18 बाणभट्ट की आत्मकथा के पात्र

डॉ. आनन्द पाण्डेय and डॉ. ओमप्रकाश सिंह

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. बाणभट्ट की आत्मकथा के प्रमुख पात्र
  4. बाणभट्ट की आत्मकथा के ऐतिहासिक पात्र
  5. बाणभट्ट की आत्मकथा के काल्पनिक पात्र
  6. उपस्थित और अनुपस्थित पात्र
  7. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

  • इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
  • बाणभट्ट की आत्मकथा के प्रमुख पात्रों से परिचित हो सकेंगे।
  • ऐतिहासिक और काल्पनिक पात्रों की पहचान कर सकेंगे।
  • कथानक के विकास में मुख्य और गौण पात्रों की भूमिका समझ सकेंगे।

 

2. प्रस्तावना

 

उपन्यास की कथा-संरचना के निर्माण में पात्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। भारतीय और पाश्चात्य आलोचकों ने एक स्वर से पात्रों की महत्ता का प्रतिपादन किया है। उपन्यास के पश्‍च‍िमी आलोचकों में ई. एम. फार्स्टर का नाम बहुचर्चित है। उनकी प्रसिद्ध रचना है – आस्पेक्टस ऑफ़ नावेल। उन्होंने उपन्यास के सात सार्वभौम पहलुओं को रेखांकित किया है – कथा, पात्र, कथानक, कल्पना, भविष्यवाणी (प्रोफेसी), पैटर्न और ताल-लय।

 

उपन्यास के सम्बन्ध में फार्स्टर की मान्यताएँ बहुत समय तक स्वीकार्य रहीं। लेकिन उपन्यास के इन पहलुओं में समय के साथ सबका महत्त्व बराबर नहीं बना रहा। उपन्यास के जिन तत्त्वों का महत्त्व अभी-भी बना हुआ है, उनमें से पात्र एक प्रमुख तत्त्व है। आज भी पात्रों के बिना उपन्यास की कल्पना नहीं की जा सकती है। उपन्यास जो कथा प्रस्तुत करता है, वह पात्रों की ही कथा या कथाएँ होती है। उपन्यासकार अपने पात्रों के माध्यम से ही मानव-जीवन के अनुभवों का साक्षात्कार कराता है। कथा का विकास वह अपने पात्रों के विकास से ही करता है। पात्र-विहीन रचना की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। असल में, पात्र-मुक्त रचना मानव-मुक्त रचना ही होगी। रचना में पात्रों के स्वाभाविक और कलात्मक विकास का महत्त्व यह है कि उनके माध्यम से रचनाकार हमें अलग-अलग मनुष्यों से परिचय कराता है। अपने वास्तविक जीवन में हम लोगों को पूरी तरह से नहीं जानते हैं, लेकिन उस पात्र के आन्तरिक और बाह्य पक्षों को अच्छी तरह से जान जाते हैं, जिसकी कथा उपन्यासकार हमें बताता है। इस चीज का हमारी सामाजिकता और सामूहिकता के विकास में अन्यतम महत्त्व है।

 

विभिन्‍न तत्त्वों के आधार पर उपन्यास का अध्ययन हमें उसके अनेक पहलुओं से परिचित कराता है। तत्त्वों के आधार पर उपन्यास की आलोचना एक शास्‍त्रीय पद्धति है पर उपयोगी और प्रासंगिक है। इस पद्धति से हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास बाणभट्ट की आत्मकथा  के पात्रों के आन्तरिक और बाह्य पक्षों के विवेचन-विश्‍लेषण से उपन्यास को समझने में काफी सहायता मिलती है। बाणभट्ट की आत्मकथा  के सम्बन्ध में यह पद्धति इसलिए भी उपयोगी है क्योंकि यह चरित्र-प्रधान उपन्यास  है, घटनाओं के स्थान पर इसमें चरित्रों के चित्रण और विकास पर उपन्यासकार का ध्यान अधिक है।

 

3. बाणभट्ट की आत्मकथा के प्रमुख पात्र

 

इस उपन्यास के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि इसे महाराजा हर्षवर्धन के दरबारी संस्कृत कवि और उपन्यासकार बाणभट्ट की आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास अपने नाम के अनुरूप बाणभट्ट को सबसे अधिक महत्त्व और केन्द्रीयता देता है। आदि से अन्त तक वह उपन्यास की हर घटना में उपस्थित रहता है। उसकी अपेक्षा में ही दूसरे पात्र खिलते-खुलते हैं। वह सम्पूर्ण कथा का आख्यानकर्ता है। सारी कथा को ‘मैं’ शैली में प्रस्तुत किया गया है। अत: यह स्वाभाविक है कि ‘मैं’ सदैव केन्द्र में है। इसी वजह से यह उपन्यास चरित्र प्रधान है। बाणभट्ट के चरित्र का विश्‍लेषण किए बिना उपन्यास का कोई भी अध्ययन पूरा नहीं समझा जा सकता।

 

बाणभट्ट का समय उत्तर-गुप्‍तकाल है। वह महाराजा हर्षवर्धन का राज-कवि है। उसने अपनी कालजयी कृति ‘हर्षचरित’ में अपने जीवन-चरित के लिए सूचनाएँ और संकेत दिए हैं। वह हर तरह से एक ऐतिहासिक पात्र है। द्विवेदजी ने उसकी ऐतिहासिकता को प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया है; लेकिन उसका चरित्रांकन इतिहास के एक खास कालखण्ड में बद्ध पात्र के रूप में नहीं; इतिहास की धारा की निरन्तरता में किया है। इसीलिए बाणभट्ट की मानसिक और भावनात्मक उम्र, उसकी वास्तविक उम्र से बहुत लम्बी दिखाई देती है क्योंकि उसके चिन्तन और चेतना में भारत का सम्पूर्ण अतीत संचित है। इसीलिए कुछ आलोचकों ने उपन्यास को बाणभट्ट  की आत्मकथा से अधिक उसकी ‘आत्मा’ की कथा ठीक ही कहा है। आचार्य द्विवेदी ने बाण का चित्रण एक ऐसे चरित्र इस तरह रचा है जो एक व्यक्ति से अधिक आत्मा लगता है। जो अजर-अमर है, निरन्तर है, विभिन्‍न  रूपों में अवतरित होती रहती है। अपने चरित्र की इस विशेषता के कारण ‘आत्मकथा’ का बाण कुछ आलोचकों को ऐतिहासिक पात्र से अधिक एक मिथकीय पात्र लगता है। “इस प्रकार ‘आत्मकथा’ का बाण मिथक-मूलक है, अर्थात पुरुष में चिरंतन विरही यक्ष या एक मर्यादा तेज़ की कल्पना है। इसलिए मिथकमूलक बाण शाश्‍वत है, जो हजारीप्रसाद द्विवेदी की आत्मा में अवतार ले सकता है या मेरी कल्पना में भी छा सकता है। तो, बाण को प्रत्येक काल में इतिहास का अस्तित्व और संस्कृति का वातावरण देकर बार-बार पुनरुज्जीवित किया जा सकता है। लेखक का बाणभट्ट ऐसा ही पुनरुज्जीवित बाण है, जिसका इतना शील-सम्भार लेखक का प्रक्षेपण या प्रतिबिम्ब है।” (क्योंकि समय एक शब्द है, रमेश कुन्तल मेघ, पृ. 218)

 

बाणभट्ट एक ऐतिहासिक पात्र है लेकिन उसका चित्रण ऐतिहासिक और काल्पनिक दोनो के संयोग से किया गया है। द्विवेदीजी ने कहा है कि उन्होंने बाणभट्ट और राजा हर्ष की रचनाओं को उपजीव्य बनाया है। रमेश कुन्तल मेघ ने बाणभट्ट की आत्मकथा  पर लिखे गए अपने एक महत्त्वपूर्ण लेख में इस बात की ओर ध्यान खींचा है कि बाणभट्ट तो ऐतिहासिक पात्र है, लेकिन अपने उपन्यास में द्विवेदीजी ने जिस बाणभट्ट का सृजन किया है उसका उपजीव्य उसकी रचनाएँ हैं। इस तरह उसके सम्बन्ध में उसकी रचनाओं से जुटाए गए ये तथ्य इतिहास न होकर ‘गल्प’ हैं। अत: द्विवेदी जी ने बाणभट्ट की जो जीवनी प्रस्तुत की है, वह इतिहास न होकर, रमेश कुन्तल मेघ के शब्दों में, ‘ऐतिहासिक छल’ है। अपनी स्थापना का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए रमेश कुन्तल मेघ लिखते हैं कि “जब किसी ऐतिहासिक पात्र की प्रचुर ज्ञात जीवनी के अभाव में उसकी आत्मकथा लिखी जाती है, तब उसकी कल्पित कृतियाँ भी उपजीव्य होकर किस प्रकार इतिहास और तथ्य का छद्म प्रस्तुत करती हैं, यह बाणभट्ट की आत्मकथा  में देखते ही बनता है।” (क्योंकि समय एक शब्द है, रमेश कुंतल मेघ, पृ.19-20)

 

किसी उपन्यास या कथा के पात्र का अध्ययन दूसरे पात्रों के साथ उसके सम्बन्धों की पड़ताल के बिना सम्भव नहीं हो सकता। इस सन्दर्भ में निपुणिका और भट्टिनी (राजकुमारी चन्द्रदधिचि) जैसे प्रमुख पात्रों की चर्चा और विश्‍लेषण विशेष रूप से आवश्यक हो जाता है। क्योंकि, मूल कथा बाणभट्ट, भट्टिनी और निपुणिका के सम्बन्धों के माध्यम से बुनी गई है, लेकिन यह इन तीनों प्रमुख पात्रों के आपसी सम्बन्धों की ही कहानी नहीं है, बल्कि तीनों के जीवन-संघर्ष और एक सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्‍त‍ि के संघर्ष की भी कहानी है।

 

दो स्‍त्रियों के साथ एक ही समय में बाणभट्ट का रागात्मक सम्बन्ध है, लेकिन इसकी अभिव्यक्ति होती भी है, और नहीं भी होती है। ये पात्र प्रेम में डूबे हुए हैं, इसीलिए एक दूसरे के प्रति समर्पित हैं, लेकिन प्रेम को अपने भीतर ही शमित और दमित किए हुए रहते हैं। पात्रों का आपसी सम्बन्ध प्रेम पर आधारित है। लेकिन, ये प्रेम-भावना की वजह से एक साथ नहीं हैं, एक विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक उद्देश्य या मिशन के प्रति समर्पित हैं, इसलिए एक साथ हैं।

 

बाणभट्ट, निपुणिका और भट्टिनी तीनों का वर्ग-चरित्र और पृष्ठभूमि भिन्‍न है। भट्ट राजदरबारी कवि और पण्डित है, निपुणिका शोषित-दमित साधारण स्‍त्री और भट्टिनी राजकुमारी है। इनकी पृष्ठभूमियों में इतनी असमानता के बावजूद तीनों विचार और संवेदना के एक धरातल पर जीते हैं। भट्टिनी भले ही केवल भट्ट को ‘नर-लोक से लेकर किन्‍नर-लोक तक व्याप्‍त एक ही रागात्मक हृदय, एक करुणायित चित्त को हृदयंगम’ करने में समर्थ मानती है जबकि वास्तविकता यह है कि उपन्यासकार ने यह भावना तीनो ही पात्रों  में पिरोई है। तीनो ही के हृदय-लोक में एक ही रागात्मकता का प्रसार है। शायद इसीलिए, तीनों एक दूसरे के ह्रदय को अच्छी तरह समझते हैं और एक दूसरे की भावना और इच्छा का सम्मान करते हैं।

 

इन तीनो पात्रों के स्वभाव में भी समानता दिखाई देती है। तीनो में आत्मदान और आत्मदमन की भावना भरी हुई है। निपुणिका भट्ट से कहती है, “जो वास्तव है, उसको दबाना और जो अवास्तव है, उसका आचरण करना – यही तो अभिनय है। सारे जीवन यही अभिनय किया है।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.182) निपुणिका के इस संवाद से भट्ट को भी इस बात का एहसास होता है, “यह पग-पग का बन्धन, श्‍वास-श्‍वास का दमन अभिनय ही तो है।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.182) इस तीखे एहसास के बावजूद यह बन्धन इतना प्रिय हो गया है कि इस पर इन्हें गर्व भी होता है। अगले ही क्षण भट्ट कहता है, “म्लेच्छ जाति में इसी संयम का अभाव है, आत्म-नियन्त्रण की कमी है। उन्हें यही चाहिए। भारतीय समाज ने बन्धन को सत्य मानकर संसार को बहुत बड़ी चीज दी है।” निपुणिका हामी भरती है, “हाँ भट्ट, बन्धन ही माधुर्य है!” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.182)

 

बाण उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है, पूरी कथा उसी का आख्यान है, द्विवेदीजी का मन भी इस पात्र के चरित्रांकन में खूब रमा है, फिर भी यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि उपन्यास के किस पात्र के चित्रण में द्विवेदीजी की कला निखरी है? इस तरह के प्रश्‍न की भूमिका प्रभाकर माचवे ने ‘शान्तिनिकेतन से शिवालिक’ के अपने लेख में बनाई है। उन्होंने निपुणिका को उपन्यास का सर्वश्रेष्ठ पात्र बताया है, “निपुणिका जो इस उपन्यास का सर्वोत्तम पात्र है, एक अजीब और सर्वथा प्रिय रचना है।” (शान्तिनिकेतन से शिवालिक, पृ.250)

 

प्रभाकर माचवे के निपुणिका के चरित्र की विशिष्टता और श्रेष्ठता के विशिष्ट रेखांकन के बाद भी निपुणिका के चरित्र को महज सामान्य पात्र के रूप में पढ़ लेना, इस पात्र की उपेक्षा ही नहीं बल्कि उपन्यास को समझने में बरती गई भूल से कम न होगा। इसलिए बाणभट्ट के समानान्तर उसके भी चरित्र का विश्‍लेषण आवश्यक है।

 

निपुणिका हिन्दी साहित्य की एक विशिष्ट और अद्वितीय पात्र है। भले ही यह उपन्यास एक पुरुष पात्र का आख्यान है, फिर भी इसमें स्‍त्रियों की समस्याओं को केन्द्रीयता प्रदान की गई है। स्‍त्री पात्रों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिए बिना यह सम्भव नहीं था। निपुणिका ही वह चरित्र है, जो सभी कथा-सूत्रों को स्‍त्री-समस्याओं और स्‍त्री-मुक्ति के मिशन के रूप में संघठित करती है। यह निपुणिका ही है, जो बाणभट्ट की स्‍त्री-संवेदना को एक मिशन के रूप में दिशा देती है। बाणभट्ट एक ब्राह्मण, पण्डित और कवि के रूप में राजकीय कृपा प्राप्‍त करने के उद्देश्य से स्थाणीश्‍वर आया था, लेकिन निपुणिका से उसकी आकस्मिक मुलाकात ने उसके जीवन के उद्देश्य और दिशा को बदल दिया। निपुणिका की प्रेरणा से वह राजकृपा के आकांक्षी से स्‍त्री-मुक्ति और राष्ट्रीय एकता का आकांक्षी बन जाता है। इस वजह से कथा की भी दिशा बदल जाती है। यदि यह दिशान्तरण न आता तो यह कथा सामाजिक रूप से उतनी क्रान्तिकारी और सार्थक नहीं सिद्ध हो पाती, जितनी हुई है। यदि उपन्यासकार निपुणिका के चरित्र का विधान न करता, तो वह बाण की जिन चारित्रिक-वैचारिक विशेषताओं को रेखांकित करना चाहता था, उसके लिए कोई अन्य शिल्प-युक्ति ढूँढनी पड़ती। उपन्यासकार सफलतापूर्वक यह युक्ति ढूँढ भी लेता, तो भी निपुणिका जैसे प्रतिबद्ध स्‍त्री-पात्र के अभाव में  द्विवेदीजी बाण के स्‍त्री-सरोकारों को उतनी सफलता से अभिव्यक्त नहीं कर पाते, जितनी सफलता से वे कर पाए हैं।

 

निपुणिका इस उपन्यास की एक निर्णायक पात्र है। इसलिए निपुणिका के चरित्र का विश्‍लेषण अतिरिक्त सावधानी की माँग करता है। यह सावधानी इसलिए भी आवश्यक लगती है, क्योंकि द्विवेदीजी ने इस उपन्यास को तब लिखा, जब खासतौर पर भारत और हिन्दी में तथा आमतौर पर दुनिया के अधिकांश देशों में स्‍त्री-विमर्श का दूर-दूर तक अता-पता नहीं था। निपुणिका के चरित्र के माध्यम से यह उपन्यास स्‍त्री-विमर्श की दृष्टि से न केवल प्रासंगिक है, बल्कि क्रांन्तिकारी भी है।

 

द्विवेदी जी ने उपन्यास के ‘द्वितीय उच्छ्वास’ में निपुणिका के अप्रस्तुत जीवन का संक्षिप्‍त परिचय बाण के शब्दों में दिया है। उनके अनुसार वह वैश्य जाति की एक विधवा है। विवाह के साल में ही वह विधवा होने के पश्‍चात गृह त्यागी हो जाती है। वह उज्जयिनी में बाण से उसकी नाटक मण्डली में काम माँगने जाती है। दोनों का यहीं पर पहली बार परिचय हुआ। नाटक-मण्डली में काम करते हुए दोनों एक दिन एक दूसरे के प्रति आकर्षित हुए, लेकिन भावनाओं के सम्प्रेषण में किसी त्रुटि की वजह से वह अपने प्रेम का तिरष्कार समझकर भाग जाती है। बहुत दिनों के बाद वह स्थाणीश्‍वर में  बाण को देखकर पुकारती है। बाण उसके प्रति अपनी भावना के प्रति प्रतिबद्धता दिखाता है और उसके उद्धार का प्रस्ताव करता है, लेकिन वह स्थाणीश्‍वर के छोटे राजकुल में बन्दी भट्टिनी को मुक्त करने में सहायता करने के लिए बाण को तैयार करती है। इस तरह से वह निरुद्देश्य आवारा ‘बंड’ को सोद्देश्य बाणभट्ट बनाती है।

 

निपुणिका एक स्‍त्रीवादी पात्र है। स्‍त्री-जीवन की बिडम्बनाओं और दुश्‍वारियों से वह भली-भाँति परिचित है और उत्पीड़ित भी; इसलिए वह स्‍त्रियों के सामाजिक जीवन में परिवर्तन के लिए अपने-आपको समर्पित कर देती है। वह बाण से पूछती है, “क्या  होना ही मेरे सारे अनर्थों की जड़ नहीं है?… निपुणिका सामान्य अपमानिता नारी है। समाज की कुत्सित रूचि पर तिल तिल करके उसने अपने को होमा है।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.250) इस कथन में निपुणिका का आत्मबोध और जगतबोध दोनों शामिल है। वह जानती है कि एक स्‍त्री की मुक्ति अकेले में सम्भव नहीं है इसलिए वह बाण के उसके ‘उद्धार’ के प्रस्ताव को ठुकराकर उसको पूरे स्‍त्री-समाज की मुक्ति की परियोजना में नियोजित करती है। इस प्रकार हम देखते हैं की उपन्यासकार ने ‘आत्मकथा’ को बाणभट्ट की आत्मकथा बनाए रखते हुए भी निपुणिका को एक महत्त्वपूर्ण और केन्द्रीय पात्र के रूप में चित्रित किया है।

 

बाण और निउनिया के बाद तीसरा महत्त्वपूर्ण पात्र भट्टिनी या राजकुमारी चन्द्रदधिचि है। यह पात्र देवपुत्र तुवरमिलिन्द की पुत्री के रूप में वर्णित-चित्रित है, जिसका अपहरण स्थाणीश्‍वर के छोटे राजकुल ने किया है। भट्टिनी को असंख्य घर्षिता, अपहृता, अपमानिता  भारतीय स्‍त्रियों के प्रतिनिधि चरित्र के रूप में चित्रित किया गया है। भट्टिनी छोटे राजकुल में बन्दिनी है। उसके पिता तुवरमिलिन्द भट्टिनी की खोज का सब प्रयास कर चुके हैं और असफल हैं। पुत्री के शोक में वह किंकर्तव्य विमूढ़ हैं। बाण और निउनिया एक उत्सव के समय छोटे राजकुल के अन्त:पुर की सारी सुरक्षा-व्यवस्था को चकमा देकर उसका  उद्धार करते हैं। भट्टिनी को चोरी-छिपे राजकुल से  निकालकर उसके पिता से मिलाने के क्रम में ही उपन्यास समाप्‍त होता है। भट्टिनी की मुक्ति और उसे उसके पिता से मिलाने का उद्देश्य बहुत-से राजनीतिक और सामाजिक अर्थों से गर्भित है।

 

महामाया एक अन्य प्रमुख और प्रभावशाली स्‍त्री-पात्र हैं। भट्टिनी की तरह वे भी अपनी इच्छा के विरुद्ध मौखरियों के राजकुल में बन्दिनी थीं। लेकिन यह बन्धन तोड़कर वे क्रान्तिकारी जनवादी भूमिका में सामने आती हैं। बच्चन सिंह ने ठीक ही लिखा है, “अवरोध से बाहर आकर उन्होंने राजतन्त्र में जबदे हुए जन-जीवन को झकझोर दिया।” (शान्तिनिकेतन से शिवालिक, पृ.225)  वे स्‍त्री-शक्ति का साक्षात् रूप तो हैं ही, जनता में राजनीतिक शक्ति के संचार की ताकत भी उनमें बहुत अधिक है। जनता में राजतन्त्र के प्रति आक्रोश उत्पन्‍न कर शत्रुओं से अपने राज्य की रक्षा का आह्वान जनक्रान्ति का ही आह्वान है। अपनी ओजस्वी वाणी में जनता का आह्वान करती हैं, “अमृत के पुत्रों, मृत्यु का भय माया है, राजा से भय दुर्बल चित्त का विकल्प है। प्रजा ने राजा की सृष्टि की है।  संघटित होकर म्लेच्छ्वाहिनी का सामना करो। देवपुत्रों और महाराजाधिराजों की आशा छोड़ो। समस्त उत्तरापथ की लाज तुम्हारे हाथों में है।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.191) महामाया उपन्यास में हस्तक्षेप की तरह उपस्थित होती रहती हैं। पाठकों को उनकी बढ़ती जनशक्ति की प्रभावोत्पन्‍न करने वाली सूचना भी मिलती है, किन्तु उपन्यास के आखिरी पन्ने पर भट्टिनी बाणभट्ट को सूचित करती है, “आर्यावर्त्त की विपत्ति इस बार कट गई है, भट्ट। आचार्य भर्वुपाद ने बताया है कि इस अल्पकाल में महामाया के लाखों शिष्य पुरुषपुर के आगे एकत्र हो गए हैं। इनमें अधिकांश अशिक्षित और असंगठित थे। मेरे पिता ने उनको संगठित करने का काम आरम्भ कर दिया है। कुभा के उस पार दस्युओं का कोई सन्धान नहीं पाया गया है। सम्भवत: वे लौट गए हैं।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.196) महामाया की सफलता का पता भट्टिनी के इस कथन से लग जाता है। ऐसे शक्तिशाली, जनता की शक्ति पर विश्‍वास करने वाले स्‍त्री-पात्र की रचना कर द्विवेदीजी ने स्‍त्री-शक्ति को स्थापित किया है। महामाया द्वारा स्थापित इसी जनशक्ति की भूमि पर भट्टिनी बाण को कर्मशील होने की प्रेरणा देती है। और यहीं से भविष्य की ओर प्रयाण किया जा सकता है। यह है महामाया की शक्ति!

 

उपन्यास एक समानान्तर संसार रचता है। इसलिए उसमें न जाने कितने पात्रों और चरित्रों का विधान करना पड़ता है। बाणभट्ट की आत्मकथा  में न जाने कितने जीवन्त पात्र आए हैं। सबकी गिनती करना उचित नहीं लेकिन उनकी सामान्य विशेषताओं के विवेचन द्वारा उपन्यास की मनोभूमि का पता लगाना निश्‍चय ही उचित लगता है।

 

4. बाणभट्ट की आत्मकथा के ऐतिहासिक पात्र

 

बाणभट्ट की आत्मकथा को हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासों की श्रेणी में रखा जाता है, लेकिन किसी भी ऐतिहासिक उपन्यास की तरह यह उपन्यास भी पूर्णत: इतिहास सम्मत नहीं है। इस उपन्यास को आलोचकों ने ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर रचित रोमांस कहा है। इसमें इतिहास का भ्रम रचा गया है। उपन्यास के कुछ ही पात्र ऐसे हैं, जिन्हें इतिहास सम्मत कहा जा सकता है। हर्षवर्द्धन, कृष्णवर्द्धन, बाणभट्ट, राज्यश्री और तुवरमिलिन्द उपन्यास के ऐतिहासिक पात्र हैं। तुवरमिलिंद ऐतिहासिक पात्र हैं, पर उसका काल हर्षवर्द्धन से कई साल पहले का है। आचार्य द्विवेदी ने उपन्यास में वर्णित समस्या को देश-दशा से जोड़ने के लिए तुवरमिलिन्द को हर्ष के काल में उपस्थित कर दिया है। पश्‍च‍िमोत्तर प्रदेश में उनका मजबूत राज्य था। उनकी शक्ति से भारतवर्ष बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित था। भट्टिनी उनकी पुत्री थी, इस बारे में इतिहास मौन है। आचार्य द्विवेदी ने भट्टिनी को भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के प्रतीक के रूप में चित्रित किया है।

 

5. बाणभट्ट की आत्मकथा के काल्पनिक पात्र

 

इस उपन्यास में पात्रों का एक विराट संसार है। अनेक पात्र ऐसे हैं जो थोड़ी देर के लिए उपन्यास में आते हैं और अपनी छाप छोड़कर गायब हो जाते हैं। उपन्यास के प्रारम्भ में ही हमें ऐसे अनेक पात्र मिलते हैं। इस उपन्यास के अधिकतर पात्र आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के मानस की उपज हैं। कथा का ताना-बाना उन्होंने इस तरह बुना है कि ये काल्पनिक पात्र भी हमें ऐतिहासिक लगने लगते हैं। निपुणिका (निउनिया), भट्टिनी, भैरवी, विरतिवज्र, अमोघवज्र, अघोर भैरव, महामाया, मदनश्री, अघोरघण्ट, चण्डमण्डना, सुचरिता, चरुस्मिता, विद्युत्पांगा आदि पात्र काल्पनिक हैं। भट्टिनी और निपुणिका ऐसे पात्र हैं जो काल्पनिक हैं, पर उपन्यास का पूरा कलेवर इन्हीं के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है। सुचरिता की भी गणना उपन्यास के महत्त्वपूर्ण पात्र के रूप में की जा सकती है। महामाया, विरतिवज्र आदि पात्र उपन्यास के उद्देश्य की सम्प्राप्‍त‍ि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करते हैं।

 

6. उपस्थित और अनुपस्थित पात्र

 

उपन्यास में कुछ पात्र प्रमुख पात्र के रूप में उपन्यास में सामने आते हैं, जबकि कुछ पात्र सामने नहीं आते, फिर भी उनके बारे में उपन्यासकार काफी कुछ कहता है। पहले प्रकार के पात्र को उपस्थित पात्र और दूसरे प्रकार के पात्र को अनुपस्थित पात्र कह सकते हैं। सभी उपन्यासों में चरित्र-चित्रण इसी तरह हो, यह जरूरी नहीं है। लेकिन पात्र-नियोजन की इस कला से उपन्यास की क्षमता में वृद्धि अवश्य होती है। बाणभट्ट की आत्मकथा  में द्विवेदीजी ने इस कला का खूब प्रयोग किया है। उनके कुछ पात्र उपस्थित हैं, तो कुछ अनुपस्थित। बाण, भट्टिनी, निपुणिका, महामाया, सुचरिता, मदनश्री, विरतिवज्र, अघोरभैरव आदि प्रमुख पात्र उपस्थित पात्र हैं, तो चित्रभानु भट्ट, उडुपति, वसुभुति, सुगतभद्र, तुवरमिलिन्द, शीलभद्र, भैरवी, इश्‍वरसेन, राज्यश्री  अनुपस्थित पात्र हैं।

 

7. निष्कर्ष

 

भारत की स्वतन्त्रता से ठीक पहले लिखा गया यह उपन्यास भारत की स्वतन्त्रता का उद्घोष है। आचार्य द्विवेदी का यह उपन्यास बिल्कुल ही नए तरह का उपन्यास है। उपन्यासकार ने ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परिवेश देकर उपन्यास में उस काल की महत्त्वपूर्ण समस्या उठाई है। अपने मन्तव्य की प्रस्तुति के लिए उसने अनेक समर्थ काल्पनिक पत्रों की रचना की है। ये पात्र उपन्यास को लक्ष्य की तरह अग्रसर करने में पूरे सहायक तो हैं ही, कथानक को गति प्रदान करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं।

 

 

पुस्तकें

  1. दूसरी परम्परा की खोज, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. शान्तिनिकेतन से शिवालिक, शिवप्रसाद सिंह, नेशनल पब्लिकेशन्स हॉउस, नई दिल्ली
  3. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ पाठ और पुनर्पाठ, सम्पादक – मधुरेश, आधार प्रकाशन, पंचकूला
  4. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली (भाग-1), सम्पादक – मुकुन्द द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना, विजयमोहन सिंह, रचना प्रकाशन, इलाहाबाद
  6. हिन्दी उपन्यास : एक अन्तर्यात्रा, रामदरश मिश्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  7. बाणभट्ट की आत्मकथा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. क्योंकि समय एक शब्द है, रमेश कुन्तल मेघ, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली

वेब लिंक्स

  1. http://www।sahityakunj।net/LEKHAK/R/RajendraGautam/acharya_Hazari_upnayas_bodh।htm
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
  3. https://www.youtube.com/watch?v=rx6pEjXCBWo
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80