17 बाणभट्ट की आत्मकथा का कथानक

डॉ. आनन्द पाण्डेय and डॉ. ओमप्रकाश सिंह

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. बाणभट्ट की आत्मकथा का प्रत्यक्ष कथानक 
  4. बाणभट्ट की आत्मकथा का अप्रत्यक्ष कथानक
  5. बाणभट्ट की आत्मकथा का कथानक और कार्यकारण सम्बन्ध
  6. बाणभट्ट की आत्मकथा का उद्देश्य
  7. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • बाणभट्ट की आत्मकथा  का कथानक समझ पाएँगे।
  • कथा और कथानक के अन्तर का व्यावहारिक रूप समझ पाएँगे।
  • बाणभट्ट की आत्मकथा  का उद्देश्य समझ पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना

 

उपन्यास में कथानक का बहुत महत्त्व होता है। कथानक उपन्यास संरचना का अन्तर्निहित अंग है। कथानक के विकास के माध्यम से ही किसी सरल कथा को उपन्यास में रूपान्तरित किया जाता है। अरस्तू के अनुसार कथानक में आरम्भ, मध्य और अन्त का होना जरूरी है। एब्सर्ड नाटकों में कथानक का परम्परागत रूप नहीं दिखाई देता है। कथानक की परम्परागत मान्यता का एब्सर्ड नाटक  उल्लंघन  करते हैं। एब्सर्ड नाटकों को अपवाद के रूप में लिया जा सकता है। आज भी कहानी या उपन्यास या नाटक-लेखन कथानक की तकनीकी के सहारे ही किया जाता है।

 

कथा और कथानक शब्दों का प्रयोग प्राय: एक दूसरे के पर्यायवाची रूप में किया जाता है। परन्तु यह धारणा सही नहीं है। कथा और कथानक एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं। दोनों में स्पष्ट अन्तर है। दरअसल हिन्दी में उपन्यास की रचना-प्रक्रिया के अनिवार्य अंग के रूप में कथानक पर स्वतन्त्र रूप से विचार लगभग नहीं किया गया है। इसी वजह से हिन्दी पाठकों को दोनों में अन्तर सरलता से समझ में नहीं आता।

 

कथानक, कथा की कार्य-व्यापार-योजना है। अंग्रेजी में इसे ‘प्लॉट’ कहा जाता है। ई. एम. फार्स्टर ने अपनी पुस्तक आस्पेक्ट्स ऑफ़ नावेल में घटनाओं के कालक्रमानुसार वर्णन को कहानी कहा है। कथानक भी घटनाओं का कालक्रमानुसार वर्णन है, लेकिन दोनों में अन्तर यह है कि कहानी जहाँ ‘फिर क्या हुआ’ का उत्तर देती है, वहीं कथानक ‘कैसे हुआ’ का उत्तर देता है। इस अन्तर को उन्होंने एक उदाहरण देकर समझाया है। उनके अनुसार ‘राजा मर गया, उसके बाद रानी मर गई’ – यह कहानी है। ‘राजा की मृत्यु के दुःख में रानी मर गयी’ – यह कथानक है। कालक्रम दोनों में समान है, लेकिन कथानक में कार्य-कारण सम्बन्ध पर जोर है। रानी की मृत्यु पर विचार करें, तो कहानी में यह ‘और तब?’ होगा, जबकि कथानक में ‘कैसे’?

 

एक अन्य विद्वान स्टीव अल्कोर्न ने कथा और कथानक का अन्तर बताते हुए लिखा है कि कथानक नायक की भौतिक यात्रा होता है और कहानी उसकी भावनात्मक यात्रा।

 

3. बाणभट्ट की आत्मकथा  का प्रत्यक्ष कथानक

 

बाणभट्ट की आत्मकथा  आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का प्रसिद्ध उपन्यास है। इस उपन्यास में कुछ ऐतिहासिक और अधिकतर कल्पित पात्रों के माध्यम से युग-सन्दर्भों को स्वर देने का प्रयास किया गया है। बाणभट्ट की आत्मकथा  के कथानक के निर्माण के लिए आचार्य द्विवेदी ने एक नया तरीका अपनाया है। साहित्य का हर पाठक जानता है कि आत्मकथा रचनाकार स्वयं लिखता है। द्विवेदी जी इसके अपवाद हैं। वे न केवल बाणभट्ट की आत्मकथा लिखते हैं, बल्कि आत्मकथा के कथानक प्राप्ति का एक स्रोत गढ़ लेते हैं। बाणभट्ट की आत्मकथा   के ‘कथामुख’ में द्विवेदी जी ने आस्ट्रिया निवासी मिस कैथराइन का जिक्र किया है। उन्हें संस्कृत और इसाई हिन्दी का पहले से ही अच्छा अभ्यास है। अड़सठ वर्ष की उम्र में वे इस देश में आईं और यहाँ के प्राचीन स्थलों का आठ वर्ष तक लगातार भ्रमण करती रहीं। शोण नद के दोनों किनारों की पैदल यात्रा के क्रम में उन्हें एक पोथी मिली थी। उसी पोथी का हिन्दी रूपान्तरण बाणभट्ट की आत्मकथा  है। द्विवेदी जी ने लिखा है कि उस पोथी पर शीर्ष स्थान पर ‘अथ बाणभट्ट की आत्मकथा लिख्यते’ मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था। इसी कथा को द्विवेदी जी ने नए ढंग से सम्पादित किया है। अपनी बात और कथा की प्रमाणिकता के लिए उन्होंने यह एक अच्छा बहाना खोज निकाला है। बाणभट्ट की आत्मकथा को ‘आत्म’ के बजाय ‘आत्मा’ की कथा कहा गया है। बाण की ‘आत्मा’ भारतीय संस्कृति की निरन्तरता की रूपक है। उपन्यास में बाण की कथा से उसकी ‘आत्मा’ की कथा (‘भावनात्मक यात्रा’) बहुत लम्बी है। द्विवेदीजी ने बाणभट्ट के जीवन के सात दिनों की कथा, तीन महीने के अन्तराल के साथ, कुछ सीमित घटनाओं  या स्थानों (भौतिक यात्रा) में बाँधे रखकर भी ऐतिहासिक पात्रों के काल का समावेश कर लिया है। इस तरह सात दिन, तीन महीने के अन्तराल के साथ, उपन्यास  के कथानक में ईसापूर्व चौथी सदी से लेकर सातवीं सदी तक के विशाल काल को उसकी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ समाहित कर लिया गया है। द्विवेदी जी ने सात दिन के कथानक के आधार पर जो कथा तैयार की है, उसकी कालावधि बहुत लम्बी है। स्टीव अल्कोर्न ने इसे ही ‘भावनात्मक यात्रा’ कही है। बाणभट्ट के सात दिनों की भौतिक कहानी से उसकी भावात्मक कहानी बहुत लम्बी है। यह भावात्मक कहानी ही उपन्यास की कथा है और सात दिनों की भौतिक यात्रा उपन्यास का कथानक है। भरतमुनि इसी अर्थ में कथानक को शरीर कहते हैं।

 

बाणभट्ट की आत्मकथा की ‘भौतिक यात्रा’ ही यदि कथानक है, तो भौगोलिक यात्राओं को समझना इस कथानक की बुनावट प्रवाह को समझने के लिए जरूरी है। रमेश कुन्तल मेघ ने भौगोलिक यात्राओं के आधार पर उपन्यास के कथानक को पाँच चरणों में इस प्रकार बाँटा है –

प्रथम चरण : स्थाणीश्‍वर में भट्ट का निपुणिका से मिलना तथा बन्दिनी भट्टिनी का उद्धार (1-7 उच्छ्वास; पृ.106)। स्थाणीश्‍वर से मुक्ति।

दूसरा चरण : बाणभट्ट, भट्टिनी और निपुणिका का गंगा में नौका द्वारा मगध की ओर प्रयाण, चरणाद्रि दुर्ग के पास युद्ध, भट्टिनी निपुणिका का पानी में कूदना; बाण द्वारा भट्टिनी को बचाना, तीनो का लोरिकदेव नामक अभीर सामंत के घर आवास (8-11 एवं 12 उच्छ्वास की दो-तिहाई, पृ.66)

तीसरा चरण : लम्पट बाणभट्ट का हर्ष के दरबार में राजकवि होना (12 उच्छ्वास की एक-तिहाई, एवं 14 उच्छ्वास; पृ.58)

चौथा चरण : राजदूत के रूप में बाण का भद्रेश्‍वर आकर भट्टिनी को स्थाणीश्‍वर आमन्त्रित करना; भट्टिनी का जाना और स्वतन्त्र रानी की तरह रहना; (15 -17 उच्छ्वास, पृ.42)

यहाँ भट्टिनी आर्यावर्त्त की रक्षिता शक्ति हो जाती है।

पाँचवाँ चरण : बाणभट्ट, भट्टिनी और निपुणिका का पुन: स्थाणीश्‍वर आना। रत्नावली नाटक का मंचन, मंच पर ही निपुणिका की मृत्यु। बाण-विहीन भट्टिनी (18-20 उच्छ्वास; पृ.43); (बाणभट्ट की आत्मकथा : पाठ और पुनर्पाठ, सम्पादक – मधुरेश, पृ.144)

इन पाँचों चरणों में कथानक को प्रत्यक्ष रूप से घटित होते हुए देखा जा सकता है।

 

4. बाणभट्ट की आत्मकथा का अप्रत्यक्ष कथानक

 

इसी प्रत्यक्ष कथानक के बीच-बीच में अप्रत्यक्ष कथानक भी आते हैं। ये कथानक किसी पात्र के अनुभव या संस्मरण के रूप में मुख्य कथानक में पिरोए गए हैं। ये अप्रत्यक्ष कथानक वास्तविक समय में, जिसमें मूल कथानक घटित होता है, घटित नहीं होकर अतीत में घटित होते हैं, लेकिन उपन्यासकार ने कथानक को इतनी सावधानी के साथ बुना है कि अतीत से वर्तमान में कथानक की आवाजाही खटकती नहीं है और न ही मूल कथानक की गति को अवरुद्ध करती है।

 

द्वितीय उच्छ्वास में बाणभट्ट की निपुणिका से स्थाणीश्‍वर में संयोगवश हुई मुलाकात के प्रकरण में उपन्यासकार बाण के मुख से उसका परिचय कराता है। यह परिचय कब संस्मरण में बदल जाता है, इसका पता भी नहीं चलता है। वह लिखता है, “निपुणिका का संक्षिप्‍त परिचय यहाँ दे देना चाहिए। निपुणिका आजकल की उन जातियों में से एक की सन्तान है, जो किसी समय अस्पृश्य समझी जाती थीं; परन्तु  पूर्व-पुरुषों को सौभाग्यवश गुप्‍त-सम्राटों की नौकरी मिल गई थी।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.15) निपुणिका का परिचय इन वाक्यों के साथ जिस अनुच्छेद में शुरू होता है, उसका अन्त संस्मरण में होता है। अगले अनुच्छेद का पहला वाक्य तो सीधे-सीधे संस्मरण की शुरुआत ही है – “एक दिन उज्जयिनी में मेरा लिखा हुआ एक प्रकरण अभिनीत होने वाला था।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.15)

 

द्विवेदीजी की इस प्रविधि से भट्ट भौतिक रूप से निपुणिका के साथ स्थाणीश्‍वर में है, लेकिन इस परिचय-कला के माध्यम से वह उज्जयिनी का कथानक सामने लाता है, जो कि छह साल पुराना है। निपुणिका का परिचय इस प्रकरण तक ही सीमित या पूरा हो गया हो, ऐसा नहीं है। पुन: आठवें उच्छ्वास में निपुणिका अपनी ‘रामकहानी’, ‘अपनी जुबानी’ कहती है। इस प्रकरण में भी पात्रों के संस्मरणों के बहाने अप्रकट कथानकों को प्रकट या मूल कथानक से पिरोया गया है। निपुणिका की तरह ही भट्टिनी भी अपने अतीत को इसी उच्छ्वास में याद करती है। सुचरिता और आर्य वाभ्रव्य भी अपने बारे में इसी तरह बताते हैं। ऐसे ही प्रकरण अप्रत्यक्ष कथानक बनते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बाणभट्ट की आत्मकथा  के कथानक के दो स्तर हैं – प्रत्यक्ष कथानक और अप्रत्यक्ष कथानक।

 

‘आत्मकथा’ में प्रत्यक्ष कथानक के साथ-साथ अप्रत्यक्ष कथानक चलते हैं। यहाँ प्रश्‍न उठता है कि कथानक की बुनावट की इस शैली से उपन्यास के कथानक पर क्या प्रभाव पड़ा है? कहीं मूल कथानक की गति में कोई रुकावट तो नहीं आई है? सबसे पहले यह कि संस्मरण के सहारे कथानक की बुनावट की शैली मानव-मनोविज्ञान के लिए स्वाभाविक होने के कारण उपन्यास के लिए बहुत सामान्य और स्वाभाविक है। यह अपनी रामकहानी कहने के मनुष्य के स्वभाव की सामान्य विशेषता को भी प्रतिबिम्बित करती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन अप्रत्यक्ष कथानकों को मूल कथानक के सहयोगी के रूप में रचा गया है। मूल कथानक से जुड़ी बातें कहने के लिए ही इस शैली का प्रयोग किया गया है।

 

5. बाणभट्ट की आत्मकथा का कथानक और कार्य-कारण सम्बन्ध

 

बाणभट्ट की आत्मकथा के अप्रत्यक्ष कथानक इतने संक्षिप्‍त और प्रासंगिक हैं कि मूल कथानक की गति में कोई बाधा नहीं आती है। इनके माध्यम से द्विवेदीजी मूल कथानक के समानान्तर कथानक नहीं रचते।  इस ढंग से कथानक निर्माण के कई फायदे दिखाई देते हैं, जैसे कथानक गठन की इस प्रविधि से उपन्यासकार एकरसता से बच सका है। फलस्वरूप  कथानक सपाट होने से बचा और ‘जिगजैग’ हुआ। उपन्यास में आई कई अन्तर्कथाएँ उपन्यास के कथानक का हिस्सा हो गई हैं। इस तरह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कथानकों के मिश्रण से उपन्यास का कथानक सशक्त ही हुआ है।

 

कथानक में कालक्रम और कार्य-कारण का ध्यान रखा जाता है। कथानक की दृष्टि से बाणभट्ट की आत्मकथा कालक्रम और कार्य-कारण के नियम का पालन करता है। इस बात का साक्ष्य स्वयं उपन्यासकार ने दिया है, “कथा को ध्यान से पढ़नेवाला प्रत्येक सहृदय अनुभव करेगा कि कथा-लेखक जिस समय कथा लिखना शुरू करता है उस समय उसे समूची घटना ज्ञात नहीं है। कथा बहुत-कुछ आजकल की ‘डायरी’ शैली पर लिखी गई है। ऐसा जान पड़ता है कि जैसे-जैसे घटनाएँ अग्रसर होती जाती हैं, वैसे-वैसे लेखक उन्हें लिपिबद्ध करता जा रहा है।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.197)

 

कथानक के कार्य-कारण के प्रकृत नियम का पालन तो ‘आत्मकथा’ में हुआ है, लेकिन इससे अधिक कथानक-गठन में ‘नियति’ और ‘भाग्य’ का आधार लिया गया है। संयोग और घटनाओं को द्विवेदी जी ने अपनी मिथकीय दृष्टि से नियति और भाग्य में तब्दील कर दिया है। कथानक की गति को इन्हीं के सहारे बढ़ाया गया है। ‘कालदेवता’, ‘महावराह’, नियति नटी’ और ‘मनोजन्मा देवता’ नियति-तत्त्व के ही प्रतीक हैं। महामाया, बाण और भट्टिनी का भविष्य बताती हैं। महामाया जो क्रान्तिकारी भाषण देती हैं, वह अपनी प्रकृति में भविष्यवाणी ही है। सौभाग्य ही है कि बाण राजकवि बन जाता है। इस तरह हम देखते हैं कि उपन्यास कथानक के निर्माण में नियति, भाग्य इत्यादि की निर्णायक भूमिका है। इनके कुछ उदाहरण अप्रासंगिक न होंगे – “लेकिन इस कहानी को अपने दुर्भाग्य के रोने से नहीं शुरू करूँगा। इसे अपने सौभाग्य के उदय के साथ ही आरम्भ करूँगा। बीच-बीच में यदि दुर्भाग्य की कहानी आ जाए, तो इस कथा के अध्येता उसे क्षमा करेंगे।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.12)

 

“सो घूमता-घामता एक बार मैं स्थाणीश्‍वर (थानेसर) नगर में पहुँच गया। उस दिन को मैं अपने सौभाग्य का दिन मानता हूँ।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.12)

 

“मैं जिस बात से बचना चाहता था, उसी से टकराना पड़ा। भाग्य को कौन बदल सकता है? विधि की प्रबल लेखनी से जो कुछ लिख दिया गया, उसे कौन मिटा सकता है? अदृष्ट के पारावार को उलीचने में अब तक कौन समर्थ हुआ है?” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.14)

 

ये उदाहरण उपन्यास के आरम्भिक पृष्ठों से हैं। इनसे पता चलता है कि उपन्यास के कथानक के गठन में भाग्य, दुर्भाग्य और नियति की निर्णायक भूमिका होने वाली है।

 

उपन्यास में सौभाग्यपूर्ण ‘संयोगों’ का चमत्कार खूब दिखाई देता है। यहाँ तक कि यह कथानक का मूल निर्धारक-नियामक तत्त्व बन जाता है। बाण को संयोग से निपुणिका छह साल बाद मिलती है। फलस्वरूप भट्ट के जीवन की दिशा, और उपन्यास की दिशा भी, बदल जाती है। यदि यह ‘संयोग’ न घटता तो दोनों की मुलाकात नहीं होती, और यदि दोनों की मुलाकात न होती, तो उपन्यास का कथानक दूसरी दिशा में न मुड़ता, क्योंकि, बकौल भट्ट, “मैं तेजी से बढ़ा जा रहा था। भावी जीवन की रंगीन कल्पनाओं में डूबते-उतराते मनुष्य को आसपास  देखने की फुरसत कहाँ होती है। मैं एक प्रकार से आँख मूँदकर चल रहा था।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.14) ऐसे ‘आँख मूँदकर’ चलते हुए भट्ट कहाँ पहुँचता! यह कहना मुश्किल है। इसी तरह निपुणिका से संयोगवश भट्ट की मुलाकात करा कर उपन्यासकार ने कथानक को इच्छित दिशा में मोड़ दिया है।

 

‘संयोग’ की लीला यहीं नहीं समाप्‍त होती। कथानक में कई और संयोग घटते हैं। मसलन भट्टिनी पर जब हमला होता है, तब संयोग से महामाया मिलती है। सुचरिता का हाथ देखकर बाण ने उसे सुहागवती का आशीर्वाद दिया था। संयोग से वह फिर बाण से मिलती है। संयोग के ऐसे न जाने कितने प्रकरण हैं, जिनके सहारे कथानक गतिशील होता है और पाठक का मन उपन्यास में लगा रहता है। सहृदय की जिज्ञासा बनाए रखना भी कथानक का एक धर्म है, जिसमें ‘आत्मकथा’ का कथानक सफल हुआ है। इतने संयोगों का विधान उपन्यासकार ने नियति और भाग्य की भूमिका को दृढ़तर बनाने के लिए किया है। जो संयोग से घटित होता है, वही ‘विधि का विधान’ है। वही ‘नियति नटी’ की लीला है।

 

संयोग का ही एक रूप आकस्मिकता है। उपन्यास में बिना किसी पूर्वसंकेत के या बिना आभास दिए कुछ घटनाएँ घटती हैं। उपन्यासकार ने आकस्मिक घटनाओं का विधान भी कथानक के प्रवाह को बनाए रखने के लिए किया है। आभीर सामन्त ईश्‍वरसेन के सैनिकों द्वारा नाव पर आक्रमण कथानक की सर्वाधिक रोमांचक घटना है। लेकिन उपन्यासकार का विश्‍वास घटनाओं से अधिक नियति और भाग्य में है। इसलिए जहाँ-जहाँ घटनाओं से उपन्यासकार का काम नहीं चलता है, वहाँ-वहाँ वह नियति, संयोग या भाग्य के सहारे कथानक को आगे बढ़ाता है।

 

नियति, भाग्य, संयोग इत्यादि के आधार पर कथानक-गठन में उपन्यासकार को काफी सफलता मिली है, लेकिन इनकी वजह से कुछ असफलताएँ भी मिली हैं। उपन्यास के कथानक में उक्त तत्त्वों की प्रधानता के नकारात्मक परिणाम पर विचार करते हुए रमेश कुन्तल मेघ लिखते हैं, “नैतिकतावादी तथा नियतिवादी आदर्श एवं सौभाग्य की वजह से गठन की दृष्टि से कृति का कथानक कई ज्वलन्त समस्याओं को बहिर्घटना-मंच पर नहीं फेंक सका है। जैसे, बाण भट्टिनी एवं निपुणिका भद्रेश्‍वर तक तो ले भागता है – किन्तु आगे क्या करे? अत: वह उन्हें छोड़कर स्थाणीश्‍वर भाग आता है। सुचरिता की बदनामी को बाण की नारी-शरीर सम्बन्धी देव-मन्दिर वाली धारणा से कैसे सार्थक की जाए? अत: वह विरतिवज्र पत्‍नी बना दी जाती है। निपुणिका का क्या हो अन्त में? अतः उसकी मृत्यु करा दी जाती है। भट्टिनी-सांकेतिक प्रेम में भी असफल भट्टिनी – का क्या हो? उसका प्रेम, वैष्णवों के विश्‍वमानवतावाद में उद्दात्तीकृत हो जाता है। बाण का क्या हो? वह अधूरी छोड़कर पुरुषपुर जाने वाला हो जाता है।” (क्योंकि समय एक शब्द है, पृ.199)

 

6. बाणभट्ट की आत्मकथा  का उद्देश्य

 

बाणभट्ट की आत्मकथा लिखने के पीछे द्विवेदी का उद्देश्य केवल संस्कृत कवि बाणभट्ट के जीवन का विवरण देना नहीं था। उनका उद्देश्य बाण कालीन भारत, सातवीं शती (गुप्‍त काल), कलात्मक और धार्मिक इतिहास का परिचय देना भी था। इसलिए उपन्यास के कथानक के बीच-बीच में द्विवेदीजी सांस्कृतिक इतिहास पर अपने शोधों और आलोचनाओं को विस्तार से लिखने का मोह संवरण नहीं कर पाये हैं। इसकी वजह से कथानक में यथास्थान ऐसे अंश हैं जिन्हें समाज-विश्‍लेषण, कला-चिन्तन पर स्वतन्त्र निबन्ध के रूप में देखा जा सकता है। ये स्वतन्त्र लेख-अंश उपन्यास के सभी उच्छ्वासों में मिलते हैं। द्वितीय उच्छ्वास में महावराह की मूर्ति का परिचय देने के बहाने मध्यकालीन मूर्ति-कला कला का विवेचन है, तो सातवें उच्छ्वास में स्थापत्य-कला, चित्रकला, शिल्प-कला, नृत्य-कला का विवेचन है। आठवें उच्छ्वास में  काव्य-विमर्श किया गया है। इतिहास की दृष्टि से सामन्तों-राजाओं के अन्त:पुरों का वर्णन भी प्रमाणिक है। इसी तरह मध्यकालीन धर्म-साधना पर भी कई उच्छ्वासों में प्रकाश डाला गया है। इस दृष्टि से चौदहवाँ उच्छ्वास विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसमें ब्राह्मण-धर्म और बौद्ध-धर्म का विवेचन हुआ है, दोनों के बीच संघर्षपूर्ण स्थिति पर स्पष्ट हुई है। इसके अतिरिक्त उपन्यास में यथास्थान शैव, श्क्त, वैष्णव, वाम मार्ग, तान्त्रिक आदि जनसमूहों की साधना पद्धतियों और उनके मध्य संघर्षों का परिचय मिलता है।

 

इन अंशों को द्विवेदीजी की ‘प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद’ और ‘मध्यकालीन धर्मसाधना’ जैसी पुस्तकों के साथ मिलाकर पढ़ने पर यह मान्यता स्वयंसिद्ध हो जाएगी। ये अंश कथानक से विच्छिन्‍न भी हैं और अविच्छिन भी। इनके हटा देने से कथा और कथानक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा लेकिन द्विवेदीजी के उपन्यासों में अभिव्यक्त उनकी इतिहास दृष्टि और इतिहासबोध धुँधला अवश्य हो जाएगा। क्योंकि, द्विवेदीजी पहले इतिहास पर शोध करते हैं, और उससे प्राप्‍त निष्कर्षों को कथानक में गूँथकर प्रस्तुत करते हैं, यह द्विवेदीजी की शैली है, जो उनके लगभग सभी उपन्यासों में प्रतिफलित हुई है। यही वह चीज है जो उन्हें ऐतिहासिक उपन्यासकार बनाती है।

 

द्विवेदीजी के इस उपन्यास को निस्संदेह ऐतिहासिक उपन्यास माना जा सकता है, लेकिन यह इतिहास नहीं है। वस्तुत: यह एक ऐतिहासिक रोमांस है। इसके कथानक का विश्‍लेषण करने पर पता चलता है कि यह जितना ऐतिहासिक है, उतना ही समसामयिक भी। इसके कथानक में जितना इतिहास है, उतनी ही कल्पना है। बाणभट्ट, हर्ष, भर्वुशर्मा, धावक, कृष्णवर्धन, ग्रहवर्मा को छोड़कर सभी अन्य पात्र काल्पनिक हैं। इन पात्रों के रेखांकन में भी इतिहास की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं किया गया है, बल्कि कल्पना और समकालीन बोध के माध्यम से उसे ‘इतिहास-लोक’ में रूपान्तरित कर दिया गया है। इसलिए भले ही ‘आत्मकथा’ के कथानक को ऐतिहासिक कहा जाए लेकिन यह पूर्णत: इतिहास पर आधारित नहीं है।

 

7. निष्कर्ष

 

द्विवेदीजी ने बाणभट्ट की आत्मकथा के कथानक की बुनावट में इतिहास में वर्तमान का मिश्रण किया है। इस वर्तमान में लेखक का अपना स्वभाव और रचना-दृष्टि तो है ही, उनका समसामयिक  बोध भी शामिल है। महामाया के माध्यम से लोकतन्त्र और राष्ट्रीय एकता की समकालीन अवधारणाओं अतीत के कथानक में गुम्फित किया गया है, तो बाणभट्ट के स्वभाव और जीवन-दृष्टि, खास तौर से स्‍त्री-दृष्टि में, स्वयं द्विवेदीजी का व्यक्तित्त्व शामिल है। इस प्रसंग में रमेश कुन्तल मेघ लिखते हैं, “बाण का गप्पी होना (गल्प कहने में हँस कर रस लेने वाला); किसी भी वस्तु को देखकर चिन्तन वेला में अतीत में निमग्न हो जाना; कालिदास की कृतियों की शिप्रा में अविरल स्‍नान करना; भाषण कला के चमत्कार प्रदर्शित करना; बीच-बीच में संस्कृत श्‍लोकों में व्यंजना करना, रागोच्छ्वासमय रीति का उपयोग करना आदि बाण पर आरोपित लेखक की अन्तर्वृत्तियाँ हैं। बाण में अनिश्‍चयता और कार्य क्षेत्रों में अप्रवृत्ति लेखक के भी कुछ दाय हैं।” (क्योंकि समय एक शब्द है, पृ.236)

 

महामाया के राजनीतिक विचारों में आधुनिक लोकतन्त्र और राष्ट्रवाद की अवधारणाओं की स्पष्ट छाप है। महामाया जनता को सम्बोधित करती हैं, “राजाओं, राजपुत्रों, और देवपुत्रों की आशा पर निश्चेष्ट बने रहने का निश्‍च‍ित परिणाम पराभव है। प्रजा में मृत्यु का भय छा गया है, यह अशुभ लक्षण है।… धर्म के लिए प्राण देना किसी जाति का पेशा नहीं है, वह मनुष्य मात्र का उत्तम लक्ष्य है। …तो भारत का भविष्य अंधकार से आच्छन्‍न है।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.196) महामाया की लोकतान्त्रिक और राष्ट्रवादी चेतना से भट्टिनी की संवेदना जुड़ती है। वह इस बात से प्रसन्‍न और आश्‍वस्त है कि महामाया के प्रभाव में लाखों-लाख स्‍त्री-पुरुष देश की रक्षा के लिए तत्पर हो उठे हैं। वे भट्ट को बताती हैं, “आर्यावर्त की विपत्ति इस बार कट गई है, भट्ट! आचार्य भर्वूपाद ने बताया है कि इस अल्पकाल में ही महामाया के लाखों शिष्य पुरुषपुर के आगे एकत्र हो गए हैं। इनमें अधिकांश अशिक्षित और असंघठित थे। मेरे पिता ने उनको संघठित करने का काम आरम्भ कर दिया है।” (बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ.196) पूरे राजनीतिक प्रकरण का वर्णन जिस स्वर और भाषा में हुआ है, इससे यह लगता है कि यह सातवीं शती के भारत की राजनीति का वर्णन न होकर स्वतन्त्रता संघर्ष का वर्णन है। राजा अब सेनाएँ नहीं, जनता को संगठित कर रहे हैं!

इसी तरह ‘सारी कथा में स्‍त्री-महिमा का (जो) बड़ा तर्कपूर्ण और जोरदार समर्थन है’ वह भी स्‍त्री के बारे में आधुनिक-मनुष्य की चिन्ता का फल है।

 

 

पुस्तकें

  1. शान्तिनिकेतन से शिवालिक, शिवप्रसाद सिंह, नेशनल पब्लिकेशन्स हॉउस, नई दिल्ली
  2. ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ पाठ और पुनर्पाठ, सम्पादक – मधुरेश, आधार प्रकाशन, पंचकूला
  3. आधुनिक हिन्दी उपन्यासों में प्रेम की परिकल्पना, विजयमोहन सिंह, रचना प्रकाशन, इलाहाबाद
  4. हिन्दी उपन्यास : एक अन्तर्यात्रा, रामदरश मिश्र, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  5. बाणभट्ट की आत्मकथा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. क्योंकि समय एक शब्द है, रमेश कुन्तल मेघ, लोकभारती प्रकाशन, नई दिल्ली
  7. दूसरी परम्परा की खोज, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

 

वेब लिंक :

  1. http://www।sahityakunj।net/LEKHAK/R/RajendraGautam/acharya_Hazari_upnayas_bodh।htm
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AD%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%9F_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A4%A5%E0%A4%BE
  3. https://www.youtube.com/watch?v=rx6pEjXCBWo
  4. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B9%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6_%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A6%E0%A5%80