6 प्रेमचन्द और आज का भारत
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- प्रेमचन्द और आज का भारत
- निष्कर्ष
1.पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- प्रेमचन्द की सृजन-कला को समझ पाएँगे।
- प्रेमचन्द और आज के भारत की रूपरेखा का सम्बन्ध को जान पाएँगे।
- प्रेमचन्द की रचनाओं के माध्यम से उनके समय की सामाजिक गतिविधिया को भी समझ पाएँगे।
2. प्रस्तावना
प्रेमचन्द हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं। उन्होंने 13 उपन्यास और लगभग 300 कहानियों की रचना कीं। टालस्टाय, गाल्सवर्दी, रतननाथ सरशार आदि की रचनाओं का अनुवाद किया। उन्होंने तीन नाटक भी लिखे। हंस और जागरण का सम्पादन किया। उनकी पहली रचना सन् 1903 ई. में प्रकाशित हुई। वे हिन्दी और उर्दू के रचनाकार थे। कुछ रचनाओं को पहले उन्होंने पहले उर्दू में लिखा और बाद में हिन्दी में अनुवाद किया। कुछ रचनाएँ उन्होंने पहले हिन्दी में लिखी और फिर उसका उर्दू में रूपान्तरण किया। वे जीवन पर्यन्त रचनारत रहे। उनका देहावसान सन् 1936 में हो गया। इस तरह 33 वर्षों तक उन्होंने लेखन किया। हिन्दी में उनका समय प्रसाद, निराला और आचार्य शुक्ल के साथ-साथ बीता। राजनीति में यह समय महात्मा गाँधी और पण्डित नेहरू की सक्रियता का समय था। इन तथ्यात्मक बातों को आज का लगभग प्रत्येक हिन्दी पाठक जानता है।
3. प्रेमचन्द और आज का भारत
प्रेमचन्द के रचनात्मक लेखन के दो प्रमुख स्वर हैं– अंग्रेजी साम्राज्य के विरोध में स्वाधीनता आन्दोलन और भारतीय किसान की बदहाली एवं सामन्तवाद का विरोध। इन्हीं के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने साहित्य सृजन किया हैं, विचार किया हैं। प्रेमचन्द एक तरह से सामाजिक लेखक हैं, वैयक्तिक जीवन का चित्रण बहुत कम किया हैं। इस स्थिति में इस बात का लेखा-जोखा हो जाना चाहिए कि प्रेमचन्द ने साहित्य में जिनका चित्रण किया है, उनमें से कौन-सा जीवन अब लुप्त हो गया है और जीवन जा कौन-सा रूप अभी बना हुआ है, कौन-सा रूप बदले हुए रूप में आज भी मौजूद है।
प्रेमचन्द-साहित्य की पृष्ठभूमि में उपस्थित अंग्रेजी राज अब समाप्त हो गया है। रंगभूमि के मि.क्लार्क और कायाकल्प का मि.जिम अब भारत में नहीं है। गोदान में एक पात्र है पटेश्वरी। वह अंग्रेज बहादुर का नौकर है। अपनी ताकत का इजहार करते हुए वह कहता है, “मैं जमीन्दार या महाजन का नौकर नहीं हूँ, सरकार बहादुर का नौकर हूँ, जिसका दुनिया-भर में राज है और जो तुम्हारे महाजन और जमीन्दार दोनों का मालिक है।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6, पृ. 173) वह अंग्रेज और उनके नौकर अब नहीं हैं। अबइस देश की चुनी हुई अपनी सरकार है।
प्रेमचन्द की रचनाओं के सबसे बड़े खलनायक जमीन्दार और उनके कारिन्दे हैं। प्रेमचन्द ने उस काल के अनेक पदों का वर्णन किया है, जो पद अब गायब हो गए हैं। जमीन्दार और कारिन्दा गाँव के सर्वेसर्वा होते थे। प्रेमाश्रम का ज्ञानशंकर, गोदान के रायसाहब के अलावा उनके उपन्यासों में ढेरों पात्र हैं, जो अब सिर्फ प्रेमचन्द की रचनाओं में ही दिखाई देते हैं। भारतीय समाज में उनका अस्तित्व समाप्त हो गया है। उनके शोषण और अन्याय का प्रेमचन्द ने विशद वर्णन किया है, उसकी अब ऐतिहासिक उपयोगिता रह गई है। प्रेमचन्द की रचनाओं का लगभग आधा हिस्सा इन जमीन्दारों ने घेर रखा है।
हमारे समाज में पुलिस अब भी है, पुलिस का रौब-दाब भी कायम है, पर उस कोटि की अत्याचारी पुलिस अब नहीं है। गोदान में दरोगा अपनी ताकत का इजहार करते ही कहता है, “तुमने अभी अन्धेर नहीं देखा, कहो तो वह भी दिखा दूँ? एक-एक को पाँच साल के लिए भेजवा दूँ। यह मेरे बाएँ हाथ का खेल है। एक डाके में सारे गाँव को काले पानी भेजवा सकता हूँ।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6, पृ. 110) गबन के रामनाथ का जीवन इसी पुलिस के आतंक से बदल जाता है। अब स्थिति में परिवर्तन आ गया है।
प्रेमचन्द के समय में किसानों को कर्ज की समस्या बड़ी भारी थी। कर्ज का सम्बन्ध जमीन्दारी प्रथा से था। गोदान में इसका खुलासा हुआ है। जमीन्दार कभी किसानों से बकाया लागान का पैसा माँगते हैं, कभी बढ़े हुए लगान का दावा करते हैं। “जमीन्दार ऐसे नाजुक समय पर किसानों से लगान माँगते हैं, जब उनके पास रुपए नहीं होते। ऐसे नाजुक समय में महाजन किसानों का हमदर्द व रक्षक बनकर खड़ा होता। गोदान में रायसाहब ने आसाढ़ में रुपए माँगे। किसान महाजनों के पास दौड़े। महाजनों ने ‘कृपा’ करते हुए मनमाने सूद पर रुपए दिए। किसानों पर जब भी जमीन्दार आर्थिक चोट करता है तब ही महाजन (?) रक्षक के रूप में दिखाई देता है। और कर्ज वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता।” (प्रेमचन्द और भारतीय किसान, पृ. 207, दूसरा संस्करण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली)
प्रेमचन्द ने ‘जमीन्दारी व्यवस्था के भीतर महाजनी व्यवस्था को विस्तार से चित्रित किया है। जमीन्दारी प्रथा समाप्त गई, उसी के साथ वे महाजन भी समाप्त हो गए। फिर भी किसान कर्ज मुक्त नहीं हो पाए। यह कर्ज बैंकों के माध्यम से अब भी बना हुआ है। अब कर्ज के कारण उसके परिणाम बदल गए हैं।
प्रेमचन्द ने मिल मालिकों और बैंकों के प्रभाव और ग्रामीण जीवन में उनके दखल का गोदान में वर्णन किया है। गन्ना एक तरह से नगदी फसल है। प्रेमचन्द ने लिखा, “इस साल इधर एक शक्कर का मिल खुल गया था। उसके कारिन्दे और दलाल गाँव-गाँव घूमकर किसानों की खड़ी ऊख मोल ले लेते थे। वही मिल था जो मि. खन्ना ने खोला था। एक दिन उसका कारिन्दा इस गाँव में भी आया। किसानों से जो उससे भाव-ताव किया, तो मालूम हुआ, गुड़ बनाने में कोई बचत नहीं है। जब घर में ऊख पेरकर भी यही दाम मिलता है, पेरने की मेहनत क्यों उठाई जाय। सारा गाँव खड़ी ऊख बेचने को तैयार हो गया।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6, पृ. 169) इस समय महाजन और मिल-मालिक में भी वर्गीय एकता स्थापित हो गई। महाजन मिलवालों से मिल गए और ऊख की कीमत में से अपना रुपया वसूल करके शेष रुपए “आसामी को देते थे। आसामी कितना ही रोए, चीखे, किसी की न सुनते थे।” (वही, पृ. 172) यह प्रक्रिया स्वतन्त्र भारत में बदल गई, पर नगदी फसलों के अवश्यम्भावी, आगमन की आस्था इसे प्रेमचन्द ने गोदान में दिखा दिया। इन किसानों के जीवन में आनेवाली समस्याओं की ओर प्रेमचन्द ने संकेत तो नहीं किया, पर इस तथ्य को रेखांकित अवश्य कर दिया।
प्रेमचन्द ने सरकारी कर्मचारियों की कार्यप्रणाली का वर्णन प्रेमाश्रम एवं अन्य रचनाओं में किया है। उनके भ्रष्ट आचरण की निन्दा भी की है। ये कर्मचारी स्वतन्त्र भारत में भी बने रहे। डिप्टी ज्वाला सिंह, पटेश्वरी, पुलिस एवं जेल के कर्मचारी उनकी विभिन्न रचनाओं में देखने को मिलते हैं। प्रेमचन्द ने मिल मालिक और बैंक के रिश्तों का खुलासा भी किया है। इन्हीं के साथ शेयर बाजार की मिली-भगत का भी उन्होंने वर्णन किया है। गोदान में खन्ना मिल मालिक है। वह रायसाहब को कहता है, “रुपए जितने चाहें, मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हाँ, अभी आपने अपनी जिन्दगी इंश्योर्ड न कराई होगी। मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पॉलिसी लीजिए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं, और इकट्ठी रकम मिल जाएगी– चालीस-पचास हजार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबन्ध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धान्त पर काम करते हैं। दफ्तर और कर्मचारियों के खर्च के सिवा नफे की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कम्पनी चल कैसे रही है। और मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हुए हैं। रुई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जिंस का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है। काम जरा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरन्देश लोगों के लिए इससे ज्यादा नफे का काम नहीं। बाजार का उतार-चढ़ाव कोई आकस्मिक घटना नहीं। इसका भी विज्ञान है।” (वही, पृ. 87)
आज के भारत के सट्टा बाजार, शेयर बाजार तथा बीमा कम्पनियों के उभरते बाजार के प्रारम्भिक सूत्रों की तरफ प्रेमचन्द ने गोदान में ध्यान दिलाया था। कह सकते हैं कि प्रेमचन्द सिर्फ किसानों की बदहाली की ही चर्चा नहीं करते, वे आने वाली आर्थिक गतिविधियों के संकेत भी छोड़ते जाते हैं। इसे रेखांकित करने की आवश्यकता है कि गोदान में खन्ना हमेशा शक्तिशाली पात्र के रूप में उपन्यास के अन्त में भी बने रहते हैं। होरी की मृत्यु और रायसाहब के पतन के बावजूद खन्ना का जीवट यथावत बना रहता है। यह प्रेमचन्द की यथार्थवादी दूरदृष्टि है, जो खन्ना से असहमत होते हुए भी उसे उभरते हुए पूँजीपति के रूप में विकसित होता हुआ दिखाती है।
इसी तरह प्रेमचन्द ने दलालों के बढ़ते प्रभाव की ओर संकेत किया। मालती के पिता दलाल थे। “यही दलाल जब छोटे-छोटे सौदे करते हैं, तो टाउट कहे जाते हैं। और हम उनसे घृणा करते हैं। बड़े-बड़े काम करके वही टाउट राजाओं के साथ शिकार खेलता है और गवर्नरों की मेज पर चाय पीता है।” (वही, पृ. 147) मालती के पिता को तो फाजिल हो गया था, इसलिए वे कुछ काम नहीं कर पाते थे, परन्तु रायसाहब की पार्टी में ऐसा ही एक चरित्र था तन्खा, जो उपन्यास के अन्त तक रहता है। उसकी शक्ति में कभी कोई कमी नहीं आती। तेखा का परिचय देते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं, ” दूसरे महाशय जो कोट-पैण्ट में हैं, वह हैं तो वकील, पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा-कम्पनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज दिलाने वकालत से कहीं ज्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम श्याम बिहारी तन्खा।” (वही, पृ. 53) इस प्रकरण द्वारा सम्भवतः प्रेमचन्द वकालत और दलाली का रिश्ता प्रकट करना चाहते हैं।
प्रेमचन्द ब्रिटिश न्याय व्यवस्था के बड़े कठोर आलोचक थे। इस व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार का उन्होंने पर्दाफाश किया। नमक का दरोगा कहानी में प्रेमचन्द ने कचहरी के वातावरण का जीवन्त वर्णन किया है। नमक का दरोगा वंशीधर ने पण्डित अलोपीदीन को गिरफ्तार कर लिया। दूसरे दिन अलोपीदीन कचहरी पहुँचे। “पण्डित अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त. अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञापालक और अरदली, चपरासी और चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-11, पृ. 301-302) इसी तरह रुपयों के बल पर न्याय को खरीद लिया जाता है। गोदान में झिंगुरी सिंह कहते हैं, “कानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है। कानून तो है कि महाजन किसी आसामी के साथ कड़ाई न करे, कोई जमीन्दार किसी कास्तकार के साथ सख्ती न करे, मगर होता क्या है। रोज ही देखते हैं। जमीन्दार मुसक बँधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है।… सारा कारोबार इसी तरह चला जाएगा, जैसे चल रहा है। कचहरी अदालत उसी के साथ है, जिसके पास पैसा है।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6, पृ. 227) झिंगुरी सिंह का यह वक्तव्य भविष्यवाणी जैसा है। यह न्याय-व्यवस्था इसी गति से चल रही है। न्यायिक भ्रष्टाचार भले ही कम हुआ हो, परन्तु न्याय की व्यवस्था वही है और न्यायिक व्यवस्था के पात्र वही हैं। वही न्यायधीश, बाबू और वकील।
आने वाले भारत के बारे में चिन्ता करते हुए प्रेमचन्द ने ज़माना में प्रकाशित एक लेख पुराना ज़माना : नया ज़माना में स्वराज का स्वरूप स्पष्ट किया है, “हमारे स्वराज्य के नेताओं में वकील और जमीन्दार ही सबसे ज्यादा हैं। हमारी कौंसिलों में भी यही दो समुदाय आगे-आगे दिखाई पड़ते हैं। मगर कितने शर्म और अफ़सोस की बात है कि इन दोनों में से एक भी जनता का हमदर्द नहीं। वे अपने ही स्वार्थ और प्रभुत्व में मस्त हैं। वह अधिकार और शासन की माँग करते हैं और धन और वैभव के इच्छुक हैं, जनता की भलाई के नहीं। कितने बड़े-बड़े ताल्लुकेदार, बड़े-बड़े जमीन्दार, पासे वाले रईस लोग उन बेजबान करोड़ों काश्तकारों के साथ हमदर्दी, इन्सानियत और देश भाईपन का बर्ताव करते हैं, जिन्हें संयोग या गवर्नमेण्ट की गलती या खुद जनता की बेजुबानी ने उनकी तकदीर का मालिक बना दिया है। आप स्वराज्य की हाँक लगाइए, सेल्फ गवर्नमेण्ट की माँग कीजिए, कौंसिलों को विस्तार देने की माँग कीजिए, उपाधियों के लिए हाथ फैलाइए, जनता को इन चीजों से कोई मतलब नहीं है। वह आपकी माँगों में शरीक नहीं है, बल्कि अगर कोई अलौकिक शक्ति उसे मुखर बना सके तो वह आज जोरदार आवाज में, शंख बजाकर आपकी इन माँगों का विरोध करेगी। कोई कारण नहीं है कि वह दुसरे देश के हाकिमों के मुकाबले में आपकी हुकूमत को ज्यादा पसन्द करे। और जो रैयत अपने अत्याचारी और लालची जमीन्दार के मुँह में दबी हुई है, जिन अधिकार-सम्पन्न लोगों के अत्याचार और बेगार से उसका हृदय छलनी हो रहा है, उनको हाकिम के रूप में देखने की कोई इच्छा उसे नहीं हो सकती।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-7, पृ. 196-197)
इस उद्धरण से स्पष्ट है कि प्रेमचन्द वकीलों को जमीन्दारी के समकक्ष मानते हैं, दूसरे प्रजातान्त्रिक व्यवस्था में ये ही लोग आगे रहेंगे, इसकी आशंका जता रहे हैं। यह अवश्य है कि जमीन्दारों का पतन होने वाला है लेकिन वकीलों की भागीदारी स्वराज्य में भी रहेगी, इसकी वे भविष्यवाणी कर रहे हैं। प्रेमचन्द कहीं भी वकीलों को मिट जाने वाले वर्ग में शामिल नहीं करते। इसलिए प्रेमचन्द के यहाँ वकील बहुत सज-धज कर आते हैं। प्रेमचन्द उनकी स्पष्ट निन्दा नहीं करते। उनका परिचय परिहास में देते हैं। कानूनी कुमार कहानी में प्रेमचन्द ने उनके व्यक्तित्व को मूर्तिमान किया जिनकी देह ‘देश की चिन्ताओं से’ ‘स्थूल हो गई’। वे सोचते हैं कि भारत की सभी समस्याओं का समाधान क़ानून बनाकर किया जा सकता है।
इसी तरह देश दशा से चिन्तित समुदाय पत्रकारों का हैं। प्रेमचन्द ने गोदान में पण्डित ओंकारनाथ का परिचय दिया हैं– “वह जो खद्दर का कुर्ता और चप्पल पहने हुए हैं, उनका नाम ओंकारनाथ हैं। आप दैनिक-पत्र ‘बिजली’ के यशस्वी सम्पादक हैं, जिन्हें देश-चिन्ता ने घुला डाला है।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6, पृ. 53) इस बहाने प्रेमचन्द संकेत करना चाहते हैं कि देश की चिन्ता का व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों की संख्या में चिन्ताजनक बढ़ोतरी होने लगी है।
प्रेमचन्द जातीय भेदभाव और दलित उत्पीड़न के विरोधी थे। उनके साहित्य का स्पष्ट सन्देश है कि आगे आने वाले समय में जातीय भेदभाव नहीं रहेगा। सम्भवतः इसी कारण गोदान में मातादीन और सिलिया को सार्वजनिक रूप से सह जीवन में रहता हुआ दिखाते हैं। उनकी दृष्टि में यह भेदभाव कुछ दिनों का मेहमान है। इसी तरह जातीय पंचों की पंचायत भी ज्यादा दिनों तक चलने वाली नहीं है, भले ही आज वह बहुत खूँखार रूप में दिखाई देती है। प्रेमचन्द ने किसानों में निरक्षरता के व्यापक प्रसार का उल्लेख किया है, जिससे यह ध्वनित होता है कि ग्रामीण भारत में निरक्षरता की यह समस्या अभी बहुत दिनों तक रहने वाली है। गरीबी से जुड़ी हुई अन्य समस्याएँ भी अभी बहुत दिनों तक इस देश में रहेगी। यह आशंका गोदान में भी दिखाई देती है।
गोदान में रायसाहब अमरपाल सिंह एक दावत देते हैं। इस दावत में शहर के गणमान्य नागरिक शामिल होते हैं। इनमें मिल-मालिक खन्ना, पत्रकार पण्डित ओंकारनाथ, दलाल श्यामबिहारी तन्खा, विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर मि. बी. मेहता, डॉ. मि. मालती, गृहणी मिसेज खन्ना कौंसिल के मेम्बर मिर्जा खुर्शेद के साथ मेजबान रायसाहब हैं। इन आठ लोगों की दावत होती है। यह सामान्य दावत सिर्फ खाने-पीने, मौज-मस्ती के लिए नहीं है। यह आगे आने वाले समाज के समाजीकरण का हिस्सा है। इस दावत में सभी धर्म-सम्प्रदाय के लोग थे, परस्पर विचारों में भिन्नता थी, सबके काम अलग-अलग थे। परन्तु वे आपस में मित्र थे। इस दावत में देश-दशा पर बहस होती है। ऐसी बहसें प्रेमचन्द को प्रिय हैं। फिर वे लोग परस्पर फायदा पहुँचाने वाली योजनाओं की चर्चा करते हैं। यह कार्य यूँ ही हँसते-बोलते हो जाता है।
प्रेमचन्द शायद यह दिखाना चाहते हों कि आगे आने वाले जमाने में इन दावतों का आर्थिक और राजनीतिक महत्त्व पड़ने वाला है। सब लोग अपनी-अपनी रुचि के दोस्त चुन लेते हैं और अपने फायदे की बातें वहाँ जाती हैं। समाज का यह भद्र वर्ग इस पद्धति से आगे बढ़ेगा, शेयरों का आबण्टन, इंश्योरेंस, ठेका आदि गतिविधियाँ इसी तरह एक-दूसरे से मिलने-जुलने से आगे बढ़ती रहेगी। इस दावत और शिकार पार्टी में प्रेमचन्द इसे दिखाते रहते हैं। ऐसी दावतों ने सभी समूहों के प्रभावशाली लोग शामिल होते हैं।
जीवन भर सृजनरत रहने वाला लेखक जीवन भर चिन्तन करता रहता है। ऐसे में कुछ बातों के बारे में उसके मन में वर्षों तक असमंजस बना रहता है। वह अन्तिम निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता। कुछ बातों पर वह ठोस निष्कर्षों पर पहुँच जाता है। अंग्रेजों के जाने के बाद और जमीन्दारी प्रथा समाप्त होने के बाद देश का समाज कैसा बनेगा? राजनीतिक व्यवस्था कैसी होगी? इन सब चीजों पर प्रेमचन्द स्पष्ट नहीं थे? वे अन्दाजा लगा रहे थे। सम्भव है आगे कौंसिलों की तरह के चुनाव हों। चुनाव में धन की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो सकती है। साम्यवादी समाज हो सकता है। सम्भवतः कोई नई व्यवस्था हो। इतना प्रेमचन्द मानते थे कि जो भी व्यवस्था होगी, वह वर्तमान व्यवस्था से बेहतर ही होगी। इसकी हमें दुआ करनी चाहिए। पैसे वाले लोग मोटर गाड़ियों से चलेंगे। शिक्षा होगी, तभी तो मि. मेहता को रायसाहब की दावत में बुलाया गया है।
4. निष्कर्ष
चिन्तन के इस असमंजस के दौर में कभी-कभी लेखक की मृत्यु हो जाती है। वह विचार अधूरा ही रह जाता है। विचार किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचता। प्रेमचन्द के चिन्तन में ऐसे वैचारिक सूत्र हैं, जिन्हें अलग-से पहचाना जा सकता है। इन विचारों का बड़ा हिस्सा स्त्री शिक्षा से जुड़ा है। क्या सभी स्त्रियों को शिक्षा दी जानी चाहिए? क्या सभी शिक्षित नारियों को नौकरी करनी चाहिए? क्या शिक्षित स्त्री विवाह का दायित्व स्वीकार करेगी? क्या उसका विवाह सफल रहेगा? ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जो प्रेमचन्द के चिन्तन में अस्फुट रूप में सुनाई देते हैं।
प्रेमचन्द स्त्री शिक्षा के हिमायती हैं, परन्तु उनके मन में शिक्षित स्त्रियों के प्रति सन्देह का भाव रहता है। रायसाहब की दावत में खन्ना की पत्नी का परिचय देते हुए कहते हैं कि वह “बहुत गम्भीर और विचारशील-सी है।” और मालती? उसका परिचय दिया कि “दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए है और जिनकी मुख-छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंग्लैण्ड से डाक्टरी पढ़ आई हैं और अब प्रैक्टिस करती हैं। ताल्लुकेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात् प्रतिमा हैं। गात को, अल, पर चपलता कूट-कूटकर भरी हुई है। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाजिर-जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्त्व समझने वाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन, जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव, मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया हो।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6, पृ. 57)
इस वर्णन से ऐसा लगता है मानो प्रेमचन्द उन विचारकों से सहमत हैं, जो मानते हैं कि अतिशिक्षित नारी का चरित्र ठीक नहीं होता। मालती और मेहता के बीच मित्रता का रिश्ता है। इस अर्थ में यह भी नई बात है और शिक्षित स्त्री-पुरुषों के बीच मित्रता का रिश्ता बनता है। यह रिश्ता विवाह में नहीं बदलता। दोनों प्रबुद्ध हैं, कुँवारे हैं। आत्मनिर्भर हैं। जाति-पाँति के बन्धन को नहीं मानते। दोनों एक दूसरे को पसन्द करते हैं। फिर प्रेमचन्द ने इनका विवाह क्यों नहीं कराया? इनके रिश्ते को लेखक ने मित्रता तक ही क्यों सीमित रख दिया।
यहाँ फिर आशंका होती है, सम्भवत लेखक आश्वस्त नहीं थे कि शिक्षित स्त्रियाँ वैवाहिक दायित्व का निर्वाह ठीक से कर पाएँगी? उपन्यास में मालती के व्यक्तित्व का विकास होता है, वे उसकी प्रशंसा करते हैं, परन्तु प्रेमचन्द अन्त तक आश्वस्त नहीं हो पाते। सूरदास में विनय और सोफिया की प्रेम कहानी का अन्त करुणा में होता है। दोनों आत्महत्या कर लेते हैं। दोनों कुँवारे ही रह जाते हैं। रंगभूमि में विनय और सोफिया के प्रेम को विवाह में परिवर्तित होने में धर्म आड़े आता है। सोफिया इसाई है और विनय हिन्दू। प्रेमचन्द शायद इस अन्तर्धार्मिक विवाह को उचित नहीं ठहराना चाहते और इसी कारण दोनों से आत्महत्या करवा देते हैं। परन्तु मेहता और मालती दोनों हिन्दू हैं, हालाँकि दोनों की जातियाँ अलग-अलग हैं। प्रेमचन्द जाति भिन्नता को महत्त्व नहीं देते। परन्तु अपनी पसन्द के युवक-युवती का आपस में विवाह प्रेमचन्द ने कहीं भी दिखाया नहीं, हालाँकि इस तरह के रिश्ते जब बन रहे हैं, तो आगे चलकर ऐसे विवाह नहीं होंगे, ऐसा निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। प्रेमचन्द की इस आशंका को वाणी देती हुई मालती एक स्थान पर कहती है, “अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं, वही सत्य है। बहुत सम्भव है, आगे चलकर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े।” (वही, पृ. 148) सभी स्वातन्त्र्य और स्त्री शिक्षा सम्बन्धी प्रेमचन्द की यह आशंका उनके लगभग सभी शिक्षित स्त्री पात्रों में दिखाई देती है।
ग्रामीण जीवन की स्त्रियों के बारे में प्रेमचन्द की धारणाएँ स्पष्ट हैं, परन्तु आगे आने वाला जमाना तो शिक्षित नारियों का है। अतः उनके बारे में अभी गम्भीर विचार-विमर्श की जरूरत है, ऐसा प्रेमचन्द मानते हैं।
अतिरिक्त जाने
पुस्तकें
- कलम का सिपाही, अमृत राय, हंस प्रकाशन, दिल्ली
- प्रेमचन्द घर में, शिवरानी देवी, आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली
- प्रेमचन्द : एक कृति व्यक्तित्व, जैनेन्द्र कुमार, पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली
- प्रेमचन्द और उनका युग, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
- प्रेमचन्द अध्ययन की नयी दिशाएँ, कमल किशोर गोयनका, साहित्य निधि, नई दिल्ली
- प्रेमचन्द और भारतीय किसान, रामबक्ष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://www.youtube.com/watch?v=hIqWYrUuch8
- https://www.youtube.com/watch?v=JieXJThB5e8
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8_(%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%B8)
- http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%A8_/_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6_/_%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE