12 मैला आँचल में लोक जीवन

प्रो. सत्यकाम प्रो. सत्यकाम and रीता दुबे

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. मैला आँचल में अभिव्यक्त लोक जीवन का स्वरूप
  4. जाति प्रथा
  5. धार्मिक शोषण
  6. लोक गीत, लोक कथा, लोक नृत्य, लोक पर्व, लोक विश्‍वास और लोक भाषा
  7. निष्कर्ष

 

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • लोक-जीवन क्या है इसके बारे में जान पाएँगे।
  • मैला आँचल में अभिव्यक्त लोक जीवन का स्वरूप को समझ पाएँगे।
  • लोक गीतों, लोक कथाओं और लोक पर्वों का प्रयोग कर उपन्यास को एक नई कलात्मक ऊँचाई प्रदान  करने कारेणु का कौशल  जान पाएँगे ।

 

2. प्रस्तावना

 

अंचल विशेष की लोक संस्कृति का चित्रण आँचलिक उपन्यास की विशेषता है। लोक संस्कृति के विविध आयाम– लोककथा, लोक गीत, लोक नृत्य, पर्व, त्योहार, लोक विश्‍वास आदि ही अंचल के जनमानस को यथार्थ रूप में साकार करते हैं। ये समस्त तत्त्व केवल लोक जीवन की पहचान नहीं ही  उसकी आत्मा है। हमारे समाज में लोक- जीवन के जितने रंग हो सकते हैं उन सारे रंगों के साथ मैला आँचल हमारे सामने उपस्थित है। रेणु के ही शब्दों में कहें तो– “इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चन्दन भी, सुन्दरता भी है, कुरूपता भी; मै किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”

 

3. मैला आँचल में अभिव्यक्त लोक जीवन का स्वरूप

 

पूर्णिया के एक छोटे से गाँव मेरीगंज को अपने कथानक का आधार बनाने वाले फणीश्‍वरनाथ रेणु ने इसे लोक-गीतों, लोक-कथाओं और लोक-उत्सवों से सजाया है। पर इस क्रम में वहाँ की गरीबी, भूखमरी, शोषण, जहालत और अन्धविश्‍वास से कहीं मुख नहीं मोड़ा। रेणु ने अपनी रचना का आधार आजादी के दो एक वर्ष पूर्व से लेकर लगभग दो वर्ष बाद तक के समय को बनाया है। इस समय भारत के एक अति पिछड़े गाँव की सचाई को रेणु ने  परत दर परत खोल कर हमारे सामने रख दिया है। जाति-प्रथा और गरीबों का शोषण तो  गाँव में  आजादी के इतने वर्षों बाद आज भी ज्यों का त्यों बरकरार है, फिर आजादी के समय मेरीगंज इससे अछूता कैसे रहता? आर्थिक शोषण ग्रामीण जीवन की एक बड़ी सचाई है। मेरीगंज के तहसीलदार विश्‍वनाथ प्रासाद ही किसानों के सबसे बड़े शोषक हैं। उन्होंने राजा पारबंगा की कृपा से और तिकड़म से एक हजार बीघे जमीन पर कब्ज़ा कर लिया।  इतने से ही उन्हें सन्तोष नहीं हुआ, किसानो को आनाज उधार देकर उन्हें  बन्धुआ मजदूर बना लिया। किसान-मजदूर सिर्फ विश्‍वनाथ प्रसाद के ही शोषण का शिकार नहीं होते, आर्थिक रूप से समृद्ध रामकिरपाल सिंह और खेलावन यादव जैसे लोग भी अपनी समृद्धि इन्हीं मजदूर-किसानों के शोषण से बढाते हैं। विश्‍वनाथ प्रसाद गाँव में रहने वाले किसानों को बहला-फुसलाकर, उन्हें आपस में लड़ाकर कानूनी दाँव पेंच में फँसा कर पूरे गाँव की जमीन हड़प लेते हैं। संथालों की भी जमीन हड़पकर, उन पर तरह-तरह के अत्याचार करते है। वे खड़े होकर जहाँ भी नजर दौडा़तें हैं, चारों तरफ उन्हें अपनी ही जमीन दिखाई देती है। इसके विपरीत मेरीगंज के  तन्त्रिमा और गहलोत टोली के निवासियों ने  पूरी जिन्दगी में पूरी जलेबी नहीं खाई है। मजदूरों को सवा रुपए  मजदूरी  मिलती है, जिससे  एक आदमी का भी  पेट नहीं भरता। पेट भरने के लिए जब दाना न हो, तो तन ढकने के लिए कपडे की कल्पना करना और कठिन है। कपडे़ के बिना सारे गाँव के लोग फटेहाल हैं। औरतें आँगन में काम करते समय एक कपड़ा कमर में लपेट कर काम चलाती हैं और दस-बारह वर्ष तक के बच्‍चे नंगे ही घूमते रहते हैं। किसानों की आर्थिक बदहाली का बयान करते हुए रेणु लिखते हैं– “साल भर की कमाई का लेखा-जोखा खम्हार में ही होता है। दो महीने की कटनी, एक महीना मड़नी, फिर साल भर की खटनी दवनी मड़नी करके जमा करो, साल भर के कर्ज का हिसाब चुकाओ; पाई रह जाए तो फिर सादे कागज़ पर अँगूठे का टीप लगाओ…खम्हार में बैलों के झुण्ड से दवनी-मड़नी होती है। बैलों के मुँह में जाली का जाब लगा दिया जाता है”। गरीब और बेजमीन लोगों की हालत भी खम्हार के बैलों जैसी है मुँह में जाली का जाब, यह जाब किसानों की बेबसी और लाचारी का प्रतीक है, जिसे भोगने के लिए वे अभिशप्‍त हैं।

 

4. जाति-प्रथा

 

गाँव की दिनचर्या में जाति-प्रथा का बहुत ही महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। उनका सारा कार्य जाति से बँधा हुआ होता है। जाति और धर्म उनके जीवन के नियामक तत्त्व हैं। रेणु लिखते हैं कि मेरीगंज में बारहों बरन के लोग रहते हैं।  हिन्दुस्तान के अन्य गावों की तरह  ही यह विभिन्‍न जातियों में बँटा हुआ है। यहाँ तीन प्रमुख दल है – कायस्थ, राजपूत और यादव। कायस्थ टोली को मालिक टोली के नाम से भी पुकारा जाता है। इसके मुखिया विश्‍वनाथ प्रसाद हैं। राजपूत टोली को लोग कैथ टोली कहलाते हैं। राजपूत टोली के मुखिया ठाकुर रामकिरपाल सिंह हैं, जिन्हें कायस्थ टोली के लोग सिपहिया टोली कहते हैं। यादव टोली के मुखिया खेलावन यादव हैं। ब्राह्मण टोली के लोग मेरीगंज में अधिक शक्तिशाली नहीं हैं, यह कायस्थों और राजपूतों की लड़ाई में तीसरी शक्ति का काम करते हैं। इसके अतिरिक्त इस गाँव में अन्य टोले हैं, जो उनकी जातियों के नाम पर ही हैं– तन्त्रिमा टोली, तन्त्रिमा क्षत्रिय टोली, गहलोत क्षत्रिय टोली, कुर्म क्षत्रिय टोली, अमात्य-ब्राहमण टोली, कुशवाहा-क्षत्रिय टोली, रैदास टोली, दुसाध टोली आदि और इनके अतिरिक्त आदिवासी सन्थाल भी, जो इस गाँव के बाहर रहते हैं। जाति की सरंचना गाँव में इस प्रकार रची बसी है कि डॉ. प्रशान्त जब मेरीगंज आता है तो वह सोचता है कि  “जीवन में बहुत कम  लोगों ने प्रशान्त से उसकी जाति के बारे में पूछा है लेकिन यहाँ तो हर आदमी जाति पूछता है, जाति बहुत बड़ी चीज है। जाति-पाती नहीं मानने वाले की भी जाति होती है। सिर्फ हिन्दू कहने से पिण्ड नहीं छूट सकता। ब्राह्मण है?…कौन ब्राह्मण?…गोत्र क्या है?…मूल कौन है?…शहर में कोई किसी से जाति नहीं पूछता है” प्रशान्त ठीक ही कहता कि ‘गाँव में तो बिना जाति के आपका पानी नहीं चल सकता है’ क्योंकि जाति लोक-जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह उनके जीवन में रचा बसा है। इतना ही नहीं बावनदास जैसे लोग सोचने लग जाते हैं कि “वह अब अपने गाँव में रहेगा, अपने समाज में अपनी जाति में रहेगा… जाति बहुत बड़ी चीज है जाति की बात ऐसी है कि सभी बड़े-बड़े लीडर अपनी जाति की पार्टी में हैं।”… इसलिए तो बावनदास कहता है कि लोगों को चाहिए कि अपनी-अपनी टोपी पर लिखवा ले– भूमिहार, राजपूत, कायस्थ, यादव, और हरिजन।

 

5. धार्मिक शोषण

 

धर्म के नाम पर होने वाले शोषण भी उसी जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। कहने को तो मठ एक पवित्र स्थल, होता है। धर्माधिकारी, रामदास, लरसिंघदास  जैसे लोग किस तरह धर्म का इस्तेमाल करतें हैं, उनके अन्दर कितने छल कपट हैं कितनी राजनीति है, इन सब का दर्शन मेरीगंज के मठ के वर्णन में मिल जाता है। मेरीगंज के कबीर मठ के जिस महन्त सेवादास ने वकील को यह विश्‍वास दिलाया था कि लक्ष्मी हमारी बेटी जैसी है। वही लक्ष्मी को  अपनी दासी बना लेता है। “कहाँ वह बच्‍ची कहाँ यह पचास बरस का बुड्ढा गिद्ध। रोज रात में लक्ष्मी रोती थी ऐसा रोना कि जिसे सुनकर पत्थर भी पिघल जाए। लक्ष्मी उससे घृणा करती है, अन्धा आदमी जब पकड़ता है तो मानों उसके हाथों में मगरमच्छ का बल आ जाता है। अन्धे की पकड़ लाख जतन करो मुट्ठी टस से मस्स नहीं होगी! हाथ है या लोहार की सँडसी। दन्तहीन मुख का दुर्गन्ध। …लार।” आचारज गुरु के साथ मेरीगंज मठ पर आने वाला नागा साधु नकली लम्पट और चरित्रहीन है। वह केवल पाँच भर गाँजे की रिश्‍वत पर लरसिंघदास जैसे चरित्रहीन साधु को महन्ती का टीका दिलाने के लिए तैयार हो जाता है। इतना ही नहीं, वह लक्ष्मी को अश्‍लील से अश्‍लील गालियाँ देता है। रात के अँधेरे का फायदा उठाकर लक्ष्मी के कमरे में प्रवेश करने की चेष्टा करता है। इस धर्मस्थल पर अधार्मिक आचरण, अनैतिक कृत्य व दुराचार का बोलबाला है। वैसा ही चाण्डाल है रामदास। धर्मभ्रष्ट हो गया है, बगुला भगत है। ब्रह्मचारी नहीं व्यभिचारी है। जनमत की दृष्टि में अब वह मठ,  लालबाग मेला का मीना बाजार हो गया है। जहाँ दस-दस कोस का लुच्‍चा-लफंगा सब आकर जमा होता है, यह है अंचल विशेष का धार्मिक पवित्र स्थल। एक तरफ तो मठ में लक्ष्मी का शोषण हो रहा है,  दूसरी तरफ फुलिया, रामपियरिया, फुलिया की माँ जैसी स्‍त्री पात्र भी है जो मुक्त काम सम्बन्ध में विश्‍वास करती हैं। फुलिया की माँ का तेतरा कलरू छीतन आदि से अवैध सम्बन्ध है। और तो और, वह यह भी जानती है कि उसकी बेटियों के भी अन्य लोगों से अवैध सम्बन्ध है। तो भी उपहार की लालच में वह इसकों बुरा नहीं मानती है। फुलिया का खलासी और सहदेव मिसिर दोनों के साथ अवैध सम्बन्ध है। उसकी बहन रामपियरिया भी महन्त रामदास से फँसी हुई है। अवैध सम्बन्ध ग्रामीण जीवन का एक यथार्थ है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।

 

6. लोक गीत, लोक कथा, लोक नृत्य, लोक पर्व, लोक विश्‍वास और लोक भाषा

 

मैला आँचल का लोक, परम्परा के प्रवाह में जीवित रहने वाला लोक है। अंचल विशेष के लोक-जीवन में सांसारिक बुद्धि का प्राबल्य अधिक है। इसलिए तो प्रशान्त ममता को पत्र में लिखता है– “गाँव के लोग बड़े सीधे दिखते हैं सीधे का अर्थ यदि अपढ़, अज्ञानी और अन्धविश्‍वासी हो तो वास्तव में वे सीधे हैं। जहाँ तक सांसारिक बुद्धि का सवाल है, वे हमारे और तुम्हारे जैसे लोगों को दिन में पाँच बार ठग लेंगे। और तारीफ़ यह है कि तुम ठगी जाकर भी उनकी सरलता पर मुग्ध होने के लिए मजबूर हो जाओगी।” ऐसे अभावग्रस्त ग्रामीण अंचल में लोगों की शिक्षा को लेकर क्या प्रतिक्रिया होती है इसका बहुत ही प्रामाणिक चित्रण रेणु ने किया है– “हरगौरिया स्कूल में चार अक्षर पढ़ क्या लिया है, लाट साहब हो गया है। अरे पढ़ता क्या है? दाढ़ी मोछ हो गया है, और अपना सकलदीप से दो किलास नीचे पढता है। एकदम फेलियर है। इस साल भी फेल हो गया है।” उनकी यह धारणा भी बनी हुई है कि पढ़ने-लिखने से कुछ हासिल नहीं होगा, कोई लाभ नहीं हैं। इस लिए तो सारे मेरीगंज में दस आदमी पढ़े-लिखे हैं पढ़े-लिखे का मतलब हुआ अपना दस्तखत करने से लेकर तहसीलदारी करने तक की पढ़ाई। नए पढ़ने वालों की संख्या पन्द्रह…इसका कारण यह है की गाँव में बच्‍चे पढ़ने जाएँगे तो गाय भैंस की रखवाली कौन करेगा। डॉक्टर लोग ही पूरब मुलुक कामरू कमिच्छा हासाम से काला बुखार वालों का लहू शीशी में बन्द करके लाए थे और फलस्वरूप आजकल घर-घर काला बुखार फ़ैल गया है। और तो और, वह यह भी कहता है कि बिलाती दवा में गाय का खून मिला रहता है। ऐसे अंचल विशेष में जहाँ बारहो बरन के लोग हों, लेकिन शिक्षित व्यक्तियों की संख्या एकदम शून्य हो, वहाँ सामाजिक रूप से बहुत प्रगतिशील लोग रहते हों इसकी कल्पना करना बेमानी है।

 

अन्धविश्‍वास तो ग्रामीण जीवन की संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जोतखी जी एक अनपढ़, ढोंगी और चालाक व्यक्ति हैं। अपनी जरूरतों के हिसाब से लोगों को डराते धमकाते रहते हैं। गाँव पर बुरे ग्रहों का फेर है, गाँव में चील कौवे उडे़ंगे। इतना ही नहीं उसे इस बात का अफ़सोस है कि ‘ग्वाले’, ‘दुसाध’, ‘भुइयाँ’, ‘कुर्मी’ आदि अपने को क्षत्रिय कहने लगे हैं, और जनेऊ पहनने लगे हैं। इन पापों के चलते गाँव पर विपत्ति का आना तय है। उसका विश्‍वास है कि– “डॉ. लोग ही रोग फैलाते हैं, सुई भोंककर देह में जहर दे देते हैं, आदमी हमेशा के लिए कमजोर हो जाता है, हैजा के समय कूपों में दवा डाल देते हैं, गाँव का गाँव हैजा से समाप्‍त हो जाता है। गाँव में दवा डालने का विरोध करते हैं। और हैजा की सुई लेने से इनकार कर देते हैं। फुलिया को गुप्‍त यौन-रोग हो जाता है उसकी सारी देह में फुन्सियाँ निकल आती हैं तो उस समय खलासी ओझा कहता है कि यह ‘बनरमुत्ता रोग’ है जो डॉ. प्रशान्त द्वारा पाले गए बन्दरों से पैदा हुए हैं। जिसके निदान के लिए हमें चक्‍कर पूजा करनी चाहिए। टोले को बाँध देना चाहिए। गाँव वालों के अन्धविश्‍वास का नग्‍न उदहारण तब देखने को मिलता है, जब वह गणेश की नानी को डाइन घोषित करते हैं और इन सब में जोतखी का बहुत बड़ा हाथ है। एक बार तो उसने पंचायत में पारबती की माँ को डायन होने के अपराध में मैला घोल के पिलाने का प्रस्ताव किया था। डॉ. प्रशान्त के यहाँ एक दिन करैत साँप निकलता है, तो लोग उसे गणेश कि नानी (डायन) का भेजा हुआ बताते हैं। गाँव में कोई भी अकाल मृत्यु हो, कोई भी दुर्घटना घटित हो, तो लोग इन सबके लिए गाँव वाले गणेश की नानी को ही जिम्मेदार समझते हैं। इसीलिए जब एक दिन हीरू का बच्‍चा मर जाता है, तो जोतखी उसे डायन की करामात बताता है और हीरू से कहता है कि वह गणेश की नानी (डायन) को मारकर अपना बच्‍चा वापस ले ले। हीरू भी उसकी बात मानता है और एक दिन आधी रात को डण्डे से पीट पीटकर गणेश की नानी को मार डालता है। जिस गणेश की नानी के सरल स्वभाव पर डॉ. प्रशान्त मुग्ध था, उसी गणेश की नानी को गाँव वालों के अन्धविश्‍वास की बलि चढ़ना पड़ता है।

 

अन्धविश्‍वासो के साथ-साथ किंवदन्तियों, लोक-कथाओं लोक-गीतों और लोक-नाट्यों की समृद्ध परम्परा भी मैला आँचल के लोक-जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। किंवदन्तियों की इन अफवाहों की लोक-जीवन में एक अलग ही पहचान होती है। कुछ लोग जमा हुए नहीं कि बस बातें बनाने लग जाते हैं और बात से बात निकलती रहती है। मार्टिन और मेरी की कथा, मेरीगंज के नामकरण की कथा, उसके हवेली की कथा, सन् 1942 के जनान्दोलन के समय इस गाँव की कथा… आदि ऐसी ही कथाएँ हैं। गाँव वालों का विश्‍वास है कि– “कोठी के जंगल में तो दिन भी सियार बोलता है। लोग उसे भुतहा जंगल कहते हैं… नन्दलाल एक बार ईंट लेने गए थे, ईंट को हाथ लगाते ही खत्म हो गया था। जंगल से एक प्रेतनी निकली और नन्दलाल को कोड़े से पीटने लगी। साँप के कोड़े से नन्दलाल वहीं ढेर हो गया। बगुले की तरह उजली प्रेतनी, इतने सारे प्रतिगामी तत्त्वों के साथ ही साथ गाँव कुछ सकारात्मक चीजों के साथ भी साँस लेता है। लोक-जीवन के रंग, पर्व, त्योहार, उसमे होने वाले उत्सव उसी के अंग हैं। हर प्रसंग के लिए एक लोक-गीत है, जो अपनी ही कहानी कहती है। मेरीगंज की कथा, कमली मैया की कथा, सुरंगा सदाब्रिज की कथा, इसके उदहारण है। यहाँ कोई भी कथा अलग से कथा कहने की लिए नहीं आई है, बल्कि वह उपन्यास के मूल कथ्य को आगे बढा़ने में सहायता ही करती है। सुरंगा सदाब्रिज की कथा के मध्य खलासी जी का गाँजा लाने का प्रयोजन, रमजू की स्‍त्री के लिए कंगन का उपहार, फुलिया के चुमौना का प्रयास, सहदेव मिसिर का हाल, इन सब का मिश्रण लोक-जीवन का ही अंग है। खलासी आज दिल खोल कर गा रहा है। उसे आज ऐसा लग रहा है कि वह खुद सदब्रिज है। फुलिया क्या करे? अन्दर ही अन्दर मन जलकर ख़ाक हो रहा है। आखिर वह बेचारा कब तक दौड़ेगा? यहाँ नहीं तो कहीं और ढूँढेगा। ‘याद जो आवे है प्यारी तोहरी सुरतिया से शाले करेजवा में तीर जी।’… खलासी का तीर खाया हुआ दिल तड़प रहा है। फुलिया क्या करे… सुरंगा सदाब्रिज की कहानी आगे बढ़ती जाती है और खलासी फुलिया उसमे एकमेक होने लग जाते हैं। दूसरी ओर कमली भौजिया के गीत में खो जाती है, गाड़ी हाँकते हुए गाड़ीवान ‘भऊजिया के गीत’ गाता है। खम्हार खुलने पर ‘बिदापत नृत्य-गीत’ का आयोजन किया जाता है। शाम को घूर के पास ‘लोरिक’ और ‘बिज्जो भान’ के गीत होते हैं। खेतों में गेहूँ काटते समय किसान ‘चैती’ गाते हैं, तो वर्षा न होने पर इन्द्र को रिझाने के लिए गाँव की औरतें ‘जट जटिन’ खेलती हैं और गीत गाती हैं। और फिर टर्र मेक टर्रर र मेंक झि झि चि चि चि क़िर क़िर सि किंटिर किंटिर कि टर्र र र “की ध्वनि सुनाई देने लगती है या गड़-गड़ करके बादल घुमड़ने लगते है। ‘जै इन्दर महराज बरसों’ के जयकारे लगने लगते हैं। पूरा गाँव खेतों के साथ जुड़े इस जीवनधर्मी उल्लास में मग्‍न हो जाता है।

 

सावन है सखी सबद सुहावन

             रिमझिम बरसात मेघ है।

जिनके पति परदेश चले गए हैं वे बिरहिनियाँ पुकार उठती हैं–

मास असाढ़ हो रामा पंच जनि चढ़िह

 

सन्थाली स्‍त्रियाँ इतनी पीड़ा अत्याचार और शोषण सहन करने के बावजूद अपने जीवन की उत्सवधर्मिता को भूलती नहीं हैं। माँदल और डिग्गा की ताल पर नाचने लगती हैं। प्रणय की कोमलता में जब प्रेयसी अपने प्रिय को याद करती हैं तो उसकी भाव-प्रवणता और मिलन की आंकाक्षा देखते ही बनती है। प्रेयसी को सोने जैसे रूप वाले अपने प्रिय की याद आ जाती है–

 

सोना रे रूप, रूपे रे रूप

सोना रे रूप लेका गाते जा मलार

 

जट-जटिन के लोक-गीत में एक जट अपनी पत्‍नी को खोजता हुआ जा रहा है और किस-किस प्रकार के सम्बोधनों से उसे सम्बोधित कर के ढूँढ़ रहा है। इस प्रसंग की रमणीयता पति-पत्‍नी के उस प्रणय में है, जिस पर उनका सम्बन्ध आधारित होता है, इसकी एक झाँकी द्रष्टव्य है–

 सुनरी हमर जटनियाँ हो बाबूजी

             पातरी बाँस के छौकनियाँ हो बाबूजी,

             गोरी हमार जटनियाँ हो बाबूजी

            चाननी रात के इंजोरिया हो बाबूजी

            नान्हीनान्ही दँतवा, पातर ठोरवा

             छटके जैसन बिजलिया।...।

 

लोक-गीतों लोक-रंगों और बीजक के अंशों के सहारे पूरे उपन्यास की कथा अपना विस्तार पाती है। अखाड़ों में बजने वाले ढोलों में भी एक ताल है वे भी कोई सन्देश देते हैं–

 

धागिडाँगी, धागिडाँगिधागिडाँगी, धागिडाँगी।

             कसकर पकड़ो

             चटाक चटधा ….चटाक चटधा

             उठा पटक देउठा पटक दे

             गिड़ गिड़ गिड़ धा, गिड़ धा गिड़ धा

             वाह वा, वाह वा, वाह बहादूर

             ढाक धिन्‍ना, तिरकिट धिन्‍ना

             दाँव काट बाहर हो जा

 

7. निष्कर्ष

 

लोक-जीवन के इन गीतों और नृत्यों और लोक-कथाओं में ग्रामीण जीवन का जीवन रस छिपा हुआ होता है। यही वह रस है, जिसके सहारे उनका जीवन-वृक्ष शोषण, गरीबी, जहालत के इतने थपेड़े सहने के बावजूद खडा़ रहता है और उत्साहपूर्वक जीवन का आनन्द लेता रहता है। रेणु इस बात से बखूबी परिचित थे कि गाँव में सिर्फ धूल और शूल नहीं है, फूल भी है, और अगर किसी अंचल विशेष के लोक-जीवन का जीवन्त व यथार्थ चित्रण करना है, तो उनके लोक-गीतों, लोक-भाषाओं के बिना, जो कि उनके जीवन का अभिन्‍न अंग है, उनके बिना  सम्भव नहीं है।

 

रेणु का अपने गाँव तथा अन्य गाँव के प्रति गहरा मोह था। ग्रामीण संस्कृति, लोक-गीत, संगीत, नृत्य, बोल-चाल, रहन-सहन आदि से उन्हें बेहद लगाव था। ग्रामीण जनता से वे घण्टों तक बड़ी आत्मीयता से बातें करते थे… मैथिली और भोजपुरी के पचासो लोक-गीत उन्हें याद थे। बिल्कुल ही आकर्षक ढंग से सारंगा-सदब्रिज, लोरिक आदि लम्बी लोक-कथाओं को सुनाने में परिणीत थे।

 

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. हिन्दी उपन्यास एक अन्त यात्रा, रामदरश मिश्र , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  2.  अधूरे साक्षात्कार,नेमिचन्द्र जैन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. हिन्दी उपन्यास की संरचना, गोपाल राय , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. आधुनिक हिन्दी उपन्यास-2, नामवर सिंह (सम्पादक)  राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. हिन्दी उपन्यास का विकास, मधुरेश, सुमित प्रकाशन, इलाहबाद

 

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