9 गोदान का शिल्प

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. गोदान का शिल्प: विविध विचार
  4. कथ्य और शिल्प का सम्बन्ध
  5. नगर कथा और संरचना
  6. शिल्प की विभिन्‍न प्रविधियाँ
  7. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस इकाई को पढ़ने के उपरान्त आप –

  • गोदान उपन्यास के शिल्प का अध्ययन कर पाएंगे।
  • कथ्य और शिल्प के परस्पर सम्बन्ध को व्याख्यायित कर सकेंगे।
  • गोदान के शिल्प के प्रमुख बिंदुओं को स्पष्ट कर सकेंगे।

 

2. प्रस्तावना

 

किसी भी उपन्यास के सम्यक अध्ययन के लिए उसके शिल्प को समझना आवश्यक होता है। उपन्यासकार जिस प्रकार अपनी कथा या औपन्यासिक रचना संसार का सृजन करता है और जिस दृष्टि और तकनीक से इस पूरे कथा संसार को प्रस्तुत करता है, वही उसका शिल्प कहलाता है। प्रेमचन्द एक ऐसे कथाकार हैं जिनके उपन्यासों के शिल्प का उद्देश्य होता है उस कथा को स्पष्ट रूप से पाठकों के सामने प्रस्तुत करना। शिल्प के अन्तर्गत हम उपन्यास की बुनावट और भाषा दोनों पर ही विचार करेंगे।

 

3. गोदान का शिल्प: विविध विचार

 

प्रेमचन्द के उपन्यास गोदान के शिल्प के सन्दर्भ में मुख्य रूप से दो प्रकार के विचार प्रस्तुत किए गए हैं। इस उपन्यास में समानान्तर रूप से दो कथाएँ कही गई हैं – (1) ग्राम कथा और (2) ग्रामेतर कथा या नगर कथा। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि यह उपन्यास मुख्य रूप से ग्रामीण कथा प्रधान है और इसमें नगर कथा का प्रवेश एक पैबन्द की तरह नजर आता है। यह इसके मुख्य ढाँचे से इसका मेल नहीं खाता। विद्वानों का यह भी मानना है कि इस कारण इसकी कथावस्तु सुसंगठित नहीं है। नन्ददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा और गुलाब राय जैसे आलोचक गोदान  की कथावस्तु के बिखराव को उसका शिल्पगत दोष मानते हैं। नन्ददुलारे वाजपेयी लिखते हैं कि “गोदान  के नागरिक और ग्रामीण पात्र एक बड़े मकान के दो खण्डों में रहने वाले दो परिवारों के समान हैं, जिनका एक-दूसरे के जीवन से बहुत कम सम्पर्क है। वे कभी-कभी आते-जाते मिल लेते हैं, और कभी-कभी किसी बात पर झगड़ा भी कर लेते है, परन्तु न तो उनके मिलने में और न झगड़े में ही कोई ऐसा सम्बन्ध स्थापित होता है, जिसे स्थायी कहा जा सके।” (गोदान : एक पुनर्विचार, सं.परमानन्द श्रीवास्तव, अभिव्यक्ति प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 41) इसके विपरीत नलिन विलोचन शर्मा का यह मानना है कि ‘‘स्थापत्य विषयक इस देन की मौलिकता इस बात में है कि वह चित्रणीय जीवन के लिए अनिवार्य आविष्कार है। प्रेमचन्द को भारतीय जीवन को उसकी समग्रता में चित्रित करना अभीष्ट था और उसके लिए वे प्रचलित स्थापत्य शैलियों के माध्यम से प्रयत्‍न कर भी चुके थे: जैसे प्रेमाश्रम, रंगभूमि और कर्मभूमि  आदि में किन्तु गोदान के इस पूर्व प्रारूपों की अपूर्णता देखकर मानों कई बार प्रयोग करने के बाद, वह उसे पा लेते हैं, जिसके लिए वह भटक रहे थे। उनकी यह उपलब्धि गोदान का स्थापत्य है जिसमें एक साथ ही एक दूसरे से विच्छिन्‍न ग्राम-भारत और नगर-भारत और बलात ग्रथित भी हो जाते हैं और विकलांग भी नहीं होते।” (गोदान : नया परिप्रेक्ष्य, गोपाल राय, अनुपम प्रकाशन, पृष्ठ संख्या 112) नलिन विलोचन शर्मा ने पहली बार गोदान के शिल्प विवेचन को सही दृष्टि और दिशा प्रदान की। गोदान में प्रेमचन्द ने साम्राज्यवादी शोषण व्यवस्था को पूर्णता में प्रस्तुत किया और इसके लिए ग्राम जीवन के साथ-साथ शहर जीवन को भी चित्रित करना उन्हें आवश्यक प्रतीत हुआ। इस उपन्यास को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। सुरेन्द्र चौधरी गोदान की नगर कथा को असंगत नहीं मानते। वे लिखते हैं कि गोदान में काल मन्थर है … राय साहब से लेकर होरी-गोबर तक को यह गतिचक्र अपनी जड़ में लेता हुआ, मार्ग निकालता दिखाई पड़ता है- यह मार्ग अक्षय जीवन- संघर्ष का है, आनन्द के भोग का नहीं। होरी भोक्ता है, उसका जीवन-संघर्ष इस भोग की गाथा है। उपन्यास गाथात्मक है, नाटकीय नहीं। कुछ लोगो को यह गाथा एकात्मक- सी नहीं लगती। न लगे, पर है वह भीतर से एक, अपने-अपने जीवन-संघर्ष में एकान्वित। उसका शिल्प इसीलिए थोड़ा जटिल है। मगर सारी धाराएँ केन्द्र से उत्सर्जित होती हैं, उसी की ओर लौटती हैं। (गोदान : एक पुनर्विचार, पृ. 111)

 

4. कथ्य और शिल्प का सम्बन्ध

 

असल में गोदान भारतीय जीवन को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करने का एक सफल प्रयास है जिसमें एक ओर ढहती सामन्ती व्यवस्था को प्रस्तुत किया गया है तो दूसरी ओर पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा शोषण के पक्ष को भी चित्रित किया गया है। रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव के अनुसार – ‘‘गोदान के रचयिता ने अपने युग के इस महान् सत्य (होरी की) सामन्तवादी आस्था के टूटकर (गोबर की) सम्भावित समाजवादी मान्यताओं में परिणति-को ही अपना प्रतिपाद्य विषय बनाया है।’’ साहित्य का भाषा चिन्तन, पृ. 223 सम्पादक- वीणा श्रीवास्तव, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली। इस विषय को आगे बढ़ाते हुए रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव कहते हैं – ‘‘सामन्ती प्रणाली का आधार ग्राम समाज है तो पूँजीवादी सभ्यता का शहर केन्द्र है। किसान को टूटकर मजदूर बनना है तो उसे किसी औद्योगिक समाज में ही जाना होगा और अगर उस समय समाज का प्रतिनिधित्व करने वाला नागरिक समाज चित्रित न होता, तो अपनी आस्था को कर्मभूमि में स्थापित करने का गोबर को अवसर ही कहाँ मिलता?’’ (साहित्य का भाषा चिन्तन, पृ. 224)

 

गोदान की कथा में मुख्य रूप से चार कथा धाराएँ स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती हैं:

  1. होरी तथा उसके परिवार और गाँव की कथा
  2. रायसाहब की कथा
  3. मालती-मेहता-खन्‍ना-गोविन्दी की कथा
  4. गोबर की कथा

 

गोदान का मुख्य विषय है भारतीय समाज और खासतौर पर ग्रामीण समाज में मौजूद शोषण का चित्रण। होरी, राय साहब और गोबर की कथाओं का यही विषय है और इन तीनों में होरी कथा प्रमुख है। यह ठीक है कि इस कथा के केन्द्र में होरी है परन्तु इसमें बेलारी का जीवन और सारे कृषक समाज की नियति जुड़ी हुई है। यह कथा पूर्ण रूप से गठित और सुनियोजित होने के साथ-साथ स्वाभाविक और विश्‍वसनीय भी है। यह एक पूर्ण इकाई के रूप में सामने आती है। कहना न होगा कि यह भारतीय कृषक समाज के यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली अद्वितीय कथा है।

 

दूसरी कथा राय साहब की है। राय साहब की कथा एक ओर होरी और ग्रामीण जीवन से जुड़ी हुई है तो दूसरी ओर मालती, मेहता, खन्‍ना, मिर्जा आदि नागरिक पात्रों से। राय साहब की कथा की उपयोगिता इस रूप में है कि इस कथा के माध्यम से किसानों पर ढाए जाने वाले जुल्म का चित्रण उपलब्ध होता है। इस प्रकार राय साहब की कथा ग्राम कथा को उसकी सम्पूर्णता में प्रस्तुत करने में महत्वपूर्ण योगदान देती है और वह गोदान की संरचना में बिल्कुल फिट बैठती है। होरी और राय साहब एक ही आर्थिक व्यवस्था के दो पहलू हैं और उनकी कथाएँ एक दूसरे के समानान्तर चलते हुए भी अविच्छिन्‍न है। वस्तुतः इस कथा के माध्यम से प्रेमचन्द ने ग्रामीण जीवन के सम्पूर्ण यथार्थ को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

 

5. नगर कथा और संरचना

 

जो नगर कथा इसमें सामने आई है उसका उद्देश्य पूँजीवादी-सामन्तवादी शोषण व्यवस्था का पूर्ण चित्र प्रस्तुत करना है। जहाँ तक मालती-मेहता, खन्‍ना-गोविन्दी की कथा है वह गोदान के केन्द्रीय उद्देश्य से तो असम्बद्ध लगती है परन्तु भारतीय समाज के सभी पहलुओं को उजागर करने की दृष्टि से यदि देखा जाए तो यह कथा बहुत अप्रासंगिक नहीं लगती। हालांकि प्रेमचन्द ने इस कथा के माध्यम से अपने कई आदर्शों को सामने रखने का प्रयत्‍न किया है और बदलते समाज को दिखाने का सफल प्रयास है। इस कथा के समाहित होने से दो ध्रुव बन जाते हैं। एक में किसानों का चित्रण है (ग्रामीण कथा) और दूसरी ओर प्रेमचन्द की अपनी आदर्श भावना (नगर कथा)। गोपाल राय लिखते हैं कि – ‘‘गोदान की ग्रामेतर कथा के कुछ और प्रसंग उसकी संरचना में अनावश्यक जोड़ की तरह मालूम पड़ते हैं ऐसे प्रसंगों में राय साहब के यहाँ सगुन के अवसर पर पण्डित ओंकारनाथ को शराब पिलाए जाने का प्रसंग, प्रो. मेहता का अफगान स्वांग, मिर्जा साहब की कथा, लखनऊ में आयोजित बूढ़ों की कब्बडी प्रतियोगिता, मालती द्वारा गोबर के लड़के की सेवा  आदि प्रसंग उल्लेखनीय हैं।’’ (गोदान नया परिप्रेक्ष्‍य, गोपाल राय, 116) गोपाल राय आगे कहते है- ‘‘संक्षेप में गोदान  का केन्द्र है भारतीय शोषण चक्र का चित्रण। इसी नाभिक का उपन्यास का बृहद वृक्ष फूटा है। जो शाखाएँ टहनियाँ इस केन्द्र से सम्बद्ध हैं, वे उपन्यास के स्थापत्य में योग देती हैं। मालती-मेहता-गोविन्दी-खन्‍ना की कहानी का अंकुरण इस बीज से नहीं होता: यह कहानी मुख्य वृक्ष से चिपका हुआ वह दूसरा कमजोर वृक्ष है, जिसकी डालो, टहनियों और पत्तों को सावधानी से देखकर ही पहचाना जा सकता है।’’ (वही, 117)

 

असल में प्रेमचन्द अपने इस उपन्यास में उभरते मध्य वर्ग और पूँजीपतियों की चारित्रिक दुर्बलताओं को भी दिखाना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने इन प्रसंगों का निर्माण किया। इस कथा से यह बात भी सामने आती है कि किस प्रकार यह वर्ग पूर्णतः परजीवी होता है और कृषकों और मजदूरों के शोषण में अप्रत्यक्ष रूप से इनकी भी भागीदारी होती है। इस दृष्टि से यदि हम देखें और प्रेमचन्द को समग्रता से समझने का प्रयास करें तो यह उपन्यास की संरचना से किसी भी रूप में असम्बद्ध प्रतीत नहीं होता। प्रेमचन्द उस समय के भारत के सम्पूर्ण चित्र को प्रस्तुत करने में सफल होते हैं जिसमें एक ओर सामन्ती व्यवस्था को ढहते हुए दिखाया जाता है और दूसरी ओर उभरते मध्य वर्ग के मूल्यों को भी दिखाने का प्रयास किया गया है। इस सन्दर्भ में रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव का कथन उल्लेखनीय है – ‘‘लगता है, मालती-मेहता-खन्‍ना-गोविन्दी के चरित्रों के माध्यम से वह प्राचीन और नई संस्कृति के मान-मूल्यों को उद्घाटित करना चाहते थे। सामन्ती प्रथा का विघटन और पूँजीवादी प्रणाली के प्रभुत्व का प्रभाव केवल आर्थिक व्यवस्था पर ही नहीं पड़ता। यह परिवर्तन तो समाज की सम्पूर्ण व्यवहार प्रणाली पर ही अपना दबाव डालता है। बदलती परिस्थिति, नए मान-मूल्यों की माँग करती है और मेहता-मालती का प्रसंग इस सन्दर्भ का ही उदाहरण है।’’ (साहित्य का भाषा चिन्तन, पृ. 225)। इसके बावजूद रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव जी का यह भी मानना है कि ‘’यह बात दूसरी है कि उपन्यासकार नागरिक कथा को पूर्ण सहानुभूति के साथ अंकित नहीं कर पाया है और रह रहकर उसकी आदर्शवादी मान्यताएँ नए मूल्यों के साथ टकरा जाती हैं। अपनी मान्यताओं के प्रति कठोर आग्रह रखने के कारण इन चरित्रों को ऐसे मोड़ दिया है कि घटना प्रसंग कई स्थलों पर अविश्‍वसनीय हो उठता है। अविश्‍वसनीय होने का एक ओर कारण भी है। उपन्यासकार ने कुछ ही नए मूल्यों को अपनी दृष्टि में रखा, उसे वह व्यापकता न दे पाया जिसे देना अपेक्षित था। अतः वातावरण के अधूरे सन्दर्भ में, नए मूल्यों को आदर्शवादी मोड़ देने के कारण असंगतियाँ स्वमेव उद्भूत हो उठी हैं।’’ (वही, 225) इसके बावजूद इसके कथा शिल्प पर विचार करते हुए रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव कहते हैं – ‘‘स्रष्टा-पक्ष की सबलता ने गोदान  के कथा-शिल्प को पूर्ववर्ती उपन्यासों की तुलना में कहीं अधिक कलात्मक और सशक्त बना दिया है। इस उपन्यास में प्रेमचन्द ने मनोरंजन-तत्व को अपने औपन्यासिक उपादानों से अलग रख दिया है। न तो वहाँ कौतूहलवर्द्धक विशिष्ट कथा-सामग्री पर बल है, न घटना-प्रधान, और कालक्रम में सुनियोजित सुसम्बद्ध कथानक का ही आग्रह है। जीवन को व्यापक सन्दर्भ में सरल भाव से रखने के कारण वे यथार्थ को अधिक गहराई के साथ यहाँ पकड़ने में सफल हुए हैं और यही कारण है कि इस उपन्यास के सामान्य पात्र भी जीवन और सामाजिक विशेषताओं में रंग कर कहीं अधिक सजीव और विश्‍वसनीय बन बैठे हैं। आदर्शवादी मनोवृत्ति का ‘चाहिए’ पक्ष, जो उनके अन्य उपन्यासों की प्रमुख विशेषता थी, यथार्थ की वास्तविकता से टकराकर चूर हो गया है। उद्देश्यवाद, अब भी उनकी उपन्यास-कला का प्रेरक तत्व है पर उसकी धारा प्रच्छन्‍न है और कथानक एवं चारित्रिक विकास के बहुत नीचे, गहराई में प्रवाहित होने के कारण ‘उपदेशवाद’ के रूप में सामने नहीं आती वरन् चरित्र को ‘टाइप’ और कथानक को ‘प्रतीकात्मक’ बनाकर, सम्पूर्ण रचना को ही विशिष्ट बना देता है।’’ (वही, 227)

 

6. शिल्प की विभिन्‍न प्रविधियाँ

 

 प्रेमचन्द ने गोदान की कथा कहने के लिए जिन प्रविधियों का इस्तेमाल किया है उनमें प्रमुख हैं: (1) दृश्य शैली, (2) फ्लैशबैक, (3) पात्रों के अन्तःकरण में प्रवेश, (4) स्वप्‍न-शैली और (5) किस्सागो शैली। प्रेमचन्द अपने इन सारे औपन्यासिक शिल्प की तकनीक को अलग-अलग नहीं बल्कि एक साथ प्रस्तुत करते हैं और इसे इस प्रकार मिश्रित करते हैं कि पाठक को पता ही नहीं चलता कि लेखक ने कब तकनीक बदल दी है। कभी पाठक पात्रों को नजदीक से देखता है, कभी दूर से देखता है, कभी उसके अन्तःकरण में प्रविष्ट हो जाता है और कभी उनके सपनों का साझीदार बन जाता है। प्रेमचन्द एक प्रसिद्ध किस्सागो हैं और परम्परागत कथा शैली का इस्तेमाल करते हुए बार-बार पाठकों को सम्बोधित भी करते हैं। इसी कारण कई बार प्रेमचन्द अपने उपन्यासों में प्रत्यक्ष रूप से सामने आते हैं और अपने वर्णनों, विचारों और टिप्पणियों के साथ बार-बार पाठकों को सम्बोधित करते हैं। इस सन्दर्भ में प्रो. रामबक्ष का मत विचारणीय है कि- “वैचारिक आग्रह के कारण गोदान की वर्णन कला भी प्रभावित हुई है। वे किस्सागो मशहूर हैं। परन्तु गोदान में उनका विचारक किस्सागो पर हावी है। वे उपन्यास के विविध हिस्सों की शुरूआत एक सफल किस्सागो की तरह करते हैं।” (गोदान: एक पुनर्विचार, पृ. 139) हालाँकि गोदान  में प्रेमचन्द इस प्रविधि से काफी मुक्त होते दिखाई पड़ते हैं परन्तु एक कथाकार के रूप मे प्रेमचन्द नेपथ्य में नहीं रह पाते परन्तु उनका सामने आना भी सोद्देश्य होता है। जब उन्हें अपनी कोई बात कहनी होती है, या फिर गाँव का चित्रण करना होता है या फिर पात्रों के व्यवहार का वर्णन करना होता है तो वे सामने आ जाते हैं। परन्तु वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि कथा की केन्द्रीयता धूमिल न हो। कई बार प्रेमचन्द अपने पात्रों को आत्मचिन्तन करते हुए दिखाते हैं, पाठक और पात्र एक दूसरे में समाविष्ट हो जाते हैं। गोदान के अन्त में जब होरी की मृत्यु हो रही है उस समय वह सपना देखता है और सपने में गाय की छवि मूर्तिमान हो उठती है।

 

विजयमोहन सिंह ने गोदान के शिल्प पर फ़िल्मी फार्मूले का प्रभाव माना है, उनके अनुसार जिन दिनों प्रेमचन्द ने गोदान लिखना आरम्भ किया, उन दिनों वे फिल्मों के लिए लिख रहे थे और बम्बई में थे। अपनी अवधारणा को पुष्ट करते हुए वे लिखते है कि- “गोदान की लेखन पद्धति पर फ़िल्मी फार्मूलों का जबर्दस्त प्रभाव है खास तौर पर गोदान का पूर्वार्द्ध फ़िल्मी लटकों की नाटकीयता से भरपूर है… गोदान की रामलीला, शिकार प्रसंग, कबड्डी या गोबर- द्वारा गाँव के मठाधीशों का स्वांग ये सारे दृश्य नाटकीयता से भरपूर है। रामलीला प्रसंग में प्रो. मेहता द्वारा काबुली वाला बन कर मिस मालती के अपहरण की रसपूर्ण चेष्टा और शिकार-प्रसंग के अन्तर्गत नाले में घुस कर मिस मालती को कन्धे पर बैठा लेने वाली उछल-कूद छिछली, फ़िल्मी नाटकीयता के अतिरिक्त और कुछ नहीं जाहिर करता। इसी प्रकार तंखा की कबड्डी प्रतियोगिता में मृत मेहता में मिस मालती के स्पर्श मात्र से ‘बजरंगी पौरुष’ जाग जाना भी फ़िल्मी लटकों का अचूक और अत्यन्त परिचित उपयोग है।  गोदान की लेखन पद्धति ऐसे फ़िल्मी लटकों से काफी आक्रान्त है और प्रेमचन्द ने चाहे फ़िल्मी जीवन और लेखक की जितनी उपेक्षा की हो, उस जिन्दगी का इतना काजल उनके साथ गोदान में उतर ही आया।” (गोदान : एक पुनर्विचार, पृ. 119) विजयमोहन सिंह ने गोदान के शिल्प सम्बन्धी नए दृष्टिकोण की तरफ ध्यान आकर्षित कराया है। बड़े रचनाकार इसीलिए महान होते हैं, क्योंकि वे अपनी रचनाओं में विविध मानव प्रतिमाओं का निर्माण करते है। गोदान का महत्व इसीलिए है कि इसमें प्रेमचन्द ने होरी और धनिया की प्रतिमा का निर्माण किया है। नलिन विलोचन शर्मा एपिक नावेल की अवधारणा के अनुरूप गोदान को औपन्यासिक महाकाव्य कहते हुए ढीलेढाले संगठन को ही उसकी स्थापत्य का गुण बताया है। वे लिखते हैं कि गोदान अपने में पूर्ण ताजमहल नहीं है, जिसका प्रत्येक इंच पहले से ही सोच लिया गया है, वह शायद आगरा के बेतरतीब किले की तरह है जिसमें बड़े-बड़े प्रकोष्ट भी हैं और गन्दे तहखाने भी। अर्थात गोदान के कथानक का बिखराव ही गोदान की खूबसूरती है। विजदेवनारायण साही ने प्रेमचन्द के अन्य उपन्यासों से गोदान का शिल्प भिन्‍न बताया है उनका मानना है कि- गोदान का ठहराव आश्‍चर्यजनक है। विशेषत: इसलिए कि प्रेमचन्द अपने अन्य उपन्यासों में मूलतः परिवर्तन के उपन्यासकार है। दूसरे उपन्यासों में समाज के रीति-रिवाज बदलते है। संस्थाएँ बदलती रहती हैं, शासक बदलते हैं, आश्रम स्थापित होते हैं लोग अपना पुश्तैनी पेशा छोड़कर जंगल-जंगल भटकने चले जाते है, भिखारी भटकना छोड़कर संग्राम के सैनिक हो जाते हैं…सबसे अधिक जो वस्तु बदलती रहती हैं, वह है मनुष्य का हृदय; इस सारे परिवर्तन में प्रेमचन्द उलझे हुए रहते है… लेकिन गोदान में कुछ भी नहीं बदलता। गोदान में यथार्थवाद उपयोग की वस्तु नहीं है, वह एक दृष्टि बन जाता है, जिसके भीतर मानव का केन्द्रीय प्रश्‍न उठता हुआ दिखता है। इस लिए गोदान अन्य उपन्यासों से भिन्‍न भी है,श्रेष्ठतर भी। और इसलिए गोदान महान उपन्यास की कोटि में पहुँचता है।” (गोदान: एक पुनर्विचार, पृ. 36) गोदान का समाज ठहरा हुआ है, सभी चरित्र जैसे प्रतीक्षारत हैं, जैसे कोई  घटना घटेगी। लेकिन कोई घटना नहीं घटती। यह नहीं कि कुछ होता नहीं। हर बार यही लगता है कि घटना अनावश्यक बुलबुला बनकर समाज  के ठहराव में विलीन हो जाती है। होरी की मृत्यु भी बुलबुलों की इस शृंखला में सिर्फ आखिरी बुलबुला है, जिसका प्रयोग उपन्यास का अन्त करने के लिए कर दिया गया।

 

7. निष्कर्ष

 

इस प्रकार प्रेमचन्द ने अपने इस उपन्यास में कथा शिल्प की एकाधिक प्रविधियों का इस्तेमाल किया है और वे इस प्रविधि के माध्यम से अपने प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता के साथ पाठकों के सामने रखते हैं। चाहे वह गाँव का चित्रण हो, या फिर शहर का। प्रेमचन्द बहुत बारीकी से तथ्यों को सामने रखते हैं और उसका चित्रण करते हैं। गोदान में जो दो कथाएँ समानान्तर रूप से चलती हैं उसमें कहीं-कहीं कमजोर सूत्र तो नजर आते हैं परन्तु मुकम्मल रूप में देखा जाए तो उस माध्यम से उन्होंने पराधीन भारत का एक सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यही नहीं इस उपन्यास में कहीं-कहीं राष्ट्रीय आन्दोलन का भी प्रभाव दिखाई पड़ता है और नगर कथा के माध्यम से यह यथार्थ भी सामने आया है। गोदान में प्रेमचन्द ने राष्ट्रीय आन्दोलन का सीधा चित्रण तो प्रस्तुत नहीं किया है परन्तु इसमें यह दिखाया है कि जब तक जमीन्दारी व्यवस्था का उन्मूलन नहीं हो जाता तब तक किसानों का अस्तित्व खतरे में है। गोदान में प्रेमचन्द की लोकतान्त्रिक दृष्टि स्पष्ट रूप से सामने आती है और वह यह दिखाते हैं कि किस प्रकार सामन्ती जीवन ढह रहा है और पूँजीवादी व्यवस्था पनप रही है। नगर कथा के माध्यम से पूँजीवाद के इसी अन्तर्विरोध को दिखाने का प्रयास किया गया है ओर प्रेमचन्द ने किसानों की समस्याओं और शोषण को उससे जोड़ने का प्रयास किया है। इसी कारण शहरी कथा और ग्रामीण भले ही एक दूसरे से असम्बद्ध दिखाई पड़ती हों लेकिन हैं वह एक दूसरे से जुड़ी हुई। प्रेमचन्द की भाषा तो निश्‍च‍ित रूप से अद्वितीय है और उन्होंने जिस प्रकार से ग्रामीण और शहरी जीवन का चित्रण किया है उससे प्रेमचन्द की औपन्यासिक दृष्टि का पता चलता है। प्रेमचन्द की भाषा को सरल माना जाता है लेकिन उसमें जो अर्थधारण की क्षमता है वह अद्भुत है। प्रेमचन्द की भाषा में गम्भीर अर्थ छिपा होता है। प्रेमचन्द की भाषा कई बार काव्यात्मक भी हो जाती है ओर खासतौर पर जब वे प्रकृति का चित्रण करते हैं या फिर उन्हें अपनी बात कहनी होती है। वे अपनी कथा में रूपकों का भी इस्तेमाल करते हैं और जो उनकी कथा शैली को मजबूत बनाती है। इनकी भाषा में व्यंग्य, विरोध और विडम्बना के कई दृश्य उपस्थित होते हैं कहावतों, मुहावरों और लोकोक्तियों के माध्यम से वे कथा को मजबूत बनाते हैं। उनकी कथात्मकता में उपदेश के जो तत्व शामिल हुए हैं वह भारतीय कथा परम्परा की ही देन है जिसमें उपदेशात्मकता की प्रधानता रहती है। प्रेमचन्द ने गोदान में इस परम्परागत कथा शैली और भाषा का बड़ा ही माकूल प्रयोग किया है जिससे कथा सरस और पठनीय बन पड़ी है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रेमचन्द के उपन्यास गोदान में जिस कथा शिल्प का प्रयोग किया गया है वह आज भी कथा को प्रस्तुत करने के लिए एक मानक बना हुआ है इसीलिए यह एक क्लासिक कृति है।

 

पुस्तकें

 

अतिरिक्त जाने

  1. प्रेमचन्द और उनका युग, रामविलास शर्मा,  राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-110002
  2. कलम का सिपाही, अमृत राय,  हंस प्रकाशन, दिल्ली
  3. प्रेमचन्द घर में, शिवरानी देवी,  आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली
  4. प्रेमचन्द : एक कृति व्यक्तित्व, जैनेन्द्र कुमार, पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली
  5. प्रेमचन्द और भारतीय किसान, प्रो.रामबक्ष,  वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. प्रेमचन्द अध्ययन की नयी दिशाएँ, कमल किशोर गोयनका,  साहित्य निधि, नई दिल्ली-110002

 

वेब लिंक्स