2 उपन्यास की संरचना
डॉ. विनोद तिवारी
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- उपन्यास की संरचना
- 1. उद्भव और विकास
- 2. रूप-विधान
- 2.1 कथा, कथानक और कथावस्तु
- 2.2 देश-काल अर्थात ऐतिहासिक बोध
- 2.3 अन्विति और सामंजस्य
- 2.4 दृष्टिकोण अथवा उद्देश्य
- 3. शिल्प-तकनीक
3.3.1 आख्यान-तकनीक
3.3.2 चरित्रांकन
3.3.3 संवाद
4. विषय, रूप और कथ्य सम्बन्धी नवीनता और उपन्यास का भविष्य
5. निष्कर्ष
1.पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- उपन्यास के उद्भव और एक साहित्यिक विधा के रूप में उसके बनने और विकसित होने सम्बन्धी रचना-प्रक्रिया एवं विकास से परिचित हो सकेंगे।
- उपन्यास की रूप-रचना सम्बन्धी मूल तत्त्वों का परिचय पा सकेंगे।
- साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास-रचना की तकनीक, औपन्यासिक-संरचना के शिल्पगत तत्त्वों और प्रविधियों का की जानकारी हासिल कर सकेंगे।
- समकालीन उपन्यासों में विषय, रूप और कथ्य सम्बन्धी नवीनता के चलते कहन-शैली, संरचना और दृष्टिकोण में आए बदलावों को जान पाएँगे।
- प्रस्तावना
कहानी कहने की परम्परा जितनी आदिम है, उपन्यास के उद्भव की कहानी उतनी ही नई। साहित्यिक विधाओं में उपन्यास सर्वाधिक नई, आधुनिक और लोकप्रिय विधा है। ‘कथा’ कहने की आदिम परम्परा से भिन्न उपन्यास निश्चय ही औद्योगिक-सभ्यता की उपज है। छापेखाने और मुद्रण के आविष्कार ने इस विधा को ठोस जमीन उपलब्ध कराया। उपन्यास और सिनेमा दोनों ही तकनीकी युग के कलारूप हैं। यह ठीक है कि ‘गल्प’ (फिक्शन) या ‘आख्यान’ (नैरेशन) के अर्थ में ‘कथा-तत्त्व’ के लिए उपन्यास का एक रिश्ता महाकाव्यों, मध्ययुगीन प्रेमाख्यानों, इतिहास, पुराण और नाटकों से बनता है पर ‘उपन्यास’ प्राचीन कथात्मक रूपों और शैलियों का आधुनिक और परिष्कृत विकास भर नहीं है। उसने अपने जन्म से लेकर अब तक रूप, रचना, शैली, विधान सब में प्रयोग और विकास की भिन्न-भिन्न मंजिलें पार की हैं। वैसे तो, साहित्य की सभी विधाएँ केवल साहित्यिक-रचना मात्र नहीं होतीं, वह एक राजनीतिक व सामजिक संरचना भी होती हैं। परन्तु, इस धरातल पर अन्य साहित्य-रूपों की तुलना में उपन्यास सर्वाधिक समर्थ विधा-रूप है। यही कारण है कि, उपन्यास इतिहास और सामजिक अध्ययनों में महज एक ‘साहित्यिक-संरचना’ (लिटरेरी कंस्ट्रक्ट) की तरह नहीं पढ़ा जाता। बदलते सामाजिक-संरचना को समझने के लिए उसे एक ऐतिहासिक व सामजिक ‘पाठ’ की तरह भी पढ़ा जाता है। इसका कारण यह है कि उपन्यास मानव-सभ्यता के सामजिक और ऐतिहासिक प्रगति और अन्तर्विरोधों का सूत्रीकरण करने वाली सबसे सशक्त और कारगर विधा है। वह समाज और व्यक्ति के रिश्तों, विरोधों और अन्तर्द्वंद्वों को सम्पूर्णता के साथ पकड़ने की कोशिश करता है। यहाँ उपन्यास-संरचना सम्बन्धी आलोचना और मूल्यांकन के अब तक विकसित आधार-तर्कों और मूल्यांकन-पद्धतियों, निरूपण के तरीकों, विषय, रूप और कथ्य सम्बन्धी नवीनता के साथ-साथ नई बनने और विकसित होने वाली विश्लेषण-पद्धतियों, मूल्यांकन-दृष्टियों और प्रविधियों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाएगा, ताकि ‘उपन्यास-संरचना’ सम्बन्धी तत्त्वों, दृष्टियों और नवीनताओं का परिचय प्राप्त हो।
उपन्यास की संरचना
- 1. उद्भव व विकास
माना जाता है कि पुराने सामन्ती और प्रजातान्त्रिक समाजों में ईश्वर, ईशपुत्रों, देवदूतों, राजाओं और चरित नायकों या नायिकाओं को केन्द्र बनाकर जिन चरित-काव्यों या महाकाव्यों की रचना हुई, रेनेसाँ के बाद उनकी जगह उपन्यास ने ले ली। इसी तर्क पर उपन्यास को आधुनिक युग का महाकाव्य कहा गया। ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक रूपों और संरचनाओं में हुए परिवर्तनों से अभिव्यक्ति के रूपों और संरचनाओं में भी नवीनता आई। उपन्यास (नावेल) इसी नवीन रूपगत संरचना की अभिव्यक्ति बनकर आया। बांग्ला में उपन्यास के लिए प्रयुक्त ‘नवल’ शब्द इसी नूतनता को द्योतित करता है। ‘उपन्यास का उदय’ को लेकर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रस्तुत अपने शोध-प्रबन्ध में आयन वॉट ने इस लक्षण को स्पष्ट करते हुए लिखा – “पुरानी साहित्यिक विधाओं में परम्परा का अनुकरण ही सामान्य कसौटी था। उदहारणतः प्राचीन एवं पुनर्जागरण युग के महाकाव्यों में कथानक अतीत के इतिहास अथवा दन्तकथाओं पर आधारित थे और लेखक के प्रतिपादन की योग्यता शैली के निर्धारित भावों के अनुसार साहित्यिक सौष्ठव प्रदर्शित करने से आँकी जाती थी। इस साहित्यिक रूढ़िवाद को प्रथम और सबसे बड़ी चुनौती उपन्यास से मिली। इसका प्रमुख सिद्धान्त व्यक्तिगत अनुभवों के प्रति सच्चाई है, ये व्यक्तिगत अनुभव सदैव विशिष्ट होते हैं, अतः नवीन भी। इस प्रकार उपन्यास संस्कृति का एक ऐसा तर्कपूर्ण साहित्यिक माध्यम है जिसने गत कुछेक शताब्दियों में मौलिकता अथवा नवीनता को महत्त्व प्रदान किया है। अतः इस विधा को ‘नावेल’ के नाम से अभिहित करना सार्थक ही है। ”
विदित है कि पूर्व-पूँजीवादी सामन्ती समाज से पूँजीवादी औद्योगिक समाज के बनने की प्रक्रिया में 17वीं शताब्दी में पूँजी की वृद्धि से इंग्लैण्ड ही नहीं, पूरे यूरोप में एक तरह की नई सामजिक-राजनीतिक शक्तियों का उदय हुआ। नई व्यापारिक-शक्तियों का जन्म हुआ। साहसिक व्यापारिक और धार्मिक यात्राएं प्रारम्भ हुईं। इन यात्राओं का सम्बन्ध व्यापार, पूँजी और धर्म के प्रसार के साथ-साथ उपनिवेशन की प्रक्रिया से सीधे-सीधे जुड़ता है। इन यात्रा-वर्णनों में प्रारम्भिक उपन्यास के लक्षण मिलते हैं। जॅान बॅानयन की पुस्तक दि पिलिग्रिम्स प्रोग्रेस हो या डेनियल डेफो का राबिन्सन क्रूसो – इन पुस्तकों में यात्राओं का साहसिक वर्णन मिलता है। दि पिलिग्रिम्स प्रोग्रेस को तो ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के स्रोत के रूप में देखा गया, परन्तु डेनियल डेफो के उपन्यास ‘राबिन्सन क्रूसो’ (1719) से पश्चिम में उपन्यास का जन्म माना जाता है। पर औपन्यासिक-संरचना की दृष्टि से इसमें उपन्यास के कुछ प्रारम्भिक सूत्र मात्र मिलते हैं। कुछ विद्वान् सन् 1740 में प्रकाशित रिचर्डसन के ‘पामेला’ से इसकी सही शुरुआत मानने के पक्ष में हैं। पर, इन सभी में ‘उपन्यास’ के प्रारम्भिक रूप-लक्षण ही मिलते हैं। उपन्यास का वास्तविक रूप 18वीं शताब्दी के अन्त में स्पष्ट हुआ। इंग्लैण्ड में पूँजीपतियों के राजसत्ता और राजनीति में प्रभावी हस्तक्षेप के बाद वैश्विक पूँजीवादी आकांक्षा के चलते उपनिवेशवाद के साथ-साथ उपन्यास का रूप भी स्थिर होने लगा और प्रचार-प्रसार भी बढ़ता गया। रॅाल्फ़ फॅाक्स ने इन्हीं अर्थों में उपन्यास को ‘पूँजीवादी आकांक्षा का विशिष्ट साहित्य रूप’ कहा है। अपनी पुस्तक दि नावेल एण्ड दि पीपुल (हिन्दी अनु.- उपन्यास और लोकजीवन) में उन्होंने से पूँजीवाद और उपन्यास के सम्बन्धों पर विस्तार से लिखा है।
एशिया, अफ्रिका और दक्षिण अमेरिका के कई देशों की तरह भारत में भी उपन्यास का जन्म उपनिवेशवादी मनःसंरचना में हुआ। “उन्नीसवीं सदी में अंग्रेजी राज, अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी साहित्य के साथ ब्रिटिश उपनिवेश बने भारत में नॉवेल आया। देखते-देखते देश की समस्त भाषाओं में नवोदित वाचक-वर्ग पर वह छा गया।” इसमें सन्देह नहीं कि अन्य उपनिवेशित देशों की तरह यहाँ भी शुरू से ही उपन्यास एक राजनीतिक-सामाजिक साहित्य-रूप बनकर आया। यहाँ के भी सजग-सचेत उपन्यासकारों ने अपने समय-समाज की समस्याओं को प्रस्तुत करते हुए सामाजिक-राजनीतिक पहल में योगदान दिया। लेसली फिडलर के कथन ‘देश और उपन्यास एक साथ जन्म लेते हैं’, का सहारा लेते हुए नामवर सिंह ने सन् 1857 के महाविद्रोह से उत्पन्न राजनीतिक उथल-पुथल को इस सन्दर्भ में एक लक्षण के तौर पर रेखांकित किया है। उल्लेखनीय यह भी है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सही अर्थों में ‘भारतीय उपन्यास’ का चेहरा (एक दो उदाहरणों को छोड़ कर) उपनिवेशवाद या पूँजीवाद का विरोधी चेहरा बनकर नहीं आता। इन उपन्यासकारों के यहाँ फील्डिंग, फ्लाबेयर, डिकेंस आदि की तरह पूँजीवादी समाज-व्यवस्था की आलोचना नहीं मिलती। इसके पीछे का मूल कारण सम्भवतः सामन्तवादी मानसिकता और पूँजीवादी व्यवस्था की वह चालाक संरचनाएँ हैं, जिनकी दुरभिसन्धियों में पराधीन भारत गुजर रहा था। नव-विकसित मध्यवर्ग और उसके शुरुआती चरित्र को इन दुरभिसन्धियों में फँसा हुआ देखा जा सकता है। सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के साथ हिन्दी के प्रारम्भिक उपन्यास इसके उदहारण हैं। इससे भिन्न एक दूसरी औपन्यासिक दुनिया है जिसमें सामन्ती-तत्त्वों के साथ साम्राज्यवादी मानसिकता वाले इतिहासकारों द्वारा प्रदत्त वह ‘भारतीय-छवि’ भी है, जो तिलिस्म, ऐय्यारी और चमत्कारों से निर्मित जादू-टोने, चमत्कार, सस्पेंस, कौतूहल और उत्साह में विन्यस्त औपन्यासिक दुनिया है। सही अर्थों में इन्हें जासूसी उपन्यास भी नहीं कहा जा सकता। जासूसी उपन्यासों पर काम करते हुए फ्रेंचेस्का ओरेसेनी के ‘जासूसी उपन्यास 19वीं सदी के उत्तर-भारत की एक व्यावसायिक विधा’ नामक लेख में यह निष्कर्ष देखने लायक है – “ये उर्दू फारसी दास्तानों और लोकप्रिय रोमांसों की रोमांचक दुनिया है, जिसमें राजाओं और राजकुमारों, जादुई परियों और उनका अलौकिक संसार रहता है। यह उन सम्पत्तिशाली वर्गों की दास्तान थी, जिनमें भू-स्वामी और नगरों में रहने वाले बड़े सौदागर शामिल थे।” ऐसे उपन्यासों के प्रतिनिधि उपन्यासकार बाबू देवकीनन्दन खत्री थे। चन्द्रकान्ता, चन्द्रकान्ता सन्तति, भूतनाथ इत्यादि उपन्यासों की रोचकता और पाठकीय लोकप्रियता से सभी परिचित हैं। इससे भिन्न प्रवृत्ति वाले उपन्यासों की एक दूसरी कोटि ‘सोसायटी नॉवेल्स’ की है जिनका उल्लेख विश्वनाथ काशीनाथ रजवाड़े के कादम्बरी (सन् 1902) नामक लेख में मिलता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय भाषाओं के साथ-साथ हिन्दी उपन्यास भी अपनी प्रारम्भिक अवस्था में उपनिवेशवादी साम्राज्यवादी योजना का एक साहित्य-रूप बनकर ही सामने आया। बेनेडिक्ट एण्डरसन के शब्दों में कहें तो ‘प्रिण्ट कैपिटलिज्म’ का एक नमूना। यह परिदृश्य बीसवीं सदी में प्रेमचन्द के आने के साथ बदलता हुआ दिखा।
2. रूप-विधान
2.1. कथा, कथानक और कथावस्तु
मानव चेतना और समाज में जो तरह-तरह के भौतिक और अध्यात्मिक परिवर्तन होते रहे हैं और हो रहे हैं, मानुष-कथा के रूप में आज उन्हें प्रस्तुत करने का श्रेष्ठतम माध्यम उपन्यास ही है। मनुष्य के मानसिक और सामाजिक जीवन के विविध व्यापारों को जिस ढंग से उपन्यास में निबद्ध किया जा सकता है, वह इसे अन्य विधाओं की तुलना में एक विशिष्ट आयाम प्रदान करता है। इसीलिए हेनरी जेम्स जैसे विद्वानों का मानना है कि “उपन्यास एक ऐसा आधुनिक काव्य-रूप है जिसमें एक साथ ही कहानी और नाटक, कविता और संगीत, चित्रकला और स्थापत्य सभी का अन्तर्भाव मिलता है।
कथा जिस तरह कहानी के लिए एक प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण तत्त्व है उसी तरह वह उपन्यास का भी मूल-आधार है। कथा-तत्त्व की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता इस बात में होती है कि वह मानव-मन में यह जिज्ञासा बनाए रखता है कि, ‘आगे क्या हुआ’। कथा कहन है तो कथानक उस कहन की रचना, ताना-बाना है। कथावस्तु इन दोनों से सृजित रूप का लक्ष्य या उद्देश्य है। और स्पष्ट ढंग से कहा जाए तो कथा, कालक्रम में संजोई गई घटनाओं का विवरण है तो कथानक घटनाओं का ऐसा विन्यास, जिसमें कार्य-कारण पर बल रहता है, और कथावस्तु, कथ्य का तर्कसंगत और बौद्धिक पहलू व दृष्टिकोण है। इस सम्बन्ध में नित्यानन्द तिवारी का कथन है कि– “कथानक कहानी का सिर्फ ढाँचा नहीं है, वह लेखक के अनुभव में वस्तुगत वास्तविकता की अनिवार्य आंच और निशान का प्रमाण होता है और बिना सूक्ष्म भाषिक और तकनीकी योग्यता के भी सच्चे साहित्य की शर्तें पूरी कर सकता है। कई बार ऐसा होता है कि, शिल्प, तकनीक और भाषा की योग्यता से प्रभाव को घनीभूत किया जा सकता है, असलियत नहीं पैदा की जा सकती। कथानक वास्तविकता का साक्षात्कार है लेखक की सृष्टि नहीं।” दरअसल, उपन्यासकार की चेतना अपने अनुभव और विवेक से अपने औपन्यासिक चरित्रों और कथावस्तुओं का निर्माण करती है और उन्हीं में अपना देश-काल ढूँढती है। उन्हें पा लेना ही दरअसल उपन्यासकार की कलात्मक उपलब्धि है।
2.2. देश-काल अर्थात इतिहास-बोध
उपन्यास, मात्र स्थितियों-परिस्थितियों, भावों-मनोभावों, घातों-प्रतिघातों का संयोजन और कलात्मक निर्वाह भर नहीं है जो किसी एकरेखीय सम्भावना में निष्पन्न हो। उपन्यास ऐतिहासिक-सामाजिक शक्तियों के संघर्ष और गतिशीलता से निःसृत मनुष्य की नियति का अनेकवाची साहित्य-रूप है। ऐसे में उपन्यास का अपना एक ‘देश’ होता है और एक ‘काल’ होता है। इस ‘देश-काल’ के नागरिकों (चरित्रों) की रचना उपन्यासकार सामाजिक और ऐतिहासिक सन्दर्भों और जरूरतों के अनुकूल करता है। उपन्यास अपनी आख्यानात्मकता में समयातीत होते हुए भी कालातीत नहीं होता। उसकी दृष्टि समकालीनता की दृष्टि होगी। ‘समकालीनता’ का यह बोध ही दरअसल उस ‘इतिहास-बोध’ का विवेक है, जिसे मनुष्य अपने ‘सामाजिक’ होने की प्रक्रिया में प्राप्त करता है। मनुष्य किसी न किसी ‘देश-काल’ में अवस्थित होता है, ‘इतिहास-चेतना’ के आयामों में ही वह परिभाषित और व्याख्यायित होता है। इसलिए, जिस तरह मनुष्य ‘देश-काल’ से विच्छिन नहीं हो सकता उसी तरह उपन्यास भी ‘देश-काल’ शून्य नहीं हो सकता।
2.3. अन्विति और सामंजस्य
उपन्यास में कथा और कथानक के सफल निर्वाह के लिए घटनाओं, चरित्रों, संवादों, विषय-जन्य स्थितियों, परिस्थितियों, भावों, मनोभावों, घातों, प्रतिघातों का कुशल संयोजन और सामंजस्य होना चाहिए, तभी वह समूचा प्रभाव पैदा कर पाएगा। कुछ आलोचकों ने इसे सुई-धागे के रूपक में परिभाषित किया है। मिलान कुन्देरा इस संयोजन और तद्जनित प्रभाव की तुलना आर्केस्ट्रा से करते हैं और कहता है कि “जिस तरह समूचा प्रभाव उत्पन्न करने के लिए आर्केस्ट्रा में दृश्य में उपस्थित नृत्य करने वाले या गाने वाले स्त्री-पुरुष ही महत्त्वपूर्ण नहीं वरन पार्श्व में बजने वाले वे तमाम वाद्य-यन्त्र भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं, बल्कि उनके पूर्ण समंजन से ही वह प्रभाव उत्पन्न होता है, उसी तरह उपन्यास अपने ‘प्लाट’ में पूर्ण समंजन करके ही पूरा प्रभाव पैदा कर सकता है।” इसलिए बिना अन्विति और सामंजस्य के उपन्यास अपने कथानक और कथ्य का सफल निर्वाह नहीं कर सकता। वह शिथिल, बिखरा-बिखरा और अधूरा होगा।
2.4. दृष्टिकोण अथवा उद्देश्य :
औपन्यासिक स्थापत्य में दृष्टिकोण अथवा उद्देश्य महाभारत के सात्यकि और संजय की तरह एक अनिवार्य तत्त्व है। आप कोई कहानी पढ़ते हैं, कोई सिनेमा देखते हैं तो यह जरूर जानना चाहते हैं कि इस कहानी का उद्देश्य क्या है ? इस सिनेमा में क्या दिखाया गया है। यह जिज्ञासा, जानने की यह इच्छा ही दरअसल किसी ‘पाठ’ को चाहे वह उपन्यास हो, कहानी हो, कविता हो, सिनेमा हो या अन्य कोई कला माध्यम हो, प्रांसगिक और समकालीन बनाती है। प्रयोजनीयता अथवा प्रासंगिकता की माँग इसका प्रमुख लक्ष्य है। दृष्टिहीन उद्देश्य का कोई रचनात्मक अर्थ नहीं हो सकता। ठीक उसी तरह उद्देश्यहीन दृष्टिकोण भी निरर्थक होगा। उपन्यास के शिल्प के लिए ‘कैसे कहा जा रहा है’ का जितना महत्त्व है, उससे कहीं अधिक ‘क्या कहा जा रहा है’ उसका होता है। पर्सी ल्युबाक ने सबसे पहले क्राफ्ट्स आफ फिक्शन (सन्1921) में इस विषय पर विचार किया था। हेनरी जेम्स ने उपन्यास में दृष्टिकोण सम्बन्धी धारणा और टेक्निक को एक कलात्मक और दार्शनिक समस्या के रूप में वर्णित किया है। जेम्स लिखते हैं – “हर मानवीय जटिलता के सन्दर्भ में, चाहे वह सुखद हो या दुखद, अच्छा यह होगा कि हमारे दिमाग में एक ऐसे निरीक्षक या आलोचक की कल्पना रहे जो सभी बातों का निर्विकार आलोचक हो और सत्य के हित में दूर खड़ा होकर भी सब कुछ देख रहा हो।” हेनरी फिल्डिंग इसे ‘आविष्कार और परख’ की शब्दावली में परिभाषित करते हैं।
3. शिल्प-तकनीक
3.1. आख्यान-तकनीक
वर्ण्य-विषय का चुनाव और उसके सफल निर्वाह की टेक्निक उपन्यास का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष है। आदिम कथाओं से लेकर मिथकीय, पौराणिक और ऐतिहासिक राजा-रानी वाले कथानकों तक और आज की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं से सम्बन्धित कथानकों तक में इस टेक्निक की जरूरत होती है। आख्यानात्मकता की टेक्निक इसके लिए बहुत ही उपयुक्त मानी जाती है। इस टेक्निक के सहारे उपन्यासकार, कभी स्मृति द्वारा अनुभव को आमन्त्रित करता है तो कभी अनुभव द्वारा स्मृति को तरतीब देता है। इस प्रक्रिया में वह नैरेटर की भूमिका में भी होता है। उपन्यास में नैरेटर की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। माना जाता है कि नैरेटर लेखक का आत्म-प्रक्षेप होता है। आख्यान-तकनीक के सहारे नैरेटर समाज-इतिहास के साहित्य-रूप में उपन्यास को संरचित करता है। क्योंकि, पूरे इतिहास को समेटने का जो काम समाज-शास्त्र नहीं कर सकता, उसकी पकड़ से वह बाहर होता है उपन्यास स्मृति के द्वारा आख्यान के सहारे पूरा कर लेता है। नैरेटर पाठक और कथा-चरित्रों के बीच में एक पुल की तरह होता है। परन्तु ज्योंही वह पुल का काम छोड़कर प्रवाह में उतर कर विश्लेषण करने लगता है, पाठक की निरन्तरता में व्यतिक्रम उपस्थित कर उपदेश और निर्णय देने लगता है, उपन्यास अपने शिल्प में कमजोर होने लगता है।
3.2. चरित्रांकन
उपन्यास में चरित्रों और वस्तु-स्थितियों के विश्लेषण की कला बहुत महत्त्व रखती है। विषय-वस्तु और उसको रचने वाली घटनात्मकता से इसका बहुत गहरा रिश्ता होता है। हेनरी जेम्स का मशहूर कथन है कि “चरित्र घटना की नियति के सिवा और क्या है और घटना चरित्र के विश्लेषण के सिवा और क्या है ? यदि, घटनाओं और चरित्रों को एक सुनिर्दिष्ट विषय और वस्तु के साथ प्रस्तुत किया जाए तो चरित्रांकन बहुत ही प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है। अन्य साहित्यिक रूपों की तुलना में उपन्यास को चरित्रांकन की यह सुविधा प्राप्त है। क्योंकि, इसे जो कलात्मक स्वतन्त्रता, लचीलापन और यथार्थ के सभी रूपों के प्रति विस्तृत परिक्षेत्र प्राप्त है वह अन्य विधाओं के लिए सीमित है। उपन्यास के ढाँचे में जीवन के सभी प्रकार के जटिल और विस्तृत सम्बन्धों व परिस्थितियों को चित्रित किया जा सकता है। हेनरी जेम्स ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि “उपन्यास में जीवन के मूल संगीत को, उसकी छलना को, उसकी अरूप अनगढ़ लय को पकड़ने की कोशिश होती है। और यही कोशिश उपन्यास को जीवन्त बनाता है।” जाहिर है कि यह जीवन्तता उपन्यास के चरित्रों, घटनाओं, वस्तु-स्थितियों के सफल विश्लेषण पर ही निर्भर करेगा, क्योंकि इन्हीं के अनुरूप प्लाट का प्रस्तुतिकरण और समायोजन होता है और कथा, कथानक और कथावस्तु की निष्पन्नता सिद्ध होती है। तभी तो बीसवीं शताब्दी के महत्त्वपूर्ण कथालोचक ई. एम. फार्स्टर ने कथा-साहित्य में चरित्र-चित्रण पर विशेष जोर दिया। उनका कहना है कि “उपन्यास चरित्रों की सर्जना करता है उसका निर्माण नहीं करता।” यह कथन इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि यदि उपन्यासकार चरित्रों का निर्माण करेगा तो उसे साँचे गढ़ने पड़ेंगे, जबकि सर्जना में वह गढ़े हुए साँचों को तोड़ भी सकता है।
3.3. संवाद
उपन्यास को जीवन्त बनाने में ‘संवाद-योजना’ का विशेष योग होता है। जिन चरित्रों और वस्तुस्थितियों के माध्यम से उपन्यास में जीवन-यथार्थ का चित्रण किया जाता है, उसका महत्त्व इस बात में है कि वह किस प्रकार वर्णित हुआ है, किस प्रकार रूपायित हुआ है। वर्णन और रूपांकन की कला में संवाद की विशेष भूमिका होती है। नाटकीय स्थितियों, दृश्यों, तनावों और प्रभावों को रचने में संवाद-रचना के कौशल को नकारा नहीं जा सकता। कथानक में विशेष प्रभाव पैदा करने के लिए संवाद-रचना का स्थान महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार, नाटकीय- संरचना और दृश्य-प्रधान चित्रात्मकता के निर्माण के लिए संवाद-योजना की महत्ता को छोड़ा नहीं जा सकता, नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता। उपन्यास में चरित्रों और घटनाओं की अन्विति के सन्दर्भ से कथालोचकों ने संवाद के लिए कुछ आवश्यक तत्त्वों का उल्लेख किया है, जिनमें जीवन्तता, तीव्रता, लचीलापन, अभिव्यंजकता, वस्तुनिष्ठता, नैतिक शक्ति, वाग्मिता और काव्यात्मकता प्रमुख हैं। जोज़फ़ कॅानरेड की इस सम्बन्ध में मान्यता है कि, “उपन्यास का प्रभाव भी इन्द्रियों द्वारा सम्प्रेषित प्रभाव होता है। इसलिए, यह कोशिश होनी चाहिए कि लिखित शब्द की शक्ति से आप सुन सकें, अनुभव कर सकें और उससे भी पहले देख सकें।” वाल्टर बेसेण्ट ने कभी कहा था कि “उपन्यास प्रयोग के आधार पर जीवित रहता है और प्रयोग का अर्थ ही है उन्मुक्ति।”
4. विषय, रूप और कथ्य सम्बन्धी नवीनता और उपन्यास का भविष्य
आज जब, इतिहास, स्मृति, आख्यान आदि के ख़त्म होने की चिन्ता जाहिर की जा रही है, तो ऐसे में उपन्यास के भविष्य की चिन्ता स्वाभाविक है। परन्तु, यदि देखा जाए तो, उपन्यास की लगभग चार सौ साल से अधिक की विकास यात्रा में, उपन्यास ने विषय-वस्तु से लेकर रूप-रचना तक अपने को बार-बार बदला है। इस परिवर्तन के चलते ही उसका ‘नावेल’ (नवल) होना बार-बार परिभाषित होता रहा है। यही कारण है कि, ‘आख्यान’ कभी भी शुद्ध-कला नहीं हो सकता। वह ऐसी किसी माँग या धारणा की चिन्ता भी नहीं करता। हेनरी जेम्स ने जब बहुत पहले कहा था कि “उपन्यास एक ऐसा साहित्य-रूप है, जिसमें एक साथ कथा व नाटक, कविता व संगीत, चित्रकला व स्थापत्य सभी का अन्तर्भाव रहता है”, तो एक तरफ वह उसकी समावेशी व्यापकता की बात करता है तो दूसरी ओर उसके लाचीले और सामजिक प्रकृति को भी ध्यान में रख रहा है। उद्भव काल से लेकर आज तक अपने इसी समावेशी और लचीले प्रकृति के चलते विश्व भर में उपन्यास में विषय, रूप, कथ्य और कथानक सम्बन्धी न जाने कितने बदलाव, तोड़-फोड़ और प्रयोग होते रहे हैं और हो रहे हैं। फ़्रांस में सन् 1956-65 के दशक में ‘नोवो रोमाँ’ (Nouveau Roman) नामक आन्दोलन हुआ। इसी के आस-पास अंग्रेजी में ‘एण्टी नावेल’ का आन्दोलन उपन्यास में आया। इन आन्दोलनों ने यूरोपीय उपन्यास में अनेकशः बदलाव उपस्थित किये। भारत में भी छठे-सातवें दशक में इस तरह के बदलाव और प्रयोग के आन्दोलन हुए हैं। कन्नड़ में ‘नेवी-आन्दोलन’ का पूरा इतिहास मिलता है। यू. आर. अनन्तमूर्ति उसके सबसे बड़े प्रमाण हैं। मराठी, मलयालम आदि भाषाओँ में भी उपन्यास के क्षेत्र में यह बदलाव उपस्थित हुआ। तकषी शिवशंकर पिल्लैई, भालचन्द्र नेमाडे आदि का नाम उल्लेखनीय है। वाल्टर बेसेण्ट ने कभी कहा था कि “उपन्यास प्रयोग के आधार पर जीवित रहता है और प्रयोग का अर्थ ही है उन्मुक्ति।”
दरअसल, यह प्रयोगशीलता, यह तोड़फोड़ और यह उन्मुक्ति ही उपन्यास को जीवित बनाए रखेगी। उपन्यास मर नहीं सकता, उसमें समय, समाज, रूचि और प्रौद्योगिकीय बदलावों के साथ बदलाव होंगे और इस बदलाव में ही उसका भविष्य निहित है। वैसे भी, आधुनिक युग में प्रतिबन्धित और तरह-तरह के सेंसरशिप के शिकार साहित्य का अगर कोई ब्यौरा तैयार किया जाए तो उसमें सबसे अधिक संख्या उपन्यासों की ही होगी। इसका कारण है कि उपन्यास सर्वाधिक आधुनिक चेतना सम्पन्न लोकतान्त्रिक विधा है। सोलहवीं शताब्दी में स्पेन के सम्राट ने क़ानून बनाकर दक्षिण-अमेरिका में उपन्यास लिखने पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। तर्क यह था कि उपन्यास जनता के लिए खतरनाक होते हैं। परन्तु, दक्षिण अमेरिका में उपन्यास समाप्त नहीं हुआ एक से एक उपन्यास वहाँ लिखे गए। इसलिए, जब तक मनुष्य और उसका समाज बना रहेगा, तब तक उपन्यास का भविष्य बचा रहेगा।
- निष्कर्ष
साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास सर्वाधिक आधुनिक, समावेशी, सामजिक और लोकतान्त्रिक साहित्य-रूप है। यह आधुनिक मनुष्य के सामाजिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक संघर्ष और विकास का ऐसा अभिव्यक्त रूप है जिसमें वह अपनी नियति और जिजीविषा के साथ व्यक्त होता है। उपन्यास का ढाँचा ऐसा होता है कि, इसमें जीवन की सभी प्रकार के जटिल और विस्तृत सम्बन्धों व परिस्थितियों को चित्रित किया जा सकता है। उपन्यास में कथा और कथानक के सफल निर्वाह के लिए घटनाओं, चरित्रों, संवादों, विषयजन्य स्थितियों, परिस्थितियों, भावों, मनोभावों, घातों, प्रतिघातों का कुशल संयोजन और सामंजस्य सम्भव होता है। उपन्यास सामाजिक और ऐतिहासिक अन्तर्विरोधों का सूत्रीकरण करने वाली सबसे सशक्त विधा है। मनुष्य, समाज और ‘व्यक्ति’ के अन्तर्द्वंद्वों और अन्तर्विरोधों के साथ उसके आपसी रिश्ते को सम्पूर्णता में पकड़ने और अभिव्यक्त करने का दावा उपन्यास ही करता है और एक हद तक अभिव्यक्त भी करता है। यहीं आकर उपन्यास केवल साहित्यिक संरचना नहीं, सामाजिक संरचना बन जाता है। पिछले तीन-चार दशकों में हिन्दी एवं अन्य भारतीय-भाषाओं के साहित्य की दुनिया बहुत बदली है। साहित्य की दुनिया जिस समाज से जुडी होती है, वह समाज भी बहुत तेजी से बदला है। इस बदलाव को जाँचते-परखते साहित्य और उसमें भी उपन्यास के विविध परिवर्तनों और आयामों को पहचाना जा सकता है। दुनिया भर में एशिया, अफ्रिका और दक्षिण अमेरिका आदि कई देशों की तरह भारत में भी उपन्यास का जन्म उपनिवेशवादी मनःसंरचना में होता है। इसमें सन्देह नहीं कि अन्य उपनिवेशित देशों की तरह यहाँ भी शुरू से उपन्यास एक राजनीतिक-सामजिक साहित्य-रूप बनकर आया है। तब से लेकर आज तक यहाँ के सजग-सचेत उपन्यासकारों ने अपने समय-समाज की समस्यायों को प्रस्तुत करते हुए सामाजिक-राजनीतिक समझ को और अधिक साफ़ एवं प्रभावी बनाया है। यह विकास-यात्रा विधागत तोड़-फोड़ और बदलाव के साथ जारी है। उपन्यास अपने ‘सामजिक’, ‘प्रयोगशील’ और ‘समकालीन’ होने में ही अपने भविष्य को बचा कर रख सकेगा।
पुस्तकें
- उपन्यास कला, विनोद शंकर व्यास, हिन्दी साहित्य कुटीर प्रकाशन, वाराणसी।
- उपन्यास का उदय, आयन वाट (अनु.-धर्मपाल सरीन), हरियाणा ग्रन्थ अकादेमी, चण्डीगढ़।
- उपन्यास और लोक जीवन, रैल्फ फाक्स (अनु.-नरोत्तम नगर), पी.पी.एच, नई दिल्ली।
- उपन्यास की संरचना, गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- उपन्यास : स्वरूप और संवेदना, राजेन्द्र यादव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- आधुनिक साहित्य और इतिहास बोध, नित्यानन्द तिवारी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली।
- आधुनिकता और हिन्दी उपन्यास, इन्द्रनाथ मदान, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
- उपन्यास-लेखन शिल्प, ए.एस. ब्युरैक (अनु.-राममित्र चतुर्वेदी/रमेश चन्द्र शुक्ल), मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी, भोपाल।
- उपन्यास के पक्ष, ई. एम. फार्स्टर (अनु.-राजुला भार्गव), राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी, जयपुर।
- उपन्यास के रंग, अरुण प्रकाश, अन्तिका प्रकाशन, गाज़ियाबाद।
- नई सदी की दहलीज पर, विनोद तिवारी, विजया बुक्स, दिल्ली।
- भारतीय उपन्यास और आधुनिकता, वैभव सिंह, आधार प्रकाशन, हरियाणा।
- The Art of Fiction, Henry James, Partial Portraits (Macmillan).
- The Craft of Fiction, Percy Lubbock, Reada Classic, U.S.A.
- The Art of Novel, Milan Kundera, Rupa & Co., Delhi.
- The Art of Fiction, David Lodge, Penguin Books, New York, U.S.A.
- Nation and Narration, Homi K. Bhabha, Routledge, London.
वेब लिंक्स