15 हिन्दी आलोचना में मैला आँचल का मूल्यांकन

प्रो. सत्यकाम प्रो. सत्यकाम and रीता दुबे

पाठ का प्रारूप

  1. उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. आलोचना और रचना का सम्बन्ध
  4. हिन्दी आलोचना में मैला आँचल का मूल्यांकन
  5. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • आलोचना की समझ विकसित कर पाएँगे।
  • रचना और आलोचना का सम्बन्ध समझ पाएँगे
  • हिन्दी साहित्य जगत में मैला आँचल  के मूल्यांकन का स्वरूप जान पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना

 

फणीश्‍वरनाथ रेणु के प्रसिद्ध उपन्यास मैला आँचल  का प्रकाशन सन् 1954 में हुआ। हिन्दी साहित्य के पाठकों ने इस कृति को यथेष्ट प्रतिष्ठा दी। इसका कथाक्षेत्र बिहार के पूर्णिया जिले का एक पिछड़ा हुआ गाँव मेरीगंज है। यही मेरीगंज, इस कथा का नायक भी है। इसकी नई आख्यान शैली, नई कथाभाषा और इसके नए कलेवर के कारण हिन्दी साहित्य जगत ने इस पर तरह-तरह की प्रतिक्रिया दीं; कुछ आलोचकों को यह हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि लगी, तो कुछ को इस उपन्यास में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा, जिसे आने वाले साहित्य जगत के लिए रेखांकित किया जा सके।

 

3. आलोचना और रचना का सम्बन्ध

 

‘हिन्दी आलोचना में मैला आँचल का स्थान निरूपण करने से पहले जान लेना महत्त्वपूर्ण है। साहित्य और आलोचना का आपसी सम्बन्ध  यह जानना भी आवश्यक है कि दोनों किस प्रकार एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं? साहित्य में वस्तुत: मनुष्य की सृजन क्षमता रचनात्मक और आलोचनात्मक आकार लेती है। रचनाकार रचना के माध्यम से नए-नए मूल्यों का सृजन करता है। आवश्कता हुई तो सार्थक रचनाशीलता पुरानी मूल्य व्यवस्था को तोड़कर नई मूल्य व्यवस्था  विकसित करती है;  नए मूल्यों के विकास में अपना योगदान देती है, और इस क्रम में रचना और आलोचना एक दूसरे को प्रभावित करती रहती है। आलोचना करते समय सबसे बड़ी चुनौती रचना की तरफ से आती है। कई बार तो सही मूल्यांकन, विश्‍लेषण पद्धति और व्यवस्थित विचारधारा के अभाव में रचना का उचित मूल्यांकन नहीं हो पाता है। जैसे चौरासी वैष्णवों की वार्ता में वल्लभ सम्प्रदाय के भक्तों का गुणगान है, लेकिन उसी में मीराबाई को बहुत भला-बुरा कहा गया है। रचनाओं की व्याख्या और मूल्यांकन में इतिहासविवेक की बहुत बड़ी भूमिका होती है। इतिहास विवेक से परम्परा बोध प्राप्‍त होता है, और यही इतिहासविवेक रचना की व्याख्या में भी सहायक होता है। हर आलोचक अपने इतिहासविवेक से रचना के सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषिक सन्दर्भ का पुननिर्माण करके रचना की व्याख्या करता है। हर समय की अपनी क्षमता से बेहतर रचनाओं के आगमन के द्वार खोलती है और पाठकों के साहित्यविवेक और उनकी रचनाशीलता को विकसित करने का काम भी करती है। सार्थक आलोचना रचना को जीवन देती है,उनमें नया अर्थ भरती है। विजयदेव नारायण साही की जायसी और मुक्तिबोध की कृति कामायनी एक पुनर्विचार  इसी नए अर्थ की ओर इशारा करती है।

 

फणीश्‍वरनाथ रेणु ने मैला आँचल  के सृजन स्रोत की तरफ इशारा करते हुए एक साक्षात्कार में कहा था कि “जब कोई किसी पार्टी का सदस्य हो, तो उसके अनुभव और विचार भी उस पार्टी के होंगे। किसान मजदूरों में काम करने से मुझे कम फायदे नहीं, बल्कि सच पूछिए तो राजनीति ने मुझे बहुत दिया। अपने जिले के गाँव-गाँव घूमा, लोगों से मिला, उनके सुख दुःख से परिचित हुआ, चन्दे वसूले। अपनी सक्रियता के कारण साथियों के साथ गाँवों में रात के वक्त भी डेरा डालना पड़ता…रात में दूर से कभी ढोलक-झाँझ पर नाचगाने का स्वर-लहरी मँडराती आती और मैं अपने साथियों को सोते छोड़ वहाँ चल देता। कभी ‘विदेसिया’, कहीं ‘जालिम सिंह सिपहिया’ और किसी गाँव में ननदी भउजिया के नाच गान, मैं नाच देखने से ज्यादा नाच देखने वालों को देखकर अचरज से मुग्ध हो जाता।”

 

4. हिन्दी आलोचना में मैला आँचल का मूल्यांकन

 

मैला आँचल के प्रकाशन के बाद दो महत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। पहली यह की रेणु पर मानहानि का मुकदमा दायर किया गया और दूसरा उनके उपन्यास मैला आँचल को सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ढोढ़ाई चरितमानस  की नक़ल माना गया। एक महोदय ने तो इस सन्दर्भ में भादुड़ी जी से पत्राचार भी किया। भादुड़ी ने उनके प्रश्‍न का जवाब भी दिया और बताया की उनकी पुस्तक की विषयवस्तु सन् 1905 से 1945 का समाज है, जबकि रेणु की पुस्तक का विषय है सन् 1946 के बाद की सामाजिक स्थिति है। अन्यत्र भी एक पत्राचार में उन्होंने अपना वक्तव्य दिया है कि- “आपके पत्र के लिए धन्यवाद, मैं समझता हूँ आप में से किसी ने भी मेरी पुस्तक ढोढ़ाई चरितमानस नहीं पढ़ी है। सन् 1905 से 1945 तक की तुलना से एक पिछड़े हुए वर्ग में सामाजिक और राजनितिक जागृति को इस उपन्यास में अंकित करने का प्रयत्न किया गया है। जबकि मैला आँचल  में सन् 1945 के बाद की घटनाओं के बारे में लिखा गया है। दोनों की कथावस्तु भिन्‍न है। दोनों की कथ्य गाथा अलग-अलग है। मैला आँचल  एक मौलिक कृति है और इसके लेखक पर चोरी का आरोप लगाना नितान्त अन्यायपूर्ण होगा। परमानन्द श्रीवास्तव ने इन दोनों उपन्यासों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए लिखा कि “ढोढ़ाई चरित मानस की बुनावट एक धार्मिक रूपक की तरह है। ढोढ़ाई नगण्य होकर भी नायकत्व प्राप्‍त करता है। मैला आँचल में नायक की अवधारणा का ही निषेध है। इसको राष्ट्रीय रूपक की तरह पढ़ा जाए तो कुछ सूत्र मिलकर एक अर्थलय प्राप्‍त जरूर करते हैं, पर नायकत्व की अवधारणा को प्रायः खारिज करते हुए। आँचलिक जीवन का रागरस, मानवीय स्वभाव की गुणवत्ता और क्षुद्रता दोनों कृतियों में मौजूद है। स्‍त्री-पुरुष सम्बन्धों की बनावट में भी थोड़ी बहुत समानता है। गीत, कथाएँ नाटकीय युक्तियाँ कमोबेश एक जैसी है। मैला आँचल  में बालदेव को लगता है कि लक्ष्मी के शरीर से बीजक की सी गन्ध निकलती है। उधर ढ़ोंढाई रमिया के बारे में सोचता है की वह इन्द्रासन की परी-सी है- काँची कराची की तरह लचक है उसकी देह में। कथाभाषा की दृष्टि से भी ऊपरी समानताएँ तत्काल दिखाई देती हैं, पर फणीश्‍वरनाथ रेणु का कथाशिल्प और भाषाई विन्यास अत्यन्त विकसित कला के रूप में कृति को कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण बना जाता है।” विद्वानों ने मैला आँचल पर तरह-तरह से आक्षेप लगाए। देवराज उपाध्याय ने लिखा कि- “आँचलिक उपन्यासों में स्थानीय बोलियों के शब्दों के प्रयोग में इस बात पर ध्यान रखना चाहिए की उपन्यास की रचना पात्रों के आन्तरिक जीवन की झाँकी देने के लिए होती है, बोलियों की विशेषताओं के प्रकटीकरण के लिए नहीं शब्दों के अशुद्ध विवरण दिए जाएँ, वाक्य विन्यास को विकृत किया जाए…भला यह भी कोई बात है कि नातिलघु उपन्यास के चतुरशताधिक पृष्ठों को हम पढ़ जाएँ और उसमें एक भी गम्भीर तात्त्विक विवेचन न मिले?…हमें मान लेना चाहिए की मैला आँचल में ज्ञान गरिमा की कमी है और जरा से वायु के झोके के चलते ही अंचल उड़-उड़ जाता है और शरीर निरावृत हो जाता है… इस परिस्थिति को आप ही कहिए, आप भला पसन्द करेगें ?”

 

हिन्दी साहित्यजगत में रामविलास शर्मा अत्यन्त महत्वपूर्ण आलोचक हैं। ‘प्रेमचन्द की परम्परा और आँचलिकता’ नामक अपने लेख में उन्होंने रेणु के उपन्यास मैला आँचल के कुछ अंशों की खुलकर तारीफ की है, पर सम्पूर्णता में उनकी आलोचकीय कसौटी से कमजोर उपन्यास माना गया है। उनकी वर्णनपद्धति और चित्रणपद्धति पर प्रश्‍नचिन्ह लगाते हुए, उसे यथार्थवादी मानने के बजाय प्रकृतवाद के निकट मानते हैं और कहाँ किस प्रसंग का कितना और किस तरह का वर्णन करना चाहिए, रेणु में इस विवेक की भी कमी पाते हैं। उन्होंने यहाँ तक मूल्य निर्णय दिया कि इस उपन्यास में उपन्यासकार की आस्था जनता और उसके राजनातिक कार्यवाही में नहीं है। वे लिखते हैं कि आँचलिकता के नाम पर जो कुछ लिखा जाए वह सभी सच नहीं होता। जनता के अन्धविश्‍वासों को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया है, जमीन्दार के अत्याचारों को कम करके पेश किया गया है, राजनीतिक पार्टियों के दोषों को अतिरंजित और गुण्डों को नजरअन्दाज किया गया है। उपन्यास का पहला हिस्सा आजादी मिलने से पहले का है। तब तक सोशलिस्ट कांग्रेस में ही थे। लेकिन उपन्यास में उनका चित्रण इस तरह किया गया है, मानो कांग्रेस से उनका कोई सम्बन्ध न हो…।

 

लक्ष्मीनारायण भारतीय ने अपने लेख मैला आँचल -एक दृष्टिकोण में लेखक के उसके रास्ते से भटक जाने की शिकायत की है और मैला आँचल की जो कमियाँ उन्होंने गिनाईं, है उसे साहित्य में बढ़ रही प्रवृत्तियों की तरह ही माना है वे लिखते हैं- “लेकिन उपन्यास पढ़कर समाप्‍त करने के बाद क्या असर रह जाता है? कोई तीव्र रसानुभूति असर छोड़ नहीं जाती। पात्रों को जिस बदतर स्थिति में लाकर पटक दिया जाता है, सारा वातावरण जैसा बना दिया जाता है, लगता है यदि लेखक ने अपनी यही शक्ति, काश पात्रों की स्वभाविक एवं मानवोचित भावनाओं को रंगने में लगाईं होती, तो न सिर्फ रसोत्पादाकता की अनुभूति का परिपाक होता…नि:सन्देह लेखक में लिखने की शक्ति एवं कला है, लेकिन रास्ता उसका चूक गया है। यथार्थवादी बनने के मायाजाल में वह ऐसा उलझ गया है कि हर पात्र की निम्‍न भावनाओं को उत्तान रूप दिए बिना वह चित्र सजीव एवं यथार्थ हो ही नहीं सकता, ऐसा उसने मान लिया है…पाठक सोचता है जो पात्र नया आता है, क्या उसका दूसरे के साथ अनुचित सम्बन्ध तो आगे जाकर लेखक न दिखाएगा ..ऐसी आशंका होने लगती है।”

 

आगे वे अपने मैला आँचल और उसका मूल्य मापन  नामक एक लेख में लिखते हैं कि “साहित्य में अभिव्यक्ति को संयम और विवेक की लगाम न रहे तो वह सम्यक नहीं रह पाता है। साहित्य में तो तात्पर्य स्पष्टता भी कलापक्ष को हानि पहुँचाने वाली मानी गई है। तब इस तरह खुला स्पष्ट वर्णन सिवा उत्तानता के और कौन-सी अवस्था ला सकता है…पूरा उपन्यास शब्दकोष की मदद से पढने का अच्छा सिलसिला रेणु ने शुरू कर दिया है…।”

 

डॉ. इन्दू प्रकाश की आपत्ति इस बात पर है की मठ और मन्दिर में होने वाले जिस यौनाचार का चित्रण रेणु ने किया है वह तर्कसंगत नहीं हो पाया जाता है।  रेणु ने उसका वर्णन बढ़ा-चढ़ा कर किया है। उनकी मान्यता है की मठों में चोरी छुपे कभी-कभी व्यभिचार तो है, परन्तु वे नियम नहीं अपवाद है। वे लिखते है कि “कोई भी ग्रामीण साधु के अनैतिक व्यापार को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं, ऐसी स्थिति में आश्‍चर्य इस बात पर होता है की गाँव के लोग किस प्रकार पंचायत द्वारा रामपियारी को रखैल रूप में मठ में रहने की अनुमति दे देते हैं? मठ कोई साधारण पूजा स्थल नहीं है।  उसका महन्त मठ से संलग्‍न नौ सौ बीघा जमीन का मालिक है। ऐसे व्यक्ति के भोग-विलास हेतु कोई भी ग्रामीण समाज किसी एक टोले की किसी एक जाति की औरत को मठ में नहीं रहने देगा। लेखक ने धार्मिक व्यभिचार एवं भ्रष्टाचार की टाइपोलाँजी को मनमाना विस्तार दे दिया है, जो उपन्यास के एक आवश्यक परिप्रेक्ष्य के रूप में महत्त्वपूर्ण भले हो जाए परन्तु यथार्थ की दृष्टि से वह कमजोर है।”

 

रचना और आलोचना के सन्दर्भ में एक बात और भी महत्त्वपूर्ण है; वह यह कि रचना का सामाजिक सच, रचना या कृति के ऊपर तैरने वाली चीज नहीं होती। वह रचना में गहरे तौर पर अनुस्यूत रहती है और आलोचक का काम उस गहराई तक पहुँचना होता है। लेकिन, कई बार ऐसा होता है कि आलोचना स्वयं उस गहराई तक नहीं पहुँच पाती। वह रचनाकार के आलोचनात्मक संघर्ष और सत्य को टटोल नहीं पाती है। ऐसे में वह पाठक को सिर्फ भ्रमित करती है। इस पूरे प्रकरण का उद्देश्य यहाँ यह है कि मैला आँचल का मूल्यांकन करते वक्त कुछ आलोचक निश्‍चय ही भ्रमित होते रहे, पर बहुतायत उन लोगों की है जिन्होंने रचना के मूल्य को सही तरीके निश्‍चय ही और सही सन्दर्भ में रेखांकित किया।

 

नलिन विलोचनन शर्मा ने इसकी गिनती श्रेष्ठ उपन्यासों में की। उनका तो यहाँ तक कहना था कि मैं बिना किसी दुविधा के किसी भी एक उपन्यास को हटाकर इसके लिए दस उपन्यासों में इसकी जगह बना सकता हूँ। उनका कहना था कि हिन्दी उपन्यास साहित्य में यदि किसी प्रकार की रुकावट थी तो वह इस कृति से दूर हो गई है। जो मैला आँचल की भाषा पर तरह-तरह के आक्षेप लगाते रहे हैं उनका आक्षेपों का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि- “मैला आँचल की भाषा से हिन्दी समृद्ध हुई है, रेणु ने कुशलता से ऐसी शैली का प्रयोग किया है, जिसमें आँचलिक भाषा-तत्व परिनिष्ठित भाषा में घुल मिल जाते हैं, कोई कारण नहीं था कि वे अपनी शैली के सम्बन्ध में आत्मविश्‍वास का परिचय- सा देते हुए प्रत्येक अध्याय के बाद पाद-टिप्पणियों के रूप में, प्रयुक्त आँचलिक शब्दों के परिनिष्ठित रूप भी प्रस्तुत करते।” आलोचकों ने रेणु के इस नवीन शिल्प का खुलकर स्वागत भी किया। नेमिचन्द्र जैन मानते हैं कि भारतीय देहात के मर्म का इतना सरस और भावप्रवण चित्रण हिन्दी में संभवतः पहले कभी नहीं हुआ, रेणु के मेरीगंज वर्णन में एक आत्मीयता और कवित्वपूर्ण दृष्टि नजर आती है। इसलिए वे लिखते हैं- “वह मानव आत्मा का शिल्पी इसलिए ही होता है की वह जीवन के काव्य का उसकी सरसता और सौन्दर्य का विकृति और विसंगति के पंक के बीच से झांकते-मुस्कराते कमल का द्रष्टा होता है। मैं जीवन के इस सौरभ की पहचान को ही कवित्वपूर्ण दृष्टि कहता हूँ, मैला आँचल का लेखक इस सौरभ से न केवल स्वयं उन्मत्त हुआ है, वह औरों को भी उससे उन्मत्त करने में सफल हो सका है…मैला आँचल के लेखक को जीवन की सुन्दरता से, बहुमुखी मनोरमता से प्यार है, उसकी भव्यता और महत्ता से प्यार है। इसी से उसके किसी भी पात्र के चित्रण में आवश्यक सिद्धान्तगत विद्वेष नहीं, दुराग्रहपूर्ण पक्षधरता नहीं है…।” जिन आलोचकों ने फणीश्‍वरनाथ रेणु के ऊपर अश्‍लीलता थोपने वाले आलोचकों को नेमिचन्द्र जैन के कथन पर गौर करना चाहिए कि वे कहते हैं- “उपन्यास भर में ऐसे स्थल बहुत ही कम हैं जहाँ अतिनाटकीयता अथवा अति भावुकता लेखक के विवेक पर हावी हो, दूसरी ओर कहीं भी किसी ऊपर से थोपी हुई, दुराग्रहपूर्ण नैतिकता का सहारा लेखक नहीं लेता। ऐसी नैतिकता के सहारे कभी भी जीवन को संस्कार देने वाले साहित्य का निर्माण नहीं होता। यद्यपि साहित्य को जीवन की प्रगति का अस्‍त्र मानने वाले साहित्यकार के लिए यही सबसे बड़ा खतरा है की वह ऐसे ही किसी नैतिक चौखटे को प्रगति का पर्यायवाची मान ले और उसमें ही जीवन्तइन्सानों को ठूँस-ठूँसकर बिठाने का प्रयत्न करता रह जाए।”

 

रमेश कुन्तल मेघ ने इस उपन्यास की अद्वितीय वास्तुशिल्प की तरफ इशारा करते हुए लिखा है कि-“इसमें उपन्यास का पारम्परिक तन्त्र तो है ही नहीं। इसकी स्थानान्तरण टेक्‍नोलॉजी, में सांस्कृतिक नृतत्वशास्‍त्र (कलचरल एनथ्रोपोलाजी), ग्रामीण समाजशास्‍त्र (रुरल सोशियोलाजी), समाजभाषिकी (सोशिय–लिंगविस्टिक), लोकयान (फोकलोर), संगीत–नृत्यलिपि (कोरियोग्राफी), जनपद का भूमानचित्र…इन सबने इसे घटना संवाद के तत्त्वों से क्षीण कर दिया है। इसमें अनेक छोटे-छोटे पात्रों का पूँजीभवन मानो स्वयं नायक ग्राम का विधान कर देता है। इस आँचलिक उपन्यास के विवरण इतिवृत्त, दोनों में देशकाल स्थानीय रंगत से बहुत आगे नई-नई तकनीकों का अनजाने में प्रयोग हुआ है- एक लोकत्त्व वेत्ता (फोकलोरिस्ट) की गीतकथा रेकार्डिंग, फोटोग्राफर के चलचित्रों के डिजिटल तथा ऑडियो-रेकार्डर की ध्वनियों की अनुलिपि एवं कमेन्ट्री आदि। यह सारा प्रक्रम तृणमूल तक जाकर संक्षेत्र-प्रकार्य (फील्डवर्क) से अनुप्राणित है। यह आलेखन-आरेखन-ध्वनिग्रामांकन विश्‍वसनीय ही नहीं, तथ्यात्मक भी है। इसके निराधार अथवा अयथार्थ कल्पना होने की वजह नहीं मिलती। अतएव खुद प्रतिबद्ध रेणु ने उपन्यास का घिसा-पिटा ढाँचा नामंज़ूर कर दिया है। इसलिए मैला आँचल का वास्तुशिल्प अद्वितीय बना रहा।

 

शिवदान सिंह चौहान मैला आँचल को आजादी के बाद के भारतीय जीवन का सबसे कलात्मक और यथार्थवादी महाकाव्य माना है। उनके अनुसार “सारे पात्र इतने जीवन्त हैं कि लगता है कि रेणु ने उपन्यास न रचकर चतुर्दिक से सिनेमा  के दर्जनों कैमरे मेरीगंज पर लगा दिए हो, जिसमें एक साथ ही गाँव का पूरे परिदृश्य दिख रहा हो। चूँकि सभी पात्र सजीव हैं, इसलिए अविस्मरणीय भी हैं…बढ़ते हुए अन्याय, भ्रष्टाचार और जनविद्रोह के विरुद्ध बामनदास की शहादत और कालीचरन का जागरूक संघर्ष तो इतनी प्रतीकात्मक घटनाएँ हैं कि वे स्वात्नत्योत्तर राजनीति को मूर्त्त चित्रों में परिभाषित कर देती है।”

 

मार्कण्डेय ने उन मैला आँचल के शिल्प की सारहना करते हुए इस बात को रेखांकित किया है कि रेणु ने जिस शिल्प की रचना की उसे उन्होंने परती परिकथा में भी दुहराने की कोशिश की, पर वे असफल रहे। वैश्‍व‍िक स्तर पर उपन्यास मृत्यु के कगार पर खड़े हैं, विकसित देशों का भी यही हाल है ऐसे में चेमीन, पद्मा नदीर माँझी की कड़ी में मार्कण्डेय को रेणु का मैला आँचल दिखाई देता है जिसमें भारत के बहुमुखी समाज की झलक दिखाती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद के हिन्दी साहित्य में रेणु का मैला आँचल  एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है, जिसके आलोक में हिन्दी उपन्यास की लोकोन्मुखी परम्परा के क्षितिज को और भी विस्तार मिला है। भारतीय परिवेश को देखते हुए नई सम्भावनाओं के द्वार खुले हैं। रेणु शायद हिन्दी के ऐसे अकेले कथाकार हैं, जिनके जीवन के सारे आत्मिक अनुभव उनकी रचनाओं में संग्रहित है। वे उपन्यास को उपन्यास मानते हुए भी जीवन-सत्यों की कथा मानते थे और अनेक पात्रों की पहचान इतनी सहज हो गई थी कि पूर्णिया अंचल के अनेक लोग उनके उपन्यासों में अपना चेहरा पहचानने लगे थे।”  स्वाधीनता आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में नित्यानंद तिवारी मैला आँचल की विशेषता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं कि-‘मैला आँचल की कुछ महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, जिन पर अब तक विचार नहीं हुआ है। उसकी ठेठ देशीयता (आँचलिकता) विश्‍वनागरिकतावादी विचारधारा के सामने चुनौती की तरह खड़ी है। वह चाहे जितनी पिछड़ी हुई हो, उसकी जड़ें हैं, परम्परा है, सांस्कृतिक समृद्धि है और इन्हीं कारणों से वह सजीव तथा भिन्‍न है। यह भिन्‍नता ठोस मानवीय वास्तविकता है।”

 

5. निष्कर्ष

 

उपर्युक्त विश्‍लेषण के सन्दर्भ में हम देखते हैं कि एक स्वस्थ विचारधारा के अभाव में हम रचना का गलत मूल्यांकन कर बैठते हैं, लेकिन हिन्दी साहित्य जगत में बहुत सारे ऐसे आलोचक भी हैं  जो एक नवीन प्रयास देखकर उसमे कमियाँ ढूढने के बजाय उसकी विशेषताओं को समझने की कोशिश करते हैं, और उसके महत्त्वपूर्ण तत्वों को रेखांकित करते हैं। मैला आँचल  के नए कलेवर को लेकर इस पर कई तरह के आक्षेप लगाए गए। लेकिन नलिन विलोचन शर्मा, मार्कण्डेय, नेमिचन्द्रजैन, शिवदान सिंह चौहान जैसे अनेक आलोचकों ने उसकी भाषा कथ्य और शिल्प की सरंचना में छिपी उसकी प्रगतिशीलता को पहचाना। हिन्दी आलोचना के सामने एक नए प्रतिमान को स्थापित किया, जिससे हिन्दी आलोचना समृद्ध हुई।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. बीसवीं सदी का हिन्दी साहित्य, (सम्पादक) विश्वनाथप्रसाद तिवारी,भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  2. आधुनिक हिन्दी उपन्यास-2, नामवर सिंह (सम्पादक) : राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. हिन्दी उपन्यास की संरचना, गोपाल राय , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. हिन्दी उपन्यास का विकास, मधुरेश, सुमित प्रकाशन, इलाहबाद

 

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