5 कहानी-कला
डॉ. विनोद तिवारी
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- कहानी कला
- 1. वस्तु अथवा कथ्य की खोज
- 2. कथानक की रचना
- 3. शिल्प-संरचना
- 4. वर्ण्य-विषय की उपयोगिता/कथा-वस्तु
- निष्कर्ष
1.पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त–
- कहानी सम्बन्धी हिन्दी-आलोचना की परम्परा और विकास से परिचित हो सकेंगे।
- कहानी-रचना सम्बन्धी प्रक्रिया और प्रविधि जान पाएँगे।
- कहानी-कला के अन्तर्गत कहानी के तत्त्व और अन्तर्वस्तु की उपयोगिता से परिचित हो सकेंगे।
- समकालीन कहानी में विषय, रूप और कथ्य सम्बन्धी नवीनता के चलते कहन-शैली और दृष्टिकोण में आए बदलावों को जान पाएँगे।
2. प्रस्तावना
कहानी कहना और सुनना मनुष्य की आदिम वृत्ति है। इसलिए कहा जा सकता है कि कथा-जगत मनुष्य का रचा हुआ जगत है। एक ऐसा जगत, जिसमें सुख-दुःख, हास-परिहास, उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय के निदर्शन के साथ मनुष्यों द्वारा अपने ‘समाजों’ का शिक्षण और मनोरंजन किया जाता रहा है। इस मनोरंजन और शिक्षण की प्रक्रिया में ही वह ‘आलोच्य’ भाव-बोध भी अन्तर्निहित है, जिसे प्रत्येक समाज ने अपने प्रगति और विकास के लिए आवश्यक विचार की तरह आगे बढ़ाया है। इसलिए, इस रचनात्मक शिक्षण और मनोरंजन के अन्तर्गत ही वह न्याय-बुद्धि भी है, जो सजग ढंग से साहित्य को, संस्कृति को, कलाओं को देखती-परखती है। इस देखने-परखने में ही जो दृष्टिकोण विकसित होते हैं, वे समीक्षा, आलोचना और मूल्यांकन के आधार-तर्क बनते हैं। कहानी सम्बन्धी आलोचना और मूल्यांकन के आधार-तर्क भी ऐसे ही विकसित हुए हैं और बने हैं। यहाँ कहानी सम्बन्धी आलोचना और मूल्यांकन के अब तक विकसित आधार-तर्कों और मूल्यांकन पद्धतियों के साथ-साथ नवागत विश्लेषण-पद्धतियों, मूल्यांकन-दृष्टियों और प्रविधियों पर विचार किया जाएगा।
3. कहानी-कला
मनुष्य द्वारा सृजित और निर्मित कलाओं में कहानी सबसे आदिम और सामजिक कला रूप है। अपने को अभिव्यक्त करने और दूसरों की अभिव्यक्ति के प्रति सहृदय होने में ही कहानी की सामाजिकता का अर्थ विन्यस्त है। अन्य ‘समाजों’ की तरह भारत में भी कहानी कहने और सुनने की एक लम्बी परम्परा रही है। कथानक के साथ ही संवाद और चरित्र की भूमिकाओं की दृष्टि से वेदों के विभिन्न कथा-सूत्र, आख्यान और रूपक प्राचीनतम उदाहरण हैं। उपनिषदों की रूपक-कथाएँ, रामायण और महाभारत के आख्यानों-उपाख्यानों, बौद्ध साहित्य की जातक कथाओं, परवर्ती कथा-आख्यायिकाओं– हितोपदेश, पंचतन्त्र, बृहत्कथा, कथासरित्सागर, बेताल-पच्चीसी, सिंहासन-बत्तीसी आदि के अलावा मध्यकाल में अरब और फ़ारस से आए उन दस्तानों और प्रेमाख्यानों का भी बड़ा योगदान है, जिन्हें हम अलिफ़-लैला, हज़ार-दास्तान, हातिमताई, अनवर सुहेली, गुलिस्ताँ-बोस्ताँ, लैला-मजनूँ, शीरी-फरहाद के नाम से जानते हैं। इन सब की मिली-जुली उपलब्धियों को हम परम्परा और सन्दर्भ के लिए प्रस्तुत करते हैं। निश्चित ही इन सबको शामिल करने से विरासत की बड़ी प्रभावशाली और सम्पन्न समृद्ध परम्परा का बोध होता है। परन्तु, ज्यों ही हम आधुनिक-युग में ‘कहानी’ की बात करते हैं, सम्पन्न और समृद्ध परम्परा का यह सूत्र बहुत दूर तक हमारा साथ नहीं दे पाता, कुछ ही कदम चल कर वह वह साथ छोड़ देता है। परियाँ, अप्सराएँ, भूत-प्रेत, जिन्न, जादू की छड़ी, उड़नखटोला, तिलिस्मी और जादुई शीशे, मन्त्र, ताबीज आदि का सम्बल टूट जाता है।
अपने जीवन-काल (सन्1933) में ही प्रकाशित प्रेमचन्द की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ की भूमिका में जब प्रेमचन्द कह रहे होते हैं कि, ‘यथार्थ जीवन का प्रतिबिम्ब मेरी दृष्टि में कहानी-कला की एक अनिवार्य कसौटी है’ तो वस्तुतः वह हिन्दी कहानी को विश्व की कहानियों के समकक्ष देख पा रहे हैं। आज हम हिन्दी कहानी के जिस रूप पर बात करते हैं और उसकी कलात्मक-उपलब्धियों का विवेचन करते हैं, उसका रिश्ता कहन की उन प्रारम्भिक परम्परागत शैलियों से होते हुए भी, अपने कथ्य, कथानक और शिल्प में हिन्दी कहानियाँ बिलकुल अलग हो जाती हैं। हमारे सामने हिन्दी कहानी का जो रूप आज है उसका विकास एक शताब्दी जितना ही पुराना है और विश्व की आधुनिक कहानी–परम्परा में लगभग उतना ही नया। इसलिए इसे स्वीकार करने में अब कोई संकोच नहीं है कि विश्व-कहानी (विशेषतः पाश्चात्य) के प्रभावों में ही हिन्दी कहानी के रूप और शिल्प विकसित हुए हैं, निखरे हैं। राजेन्द्र यादव इंशाअल्ला खाँ की कहानी रानी केतकी की कहानी को उपर्युक्त भारतीय दास्तानगोई की परम्परा की अन्तिम कहानी मानते हैं और लिखते हैं– “उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में इंशाअल्ला खाँ की कहानी रानी केतकी की कहानी में हमें यही सब तत्त्व अपने अन्तिम रूप में मिलते हैं। इसके बाद तिलिस्मी उपन्यासों के नाम पर इन्हीं कहानियों का सिलसिला एक अन्तिम परिणति पा लेता है। तिलिस्मी कहानियों में चमत्कारों और अलौकिक घटनाओं को तर्कसम्मत और वैज्ञानिक रूप देने का आग्रह है – पहले से सिद्ध जादूगरों की जगह ऐय्यार ले लेते हैं। अलौकिकता और चमत्कार को तिलिस्मी वैज्ञानिकता और आधुनिक मशीनी कौशल से युक्ति-संगत बनाया जाता है। एक से एक विलक्षण घटना की कल्पना कर ली जाती है। विलक्षण कल्पना का ही सहारा लेते हैं राजा शिवप्रसाद सिंह अपनी राजा भोज का सपना और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न नामक रचनाओं में। लेकिन भारतीय कहानियों का स्वरूप यहाँ आकर एक विराम पाता है और उसकी आत्मा विदेशों की चली आती हुई परम्परा से मिलकर एक नया स्वरूप ग्रहण करती है।”
हिन्दी में कहानी-समीक्षा या आलोचना का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। भारतेन्दु और द्विवेदी युग में हिन्दी कहानी समीक्षा से सम्बद्ध कोई पुस्तक नहीं मिलती। इस समय की पत्र-पत्रिकाओं में छिटपुट टिप्पणियों, प्रारम्भिक समीक्षाओं, कहानी संग्रहों के विज्ञापनों और पुस्तक-परिचय में हिन्दी कहानी-समीक्षा के बीज ढूंढे जा सकते हैं। सन् 1922 में प्रकाशित बाबू श्यामसुन्दर दास की पुस्तक साहित्यालोचन में कहानी सम्बन्धी पहली व्यवस्थित आलोचना का ढंग मिलता है। इसके बाद सन् 1929 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य का इतिहास में हिन्दी कहानी की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचना के उदहारण मिलते हैं। सन् 1930 में प्रकाशित डॉ. रामकुमार वर्मा की पुस्तक साहित्य समालोचना में भी लगभग 116 पृष्ठों में कहानी सम्बन्धी आलोचना मिलती है। पर मूलतः ये तीनों साहित्येतिहास के ग्रन्थ हैं। कहानी समीक्षा या आलोचना की पुस्तकें नहीं। सन् 1933 में इलाहाबाद से निकलने वाली चाँद नामक पत्रिका में कहानी कला शीर्षक से रामनारायण ‘यादवेन्द्र’ का एक लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख में कहानी कला सम्बन्धी प्रारम्भिक तत्त्वों पर गम्भीरता से विचार किया गया है। नलिन विलोचन शर्मा का लेख आज की छोटी कहानी इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व का है। बाद में आगे चलकर सन् 1942 में डॉ. सत्येन्द्र की एक किताब प्रकाशित हुई प्रेमचन्द और उनकी कहानी कला। इस किताब में प्रेमचन्द की कहानियों पर लिखते हुए डॉ. सत्येन्द्र ने कहानी कला पर विस्तार से विचार किया है। सन् 1950-51 में डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने हिन्दी कहानी के शिल्प-विधि का विकास नामक एक शोध-ग्रन्थ प्रकाशित करवाया। इस शोध-ग्रन्थ में हिन्दी कहानी के उद्भव और विकास के साथ-साथ कहानियों के शिल्प पर भी थोड़ी बहुत चर्चा है। इस तरह की पुस्तकों में उस समय सबसे महत्त्व की पुस्तक जगन्नाथ प्रसाद शर्मा की सन् 1956 में प्रकाशित पुस्तक कहानी का रचना विधान है। हिन्दी कहानी के संरचना और कला को लेकर इस किताब में विस्तार से विचार किया गया है। सन् 1950 के बाद हिन्दी कहानी और कहानी-समीक्षा दोनों में एक नया दौर शुरू होता है, जिसे ‘नई कहानी आन्दोलन’ के नाम से जाना जाता है, और जिसके प्रस्तोता भैरव प्रसाद गुप्त और प्रवक्ता नामवर सिंह थे। इसमें कहानी और नई कहानी जैसी पत्रिकाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। बाद में इसी नाम से कहानी नई कहानी शीर्षक से नामवर सिंह की पुस्तक प्रकाशित हुई। आगे चलकर देवीशंकर अवस्थी, सुरेन्द्र चौधरी, विजय मोहन सिंह आदि ने कहानी सम्बन्धी आलोचना को विस्तृत आधार दिया।
4. वस्तु अथवा कथ्य की खोज
मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी लालसा यही है कि वह कहानी बन जाए। प्रकृति में जो कला मौजूद है वह प्रकृति की है। मनुष्य इन्हीं प्राकृतिक कला-रूपों और अवस्थाओं में अपने जीवन को खोजने और व्यक्त होने की प्रक्रिया में तरह-तरह के कलारूपों का सृजन करता है। फिर, कहने की लालसा के चलते कहानी तो आदिम कला रूप है ही। कहने-सुनने की मानव-समाज की अनिवार्य पद्धति इसके मूल में है। मानव समाज का ऐसा कोई बिरला ही व्यक्ति होगा, जिसे कहानी सुनना या कहना पसन्द न हो। कल्पना, गढ़न्त और कौतूहल के साथ घटनाओं का वर्णन उसके स्वाभाव में है। ‘कहना क्या है’? इसी को वह ‘कथ्य’ में पाना चाहता है।
वाचिक परम्परा में कहने और सुनने से आगे आज जब कहानी लिखी और पढ़ी जाती है, तो ऐसे में यह यह सवाल बहुत ही जरूरी हो जाता है कि कहानी के लिए ‘कथ्य’ की खोज पहले है या विषय की वर्णनात्मकता में ही ‘कथ्य’ का निर्माण होता है ? ‘संरचना’ की दृष्टि से यह माना जाता है कि कहानी ही नहीं किसी भी तरह की रचना के लिए ‘कथ्य’ का निर्धारण कर लिया जाता है; तत्पश्चात ‘प्लाट’ की कल्पना की जाती है। कहानीकार सुदर्शन का मानना है कि “कहानी संसार की साधारण घटनाओं में से चुनी हुई हर वह घटना है, जिससे पाठक का मनोरंजन हो सकता है। यह जरूर है कि कहानी लेखक के पास एक चौखटा हो और वह अपनी चुनी हुई और छाँटी हुई घटना को उस चौखटे में बिठा सकने की क्षमता रखता हो। जिस तरह के लैण्डस्केप संसार में पग-पग पर फैले हुए हैं, जरूरत ऐसी आँखों की है जो अपनी पसन्द के लैंडस्केप को आस-पास की चीजों से अलग कर सके और उसके गिर्द घेरा डाल सके। पुराने युग में तिलिस्मी कहानियों की सामग्री लेने के लिए परिस्तान और जादूनगरी में जाने के जरूरत थी। पर, आजकल के लेखक को कहानी लिखने के लिए जरूरी है देखने वाली आँख और लिखने वाली कलम की।” कथ्य सम्बन्धी यह वही धारणा है जिसमें यह मान्य है कि कहानी परिस्थिति की एक कौंध है, ध्रुपद की एक तान है, जिसे कहानी-कला के अन्य तत्त्वों–कथानक, कथोपकथन, घटना, चरित्र-चित्रण, देशकाल, वातावरण, आदि द्वारा संरचित कर दिया जाता है।
परन्तु, विचारणीय है कि देखने वाली आँख और लिखने वाली कलम का उद्देश्य या लक्ष्य क्या है ? मनुष्य की आकांक्षाएँ और समस्याएँ अभिव्यक्त हो रही हैं अथवा नहीं। क्योंकि, आज के अर्थ में कहानी लेखक और पाठक दोनों से जीवन के प्रति वस्तुनिष्ठ-दृष्टिकोण की माँग करती है। विषय-वस्तु की दृष्टि से भी यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यही कथ्य की दृष्टि को व्यक्त करता है। ‘रूप’ और ‘वस्तु’ का सवाल किसी भी रचना के ‘कथ्य’ और ‘प्लाट’ का ही सवाल है। एक रचनाकार इसे कैसे संरचित करता है, यह उसके समकालीन अनुभव-संसार और दृष्टि-बोध को भी परिभाषित करता है। इसलिए बहुत से रचनाकारों का मानना है कि कथ्य रचनाकार के अनुभव-संसार और दृष्टि-बोध की प्रकृति से ही निर्धारित होता है। सुरेन्द्र चौधरी ने इसे ही ‘विचार की प्रकृति’ कहा है और कथ्य को विचार के समानार्थी मानते हुए प्रसिद्ध कहानीकार जान बोलैण्ड को उद्धृत किया है – “सिर्फ विचार कहानी के निर्माण के लिए पूर्ण नहीं होता किन्तु उसे आना चाहिए प्रथमतः। एक बार यदि विचार आ गया तो उसके आधार पर आप आगे बढ़ सकते हैं।” वस्तुतः एक बार कथ्य अथवा वस्तु अथवा विचार के आ जाने पर उसके अवधारणात्मक अवधान हो जाने से कथानक के निर्माण की प्रक्रिया शुरू होती है। इस प्रकार कथ्य का अवधान कहानी-कला के विकास की पहली सीढ़ी है। तत्पश्चात कथानक, कथोपकथन, घटना, चरित्र-चित्रण, देशकाल, वातावरण, आदि को उसी कथ्य के अनुरूप गढ़ा जाता है और अन्त में वह कथ्य प्रस्तुत किया जाता है।
5. कथानक की रचना
कहा जाता है कि कहानी में नाम और सन् के सिवा सब कुछ सत्य होता है और इतिहास में नाम और सन् के सिवा कुछ भी सत्य नहीं होता। दरअसल, यह कथन कल्पना और वास्तविकता, गल्प-तत्त्व और तथ्य-सत्य की उस संरचना को व्यक्त करता है जो कहानी और इतिहास को अलगाते हैं। इतिहास में घटना का महत्त्व उसके तथ्यात्मक प्रामाणिकता से तय होता है; जबकि कहानी अपने कथानक में घटनात्मकता को रच लेती है। कथानक-रचना की प्रविधि इतिहास-लेखन की प्रविधि नहीं हो सकती। कहानी के शिल्प में कहानीकार घटनाओं, परिस्थितियों, पात्रों, समस्याओं आदि को यथार्थ में पाकर भी उसे कल्पना के शिल्प में ढालता है गढ़ता है और उसे एक नए यथार्थ में रूपान्तरित करता है। कथ्य को एक नया रूपबन्ध देता है। यथार्थ का यह रूपान्तरण, यह नया रूपबन्ध ही दरअसल कथानक की आत्मा है और कहानी की भी। इस सम्बन्ध में अमृत राय का कथन द्रष्टव्य है– “यथार्थ के जिस हिस्से को आप रूपायित करना चाहते हैं, कल्पना उसे ‘बाडी’ देती है, बनी-बनाई और सुनी-सुनाई बात को लेकर यदि कहानी लिखी गई है तो वह कहानी नहीं है।” दरअसल, कथानक की योजना, उसकी रचना और उसका विकास एक ऐसा हुनर है जिसे हर कहानीकार अपने तरीके से निर्मित करता है। किसी भी कहानी का सौन्दर्य कथानक की योजना, कथानक-रचना और उसके विकास की अन्विति पर ही निर्भर करता है। जगन्नाथ प्रसाद शर्मा लिखते हैं– “कथानक के विकास में जो बात आवश्यक होती है, वह है– बुद्धिसंगत प्रकृतत्व अथवा यथार्थता। यह यथार्थता सभी बातों में होनी चाहिए, वह चाहे चरित्र की कोई विशेष वृत्ति हो, चाहे किसी घटना की अभिव्यक्ति, चाहे वातावरण का चित्रण हो या देश-काल का कथन।” इसी बात को वे बिन्दुवार इस प्रकार रखते हैं–
- कथा के प्रवाह में काल के व्यवधान को सूचित करना।
- दृश्य और स्थान परिवर्तन का चित्र उपस्थित करना।
- चरित्र की मानसिक वृत्तियों के उत्कर्षापकर्ष को व्यंजित करना।
- प्रभावान्विति को उत्तरोत्तर तीक्ष्ण बनाते चलना।
कथ्य के अनुरूप कथानक को घटना, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, नाटकीयता, देशकाल, वातावरण आदि तत्त्वों के सहारे अन्त तक सफलतापूर्वक संगति दे पाने में ही कहानीकार की रचनात्मक कुशलता का परिचय पाया जा सकता है। कोई भी हुनरमन्द कहानीकार यह भूल कभी नहीं करता कि पहले उसने घटना-चक्र की योजना बना ली फिर उसे विचारों और सिद्धान्तों से सजा दिया और फिर बाद में कथ्य को उसके अनुरूप घटा दिया। इसे आधुनिक कहानी-कला के आदि-पुरुष एडगर एलन पो सही नहीं ठहराते। कुशल कलाकार वह है, जो पहले एक विशेष कथ्य की योजना कर ले, तदनन्तर घटनाओं, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन, नाटकीयता, देशकाल, वातावरण आदि तत्त्वों को इस रूप में नियोजित करे कथ्य प्रभावी और सफलतापूर्वक व्यंजित हो सके। प्रभाव उत्पन्न वाले इस बिन्दु पर ही नामवर सिंह ने एडगर एलन पो को ‘एकान्विति’ के सन्दर्भ से याद किया है। वे लिखते हैं– “…नि:सन्देह इस कला का चरम विकास आधुनिक युग में हुआ, जब उद्देश्य और कहानीपन दोनों घुल-मिलकर इस तरह एक हो गए कि उद्देश्य से अलग कहानी के रूप की कल्पना भी कठिन हो गई। कहानी के सम्बन्ध में आधुनिक-युग के प्रथम कहानीकार एडगर एलन पो के ‘एकान्विति’ शब्द से नि:संदेह अनेक अर्थों की सम्भावनाएँ हैं। कहानी की यह आन्तरिक एकता केवल रूप गठन तक ही सिमित नहीं है बल्कि उसकी वस्तु का भी समाहार करती है। जिस प्रकार कविता में अर्थ-व्यंजना अथवा वस्तु-व्यंजना से भिन्न लय की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार कहानी में भी वस्तु-व्यंजना से भिन्न कहानीपन की कल्पना करना खतरनाक है। वस्तु-व्यंजना से रहित लय कोरे पद्य को जन्म देती है और उससे रहित कहानी कोरी आख्यायिका को।” हालाँकि, हिन्दी कहानी के महत्त्वपूर्ण समीक्षक सुरेन्द्र चौधरी कथानक को कहानी के ‘वस्तु-प्रेरणा’ (मोटिव) के रूप में देखते हैं वे मानते हैं कि कथानक वास्तु का पर्याय नहीं हो सकता। बिना विचार के कथानक की रचना नहीं हो सकती। लेकिन महत्त्वपूर्ण यह है कि सुरेन्द्र चौधरी एडगर एलन पो के विचार को पुराना मानते हुए भी यह स्वीकार करते हैं कि, “वस्तु-विधान कहानीकार की रचना प्रक्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है।” दरअसल वस्तु और रूप (शिल्प) की यह लड़ाई नई नहीं है। महत्त्व इस बात का है कि कथानक या ‘प्लाट’ की रचना वस्तु या कथ्य के सन्धान या विधान के लिए ही किया जाता है। रही बात विचार की तो बिना विचार के तो न वस्तु की कल्पना सम्भव है और न कथानक की रचना। अतः ई.एम. अल्ब्राईट के इस कथन (जिसे सुरेन्द्र चौधरी अपनी बात के समर्थन में उद्धृत करते हैं) – “plot starts most commonly with an idea” – का महत्त्व भी इसी अर्थ में है।
6. शिल्प-संरचना
शैली और शिल्प को प्रायः एक मानकर चला जाता है। पर, शिल्प और शैली एक नहीं हैं। शिल्प किसी भी रचना के स्वरूप और संघटन का अनिवार्य तत्त्व है। शिल्प के विश्लेषण से हमें विषय-वस्तु, कथानक, उद्देश्य आदि के विकास के आन्तरिक तत्त्वों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। जहाँ कथानक से हम पता लगाते हैं कि, ‘क्या पेश किया गया है’ वहीं शिल्प से यह मालूम किया जाता है कि, विषय-वस्तु को ‘किस तरह पेश किया गया है’। इसलिए शिल्प एक तकनीक भी है। कहानी में घटना-प्रसंग, परिवेश, कथा-तत्त्व, कथावस्तु, कथारस आदि को महत्त्व शिल्प के द्वारा ही मिलता है। घटना-प्रसंग और परिवेश को रचने के लिए कहानीकार शुरू से ही नए नुस्खे ईजाद करता रहा है। इसके लिए वह कभी किसी जादुई-तिलिस्मी रहस्यम-नुस्खे का प्रयोग करता है (राजा शिवप्रसाद सिंह ‘सितारेहिन्द’, भारतेन्दु, देवकीनन्दन खत्री, गोपालदास गहमरी आदि की कहानियाँ), तो कभी किसी मनोवैज्ञानिक-प्रविधि का सहारा ले सकता है (इलाचन्द्र जोशी, अज्ञेय आदि की कहानियाँ), कभी वह दृश्यात्मकता, चित्रात्मकता और नाटकीयता का सहारा ले सकता है (चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, जयशंकर प्रसाद, सुदर्शन आदि की कहानियाँ), कुछ कहानीकार वैयक्तिकता और अन्तर्मुखता का सहारा लेते हैं (जैनेन्द्र, निर्मल वर्मा आदि की कहानियाँ), कुछ कहानीकार फैण्टेसी व जादुई यथार्थ को प्रयोग में ले आते हैं। फ़्लैश-बैक की पद्धति भी खूब प्रचलित है। पर प्रयोग के नाम पर इन शिल्प-प्रविधियों के बावजूद यह भी कहा जा सकता है कि बिना किसी शिल्पगत चमत्कार के भी कहानी सहज-सरल मुहावरे में अपने चुस्त-दुरुस्त कथानक के साथ महत्त्वपूर्ण कहानी हो सकती है। हिन्दी में प्रेमचन्द इसके सबसे बड़े उदहारण हैं। वैसे भी नुस्खे या फार्मूले वाली कहानी महत्त्वपूर्ण कहानी नहीं हो सकती। नामवर सिंह का तो सपष्ट मानना है कि कहानी में कहानीपन की रक्षा करना शिल्प का उद्देश्य होना चाहिए। “यदि कोई कहानीकार शिल्प के किसी विशेष अवयव की रचना करके सफलता का ढोल पीटता है, तो यही समझना चाहिए कि वह कहानी को एक ‘शिल्प’ समझता है।” स्पष्टत: लेखक की कलात्मक कुशलता वहीं तक है जहाँ तक वह शिल्प और तकनीक के सहारे कथानक को कथ्य के अनुरूप संरचित किया जा सके। इसलिए, नन्ददुलारे वाजपेयी जैसे आलोचक कहानी की व्याख्या ‘अर्थपूर्ण-कथानक’ कह कर करते हैं। पर सत्य यही है कि शिल्प, तकनीक और भाषा की योग्यता के आधार पर कथावस्तु को कहानीकार ‘डेकोरेट’ करके वातावरण को घनीभूत तो कर सकता है पर उससे असलियत नहीं पैदा की जा सकती। सुरेन्द्र चौधरी लिखते हैं– “वस्तुओं, घटनाओं, व्यापारों और भावनाओं के निरन्तर बदलते हुए जीवन-सन्दर्भ को चित्रित करने के लिए कथाकार निरन्तर नए मार्ग ढूँढता है, निरन्तर नए माध्यमों और तन्त्रों का प्रयोग करता है। वस्तुतः जिसे हम कहानी की शिल्प-विधि कहते हैं, वह जीवन के अनिवार्य क्रियात्मक स्थापत्य की ही अभिव्यक्ति है।”
7. वर्ण्य-विषय की उपयोगिता/कथा-वस्तु
‘किस्सा गया वन में सोचो अपने मन में।’ कहानी जब सुनी और सुनाई जाती थी तो अन्त में कोई नीति या उपदेश की बात कह कर कहानी ख़त्म की जाती थी। पर उसके बाद भी कुछ ऐसे श्रोता होते थे जो यह पूछ बैठते थे कि ‘फिर उस राजा या रानी या उस नेवले या उस बन्दर का क्या हुआ ?’ तो नैरेटर उपर्युक्त वाक्य कह कर श्रोता पर सब कुछ डालकर मुक्त हो जाता था। दरअसल, विश्व की किसी भी भाषा में कोई भी कहानी हो, उसकी कथा-वस्तु अथवा ‘कहन’ की माँग उस वाचिक युग में भी थी और आज मुद्रण के जमाने में भी है कि, ‘कहानी कहती क्या है ?’ इस ‘कहन’ से ही उस कहानी की उपयोगिता का भी आकलन होता है। अतः कथावस्तु के अन्तर्गत कहानी के उद्देश्य और उसकी प्रासंगिकता का आकलन किया जाता है। हालाँकि, कुछ कहानीकार और समीक्षक यह मानते हैं कि कहानी एक ऐसी विधा है जिसमें कुछ भी अन्त- अन्त तक खत्म नहीं होता। ‘नई कहानी’ आन्दोलन के एक महत्त्वपूर्ण कहानीकार निर्मल वर्मा का कथन द्रष्टव्य है – “कहानी का हर डिटेल एक भिन्न किस्म का तनाव और तापमान ग्रहण करता है। उपन्यास की तरह कहानी के ब्यौरे केवल माध्यम मात्र ही नहीं हैं, जो एक दूसरे से जुड़ते हुए अन्त में एक समग्र प्रभाव छोड़ते हैं, बल्कि कहानी में हर डिटेल अपनी ही जिन्दगी से स्पन्दित होता हुआ एक स्नायुतन्त्र है और जब कहानी खत्म होती है तो कुछ भी पूरा नहीं होता, क्योंकि उसमें कभी कुछ भी शुरू नहीं होता।” यही कारण है कि आज की कई कहानियों को पढ़ते हुए लगेगा कि ये कहानियाँ कोई निष्कर्ष या विकल्प या सन्देश दिए बिना ख़त्म हो गई। प्रेमचन्द की कहानी ‘कफ़न’ तक से ऐसी माँग की गई है। पर ऐसा होता नहीं है, ‘कथ्य’ को वर्ण्य-विषय की सहायता से कहानीकार कितनी संवेदना से सघन, मार्मिक और तनावपूर्ण बना सकता है। यह देखते हुए निष्कर्ष या विकल्प का आकलन जरूर होता है। वस्तुतः आज की कहानी- कला इतना विकास पा चुकी है कि उसे केवल पूर्व-निर्धारित कथा-समीक्षा के मानदण्डों पर नहीं कसा जा सकता। आज फैण्टेसी, रूपक-कथा, दृश्य-कथा, व्यंग्य, आत्मवेशी-कथा, कथा-रिपोर्ताज आदि अनेक रूप सामने आए हैं। इन कथा-रूपों को यथार्थ के बदलते समकालीन सन्दर्भों और और जटिलताओं में रखकर देखने रचने की चिन्ता कहानीकारों में दिखती है।
8. निष्कर्ष
हमारे सामने आज जो हिन्दी कहानी है, उसे बनने और विकसित होने में एक शताब्दी से ऊपर का समय लग गया। कहानी की इस लम्बी यात्रा के साथ-साथ कहानी-कला ने भी लम्बी यात्रा की है। कहने, लिखने और प्रस्तुत करने की प्रक्रिया और प्रविधि में लगातार विकास हुआ है। कहानी अपने स्वरूप और शिल्प में और निखरी है। कहानी जीवन के और नजदीक आ गई है। जीवन के बहुविध संघर्षों और उपलब्धियों के साथ सामाजिक तनावों और समस्याओं के वैविध्य को आज की कहानी तीव्रता और प्रभावोत्पादकता में रच रही है। भाषा, शैली, शिल्प, स्थापत्य के साथ-साथ विषय-वस्तु, कथ्य आदि में शुरू से ही हिन्दी में कहानी कला ने अपने को निरन्तर विकसित किया है।
पुस्तकें
- कहानी का रचना विधान, जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, ज्ञानवापी, वाराणसी।
- हिन्दी कहानी समीक्षा : उद्भव और विकास, ब्रजभूषण शर्मा, कला प्रकाशन, वाराणसी
- प्रेमचन्द की प्रासंगिकता, अमृत राय, पृष्ठ-112, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद।
- हिन्दी कहानी : प्रक्रिया और पाठ, सुरेन्द्र चौधरी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
- शताब्दी के ढलते वर्षों में, निर्मल वर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- विवेक के रंग, देवीशंकर अवस्थी (सं.), वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- रचना और आलोचना, देवीशंकर अवस्थी, मैकमिलन प्रकाशन, नई दिल्ली।
- कथा यात्रा (भूमिका), राजेन्द्र यादव (सं.), राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
- Pitking, B., The Art and Business of Story writing, (1919).
- Clenn Clark, A.M., A Manual of Short story Art (1926).
- Albright, E.M., The Short Story, Its Principle and structure.
- Gioia, D., The Art of the Short Story ( 2005).
वेब लिंक्स