26 जोला का प्रकृतवाद

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. जोला और प्रकृतवाद
  4. यथार्थवाद और प्रकृतवाद
  5. प्रकृतवाद की विशेषता
  6. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • प्रकृतवाद की परिभाषा जान सकेंगे।
  • प्रकृतवाद सम्बन्धी जोला की मुख्य स्थापनाएँ जान सकेंगे।
  • प्रकृतवाद की प्रमुख विशेषताओं से परिचित हो सकेंगे।
  • प्रकृतवाद और यथार्थवाद के आपसी सम्बन्ध को समझ सकेंगे।
  • प्रकृतवाद पर लगे प्रमुख आरोपों से परिचित हो सकेंगे।

 

2. प्रस्तावना

 

प्रकृतवाद मूलतः दर्शन का शब्द है। अपने दार्शनिक स्वरूप में प्रकृतवाद का सम्बन्ध दर्शन की उस शाखा से है, जिसके अन्तर्गत विश्‍व की उत्पत्ति तथा उसकी रचना से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार किया गया है। यथार्थवाद की ही तरह प्रकृतवाद को भी साहित्यिक अर्थ देकर एक विशिष्ट प्रकार के साहित्य-चिन्तन और साहित्य-सृजन से जोड़ दिया गया है। साहित्य में प्रकृतवाद आन्दोलन मुख्य रूप से सन् 1880 में फ्रांस से शुरू हुआ। सन् 1930 तक यह आन्दोलन अपने चरम पर था। प्रकृतवाद मुख्य रूप से एक असंगठित साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में ही जाना जाता है।

 

प्रकृतवाद के अनुसार प्रकृति ही परम है। इसके कार्यों को समझने के लिए किसी प्रकृति-बाह्य सत्ता का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है। प्रकृति ही सम्पूर्ण वास्तविकता है। किसी अति प्राकृतिक अथवा अलौकिक तत्त्व की सत्ता नहीं है। प्रकृतवादी आन्दोलन रंगमंच, फिल्म, कला और साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय हुआ। रंगमंच में, प्रकृतवादी आन्दोलन की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी में हुई। रंगमंच में प्रकृतवाद सेट के माध्यम से यथार्थ का भ्रम पैदा करने का प्रयास करता है। आम लोगों के बोलने, चलने और रहन-सहन का तरीका अपनाता था।

 

साहित्य में इस आन्दोलन को विशेष रूप से उपन्यास के क्षेत्र में प्रसिद्धि मिली। बीसवीं सदी का अन्त आते-आते प्रकृतवाद का अभ्यास अमेरीकी साहित्य में भी देखने को मिला। जोला ने अपने लेखन की शुरुआत कहानी से की। बाद में इन्होंने नाटक और उपन्यास भी लिखे। जोला के अलावा फ्रांक नोरिस, थेयोडोर ड्रेज़र, जैक लण्डन, स्टीफेन क्रेन आदि प्रमुख रचनाकार और सिद्धान्तकारों ने अपनी रचनाओं और विचारों से इस धारणा को पुष्ट किया है।

 

3. जोला और प्रकृतवाद

 

पश्‍च‍िम में प्रकृतवाद से जुड़े कई लेखकों और सिद्धान्तकारों के नाम लिए जाते हैं। एमिल जोला (सन् 1840-1902) ऐसे लोगो में प्रमुख हैं। वे एक फ्रेंच लेखक थे। उन्हें प्रकृतवाद के प्रमुख सिद्धान्तकार के रूप में जाना जाता है। फ्रांस को राजनीतिक स्वतन्त्रता दिलाने में उन्होंने प्रमुख भूमिका अदा की थी। साहित्य के लिए पहले और दूसरे नोबल पुरस्कार के लिए उन्हें क्रमशः सन् 1901 और सन् 1902 में नामित किया गया था। साहित्य के अपने शुरुआती दौर में जोला ने बहुत-सी कहानियाँ और कुछ उपन्यास लिखे। इसके अलावा उन्होंने तीन नाटक भी लिखे। सन् 1865 में उन्होंने एक आत्मकथात्मक उपन्यास लिखा था।

 

जोला की रचनाएँ दो भागों में बाँटी जा सकती हैं – यथार्थवादी रचनाएँ और समाजवाद की प्रेरक रचनाएँ। जिस यथार्थवादी शैली को जोला ने अपनाया, उसे प्रकृतवाद कहा गया है। प्रकृतवाद यथार्थ का निर्मम अनावरण करता है। वह कुछ भी छिपाकर नहीं रखता। प्रकृतवाद जीवन के कठोर और क्रूर रूप का निस्संकोच अंकन करता है। साहित्य और कला में जो दृश्य वर्जित और गर्हित समझे जाते थे, प्रकृतवाद उनका भी उद्घाटन करता है। प्रकृतवाद जीवन की कुरूपता और विरूपता से कतराता नहीं। कथा-साहित्य में प्रकृतवादी पन्थ या मत के प्रवर्तक और जनक जोला ही माने जाते हैं। इनके ही पदचिह्नों पर मोपासाँ, फ्लौवेयर, गौंकू बन्धु और दौदे आदि बाद में चले।

 

जोला ने कला की वैज्ञानिक पद्धति प्रदान की। वे नोटबुक और पेन्सिल लेकर बाजार-हाट में निकल जाते थे। जो कुछ भी देखते थे, उसका पूरा विवरण वे अपनी नोटबुक में लिख लेते थे। कैसे दृश्य, दुकानें, व्यक्ति आदि उन्होंने देखे, सभी का विस्तृत में वर्णन उनकी नोटबुक में रहता था। बाद में आवश्यकता के अनुसार इस वर्णन को अपनी कथा का अंग बना लेते थे। इस प्रकार जोला की कला हमें जीवन के बहुत समीप ले आती है। इसमें मद्यप, वेश्याएँ, जुआरी आदि अपने वास्तविक रूप में हमें मिलते हैं।

 

प्रकृतवादी शैली के जनक और आचार्य के रूप में जोला सर्वमान्य हो चुके हैं। अपने उपन्यास ला सुमुआ  में वे एक मद्यप का यथातथ्य वर्णन करते हैं, जिसके कारण एक पूरा परिवार नष्ट हो गया। दूसरी कोटि के उपन्यासों में जोला कथनाक और पात्रों को समाजवादी विचारदर्शन की स्थापना के लिए गौण बनाते हैं। इस श्रेणी के उपन्यासों में फ़ोर गस्प, फेकोण्डाइट, पीड़ा (ट्रेवेल) और सत्य (वेनाइट) का उल्लेख हो सकता है। पहली श्रेणी के उपन्यासों में नाना  बहुत लोकप्रिय हुआ है। यह एक अभिनेत्री की जीवन-कथा है जिसे कोई अस्पष्ट रेखा ही वेश्या के पेशे से विभाजित करती है। जोला की सर्वश्रेष्ठ रचना पराजय  है, जिसमें सन् 1870 के युद्ध में फ्रांस की पराजय का वर्णन है। जोला के उपन्यासों में हमें 19वीं सदी के सम्पूर्ण फ्रांसीसी जीवन का व्यापक चित्र मिलता है।

 

जार्ज लुकाच का मानना है कि जोला ने सदैव इस बात का विरोध किया कि उन्होंने किसी नए कला-रूप का आविष्कार किया है। उन्होंने हमेशा खुद को अपने पूर्ववर्ती बाल्जाक और स्टेन्दल जैसे महान यथार्थवादियों का उत्तराधिकारी घोषित किया है। इसके साथ ही जोला ने अपने पूर्ववर्तियों को ऐसे आदर्श के रूप में भी स्वीकार नहीं किया है, जिनका अनुकरण आँख बन्द कर किया जा सके। उन्होंने यह प्रयास किया कि पूर्ववर्ती यथार्थ की जड़ता तथा निष्प्राणता को दूर कर एक ऐसी रचनात्मक पद्धति का विकास किया जाए जो यथार्थवाद की महान परम्परा में एक नई कड़ी बन सके। जोला के बारे में यह भी ध्यान देने की बात है कि यह चर्चा करते हुए उन्होंने कभी भी यथार्थवाद का नाम नहीं लिया। उन्होंने जब भी बात की, प्रकृतवाद की ही की।

 

साहित्यिक यथार्थवाद का तार्किक परिणाम प्रकृतवाद के रूप में देखा जाता है। शायद इसीलिए प्रकृतवाद को यथार्थवाद का ही एक रूप माना जाता है। पश्‍च‍िमी साहित्य-जगत में प्रकृतवादी रचना-दृष्टि और रचना-शैली साहित्य की प्रायः प्रत्येक विधा में पाई जाती है।

 

जोला ने सन् 1880 में दी एक्सपेरिमेन्टल नॉवेल  नाम से एक लम्बा लेख लिखा। इस लेख में जोला ने विस्तार से  विचार और रचना दोनों ही स्तरों पर प्रकृतवाद की विशेषताएँ बताईं। इस लेख में प्रकृतवादी उपन्यासों की रचना-पद्धति पर बात करते हुए जोला कहते हैं कि उपन्यासकार को पूर्वनिश्‍च‍ित सिद्धान्तों और नैतिक आग्रहों से मुक्त होकर एक वैज्ञानिक की भाँति अपनी रचना में इस प्रकार मन रमाना चाहिए, जैसे कि कोई वैज्ञानिक अपने प्रयोग में रमाता है। इसके साथ ही प्रकृतवादी रचनाकार को अपनी रचना में घटनाओं का सावधानीपूर्वक लेखन करते हुए उसे वस्तुओं एवं प्रक्रियाओं की बड़े तटस्थ भाव से परीक्षा करनी चाहिए, जिससे विवाद रहित निष्कर्ष सामने आ सके। जोला का यह लेख मूलतः फ्रेंच भाषा में है। बाद में इसका अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ।

 

जोला की इस स्थापना पर आरोप लगता है कि प्रकृतवादी रचना-पद्धति यथार्थवादी पद्धति से भिन्‍न है। इसलिए इस पद्धति को अपनानेवाला रचनाकार अपने समय के संघर्षमय जीवन का सिर्फ एक दर्शक ही बन पाता है; इस संघर्ष में उनका न तो कोई अपना पक्ष होता है और न ही कोई भागीदारी। लुकाच ने जोला की इस स्थापना पर टिप्पणी करते हुए कहा कि जोला के उपन्यास एक ऐसी पद्धति की खोज मात्र है जिसके माध्यम से लेखक, जो आज महज समय का दर्शक रह गया है, फिर से यथार्थ तरीके से यथार्थ पर महारत हासिल कर सके। लफार्ज ने जोला के इस रुख की आलोचना करते हुए कहा कि एक उपन्यासकार के जो लक्षण जोला ने बताए हैं, वह तो किसी पत्रकार के लक्षण मालूम पड़ते हैं। समाज की घटना या स्थिति को बिना किसी लाग-लपेट के कागज पर उतार देना पत्रकारिता ही तो है।

 

जोला का मानना था कि आज की परिस्थितियों में किसी महान पात्र की रचना सम्भव नहीं है। यहाँ उसने ‘टाइप’ चरित्र का भी विरोध किया है। उनका मानना था कि ‘टाइप’ चरित्र गढ़ने के चक्‍कर में हम अक्सर पात्र की स्वाभाविकता खत्म कर देते हैं। मानव अपने स्वाभाविक रूप में रचना में नहीं आ पाता। शायद इसीलिए जोला के साहित्य में अपने पूर्ववर्तियों के विपरीत कोई भी ऐसा महान चरित्र नहीं है, जिसे याद किया जा सके। उन्होंने ‘टाइप’ चरित्रों का निर्माण नहीं किया।

 

4. यथार्थवाद और प्रकृतवाद

 

साहित्य और कला के क्षेत्र में प्रकृतवाद को तीन भागों में बाँटा गया है। पहले में प्रकृतवाद शब्द का व्यवहार ऐसी साहित्यिक रचनाओं के लिए किया गया, जिनमें प्रकृति अथवा प्रकृति-सौन्दर्य के प्रति एक विशिष्ट और स्पष्ट लगाव, आत्मीयता या अनुरक्ति दिखती है। दूसरे में इस शब्द का इस्तेमाल ऐसी साहित्यिक कृतियों के लिए किया गया, जो प्रकृति के साथ गहरा नैकट्य सूचित करती है। अपने इस अर्थ में प्रकृतवाद यथार्थवाद का समानार्थी माना जाता है। प्रकृतवाद का तीसरा अर्थ विशेष है। सामान्यतः इसी अर्थ को अधिक प्रसिद्धि मिली है। इस श्रेणी में ऐसी रचनाएँ शामिल हैं, जिनमें मनुष्य के सम्बन्ध पशुओं के साथ जोड़े गए हैं, मनुष्य को पशु का निकटतम माना गया है, मानव और मानव समाज द्वारा निर्मित मूल्यों को बेकार माना गया है। इस तरह के रचनाकार अपनी रचनाओं के विषयवस्तु के चित्रण में विरूप, विडम्बनापूर्ण, अवसादमय तथा जुगुप्स तरीके का इस्तेमाल करते हैं। प्रकृतवाद का यह चरित्र इस बात पर बल देता है कि उसे साहित्य की स्वच्छन्दतावादी और यथार्थवादी धारणाओं के विरोध में पहचाना जाए।

 

यथार्थवादखण्डित मनुष्य अथवा खण्डित जीवन को न देखकर मनुष्य तथा जीवन को उनकी सम्पूर्णता में, उनके क्रान्तिकारी विकास-क्रम में, सारी सम्भावनाओं के साथ देखने और चित्रित करने का हिमायती है। शायद इसीलिए ‘प्रकृतवाद’ को कुछ विद्वान यथार्थवाद का हिस्सा नहीं मानते हैं। विद्वानों का मानना है कि ‘प्रकृतवाद’ मूलतः मनुष्य तथा समाज के प्रति जीवनशास्‍त्रीय दृष्टि को लेकर विकसित हुआ है। इसलिए इसे यथार्थवाद के बाहर ही रखा जाना चाहिए।

 

प्रकृतवादी लेखक का जीवन के प्रति दृष्टिकोण मूलतः भौतिकवादी होने के साथ-साथ निराशाजनक और नियतिवादी भी होता है। उसके लिए जीवन एक हारी हुई लड़ाई है। उनका मानना है कि प्रकृति और बाहरी शक्तियाँ मानव की आजादी में बाधाएँ खड़ी करती हैं। वह यह भी मानता है कि प्रकृति और बाहरी शक्तियाँ मानव की संकल्पशक्ति को भी सीमित करती हैं। मनुष्य में इन शक्तियों का अतिक्रमण कर अपना रास्ता बनाने की क्षमता नहीं है। इसलिए वह इन बाहरी शक्तियों के सामने हारा हुआ है। इसके साथ ही वह अपने भीतर मौजूद ऐसी कई अचेतन ताकतों और आनुवंशिक तत्त्वों के सामने भी झुका हुआ है। ये सारी बातें मानव के विवेक को सीमित कर समाज के प्रति उसके नैतिक दायित्व को कम करती हैं।

 

प्रकृतवादियों के अनुसार वंशानुक्रम और परिवेश प्रकृति के दो आधारभूत नियम हैं। इन्हीं के अनुसार मानव-स्वभाव और मानव-नियति का निर्धारण होता है। इसीलिए मानव के लिए भी नैतिक दायित्व और विवेकसम्मत आचरण जैसी बातें बेकार, और महत्त्वहीन हैं। प्रकृतवादी लेखक मनुष्य को भी निचले स्तर के पशु की तरह का ही एक प्राणी मानता है। इसलिए वह मनुष्य में पाशविक प्रवृत्तियों का चित्रण करता है। इसके साथ ही वह मनुष्य के आचरण को काम और भूख जैसी आदिम वृत्तियों द्वारा परिचालित और प्रदर्शित करता है। शायद इसीलिए प्रकृतवादी रचनाकार मानव-स्वभाव के चित्रण में पशु-प्रतीक को ग्रहण करते हैं।

 

लुकाच का मानना है कि समाज के प्रति अपनाया गया यथार्थवादी दृष्टिकोण समाज की असंगतियों को देखता है। वह समाज को एक सुसंगत रचना नहीं स्वीकार करता। दूसरी तरफ प्रकृतवादी रचनाकार के लिए समाज एक सुसंगत इकाई है। इसलिए समाज की उसकी आलोचना वस्तुतः उन बीमारियों की आलोचना है, जो समाज की आवयिक एकता को खण्डित करने की चेष्टा करती है।

 

जोला के अनुसार यथार्थवादी रचनाकार प्रयास करके अपने चरित्र को बड़ा या महान बना कर प्रस्तुत करने का आग्रही होता है। एक प्रकृतिवादी रचनाकार ऐसे किसी प्रयास पर विश्‍वास नहीं करता। वह औसत आदमी की औसत जिन्दगी को ही अपना लक्ष्य मानता है। वह मानता है कि वर्तमान समय में वह अवसर नहीं है कि किसी को महान बनाकर पेश किया जा सके। व्यक्ति और वर्ग के प्रतिनिधि पात्रों के विपरीत प्रकृतवाद में एक यान्त्रिक औसत पात्र की कल्पना की जाती है। ‘एपिक घटनाओं’ और ‘एपिक वस्तु’ के स्थान पर प्रकृतवाद सहज वर्णन और विश्‍लेषण को महत्त्व देता है।

 

समाज के प्रति भी जोला की धारणा बाल्जाक आदि से भिन्‍न है। इसलिए जिस द्वन्द्वात्मक रुख को ग्रहण करते हुए बाल्जाक ने अपने समय के उभरते हुए पूँजीवाद की असंगतियों का पर्दाफाश किया है, जोला को यह सारा चित्रण ही अवैज्ञानिक और रोमानी लगता है। जोला का मानना है कि उनका प्रकृतिवादी दृष्टिकोण ही ज्यादा वैज्ञानिक और तार्किक है। जोला के अनुसार, सामाजिक वृत्त और जीवन-वृत्त समान हैं। मानव शरीर की ही भाँति समाज में भी एक ऐसी एकात्मता है, जो उसके विभिन्‍न अवयवों को परस्पर इस प्रकार से जोड़े रहती है कि यदि किसी एक अवयव में सड़ान्ध शुरू हुई तो वह दूसरे अवयवों में भी फैल जाती है, इस प्रकार एक बहुत ही जटिल मर्ज हमारे सामने आता है। स्पष्टतः जोला का यह प्रकृतवादी दृष्टिकोण एक बड़ी सीमा तक समाज के प्रति वास्तविक वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने से उसे रोक देता है।

 

प्रकृतवादी रचनाकार यथार्थवाद की निकटता का दावा इस आधार पर करते हैं कि वे बाह्य-जीवन की सत्ता पर विश्‍वास करते हैं और वास्तववादी हैं। मनोविश्‍लेषणवादी लेखक इस आधार पर निकट आना चाहते हैं कि वे मनोजगत के यथार्थ के उद्भावक हैं। जाहिर है कि प्रकृतवाद और मनोविश्‍लेषणवाद के इन दावों की असलियत को न पहचानने के कारण अनेक विद्वानों द्वारा, जाने-अनजाने यथार्थवाद के प्रामाणिक चरित्र को न केवल अस्पष्ट बनाया गया, बल्कि उसे अनेक प्रकार के अनर्गल आरोपों के लिए भी प्रस्तावित कर दिया गया।

 

जार्ज लुकाच ने इस धारणा का विरोध किया है। उनके अनुसार यदि हम इतिहास दर्शन की भूमिका पर बाल्जाक और उसके बाद के फ्रांसीसी उपन्यास-साहित्य के बीच होने वाले संघर्ष को विशुद्ध सौन्दर्यशास्‍त्रीय भूमिका में देखें, तो स्पष्ट होगा कि यह संघर्ष वस्तुतः यथार्थवाद और प्रकृतवाद के बीच का संघर्ष है।

 

प्रकृतवादियों की छद्म-वस्तुपरकता का खण्डन करते हुए लुकाच कहते हैं कि यथार्थवाद छद्म वस्तुपरकता और छद्म व्यक्तिपरकता के बीच का कोई मध्य मार्ग नहीं है। इसके विपरीत वह हमारे अपने समय की भूल-भुलैयों में दिशाहारा भटकते लोगों द्वारा प्रस्तुत गलत प्रश्नों से उत्पन्‍न समस्त झूठे असमंजसों के विरुद्ध सत्य तथा सही सामाधानों तक पहुँचने वाला तीसरा रास्ता है।

 

5. प्रकृतवाद की विशेषता

 

प्रकृतवाद की एक विशेषता कथा से लेखक के अलगाव पर जोर देती है। लेखक हमेशा कहानी से एक दूरी बनाने की कोशिश करता रहता है। वह कोशिश करता है कि कथा में स्वयं मौजूद न हो। कथा के किसी पात्र के प्रति लगाव न हो। किसी घटना का वर्णन करते समय वह उसमें डूबे नहीं। वह घटनाओं और पात्रों का तटस्थ वर्णन करने की कोशिश करता है। प्रकृतवाद नियतिवाद पर भी जोर देता है। प्रकृतवादी लेखक अपनी रचना में यह दिखाने की कोशिश करता है कि किसी पात्र की नियति पहले ही तय हो चुकी है। वह पात्र अन्ततः उसी नियति को प्राप्‍त होगा जो पहले से उसके लिए निर्धारित की गई है। इसके लिए लेखक प्रकृति और प्राकृतिक घटनाओं का सहारा लेता है।

 

कथा के अन्त में अतिनाटकीय और अकस्मात परिवर्तन करना भी प्रकृतवादियों का एक प्रधान गुण माना गया है। प्रकृतवादी कहानियों और उपन्यासों में यह भी सन्देश देने की कोशिश की जाती है कि प्रकृति और मानव में मूलतः कोई भेद नहीं है। दोनों एक-दूसरे के हिस्से हैं। इस सारी विशेषताओं के बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृतवाद की बस इतनी ही विशेषताएँ हैं। साथ ही यह हमेशा जरूरी नहीं, कि ये सारी विशेषताएँ किसी एक ही प्रकृतवादी रचना में देखने को मिले।

 

6. निष्कर्ष

 

प्रकृतवाद का विधेयात्मक पक्ष केवल वहाँ दिखाई पड़ता है, जहाँ बावजूद अपने चिन्तन की दुर्बल भूमिकाओं के, प्रकृतवादी रचनाकारों ने अपने समय की बुर्जुआ-व्यवस्था के नंगेपन को उभारा है, उसकी तहे-दिल से भर्त्सना की है। उसे कटघरे में खड़ा किया है। यही प्रकृतवाद की स्थाई देन है। मानना चाहिए कि मानव के प्रति एक जीवशास्‍त्रीय दृष्टिकोण अपनाने के कारण ही प्रकृतवादी लेखक के लिए मानव की स्वतन्त्र इच्छा जैसी किसी बात का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। प्रकृतवादी लेखक किसी विचारधारा को बहुत महत्त्व नहीं देता। अतः प्रकृतवादी लेखक निराशावादी और नियतिवादी दृष्टिकोण अपनाने को बाध्य होता है। फिशर ने आरोप लगाते हुए कहा कि प्रकृतवादी लेखक या तो समाजवादी चेतना को स्वीकार करें या फिर भाग्यवाद, निराशावाद, रहस्यवाद और प्रतीकवाद आदि कुण्ठित प्रवृतियों को अपनाएँ।

 

जोला अपने समय की बुर्जुआ-पूँजीवादी व्यवस्था से भीतर तक असन्तुष्ट थे। इसलिए अपने ढंग से उन्होंने व्यवस्था द्वारा उत्पन्‍न असंगतियों और अविचारों का खुल कर पर्दाफाश किया। जोला की सीमा भी यही बन गई। जिस प्रकृतवाद की छाप जोला के मन मष्तिष्क पर गहराई से पड़ चुकी थी, उसने सारी सम्भावनाओं के बावजूद कभी भी जोला को व्यवस्था के प्रति वह सटीक रुख अख्तियार नहीं करने दिया, जो उन्हें बाल्जाक और स्टेन्‍दल जैसे महान यथार्थवादियों की कतार में खड़ा कर सके।

 

कहना न होगा कि समर्थ रचनाकारों की एक शानदार पंक्ति के बावजूद कथा-साहित्य को प्रकृतवाद कोई महत्त्वपूर्ण रचना और यादगार चरित्र नहीं दे सका। कारण यह था कि चिन्तन और रचना दोनों ही स्तरों पर इसकी आधारभूत दृष्टि कमजोर रही। प्रकृतवादियों ने समय से मिल रही चुनौती का जवाब देने की जगह पराजय, हताशा और नियतिवाद का रास्ता चुना। शिल्प के स्तर पर भी प्रकृतवाद कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि इस कारण इस कारण नहीं कर सका कि वस्तुतः प्राणवान वस्तु तथा प्राणवान जीवन-दर्शन से ही प्राणवान शिल्प का जन्म होता है।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  • पाश्चात्य साहित्यचिन्तन : निर्मला जैन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
  • साहित्य सिद्धान्त,रामअवध द्विवेदी,बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना
  • पाश्चात्य काव्यशास्त्र,देवेन्द्रनाथ शर्मा, नेशनल पब्लिशिंग हाउस नई दिल्ली
  • पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परम्परा,डॉ.नगेन्द्र(संपा.), दिल्ली विश्वविद्यालय,दिल्ली
  • Mimesis in contemporary theory : an interdisciplinary approach, edited by Ronald Bogue, J. Benjamin Publication, Philadelphia.
  • Fantasy and mimesis : response to reality in western literature, Kathryn Hume, Methuen, New York.
  • Mimesis, Matthew Potolsky, Routledge, London, New York.
  • Studies in European Realism, Georg Lukacs, Grosset & Dunlap

 

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