21 नौकर की कमीज की भाषा और शिल्प
डॉ. योगेश्वर तिवारी and डॉ. वेद रमण पाण्डेय
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- नौकर की कमीज की भाषा
- नौकर की कमीज का शिल्प
- निष्कर्ष
1.पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- हिन्दी उपन्यास के शिल्प पर नौकर की कमीज के प्रभाव को समझ सकेंगे।
- नौकर की कमीज से हिन्दी उपन्यास-यात्रा में आये नये मोड़ की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
- नौकर की कमीज से हिन्दी उपन्यास के शिल्प में बदलाव को लेकर हिन्दी आलोचना की प्रतिक्रिया जान सकेंगे।
- विनोद कुमार शुक्ल ने उपन्यास की भाषा में जो प्रयोग किये हैं, इसकी जानकारी प्राप्त करेंगे।
2. प्रस्तावना
नौकर की कमीज विनोद कुमार शुक्ल का पहला उपन्यास है। सन् 1979 में यह प्रकाशित हुआ। इसके पहले विनोद कुमार शुक्ल के कविता के कई संग्रह प्रकाशित हो चुके थे।नौकर की कमीज अपने प्रकाशन के तुरन्त बाद ही चर्चा में आ गया। इस चर्चा का कारण इसके शिल्प की नवीनता है। यह उपन्यास कथा-विन्यास के पारम्परिक स्थापत्य को तोड़ता है। यह उपन्यास घटनाओं पर कम उनके घटने के तरीके पर ज्यादा जोर देता है। उपन्यास के मुख्य पात्र सन्तू बाबू की चिन्ता है कि “मेरी गैर हाजिरी में मेरा घर कैसा लगता होगा, यह मैं कभी नहीं देख सकता था।”(नौकर की कमीज) शरीर की आँखों से भले न देखा जा सकता हो, पर मन की आँखों से सन्तू बाबू अपनी अनुपस्थिति में भी अपना घर देख लेते हैं। विनोद कुमार शुक्ल ने हिन्दी उपन्यास के शिल्प में भाषा का नया रूप दिया है। यह भाषा सहज सरल होते हुए भी वक्र लगती है। विनोद कुमार शुक्ल के समकालीनों की भाषा में एक खास तरह का आडम्बर भरा हुआ है। साहित्यिक आन्दोलनों और सामाजिक विमर्शों ने भाषा को जटिल बना दिया था और हमें इसकी इतनी आदत पड़ गयी थी कि भाषा का सहजपन ही हमें असहज लगने लगा था। इसका एहसास विनोद कुमार शुक्ल को भी है। नौकर की कमीज के सन्तू बाबू का समय ऐसा था जब “आदमी के विचार तेजी से बदल रहे थे। लेकिन उतनी (ही) तेजी से रद्दीपन इकट्ठा हो रहा था।” मुश्किल यह कि “रद्दीपन देर तक ताजा रहेगा” जबकि “अच्छाई तुरन्त सड़ जाती थी।” (नौकर की कमीज) विनोद कुमार शुक्ल साहित्य में भाषा और विचारों की अच्छाई को कुछ इस तरह बचा कर रख लेना चाहते हैं जैसे तेज हवा से दीये की लौ को बचाया जाए। इस क्रम में विनोद जी हिन्दी उपन्यास के शिल्प में कुछ नया जोड़ देते हैं। उपन्यास की भाषा को नई भंगिमा देते हैं। एक उदाहरण देखें – ‘घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है. बाहर जाने के लिए दूसरों के घर होते हैं, दूसरे यानी परिचित या जिनसे काम हो….लौटने के लिए खुद का घर जरूरी होता है, चाहे किराए का एक कमरा हो या एक कमरे में कई किरायेदार हों।’
3. नौकर की कमीज की भाषा
नौकर की कमीज की भाषा समाज के सबसे नीचे तबके की जनता की सम्वेदना को सम्वेदनशील तरीके से व्यक्त करनेवाली भाषा है। यह भाषा समाज में देखने-सुनने को कम मिलेगी। इसका कारण आज के मशीनी युग में भाषा के स्वाभाविक रस का सूख जाना है। भाषा की ऊपरी परत सूख चुकी है। लेकिन थोड़ी सी जमीन खोदने पर ही भाषा का सरस स्तर हमें नजर आता है। इस भाषा को हम अपने बनावटीपन में भुला चुके हैं। इसलिए अब यह भाषा ही हमें बनावटी लगने लगी है।
विनोद कुमार शुक्ल अपने समय के बड़े रचनाकार इसीलए माने जाते हैं कि इनके यहाँ पर्यावरण सम्वेदना, पति-पत्नी सम्बन्ध, घर-पड़ोस और मित्र बार-बार आते हैं और पूरी सम्वेदना के साथ आते हैं। यही कारण है कि पाठक इन पात्रों से सहज ही जुड़ जाता है। साथ ही यह भी रेखांकनीय है कि विनोद जी के लेखन में आधुनिक बाजार और आधुनिक संचार लगभग अनुपस्थित है।
नौकर की कमीज की एक विशेषता यह भी है कि इसमें छोटे-छोटे विचारों की भरमार है। ये विचार समाज के प्रति विनोद कुमार शुक्ल के नजरिये को दिखाते हैं। वकौल विनोद कुमार शुक्ल “मैं कभी घोड़े पर नहीं बैठा परन्तु विचारों का पुराना घुड़सवार था।” (नौकर की कमीज) विचारों की घुड़सवारी खतरनाक होती है। पर इसका एक आनन्द भी है। विचारों की इस घुड़सवारी में भाषा को अनायास ही एक नई भंगिमा मिल जाती है। यहाँ गद्य व्याकरण के अनुशासन में कम और कविता के शासन में ज्यादा दिखता है। यथा, “चन्द्रमा आकाश से कहीं नहीं जा सकता। यदि वह नहीं दिखता तो बादलों में छुपा होगा। बाद में दिख जाएगा। चन्द्रमा आकाश से खोकर आकाश में ही रहेगा। यदि वह नहीं दिखता तो उसके खोने की फिक्र मैं नहीं करूँगा।” यह भी कि “मुझे चन्द्रमा आकाश में गोल खिड़की की तरह लगता था जिससे आकाश की आड़ में छुपी हुई दुनिया का उजाला आता था। सूर्य का भी यही हाल था। फर्क सिर्फ दिन और रात का था।”(नौकर की कमीज)
सूर्य और चन्द्रमा का एक रूप और देखें– “सूर्य कभी-कभी हमारे लिए रोजी का दिन भी ले आता है। और चन्द्रमा कभी-कभी नीन्द की रात।” विनोद जी को फिक्र है कि “कुछ उल्टा-सीधा हो गया तो हम मिलने वाले काम के दिन और नीन्द की रात भी खो बैठेंगे।” ‘कभी-कभी रोजी’ के दिन का मतलब वही समझ सकता है जिसे दिनभर कठिन परिश्रम के बाद पेट भरने के लिए रोटी मिलती है। पेट भरे होने पर ही नीन्द भी पास आती है। कहा भी गया है कि ‘भूखे भजन न होय’। पेट खाली हो तो रात को चन्द्रमा भी नीन्द नहीं दे पाता। इसी तरह सन्तू बाबू दुकानदार गुप्ता जी को बाजार का गणित समझाते हुए कहते हैं, “छिटका धान बोने वाला छोटा किसान या लापरवाह बड़ा किसान। कुएँ मोटर पम्प बड़े किसान के पास हैं। नहर के किनारे की जमीन भी उन्हीं की होगी। रोपा बोने का खतरा छोटा किसान नहीं उठाता।” पर जिन्दा रहने के लिए उसे छिटका धान बोने का खतरा तो उठाना ही पड़ता है। अब अगर गरीब किसान की “फसल खराब हो गई तो वे बड़े किसान के यहाँ मजदूर हो जाते हैं।” (नौकर की कमीज) बड़े किसान उनसे बहुत सस्ते में काम लेते हैं। उन्हें पता है कि गरीब किसान के पास उनके खेत में काम करने से सिवा और कोई चारा नहीं है। इससे बड़े किसान की खेत मजदूरी और अन्ततः धान की खेती की लागत कम हो जाती है। चूंकि अधिकतर गरीब किसानों की फसल खराब हो चुकी होती है इसलिए बाजार में धान की कीमत अपने आप बढ़ जाती है। अतः “बड़े किसान का धान कई गुना मुनाफा पाता है।”(नौकर की कमीज) दूसरी तरफ कई छोटे-बड़े व्यापारियों और दलालों के बीच से गुजरता धान जब चावल बन कर बाजार में वापस आता है, तब काफी महँगा हो गया होता है। और विडम्बना देखिए कि “ज्यादातर खरीदार वही छिटका बोने वाले किसान और मजदूर” होते हैं।” (नौकर की कमीज)
भाषा में नई उपमाओं का प्रयोग करते हुए विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं, “पत्नी का रिश्ता फूल को तोड़कर अपने पास रख लेने का था। पेड़ में खिले फूल जैसा रिश्ता नहीं दिखता था। यदि फूल पास में रखे-रखे मुरझा जाय तो पौधे में भी फूल मुरझा जाता है, यह तर्क तैयार रहता था।” एक अन्य प्रयोग देखिए, “साहब की ऊँचाई की तरफ सड़क में, एक कदम रखकर महंगू गले तक धंस गया था, दो कदम रखकर मैं धँस गया था। ऐसी स्थिति का खात्मा करने के लिए मुझे आदिम युग से पत्थर के हथियार ढूँढ़ने की जरूर नहीं थी। इसी सभ्यता से मुझे हथियार ढूंढ़ना था।” (नौकर की कमीज) यह हथियार स्वाभिमान, सम्मान, परोपकार, ईमानदारी और साहस से मिलेगा। यह हथियार आपसी एकता और सबकी भलाई के भाव से मिलेगा। निम्न वर्ग की आपसी एकता ही यह हथियार मुहैया करवाएगी। करवा सकती है।
भाषा का एक और उदाहरण देखने लायक है। बकौल सन्तू बाबू “सोचने में मैंने घर में दो ताले लगे हुए देखे। पीछे के दरवाजे में पत्नी का ताला है, जिसकी दोनों चाभी पत्नी के पास रहेंगी। मुझे उस चाभी से कोई मतलब नहीं है। सामने के दरवाजे में मेरा ताला है जिसकी चाभी केवल मेरे पास रहेगी, और उससे पत्नी का कोई मतलब नहीं होगा।” इस प्रकार “हम दोनों एक ही वजन इस तरह ढो रहे थे जैसे दो अलग-अलग वजन हों। जो कुछ मैं उसके भविष्य के लिए कर रहा था, वही वह मेरे भविष्य के लिए कर रही थी।” (नौकर की कमीज)
यहाँ देखा जा सकता है कि विनोद कुमार शुक्ल भाषा में विचारों को गूंथ कर पेश करते हैं। उनके विचार पैबन्द की तरह नहीं होते हैं। वे उन्हें कथा में इस तरह पिरोते हैं कि पाठक उन विचारों को सहज ही समझ सके। यह उदाहरण देखें जो उपन्यास का उपशीर्षक भी है – ‘अपनी सुरक्षा के लिए घर की सिटकनी लगा ली. दुनिया की सुरक्षा के लिए किस जगह सिटकनी लगेगी? घड़ी देखना समय देखना नहीं होता।’
नौकर की कमीज की भाषा में व्यंग्य और विनोद का पुट भी है। जैसे सन्तू बाबू के लिए नौकरी का मतलब था ‘एक शेर की देख-रेख की नौकरी।’ शेर की देख-रेख में शेर का भोजन बन जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। शेर भूखा रह जाए तो मालिक की झिड़की का डर बना रहता है। ऐसे में मालिक के डर से शेर का भोजन बन जाना ज्यादा सरल लगता है सन्तू बाबू को। सन्तू बाबू जब अपनी पत्नी से मजाक करते हैं तब उनकी पत्नी कहती है– “मुझमें बहुत हिम्मत थी। अभी भी हिम्मत है। मुझे डर लगता, यदि हिम्मत दिखाई तो साथ छोड़ दोगे। और मुझे दोष दोगे।” (नौकर की कमीज) यह कमजोर समझी जाने वाली स्त्री द्वारा पुरुष को दी गई खुली चुनौती है।
भाषा का एक और उदाहरण देखें– “घर का वातावरण जितना खराब हो, उतना दफ्तर का काम और दफ्तर की जिम्मेदारी बढ़ा लेनी चाहिए।” (नौकर की कमीज) सन्तू बाबू सोचते हैं कि ‘बापपन मुझमें ताकत पैदा करेगा।’ सन्तू बाबू का ही कथन है कि “मैंने उनसे (अपने बड़े भाई से) शादी से मना किया था। तब उन्होंने कहा था कि तुम्हारी नौकरी लग गई है, शादी करना अब जरूरी हो गया है। शादी-शुदा आदमी नौकरी के प्रति ईमानदार होता है। बच्चे होने के बाद वह और भी ईमानदार हो जाता है।” (नौकर की कमीज) नौकरी और शादी को लेकर निम्न मध्य-वर्ग की यह बहुत ही प्रचलित आम धारणा है जिसे विनोद कुमार शुक्ल ने यहाँ दिखाया है।
आज के समय में “अच्छी चीजें महँगी होती थीं और शुद्ध होकर और महंगी।”(नौकर की कमीज)। सन्तू बाबू “किराए के मकान से” दुनिया देखते हैं। जब किराए का मकान एक या दो कमरे वाला हो तब ‘खिड़की-दरवाजें खोल देने पर घर बिल्कुल नंगा हो जाता है।’
4. नौकर की कमीज का शिल्प
नौकर की कमीज का शिल्प अपने भाषा प्रयोग के कारण नया लगता है। भाषा प्रयोग के साथ ही इस उपन्यास में उप-शीर्षकों का उन्होंने ने बहुत ही सार्थक प्रयोग उपयोग किया है। हिन्दी उपन्यास में उप-शीर्षकों का इतना सार्थक प्रयोग सम्भवतः नौकर की कमीज में ही पहली बार देखने को मिलता है। पहला ही उप-शीर्षक है – “कितना सुख था कि हर बार घर लौटकर आने के लिए मैं बार-बार घर से बाहर निकलूँगा।” दुनियादारी के दुखों में जो सुख है, उसकी तलाश में उपन्यास शुरू होता है और खत्म इस आशय से होता है कि “कितना सुख था!” यह उपन्यास का अन्तिम उप-शीर्षक है।
जीवन-संघर्ष के बीच सुख के इन छोटे-छोटे पलों को देखकर ही गोपाल राय तल्ख़ टिप्पणी करते हैं। गरीबी में छिपी खुशी को दिखाती भाषा को देखते ही गोपाल राय को ‘कलावाद’ और ‘शब्दों की बाजीगरी’ नजर आने लगती है। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं, “आँखों से जो कुछ देखा जाता है, उसके साथ-साथ दुनिया का काम अनुभव से चलता है। अनुभव से ज्यादा अन्दाज से, जिसमें गलतियाँ ही गलतियाँ होती हैं।” फिर आगे कहते हैं “अन्दाज से नहीं, होशियारी और चालाकी से भी दुनिया चलती है। जिसमें गलतियों की सम्भावना कम होती है।” और “इसमें खुद का नुकसान कम, दूसरों का नुकसान अधिक होता है।” सन्तू बाबू जैसे लोगों की “सारी तकलीफ उन लोगों की होशियारी और चालाकी के कारण थी जो बहुत मजे में थे।”
मैला आंचल और राग दरबारी के बाद हिन्दी उपन्यास के शिल्प में कोई भारी बदलाव नहीं दिखता है। कुछ लोगों की दृष्टि में उपन्यास के शिल्प में तोड़फोड़ का यह मतलब होता है कि लेखक ‘पथभ्रष्ट’ हो चुका है। शायद इसीलिए लम्बे समय तक हिन्दी उपन्यास के बंधे-बंधाए शिल्प से किसी लेखक ने छेड़-छाड़ करने की कोशिश नहीं की। इसकी एक वजह शायद यह भी रही है कि अधिकतर लेखक किसी न किसी खेमे से बंधे हुए थे। उन्हें हिन्दी उपन्यास के शिल्प से अधिक अपने खेमे की फिक्र थी।
हिन्दी उपन्यास के सौभाग्य से विनोद कुमार शुक्ल किसी खास विचारधारा या खेमे की चहारदीवारी से नहीं घिरे। साथ ही वे किसी बड़े देशी या विदेशी उपन्यासकार-कहानीकार के प्रभाव से भी मुक्त हैं। इसीलिए जब वे उपन्यास लिखने बैठे तब उनके सामने उपन्यास का कोई आदर्श ढाँचा मौजूद नहीं था। एक तरह से विनोद कुमार शुक्ल की यह कमजोरी उनके उपन्यास लेखन के लिए वरदान सिद्ध हुई।
नौकर की कमीज के शिल्प की एक विशेषता है कि इसमें कथा के भीतर कई छोटी-छोटी उप-कथाएँ भी हैं। यहाँ कुछ लोक कथाओं का नए अर्थों में इस्तेमाल हुआ है। उदाहरण के लिए माली और सोने के तोते की कथा। बागीचे पर कड़ा पहरा होने के बावजूद सोने का एक तोता रात को असली तोता बनकर बागीचे का सारा फल खा जाता है। सुबह वह फिर सोने का तोता बन जाता है। विनोद जी ने सोने के तोते को मिट्टी का तोता बना दिया है। मिट्टी का तोता खुद फल नहीं खाता। बल्कि उसकी इच्छा है कि बागीचे में दिन-रात कड़ी मेहनत करने वाले माली को भी बागीचे के फलों का स्वाद पता चले। इसलिए वह रात में फल तोड़कर सोते हुए माली के सिरहाने रखता जाता है। इस डर से कि कहीं मैं ही चोर न समझा जाऊ, माली फलों को खाता जाता है। पर डर के मारे वह उन फलों का स्वाद नहीं जान पाता। अन्ततः तोते की सलाह पर माली एक दिन फलों को स्वाद लेकर खाता है। उस दिन उसे पहली बार पता चलता है कि उसके उगाए हुए फल कितने स्वादिष्ट होते हैं।
दरअसल वह तोता उस माली के भीतर की दबी इच्छा का प्रतीक है। वह मेहनतकश वर्ग की दबी इच्छाओं का भी प्रतीक है। इस तरह एक साधारण सी लोक कथा में विनोद जी ने बड़ा अर्थ भरा है। यह पुरानी कथा का पुनर्नवा होना है।
विनोद कुमार शुक्ल के औ/उपन्यासिक-शिल्प पर गोपाल राय की राय है “पूंजीवादी और अब बहुराष्ट्रीय बाजारवादी अर्थव्यवस्था साहित्य की निरर्थकता को प्रमाणित करने के लिए संचार माध्यमों का बहुत जोर-शोर से प्रयोग कर रही हैं। अनेक लेखक और आलोचक इस साजिश के जाने-अनजाने शिकार हो चुके हैं। ये लेखक यह सिद्ध करने पर तुले हुए हैं कि साहित्य शब्दों के खिलवाड़ से अधिक कुछ नहीं; मानवीय ज्ञान और सम्वेदना से उसका कुछ लेना-देना नहीं है। विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी के इन्हीं रचनाकारों में से एक हैं।”
नौकर की कमीज में मानवीय सम्वेदना का सूक्ष्म वर्णन किया गया है। सन्तू बाबू न सिर्फ अपनी पत्नी से प्रेम करते हैं वरन् अपनी माँ, भाई-भाभी से भी स्नेह करते नजर आते हैं। इतना ही नहीं, शहर में रहने के बावजूद उनकी सहानुभूति गरीब-छोटे किसानों के साथ है। छोटे किसानों का किस तरह शोषण हो रहा है या होता है, नौकर की कमीज में विनोद कुमार शुक्ल ने इसका बहुत सुन्दर विश्लेषण किया है।
5. निष्कर्ष
नौकर की कमीज के शिल्प पर अशोक वाजपेयी की टिप्पणी है, “विनोद जी ने अल्पलक्षित जीवन की सारी करुणा और विडम्बना एक अनोखे औपन्यासिक शिल्प में पूरे संयम के साथ बिना किसी नाटकीयता के विन्यस्त की थी।… बिना किसी अतिरिक्त भावुकता या लालित्य के यह एक कवि का पहला उपन्यास था।…उसका बिल्कुल सपाट और निरलंकार नाम नौकर की कमीज ही उपयुक्त है।” बात सही है। नौकर की कमीज ने हिन्दी उपन्यास में भाषा और शिल्प की चली आ रही जड़ता को तोड़ दिया। विनोद कुमार शुक्ल की सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति का ही कमाल है कि पूरे उपन्यास को पढ़ने के बाद जिन्दगी के अनगिनत मार्मिक तथ्य दिमाग में तारीखवार दर्ज होते चले जाते हैं. उनके छोटे-छोटे वाक्यों में अनुभव और यथार्थ का पैनापन है, जिसकी मारक शक्ति केवल तिलमिलाहट ही पैदा नहीं करती बल्कि बहुत अंदर तक भेदती चली जाती है।
आज की नौकरशाही और एहसानफरामोश लोगों पर यह उपन्यास सीधा प्रहार ही नहीं करता बल्कि छोटे-छोटे वाक्यों के सहारे व्यंग्यात्मक शैली में एक माहौल भी तैयार करता चलता हैं
नौकर की कमीज के चर्चा में आने की बड़ी वजह इसकी भाषा और शिल्प हैं। विनोद कुमार शुक्ल मूलतः कवि हैं। उपन्यास क्षेत्र में आने पर भी वह अपने कवि-हृदय को सोने नहीं देते, बल्कि उसे और सरस बनाते हैं। यह सरसता नौकर की कमीज की भाषा में देखी जा सकती है। नौकर की कमीज की भाषा और शिल्प से असहमत होते भी आलोचक इस उपन्यास के महत्व को स्वीकार करने के लिए विवश हैं। इसी से नौकर की कमीज की भाषा और शिल्प के महत्व को समझा जा सकता है।
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- नौकर की कमीज, विनोद कुमार शुक्ल, आधार प्रकाशन, पंचकूला।
- आधुनिक हिन्दी उपन्यास-2, नामवर सिंह (सम्पादक) ,राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- हिन्दी उपन्यास का इतिहास, गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- हिन्दी उपन्यास की संरचना, गोपाल राय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- विनोद कुमार शुक्ल : खिड़की के अंदर और बाहर, योगेश तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
- सापेक्ष 12, विनोद कुमार शुक्ल विशेषांक, जुलाई 2009-जून 2010, दुर्ग, छत्तीसगढ़।
- पाखी, विनोद कुमार शुक्ल विशेषांक अक्तूबर 2013, गौतम बुद्ध नगर, उत्तरप्रदेश।
- कभी-कभार,अशोक वाजपेयी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
वेब लिंक्स
- https://en.wikipedia.org/wiki/Vinod_Kumar_Shukla
- http://aajtak.intoday.in/story/vinod-kumar-shukla-interview-1-791276.html
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%A6_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
- https://en.wikipedia.org/wiki/Naukar_Ki_Kameez