20 नौकर की कमीज का कथ्य
डॉ. योगेश्वर तिवारी and डॉ. वेद रमण पाण्डेय
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- नौकर की कमीज की कथा
- नौकर की कमीज के पात्र
- नौकर की कमीज का अर्थ
- नौकर की कमीज में व्यक्त दाम्पत्य जीवन
- नौकर की कमीज में व्यक्त समाज
- निष्कर्ष
1.पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- नौकर की कमीज उपन्यास की कथा और प्रमुख चरित्रों की संक्षिप्त जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
- उपन्यास में व्यक्त प्रतीकों का विश्लेषण कर सकेंगे।
- उपन्यास में व्यक्त लेखक के विचारों से अवगत हो सकेंगे।
- हिन्दी उपन्यास के इतिहास में नौकर की कमीज उपन्यास का स्थान निर्धारित कर सकेंगे।
2.प्रस्तावना
विनोद कुमार शुक्ल का पहला उपन्यास नौकर की कमीज सन् 1979 में प्रकाशित हुआ। अपने प्रकाशन के तुरन्त बाद ही अलग भाषा और शिल्प की वजह से यह उपन्यास चर्चा में आ गया। उपन्यास का कथानक किसी एक विशेष घटना के वर्चस्व को तोड़ता है। लेखक छोटी-छोटी घटनाओं को गढ़ता है। ये घटनाएँ आपस में जुड़कर एक कथानक की सृष्टि करती हैं। उपन्यास के पात्र कोई बात कहते हैं। इस एक बात से दूसरी बात निकलती जाती है। इसी क्रम में लेखक कोई ऐसा वाक्य लिख देता है, जिससे पूरी बात में एक अर्थ भर जाता है। यह अर्थ ही उपन्यास का प्राण बन जाता है। एक साधारण से संवाद को लेखक का एक वाक्य नये अर्थ की ओर ले जाता है। पढ़ते हुए लगता है जैसे पूरा संवाद कोई ताला हो और यह छोटा-सा वाक्य उस ताले की चाभी।
विनोद कुमार शुक्ल मूलतः कवि हैं। इनका पहला कविता संग्रह लगभग जयहिंद ‘पहचान सीरीज’ के अन्तर्गत सन् 1971 में प्रकाशित हुआ। इसके अलावा अनेक पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कविताएँ और कहानियाँ छपती रहीं। विनोद जी कविता से उपन्यास की ओर आए हैं। वे अपने साथ कविता को भी उपन्यास में लेकर आए हैं, विशेषकर अपने तीसरे उपन्यास दीवार में एक खिड़की रहती थी में यह देखा जा सकता है। इस उपन्यास पर वर्ष 1999 में विनोद कुमार शुक्ल को साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है।
3. नौकर की कमीज की कथा
नौकर की कमीज घर और दफ्तर रूपी दो खम्भों के बीच तनी हुई रस्सी पर सन्तू बाबू और उनकी पत्नी के चलने की कथा है। इस तनी हुई रस्सी पर चलने की कुशलता अनुभव और अभ्यास के बाद आती है। यहाँ सन्तू बाबू और उनकी पत्नी को यह अभ्यास और अनुभव उनका दाम्पत्य जीवन मुहैया करवाता है। सन्तू बाबू और उनकी पत्नी अपने घर को सम्हालने और ठीक से चलाने की पूरी कोशिश करते हैं। इस कोशिश में सन्तू बाबू का ‘वेतन एक कटघरे की तरह है।’ वे इस कटघरे से बाहर नहीं जा सकते। कभी-कभी पति-पत्नी के साथ सन्तू बाबू की माँ भी इस कटघरे में शामिल हो जाती हैं।
सन्तू बाबू का बड़ा भाई अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ दूसरे कस्बे में रहता है। माँ दोनों भाइयों के पास आती-जाती रहती हैं। बी.ए. पास करने के बाद नौकरी लगने पर सन्तू बाबू की शादी हो गई है।
पढ़ाई और बेकारी के खत्म होने के इन्तजार के बाद सन्तू बाबू एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क बने हैं। इसलिए बकौल सन्तू बाबू “शुरू में छुट्टी के दिन की आदत मुझे नहीं पड़ी थी। छुट्टी का दिन मुझे बेकारी का दिन याद दिला देता था। छुट्टी का दिन नौकरी से अलग कर दिया गया दिन लगता था।” (नौकर की कमीज) तो छुट्टी का दिन सन्तू बाबू को चैन देने की बजाय बेचैन करता है।
सन्तू बाबू अपनी पत्नी के साथ किराए के दो कमरों वाले एक मकान में रहते हैं। मकान मालिक शहर का बड़ा डॉक्टर है। उसे किरायेदार की सुविधा-असुविधा से नहीं सिर्फ किराए से मतलब है। उसकी पत्नी अपनी अमीरी के रौब में सन्तू बाबू की पत्नी से अपने घर का काम करवाती है। दफ्तर का साहब अपने पद का लाभ उठाते हुए सन्तू बाबू और दूसरे क्लर्कों से अपने घर का काम करवाता है। सन्तू बाबू और उनकी पत्नी इस परिस्थिति से जूझते हैं और इससे मुक्ति की राह तलाशने की कोशिश करते हैं। अपनी इस कोशिश में वे अपने जैसे दूसरे लोगों को भी शामिल करते हैं।
नौकर की कमीज में एक सरकारी दफ्तर का परिवेश है। इस उपन्यास में एक आम सरकारी दफ्तर की कार्यप्रणाली को सूक्ष्मता से दिखाया गया है। विनोद कुमार शुक्ल ने एक ईमानदार क्लर्क की नज़र से एक सरकारी दफ्तर को देखने की कोशिश की है।
उपन्यास में सन्तू बाबू का चरित्र विशिष्ट लगता है। वे बाकी लोगों से तनिक अलग सोचते हैं। वे अपने निजी स्वार्थ की जगह पूरे समाज की भलाई पर ज्यादा जोर देते हैं। इस कारण कुछ लोग उन्हें झक्की भी समझते हैं। पर सन्तू बाबू के साथ कुछ समय बिताने पर लोगों को समझ में आता है कि व्यवस्था के साथ नहीं खड़ा होने वाला व्यक्ति हमेशा झक्की ही समझा जाता है। इस झक्क में भी एक सुख है। व्यवस्था से सहमति दिखाकर उसकी हाँ में हाँ मिलाने से ज्यादा उससे असहमति दिखाने का सार्थक सुख। विनोद कुमार शुक्ल इस बात को बहुत कुशलता से अपने इस उपन्यास में दिखाते हैं।
4. नौकर की कमीज के पात्र
सन्तू बाबू और उनकी पत्नी इस उपन्यास के प्रमुख पात्र हैं। पूरे उपन्यास में पत्नी का नाम कहीं नहीं आया है। सन्तू बाबू सरकारी दफ्तर में काम करने वाले एक क्लर्क या ‘बाबू’ के प्रतिनिधि हैं तो उनकी पत्नी एक घरेलू औरत की प्रतिनिधि मानी जा सकती है। पति-पत्नी दोनों समाज की इकाई के प्रतिनिधि माने जा सकते हैं। दरअसल इस उपन्यास के अधिकतर पात्र अपने वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में ही आते हैं। माँ बस माँ है। वे किसी की भी माँ हो सकती हैं। बड़े भाई, भाभी, बड़े बाबू, गौराहा बाबू, देवांगन बाबू, महंगू, साहब, साहब की पत्नी, डॉक्टर और उसकी पत्नी, खोमचेवाला, माली, चौकीदार आदि सभी अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व ही करते हैं। नाग बोडस के अनुसार “उपन्यास के लगभग सभी चरित्र सामान्य होकर भी कहीं-कहीं सनकी लगते हैं।” (नौकर की कमीज) विनोद कुमार शुक्ल की खूबी है कि इन चरित्रों की ‘सनक’ भी पाठक के सामने बहुत सहजता से आती है।
5. नौकर की कमीज का अर्थ
विनोद कुमार शुक्ल के अनुसार उनका “उपन्यास लिखना नौकर की कमीज लिखने से शुरू हुआ।” जिन दिनों उन्होंने उपन्यास लिखना शुरू किया उन्हीं दिनों वे अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए टाइपिंग के साथ रेडियो सुधारना सीखने की कोशिश भी कर रहे थे। नौकर की कमीज में भी सन्तू बाबू का मित्र सम्पत रेडियो सुधारना सीखता है ताकि उसकी आर्थिक स्थिति सुधर सके। सन्तू बाबू की भी इच्छा है कि वह रेडियो सुधारना सीखकर अपनी आर्थिक हालत बेहतर कर सकें। विनोद जी कहते हैं, “नौकर की कमीज के मुख्य पात्र सन्तू बाबू की कथा मेरी आत्मकथा के करीब होने लगी थी।” करीब जरूर होने लगी थी पर यह विनोद जी की आत्मकथा नहीं है। विनोद जी उपन्यास के पात्रों से अपनी करीबी के खतरे को समझ रहे थे। उन्हें पता था कि वे आत्मकथा या आत्मकथात्मक उपन्यास नहीं लिख रहे हैं। यह उपन्यास उनकी आत्मकथा नहीं है। भले ही इसकी कथा में विनोद जी के जीवन की कुछ कथा आ गई है।
हिन्दी आलोचक डॉ नामवर सिंह का मानना है – “आत्मकथा लिखने के कई तरीके होते हैं- कुछ लोग दूसरों के बहाने अपने बारे में लिखते हैं, कुछ लोग केवल अपने बारे में लिखते हैं। कुछ लोग अपने साथ-साथ दूसरों की खबर लेते चलते हैं और कुछ लोग अपने बहाने दूसरों के विषय में बात करना पसन्द करते हैं।” विनोद कुमार शुक्ल ने नौकर की कमीज में एक साथ अपनी और अपने जैसों की कहानी कहने की कोशिश की है। या कहें कि अपने जैसों की कहानी कहते-कहते खुद उनके जीवन की कुछ झांकी भी उपन्यास में आ गई है। इस क्रम में अनायास ही उनके और उनके जैसे लोगों के परिवेश की कथा भी शामिल हो गई है।
विनोद कुमार शुक्ल व्यवस्था और उसके शोषण के असली रूप को हमारे सामने लाना चाहते हैं। इसके लिए वे समाज की इकाई परिवार को चुनते हैं। परिवार में भी परिवार की इकाई पति-पत्नी को चुनते हैं।
व्यवस्था के रूप में वे जिस इकाई को चुनते हैं वह एक सरकारी दफ्तर है। सन्तू बाबू इसी दफ्तर में सरकारी नौकर लगे हैं। नौकर यानी क्लर्क या बाबू। सन्तू बाबू को लम्बी बेकारी के बाद यह नौकरी मिली है। इसलिए वह पूरी ईमानदारी और मेहनत से नौकरी करना चाहते हैं। छुट्टी का दिन उन्हें बेचैन करता है। सन्तू बाबू की बेचैनी का आलम यह है कि वे छुट्टी के दिन भी घूम-फिरकर दफ्तर पहुंच जाते हैं। ताकि दफ्तर में अपनी नौकरी होने का एहसास कर सकें। हालांकि छुट्टी के दिन दफ्तर में ताला लगा होता है। इसलिए वे कोई काम नहीं कर पाते, पर शीशे की खिड़की को खटखटाकर, आवाज करके सरकारी फाइलों पर बैठे चूहे को भगाने की कोशिश करते हैं। इसे वे दफ्तर का काम ही मानते हैं। इस तरह सन्तू बाबू को नौकरी में होने का सुख है। पर ईमानदार क्लर्क होने के कारण उन्हें दफ्तर में अच्छा ‘बाबू’ नहीं समझा जाता। अपनी ईमानदारी के कारण सन्तू बाबू दफ्तरी व्यवस्था में खुद को फिट नहीं पाते। कहा यह भी जा सकता है कि व्यवस्था में वह खुद को फिट नहीं कर पाते। सन्तू बाबू के लिए दफ्तर की व्यवस्था एक ऐसी कमीज है जिसे वह पहनना नहीं चाहते। यह कमीज उस नौकर की कमीज के समान है जिसे ‘साहब’ ने अपने नौकर के लिए पहले से बनवा कर रखा है।
दरअसल “नौकर की कमीज एक सांचा था, जिससे आदर्श नौकरों की पहचान होती” थी। (नौकर की कमीज) व्यवस्था भी एक ऐसी ही कमीज है जो पहले से बनी-बनाई है। सन्तू बाबू व्यवस्था की कमीज को पहनना नहीं चाहते। वे अकेले व्यवस्था तोड़ने की क्षमता भी नहीं रखते। व्यवस्था बड़ी और पुरानी है। मजबूत और जटिल भी। इसे तोड़ने या तोड़ने की कोशिश के लिए एक सन्तू बाबू नहीं, कई सन्तू बाबू की जरूरत होगी। सन्तू बाबू इस बात को खूब समझते हैं। वे जानते हैं कि व्यवस्था का समुद्र बहुत बड़ा है। इससे अकेले लड़ पाना कठिन है। इसलिए उनकी इच्छा है कि “दौड़ते हुए समुद्र को/इतना छोटा कर देना है/कि उसके चारों तरफ/चौकस नजर रहे/दोस्तो की संख्या बढ़ाकर/दुश्मन को घेर लेना है।” (विनोद कुमार शुक्ल)
6. नौकर की कमीज में व्यक्त दाम्पत्य जीवन
सन्तू बाबू दोस्त बनाने की शुरुआत घर से ही करते हैं। सन्तू बाबू की सबसे अच्छी दोस्त उनकी पत्नी है। सन्तू बाबू का अपनी पत्नी से यह कहना कि ‘जो कुछ भी मेरे पास सुख है, वह तुम्हारे से है’ काफी मायने रखता है। पत्नी सिर्फ प्रेम में ही सहभागी नहीं है, संघर्ष में साथी भी है। विनोद जी लिखते हैं कि “संघर्ष का दायरा बहुत छोटा था। प्रहार दूर-दूर से और धीरे-धीरे होते थे इसलिए चोट बहुत जोर की नहीं लगती थी। शोषण इतने मामूली तरीके से असर डालता था कि विद्रोह करने की किसी की इच्छा नहीं होती थी। या विद्रोह बहुत मामूली किस्म का होता था।” (नौकर की कमीज) यह व्यवस्था का प्रहार था। व्यवस्था ने अपने शोषण रूपी जहर को समाज रूपी शरीर की धमनियों में घोल दिया है। जिस तरह दूषित हवा और पानी जीव को धीरे-धीरे मारते हैं उसी तरह भ्रष्ट व्यवस्था भी मनुष्य और उसकी मुष्यता को धीरे-धीरे मारती है। सन्तू बाबू और उनकी पत्नी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं। वे इस व्यवस्था के प्रति विद्रोह न कर पाते हुए भी इसका विरोध जरूर करते हैं। इस काम में पत्नी का साथ होने से सन्तू बाबू को एहसास होता है कि गरीबी में भी सुख है जबकि दरिद्रता दुख है।
गरीबी के दुख को हिन्दी में बहुत से रचनाकारों ने दिखाया है, पर गरीबी में छिपे सुख को दिखाने का काम सम्भवतः पहली बार विनोद कुमार शुक्ल ने ही किया है। यहाँ अभावों के बीच भी भावमय जीवन जीने की ललक है। शायद इसीलिए सन्तू बाबू को कई बार यह लगता है कि
“बस अन्धेरा रहता है रातभर
परंतु एक वक्त होता है तब
पत्नी से यह कहने का
-तुम बहुत थक गई
-तुम्हारी परवाह नहीं कर पाता।” (विनोद कुमार शुक्ल)
7. नौकर की कमीज में व्यक्त समाज
सन्तू बाबू व्यवस्था का विरोध करने वाले दोस्तो में दफ्तर के लोगों को भी शामिल कर लेना चाहते हैं। यह आसान काम नहीं है। कारण दफ्तर के बड़े बाबू, गौराहा बाबू और देवांगन बाबू सभी ने व्यवस्था से असंतुष्ट होते हुए भी इसे जस का तस स्वीकार कर लिया है। सन्तू बाबू उनके मन में दबी विरोध की तेल से भीगी बाती को उकसाकर उसे चिंगारी दिखाने का काम करते हैं। यह काम धीरे-धीरे होता है। इसके लिए सन्तू बाबू को उनका विश्वास जीतना पड़ता है। साहब का विश्वास जीतकर व्यवस्था के सामने झुकने की अपेक्षा सहकर्मियों का विश्वास जीतकर व्यवस्था का विरोध करना सन्तू बाबू को ज्यादा ठीक लगता है। जीवन, समाज और संस्थान को बेहतर बनाने का यही सही तरीका है। जिस तरह पर्यावरण से प्रदूषण को एक झटके में नहीं हटाया जा सकता उसी तरह व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टता को एक दिन में खत्म नहीं किया जा सकता। इसके लिए लम्बी लड़ाई और धैर्य की जरूरत है। यह धैर्य इसलिए जरूरी है कि व्यवस्था की भ्रष्टता लोगों का स्वभाव बन चुकी है। किसी का स्वभाव बदलने के लिए वक्त और धैर्य की जरूरत होती है।
सन्तू बाबू को यह अच्छी तरह पता है कि “एकबारगी कोई गर्दन काटने के लिए आए तो जान बचाने के लिए जी-जान से लड़ाई होती है। इसलिए एकदम से गर्दन काटने कोई नहीं आता। पीढ़ियों से गर्दन धीरे-धीरे कटती है। इसलिए खास तकलीफ नहीं होती और गरीबी पैदाइशी होती है।” (नौकर की कमीज) पैदाइशी गरीबी के लिए कोई व्यवस्था को दोष कैसे दे सकता है! फलतः लोग मान बैठते हैं कि यह गरीबी भगवान की दी हुई है। यह जन्मजात गरीबी है।
यह व्यवस्था चन्द लोगों की सुविधाओं के लिए है। अतः इस व्यवस्था की डोर भी इन्हीं चन्द लोगों के हाथों में है। इन चन्द लोगों में सरकारी दफ्तरों के बड़े साहब, बड़े वकील, बड़े डॉक्टर, बड़े सेठ और बड़े नेता शामिल हैं। ऐसे अधिकतर लोग बड़ी उदारता से दान-धर्म का काम करने का ढोंग भी करते हैं कि हम तो गरीबी मिटाना चाहते हैं पर वह मिटती ही नहीं तो हम क्या करें!
दूसरी तरफ अधिकतर शोषित लोग उसी सोच के हैं जिस सोच का प्रेमचन्द के गोदान का होरी महतो है जो कहता है – ‘अगर पैर के नीचे गर्दन दबी हो तो गर्दन सहलाने में ही भलाई है।’ इसलिए नौकर की कमीज उपन्यास में दफ्तर में काम करने की जगह साहब को खुश करने की होड़ ज्यादा है। साहब को नौकर की तलाश है। पर साहब नौकर नहीं ढूंढ़ते बल्कि “दफ्तर के बाबूओं के बीच साहब के नौकर को ढूंढ़ने की होड़ थी।” (नौकर की कमीज)। इस होड़ में सन्तू बाबू शामिल नहीं हैं। जब तक नौकर नहीं मिल जाता, तब तक बाबू लोग ही नौकर बन जाना चाहते हैं। साहब को खुश जो रखना है। यह कैसी विडम्बना है कि जिस व्यवस्था ने हमें जकड़ रखा है हम उसी के रखवालों से अपनी पीठ थपथपवाना चाहते हैं।
व्यवस्था की डोर जिन लोगों के हाथों में है उनमें से एक बड़े साहब का अपनी पत्नी से संवाद का अंश है – “मैं अपनी कमीज नौकर को कभी देना नहीं चाहूंगा। जो मैं पहनता हूं उसे नौकर पहने, यह मुझे पसन्द नहीं है। मैं घर का बचा-खुचा खाना भी नौकरों को देने का हिमायती नहीं हूं। जो स्वाद हमें मालूम है, उनको कभी मालूम नहीं होना चाहिए। अगर यह हुआ तो उनमें असंतोष फैलेगा।” (नौकर की कमीज) भ्रष्ट व्यवस्था के रखवाले गरीबों को सुख और भूखों को अच्छे भोजन की आदत नहीं लगने देना चाहते! हर सम्भव उन्हें इस स्वाद से वंचित रखना चाहते हैं। उन्हें बस इतना ही देते हैं कि वे साहब जैसे लोगों की गुलामी कर सकें। गुलामी करने के लिए जीवित रहें। ऐसे साहबों ने गरीबों को “अपने बस में करने और अपना खरीदा गुलाम बनाने के तरीके बदल” लिए हैं। (नौकर की कमीज) स्वतन्त्र देश के लोकतन्त्र में जोर-जबरदस्ती नहीं चल सकती। अब जरूरतमंदों को ‘उपकार’ और ‘अहसान’ से गुलाम बनाया जाता है। विडम्बना यह कि जीवन भर गुलामी करके भी अहसान करनेवाले का अहसान नहीं उतारा जा सकता। क्योंकि “काम करके अहसान उतारा जाता तो (अहसान करनेवाले) लोग कुली और मजदूरों तक के एहसानमन्द हो गए होते।” ऐसा होता नहीं है। ऐसा हो सकने की कोई उम्मीद भी नहीं है।
विनोद कुमार शुक्ल कुछ पात्रों को सन्तू बाबू के आस-पास लाते हैं ताकि उनकी सामाजिकता को उभारा जा सके। माँ, भाई-भाभी, मित्र के अलावा कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनसे सन्तू बाबू का सीधे कुछ लेना-देना नहीं है। परिवार की परवाह तो अधिकतर लोग करते हैं पर समाज के ऐसे लोगों की परवाह, जिनसे सीधा परिचय न हो, सन्तू बाबू करते हैं। राह चलते एक मजदूर का अभाव भी उनकी चिन्ता का विषय है। इस मजदूर को भोजन मिल सके, इसलिए वे दुकानदार गुप्ता के मना करने के बावजूद मजदूरों को बता देते हैं कि गुप्ता की दुकान में मिट्टी का तेल मिल रहा है।
8. निष्कर्ष
नौकर की कमीज उपन्यास में विनोद कुमार शुक्ल ने सरकारी दफ्तर की कथा प्रमुखता से कहने के साथ घर, परिवार और समाज की कथा भी कहने की कोशिश की है। गरीब किसानों की कथा को ही लें। विनोद कुमार शुक्ल इनकी गरीबी के कारणों और शोषण के तरीकों को बड़ी खूबी से पाठकों के सामने पेश करते हैं। उपन्यास में सन्तू बाबू एक जगह कहते हैं कि छिटका धान या तो छोटा किसान बोता है या लापरवाह किसान। क्योंकि “कुएँ-मोटरपम्प इत्यादि बड़े किसान के पास हैं। नहर के किनारे की जमीन भी उनकी ही होगी। रोपा बोने का खतरा छोटा किसान नहीं उठाता। अगर उनकी फसल खराब हो गई तो ये लोग बड़े किसान के यहाँ मजदूर हो जाते हैं और बहुत सस्ते में काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं। तब बड़े किसान की धान की लागत सस्ती मजदूरी से कम हो जाती है। साथ ही साथ बाजार में खराब फसल के कारण धान की कीमत बढ़ जाती है।” (नौकर की कमीज) अतएव बड़े किसान को अधिक मुनाफा मिलता है और चावल दलालों-व्यापारियों के बीच से गुजरता कई गुना महंगा हो जाता है। विडम्बना देखिए कि “ज्यादातर खरीददार यानी वही छिटका बोनेवाले छोटे किसान और छोटे लोग” होते हैं। (नौकर की कमीज) अजीब बात है कि प्रेमचन्द के गोदान में किसान के शोषण की जो व्यवस्था थी वह आज भी जस की तस बनी हुई है। गोदान में किसान के शोषण को हम अंग्रेजों का शोषण कह कर मन को तसल्ली देते हैं पर आजाद भारत में किसान के शोषण को कैसे देखा जाए?
नौकर की कमीज में सेठों और साहूकारों के दोहरे जीवन की कथा, खोमचेवाले की कथा जैसी कई उप-कथाएं भी मौजूद हैं। इस दृष्टि से इस उपन्यास का कथा-फलक बड़ा है। विनोद जी का यह उपन्यास भी बड़ा है। अपने आकार में नहीं, अपने स्वभाव में। इस उपन्यास का महत्व बढ़ जाता है जब नामवर सिंह इसे हिन्दी के पांच कालजयी उपन्यासों की श्रेणी में रखने का सुझाव देते हैं।