10 हिन्दी आलोचना में गोदान का मूल्यांकन

प्रो. सत्यकाम प्रो. सत्यकाम

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. हिन्दी आलोचना और गोदान
  4. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य:

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • हिन्दी आलोचना में गोदान सम्बन्धी विभिन्‍न मत समझ पाएँगे।
  • आलोचकों के विचारों और स्थापनाओं से अवगत हो पाएँगे।
  • गोदान का महत्त्व समझ पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना

 

प्रेमचन्द हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। उनके साहित्य की समीक्षा का आरम्भ उनके लेखन के साथ ही हो गया था। आरम्भ में उनके उपन्यासों की समीक्षाएँ हिन्दी की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। बाद में उनके कृतित्व से सम्बन्धित अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुईं। हिन्दी के सभी प्रमुख आलोचकों ने प्रेमचन्द साहित्य पर लिखा है। इसके अलावा भारतीय विश्‍वविद्यालयों में उन पर अनेक शोध-कार्य हो चुके हैं। उनमें से बहुत प्रकाशित भी हुए हैं।

 

प्रकाशित होते ही गोदान  (1936) को एक महत्त्वपूर्ण कृति मान लिया गया था। लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में उसकी समीक्षाएँ छपीं। इसके पश्चात् भारत के विश्‍वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में गोदान को स्थान मिला, जो अब तक निर्विवाद रूप से बना हुआ है। इसलिए हिन्दी साहित्य का प्रत्येक विद्यार्थी गोदान  तो पढ़ता ही है।

 

3. हिन्दी आलोचना और गोदान

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास  में प्रेमचन्द की कहानियों एवं उपन्यासों पर संक्षिप्‍त परिचयात्मक टिप्पणी की है। शुक्ल जी ने रंगभूमि, गबन और कर्मभूमि का उल्लेख किया है। परन्तु उन्होंने गोदान  का उल्लेख नहीं किया है। सम्भवतः उन्होंने तब तक गोदान  पढ़ने के लिए नहीं लिया होगा।

 

गोदान  पर पहली सार्थक टिप्पणी जैनेन्द्र कुमार ने की है। उनकी टिप्पणी की शीर्षक है – प्रेमचन्द का गोदान यदि मैं लिखता। जैनेन्द्र ने प्रेमचन्द पर दो निबन्ध लिखे। पहला प्रेमचन्द जी की कला और दूसरा प्रेमचन्द का गोदान यदि मैं लिखता। दूसरे निबन्ध का महत्त्व निम्‍नलिखित बिन्दुओं के कारण है –

 

प्रेमचन्द के सामने ही जैनेन्द्र ने उनकी आलोचना की और अपनी अलग रचनात्मक दृष्टि से गोदान को परखा। गोदान  के चरित्र, कथानक विस्तार की बात कहकर उन्होंने प्रेमचन्द के कथानक में बिखराव की ओर महत्त्वपूर्ण संकेत किया है। उनका मानना है कि प्रेमचन्द कई बार कथानक-विस्तार के लोभ का संवरण नहीं कर पाते। इससे कथानक की कसावट ढीली हो जाती है। विस्तार होने पर भाव कम हो जाता है। जैनेन्द्र की राय है कि अगर मैं गोदान लिखता तो इसमें इतने पृष्ठ नहीं होते। और न ही इतने ज्यादा पात्र। पात्रों की इतनी विपुल संख्या पर जैनेन्द्र जी को विस्मय होता है। उनका कहना है कि मैं महज दो-चार पात्रों से काम चला लेता। गोदान में गाँव की कथा पर शहरी कथा के थोपे जाने की बात भी उन्होंने की है। प्रेमचन्द की भाषा, मुहावरे, वर्णन शैली पर जैनेन्द्र मुग्ध हैं। (गोदान एक पुनर्विचार, जैनेन्द्र कुमार, पूर्वोदय प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 13-14)

 

रामविलास शर्मा ने प्रेमचन्द पर दो पुस्तकें लिखीं। पहली पुस्तक प्रेमचन्द सन् 1941 में ‘सरस्वती’ प्रेस बनारस से छपी। स्वयं रामविलास शर्मा की यह पहली आलोचनात्मक पुस्तक थी। प्रेमचन्द पर रामविलास शर्मा की दूसरी आलोचनात्मक पुस्तक प्रेमचन्द और उनका युग  सन् 1952 में प्रकाशित हुई। वैचारिक स्तर पर दोनों पुस्तकों में क्रमागत सहज विकास है। रामविलास शर्मा ने गोदान की मूल समस्या ॠण को बताया है। रामविलास शर्मा का मानना है कि गोदान में और लोग भी कर्ज लेते हैं, पर जिस तरह होरी कर्ज लेता है, उस तरह कोई और नहीं लेता। दूसरे बिन्दु के रूप में उन्होंने संयुक्त परिवारों के टूटने को चिह्नित किया। डॉ. शर्मा का मत है कि गोदान के किसी पात्र को प्रेमचन्द का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता, लेकिन अगर मेहता से होरी को जोड़ा जा सके, तो जो व्यक्ति बनेगा, वह बहुत कुछ प्रेमचन्द से मिलता-जुलता होगा। मेहता को उन्होंने यदि विचार दिए हैं, तो होरी को बराबर परिश्रम करते रहने की दृढ़ इच्छा-शक्ति। डॉ. रामविलास शर्मा ने प्रेमचन्द के साहित्य में निहित उपनिवेशवाद विरोधी चेतना को रेखांकित किया।

 

नन्ददुलारे वाजपेयी ने प्रेमचन्द पर 1953 में एक पुस्तक लिखी। पुस्तक का नाम था, प्रेमचन्द : एक साहित्यिक विवेचन, इस पुस्तक में नन्ददुलारे वाजपेयी को प्रेमचन्द के मानवतावादी सेवा-धर्म के आधार में किसी सुव्यवस्थित चिन्तन का अभाव दिखता है। इस सुव्यवस्थित चिन्तन को सुसम्बद्ध दर्शन समझना चाहिए। वैसे प्रेमचन्द ने अपनी दृष्टि के सन्दर्भ में कभी मानवतावादी सेवा-धर्म का हवाला नहीं दिया है, जैसे आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘लोकधर्म’ या ‘लोकमंगल’ की बात की है। नन्ददुलारे वाजपेयी का मानना है कि प्रेमचन्द ने अपने सेवा-धर्म या निष्काम कर्मयोग का गम्भीर दार्शनिक विवेचन नहीं किया है। प्रेमचन्द की इस तथाकथित कमी के आधार पर नन्ददुलारे वाजपेयी निष्कर्ष निकालते हैं कि प्रेमचन्द की वर्णन क्षमता पाठक को तो भाव में बहा ले जाती है – पर चित्रण के अभाव में व्यक्ति (पात्र) को उसकी गहरी पहचान में नहीं उभार पाती। होरी पाठक में करुणा का संचार करता है, पर इस भाव संचार के पीछे बुद्धि के रेशम की डोर भी हो, तो भाव-संचार दिगन्तगामी पेंग मार सकता है। प्रत्येक कलावस्तु को बाहर से चाहे जितना रसमय बनाने का परिश्रम किया जाए, जब तक उसके अन्तर में कृतिकार की चैतन्य आत्मा नहीं झलकती, जब तक विवेक प्रसूत एक ‘दर्शन’ रक्त प्रवाह की भाँति उस कला शरीर को सजीवता प्रदान नहीं करता – तब तक क्या हम उसे सम्यक् अर्थ में कलाकृति कह सकते हैं?

 

उनका मानना है कि गोदान  उपन्यास के ग्रामीण और नगरीय कथा में ऐक्य की कमी है वे लिखते है – “गोदान  के नागरिक और ग्रामीण पात्र एक बड़े मकान के दो खण्डों में रहने वाले दो परिवार के सामान हैं, जिनका एक-दूसरे के जीवन-क्रम से बहुत कम सम्पर्क है। वे कभी-कभी आते-जाते मिल लेते हैं और कभी-कभी किसी बात पर झगड़ा भी कर लेते हैं, परन्तु न तो उनके मिलने में और न झगड़े में ही कोई ऐसा सम्बन्ध स्थापित होता है, जिसे स्थायी कहा जा सके।” (गोदान एक पुनर्विचार, पृ.41)

 

गोदान उपन्यास के नाम को लेकर उनका मानना है कि “उपन्यास का नाम गोदान है, जिससे यह सूचना नहीं मिलती कि यह सम्पूर्ण भारतीय जीवन को चित्रित करने का लक्ष्य रखता है।” (गोदान एक पुनर्विचार, पृ.41) गोदान नाम से यही भासित होता है कि इसका सम्बन्ध कृषकों के जीवन के किसी मार्मिक पहलू से है और यही वस्तु हम उपन्यास में पाने की सम्भावना रखते हैं। उनका मानना है कि गोदान में न तो महाकाव्य के से औदात्य और उत्कर्ष का समारम्भ आया है और न गहनतम उच्छ्वास का सा सीमित तन्मयकारी प्रभाव ही व्यक्त हो पाया है। लियो टॉल्सटॉय का वार एण्ड पीस  जिस तरह रूस का राष्ट्रीय प्रतिनिधि उपन्यास है, नन्ददुलारे वाजपेयी के अनुसार वैसा प्रेमचन्द का गोदान नहीं। लेकिन वे यह भी कहते हैं कि विस्तार में न सही, गहराई में यह उपन्यास युग का प्रतिनिधित्व करता है। उसमें भारतीय जीवन की करुणा होरी के रूप में साकार हो गई है। होरी मानो देश की वास्तविक स्थिति का प्रतिनिधि है। ऐसा कहते हुए भी नन्ददुलारे वाजपेयी की राय हैं कि गोदान  तो केवल भारतीय कृषक की असहाय अवस्था दिखाकर समाप्‍त हो जाता है। गोदान के अन्त के बारे में उनकी टिप्पणी है कि प्रेमचन्द ने इस उपन्यास में कोई मार्ग-निर्देश नहीं किया है। नन्ददुलारे वाजपेयी की नजर में प्रेमचन्द प्रत्यक्षवादी लेखक थे। प्रत्यक्षवादी लेखक से उनका तात्पर्य यह है कि आज जो आपने समाचार पत्रों में पढ़ा, कल उसे प्रेमचन्द की कहानियों में पढ़िए। उनका मानना है कि प्रेमचन्द का लेखन सामयिकता की सीमा से बाहर नहीं जाता। इस पर उनकी टिप्पणी है कि समय ने प्रेमचन्द का साथ उतना नहीं दिया, जितना प्रेमचन्द ने समय का साथ दिया है।

 

इन्द्रनाथ मदान का मानना है कि गोदान में नगर-कथा इसका अभिन्‍न अंग नहीं है, बाहर की चीज है, मैल है, जिसे धोया जा सकता है और आसानी से इसको उपन्यास से बाहर निकाला जा सकता है। अपनी इस मान्यता के साथ उन्होंने नन्ददुलारे वाजपेयी की मान्यता को दुहराया लेकिन बाद में इन्द्रनाथ मदान ने यह माना कि उनका मत अतिरंजित है। और भूल सुधार करते हुए यह जोड़ा कि देहात और शहर की कथा एक-दूसरे की पूरक है और उपन्यास की संरचना के मूल में है।

 

मीनाक्षी मुखर्जी गोदान : कल्पना और यथार्थ  में लिखती हैं कि गोदान  उपन्यास में तीसरे दशक के मार्क्सवाद और उसकी विरोधाभासी स्थिति को गोबर के चरित्र के सम्बन्ध से देखा जा सकता है। उपन्यास में पाठक की सहानुभूति जड़ और श्रेणीबद्ध समाज को खत्म करने की बात करने वाले विद्रोही चरित्र गोबर के पक्ष में नहीं जाती, वरन् भाग्य, नियति और मरजाद की रक्षा करने वाले उसके पिता होरी के पक्ष में जाती है। उनके अनुसार गोदान  में प्रेमचन्द, खन्‍ना जैसे पात्र का निर्माण करते हैं और उसके चरित्र द्वारा यह दर्शाते हैं कि कैसे पूँजी एक मनुष्य को अमानवीय बना देती है। कफ़नइसी सिक्के का दूसरा पहलू है कि अमानवीयता पूँजी द्वारा ही नहीं, वरन् इसके नितान्त अभाव में भी पैदा हो सकती है।उनका मानना है कि बेलारी गाँव और होरी के परिवार के चारों ओर घूमती होरी की कथा एवं शहर की मण्डलियों और गोष्ठियों के इर्द-गिर्द घूमती मेहता और मालती की कथा के बीच का अन्तर वास्तविक और काल्पनिक का अन्तर है। अर्थात् उपन्यास और दन्तकथा में जिस तरह का अन्तर होता है, वैसा अन्तर है। वेआगे कहती हैं कि प्रेमचन्द, राय साहब और होरी के चित्रण द्वारा काफी हद तक यह व्यंजित करने का प्रयत्‍न करते हैं कि पृथक आर्थिक स्तरों पर स्थित ये दोनों समान सामाजिक व्यवस्था के दो पक्ष हैं।

 

मालती और मेहता के उस प्रसंग के बारे में जब प्रो. मेहता मालती को नाला पार करा रहे हैं, मीनाक्षी मुखर्जी का मत है कि जब प्रो. मेहता, मालती को अपनी बाँहों में उठाकर ‘ही-मैन’ की तरह नाला पार करा रहे होते हैं, तो इस प्रक्रिया में उनको जो उत्तेजना और सुखाभास होता है, उसके चलते वे अब तक जो बचाव की मुद्रा अपनाए हुए थे, वह खण्डित हो जाती है। मीनाक्षी मुखर्जी सम्भवतः स्‍त्रीवादी दृष्टिकोण के दबाव में ऐसा सोच रही हैं। मेहता को सुखाभास हुआ है कि नहीं, इस बारे में गोदान  का पाठ हमें कोई संकेत नहीं करता, लेकिन फिर भी मीनाक्षी मुखर्जी का मत अतिरंजित नहीं माना जाएगा। यहाँ वे मेहता का संज्ञान तो ले रही हैं, पर मालती को भूल जा रही हैं। गोदान  के पाठ में मिलता है कि नाला पार कराने की प्रक्रिया में मालती को सुखाभास हो रहा है और वह उसे अपनी पुलक दबाकर यह कहते हुए व्यक्त भी करती है कि यह दिन याद रहेगा। गोदान  में राय साहब सामन्तवादी व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं और खन्‍ना पूँजीवाद व्यवस्था के।राय साहब और खन्‍ना के चरित्र के विश्‍लेषण के माध्यम से सामन्तवादी और पूँजीवादी व्यवस्था के सन्दर्भ में मीनाक्षी मुखर्जी का मानना है कि पूँजीवादी व्यवस्था की वणिक-वृत्ति की अमानवीयता की वजह से ही कुछ विद्वान आज प्रजातन्त्र की जगह राजतंत्र की प्राचीन व्यवस्था की हिमायत करते हैं।मीनाक्षी मुखर्जी का मत बेहद विवादास्पद है। इससे वाकिफ़ होते हुए भी वे अपनी आलोचना में ऐसे मत की हिमायत करने वाले विद्वान का नाम देने की बजाय सिर्फ इतना कहकर निकल जाती हैं कि कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं।

 

कथा आलोचक गोपाल राय ने गोदान : नया परिप्रेक्ष्य  में गोदान और शेक्सपीयर के मैकबेथ की तुलना की है और कहा है कि मैकबेथ जैसे महत्त्वाकाँक्षा की ट्रेजेडी है, उसी तरह गोदान भी महत्त्वाकांक्षा की ट्रेजेडी है। मैकबेथ को राज्य की सत्ता की महत्वाकांक्षा है और होरी को गाय की। उनका यह भी मानना है कि सम्भवतः प्रेमचन्द ब्रह्मचर्य के गाँधीवादी आदर्श को स्वीकार करके ही स्‍त्री-पुरुष के मित्र के रूप में जीवन बिताने की बात कहते हैं, जो आदर्श के रूप में जितनी मूल्यवान हो, मानवीय यथार्थ के रूप में बकवास से अधिक नहीं है।

 

विजयदेव नारायण साही का मत है कि बीस आने की राशि से हुए गोदान की घटना छोटी है। इसलिए इसके आधार पर उपन्यास का नाम गोदान  रखना बहुत तर्कसंगत नहीं है।

 

कथा-आलोचक मधुरेश का मानना है कि प्रेमचन्द गोदान में अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों प्रेमाश्रम और रंगभूमि से भिन्‍न असाधारण पात्रों के निर्माण की पद्धति से मुक्त होते दिखते हैं।

 

शिवकुमार मिश्र गोदान, हमारा समय और हम शीर्षक आलेख में लिखते हैं कि गोदान ढहते हुए सामन्तवाद और उभरते हुए पूँजीवाद का आख्यान है; गोदान महाजनी दुश्‍चक्र में फँसे किसान की मजदूर बनने तक की प्रक्रिया का जीवित दस्तावेज है। यह मनुष्य की अपराजेय जिजीविषा और संघर्ष-क्षमता की अद्भुत गाथा है। यह एक यातनामय जिन्दगी से उबरने की छटपटाहट और उससे उबर न पाने की विवशता की करुण कहानी है। यह परम्परा से सताई जा रही औरत की मुक्ति की आवाज है। आगे इनका कहना है कि प्रेमचन्द ने गोदान के राय साहब के मुँह से एक बड़े मार्के की बात कहलाई है कि यदि शेर को मीठी बोली बोलने से शिकार मिल जाए, तो उसे गरजने और गुर्राने की क्या जरूरत? गोदान  के राय साहब देशभक्त भी हैं।वे कहीं भी और कभी भी होरी के सामने नहीं आते, किन्तु उसके खेत, घर, जमीन-जायदाद सब कुछ नीलाम हो जाते हैं और सड़क की मजदूरी करते हुए वह मर जाता है।प्रेमचन्द यहाँ इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं कि शोषण की मशीन पहले से अधिक धारदार और घातक हो गई है।प्रेमचन्द का यह निष्कर्ष बदले हुए सन्दर्भों में सौ फीसदी सही है।

 

डॉ. धर्मवीर दलित आलोचक हैं। उन्होंने प्रेमचन्द पर दलित दृष्टिकोण से विचार किया है। उनकी प्रेमचन्द पर दो पुस्तकें है- सामन्त का मुंशी’ और प्रेमचन्द की नीली आँखें

 

उनका मानना है कि गाँवों में दलित स्‍त्रि‍यों का सवर्ण पुरुषों द्वारा यौन-शोषण की बात प्रेमचन्द गोदान (मातादीन-सिलिया) में उठाते हैं। इसके अलावा बौड़म, घासवाली, मेरी पहली रचना आदि में भी उठाते हैं, लेकिन इसे और विषयों की तरह महत्त्वपूर्ण नहीं बनाते। प्रेमचन्द ने कई समस्याओं पर लिखा, लेकिन इस समस्या से अच्छी तरह अवगत होते हुए भी उन्होंने इस पर ज्यादा कुछ नहीं लिखा। इसका कारण डॉ. धर्मवीर बताते हैं कि प्रेमचन्द स्वयं जारकर्म में संलिप्‍त थे, इसलिए उनसे इस समस्या पर लिखने की उम्मीद बेमानी है। वे इस बुराई के मात्र जानकार नहीं थे, बल्कि इसके महत्त्वपूर्ण पात्र और घटक थे। मैं उन्हें साहित्यिक जमीन्दार कहना चाहता हूँ। वे अपनी आलोचनाकर्म में बार-बार यह भी दुहराते हैं कि प्रेमचन्द दलितों के विरोधी थे। वे सामन्त के मुंशी थे। उनका कहना है कि प्रेमचन्द हिन्दू कौम की ख़ास राजनीति के प्रतिनिधि व्यक्ति एवं साहित्यकार हैं, जो समय के दबाव के कारण बदले हुए विचार पेश कर रहे थे और अपने मूल सामन्ती संस्कारों में ज्यों-के-त्यों डटे हुए थे।

 

प्रेमचन्द और भारतीय किसान  में प्रो.रामबक्ष का मानना है कि प्रेमचन्द ने गोदान में किसान का सहज-सरल आन्तरिक जीवन; जैसा कि वह है, सामने रखने का प्रयास किया है। गोदान की शुरुआत लम्बे, ऐतिहासिक आकलन पर आधारित है। उनका कहना है कि प्रेमचन्द की कुछ पुरानी मान्यताएँ गोदान में ज्यों की त्यों हैं।जैसे गरीब किसान की आत्मा पाक साफ होती है।उसकी आत्मा पर थोड़े-से स्वार्थ की छाप जरूर पड़ गई है, पर अमीर तो स्वार्थ और नीचता के पुतले हैं।गरीबों का आत्मिक जीवन उन्‍नत है, अमीरों का भौतिक जीवन उच्‍चतर है।आगे उनका कहना है कि इस उपन्यास में प्रेमचन्द का प्रयास जमीन्दारों के आन्तरिक खोखलेपन को दिखाना नहीं रहा है और न ही किसान-जमीन्दार का सम्बन्ध मात्र दिखाना रहा है।बल्कि उनका प्रयास किसान के आन्तरिक, भावात्मक और वैचारिक जीवन का चित्रण करना रहा है।प्रसंगवश भले ही सम्पूर्ण समाज का वर्णन कर दिया गया है, परन्तु उपन्यास की धुरी किसान का दैनिक जीवन है।अतः होरी का घर, पति-पत्‍नी के सम्बन्ध, उनका उठना-बैठना, चाल-चलन, उनकी भावात्मक स्थिति, आक्रोश और राग-द्वेष की प्रवृत्ति का वर्णन ही अधिक है।प्रेमचन्द ने गोदान में एक-एक घटना को इतनी तन्मयता और सावधानी से चुना है कि भारतीय किसान की सूक्ष्म जानकारी रखने वाले पाठक को भी सुखद आश्‍चर्य होता है।

 

स्वाधीनता-आन्दोलन के प्रति प्रेमचन्द के रवैये के बारे में प्रो. रामबक्ष का कहना है कि प्रेमचन्द स्वाधीनता-आन्दोलन के सिपाही थे, इस कारण शराबबन्दी के कायल थे और इस हेतु प्रचारात्मक कहानियाँ भी लिख चुके थे।लेकिन गोदान में राय साहब की पार्टी में शराब की दावत होती है।यही नहीं, मिस मालती मूर्ख बनाकर ‘बिजली’ सम्पादक ओंकारनाथ को पिलाती भी है।मिर्जा खुर्शेद जब शिकार पर जाते हैं, तो वहाँ सारे गाँव वालों को शराब पिलाते हैं।मजे की बात है कि इस मामले में लेखक चुप है, बल्कि शराब पिलाने के हक में है।इससे स्वाधीनता-आन्दोलन की कुछ बातों के प्रति प्रेमचन्द के रवैये का पता चलता है।

 

नगरीकरण-उद्योगीकरण और गोदान के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए उनका मत है कि गोबर गाँव से भागकर शहर, लखनऊ आ गया।इससे नगरीकरण की प्रक्रिया का एहसास होता है।किसान किस तरह मजूर बनने के लिए विवश हो रहे हैं, होरी का पुत्र गोबर इस सामाजिक तथ्य की पुष्टि कर रहा है।नगरीकरण के साथ उद्योगीकरण भी शुरू हो रहा है।किसान बातें कर रहे हैं कि अगले साल शक्‍कर की मिल खुलने वाली है।मि. खन्‍ना उसे खोलने वाले हैं।किसानों की ऊख खरीदी जा रही है।इस तरह गाँव और शहर के अन्तस्सम्बन्ध स्पष्ट होते चलते हैं।

 

अंग्रेजी राज की व्यवस्था और उभरते हुए महाजनों के बारे में उनकी टिप्पणी है कि प्रेमचन्द ने दिखाया है कि हमारे राय साहब और ताल्लुकेदार ज्वालामुखी के मुँह पर बैठे हुए हैं।उन पर लाखों रुपयों का कर्ज है, विलासिता का उनके यहाँ साम्राज्य है, अकर्मण्यता उनकी नस-नस में बस गई है और कुल मर्यादा की रक्षा करने में उनकी जान निकल रही है।कहने को तो वे मालिक हैं, लेकिन उनकी कुँजी अब धीरे-धीरे खन्‍ना जैसे बैंकरों के हाथ में है।प्रेमचन्द ने इस उपन्यास में जमीन्दार को एक पतनोन्मुख शक्ति के रूप में चित्रित किया है, परन्तु महाजनों को कहीं भी कमजोर नहीं दिखाया है।उनकी बढ़ती हुई शक्ति का जिक्र किया है।यहाँ तक कि उद्योगपति खन्‍ना भी लेन-देन करते हैं।यह महाजनी का धन्धा व्यापक रूप से चल रहा है।इसकी चंगुल में होरी और शोभा ही नहीं, राय साहब अमरपाल सिंह भी हैं।प्रेमचन्द ने शहर और गाँव दोनों जगह यह बताया कि इस समाज में धन की सत्ता है।

 

पीढ़ियों की चेतना के फर्क और प्रेमचन्द की भविष्य-दृष्टि के सन्दर्भ में इनकी टिप्पणी है कि होरी और गोबर में दो जीवन-दृष्टियों का फर्क है।होरी संयुक्त परिवार की चेतना का व्यक्ति है, जबकि गोबर के जीवन में व्यक्तिवाद का प्रवेश होने लगा है।उनके सम्बन्धों के तनाव के कारण दृष्टि सम्बन्धी यही भिन्‍नता है।प्रेमचन्द ने बहुत सूक्ष्म तरीके से होरी और गोबर की चेतना में फर्क दिखाया है।हालाँकि होरी की ट्रेजेडी उन्हें ज्यादा आकर्षित करती रही है, पर व्यापक इतिहास-बोध के कारण उन्होंने दिखाया है कि गोबर अगला पात्र है।वास्तव में होरी समस्त भारतीय किसानों का प्रतिनिधि नहीं है, बल्कि एक ऐतिहासिक दौर में लुप्‍त होता हुआ, मिटता हुआ भारतीय किसान है।उसकी ट्रेजडी अनिवार्य है।

 

4. निष्कर्ष

 

अन्ततः हम देखते है कि गोदान  हिन्दी कथा-साहित्य का एक ऐसा उपन्यास है, जिसको लेकर हिन्दी आलोचना में वाद-विवाद और चर्चा का माहौल बराबर बना रहा। कई दृष्टियों से इस उपन्यास को परखने की कोशिश हुई। समकालीन विमर्श के तहत इस पर दलित और स्‍त्री दृष्टिकोण से भी विचार हुआ। मार्क्सवादी और गैर-मार्क्सवादी दोनों धारा के आलोचकों ने अपनी राय इस पर जाहिर की। और इस तरह इस एक उपन्यास को लेकर भिन्‍न-भिन्‍न दृष्टियों से कई निष्कर्ष निकाले गए। इस प्रक्रिया में एक कृति के बतौर गोदान के साथ-साथ हिन्दी आलोचना भी उत्तरोत्तर समृद्ध हुई।

 

 

पुस्तकें

  1. प्रेमचन्द और उनका युग, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-110002
  2. कलम का सिपाही, अमृतराय, हंस प्रकाशन, दिल्ली
  3. प्रेमचन्द घर में, शिवरानी देवी, आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली
  4. प्रेमचन्द : एक कृति व्यक्तित्व, जैनेन्द्र कुमार, पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली
  5. प्रेमचन्द और भारतीय किसान, रामबक्ष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. गोदान एक पुनर्विचार,सम्पादक, परमानन्द श्रीवास्तव, अभिव्यक्ति प्रकाशनइलाहबाद
  7. गोदान : नया परिप्रेक्ष्य, गोपाल राय, अनुपम प्रकाशन, पटना

 

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