23 विलियम एम्पसन

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. साहित्य-चिन्तन : स्वरूप, विकास एवं उद्देश्य
  4. सात अर्थ द्विधाएँ
  5. जटिल शब्द बनाम बीजशब्द
  6. व्यवहारिक आलोचना
  7. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य :

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • विलियम एम्पसन का साहित्यिक परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • एम्पसन के साहित्यिक चिन्तन को समझ सकेंगे।
  • कृति-पाठ सम्बन्धी एम्पन की अवधारणाओं को जान सकेंगे।
  • जटिल और बीजशब्द सम्बन्धी एम्पसन के विचार जानेंगे।
  • एम्पसन की व्यवहारिक आलोचना के बारे में जानेंगे।
  1. प्रस्तावना

यार्कशायर में जन्मे विलियम एम्पसन (सन् 1906-1984) इंग्लैण्ड के महत्त्वपूर्ण  साहित्यालोचकों में से एक माने जाते हैं। कुछ विद्वानों की राय में एम्पसन अंग्रेजी के सबसे विवादास्पद साहित्य-चिन्तक हैं। उदाहरण के लिए, फ्रेंक कर्मोड उन्हें बेहद प्रशंसनीय मानते हुए भी ‘आलोचकों में विदूषक’ की तरह देखते हैं। इसी प्रकार हेरल्ड ब्राउन उनमें ‘अतिशय वैचारिक ऊर्जावान’ होनी के साथ-साथ ‘उग्र आत्मकेन्द्रिकता’ का शिकार भी मानते हैं। एक आलोचक के लिए यह एक समुचित स्तुति नहीं है।

 

विलियम एम्पसन के आलोचना-कर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार जुड़े परस्पर विरोधी दावे अतिशय मात्रा में मिलते हैं– इसका सम्बन्ध कुछ हद तक उनके जीवन के साथ भी है। उनका व्यक्तित्व ऐसा था, जो दूसरों को अक्सर अपने प्रति नाराजगी से भरी धारणाएँ बनाने की वजह बन जाता था। कुछ लोग उन्हें हठी और स्पष्टवादी  के रूप में भी याद करते हैं। वे एक खास तरह की व्यवहार शैली अपनाने वाले आलोचक थे। कई बार वे ‘सांस्थानिक मर्यादाओं’ या ‘नैतिक धारणाओं’ का उल्लंघन करनेवाले भी मालूम पड़ते हैं। एक छात्र और फिर प्राध्यापक के रूप में उनका सम्बन्ध विंचेस्टर व कैम्‍ब्रि‍ज से रहा। कैम्‍ब्रि‍ज से निष्कासित किए जाने के कारण वे अपनी पढ़ाई पूरी न कर सके। वे एक ऐसे छात्र साबित हुए थे जिन पर ‘अनैतिक आचरण’ का दोष लगा था। हालाँकि उनकी प्रतिभा की चमक उनके छात्र जीवन से ही दिखाई देने लगी थी। उन्हें अंग्रेजी तथा गणित में उल्लेखनीय सफलताएँ मिली थीं। जल्द ही वे गणित के स्थान पर अंग्रेजी साहित्य की ओर अधिक झुकने लगे। उनके गणित के शिक्षक को उनके इस निर्णय पर दुख हुआ था। छात्र जीवन में ही महज बाइस वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपनी पहली आलोचना पुस्तक लिखी थी। पुस्तक का नाम था सेवेन टाइप्स ऑफ एम्बिगुइटिज । यह पुस्तक सन् 1930 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक के प्रकाशित होते ही एम्पसन अचानक दुनिया के बड़े आलोचकों में से एक माने जाने लगे। परन्तु, कैम्‍ब्रि‍ज से निष्कासित होने के कारण उन्हें नौकरी की तलाश में जापान, फिर चीन जाना पड़ा। सन् 1939 में वे पुनः इंग्लैण्ड आए। इसके बाद वे ओहायो के कन्यॉन कॉलेज से जुड़ गए। कैम्ब्रिज से भी उनका टूटा हुआ रिश्ता फिर से जुड़ गया।

 

एम्पसन को साहित्यिक रुचि अपने पिता से मिली थी। उनके पिता एडिनवर्ग रिव्यू के संस्थापक रह चुके थे। इंग्लैण्ड लौटने के बाद एम्पन ने अपनी मौलिकता से अंग्रेजी आलोचना को समृद्ध करने की लगातार कोशिश की। इंग्लैण्ड के विचारकों का मत है कि एम्पसन ने किसी कविता को पढ़ने का मौलिक एवं क्रान्तिकारी ढंग से बदल दिया है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि उनका लेखन इंग्लैण्ड और अमेरिका के मन के घर में फर्नीचर की तरह स्थायी रूप से मौजूद है। (www.poetry foundation.org/bio/William empson)। इसलिए भले ही विवादास्पद हो, परन्तु वे मौलिक आलोचक हैं।

  1. साहित्य चिन्तन : स्वरूप, विकास एवं उद्देश्य

परम्परागत रूप में विलियम एम्पसन का नाम अंग्रेजी की ‘नई आलोचना’ आन्दोलन के साथ जोड़ा जाता है। इंग्लैण्ड में ‘नई आलोचना’ की भूमिका तैयार करने में ‘आधुनिक’ साहित्य-चिन्तक में दो विख्यात आलोचकों का काम बहुत महत्त्वपूर्ण  है। इन आलोचकों में से एक टी.एस. इलियट और दूसरे आई.ए. रिचर्ड्स हैं। एम्पसन रिचर्ड्स के प्रिय छात्र थे। रिचर्ड्स की ‘व्यवहारिक आलोचना’ में साहित्य की कृतियों के ‘पाठ’ के विश्‍लेषण को ही मुख्य आधार पाया जाता है। इस रूप में तैयार हुई भूमिका का इस्तेमाल ‘नई आलोचना’ में साहित्यिक कृतियों की ‘निकट पठन पद्धति’ का विकास करने के लिए किया। इससे पहले टी.एस. इलियट पाठ-केन्द्रित अध्ययन का आधार प्रस्तुत कर चुके थे। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ‘नई आलोचना’ तक ये जो पाठ केन्द्रित अध्ययन के विविध रूप आए थे– उन्हें मुख्यतः ‘काव्य’ विधा के अध्ययन के सन्दर्भ में ही अधिक विवेचित किया गया था। अंग्रेजी में अधिक प्रचलित-विकसित होने वाली ‘नई आलोचना’ के मुख्य स्तम्भ थे– आर.पी. ब्लैकमर, एलन टेट, राबर्ट पेन वारेन, जॉन क्रो रैंसम, क्लिएथ ब्रुक्स, एफ.आर. लाविस और विलियम के. विमसाट। इन आलोचकों ने कृतियों के ‘गहन पठन’ के लिए रूपक, तनाव, अन्तर्विरोध और विसंगतियों को आधार बनाया। विलियम एम्पसन का नाम  इन्हीं आलोचकों की सूची में शामिल किया जाता है, क्योंकि वे भी कृतियों के ‘गहन पठन’ की पद्धति हेतु पाठ के रूपक-विधान में मौजूद अर्थों की ‘दुविधा’ से जुड़ी प्रतिक्रियाओं पर ही मुख्यतः केन्द्रित रहे हैं। वे नई आलोचना का हिस्सा होकर भी, थोड़े से अलग थे।

 

उनकी आलोचना का प्रस्थान बिन्दु रिचर्ड्स की व्यावहारिक आलोचना की पद्धति है। इसके बाद उन्होंने छात्र जीवन में शब्दों के अर्थ की विविध प्रक्रियाओं का अध्ययन प्रारम्भ किया। लॉरा रीडिंग और रॉबर्ट ग्रेब्स द्वारा आरम्भ किए गए शब्दार्थों के खेल में शामिल हुए। यहाँ एम्पसन ने रिचर्ड्स के मूल्य सिद्धान्त और मनोविज्ञान के अध्ययन को भी शामिल किया। इस तरह एम्पसन ने कविता के शब्दों की प्रक्रिया का विस्तार किया। इस क्रम में आगे चलकर उन्होंने रिचर्ड्स से अपनी असहमतियाँ भी व्यक्त कीं। एम्पसन भाषा के भावात्मक प्रयोग और सूचनात्मक प्रयोग के अन्तराल को नहीं मानते। उनके अर्थ-विश्‍लेषण में भाषा के दोनों रूपों का महत्त्व है।

 

इस क्रम में एम्पसन ने विलियम के. विमसाट की अभिप्रायपरक हेत्वाभास और प्रभावपरक हेत्वाभास की धारणाओं का भी खण्डन किया। विमसेट का मत था कि कविता को समझने के लिए कवि के निजी जीवन, कविता लिखने का मानसिक उद्देश्य, हमारी कोई मदद नहीं करता। कविता की आलोचना के लिए यह निरर्थक व्यापार है। ऐसा सम्भव है कि कवि जो कहना चाहता हो वह कविता में व्यक्त ही न हो पाया हो। अतः हमें इस पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए कि कविता क्या कहती है? कवि का कहना हमारे विषय-क्षेत्र में नहीं आया। यह अभिप्रायपरक हेत्वाभास है। एम्पसन ने इस धारणा का खण्डन किया। उन्होंने कहा कि यदि आप इस धारणा को मान लेते हैं, तो स्वयं ही अपनी आँखें बन्द कर लेते है। इसलिए एम्पसन ने अनेकार्थता की सम्भावनाओं को तलाशने के लिए कवि की मनोवैज्ञानिक स्थिति को भी महत्त्व दिया। उन्होंने जिन कविताओं को अर्थ-विश्‍लेषण के लिए चुना, उनके रचनाकारों पर भी गम्भीर शोध-कार्य किया तथा काव्यार्थ के निर्धारण में उनका उपयोग किया। इसी तरह आगे चलकर उन्होंने जॉक देरिदा के विखण्डनवाद का भी खण्डन किया और कहा कि यह देरिदावाद न होकर नेरिदावाद है, अर्थात् सबको निरस्त करती रहने वाली चिन्तन पद्धति, जिसे निरस्त कर दिया जाना चाहिए।

  1. सात अर्थ-द्विधाएँ

विलियम एम्पसन की पहली पुस्तक Seven Type of Ambiguity है, जो उनकी सर्वाधिक चर्चित और प्रतिष्ठित पुस्तक भी है। इस पुस्तक में एम्पसन ने शब्दार्थ विवेचन की जटिलताओं का विश्‍लेषण किया। बाद के दिनों में भी एम्पसन शब्दार्थों के विवेचन पर कार्य करते रहे। उनके अनुसार चीजें जैसी दिखाई देती हैं, वैसी होती नहीं। इसी तरह शब्द का सिर्फ कोशगत अर्थ ही नहीं होता। जब हम बोलते हैं तो शब्द के सिर्फ कोशगत अर्थ का ही उपयोग नहीं करते। कुछ और बात कहने के लिए भी शब्द का उपयोग करते हैं। इस क्रम में शब्दों में अनेकार्थता गुम्फित हो जाते हैं। कविता में शब्दों का महत्त्व इसीलिए अधिक बढ़ जाता है, कि वहाँ शब्द एक से अधिक अर्थ प्रकट करते हैं। इस अध्ययन में एम्पसन ने निष्कर्ष निकाला कि कविता में सात प्रकार की अनेकार्थता होती है। इस कारण एम्पसन कविता में जटिलता को महत्त्व देते हैं। कविता में जितनी ही जटिलता होती है, उतना ही तनाव होता है और उतनी ही अनेकार्थता होती है।

 

एम्पसन ने 39 कवियों, 5 नाटककारों और 5 गद्य लेखकों की रचनाओं में अनेकार्थता की खोज की है। इस तरह अपनी मान्यताओं को इनकी रचनाओं के व्यावहारिक विश्‍लेषण द्वारा पुष्ट किया है। एम्पसन का मत है कि कृति-पाठों के अर्थ को समझने के लिए उनका ‘गहन-पाठ’ जरूरी है। विलियम एम्पसन, आई.ए. रिचर्ड्स की व्यवहारिक आलोचना की विरासत को याद कर आगे बढ़े थे। नई आलोचना में होते हुए भी वे कुछ मामलों में कॉलरिज तथा विलियम ब्रुक्स की इस धारणा के अधिक निकट थे कि प्रत्येक रचना अपने आप में एक ‘जैविक सावयिकता’ से युक्त होती है। कृति को जीवन्त मानने के कारण वे कृति के अर्थ को बेहद जटिल रूप में व्याख्यायित करते हैं।

 

एम्पसन की दृष्टि में रचना के अर्थ, अनेक प्रकार की ‘अर्थद्विविधाओं’ से युक्त रहता है। अतः यह बात इतनी आसान नहीं है कि हम उन सभी द्विविधाओं को ठीक से रेखांकित करके, उनके असल अभिप्रेत तक पहुँच सकें। विश्‍लेषण की उनकी पद्धति को हम निम्‍नलिखित चरणों के रूप में देखने पर अधिक स्पष्टता से समझ सकेंगे।

 

क. रचना के सभी शब्द अर्थपूर्ण होते हैं।

ख. सभी शब्दों के अर्थ, अन्य सभी शब्दों-वाक्यों के साथ उनके रिश्तों पर आधारित होते हैं।

ग. कृति का पाठ, अपनी समग्रता में, कृति की आधार-कसौटी व अर्थ-ग्रहण की ओर लक्षित होता है।

घ. समग्रता में रचना का अर्थ तब समझा जा सकता है, जब हम सभी शब्दों के अन्य शब्दों के साथ उनके रिश्तों के कारण पैदा द्विविधाओं का समाहार खोज सकें।

ङ. द्विविधाओं के समन्वय या समाहार को हम तब उपलब्ध हुआ मानेंगे, जब वे कृति के समग्र अर्थ को व्यक्त करने के लिए, उसके सावयविक अंगों की तरह व्यवहार करेंगे।

 

यहाँ सवाल यह उठता है कि लेखक अपनी रचना में जिन शब्दों को प्रयुक्त करता है, वे शब्द सामाजिक सम्पदा क्यों नहीं होते हैं? एम्पसन इस तथ्य के प्रति सजग थे। अगर इस बात को मान लिया जाता है तो हमें रचना में प्रयुक्त भाषा के अर्थों को समाज-व्यवहार या इतिहास से ग्रहण करना पड़ेगा। यहाँ एम्पसन अन्य ‘नए आलोचकों’ से अलग हो जाते हैं। वे शब्दों के भीतर उतरकर, उनके भीतर पड़े समाजेतिहास की यात्रा भी करते हैं। परन्तु, शब्द के भीतर समाजेतिहास को वे समाजेतिहासिक ज्ञानानुशासनों या मार्क्सवाद जैसे दर्शनों से पाए जाने वाले अर्थों से अलग मानते हैं। वे शब्द के भीतर के समाजेतिहासिक अर्थ के लिए भी रचना की समग्रता और उनकी सावयविकता को ही कसौटी बनाना चाहते हैं। वे कवि या रचनाकार पर ज्यादा भरोसा करते हैं कि उनकी रचना-दृष्टि ही हमें सही रास्ता दिखाएगी। कृति में मौजूद रचना की भीतर वाली दृष्टि को हम पाएँगे कैसे?

 

इस सवाल का जवाब कुछ आलोचकों ने यह दिया है कि एम्पसन दरअसल ‘सहजबोध’ के आलोचक हैं। वे ज्ञानानुशासनों या वादों के कटघरों में बँधने की बजाय ‘सहज बोध’ को पकड़ते हैं, जो रचना और रचनाकार के बीच एक पुल का काम करता है।

 

अब हम उन सात प्रकार की द्विविधाओं को एक सूची के रूप में रख कर एम्पसन की अर्थ-प्रक्रिया को उसकी पूरी जटिलता के साथ ग्रहण करने का प्रयास कर सकते हैं। यदि हम ऊपर दी गई अर्थग्रहण प्रक्रिया की जटिलताओं को नजर-अन्दाज करेंगे और केवल ‘सात प्रकार की द्विविधाओं’ को पकड़ कर आगे चलने का प्रयास करेंगे तो हमारे हाथ हमारा अपना संस्कृत का ‘अलंकारशास्‍त्र’ आ जाएगा। संस्कृत काव्यशास्‍त्र में शब्दशक्तियों का विवेचन मिलता है। इनमें शब्दों का अर्थ अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना द्वारा निश्‍च‍ित किया जाता है। संस्कृत में कोशगत अर्थ, अभिधा द्वारा निश्‍च‍ित होता है। इसके बाद शब्द के अर्थों की अनेक परतें खुल जाती हैं। ध्वनि में यह सम्भावना और भी व्यापक रूप में हमारे सामने आती है। सम्भवतः एम्पसन ने संस्कृत काव्यशास्‍त्र का अध्ययन नहीं किया था। यदि किया होता तो उनका विश्‍लेषण अधिक व्यापक होता।

 

ऊपरी तौर पर एम्पसन की अर्थगत  द्विविधाएँ हमारे अलंकार और ध्वनिशास्‍त्र में वर्णित भाषा के विश्‍लेषण से काफी मेल खाती हैं। अन्तर यह है कि एम्पसन ने उनका उपयोग अर्थग्रहण की जटिल प्रक्रिया के अंगों की तरह किया है; न कि उन्हें ही अपने विश्‍लेषण का आधार या लक्ष्य बनाया है। अब हम नीचे दी गई सूची के रूप में एम्पसन की सातों द्विविधाओं को देख सकते हैं।

 

क. रूपक के रूप में अथवा रूपकों के सांगोपांग विस्तार के रूप में जब किसी मत या विचार को किसी बिम्ब से संयुक्त किया जाता है, तो यह द्विविधा पैदा होती है। प्रयुक्त रूपकों बिम्बों के समाजेतिहासगत अर्थ को उस बिम्ब-रचना के अन्य शब्द-बिम्बों के साथ, उसके रिश्तों के आधार पर खोजना चाहिए।

ख. जब दो या अधिक अर्थ के लिए एक ही शब्द का प्रयोग हो, तब खास सावधानी रखनी चाहिए।

ग. जब एक शब्द के दो अर्थों को पाठ की समग्रता के ‘सन्दर्भ’ से जोड़ने का प्रयास होता है, सन्दर्भ के कारण एक शब्द के दो अर्थ निकलने लगते हैं।

घ. जब एक शब्द दो या अनेक अर्थों की ‘व्यंजना’ करता हो और इन अर्थों में हमें परस्पर विरोध भी नजर आता हो, तब यह देखना चाहिए कि ऐसा लेखक की जटिल मनोरचना के कारण सम्भव हो पाता है।

ङ. जहाँ दो वाक्य ‘अधूरे अर्थ’ देकर एक-दूसरे से संयुक्त होने का प्रयास करता है या लिखने के क्रम में लेखक कोई विचार खोज लेता है, वहाँ अर्थ ग्रहण की सूक्ष्मता पर ध्यान देना चाहिए।

च. वे शब्द या वाक्य जो पाठक-आलोचक को ‘अपना मत’ स्वयं बनाने के लिए विवश करे; अर्थात् लेखक ने तो नहीं कहा, परन्तु पाठक उसमें ऐसा अर्थ खोज लेता है, जो लेखक के मत के विरुद्ध हो। अर्थग्रहण की प्रक्रिया में ऐसा भी कई बार होता है।

छ. जहाँ दो परस्पर विरोधी अर्थ समग्र पाठ को दोहरे या भिन्‍नवत अर्थों की ओर ले जा रहा हो, वहाँ इसका कारण लेखक के मानसिक विभाजन की स्थिति होता है।

 

विलियम एम्पसन इन सात प्रकार की अर्थ-द्विविधाओं के समग्र समाहारमूलक समन्वय को कृति या रचना का वास्तविक अर्थ मानते हैं। ऐसे समाहार को हासिल करने के लिए वे शब्दों के समाजेतिहास में उतरने का विरोध नहीं करते, बशर्ते वह समाजेतिहास कृति के भीतर के भाषागत संसार से सम्बन्ध रखता हो।

  1. जटिल शब्द बनाम बीज शब्द

विलियम एम्पसन जीवन्त-सावयविक या जैविक स्वरूप वाली रचनाओं में, अन्य अर्थों को खोलने के लिए ‘जटिल शब्दों’ पर खास ध्यान देने की जरूरत को रेखांकित करते हैं। एम्पसन की दृष्टि में ‘जटिल शब्द’ बन्द तालों की तरह होते हैं। इन तालों की कुंजी हासिल करके हम किसी रचना के घर-संसार में प्रवेश कर सकते हैं। विलियम एम्पसन हमें जटिल शब्दों की अर्थ-संरचनाओं पर ध्यान देने के लिए कहते हैं। जहाँ हमें ‘कृति के बाहर’ झाँकने की जरूरत पड़ती है। ‘नई आलोचना’ इसकी इजाजत नहीं देती। तब भी एम्पसन इसे आवश्यक मानते हैं।

 

विलियम एम्पसन एक और रास्ता सुझाते हैं। वे कृति के भीतर ही ‘जटिल शब्दों’ के समाजेतिहास के लिए पर्याप्‍त आधार खोज लेते हैं। शेष काम वे ‘सहज ज्ञान’ से ले लेते हैं। उनकी इस आलोचना-दृष्टि को ठीक से समझने के लिए हमें उनके द्वारा की गई एक किताब की समीक्षा को देखना चाहिए। यह किताब है रेमण्ड विलियम्स की की वर्ड्स । रेमण्ड विलियम्स ने साहित्य और आलोचना से सम्बद्ध अनेक कठिन शब्दों की व्याख्या करने की कोशिश की है।

 

बीज शब्द  लेखन के पीछे मूल आलोचना दृष्टि यह है कि शब्दों के अर्थ उनके समाजेतिहासिक इस्तेमाल से तय होते हैं तथा बदलते रहते हैं। इसलिए हमें जहाँ तक हो सके, शब्दों के सामाजिक इतिहास में पीछे तक लौटना चाहिए। इससे हम उनके आज प्रचलित अर्थों को पीछे के अर्थों के साथ तुलना करते हुए बेहतर तरीके से समझ सकते हैं। वे बीज-शब्द के तयशुदा समाजेतिहास को भी ‘शब्द को सीमित करनेवाला’ मानते हैं। उनका आग्रह इस बात पर है कि रचना अपने आप में जीवन्त संसार होती है, इसलिए तय शब्दों को उनके समग्र इतिहास के साथ ‘नया जीवन’ प्रदान करती है। उनका ध्यान इसे ‘नवीनता’ या ‘जीवन्तता’ वाले अर्थ को ग्रहण करने पर केन्द्रित है। हालाँकि इसे समझने के लिए वे भी समाजेतिहास वाले अर्थ की समझ को अपने ‘सहज ज्ञान’ की तरह इस्तेमाल में लाये जाने का विरोध नहीं करते।

 

विलियम एम्पसन की जटिल शब्दों की संरचना पुस्तक उन्हें अंग्रेजी आलोचना में सैमुअल जॉनसन तथा हेजलिट के बाद बींसवीं सदी का शीर्ष आलोचक बनाने का एक मुख्य आधार है। इससे पहले जॉनसन ने अठारहवीं सदी में अंग्रेजी भाषा का जो पहला साहित्य-सन्दर्भ वाला कोश तैयार किया था; उसी कार्य को एम्पसन बीसवीं सदी में अपने तरीके से आगे बढ़ाते हैं और शब्दों की जटिलता की दुनिया में प्रवेश के नए द्वार खोलते हैं।

 

विलियम एम्पसन की ‘जटिल शब्द’ केन्द्रित पाठ-पठन की पद्धति, शब्द के समाजेतिहासिक प्रयोगों से उपजे अनेकार्थों को ‘पृष्ठभूमि’ बनाती है; न कि उन्हें मुख्यार्थ या अभिप्रेत अर्थ के निर्धारण का कारण या हेतु मानती है। जैसे कि सैमुअल जॉनसन की शब्दकोशीय प्रविष्टियों में दिखाई देता है; अथवा जिसे रेमण्ड विलियम्स अपने मार्क्सवादी आग्रहों के कारण ‘केन्द्रीय स्थान’ मानते हैं। इसकी बजाय शब्द के समाजेतिहास को ‘प्रयोजन-मूलक’ रूप में ‘सहज बोधगत चुनाव’ की जमीन तैयार करने की हद तक ही  स्वीकार करते हैं। उनके लिए ‘रचना’ का ‘भाषा-संसार’ सर्वोपरि है। वहाँ सभी शब्द अर्थपूर्ण होते हैं। जटिल शब्द उन्हीं के भीतर मौजूद ऐसे शब्द होते हैं, जो अधिक गहराई में उतरने की माँग करते हैं और जिनकी गहराई से पाए अर्थबोध से, सामान्य शब्दों के अर्थ भी प्रभावित होते हैं। इस तरह एम्पसन समाजेतिहासिक अर्थों को ‘सन्दर्भ’ न बनकर, ‘गहराई में स्वतः उपलब्ध होनेवाले अर्थों’ में बदल लेते हैं। उनके इस दृष्टिकोण का अभिप्राय यह है कि समाजेतिहास अपने तौर पर नहीं, अपितु ‘रचना-संसार में जीवित रूप में’ उपलब्ध होने से ही अर्थपूर्ण होता है। विलियम एम्पसन ‘जटिल-शब्दों’ की अर्थगत संरचनाओं के रूप में जिन सम्भावनाओं को रचना की ‘गहराई’ से प्रकट होने लायक मानते हैं; उनकी उन्होंने ग्यारह कोटियाँ गिनाई हैं।

  1. व्यवहारिक आलोचना

विलियम एम्पसन ने अपनी आलोचना-सैद्धान्तिकी को आधार बनाते हुए जो व्यवहारिक समीक्षाएँ प्रस्तुत की हैं, उनमें उल्लेखनीय हैं–

 

क. मिल्टन तथा उनकी ‘ईश्‍वर’ की धारणा पर पुनर्विचार।

ख. ईसाई होते हुए भी विलियम एम्पसन ने अपने जापान तथा चीन के प्रवास के दौरान कन्फ्युशियस के सिद्धान्तों का अध्ययन किया था। वे एक ‘उदारवादी’, ‘मानववादी’ और ‘तर्क-विवेकमूलक विचारधारा’ को अपनाने वाले आलोचक थे। मिल्टन को आधार बना कर उन्होंने ईसाई मत तथा उसकी ईश्‍वर की धारणा का भी ‘बुद्धिसंगत’ विवेचन प्रस्तुत किया है; जिस कारण वे रूढ़ ईसाई विचार वाले लोगों की आलोचना का खासा शिकार हुए। वे ‘ईश्‍वर’ को ‘पराभौतिकीय अस्तित्व’ वाला न मानते हुए, उसे ‘मानवीय अनुभवमूलक सार’ की तरह ग्रहण करते थे; जिसकी ‘वैज्ञानिक रूप में व्याख्या’ सम्भव थी।

ग. उन्होंने जॉनसन तथा ‘अधिभौतिकीय’ काव्य का अध्ययन किया।

घ. उन्होंने शेक्सपीयर एलिजाबेथयुगीन नाटक और पुनर्जागरणयुगीन नाटक के काव्य का अध्ययन किया।

ङ. उन्होंने उपन्यास साहित्य में हेनरी फिल्डिंग्स के ‘टॉम जोन्स’ से लेकर ‘जेम्स ज्वॉयस’ तक के साहित्य का विशेष अध्ययन किया।

इस तरह एम्पसन ने सिर्फ कविता के शब्दों का अर्थ विश्‍लेषण ही नहीं किया, नाटक, उपन्यास और महाकाव्यों के कथानकों और उसमें निहित विचारों का भी मूल्यांकन किया।

 

  1. निष्कर्ष

सारांशतः विलियम एम्पसन को एक ऐसा आलोचक कहा जा सकता है, जो रूपवाद से लेकर संरचनावाद और उत्तरसंरचनावाद के बीच ‘रचना-संसार केन्द्रित’ पुल बाँधने का प्रयास करते हैं। इसे लक्ष्य करते हुए कुछ आलोचक उन्हें ‘आलोचनात्मक सामुदायिकता’ का विकास करने वाला मानते हैं। संक्षेप में उनकी धारणाओं, सिद्धान्तों और बीज-स्थापनाओं को निम्‍नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है–

 

क. रचना के भाषा-पाठ के अध्ययन के लिए उन्होंने तीन तत्त्वों के समन्वय पर जोर दिया – तर्क-विवेक, भाव तथा सह-अनुभूति।

ख. उनकी आलोचना ‘उदारवादी’, ‘मानववादी’ तथा ‘बुद्धिवादी’ होने के साथ-साथ ‘सांस्कृतिक खण्डनवाद’ को अपनाने का साहस करती है। जैसे कि उनकी मिल्टन के ईश्‍वर की आलोचना से स्पष्ट होता है।

ग. एक आलोचक के रूप में विलियम एम्पसन की प्रतिबद्धता का आधार कोई ‘विचारधारा’ न होकर, स्वयं ‘रचनाशीलता’ है। कुछ लोग इसे ‘उदात्त की चेतना’ से प्रतिबद्धता का नाम देना पसन्द करते हैं।

घ. विलियम एम्पसन के आलोचना सिद्धान्त को एक ओर ‘गणितीय स्पष्टता व पारदर्शिता’ वाला माना जा सकता है, तो दूसरी ओर ‘सहज बोध’ की जमीन पर खड़ा होने वाला। अंग्रेजी साहित्य में ‘सहज बोध ‘ का जो ठोस मूर्त्त रूप है; वह वहाँ के ‘पेस्टोरल साहित्य’ में नजर आता है। अतः कुछ लोग उनके आलोचना सिद्धान्त की जमीन ‘पेस्टोरल चेतना’ मानते हैं।

 

हालाँकि रैने वेलेक मानते हैं कि एम्पसन के लेखन में ज्यादा सिद्धान्त नहीं हैं। व्यावहारिक विश्‍लेषण है। रैने वेलेक को यह भी लगता है कि एम्पसन कविता में आए हुए कुछ शब्दों के अर्थ-विश्‍लेषण में उलझे रहने के कारण नाटक के रूप और कविता की सम्पूर्णता की अनदेखी कर जाते हैं। इस कारण वे कविता का शब्द विश्‍लेषण की पूरी परिस्थिति, उद्देश्य, कहानी के आकार और रचना के शाब्दिक सतह को समझ नहीं पाते। (A History of Modern Criticism Volume 5, पृ. 291)

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. William Empson : Seven type of ambiguity, Penguin publishers, Ed:1995
  2. Frank Day : Sir William Empson : An Annotated Bibliography, London: Garland, 1984.
  3. Philip and Averil Gardner : The God Approached : A Commentary on the Poems of William Empson, London: Chatto & Windus
  4. John Haffenden : William Empson, Vol. 1: Among the Mandarins, Oxford University Press
  5. John Haffenden : William Empson, Vol. 2: Against the Christians, Oxford University Press
  6. Christopher Norris and Nigel Mapp, (ed.) : William Empson: The Critical Achievement, Cambridge University Press
  7. A History Of Modern Criticism: 1750-1950, Rane Wellek, Jonathan Cape ltd,London

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Seven_Types_of_Ambiguity
  2. https://en.wikipedia.org/wiki/William_Empson
  3. https://www.youtube.com/watch?v=A7QULkgn3ho
  4. http://www.cambridge.org/us/academic/subjects/literature/renaissance-and-early-modern-literature/william-empson-essays-renaissance-literature-volume-1
  5. https://www.youtube.com/watch?v=47YyqXdrIhU