवाद’ उसके विरोधी चिन्तन के रूप में  जोर पकड़ता है। बीसवीं सदी के तीसरे-चौथे दशक में ‘मार्क्सवादी आलोचना’ के द्वारा ‘रूसी रूपवाद’ को ‘प्रतिक्रियावादी’ घोषित कर दिया जाता है, जिससे उसका वहाँ अवसान हो जाता है। अतः उसे अपने विकास के लिए यूरोप की ओर रुख करना पड़ता है।

 

मार्क्सवादी आलोचना के सिद्धान्तकार समाज, इतिहास, संस्कृति आदि की ‘संरचनाओं’ को ‘अपने वैज्ञानिक सिद्धान्त की व्याख्या’ के मुताबिक उपलब्ध कराते हैं और साहित्य में उन्हें ‘सीधे’ या ‘भाषा के जरिए’ खोजने की ओर आते हैं। जबकि रूपवाद साहित्य के ‘अर्थ’ को उसकी ‘भाषा’ के ‘भीतर’, ‘भाषा के द्वारा रचा गया’ मानते हैं। वह साहित्य को एक ‘स्वायत्त’ दुनिया की तरह देखता है। इस दुनिया का यथार्थ, बाहर की दुनिया के यथार्थ की ‘संरचनाओं’ से निर्धारित नहीं होता। ‘भिन्‍न भाषा’ का मतलब है – ‘भिन्‍न दुनिया रचने का सामर्थ्य’। इसे श्‍लोव्स्की ‘कला की, कला के द्वारा मुक्ति’ की तरह देखते हैं। सामाजिक मुक्ति से जुड़ा मार्क्सवादी चिन्तन इसके ‘समान्तर’ खड़ा दिखाई देता है। ‘कला की दुनिया’ ‘सामाजिक दुनिया’ के न विरोध में होती है, न पक्ष में। वह मनुष्य की चेतना के द्वारा रची गई समान्तर दुनिया होती है। उसमें हम भाषा के अपरिचयीकरण के माध्यम से प्रवेश करते हैं।

  1. अपरिचयीकरण : प्रमुख धारणाएँ व स्थापनाएँ

विक्टर श्‍लोव्स्की के जिस वक्तव्य को रूसी रूपवाद की आधार-धारणा के रूप में ‘अपरिचयीकरण’ के ‘घोषणापत्र’ की तरह देखा जाता है, वह इस प्रकार है, “कला का प्रयोजन वह संवेदना प्रदान करना है, जिसका सम्बन्ध चीजों को देखने से है; न की जानने से। कला की तकनीक है चीजों को अपरिचित बनाना, ‘रूपों’ को कठिन बनाना और देखने की अवधि और कठिनाई को बढ़ाना – क्योंकि देखने का सौन्दर्यशास्‍त्र अपनी मंजिल आप है; जिसे देर तक बने रहना चाहिए। कला, चीजों की कलामयता को अनुभव करने की विधि है – जिसमें चीजों की अहमियत नहीं है।” उपर्युक्त उद्धरण में श्‍लोव्स्की कला की आत्म-स्वायत्तता अथवा ‘कला की आजादी’ के सवाल को इस हद तक ले जाते हैं कि कह सकें कि ‘कला के पर्याय’ होने वाले ‘देखने के सौन्दर्यशास्‍त्र’ की ‘मंजिल’ कोई और नहीं, ‘वह खुद है’। इसे ‘अपरिचयीकरण’ का प्रयोजन या लक्ष्य भी कह सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि वे सन् 1925 में साफ लफ्जों में, सन् 1917 की रूस की समाजवादी क्रान्ति के आधार पर वहाँ वर्चस्वी हो गए, ‘मार्क्सवादी साहित्य चिन्तन’ का विरोध और प्रत्याख्या न कर रहे हैं।

 

सन् 1926 में प्रकाशित अपनी किताब ‘द थर्ड फैक्ट्री में उन्होंने इस मार्क्सवादी चिन्तन का ‘प्रति-आख्यान’ इन शब्दों में व्यक्त किया, “मैं लिखता हूँ – उस वस्तुनिष्ठ यथार्थ की बावत, जो चेतना का निर्धारक है – उस चेतना का, जो बिखराव की स्थिति में हैं।” यहाँ मार्क्सवाद चिन्तन की इस आधार धारणा की आलोचना की गई है कि ‘वस्तुनिष्ठ यथार्थ चेतना का निर्धारक होता है।’ श्‍लोव्स्की के इस कथन का अर्थ यह है कि सामाजिक या ऐतिहासिक-विकासवादी यथार्थ का ‘आधार’ बना कर जब हम कला की ‘सौन्दर्य-चेतना’ की व्याख्या करते हैं तो कुछ हाथ नहीं आता। चेतना का ‘निर्धारित होना’ राजनीतिक व्यवस्था के काम का हो सकता है। कला की दुनिया की व्यापकता को बाँधना और व्याख्यायित करना उसके बस की बात नहीं है। कला में चेतना के ऐसे वैकल्पिक रूप अभिव्यक्ति पाते हैं, जो ‘सामाजिक वस्तुनिष्ठता की कसौटी पर’ बिखराव की दुनिया के पर्याय हो जाते हैं।

 

इस कसौटी को सामने रखने पर हमें ‘अपरिचयीकरण’ की ‘आधारभूमि’ का पता चल सकता है। कला ‘परिचित अर्थों वाला अभिव्यक्ति’ को ‘अपरिचयीकृत’ करती हुई ‘कलामय’ होती है।  श्‍लोव्स्की के समय में परिचित एवं निर्धारित अर्थ है – मार्क्सवाद सामाजिक वस्तुनिष्ठ यथार्थ की व्याख्याओं से आए हुए अर्थ। श्‍लोव्स्की इन परिचित व्याख्याओं से चीजों को अलहदा करके देखने को अपने ‘अपरिचयीकरण’ की जमीन की तरह ग्रहण करते हैं। ट्राट्स्की के द्वारा रूपवादी चिन्तनधारा को ‘प्रतिक्रियावादी’ कहे जाने पर उनकी टिप्पणी थी, “हम सब कतारों में खड़े व्यापारी की तरह हैं, अपने समय के निरीक्षकों के समक्ष पसरे हुए।” उक्‍त उद्धरण से स्पष्ट है कि श्‍लोव्स्की का ‘अपरिचयीकरण’ केवल एक ‘कला-विधि’ या ‘भाषिक तकनीक’ मात्र नहीं है, अपितु वह अपने समय के प्रतिबन्धात्मक माहौल में कला की मुक्ति की छटपटाहट का पर्याय है। अपरिचयीकरण के अनुसार,

 

(i) अपरिचयीकरण का सम्बन्ध चीजों को देखने से है, जानने से नहीं। यानी कला या साहित्य को ‘ज्ञान’ की कसौटी पर न परखते हुए, ‘जीवन को जीने के तरीके’ से जोड़कर समझना चाहिए।

 

(ii) अपरिचयीकरण ‘रूपों को कठिन बनाने’ की विधि है। यानी चीजों के जो ‘शब्द-रूप’ हैं, उन्हें वह ऐसे ‘अपरिचित’ रूप में पेश करती है कि हमें उनसे रिश्ता बनाने के लिये उन्हें ‘ज्यादा समय तक देखना’ पड़ता है।

 

(iii) चीजों को कला ऐसे ‘भिन्‍न’ रूप में प्रस्तुत करती है कि ‘देखना’ और उन्हें ‘देर तक देखते रहना’ अपने आप में अर्थपूर्ण हो जाए। यानी हमें उन्हें देखने में आनन्द या ‘सौन्दर्य’ की अनुभूति हो सके। सौन्दर्यशास्‍त्र के इस रूप और इसकी विधि को आप एक उदाहरण से समझ सकते हैं। कबीर की एक पंक्ति है- हेरत हेरत हे सखि, रह्यो कबीर हिराय अर्थात हे सखि! मैं कबीर (अपने प्रिय को) देखते-देखते स्वयं खो गया हूँ। यहाँ ‘देखने की अवधि’ इतनी अधिक बढ़ गई है कि वह अनुभव ‘स्वयं खो जाने के’ चिरस्थायी या शाश्‍वत अनुभव में बदल गया है।

 

(iv) ‘अपरिचयीकृत’ तरीके का यह ‘देखना’ कैसा है? – इसकी व्याख्या करते हुए अन्यत्र श्‍लोव्स्की कहते हैं – यह चीजों को पहली दफा देखने जैसा है, पहली दफा, जैसे बच्चे चीजों को देखते हैं, सब ‘नया’ और ‘अपरिचित’ लगता है। कला, चीजों को उन्हीं पुरानी, पहले देखी गई चीजों को, यों पेश करता है, जैसे वे नयी हों – पहली दफा देखने लायक। यहाँ ‘शिव-सूत्र’ का जो प्राचीनतम ‘तंत्र-सूत्र’ वाला योग-ग्रन्थ है – उसके एक सूत्र की ‘ध्वनि’ दिखाई देती है। उस सूत्र में शिव-पार्वती को ध्यानगत मुक्ति की यही विधि बताते हैं – ‘सब चीजों को ध्यानपूर्वक इस प्रकार देखो जैसे उन्हें पहली बार देख रहे हो।’

 

(v) साहित्य के द्वारा चीजों की अपरिचयीकृत रूप में प्रस्तुति या अभिव्यक्ति से क्या होता है? इसकी व्याख्या श्‍लोव्स्की इस रूप में करते हैं कि इससे ‘हम चीजों को उनके पदार्थतत्त्व में देख और पा सकते है।’

 

‘मेटीरिएलिटी और मैटर’ या पदार्थ का पदार्थत्त्व क्या होता है?

  • वह चीजों को बिना किसी ‘पूर्व-धारणा’ या ‘व्याख्या की प्रयोजनमूलक जरूरत को देखना होता है।’
  • वह चीजों को ‘आदतन’ देखने के तरीके से अलग करने का पर्याय होता है।
  • वह चीजों को सब अन्य आस-पास की चीजों के साथ रिश्ते के साथ देखना होता है – उन सब चीजों के साथ, जिन्हें अक्सर हम देखकर भी नहीं देखते।
  • वह चीजों को ‘चेतना के स्वचालित रूपों’ से अलग करके ‘सचेतन’ रूप में देखने जैसा होता है।
  • वह चीजों को ‘अचेतन के भय आदि की अनदेखी’ करने के ‘चेतना के निर्माण  से अलहदा करके, जैसे वे हैं और जिन भावों को वे जानते हैं – उनके साथ देखना होता है।

इन सूत्र-रूप में प्रस्तुत धारणाओं को श्‍लोव्स्की के द्वारा दिए गए दो दृष्टान्तों के आलोक में समझने का प्रयास किया जा सकता है –

 

पहला दृष्टान्त : लियो ताल्स्ताय की एक कहानी में एक कसाई का जिक्र आता है। वह अपना चाकू तीखा करने के लिए दुकान के बाहर पड़ी एक शिला पर बैठ जाता है और उस शिला पर चाकू को रगड़कर उसे तीखा करके लौट जाता है। श्‍लोव्स्की टिप्पणी करते है कि ‘सामान्य तरीके का देखना’ कसाई की तरह देखना है। उसे अपना ‘चाकू ही दिखाई देता है, शिला नहीं’, हालाँकि यथार्थ जो है, उसमें शिला और चाकू के रिश्ते के बिना चाकू तीखा नहीं हो सकता पर शिला को ‘देखने’ के द्वारा ‘सामान्य रूप से अनदेखी’ होती है। कला या साहित्य हमें चाकू की प्रयोजनमूलक दुनिया का यथार्थ ही नहीं दिखाता, वह हमें शिला की मौजूदगी के बारे में भी संवेदनशील बनाता है। यह कला के ‘अपरिचयीकरण की विधि’ है जो हमें ‘मानवीय बनाती है और जीवन को समग्रता में जीना सिखाती है’। इसे अपरिचयीकरण का ‘मानवीय प्रयोजन’ कहा जाता है। उक्त आधार पर ट्राट्स्की के द्वारा उन्हें यथार्थ विरोधी, गैर-मानवीय और प्रतिक्रियावादी कहना ‘एकतरफा सचाई’ जैसा लगता है। रूपवाद के इस ‘मानवीय अर्थवत्ता’ वाले पहलू की अक्सर अनदेखी हुई है।

 

दूसरा दृष्टान्त :  तॉल्स्ताय की ही एक अन्य कहानी का मुख्य पात्र एक घोड़ा है। घोड़े की निगाह से यथार्थ को देखने को देखना ‘अपरिचयीकृत’ तरीके से यथार्थ को देखना है। एक पशु की नजर से मनुष्य के जीवन का यथार्थ देखने की कोशिश करना। श्‍लोव्स्की स्पष्ट करते हैं कि हमलोग सामान्य तौर पर अस्तबल में बन्धे घोड़ों की तरह होते हैं – व्यवस्था से बँधे हुए। परन्तु कहानी जब एक घोड़े के द्वारा कही जाती है तो ही हमें इस अन्तर्विरोध का अन्दाजा होता है। यह यथार्थ को यों देखने का उदाहरण है, जैसे हम उसे पहली दफा देख रहे हों।

 

विष्णु खरे की कविता है ‘गर्मियों की शाम’। इसमें चार लड़कियाँ और दो लड़के घूमने निकलते हैं। एकाएक कोयल बोलती है, सब को बड़ा अच्छा लगता है। सिर्फ एक लड़का कहता है, “मुझे नहीं अच्छा लगता कोयल का इस वक्त बोलना।” वह फिर अपनी बात को समझाते हुए कहता है –

 

“पता नहीं क्यों – वह जैसे अपने-आपको समझाता हुआ कहता है,

 

सब कुछ इतना चुपचाप है, शाम हो चुकी है

फिर क्या जरूरत है कि कोयल भी परेशान करे ।’’

 

यह अपरिचय का एक उदाहरण हो सकता है। इसी तरह निर्मल वर्मा के लेखन में भी परिचित अपरिचित बन जाता है। यहाँ तक कि कहानी का पात्र स्वयं के लिए भी अपरिचित बन जाता है। लन्दन की एक रात  कहानी का एक हिस्सा है–

 

“तुम हँस क्यों रहे हो?

 

मुझे यह जानकर काफी आश्चर्य हुआ कि मैं हँस रहा हूँ …  और जब मैंने जान लिया कि मैं हँस रहा हूँ, तो फिर अपने को रोकना बेमानी सा लगा।

  • – क्या बात है?
  • – कुछ नहीं, कुछ याद आ गया था – मैंने टहलते हुए कहा। याद मुझे कुछ भी नहीं आया था।’’ (जलती झाड़ी, निर्मल वर्मा, पृष्ठ – 129, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली) अपने बारे में इस तरह अपरिचित की तरह देखना – यही तो अपरिचियीकरण है। इस दृष्टि से किसी रचना को पढ़ना एक अलग अनुभव हो सकता है।

 

(vi) कला / साहित्य के अपरिचयीकरण का लक्ष्य है, ‘सर्वहारा की तानाशाही’ वाली व्यवस्था में ‘कला की तानाशाही’ का आयोजन।

(vii) रूप का ‘वस्तु’ या ‘अर्थ’ से विरोध नहीं होता; परन्तु वह रूप में वस्तु या अर्थ को तलाशता है, उसके ‘बाहर’ जाकर नहीं।

(viii) कला-तकनीक, ‘वस्तु’ या ‘अर्थ’ से विरोध नहीं होता; अपितु ‘वस्तुगत तकनीक’ का पर्याय है।

(ix) वह ‘विसंगति बोधक’ है – पर उससे ज्यादा ‘यथार्थ को क्षति’ पहुँचाने वाला नहीं है।

  1. निष्कर्ष

इस प्रकार कहा जा सकता है कि विक्टर श्‍लोव्स्की एवं उनकी अपरिचयीकरण की अवधारणा केवल एक विधि या तकनीक न होकर साहित्य  और कला को ‘देखने’ की शैली है । सिर्फ इतना ही नहीं, इस सिद्धान्त से हमें यह भी पता चलता है कि रोज-रोज के देखने में हम कितना कुछ छोड़ते हुए चलते हैं। एक ही चीज को रोज-रोज देखने से हमारी संवेदना कुन्द होने लगती है। हमें अपनी कुन्द  होती हुई संवेदना का ज्ञान करना ही साहित्य और कला का मुख्य उद्देश्य होता है। हिन्दी साहित्य में यह काम विनोद कुमार शुक्ल अपने उपन्यासों में करते हैं। हमारे रोज-रोज के देखने में छूटे हुए को वह भाषा और शिल्प के प्रयोग के द्वारा हमें दिखाने की कोशिश करते हैं। वह परिचित भाषा को भी अपरिचित की तरह हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं।