16 बाणभट्ट की आत्मकथा में प्रेम का स्वरूप

डॉ. आनन्द पाण्डेय and डॉ. ओमप्रकाश सिंह

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्धेश्य
  2. प्रस्तावना
  3. बाणभट्ट की आत्मकथा में प्रेम
  4. बाणभट्ट कीआत्मकथा की प्रेम-संवेदना केस्रोत 
  5. बाणभट्ट की आलोचना
  6. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा  में अभिव्यक्त प्रेम का स्वरूप समझ पाएँगे।
  • उपन्यास में प्रेम का महत्त्व, पात्रों के आपसी सम्बन्ध में प्रेम की सर्वमान्य अवधारणा की उपस्थिति, अथवा प्रेम के अन्य स्वरूप की जानकारी ले पाएँगे।
  • प्रेम संवेदना निर्धारित करने में उपन्यासकार द्वारा निभाई गई भूमिका जान पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना

 

हजारीप्रसाद द्विवेदी का उपन्यास ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ अपनी विशिष्ट प्रेम-संवेदना के लिए प्रसिद्ध है। इस उपन्यासकार ने संस्कृत कवि, कथाकार बाणभट्ट के जीवन प्रसंगों से जोड़कर इसकी कथा को विस्तृत आयाम दिया है भारत की आजादी से ठीक एक साल पहले सन् 1946 में यह उपन्यास लिखा गया। और प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास राजनीतिक समस्याओं से तो टकराता हीं है, धार्मिक समस्याओं, स्‍त्री-पुरुष सम्बन्धो और ऐतिहासिक सन्दर्भो से भी टकराता है। इस उपन्यास में स्‍त्री-मुक्ति के प्रश्‍नों पर गहराई से विचार हुआ है। उपन्यास की संवेदना पर इस विचार का निर्णायक प्रभाव पड़ा है। उपन्यास में बाण सामाजिक-राजनीतिक सेवा में उलझा हुआ पात्र है, फिर भी, उसमें प्रेम-संवेदना की केन्द्रीयता बनी रहती है। इस उपन्यास में प्रेम के स्वरूप को लेकर आलोचक एकमत नहीं हैं । दरअसल उपन्यास का कथानक इतना उलझा हुआ है, कि उसमें से प्रेम के वास्तविक स्वरूप की पहचान कर पाना जटिल कार्य है।

 

3. बाणभट्ट की आत्मकथा  में प्रेम

 

बाणभट्ट की आत्मकथा  में प्रेम के दो रूपों का वर्णन है। एक प्रेम-दर्शन बाणभट्ट का है और दूसरा निउनिया, महामाया और बाबा (कौलाचार्य अघोर भैरव) का है। बाणभट्ट का प्रेम-दर्शन अशरीरी, भावनात्मक और प्लेटोनिक है। महामाया और बाबा का प्रेम-दर्शन शरीरी और संकोच रहित है। उपन्यास में प्रेम की ये दोनों दृष्टियाँ एक दूसरे का प्रत्याख्यान रचती हैं। चूँकि, उपन्यास बाणभट्ट, भट्टिनी और निपुणिका के इर्द-गिर्द चलता है और इनमें बाण का चरित्र एवं विचार प्रभावशाली है, इसलिए उक्त प्रथम दृष्टि ही उपन्यास की प्रेम-संवेदना के स्वरूप का निर्धारण करने वाली केन्द्रीय शक्ति है। महामाया कथा में अवसरानुकूल हस्तक्षेप की तरह उपस्थित होती हैं। प्रेम और स्‍त्री-पुरुष सम्बन्ध में महामाया के विचार बाणभट्ट के विचारों का प्रत्याख्यान रचते हैं। महामाया अपने विचारों को लेकर प्रगल्भ है, बाणभट्ट विनम्र है। महामाया विचार प्रस्तुत करती है, बाणभट्ट अपने विचारों का निर्वाह करता है। महामाया के विचारों के प्रति वह संवादी है, लेकिन महामाया के प्रेम-दर्शन का बाणभट्ट के जीवन और सोच पर कोई  प्रभाव नहीं पड़ता है। सम्भवत: इसीलिए विजयमोहन सिंह ने इस उपन्यास को प्रेम की विभिन्‍न दृष्टियों में ‘समन्वय’ करने वाली रचना कहा है।

 

बाणभट्ट की प्रेम-संवेदना स्‍त्रियों के प्रति उसके दृष्टिकोण और विचार से निर्धारित होती है। उसकी प्रेम-संवेदना को स्‍त्रियों के प्रति उसके नैतिक दायित्वबोध ने स्वरूप दिया है। उसकी प्रेम-संवेदना को  दायित्वबोध ने प्रगल्भ  नहीं होने दिया है। वह भारतीय स्‍त्रियों की सोचनीय स्थिति के प्रति इतना संवेदनशील है कि वह स्‍त्री को प्रेमास्पद से अधिक उद्धार का विषय समझता है। वह उपन्यास के आरम्भ में ही स्पष्ट कर देता है कि उसके विचार स्‍त्रियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण हैं। वह अन्य पुरुषों की भाँति स्‍त्रियों के प्रति असंवेदनशील और गैरजिम्मेदार दृष्टिकोण नहीं रखता है। उसके शब्दों में, “मेरी मण्डली की स्‍त्रियाँ पुरुषों की अपेक्षा अधिक सुखी थीं। बहुत छुटपन से ही मैं स्‍त्री का सम्मान करना जानता हूँ। साधारणत: जिन स्‍त्रियों को चंचल कुलभ्रष्टा माना जाता है, उनमें एक दैवी शक्ति भी होती है, यह बात लोग भूल जाते हैं। मैं नहीं भूलता। मैं स्‍त्री-शरीर को देव-मन्दिर के समान पवित्र मानता हूँ। उस पर की गयी अननुकूल टीकाओं को मैं सहन नहीं कर सकता।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ. 15) बाणभट्ट प्रेम के आवेग में बहने वाला चरित्र नहीं है, बल्कि उसके अनभिव्यक्त भाव को दीर्घकाल तक दबाए रखकर उसमें डूबता-उतराता रहता है। निपुणिका के सन्दर्भ में यह बात अधिक स्पष्ट होती है। निपुणिका बाणभट्ट की निर्देशन में चलनेवाली नाटक-मण्डली में नर्तकी थी। वह मन हीं मन बाण के प्रति प्रेमभाव रखती थी। यह जरुर था कि उसका प्रेम व्यक्त नहीं था। एक दिन नाटक में अपनी प्रस्तुति के माध्यम से वह प्रेम का निवेदन करती है। नेपथ्य में आने पर जब उसे अपने निवेदन का बाण पर कोई असर न दिखाई दिया तो वह विह्वल हो उठती है। उसी रात वह बाण की मण्डली छोड़कर भाग जाती है। बाणभट्ट और निउनिया एक दूसरे के हृदय की दशा से परिचित होते हुए भी निकट आने के बजाय दूरी चुनते हैं। बाणभट्ट संयमित हो जाता है पर निउनिया मण्डली छोड़ देती है। बाणभट्ट ने उसे काफ़ी खोजा, लेकिन वह नहीं मिलना चाहती थी, सो नहीं मिली। इसके बाद जब दोनों संयोग से एक बार मिलते हैं, तो भी बात आगे नहीं बढ़ती है। बाणभट्ट उस दिन की घटना के बारे में कहता है, “क्षण भर में मेरे मानस-समुद्र में विक्षोभ का तूफ़ान उठा और शान्त हो गया। मैं सदा अपने को सँभाल सकने में समर्थ रहा हूँ। इस बात का मुझे अभिमान है।” (वही, पृ.16) बाणभट्ट संयमित है। वह प्रेम-निर्वाह या स्‍त्रियों से अपने सम्बन्धों में सामाजिक रूढ़ियों और वर्जनाओं की परवाह नहीं करता है। लोक-निन्दा की उसे तनिक भी चिन्ता नहीं है। काफ़ी दिनों बाद संयोग से वह उज्जयनी में  निपुणिका से उसकी पान की  दुकान पर मिलता है। पुरानी बातों को सोचकर निपुणिका रोने लगती है। वह उसके आँसू पोंछने के लिए हाथ बढ़ाता है।  निपुणिका उसे यह कहकर रोकती है, “छी, छी, क्या कर रहे हो? बाजार में बैठे हैं, नहीं देखते!” वह दृढ़तापूर्वक उत्तर देता है, “बिलकुल नहीं परवा करता कि हम कहाँ बैठे हैं।” (वही)  वह जानता है कि यहाँ “निपुणिका का चरित्र यहाँ के सदाचारियों की दृष्टि में अत्यन्त निकृष्ट है।” (वही, पृ.17) उससे किसी भी प्रकार का सम्बन्ध उसकी लोक-निन्दा का कारण होगा, फिर भी बाण मन-ही-मन संकल्प लेता है, “सब है, पर निपुणिका मुझसे बड़ी है, मूल्यवान है। सारे जीवन मैंने स्‍त्री-शरीर को किसी अज्ञात देवता का मन्दिर समझा है। आज लोगों की आलोचना के डर से उस मन्दिर को कीचड़ में धँसा हुआ छोड़ जाना मेरे वश की बात नहीं है।” (वही)

 

अपने प्रेम-आवेगों को ‘संयमित’ रख पाने की क्षमता ही बाणभट्ट के प्रेम-भाव को चिरस्थायी बना देती है। इसीलिए उस पर न निउनिया की आलोचना का प्रभाव पड़ता है और न ही महामाया के उपदेशों का। वह संयमित अवश्य है, लेकिन वह अपने प्रेम को न छुपाता है, न अपने को ठगता है और न ही जिनसे प्रेम करता है उनसे कोई दुराव-छिपाव करता है। जिस बाणभट्ट की ‘असावधान हँसी’ को अपनी उपेक्षा का लक्षण समझकर निपुणिका का दिल टूटा था और वह भाग खड़ी हुई थी, वही बाणभट्ट उस क्षण की असावधान हँसी का प्रायश्‍च‍ित आँसुओं से करने को तैयार है, “जो प्रमत्त हँसी छह वर्षों से मेरा हृदय कुरेद रही है, उसका प्रायश्‍च‍ित आज आँसुओं से करना होगा।” (वही)

 

बाणभट्ट का ‘संयम’ उसे प्रेम से दूर ले जाने वाला नहीं है, बल्कि उसे क्षणिक आकर्षण भर बनकर रह जाने से बचाता है। यह गौर करने लायक है कि पूर्ण संयम के बावजूद वह कहाँ संयमित रह पाता है? निउनिया के भाग जाने पर नाटक समाप्‍त होने के बाद रात भर उसने निपुणिका को खोजा। कई और दिनों तक खोजता रहा। वह राजसभा नहीं गया। अपने नाटक को फाड़कर शिप्रा नदी में फेंक दिया। अपनी नाटक मण्डली तोड़ दी। अपना पेशा ही छोड़ दिया। इतने दिनों तक ‘निपुणिका की गीली आँखें’ उसके ‘हृदय को कुरेदती रहीं।’ क्या यह सब संयम था, अपने को क्षणिक आवेग में बह जाने से बचा लेने का? बिलकुल नहीं, यह आवेग में बह जाना ही कहा जाएगा। बाण का यह आचरण उसके जीवन-दर्शन को छिन्‍न-भिन्‍न कर देता है। यह विचारणीय है कि बाण की उस रात की हँसी क्या न चाहते हुए असावधानी से फूट पड़ी थी या वह अपनी भावनाओं को संयमित रखने और उनमें बहने के बीच ‘सम्प्रेषण-त्रुटि’ (कम्युनिकेशन एरर) कर बैठा! या फिर उपन्यासकार ने उस हँसी का विधान करके उसके प्रेम-दग्ध हृदय को और अधिक प्रकाशित करना चाहा था, जो कि कथा केविकास के लिए आवश्यक था।

 

निपुणिका का दिल बाणभट्ट के ‘संयम’ ने नहीं, उसकी ‘असावधान हँसी’ ने तोड़ा था। फिर भी वह बाणभट्ट के प्रेम-दर्शन की कड़ी आलोचना करती है, “निर्दय, तुमने बहुत बार बताया था कि नारी-देह को देव-मन्दिर के समान पवित्र मानते हो, पर एक बार भी तुमने  समझा होता कि यह मन्दिर हाड़-माँस का है, ईंट-चूने का नहीं।! जिस क्षण मैं अपना सर्वस्व लेकर इस आशा से तुम्हारी ओर बढ़ी थी कि तुम उसे स्वीकार कर लोगे, उसी समय तुमने मेरी आशा को धूलिसात् कर दिया। उस दिन मेरा निश्‍च‍ित विश्‍वास हो गया कि तुम जड़ पाषाण-पिण्ड हो; तुम्हारे भीतर न देवता है, न पशु; है एक अडिग जड़ता। मैं इसीलिए वहाँ ठहर नहीं सकी।” (वही, पृ.18)

 

स्‍त्री को उच्चता देने वाले, उसे देव-मन्दिर समझने वाले बाण के सामाजिक महत्त्व से निउनिया अच्छी तरह परिचित है। वह जानती है कि बाणभट्ट उसको सामाजिक रूप से अपना नहीं बना सकता, सामान्य पुरुष की भाँति प्रेम और विवाह नहीं कर सकता, तो इसका कारण स्‍त्री जाति के प्रति उसकी अतिसंवेदनशीलता ही है। स्‍त्री की गरिमा को समझने वाले और स्‍त्री-मुक्ति के लिए अपने को समर्पित करने वाले पुरुष सहज नहीं प्राप्‍त होते, “इस दुनिया में तुम्हारे जैसे पुरुषरत्न दुर्लभ हैं।” (वही)

 

निउनिया की तरह अपहृता राजकुमारी भट्टिनी भी बाण के व्यक्तित्व और सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्त्ता रूप के महत्त्व को समझती है। बाणभट्ट के व्यवहार और महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप ही वह उसके बारे में कहती है, “तुम इस म्लेच्छ कही जानेवाली जाति के चित्त में संवेदना का संचार कर सकते हो, उन्हें स्‍त्रियों का सम्मान करना सिखा सकते हो, बालकों को प्यार करना सीखा सकते हो। भट्ट, भव-कानन पारिजात हो तुम इस मरुभूमि के निर्झर हो। वाणी-जैसी अबलाओं में भी आत्मविश्‍वास का संचार करती है। तुम्हारी छाया पाकर अबलाएँ भी इस देश की सामाजिक जटिलता  शिथिल कर सकती हैं।” (वही, पृ.176)

 

भट्टिनी के प्रति बाणभट्ट का समर्पण और लगाव राजनीतिक कारणों से है। भट्टिनी के प्रति वह इसलिए समर्पित है, उसके माध्यम से वह देश का राजनीतिक उद्धार करना चाहता है। एक तरह से भट्टिनी के प्रति उसका समर्पण उसका राजनीतिक लक्ष्य के ही प्रति समर्पण है। दोनों के सम्बन्ध पर कुमार कृष्णवर्धन का यह कथन पर्याप्‍त प्रभाव डालता है, “तुम्हें देव-पुत्री नन्दिनी की सेवा इसलिए नहीं करनी है कि देव-पुत्री नन्दिनी तुम्हारी दृष्टि में पूज्य और सेव्य हैं, बल्कि इसलिए कि उनकी सेवा द्वारा तुम लोक का आत्यन्तिक कल्याण करने जा रहे हो। कुमार का यह कथन भट्ट के लिए सलाह या उपदेश नहीं है बल्कि उसके संकल्प की अभिव्यक्ति मात्र है।” (वही, पृ.82) बाणभट्ट के चरित्र में कर्तव्यबोध और दायित्त्वबोध दोनों है, जिसके लिए वह प्रेम को अपने ढंग से जीता है। छह वर्षों के बाद भी बाण निपुणिका को अपनाना चाहता है, लेकिन उसके उद्धार की भावना पहले है, “मैं जो पहले था, वह आज भी हूँ; सारी दुनिया भी तुझे मेरे आश्रय से अलग नहीं कर सकती है।… मैं तुझे कीचड़ में छोड़कर नहीं जा सकता।” (वही, पृ.12)

 

भट्ट से उपेक्षित होकर निपुणिका प्रेम से महावराह की भक्ति में लीन हो गई। अब वह भट्ट के प्रति अपने प्रेम को  मोह कहती है, “छह वर्षों तक इस कुटिल दुनिया में असहाय मारी-मारी फिरी और अब मेरा मोह भक्ति के रूप में बदल गया है।” (वही) यह भक्ति भी प्रेम का एक रूप है। यह प्रेमाभक्ति है। यह अकारण नहीं है कि भट्ट निपुणिका के आराध्य महावराह को ‘प्रेममूर्ति महावराह’ कहता है। भट्ट के अनुसार महावराह के रूप में निपुणिका को एक श्रेष्ठ आश्रय मिल गया है। इसलिए वह निपुणिका से अपने सम्बन्ध को पुनर्जीवित करने का अधिक प्रयत्न नहीं करता है। बाबा के यह पूछने पर कि जल में डूबते समय वह महावराह की मूर्ति बचाएगा या भट्टिनी को तो वह संकोचपूर्वक कहता है, “प्राण देकर मैं भट्टिनी को बचाऊँगा।” (वही, पृ.155)  फिर भी वह कहता है कि भट्टिनी के प्रति पूज्य भावना है, प्राण देकर मरने की बात वह बोल नहीं रहा, “कोई बुलवा रहा है।” (वही) यह बुलवाने वाली शक्ति कौन है? क्या यह उसका प्रेम ही नहीं है, जो उसके तथाकथित संयम की शक्ति से बाहर होता जा रहा है और उसकी ‘समाज सेवा’ को रूखी-सूखी सेवा से अधिक प्रेम और भक्ति से रससिक्त करता रहता है।

 

अघोर भैरव ने उसकी मानसिकता को एक हद तक सही पकड़ा है। वे प्रेम के प्रति उसके आचरण की आलोचना करते हुए कहते हैं, “क्यों रे, लजाता है? दुत पगले, उस मायाविनी जाल में फँस रहा है? क्या बुरा है रे, त्रिपुर-सुन्दरी ने जिस रूप में तेरे मन को लुभाया है, उसे साहसपूर्वक स्वीकार क्यों नहीं करता? तू अभागा ही बना रहेगा, भोले!” (वही) आगे फिर उसे प्रवृत्त करते हैं, “देखो,  न तो प्रवृत्तियों को छिपाना उचित है, न उनसे डरना कर्त्तव्य है और न लज्जित होना युक्तियुक्त है।” (वही, पृ.57)

 

हम देखते हैं कि बाणभट्ट की आत्मकथा में प्रेम की शब्दावली भक्तिमय है। आज के आधुनिक मन वाले पाठक के लिए यह समझना ज़रा मुश्किल होगा कि निपुणिका और भट्टिनी के प्रति बाणभट्ट के मन में प्रेम है या भक्ति। इसके अतिरिक्त दोनों प्रमुख स्‍त्री पात्रों से प्रेम करने के स्थान पर बाणभट्ट के मन में उनके उद्धार की भावना अधिक है। वह प्रेम के स्थान पर उनके उद्धार का विकल्प चुनता है। प्रेम-भावना से अधिक वह कर्त्तव्य-भावना से संचालित होता है। निपुणिका से दूसरी बार मिलने पर वह उसे साथ चलने के लिए कहता है, लेकिन इसका कारण यह नहीं बताता कि वह उस से प्रेम करता है बल्कि वह उसका उद्धार करना चाहता है, “मैं तुझे कीचड़ में छोड़कर नहीं जा सकता।” (वही पृ.18)

 

बाणभट्ट के चरित्र में भक्ति की भावना इतनी दृढ़ है कि वह इस बात का अन्तर भी नहीं करता कि मनुष्य से प्रेम करना एक बात है और अवतार महावराह से प्रेम, अर्थात भक्ति करना दूसरी बात। निपुणिका को महावराह की आराधना करते हुए देख वह पछताता है, “किसे आश्रय देने की बात मैं कह रहा था? निपुणिका को जो आश्रय मिला है, उसकी तुलना में मेरा आश्रय कितना तुच्छ, कितना नगण्य अकिंचन है!” (वही) यह हाल तब है जब इसके तत्काल पहले निपुणिका स्‍त्री के प्रति उसकी समझदारी की साफ़ शब्दों में निन्दा कर उसे खारिज कर चुकी होती है। उसे इस बात की सीख दे चुकी होती है कि स्‍त्री को वह देव-मन्दिर समझने के बजाय हाड़-माँस का पिण्ड समझे। लेकिन, निपुणिका की झिड़की और भर्त्सना तथा स्‍त्री की अभिलाषा को स्पष्ट कर देने के बावजूद उसका न तो स्‍त्री के प्रति दृष्टिकोण बदलता है और न ही प्रेम के प्रति। इसलिए यह समझना भी कम कठिन नहीं है कि वह स्‍त्री को मानवी समझता है, इसलिए उनके उद्धार-मुक्ति में सहायक होना चाहता है, या उन्हें देवी समझता है। इसलिए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने स्पष्ट किया है कि बाणभट्ट की आत्मकथा में अभिव्यक्त प्रेम का स्वरूप और संवेदना स्वयं बाणभट्ट की लेखनी में मिलती संवेदना से भिन्‍न है। “कादम्बरी में प्रेम की अभिव्यक्ति में एक प्रकार की दृप्‍त भावना है; परन्तु इस कथा में सर्वत्र प्रेम की व्यंजना गूढ़ और अदृप्‍त भाव से प्रकट हुई है। ऐसा जान पड़ता है कि एक स्‍त्री-जनोचित लज्जा सर्वत्र उस अभिव्यक्ति में बाधा दे रही है। सारी कथा में स्‍त्री-महिमा का बड़ा तर्कपूर्ण जोरदार समर्थन है। कथा का जिस ढंग से आरम्भ हुआ है, उसकी स्वाभाविक परिणति गूढ़ और अदृप्‍त प्रेम में ही हो सकती है। मुझे कथा के स्वाभाविक विकास की दृष्टि से इसमें कोई विरोध या दोष नहीं दिखता; पर बाणभट्ट की लेखनी से सम्भवत: अधिक स्पष्ट और अधिक दृप्‍त अभिव्यक्ति की आशा की जा सकती है। फिर कादम्बरी में प्रेम के जिन शारीरिक विकारों का, अनुभावों का, हावों अयत्नज अलंकारों का प्राचुर्य है, उसके स्थान में कथा में मानव विकारों का, लज्जा का, अवहित्था का, जड़िमा का अधिक प्राचुर्य है। यह बात भी मुझे खटकनेवाली लगी।” (वही, पृ.197) जब उपन्यासकार ने स्वयं कवि बाणभट्ट और चरित नायक बाणभट्ट की प्रेम-संवेदना में अन्तर दिखाया है, तो जरूरी हो जाता है कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में प्रेम का स्वरूप पहचानने के लिए इसके स्रोतों का पता लगाया जाए।

 

4. बाणभट्ट की आत्मकथा  की प्रेम-संवेदना के स्रोत

 

जब हम बाणभट्ट की आत्मकथा  में अभिव्यक्त प्रेम के स्वरूप के निर्धारक तत्त्वों या स्रोतों पर विचार करते हैं तो दो प्रमुख तत्त्व या स्रोत दिखाई देते हैं, जिनकी चर्चा आवश्यक है। एक स्रोत द्विवेदीजी के समय में स्‍त्री-मुक्ति के तहत स्‍त्री के प्रति बदले दृष्टिकोण में निहित है, तो दूसरा हेर-फेर के साथ भागवत की प्रेमाभक्ति  की परम्परा के अनुगमन में। दूसरी परम्परा की खोज  में नामवर सिंह कहते हैं कि द्विवेदीजी के लिए ‘प्रेम सबसे बड़ा पुरुषार्थ है – ‘प्रेमा पुमर्थो महान।’ उनके अनुसार द्विवेदीजी को प्रेम की अवधारणा का ज्ञान भागवत की कृष्ण प्रेमाभक्ति की परम्परा से प्राप्‍त हुआ था। उन्होंने ‘बाणभट्ट कीआत्मकथा’ की प्रेम-संवेदना को भागवत की प्रेमाभक्ति-संवेदना की परम्परा का विकास सिद्ध किया है। वे लिखते हैं, “प्रेमाभक्ति की चर्चा में बाणभट्ट की आत्मकथा की सहायता लेने पर शायद आपत्ति की जा सकती है। इसलिए स्पष्टीकरण के लिए भट्टिनी की इस घोषणा का उल्लेख आवश्यक है कि – “मुझे भागवत धर्म में यह पूर्णता दिखाई देती है।” इसके अतिरिक्त यह अकारण नहीं है कि इस कथाकृति के सभी प्रमुख चरित्र-निपुणिका, भट्टिनी, सुचरिता यहाँ तक कि स्वयं बाणभट्ट भी या महावराह के उपासक हैं या नारायण के।… इस प्रकार ‘आत्मकथा’ की पूरी परिकल्पना ही कृष्णभक्ति की एक निगूढ़ भावना में विन्यस्त की गई है।” (दूसरी परम्परा की खोज,पृ.12)

 

द्विवेदीजी के समय के थोड़ा आगे और पीछे स्‍त्री-मुक्ति के प्रश्‍न और स्‍त्री के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन दिखाई देता है। जिसका साक्ष्य द्विवेदीयुगीन और छायावादी साहित्य में मिलता है। छायावादी कवि की तरह बाणभट्ट की आत्मकथा भी प्रेम के अशरीरी और वायवीय रूप का वर्णन करता है। नामवर सिंह छायावादी प्रेम-संवेदना के बारे में लिखते हैं, “छायावाद की अधिकांश कविताओं में सौन्दर्य अशरीरी और हवाई है, तथा भावना भी कल्पनावासी तथा अतृप्‍त‍ि-परक है।” (छायावाद, पृ.69)

 

स्‍त्रियों के प्रति सुधारवादी रवैया भी छायावाद  की विशेषता है। इसके लिए उसे मानवीय से अधिक ‘देवी’ देखा गया, ताकि धर्मप्राण जनता में उसके महत्त्व को स्थापित किया जा सके और उसे पवित्र माना जा सके। जयशंकर प्रसाद की कामायनी  नारी को श्रद्धा का पात्र बताती है –

                        नारी तुम केवल श्रद्धा हो,

                        विश्‍वास रजत पग तल में। 

                        पीयूष स्रोत सी बहा करो जीवन के सुन्दर समतल में।

 

इसी तरह विधवा औरत को निराला ने अपनी कविता ‘विधवा’ में ‘इष्ट देव के मन्दिर की पूजा-सी’ कहा है।

नामवर सिंह का यह कहना ठीक है कि बाणभट्ट की आत्मकथा  की प्रेम-संवेदना पर भागवत की प्रेमाभक्ति का प्रभाव है, लेकिन द्विवेदीजी उपन्यास के प्रेम के स्वरूप में जिस ‘अदृप्‍तता’ और ‘स्‍त्री-जनोचित लज्जा’ का उल्लेख करते हैं, वह भागवत-परम्परा में नहीं पाई जाती है। अकेले सूरदास के ही प्रेम-वर्णन को लें, तो स्पष्ट होगा कि ‘आत्मकथा’ के पात्रों के विपरीत राधा और कृष्ण के प्रेम में स्वछन्दता और उन्मुक्तता है, लज्जा, संयम या अदृप्‍तता नहीं। स्पष्टतः द्विवेदीजी ने प्रेमाभक्ति की जो अवधारणा अपने उपन्यास के लिए अपनाई उस पर उनके ज़माने ने गुणात्मक प्रभाव डाला।

 

ध्यातव्य कि बाणभट्ट की प्रेम-संवेदना पर भागवत की प्रेमाभक्ति के साथ-साथ छायावादी और, द्विवेदीजी के अपने समय, का प्रभाव दिखाई देता है। छायावादी शुष्क ‘श्रद्धा’ को द्विवेदीजी ने भागवत की प्रेमाभक्ति के सहारे ‘भक्ति’ बना दिया है। ‘श्रद्धा’ और ‘भक्ति’ में क्या अन्तर है? इसे रामचन्द्र शुक्ल ने यों समझाया है, “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।” (चिन्तामणि भाग-1, पृ.20) ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ का प्रेम यदि भक्ति की शब्दावली से आच्छादित है, तो उसमें स्‍त्री के प्रति छायावादी कर्त्तव्य भावना भी है। इसीलिए कई बार यह समझना मुश्किल हो जाता है कि बाण जिन स्‍त्रियों से प्रेम करता है, प्रेम के कारण उनके प्रति सामाजिक कर्त्तव्यों का निर्वाह करता है या उनके प्रति अपने कर्त्तव्य के कारण प्रेम करता है। बावजूद इसके कि उसकी प्रेम-संवेदना में कर्त्तव्यबोध अधिक है।

 

5. बाणभट्ट की आलोचना 

 

 प्रेम के प्रति बाणभट्ट का रवैया आलोचकों को उलझन में डालता रहा है। प्रेम के सम्बन्ध में चरित नायक बाणभट्ट के सिद्धान्त और व्यवहार की विजयमोहन सिंह ने कड़ी आलोचना की है। वे लिखते हैं, “वह स्वयं प्रेम करने में अक्षम है। प्रेम के बारे में उसकी व्याख्याएँ अपनी इस अक्षमता को छिपाने वाली शुद्धतावादी व्याख्याएं हैं।” (आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना, पृ.340) उपन्यास में बाणभट्ट ही नहीं, अन्य पुरुष पात्र भी असामान्य व्यवहार करते हैं, इसलिए विजयमोहन कहना भी ठीक है कि भट्टिनी, निपुणिका, सुचरिता, मोहिनी सभी स्‍त्रियाँ पुरुषों से प्रेम माँगती हैं, लेकिन उन्हें ‘उपदेश, उपासना, या कारागार’ मिलता है।

 

6.निष्कर्ष

 

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’  स्‍त्री-पुरुष सम्बन्धों के एक विशिष्ट रूप को रूपायित करता है। इस सम्बन्ध को विशिष्ट बनाती है विशिष्ट प्रेम-संवेदना। इस संवेदना का आधार यह विश्‍वास है कि पुरुष द्वारा स्‍त्री के प्रति दायित्व का निर्वाह उसे प्रेम करने का श्रेष्ठ प्रकार है। यहाँ प्रेम संवेदना का प्रकटीकरण दायित्व-निर्वाह के रूप में हुआ है।

 

बाणभट्ट की आत्मकथा   के नायक बाणभट्ट की प्रेम-संवेदना उपन्यास की केन्द्रीय प्रेम-संवेदना है। निउनिया के लिए प्रेम का अर्थ दूसरा है। वह बाण से बताती भी है कि एक स्‍त्री पुरुष से क्या चाहती है, फिर भी वह बाण के ही दर्शन को आगे बढ़ाती है। भट्टिनी तो शुरू से ही अपने पक्ष को व्यक्त करने के बजाय बाण के ही रास्ते पर चलती है।

 

पुस्तकें

 

  1. आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना, विजयमोहन सिंह, रचना प्रकाशन, इलाहबाद
  2. शान्तिनिकेतन से शिवालिक, शिवप्रसाद सिंह, नेशनल पब्लिकेशन्स हॉउस, नई दिल्ली
  3. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ पाठ और पुनर्पाठ, सम्पादक – मधुरेश, आधार प्रकाशन, पंचकूला
  4. आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना, विजयमोहन सिंह, रचना प्रकाशन, इलाहाबाद
  5. हिन्दी उपन्यास : एक अन्तर्यात्रा, रामदरश मिश्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  6. दूसरी परम्परा की खोज, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

Web Links

  1. http://www।sahityakunj।net/LEKHAK/R/RajendraGautam/acharya_Hazari_upnayas_bodh।htm
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
  3. https://www.youtube.com/watch?v=rx6pEjXCBWo
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80