11 आँचलिकता की अवधारणा और हिन्दी उपन्यास

प्रो. सत्यकाम प्रो. सत्यकाम and रीता दुबे

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. आँचलिकता की अवधारणा
  4. प्रमुख आँचलिक रचनाकार और उनकी रचनाएँ
  5. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • आँचलिकता किसे कहते हैं?
  • हिन्दी साहित्यकारों ने समय–समय पर आँचलिकता को किस प्रकार से परिभाषित किया है ?
  • हिन्दी साहित्य जगत में किस–किस उपन्यास को आँचलिक उपन्यास के नाम से जाना जाता है?
  • उन उपन्यासों की कथावस्तु क्या है ? इन बिन्दुओं की जानकारी प्राप्‍त कर पायेगें।

 

2.   प्रस्तावना

 

हिन्दी साहित्य में आँचलिकता की अवधारणा निर्विवाद नहीं है। कुछ विचारकों का मानना है कि आँचलिकता का सम्बन्ध पिछड़े हुए ग्रामीण जीवन से है, तो कुछ का मानना है कि क्षेत्र विशेष पर केन्द्रित रचना आँचलिक है, शहर का क्षेत्र हो या फिर गाँवों का। वास्तव में जो अंचल विशेष की विशेषताओं का समाहार करता है वह आँचलिक है, और इसी वैशिष्टय की अभिवयक्ति का नाम आँचलिकता है।

 

3. आँचलिकता की अवधारणा

 

डॉ. ज्ञानचन्द्र गुप्‍त कहते हैं कि –“आँचलिक जीवन मुख्यतः ग्रामीण होता है और आँचलिक उपन्यास इस स्थानिक यथार्थ की सघनता एवं समग्रता के साथ अनुभव की प्रमाणिकता को लेकर प्रस्तुत हुए हैं।” ज्ञानचन्द्र गुप्‍त जहाँ अनुभव की प्रमाणिकता पर जोर देते हैं वहीँ देवराज उपाध्याय इसे परिभाषित करते हुए कहते हैं – “आँचलिक उपन्यास में लेखक देश के एक विशिष्ट भाग पर बल देता है और वहाँ के जीवन का इस प्रकार निरुपण करता है कि पाठकों को उसके अनोखे गुणों, विशिष्ट प्रवृतियों ओर असामान्य रीति-रिवाजों तथा जीवन की प्रणाली का ज्ञान हो जाए।” डॉ. शिवप्रसाद सिंह आँचलिक कथा और ग्राम कथा का भेद स्पष्ट करते हुए अंचल को ग्राम जीवन तक ही सीमित रखने के पक्ष में है और आँचलिक कथा को ग्राम कथा का एक हिस्सा मानते हैं। कथा शिल्पी राजेन्द्र अवस्थी जो सन् 1961 में सारिका  के सम्पादक थे, उन्होंने आँचलिक उपन्यासों को लेकर एक परिसंवाद का आयोजन किया था। इस अवसर पर आँचलिक उपन्यास के दायरे के और भी ज्यादा विस्तृत करते हुए वे कहते हैं कि – “इधर आँचलिक शब्द से एक नया भ्रम पैदा हो रहा है कदाचित यह समझा जाने लगा है कि आँचलिक उपन्यास वही है जो केवल ग्रामीण जीवन पर आधारित हो और वहाँ की संस्कृति का चित्रण करें … वास्तविकता यह है कि अंचल एक देहात हो सकता है, एक भारी शहर भी, शहर का एक मुहल्ला भी और इन सबसे दूर सघन वनों की उपत्यकायें भी।”

इसके आधार पर आँचलिक उपन्यास की कुछ सामान्य विशेषताओं का निर्धारण किया जा सकता है –

  • आँचलिक उपन्यासकार किसी एक विशिष्ट क्षेत्र या स्थान को अपनी कथा का आधार बनाता है।
  • उस क्षेत्र विशेष की भौगोलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं का यथार्थवादी वर्णन कथाकार का लक्ष्य होता है।
  • स्थानीय रंगत वाली लोकसंस्कृति, लोकजीवन, लोकपर्व, लोकउत्सव और लोकभाषा का सार्थक प्रयोग और नवीन शिल्प संवेदना को कथाकार बड़ी जीवन्तता के साथ प्रस्तुत करता है।
  • उपन्यास में पात्रों के बहुसंख्य होने के कारण  प्रायः किसी एक नायक की प्रधानता नहीं होती है। समस्त अंचल ही नायक की भूमिका में होता है।

 

4.   प्रमुख आँचलिक रचनाकार और उनकी रचनाएँ

 

आँचलिक उपन्यासों की एक रूपरेखा स्पष्ट हो जाने के बाद जो दूसरा प्रमुख सवाल उठता है कि हिन्दी साहित्य में आँचलिक उपन्यासों की शुरुआत कहाँ से होती है? और क्या रेणु के मैला आँचल से पूर्व भी आँचलिक उपन्यासों की कोई परम्परा रही है? वास्तव में हिन्दी उपन्यास के इतिहास में आँचलिक उपन्यास की अवधारणा मैला आँचल के प्रकाशन के बाद ही विकसित हुई। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग रेणु ने ही मैला आँचल की भूमिका में किया है– “यह है मैला आँचल, एक आँचलिक उपन्यास, कथांचल है पूर्णिया, पूर्णिया बिहार राज्य का एक जिला है…  मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पिछड़े गाँवों का प्रतीक मानकर इस किताब का कार्य क्षेत्र बनाया है”। नया प्रतीक  में जून सन् 1977 को दिए अपने एक साक्षात्कार में उक्त शब्द के प्रयोग के बारे में कहा कि – “जब मैंने मैला आँचल लिखा और उसके भीतर का टाइटल छपने जा रहा था।  तब मैंने लिखा मैला आँचल और फिर उसके नीचे लिख दिया ‘एक आँचलिक उपन्यास’ मैंने यही सोचकर किया कि मैंने जो शब्द का इस्तेमाल किया जैसी भाषा लिखी क्या पता उसको लोग कबूल करेंगे या नहीं? इसलिए मैंने उसे आँचलिक उपन्यास कह दिया” इस प्रसंग से यह तो स्पष्ट है कि आँचलिक उपन्यास में अंचल विशेष की भाषा का महत्त्वपूर्ण स्थान है , पर इसके साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया कि रेणु ने ही सर्वप्रथम आँचलिक शब्द का प्रयोग किया। हिन्दी साहित्य में मैला आँचल के आगमन के बाद ही विद्वानों ने आँचलिक उपन्यास की परम्परा की तलाश शुरू कर दी। प्रो.इन्दिरा जोशी और डॉ. गोपाल राय ने मन्‍नन द्विवेदी के उपन्यास रामलाल  (सन् 1914 कुछ लोगों के अनुसार सन् 1917) को हिन्दी का पहला आँचलिक उपन्यास घोषित किया। नलिन विलोचन शर्मा ने शिवपूजन सहाय के देहाती दुनिया (सन् 1926) को महत्त्वपूर्ण आँचलिक उपन्यास माना। इसे लेकर विद्वानों का यह कहना है कि यह उपन्यास प्रचलित रूढ़ियों को तोड़ने की दिशा में एक साहसिक कदम था, किन्तु शायद यह कदम समय से पहले उठा लिया गया। इसलिए इस उपन्यास का समुचित मूल्यांकन सन् 1950 के लगभग आँचलिक उपन्यासों का आविर्भाव होने के बाद हुआ। लेकिन रेणु पूर्व जिस कथाकार को आँचलिक उपन्यासकार मानने पर लोगों का बहुत ज्यादा जोर है, उनमें नागर्जुन का नाम सबसे ऊपर है। नन्ददुलारे वाजपयी, डॉ. नगेन्द्र, और डॉ. रामविलास शर्मा ने भी नागार्जुन को रेणु पूर्व आँचलिक उपन्यासकार के रूप में स्वीकार किया है। यह निर्विवाद तथ्य है कि रेणु से पूर्व नागार्जुन के यहाँ हमें आँचलिकता की झलक देखने को मिलती है। सन् 1952 में नागार्जुन के उपन्यास बलचनमा  का प्रकाशन हुआ जो बलचनमा नामक पात्र द्वारा स्वंय उसके मुँह से कही गई कहानी है। दरभंगा जिले की लोक संस्कृति और लोकगीतों से उस अंचल की माटी की महक से यह उपन्यास सराबोर है। शिवपूजन सहाय के देहाती दुनिया  के आधार पर लोगों ने उन्हें आँचलिक उपन्यासकार के रूप में स्थापित करने की कोशिश की। लेकिन यह बात भी उतनी ही सत्य है कि रेणु का मैला आँचल ही वह उपन्यास है, जिसने आँचलिक उपन्यासों के प्रतिमान तैयार किये।  आँचलिकता की बहस को जन्म दिया और उसके महत्त्व को रेखांकित किया। मैला आँचल के प्रकाशन के बाद सन् 1955 में उदयशंकर भट्ट का उपन्यास सागर लहरें और मनुष्य  प्रकाशित हुआ। जो बम्बई के समुद्र तट के पूर्व में मछलीमार अंचल बरसोवा के कोली जाति की परम्पराओं, रूढ़ियों और विश्‍वासों का चित्रण करता है, समुद्र ही इन कोलियों के जीवन का आधार है। उनके लोक-उत्सवों, लोकगीतों, मान्यताओं, विश्‍वासों में हर जगह समुद्र ही छाया हुआ रहता है, नारियल पूर्णिमा और होली इनके दो प्रमुख त्यौहार हैं। इन उत्सवों में मछुवा जीवन की सांस्कृतिक झलकियाँ देखने को मिलती हैं। कोली जाति की सामाजिक व्यवस्था, उनकी गरीबी, उनके शोषण, कोली पुरुषों का कई–कई दिनों तक समुद्र से संघर्ष, कोली स्‍त्रि‍यों की निडरता, साहस, उनकी जीवन्तता, यौन सम्बन्ध, जी तोड़ मेहनत के बावजूद संघर्षपूर्ण जीवन का लेखक ने यथार्थ वर्णन किया है। माणिक, यशवंत, बिट्ठल, सोमा बाउला, जागला कई पात्रों के भरमार वाले इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र रत्‍ना है जिसके सहारे ही इस अंचल-विशेष की पूरी कथा बुनी गई है।

 

नागार्जुन का सन् 1957 में मछुआरों के जीवन पर ही आधारित उपन्यास वरुण के बेटे  का प्रकाशन हुआ। बिहार का उत्तर-पूर्वी जिला दरभंगा हमेशा से ही नागार्जुन के उपन्यास का केन्द्र रहा। इसी क्षेत्र के मलाही गोढ़यारी के मछुवारों के जीवन का वर्णन है। गढ़पोखर एवं घनहाचौर नामक जलाशय इनके जीवन के अस्तित्व का हिस्सा है। महाजाल डालते समय मछुआरे गाते हैं –

 

ऊपर तान, हुइयो

पीछे हट के, हुइयो

जाल संभाल हुइयो

हो हो हो शि या आ आ आ आ र .

रेहू ब्यारी, हुइयो

उजला सोना, हुइयो

 

ये सिर्फ गीत ही नहीं हैं बल्कि मछुआ जीवन की पूरी आशा और उमंग का परिचायक है। कमला मैया की वन्दना बारहमासा के गीत के अभाव में भी उनके जीवन रस का परिचय देते हैं। प्रकृति परिवेश के गहरे चित्रांकन के साथ-साथ नागार्जुन ने उनकी गरीबी, जहालत और अभावों से भरी जिन्दगी की झलकियों को भी प्रस्तुत किया है–“ओढ़ना के नाम पर, कथरी, गुदडी के दो–तीन, छोटे–बड़े टुकड़े शरीर को जहाँ-तहा से ढक रहे थे. दूसरे कोने में चूल्हा-चौका. तीसरे में अनाज रखने का कुण्ड और कुठले, चौथा कोना खाली, छप्पर के बांसों से दसियों छीके लटक रहे थे यानी खुरखुन का समूचा संसार ही मानो तेरह फुट लम्बे ओर नौ फुट चौड़े घर में अटा पड़ा था…  जाल बुनते हुए या धागे बटते हुए अर्ध-नग्‍न बूढ़े, टिकिया सुलगाती हुई बुढियाँ, कछारों में केंकड़े या कछुए खोजते हुए नंग–धड़ंग लड़के, जलते चूल्हे पर काली हाण्डियाँ, करीब बैठकर हल्दी लाल मिर्च पीसती हुई सयानी लड़कियाँ, फटी-मैली धोतियों वाली।”  इतना ही नहीं इसके साथ इनके लोक-विश्‍वासों, मान्यताओं की एक पूरी दुनिया है जो इनके जीवन में कदम-कदम पर मौजूद है और इनके जीवन की संचालक है।

 

हिन्दी सहित्य में जिस समय आँचलिकता की बहस जोरों पर थी, उसी समय सन् 1957 में रांगेय राघव का राजस्थान के नटों के जीवन जगत को प्रस्तुत करता उपन्यास कब तक पुकारूं  का प्रकाशन हुआ, नट ऐसी जाति है जिसके पास जीवन जीने के निम्‍नतम साधनों का भी अभाव है। ये नट गाँव-गाँव जाकर डेरा लगाते हैं। गाँव में पहुँचकर खेल तमाशे दिखाना, जड़ी बूटियाँ बेचना, भीख माँगना और कभी कभी चोरी करना इनकी आजीविका का प्रमुख साधन है।  इस समाज की स्‍त्रि‍यों का प्रयोग तथाकथित उच्च वर्ग के लोग दैहिक व्यापार के लिए करते हैं।  सिरकी के खिलौने बनाना, सूप बनाना, पैसों की जगह आनाज लेकर भी यह जाति अपना काम चलाती है। मनोतिया मानी जाती है और उनके पूरे होने पर बलि देने का भी रिवाज है। गण्डे, ताबीज, जादू टोना, पीर मजार, भूत चुड़ैल जैसे कई अन्धविश्‍वासों से ये घिरे रहते हैं, जादू टोना जानने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ समझा जाता है उपन्यास में मूल कथा छ्हरन गाँव के दरोगा रुस्तम खां ओर सुखाराम के परिवार की कथा है।

 

राजेन्द्र अवस्थी की रचना जंगल के फूल  भी इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कृति है, इसमें मध्यप्रदेश के बस्तर क्षेत्र के गोंड जाति के जीवन को उभारा गया है। इस उपन्यास का कथ्य गोण्डों के अधिकार रक्षा के प्रश्‍न के चारों ओर केन्द्रित है। पात्रों के माध्यम से, जिनमें महुवा, झालरर्सिंह आदि मुख्य हैं आँचलिक जीवन के विविध रंगी चित्र प्रस्तुत किये गए हैं. साथ ही सरकार द्वारा इस अंचल के लोगों पर किये गए अत्याचार और गोंडों द्वारा उन अत्याचारों के विरोध की चेतना भी इस उपन्यास में देखने को मिलती है जो विशिष्ट है, समग्रतः जंगल के फूल गोंड जीवन को उसकी समस्त जातिगत विशिष्टता के साथ प्रस्तुत करने वाली सूक्ष्म और सफल कृति बन पड़ी है।  राही मासूम रजा का आधा गाँव  सन् 1966 में प्रकाशित हुआ। इसे आँचलिक इसलिए कहा गया क्योंकि यह गाजीपुर के एक गाँव गंगोली को केन्द्र में रखकर चलता है। लेकिन यह पूरे गंगोली की कहानी न होकर केवल गंगोली के मुसलमानों की कहानी है। इसलिए यह आधे गाँव की कहानी है –आधा गाँव । 1937 के प्रांतीय सरकार के बटाईदार कानून के बाद मुसलमान विभाजन के समर्थक होने लगे। क्रमशः बदहाली बढ़ती रही, लेकिन जीवन जीने के रुतबे में उन्होंने कोई समझौता नहीं किया। ऐसे में मुसलमान जमीन्दारों के मानसिक द्वन्द्व का बहुत ही प्रामाणिक चित्र राही मासूम रजा ने उकेरा है। आधा गाँव  का वजूद जिन लोगों से अपनी अभिव्यक्ति पाता है, उनमें गोरी दादी, गुज्जन मियाँ, अब्बू दा, दमड़ी वो, और फुन्‍नन दा महत्त्वपूर्ण हैं। इस उपन्यास में हताश जमीन्दार बिना गालियों के बात नहीं करते हैं। यह उनके रोजमर्रा के जीवन का अभिन्‍न अंग है, लेकिन उपन्यास में प्रयुक्त गालियों के कारण इस उपन्यास को साहित्य अकादमी के पुरस्कार सूची से बाहर होना पड़ा। राही मासूम रजा ने स्वंय अपने उपन्यास के विषय में लिखा है – “यह कहानी न कुछ लोगों की है न कुछ परिवारों की। यह उस गाँव की कहानी भी नहीं है जिसमें इस कहानी के बुरे-भले पात्र अपने आप को पूर्ण बनाने का प्रयत्‍न कर रहे हैं। यह कहानी न धार्मिक है न राजनीतिक, क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनितिक और यह कहानी समय ही की है। यह गंगोली से गुजरने वाले समय की कहानी है।”

 

देश की आजादी के बाद गाँवों के बदलते परिवेश, उनकी आस्था, अनास्था, जीवन की असंख्य विकृतियों, विद्रूपताओं, अकाल और गरीबी को आधार बनाकर कई उपन्यास लिखे गए। इसी कड़ी में शिवप्रसाद सिंह का सन् 1967 में प्रकाशित उपन्यास अलग अलग वैतरणी  है।  दो हजार की आबादी वाले इस करैता गाँव का वर्णन लेखक इस प्रकार करता है “आप जो भी कहिए मिसिरजी करेता जैसा बदनाम बीहड़, गिरा हुआ बीमार गाँव शायद ही कोई हो। यहाँ कोई भला आदमी रह ही नहीं सकता… इस गाँव के हर व्यक्ति की आत्मा में कोई अतृप्‍त, प्यासा, बेचैन प्रेत हाहाकार कर रहा है… जहालत, गरीबी और तंग ख्याली की पाट एक परत एक न जाने कब से जमती चली गई है।” मैला आँचल के सारंगा सदब्रिज की लोक –कथा जो प्रभाव पैदा करती है वह प्रभाव यहाँ लचिया-जयसिंह और राजकुमार-राजकुमारी की कथा में नहीं आ पाता। ये लोक–कथाएँ सीधे-सीधे उपन्यास की घटना से जुड़ते नजर नहीं आते हैं, लेकिन लोकवार्ता शैली, फ्लैशबैक पद्धति का प्रयोग करने के साथ-साथ लेखक ने लोक भाषा और खड़ी बोली के मिश्रित भाषा प्रयोग से उस पूरे परिवेश को जीवन्त करने में सफलता प्राप्‍त की है। वास्तव में यह उपन्यास देश के बीमार प्रजातन्त्र और आजादी के खोखलेपन को उजागर करता हुआ दस्तावेज है। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के तिवारीपुर नामक गाँव को आधार बनाकर रामदरश मिश्र द्वारा जल टूटता हुआ  नामक उपन्यास लिखा गया। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है इस गाँव में ब्राहमण पात्रों की भारमार हैं. इसके आलावा क्षत्रिय, वैश्य, हरिजन हर तरह के लोग हैं। पूरा का पूरा गाँव दो ध्रुवों में  विभक्त है। पहला वर्ग महीपसिंह, दीनदयाल, दौलतराय जैसे लोगों का है जो अपनी-अपनी स्वार्थसिद्धियों में लगे हैं और  दूसरा वर्ग सतीश, जगपतिया जैसे लोगों का है जो खत्म होते मूल्यों को बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। स्वयं उपन्यासकार के शब्दों में- “यह उपन्यास स्वतन्त्रता प्राप्‍त‍ि के पश्चात भारतीय गाँव के सम्बन्धों तथा मूल्यों के तनाव, विघटन एवं उसके जीवन संघर्षों की व्यथा कथा हैं।” लोक –भाषा की दृष्टि से यह उपन्यास काफी समृद्ध है। एक आँचलिक प्रदेश की गन्ध, ध्वनियों उसकी लोकोक्तियों ओर मुहावरे से यह उपन्यास सजा हुआ है, जगह –जगह लोकबिम्ब और प्रतीक बिखरे पड़े हैं। लोकगीत और  लोककथाएँ दैनन्दिन जीवन के सुख-दुःख से निकले हुए हैं। आनन्द प्रकाश जैन की आंठवी भाँवर  की आँचलिकता भी उसकी स्वभाविक और प्रवाहमान भाषा शैली के कारण अधिक है। इसका कथ्य पश्‍च‍िमी उत्तर प्रदेश के गोसाँइयों के जीवन पर आधारित है। गोसाँइयों की वैवाहिक परम्परा की अदलाबदली के रिवाज पर इस कृति में विस्तार से इसकी विवेचना की गई है। इस वैवाहिक प्रसंग को केंद्र में रखकर इस विशिष्ट वर्ग की नैतिकता–अनैतिकता सम्बन्धी मान्यताओं तथा चरित्रों की मानसिक प्रतिक्रियाओं का संयोजन बड़ी सफलता के साथ किया गया है। चरित्र प्रधान होते हुए भी यह कृति अपनी शिल्पगत विशेषता और भाषागत प्रांजलता के कारण प्रमुख आँचलिक कृति बन पड़ी है। आँचलिक उपन्यासों की परम्परा को और अधिक समृद्ध बनाने में शैलेश मटियानी का प्रमुख स्थान है। प्रणय इनका मूल कथ्य है। आँचलिक उपन्यासकारों में भाषा की जो सहजता और सौन्दर्य शैलेश में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। आँचलिक कृतिकार के रूप में शैलेश की सफलता भाषा के अविरल प्रवाह, शब्द संयोजन की कुशलता, सहज भूमिका और प्रौढ़ता के साथ पर्वतीय परिवेश के सांस्कृतिक जीवन को प्रभावात्मक अभिवयक्ति देने में विशेष रूप से परिलक्षित होती है। शैलेश मटियानी ने हौलदार, चिठ्ठीरसैन, एक मूठ सरसों आदि उपन्यासों के माध्यम से अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की कथा, उस क्षेत्र के प्रचलित शब्दों मुहावरों एवं लोकोक्तियों को साकार किया है। अपने उपन्यासों में लोककथाओं की प्रस्तुति के सन्दर्भ में मटियानी बेजोड़ रहें हैं। इसी दृष्टि से एक मूठ सरसों  उल्लेखनीय है। जिसमे रूपुली-घुघुती चिरैया ओर सोनपंख घुघुरा की लोककथा का बहुत कलात्मक प्रयोग उपन्यास की प्रमुख पात्र देवकी की व्यथा को उभारने के लिए किया गया है, उन्होंने अपने कलात्मक प्रतिभा से अपने उपन्यासों में पहाड़ी अंचल को जीवित कर दिया है। सन् 1972 में कथाकार जगदीशचंद्र के उपन्यास धरती धन न अपना  का प्रकाशन हुआ। पंजाब के होशियारपुर जिले के एक गाँव घोड्वाहा के अशिक्षा, अज्ञान, अन्धविश्‍वास ओर चौधरियों के जातीय अहंकार और उस अहंकार की चिंगारी में झुलसते निम्‍न वर्ग के मजदूरों का चित्रण उपन्यास का मूल कथ्य है। यह उपन्यास मूलतः आँचलिक उपन्यास न होकर इस गाँव के शोषण, जाति प्रथा की समस्या को केन्द्र मे रखने वाला उपन्यास है। अंचल विशेष के प्रकृति परिवेशों, लोकगीतों लोककथाओं के संश्लिष्ट प्रयोग का यहाँ अभाव है। इसी तरह विवेकी राय के उपन्यास सोना माटी  में देश की स्वतंत्रता प्राप्‍त‍ि के बाद बदलते हुए ग्रामीण परिवेश का चित्रांकन प्रमुख उद्देश्य है। गाँव में विकास के नाम पर गाँव का सांस्कृतिक स्वरुप विखंडित हुआ है और इतना ही नहीं उसके सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों का भी अवमूल्यन हुआ है। गाँव की राजनीति और उपन्यास का नायक रामस्वरूप इसी और इशारा करते हैं। विवेकी राय के उपन्यासों में अपने क्षेत्र के प्रति आत्मीय लगाव है। लोकगीतों, लोकउत्सवों, लोककथाओं का अपने उपन्यास में सृजन करके उन्होंने अपनी इस आत्मीयता का परिचय दिया है। आँचलिकता के आंदोलन के दौर में जिस तरह आँचलिकता की परिभाषा गढ़ी गयी विवेकी राय के उपन्यास उस अर्थ में आँचलिकनहीं हैं। उनके अन्य उपन्यास बबूल (1975), लोकऋण (1977), समर शेष है (1988), मंगल भवन (1992) आदि आँचलिकता से सराबोर होते हुए भी मुख्यतः स्वतंत्रता के बाद बदलते ग्रामीण जीवन का चित्रण करते हैं। इधर के आये उपन्यासों में मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास इदन्‍नमम (1994) में विन्ध्य अंचल के ग्रामीण जीवन को अपने कथा का आधार बनाया गया है.

 

5.   निष्कर्ष

 

उपरोक्त विवेचित कृतियों द्वारा हिन्दी के आँचलिक उपन्यास की प्रगति को रूपायित करने का सामान्य प्रयास किया गया है। कुछ आलोचक आँचलिक उपन्यासों का एक पृथक वर्गीकरण करने के पक्ष में नहीं हैं, लेकिन इस बात से किसी को इन्कार नहीं है कि आँचलिक उपन्यासों ने स्वातन्त्र्योतर हिन्दी साहित्य में एक नई विधा की शुरुआत की और समाज में निहित यथार्थ को बड़ी निकटता से देखा और परखा।

 

पुस्तकें

  1. बीसवीं सदी का हिन्दी साहित्य, (सम्पादक) विश्वनाथप्रसाद तिवारी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
  2. अधूरे साक्षात्कार, नेमीचन्द्र जैन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  3. हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  4. हिन्दी उपन्यास की संरचना, गोपाल राय , राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. हिन्दी उपन्यास का विकास, मधुरेश, सुमित प्रकाशन, इलाहबाद

 

वेब लिंक्स