16 वर्ड्सवर्थ : काव्यभाषा

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. नवीन संवेदना का विकास : वस्तु और भाषा का बदलाव
  4. काव्य भाषा : अर्थ और विकास
  5. वर्ड्सवर्थ के काव्यभाषा सम्बन्धी विचार
  6. वर्ड्सवर्थ के काव्यभाषा सम्बन्धी विचारों की समीक्षा
  7. निष्कर्ष

 

  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • वर्ड्सवर्थ का साहित्यिक परिचय प्राप्‍त कर सकेंगे।
  • स्वछन्दतावादी युग में वस्तु और भाषा के बदलाव की प्रक्रिया को समझ सकेंगे।
  • वर्ड्सवर्थ के काव्यभाषा-सम्बन्धी विचारों से परिचित हो सकेंगे।
  • काव्यभाषा के बारे में वर्ड्सवर्थ के विचारों और उनकी समीक्षा के आधार पर अपना मूल्यांकन प्रस्तुत कर सकेंगे।
  1. प्रस्तावना

विलियम वर्ड्सवर्थ (सन् 1770-1850) मूलतः कवि थे। आलोचना में उनकी कोई विशेष रुचि नहीं थी। परिस्थितियों ने उन्हें आलोचक बनने के लिए बाध्य किया। वर्ड्सवर्थ का पहला कविता संग्रह एन इवनिंग वॉक एण्ड डिस्क्रिप्टिव स्कैचेज सन् 1793 में छपा। लिरिकल बैलेड्स से उन्हें लोकप्रियता मिली। सन् 1798 में वर्ड्सवर्थ ने कॉलरिज के साथ मिलकर लिरिकल बैलेड्स के नाम से एक कविता संग्रह निकाला। इसकी भूमिका वर्ड्सवर्थ ने लिखी। लिरिकल बैलेड्स के प्रकाशन से अंग्रेजी साहित्य जगत में हलचल मच गई। इसका कारण यह था कि प्रचलित काव्य-मान्यताओं के विपरीत इसमें नई काव्य-प्रवृतियों को अपनाने का आग्रह किया गया था। उन्हीं के उदाहरण स्वरूप कविताएँ भी लिखी गई थीं। कवि के रूप में वर्ड्सवर्थ को व्यापक प्रसिद्धि मिली। सन् 1843 में उन्हें इंग्‍लैण्‍ड के ‘पोएट लारिएट’ पद से सम्मानित किया गया।

  1. नवीन संवेदना का विकास : वस्तु और भाषा का बदलाव

लिरिकल बैलेड्स की कविताओं की जो आलोचना की गई थी, उसमें आलोचना का लक्ष्य विशेष रूप से वर्ड्सवर्थ की कविताओं को बनाया गया था। उसमें भी विशेष रूप से उनकी भाषा को। आरम्भ में उनकी भाषा को लेकर स्वयं वर्ड्सवर्थ के मन में कुछ-कुछ आशंका का भाव था। इसीलिए प्रथम संस्करण की भूमिका में उन्होंने उल्लेख किया था कि उक्त संग्रह में संकलित कविताएँ प्रयोग के रूप में हैं। उनमें वे यह देखना चाहते हैं कि ‘समाज के मध्य और निम्‍न वर्ग की बोलचाल की भाषा’ में यदि कविताएँ रची जाएँ तो उनसे क्या उतना और वैसा ही आनन्द प्राप्‍त किया जा सकता है, जैसा परम्परागत कविताओं से। परम्परावादी आलोचकों ने, भाव और भाषा दोनों दृष्टियों से, उन कविताओं की कटु आलोचना की। उनकी भाषा के प्रति विशेष रूप से अत्यन्त आक्रामक रुख अपनाया गया। द्वितीय संस्करण (सन् 1800) तक पहुँचते-पहुँचते दोनों कवियों की मान्यताओं में परिपक्‍वता और दृढ़ता आई। प्रथम संस्करण के समय जो मान्यताएँ प्रयोग के रूप में थीं, द्वितीय संस्करण तक आते-आते उन्होंने सुनिश्चित अवधारणाओं का रूप ग्रहण कर लिया। ‘प्रयोग’ का उल्लेख द्वितीय संस्करण के आमुख में भी है, लेकिन अब उसका स्वर बदला हुआ है, ‘‘इस प्रयोग से यह पता लगाने में कुछ मदद मिल सकेगी कि मानव की यथार्थ भाषा को यदि तीव्र अनुभूति की दशा में छन्द में ढाला जाए तो उससे क्या वैसा और उतना ही आनन्द प्राप्‍त हो सकता है, जैसा और जितना कोई कवि सोच-समझकर प्रदान करने की कोशिश करता है।’’ यहाँ ‘समाज के मध्य और निम्‍न वर्ग की बोलचाल की भाषा’ की जगह ‘मानव की यथार्थ भाषा’ पदबन्ध आ गया है। साथ ही ‘तीव्र अनुभूति की दशा में’ नया पदबन्ध जोड़ा गया है।

 

उक्त आमुख के दो मुख्य लक्ष्य थे–एक, अठारहवीं सदी की नव्यशास्‍त्रवादी काव्यभाषा (पोइटिक डिक्शन) की आलोचना; और दो, लिरिकल बैलेड्स में संगृहीत कविताओं की वस्तु और भाषा के बारे में अपना पक्ष प्रस्तुत करना। विशेष रूप से भाषा के बारे में। यही वजह है कि आमुख में वर्ड्सवर्थ ने कविता की भाषा के बारे में इतने विस्तार से विचार किया। पहले तो उन्होंने अठारहवीं सदी की अभिजातवर्गीय (नव्यशास्‍त्रवादी) काव्यभाषा की ‘तड़क-भड़क और निर्जीव शब्दावली’ की कटु आलोचना की। उन्होंने रेखांकित किया कि कविता में हमें उसी भाषा का व्यवहार करना चाहिए जो आम जनता की भाषा हो। भाषा ही नहीं, कविता की विषय-वस्तु को भी वे साधारण जनों, विशेष रूप से गाँव के किसानों तक ले जाना चाहते थे। लिरिकल बैलेड्स की कविताएँ रचते समय उनका लक्ष्य क्या था, यह स्पष्ट करते हुए उन्होंने आमुख में लिखा– ”इन कविताओं में प्रस्तावित प्रमुख लक्ष्य यह था कि साधारण जीवन से घटनाओं और स्थितियों का चयन किया जाए और फिर आद्योपान्त उनका वर्णन ऐसी भाषा में रहे, जिसका प्रयोग हम यथार्थ जीवन में करते हैं; साथ ही उन पर कल्पना का ऐसा रंग चढ़ाया जाए जिससे साधारण चीजें मन में असाधारण रूप लेकर उतरें; पुनः और भी महत्त्वपूर्ण बात यह कि इन घटनाओं और स्थितियों में हमारी प्रकृति के मूल नियमों का पता लगाकर उन्हें रोचक बनाया जाए, हालाँकि ऐसा सच्चे अर्थ में हो, प्रदर्शन के रूप में नहीं; जहाँ तक उनकी रीति का सम्बन्ध है, वह ऐसी हो जैसी भावदीप्‍त मनोदशा में विचारों का संयोग करने पर होती है।” विषय साधारण, लेकिन उनका प्रभाव असाधारण। यह करिश्मा घटित करेगी कल्पना। ग्रामीण जीवन के प्रति वड्सवर्थ का यह झुकाव अकारण नहीं था। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि निम्‍नवर्गीय और ग्रामीण जनों की भाषा में काव्यात्मक सम्भावनाएँ क्यों होती हैं – ”साधारण और देहात का जीवन आम तौर पर इसलिए चुना गया कि उस स्थिति में मानव-हृदय के मूल भावों को परिपक्‍व होने के लिए अधिक अच्छी जमीन मिलती है, वहाँ उनके ऊपर उतना प्रतिबन्ध नहीं होता और वे (ग्रामीण जन) अधिक जोरदार और अधिक साफ भाषा बोल सकते हैं; जीवन की उस दशा में हमारे मूल भाव एकदम साधारण या प्रकृत रूप में स्थित रहते हैं, अतः उनका ठीक-ठीक चिन्तन-मनन सम्भव है और उन्हें ज्यादा प्रभावकारी ढंग से सम्प्रेषित किया जा सकता है; ग्रामीण जीवन के आचार-व्यवहार ऐसे मूल भावों से और ग्रामीण पेशों की ऐसी आधारभूत विशेषताओं से उत्पन्‍न होते हैं जो सहज-संवेद्य बन सकते हैं, और स्थायी रूप ग्रहण कर सकते हैं; और अन्त में, उस दशा में मानवीय भावों का प्रकृति के रमणीय और स्थायी रूपों के साथ सामंजस्य हो सकता है। यदि कविता की वस्तु नई हो, नए भावबोध से सम्पन्‍न हो, पर उसकी भाषा पुरानी ही रहे तो वस्तु और शिल्प के बीच दरार आ जाएगी। इसके अलावा, वर्ड्सवर्थ की यह मान्यता थी कि सूक्ष्मता और व्यंजना-शक्ति की दृष्टि से साधारण जनों की भाषा जितनी सक्षम और समर्थ होती है, उतनी अभिजातवर्गीय भाषा नहीं। साधारण भाषा काव्योपयोगी भी अधिक होती है। ”इन लोगों की भाषा को भी अपनाया गया है (निश्‍चय ही उन दोषों को दूर कर जो अरुचि और जुगुप्सा उत्पन्‍न करते हैं और ये ही सही मायनों में उनके वास्तविक दोष प्रतीत होते हैं) क्योंकि ऐसे लोग हर घड़ी प्रकृति की सर्वोत्तम वस्तुओं के सम्पर्क में रहते हैं; और क्योंकि अपनी सामाजिक स्थिति, साथ ही बातचीत में एक-जैसे तथा संकीर्ण दायरे की वजह से, उनमें सामाजिक अहंकार की भावना उतनी नहीं होती, जिससे वे अपने भावों और विचारों को संक्षेप में, और सहज-सरल भाषा में, व्यक्त करते हैं; और क्योंकि ऐसी भाषा बार-बार के अनुभव तथा नियमित भाव-दशाओं से उत्पन्‍न होती है, अतः वह अधिक स्थायी और कहीं अधिक दार्शनिक गम्भीरता लिए हुए होती है।”

 

वर्ड्सवर्थ का बल ग्रामीण जनों के चारित्रिक गुणों पर है। भाषा की ताकत के पीछे बल चारित्रिक गुणों का रहता है। उन्हीं गुणों का प्रतिफलन भाषा में होता है। इसीलिए ‘‘उनकी वाणी में जो सचाई, जो ईमानदारी और जो स्वाभाविकता होती है वह उन कवियों की कृत्रिम भाषा में कहाँ जो यह सोचते हैं कि जिस अनुपात में वे मानवीय सहानुभूति से अपने-आपको दूर रखेंगे, और आम व्यक्ति की यादृच्छिक तथा मनमानी पद्धति का अनुसरण करेंगे, उतना ही अपने-आपको, और अपनी कला को, महिमान्वित करेंगे।’’ कहने की आवश्यकता नहीं कि ‘सच्‍चाई और ईमानदारी’ है ग्रामीण जनों की भाषा में और ‘कृत्रिमता’ है नव्यशास्‍त्रवादी दौर की अभिजातवर्गीय काव्यभाषा में। अभिजातवर्गीय (नव्यशास्‍त्रवादी) अभिरुचि से जुड़े सृजन का उद्देश्य होता है ‘अपनी अस्थिर रुचि और चंचल वासनाओं को शान्त करने के लिए सामग्री जुटाना।’ नव्यशास्‍त्रवादी काव्यभाषा का विरोध वास्तव में अभिजातवर्गीय काव्य-मूल्यों का विरोध है।

 

नव्यशास्‍त्रवादी दौर में कविताएँ अभिजात वर्ग को ध्यान में रखकर रची जाती थीं। नए (स्वच्छन्दतावादी) दौर में सामान्य मानव केन्द्र में आ गया। इसके पीछे प्रेरणा थी फ्रांसीसी क्रान्ति और औद्योगिक क्रान्ति की। युग बदल गया लेकिन अधिकांश कवि अब भी उसी पुरानी दुनिया में जी रहे थे। कल्पना की दुनिया में। अतः वर्ड्सवर्थ ने चेतावनी के स्वर में लिखा – ‘‘कवि को इस कल्पित ऊँचाई से नीचे उतरना होगा और उसे अन्य लोगों की भाँति ही अपने भावों को अभिव्यक्त करना होगा ताकि लोग उसकी बात को समझें और समझकर उसे सहानुभूति दे सकें।’’

 

अपने काव्य-चिन्तन में वर्ड्सवर्थ ने यथार्थ जीवन को बहुत महत्त्व दिया है। यथार्थ जीवन के भाव और भाषा को। कवि के सामने वे आदर्श के रूप में विद्यमान रहते हैं। वह उन भावों के नजदीक पहुँचने की कोशिश करता है, चाहता है कि उनके साथ उसका पूर्ण तादात्म्य हो जाए, पर ऐसा हो नहीं पाता। यथार्थ भावों की विविधता और सृजनात्मकता के बरक्स कवि द्वारा चित्रित भाव यान्त्रिक-जैसे लगते हैं। यही बात भाषा पर भी लागू होती है। कवि चाहे जितना प्रतिभासम्पन्‍न हो, ‘‘इन भावों की प्रेरणा से वह जिस भाषा का प्रयोग करेगा, वह सत्य और जीवन्तता की दृष्टि से उस भाषा से पीछे ही रहेगी जो उन भावों के वास्तविक दबाव से यथार्थ जीवन में बोली जाती है।’’ यथार्थ जीवन की ‘इस भाषा की कुछ छायाएँ’ ही कवि पकड़ पाता है।

  1. काव्यभाषा : अर्थ और विकास

यहाँ ‘काव्यभाषा’ शब्द का प्रयोग अंग्रेजी पदबन्ध ‘पोइटिक डिक्शन’ के पर्याय रूप में किया जा रहा है। यह सामान्य रूप से कविता की भाषा का सूचक नहीं है। यह नव्यशास्‍त्रवादी युग (अठारहवीं सदी) की उस रूढ़, कृत्रिम और, आडम्बरपूर्ण भाषा का सूचक है, जो न तो बोधगम्य थी, न भावोद्दीपन में समर्थ। यहाँ यह पूछा जा सकता है कि इस आडम्बरपूर्ण भाषा का विकास कब और कैसे हुआ? इसका विकास सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध और मुख्य रूप से, अठारहवीं सदी के दौरान हुआ। आरम्भ में यह मान्यता व्यक्त की गई कि कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो कविता के लिए उपयुक्त नहीं होते। अतः कविता में उनका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। सबसे पहले इस श्रेणी में ऐसे शब्दों को परिगणित किया गया, जिनसे कविता के पाठक अपेक्षित मात्र में परिचित नहीं है। हॉब्स (सन् 1588-1679) ने ऐसे शब्दों में तीन तरह के शब्दों को शामिल किया है–

  • (1) ऐसे शब्द जिनकी हमें समुचित जानकारी नहीं है;
  • (2) ऐसे विदेशी शब्द जो पाठक वर्ग के लिए बोधगम्य नहीं होते, बशर्ते कि वे लम्बे प्रयोग के बाद एकदम आम न हो गए हों; और
  • (3) शिल्पियों और कारीगरों के उपकरणों से सम्बन्धित शब्द।

यहाँ काव्योपयोगिता का निकष है बोधगम्यता। जिन शब्दों से कविता का पाठक अपरिचित या अल्पपरिचित है, वे काव्योपयोगी नहीं हैं। आगे चलकर, नव्यशास्‍त्रवादी दौर में, इस श्रेणी में ऐसे शब्दों को भी शामिल कर लिया गया, जो अतिपरिचित हों। अभिजातवर्गीय काव्याभिरुचि को ऐसे शब्द स्वीकार्य नहीं थे, जो जनजीवन के अंग हों। कारण, आम बोलचाल का अंग होने के कारण वे हमारे मन में क्षुद्रता का भाव जगाते हैं। नव्यशास्‍त्रवादी आलोचक डॉ. जॉनसन (सन् 1709-1784) ने लिखा – ‘‘अतिपरिचित और दूरारूढ़ शब्द कवि के प्रयोजन को ही निष्फल कर देते हैं। अतिपरिचित शब्द हमारे मन पर कोई गहरा असर नहीं छोड़ते, न उनसे कोई आनन्ददायक बिम्ब ही बनता है। और जिन शब्दों से हम परिचित नहीं हैं, वे जहाँ भी आते हैं, हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हैं, जबकि होना यह चाहिए कि वे हमारा ध्यान उन वस्तुओं की ओर ले जाएँ, जिन्हें वे सूचित करते हैं।’’ एनीस में वर्जिल के शब्द-प्रयोग पर आपत्ति करते हुए ड्राइडन ने लिखा कि इसमें प्रयुक्त ‘ग्रामीण शब्द सम्बद्ध वस्तु की क्षुद्र धारणा हमारे सामने लाते हैं।’

 

अतिपरिचित और अपरिचित शब्दों की उपेक्षा का एक अन्य कारण भी था – अतिपरिचित शब्दों में अर्थछायाएँ इतनी ज्यादा होती हैं कि उन पर काबू पाना बहुत मुश्किल है; जबकि अपरिचित शब्दों में अर्थछायाएँ बिलकुल होती ही नहीं। अतः आगे चलकर, अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में, एडिसन, डॉ. जॉनसन, ग्रे जैसे लेखकों ने यह अभियान चलाया कि कविता की भाषा विशिष्ट होनी चाहिए। उन्होंने यह मान्यता व्यक्त की कि कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जिनका केवल, या विशेष रूप से, कविता में प्रयोग किया जाता है। सही मायनों में काव्यभाषा का विकास इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप हुआ। इस प्रवृत्ति के अन्तर्गत कुछ शब्दों को ही काव्यात्मक मान लिया गया और यह मान्यता व्यक्त की गई कि कवि-परम्परा में से ऐसे शब्दों को चुन-चुनकर उनका प्रयोग किया जाना चाहिए। ‘‘हर भाषा में कुछ शब्द ऐसे होते हैं, जो काव्याभिव्यक्ति में विशेष रूप से काम में आते हैं – इनमें से कुछ तो कल्पना के सम्मुख प्रस्तुत बिम्ब या विचार की वजह से पसन्द किए जाते हैं, कुछ कानों के लिए सुखद ध्वनियों की वजह से।’’ (गोल्डस्मिथ) ऐसे जादुई शब्दों का एक पूरा वर्ग बन गया था। इनका प्रयोग करने पर रसात्मक प्रभाव की गारण्टी थी। ‘काव्य-भाषा’ (पोइटिक डिक्शन) पदबन्ध का पहले-पहल प्रयोग करते हुए प्रसिद्ध कवि पोप ने इलियड के आमुख में लिखा – ‘‘हम उसे (होमर को) काव्यभाषा का जनक मानते हैं। वह पहला व्यक्ति था जिसने मनुष्यों को देवों की भाषा का ज्ञान कराया।’’ आशय यह कि यह काव्यभाषा दिव्य थी। जहाँ भी इसका योग कर दिया जाएगा, वह कविता अमर हो जाएगी। इन लेखकों ने इस बात पर बल दिया कि कविता की भाषा और गद्य की भाषा में स्पष्ट भेद होना चाहिए। यह भेद जितना ज्यादा हो उतना अच्छा। गद्य तो समसामयिक भाषा का आधार ग्रहण कर सकता है, लेकिन कविता नहीं। अपने एक पत्र (सन् 1742) में ग्रे ने साफ कहा – ‘समसामयिक युग की भाषा कभी कविता की भाषा नहीं होती।’ इस युग की कविता पढ़ते हुए हमें स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसमे विचार और भाषा के बीच एक स्पष्ट समयगत अन्तराल है।

 

अठारहवीं सदी में विज्ञान और सामाजिक विज्ञानों का तेजी से विकास हो रहा था। इस विकास के परिणामस्वरूप भाषा में विज्ञान, दर्शन, राजनीति आदि के क्षेत्र में भारी संख्या में तकनीकी शब्द आ रहे थे। भाषा के क्षेत्र में ‘स्पष्टता’ की माँग की वजह से इस युग में यह विचार सामने रखा गया कि हर शब्द का सामान्य रूप से स्वीकृत एक ही अर्थ होना चाहिए। किन्तु इस आदर्श को प्राप्‍त करना सम्भव नहीं था। शब्द भिन्‍न-भिन्‍न सन्दर्भों में प्रयुक्त होते हैं। जैसे ही उनका सन्दर्भ बदलेगा उसी के साथ उनकी अर्थछायाएँ भी बदल जाएँगी। विशेष शब्दावलियों या तकनीकी शब्दों का विकास इस कठिनाई पर विजय पाने का एक रास्ता था। विशिष्ट काव्यभाषा का विकास भी तकनीकी शब्दों के विकास की उस सामान्य प्रवृत्ति के मेल में था। यही वजह है कि नव्यशास्‍त्रवादी युग में इस काव्यभाषा का वैसा विरोध नहीं हुआ।

 

काव्यभाषा में कृत्रिमता का समावेश कैसे हुआ, मनुष्य की यथार्थ भाषा से उसके अलगाव की क्या प्रक्रिया रही, इस बारे में वर्ड्सवर्थ ने लिरिकल बैलेड्स चौथे संस्करण की भूमिका में लिखा –‘‘सभी देशों के आरम्भिक कवियों ने सामान्यतः यथार्थ घटनाओं से प्रेरित होकर काव्य-रचना की थी। उन्होंने जो कुछ लिखा वह साधारण मनुष्यों के रूप में और एकदम स्वाभाविक ढंग से। चूँकि उनकी अनुभूति और भाव प्रबल थे, अतः उनकी भाषा भी प्रभावपूर्ण और अलंकृत हो गई। इस भाषा का प्रभाव देखकर परवर्ती कवियों और यशलोलुप जनों ने, वैसे भाव से अनुप्राणित हुए बिना ही, वही प्रभाव उत्पन्‍न करना चाहा। फल यह हुआ कि उन अलंकारों का यान्त्रिक प्रयोग ही हो पाया। कभी-कभी तो यह प्रयोग उचित भी हुआ किन्तु प्रायः ऐसे भावों और विचारों के लिए उनका प्रयोग किया गया, जिनसे उनका कोई सहज सम्बन्ध नहीं था। इस प्रकार अनजाने ही एक ऐसी भाषा निर्मित हो गई, जो हर हालत में मनुष्यों की यथार्थ भाषा से तत्त्वतः भिन्‍न थी।’’

 

इस प्रकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह कृत्रिम काव्यभाषा बोझिल और आडम्बरपूर्ण होती गई। वह सहज-सरल न रही और उसकी भावोद्दीपन-क्षमता एकदम समाप्‍त हो गई। वर्ड्सवर्थ इस नवआभिजात्यवादी काव्यभाषा को त्यागकर प्राचीन कवियों की भाषा-परम्परा को फिर से अपनाने का आग्रह करते हैं।

  1. वर्ड्सवर्थ के काव्यभाषा-सम्बन्धी विचार

नव्यशास्‍त्रवादी दौर की कृत्रिम और आडम्बरपूर्ण भाषा का वर्ड्सवर्थ ने विरोध किया। आमुख में उन्होंने सीधे-सीधे कहा – ‘‘सामान्यतः जो कुछ ‘काव्यभाषा’ नाम से जाना-समझा जाता है, वह भी इन कविताओं में नहीं मिलेगा। आम तौर पर उसे आकार देने के लिए जितना प्रयत्‍न किया जाता है उतना ही प्रयत्‍न मैंने उसे बचाने के लिए किया है।… ऐसा इसलिए किया गया है कि मैं अपनी भाषा को मानवीय भाषा के नजदीक लाना चाहता था।’’ इसके पीछे उद्देश्य था अपनी भाषा को मानव की सहज-स्वाभाविक भाषा के नजदीक लाना। उन्होंने लिखा– ‘‘इसका अनिवार्य परिणाम यह हुआ है कि मैं ऐसे बहुतेरे पदबन्धों और अलंकारों के प्रयोग से वंचित रह गया हूँ जो काफी समय से पिता से लेकर पुत्र तक कवियों की सामान्य सम्पत्ति माने जाते रहे हैं।’’ जैसे सम्पत्ति पिता से पुत्र को हस्तान्तरित होती जाती है, उसी प्रकार तथाकथित कवित्वपूर्ण शब्दावली भी। इसका यही आशय है, अर्थात् कविता विकसित होती है कवि-परम्परा में, इतिहास और समाज से उसका विशेष सरोकार नहीं होता। वर्ड्सवर्थ ऐसा नहीं मानते। उनकी मान्यता है कि जिन अभिव्यक्तियों में मूलतः सहजता और ईमानदारी हो, उन्हें भी यदि बार-बार दुहराया जाए तो वे अपनी जीवन्तता खो बैठती हैं। फिर वे निकृष्ट कविता का उदाहरण प्रस्तुत करेंगी।

 

नव्यशास्‍त्रवादी काव्यभाषा के प्रति उनकी प्रमुख आपत्ति यह है कि उसमें प्रकृति के सत्य का साक्षात्कार नहीं होता, न बाह्य प्रकृति के सत्य का और न मानव-प्रकृति के सत्य का। नव्यशास्‍त्रवादी दौर में कवि या तो प्रकृति से कोई बिंब लेते ही नहीं, या फिर लेते भी हैं तो कवि-परम्परा के माध्यम से। इसीलिए उनकी कविता में बाह्य प्रकृति का कोई नया बिम्ब नहीं मिलेगा, जिससे यह पता चले कि कवि की दृष्टि सीधे अपने विषय पर केन्द्रित रही है। इस सन्दर्भ में वर्ड्सवर्थ ने लिखा–‘‘मैंने हमेशा अपनी निगाह विषय पर जमाने की कोशिश की है। इसका परिणाम यह हुआ है कि इन कविताओं मे अयथार्थ या मिथ्या चित्रण नहीं मिलेगा। साथ ही, मैंने अपने विचारों को अवसरानुकूल भाषा में व्यक्त किया है।’’

 

वर्ड्सवर्थ की धारणा थी कि शब्द अपने आप में काव्यात्मक या अकाव्यात्मक नहीं होते, भाषा में प्रयोग के आधार पर वे अपना स्वरूप अर्जित करते हैं। अपने युग की ‘तड़क-भड़क और निर्जीव शब्दावली’ के बरक्स लिरिकल बैलेड्स की कविताओं का वैशिष्ट्य रेखांकित करते हुए उन्होंने लिखा–‘‘पाठक यह देखेंगे कि इन कविताओं में विचारों का मानवीकरण कभी-कभार ही किया गया है, और शैली को भव्य बनाने की, तथा उसे गद्य के स्तर से ऊँचा उठाने की, एक सामान्य युक्ति के रूप में तो इसका प्रयोग एकदम नहीं मिलेगा। मेरा उद्देश्य तो मानव की यथार्थ भाषा का अनुकरण करना, और यथासम्भव उसे प्रयोग में लाना था; और निश्‍चय ही ऐसे मानवीकरण को उस भाषा का स्वाभाविक अंग नहीं माना जा सकता।’’ वास्तव में ‘शैली की यान्त्रिक युक्ति’ के रूप में जो मानवीकरण आया है, वह उन्हें ग्राह्य नहीं है। किन्तु वही यदि भाषा का स्वाभाविक अंग बनकर आए तो वह उन्हें सहज-ग्राह्य है–‘‘वह (मानवीकरण) तो वस्तुतः ऐसा अलंकार है जो आवेग की दशा में आप-से-आप रूप ग्रहण कर लेता है और इसी रूप में मैंने उनका उपयोग किया है। किन्तु शैली की एक यान्त्रिक युक्ति के रूप में, या फिर ऐसी पारिवारिक भाषा के रूप में, जिसे छन्दोबद्ध रचना के लेखक अपनाने का दावा करते हैं, मैंने उसका पूर्ण बहिष्कार किया है।’’

 

काव्यभाषा के बारे में अपने उक्त विचारों के आधार पर वर्ड्सवर्थ ने यह निष्कर्ष निकाला कि गद्य और कविता की भाषा में कोई अन्तर नहीं है। नव्यशास्‍त्रवादी दौर में इन दोनों के अन्तर को मान्यता दी गई थी और इसी अन्तर के आधार पर कृत्रिम-आडम्बरपूर्ण काव्यभाषा को उचित ठहराया गया था। लेकिन वर्ड्सवर्थ ने लिखा–‘‘हर अच्छी कविता के अधिकांश की भाषा, चाहे उसका स्वर कितना भी उदात्त क्यों न हो, अच्छे गद्य की भाषा से भिन्‍न नहीं होती। यही नहीं, सबसे अच्छी कविताओं के सबसे मार्मिक अंश गद्य की भाषा के एकदम समरूप होंगे, ऐसे गद्य के, जो सुरचित हो।’’ वर्ड्सवर्थ के अनुसार सम्पूर्ण काव्य से ‘अनगिनत उदाहरण देकर’ इस दावे को सिद्ध किया जा सकता है। उन्होंने दावा किया कि ‘गद्य और छन्दोबद्ध रचना की भाषा में तत्त्वतः न तो कोई अन्तर है और न हो सकता है।’ सामान्य बुद्धि के स्तर पर उतरकर उन्होंने कहा–‘‘उनके बोलने और सुनने के अंग एक ही हैं। उन दोनों के परिधान एक ही तत्त्व, शब्दों के बने होते हैं।… दोनों की शिराओं में एक ही मानवीय रक्त प्रवाहित होता है।’’

 

गद्य और कविता में प्रायः छन्द के आधार पर भेद किया जाता है और इस आधार पर काव्यभाषा जैसे अन्य भेदों को भी मान्यता मिलनी चाहिए। इस सम्भावना के निराकरण के लिए वर्ड्सवर्थ ने लिखा–‘‘जिस काव्यभाषा की यहाँ सिफारिश की गई है, उसका चयन यथासम्भव ऐसी भाषा से किया जाता है, जिसका हम वस्तुतः बोलचाल में प्रयोग करते हैं। यह चयन यदि सच्‍ची अभिरुचि और भावना के आधार पर किया गया, तो जितना हम सोचते हैं उससे कहीं ज्यादा अन्तर आप-से-आप उत्पन्‍न हो जाएगा। साथ ही, वह रचना साधारण जीवन की तुच्छता और अश्लीलता से भी मुक्त हो जाएगी। यदि उसमें ऊपर से छन्द का समावेश और कर दिया गया तो मैं समझता हूँ कि ऐसा अन्तर पैदा हो जाएगा जो एक विवेकशील व्यक्ति को सहज स्वीकार्य होगा।’’

 

कुल मिलाकर वर्ड्सवर्थ ने अपने काव्यभाषा-विषयक विचारों में तीन बातों पर बल दिया–

 

(1) काव्य में ग्रामीण जनों की दैनिक बोलचाल की भाषा को आधार बनाना चाहिए;

(2) गद्य और कविता की भाषा में मूलतः कोई अन्तर नहीं है, और

(3) प्राचीन कवियों की काव्यभाषा एकदम सहज-सरल थी, यान्त्रिकता और आडम्बर परवर्ती (नव्यशास्‍त्रवादी) कवियों की देन है।

 

कवि के हृदय में यदि भाव का उन्मेष है और विषय का चयन ठीक हुआ है तो भाषा स्वयं ही अवसर के अनुरूप आकार ग्रहण कर लेगी।

  1. वर्ड्सवर्थ के काव्यभाषा-सम्बन्धी विचारों की समीक्षा

आमुख के प्रकाशन (सन् 1800) के बाद वर्ड्सवर्थ की काव्यभाषा-विषयक मान्यताओं के खिलाफ नव्यशास्‍त्रवादी आलोचकों के साथ-साथ कॉलरिज ने भी कटु आलोचना की। बायोग्राफिया लिटरेरिया के चार अध्यायों (अध्याय 17-20) में उन्होंने एक-एक मान्यता पर अत्यन्त सूक्ष्मता और गहराई से विचार किया। कॉलरिज के इन विचारों में चूँकि वर्ड्सवर्थ की काव्यभाषा-विषयक मान्यताओं की आलोचना के अधिकांश पहलू आ जाते हैं, अतः यहाँ संक्षेप में उन पर विचार किया जा सकता है–

 

(1) वर्ड्सवर्थ ने अपने आमुख में, काव्यभाषा के रूप में, ग्रामीण जनों की भाषा अपनाने पर बल दिया था। कॉलरिज का तर्क है कि काव्यभाषा के सन्दर्भ में मूल प्रश्न यह नहीं है कि उस भाषा का स्वरूप क्या हो? वह ग्रामीण हो या शहरी, अथवा अन्य किसी प्रकार की? मूल प्रश्न यह होना चाहिए कि वह भावों और अनुभूतियों को व्यक्त करने में कहाँ तक सक्षम है? ग्रामीण भाषा के साथ एक अन्य दिक्कत भी है और वह यह कि उसकी शब्दावली बहुत सीमित और कामचलाऊ होती है। उसके आधार पर सूक्ष्म-गहन अनुभूतियों को व्यक्त नहीं किया जा सकता। स्वयं वर्ड्सवर्थ की श्रेष्ठ कविताएँ उनके उक्त सिद्धान्त की पुष्टि नहीं करतीं।

 

(2) ग्रामीण जीवन को काव्य-वस्तु के रूप में अपनाए जाने के पक्ष में वर्ड्सवर्थ का तर्क था कि उसका सम्बन्ध मानव-हृदय के मूल भावों से है और गाँव-देहात के लोग ‘अधिक जोरदार और अधिक साफ भाषा’ बोल सकते हैं। कॉलरिज की दृष्टि में कवित्व का आधार है शिक्षा, उसकी कमी नहीं। ग्रामीण जीवन में प्रगति के लिए कुछ पूर्वापेक्षाएँ हैं, जैसे कि सम्बद्ध व्यक्ति में शिक्षा, या संवेदना, या फिर दोनों पहले से विद्यमान हों। अगर उसमें ये गुण अपेक्षित मात्रा में नहीं हैं, तो गाँव के श्रमनिष्ठ जीवन में ‘उसका मस्तिष्क, अपेक्षित प्रेरणा के अभाव में, सिकुड़कर कठोर हो जाता है और वह व्यक्ति स्वार्थी, इन्द्रियलोलुप, गँवार और क्रूरहृदय हो जाता है।’ अशिक्षित लोग अपनी बातचीत में जो कुछ कहते हैं उसके निर्णायक घटक असम्बद्ध और खण्डित होते हैं। उसमें परिप्रेक्ष्य की कमी होती है। परिप्रेक्ष्य से व्यक्ति में यह योग्यता आती है कि “वह जो कुछ कहने जा रहा है, उसे अपनी सम्पूर्णता में पहले से देख सके, ताकि वह अपने कथन के विभिन्‍न हिस्सों को, उनके सापेक्षिक महत्त्व के अनुसार, इस प्रकार नियोजित कर सके कि उसे तत्काल, और एक व्यवस्थित इकाई के रूप में, व्यक्त कर दे।” इंग्‍लैण्‍ड ऊपरी भाग के जिन ग्रामवासियों के आचार-व्यवहार की वर्ड्सवर्थ ने प्रशंसा की है, उन्हें अच्छी शिक्षा मिली थी और इसी स्तर के अन्य लोगों की अपेक्षा वे अच्छे पाठक थे।

 

(3) वर्ड्सवर्थ के अनुसार लिरिकल बैलेड्स में संगृहीत कविताओं में “ग्रामीण जनों की भाषा को भी अपनाया गया है (निश्‍चय ही उन दोषों को दूर करके जो अरुचि और जुगुप्सा उत्पन्‍न करते हैं…) क्योंकि ऐसे लोग हर घड़ी प्रकृति के सम्पर्क में रहते हैं और भाषा का उत्तमांश उनसे ही प्रसूत है।” वर्ड्सवर्थ के इस कथन पर आपत्ति करते हुए कॉलरिज ने लिखा कि ‘ग्रामीण भाषा को क्षेत्रीयता, ग्राम्यता आदि दोषों से मुक्त करके यदि उसका परिष्कार कर दिया गया, और उसका पुनर्गठन करके उसे व्याकरणिक नियमों के अनुरूप ढाल लिया गया’तो वह ग्रामीण भाषा रही कहाँ! ऐसे में वह “किसी सामान्य व्यक्ति की भाषा से भिन्‍न नहीं होगी, चाहे वह कितना भी पढ़ा-लिखा और संस्कारवान क्यों न होसिवाय इसके कि ग्रामीण व्यक्ति जो विचार व्यक्त करता है, वे अपेक्षाकृत सीमित और गड्ड-मड्ड होते हैं।”

 

(4) काव्यभाषा के सन्दर्भ में वर्ड्सवर्थ ने ‘यथार्थ’ शब्द पर काफी जोर दिया है; ऐसी भाषा पर, जो यथार्थ जीवन में बोली-सुनी जाती हो। कॉलरिज ने ‘यथार्थ’ शब्द पर भी ऐतराज किया। उन्होंने पूछा कि ‘यथार्थ’ शब्द से आखिर वर्ड्सवर्थ का आशय क्या है? हर आदमी की भाषा “उसके ज्ञान के विस्तार, क्षमताओं की क्रियाशीलता और संवेदना की गहराई या तीव्रता के अनुसार अलग होती है।” एक शिक्षित मनुष्य की भाषा अशिक्षित ग्रामीण की भाषा से भिन्‍न होगी, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसकी भाषा यथार्थ नहीं है। शिक्षित मनुष्य की भाषा वैसी ही यथार्थ है, जैसी किसी अशिक्षित ग्रामीण की भाषा। उनके अनुसार हर आदमी की भाषा का स्वरूप तीन कारकों से निर्धारित होता है–(क) मनुष्य की वैयक्तिक विशेषताएँ; (ख) उसकी वर्गीय विशेषताएँ; और (ग) सामान्य व्यवहार के शब्दों और मुहावरों की विशेषताएँ। कॉलरिज का मानना है कि ‘यथार्थ’ के स्थान पर वर्ड्सवर्थ को ‘साधारण’ या सामान्य शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए था और यह सामान्य भाषा केवल निम्‍न और ग्रामीण जनों तक सीमित नहीं मानी जा सकती। विभिन्‍न भाषाई रूपों से उसकी विलक्षणताएँ हटा दीजिए, फिर जो भाषा बचेगी, वह सभी के लिए ‘सामान्य’ होगी। जैसा कि दाँते ने कहा है, अपने विकास से पहले हर देश की ‘सामान्य भाषा’ अंशों में सभी जगह मौजूद रहती है, किन्तु सम्पूर्णता में कहीं भी नहीं होती।

 

(5) ‘मनुष्यों की यथार्थ भाषा’ और ‘निम्‍न तथा ग्रामीण जनों’ को महत्त्व देने के बावजूद वर्ड्सवर्थ ने यह भी कहा है कि कवि जब अपनी भाषा का चयन करता है तो वह ‘तीव्र अनुभूति की दशा में होता है। संकेत यह कि इस तीव्र अनुभूति की वजह से सामान्य भाषा काव्यभाषा का रूप ग्रहण कर लेती है। कॉलरिज ने ‘तीव्र अनुभूति की दशा में’ पदबन्ध पर भी ऐतराज किया, और कहा कि तीव्र अनुभूति के योग से कविता की भाषा पर कोई खास असर नहीं पड़ता। इस दशा में कवि किसी नई शब्दावली की उद्भावना नहीं कर लेता। वे शब्द बोलचाल की भाषा में पहले से विद्यमान रहते हैं। होता सिर्फ यह है कि भाव का आवेग उस शब्दावली को अधिक गतिशील कर देता है। “असाधारण उत्तेजना से वे केवल एक-साथ एकत्र होकर सघन हो जाते हैं।”

 

(6) वर्ड्सवर्थ ने आमुख में यह मान्यता व्यक्त की थी कि गद्य और कविता की भाषा में तत्त्वतः न तो कोई अन्तर है, न हो सकता है। इस अन्तर पर विचार करने से पहले कॉलरिज ने तत्त्व के अंग्रेजी पर्याय ‘एसेंस’ शब्द की मीमांसा की। उनके अनुसार ‘एसेंस’ शब्द के दो अर्थ हैं प्रमुख और गौण। इसका मुख्य अर्थ है वैयक्तिकता का सिद्धान्त। इस शब्द का कमोवेश वही अर्थ है जो दर्शनशास्‍त्र में प्रत्यय का। इसके अलावा इसका एक गौण अर्थ भी है। यह है “एक ही पदार्थ या विषय के दो रूपान्तरों में विभेद।” इस दूसरे या गौण अर्थ में ही कविता और गद्य की भाषा के बीच के अन्तर को नकारा जा सकता है। किन्तु यदि हम इसके प्रमुख अर्थ को ध्यान में रखकर विचार करें, तो पाएँगे कि भाषा के इन दोनों प्रयोगों में तात्त्विक अन्तर है। कॉलरिज के अनुसार प्रश्न यह नहीं है कि क्या गद्य में ऐसा शब्द-विन्यास नहीं हो सकता, जो कविता में भी उतना ही उपयुक्त हो, या फिर क्या अच्छी कविताओं में ऐसी पंक्तियाँ नहीं मिलतीं, जो गद्य में वैसी ही सहज-सुन्दर लगें। इनमें से किसी भी सम्भावना के प्रति कभी किसी ने आशंका नहीं व्यक्त की, न कभी उसे आशंका की दृष्टि से देखा गया। वास्तव में यहाँ सही प्रश्न यह होगा कि क्या कभी ऐसी अभिव्यक्ति-पद्धतियाँ, वाक्य-रचना, अथवा वाक्य-विन्यास के ऐसे रूप नहीं होते जो गद्य में तो एकदम उपयुक्त हों, किन्तु छन्दोबद्ध रचना (कविता) में एकदम बेढंगे और विजातीय माने जाएँ। दूसरी ओर, किसी गम्भीर कविता में क्या ऐसा शब्द-क्रम, वाक्य-विन्यास या अलंकार- विधान नहीं हो सकता जो कविता में तो एकदम उपयुक्त हो, लेकिन गद्य में सदोष और विजातीय। इन दोनों उदाहरणों में एक के स्थान पर दूसरा प्रायः अनुपयुक्त होगा और होना चाहिए। अतः कॉलरिज ने वर्ड्सवर्थ के ही कथन को पलटकर कहा कि ‘तत्त्वतः’ का जो भी अर्थ ग्रहण किया जाए, “गद्य और छन्दोबद्ध रचना की भाषा में अन्तर है, हो सकता है, और होना चाहिए।”

  1. निष्कर्ष

कॉलरिज ने वर्ड्सवर्थ के काव्य भाषा-सम्बन्धी विचारों की जो आलोचना की है, उसमें सूक्ष्मता और गहराई है इसमें सन्देह नहीं। लेकिन यदि हम पूरे सन्दर्भ को ध्यान में रखें तो कुल मिलाकर कॉलरिज की इस आलोचना को बहुत उचित नहीं माना जा सकता, विशेष रूप से इसलिए कि आमुख में व्यक्त विचारों में स्वयं कॉलरिज की हिस्सेदारी थी। आमुख में काव्यभाषा की निरंकुशता के बारे में वर्ड्सवर्थ ने जो घृणा व्यक्त की है, उससे कॉलरिज पूरी तरह सहमत थे। इसी प्रकार काव्य में भाव की केन्द्रीय भूमिका उन्हें भी स्वीकार्य थी। कॉलरिज के अनुसार हर पदबन्ध, हर रूपक, हर मानवीकरण के मूल में भाव की प्रेरणा अनिवार्य है, जिससे उसका औचित्य सिद्ध किया जा सके। स्वयं छन्द में भावावेग का अन्तर्भाव है। शिल्प के विविध उपादान (बिम्ब, रूपक आदि) मूलतः तभी सार्थक हैं जब वे भावतरलता से दीप्‍त हों। वर्ड्सवर्थ का आलोचना साहित्य परिमाण में अधिक नहीं है, लेकिन वह अत्यन्त रचनात्मक है और जगह-जगह उसमें सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि के संकेत हैं।

 

अतिरिक्त जानें :

 

पुस्तकें :

  1. The Unremarkeble Wordsworth, Geoffrey H. Hartman, University of Minnesota Press, London.
  2. Romantic Revolutions : Criticism and Theory, edited by Kenneth R. Johnston, Indiana University Press, Bloomington.
  3. English Critical Essays : Nineteenth Century, selected and edited by Edmund D. Jones, Oxford University Press, London, New York.
  4. The Use of Poetry and The use of Criticism, Studies in the relation of criticism to poetry in England, T.S. Eliot, Faber and Faber, London.
  5. A History of Modern Critisicim:1750-1950 by Rene Wellek, Jonathan Cape,London.

 

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