8 गोदान की समस्याएँ

प्रो.रामबक्ष जाट

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. गोदान : किसान की वेदना की दास्तान
  4. गाय रखने की महत्त्वाकांक्षा
  5. साम्राज्यवादी ताकतों का पर्दाफाश
  6. होरी और उसका परिवार
  7. धर्मभीरुता
  8. होरी की गाय का मरना
  9. शोषण की प्रक्रिया
  10. विद्रोह चेतना
  • ग्रामेतर कथा
  1. निष्कर्ष

 

1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

  • गोदान की विषय-वस्तु और केन्द्रीय कथ्य से परिचित हो सकेंगे।
  • किसानों के शोषण और शोषण-प्रक्रिया से परिचित हो सकेंगे।
  • किसान जीवन की वास्तविकता की पहचान करते हुए इस कृति का मूल्यांकन कर सकेंगे।

 

2. प्रस्तावना

 

गोदान ग्राम-जीवन और कृषि-संस्कृति को चित्रित करने वाली युगान्तरकारी और अभूतपूर्व रचना है। इस उपन्यास में प्रेमचन्द ने बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों के ग्रामीण-जीवन का चित्र प्रस्तुत किया है। इस उपन्यास का मुख्य उद्देश्य किसानों की बदहाली और दुर्दशा का चित्रण करना है। इस उपन्यास की यह विशेषता है कि इसमें प्रेमचन्द ने किसानों की निर्धनता और परवशता का मात्र बयान नहीं किया है, बल्कि उनके कारणों का भी विश्‍लेषण किया है। इसके अलावा इसमें कृषि-संस्कृति का भी तल्ख और मार्मिक चित्रण हुआ है। गोदान  भारतीय किसान के जीवन की त्रासद कथा है, जिसमें वह जन्म से लेकर मृत्यु तक शोषण की चक्‍की में पिसता रहता है और अन्ततः उसकी जीवन-लीला समाप्‍त हो जाती है।

 

3.गोदान : किसान की वेदना की दास्तान

 

गोदान भारतीय किसानों की वेदना की अभिव्यक्ति है। प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में न केवल सम्पूर्ण भारतवर्ष के किसानों के दुख-दर्द का चित्रण किया है, बल्कि उत्तर भारत में जमींदारी प्रथा के भीतर रहने वाले किसानों का चित्रण किया है। परन्तु यह भारतीय किसानों के दर्द को व्यक्त करने वाला एक सम्पूर्ण उपन्यास है। इसके माध्यम से प्रेमचन्द ने ब्रिटिश साम्राज्यवादी व्यवस्था की भी आलोचना प्रस्तुत की है। भारत पर अपना शासन स्थापित करने के बाद अंग्रेजों ने लगान व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन किए और लगान के रूप में उपज का हिस्सा लेने की भारतीय परम्परा को समाप्‍त कर नकद रूप में लगान लेने की व्यवस्था का सूत्रपात किया। फसल हो या न हो, किसानों को तयशुदा लगान अदा करना ही पड़ता था और इस व्यवस्था के कारण किसान ऋण के बोझ तले दबते जा रहे थे। परिणामस्वरूप लगातार गरीब होना उनकी नियति में शामिल हो गया।

 

प्रेमचन्द ने मुख्य रूप से उन किसानों की कथा कही है, जिनके पास थोड़ी-सी जमीन है और जिस पर वह खुद खेती करता है। इस एवज में वह जमीन्दार को लगान देता है। उपन्यास का केन्द्रीय पात्र होरी इसी तरह का किसान है, जिसके पास पाँच बीघा जमीन है। होरी जीवन पर्यंत अपनी इस जमीन को बचाए रखने के लिए संघर्ष करता है और अन्ततः उसकी हार होती है। उसके हाथों से उसकी जमीन छिन जाती है और अन्ततः एक मजदूर के रूप में उसकी मौत होती है। होरी की स्थिति का वर्णन करते हुए प्रेमचन्द लिखते हैं – ‘‘हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इन तीन बीघे के किले में बन्द कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहे, बदनाम हुआ, मजदूरी की; पर किले को हाथ से न जाने दिया; ‘मगर अब वो किला भी हाथ से निकला जाता था’।… कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी। जमीन उसके हाथ से निकल जाएगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजदूरी करने में कटेंगे। भगवान की इच्छा।’’ गोदान में प्रेमचन्द ने होरी के रूप में एक ऐसे किसान को खड़ा किया है, जो अपनी अस्तित्व-रक्षा के लिए लगातार जद्दोजहद करता है। अनेक कष्टों के बावजूद होरी की किसान बने रहने की हठ, इस उपन्यास को एक त्रासदी में बदल देता है।

 

किसान के इस अस्तित्व-रक्षा के संघर्ष को वाणी देने के साथ-साथ उससे जुड़ी गरीबी, दुख, दैन्य, पीड़ा, अन्याय और अत्याचार का मार्मिक चित्रण इस उपन्यास में हुआ है। इस कारण पूरा उपन्यास करुण प्रसंगों का ऐतिहासिक दस्तावेज बन गया है।

 

4. गाय रखने की महत्त्वाकांक्षा

 

होरी अत्यन्त साधारण व्यक्ति और नेक इनसान है। उसकी नेक-नियति को प्रेमचन्द ने ऐसा वैशिष्टय प्रदान कर दिया है कि हम उसके दुर्भाग्य से रूबरू होते हुए भयंकर त्रासदी और गहरी करुणा का अनुभव करते हैं। होरी के चरित्र में स्नेह, दया, परोपकार, ममता, शील, करुणा, सहिष्णुता, सहानुभूति आदि कोमल भावनाएँ भरपूर मात्रा में विद्यमान हैं। ऐसा भी नहीं है कि होरी में मानवीय दुर्बलताएँ नहीं हैं। परन्तु ये मानवीय दुर्बलताएँ होरी को एक मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करने में सक्षम हुई हैं और उसका चरित्र वास्तविक बन सका है। होरी के दुर्भाग्य का कारण खुद होरी नहीं है, बल्कि वर्तमान समाज व्यवस्था है, जिसमें शोषक समृद्ध होते हैं और शोषित सभी सुविधाओं से वंचित। परन्तु होरी का जीवन दुर्भाग्य का पर्याय इसलिए बन जाता है कि उसके मन में एक महत्वाकांक्षा और लालसा विद्यमान है। और, वह है गाय की लालसा। इस लालसा के कारण ही उस पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ता है, जिनसे लड़ते-लड़ते वह अन्ततः मृत्यु को प्राप्‍त होता है। यह भी कह सकते हैं कि गोदान की कथा के केन्द्र में गाय की महत्त्वकांक्षा एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। पूरे उपन्यास में किसी न किसी रूप में गाय की लालसा मौजूद है। उपन्यास के आरम्भ में ही प्रेमचन्द लिखते हैं – ‘‘हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्‍न, सबसे बड़ी साध थी।’’ वस्तुतः होरी का पूरा जीवन इसी महत्त्वकांक्षा के इर्द-गिर्द घूमता है और वह शनैःशनैः इस भँवर में फँसता चला जाता है और अन्ततः वह उसी में डूब जाता है। उपन्यास के आरम्भ में गाय की लालसा है और उपन्यास के अन्त में भी। जाते-जाते भी वह धनिया से कहता है – ‘‘अब जाता हूँ। गाय की लालसा मन में ही रह गई।’’ प्रेमचन्द इस मार्मिक स्थिति को व्यंग्य में परिणत कर देते हैं। कथा के अन्त में गोदान का सवाल सामने आता है; यह धार्मिक अन्धविश्‍वास कि गोदान करने पर मरने वाला व्यक्ति सीधे स्वर्ग पहुँचता है। प्रेमचन्द पूरे कृषक समाज, और विस्तार में जाएँ तो भारतीय समाज की आलोचना करते हैं, जिसमें ब्राह्मण दातादीन, मृत्यु के समय भी गोदान की माँग करता है। इस प्रसंग के माध्यम से प्रेमचन्द ने ब्राह्मण-व्यवस्था पर करारा प्रहार किया है, जिसमें ब्राह्मण वर्ग किसानों का शोषण कर बिना कोई श्रम किए हुए सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है और एक किसान अपनी जिन्दगी मौत की तरह जीता है। इस ब्राह्मणवादी परम्परा पर चोट करते हुए धनिया कहती है – ‘‘महाराज, घर में न गाय है, न बछिया, न पैसा। यही पैसे हैं, यही इनका गोदान है।’’ इस प्रकार हम देखते हैं कि एक किसान की गाय पालने की एक छोटी सी आकांक्षा, जो उसकी महत्त्वाकांक्षा में बदल जाती है, को कैसे प्रेमचन्द ने पूरे समाज की आलोचना का एक हथियार बना लिया। गाय रखने की महत्त्वाकांक्षा पूरे कथा की अन्तर्धारा है, जो उसे गति भी देती है, मोड़ भी देती है, सभी प्रकार के चरित्रों को उद्घाटित भी करती है और लेखक की मान्यताओं को भी उजागर करती है। अगर हम कहें तो अतिशयोक्ति न होगी कि होरी-धनिया की यह कहानी न केवल एक किसान की अपूर्ण आकांक्षाओं की दास्तान बन जाती है, बल्कि वह एक सामान्य किसान की मृत्यु को त्रासदी में परिणत कर देती है। वस्तुतः गोदान एक ऐसी विशिष्ट त्रासदी है, जिसमें एक छोटा किसान, अपनी छोटी-सी इच्छा की पूर्ति के लिए संघर्ष करता हुआ, व्यवस्था और परिवेश से जूझता हुआ, अन्ततः मृत्यु को प्राप्‍त होता है। प्रेमचन्द की सफलता इस बात में है कि उन्होंने होरी जैसे मामूली पात्र और गाय प्राप्‍त करने जैसी मामूली इच्छा को संघर्ष और पराजय के त्रासद प्रभाव से भर दिया है।

 

5. साम्राज्यवादी ताकतों का पर्दाफाश

 

प्रेमचन्द ने गोदान के माध्यम से साम्राज्यवादी ताकतों का पर्दाफाश करते हुए विरोध किया है। होरी की कथा के माध्यम से प्रेमचन्द ने यह दिखाया है कि एक छोटा किसान अपने जीने के लिए संघर्ष कर रहा है। लेकिन जमींदारों, महाजनों और सरकारी अमलों के शोषण के फलस्वरूप उनका जीवन दयनीय हो गया है। कथाकार ने होरी और उसके परिवार को ही नहीं, बल्कि बेलारी के सभी गरीब किसानों को जमीन्दार, महाजन और पुलिस के शोषण की चक्‍की में पिसते हुए दिखाया है। फसल हो या न हो जमीन्दार तो लगान वसूलेगा ही। इसके साथ ही साथ समय-समय पर किसी धार्मिक उत्सव के लिए शगुन। किसी बड़े पदाधिकारी की दावत के लिए चन्दा आदि भी किसानों को देना ही है। जमीन छिन न जाए, इस डर से किसान महाजन से कर्ज लेता है और वह जो एक बार कर्ज के दलदल में फिसलता है, उससे आजीवन मुक्त नहीं हो पाता। पुरोहित भी धर्म, ईश्‍वर और परलोक का भय दिखाकर गरीब किसानों का शोषण करता है।

 

6. होरी और उसका परिवार

 

किसानों के इस जीवन का चित्रण करने के लिए प्रेमचन्द ने होरी और उसके परिवार को प्रतिनिधि के रूप में चुना है और इस परिवार की गरीबी का रोमांचकारी वर्णन किया है। गोदान में प्रेमचन्द ने कृषक जीवन की त्रासदी को प्रस्तुत करके ही सन्तोष नहीं कर लिया है, बल्कि उसके कारणों की भी खोज की है और इसकी जड़ वे शक्तिशाली ब्रिटिश राज्य के शोषण और आतंक को मानते हैं। जमींदार तरह-तरह से किसानों का शोषण करते हैं। जमीन्दार किसानों पर बकाया लगान के लिए तब-तब दबाव बनाते हैं, जब किसान सबसे ज्यादा संकट में होते हैं और उन्हें लगता है कि किसान किसी तरह रुपए का इन्तजाम नहीं कर सकता। राय साहब होरी से तब बकाया लगान की माँग करते हैं, जब पहली बरसात होती है और किसान खेत जोतने और बोने के लिए जाने वाले होते हैं। इस अवसर पर लाचारी में किसान महाजन से कर्ज लेता है और उसकी गिरफ्त में फँस जाता है। मंगरू शाह और दुलारी सहुआइन महाजन के रूप में मौजूद है, जो किसानों के शोषण में साझीदार हैं। जमीन्दार और महाजनी प्रथा के दोहरे शोषण से किसान की जिन्दगी इस तरह निचुड़ जाती है कि उनके जीवन में किसी प्रकार का उत्साह और उमंग नहीं बच पाता और उनके जीवन में अन्धकार छा जाता है। प्रेमचन्द लिखते हैं– ‘‘जीवन में न कोई आशा है, न कोई उमंग, जैसे उनके जीवन के सोते सूख गए हों और सारी हरियाली मुरझा गई।’’

 

7. धर्मभीरुता

 

जमीन्दार और महाजन दोनों ही किसानों की धर्मभीरुता का नाजायज फायदा उठाते हैं। यदि कोई आसामी रुपए देने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता है, तो महाजन उसकी धर्मभीरुता का फायदा उठाता है। पण्डित दातादीन किसानों को बार-बार अपने ब्राह्मण होने का धौंस जमाता है और यह बताता है कि ब्राह्मण का पैसा हजम करके कोई चैन नहीं पा सकता। जजमानी प्रथा और ब्राह्मणवाद एक दूसरे से इस तरह जुड़े हैं कि दोनो को अलग करके नहीं देखा जा सकता। दोनो ही किसानों के शोषण में एक दूसरे के मददगार हैं।

 

प्रेमचन्द ने यह दिखाया है कि किसानों की बदहाली में धर्म, बिरादरी आदि का भय भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं। शोषक वर्ग एक दूसरे का पोषण करते हैं और उन्हीं के हाथों में निर्णय की बागडोर भी है। जमींदार, कारीन्दा, महाजन, पुजारी, पटवारी सब अलग-अलग भूमिकाओं में हैं, लेकिन सब मिलकर किसानों को लूटने में लगे हुए हैं। पुजारी धर्म का सहारा लेता है पुलिस डण्डे का, कचहरी और कानून का और उसके अलावा बिरादरी के दबाव और झूठी मर्यादा से भी किसानों की जिन्दगी तबाह होती है।

 

8. होरी की गाय का मरना

 

गोदान में प्रेमचन्द ने दिखाया है कि किस प्रकार सारे शोषक एक साथ इकट्ठे हो जाते हैं। होरी की गाय का मरना उसके लिए मुसीबत बन जाती है। एक तरफ तो गाय के मरने का दुख है दूसरी तरफ शोषकों को जुल्म करने का एक ओर मौका मिल जाता है। हीरा होरी की गाय को जहर खिलाकर मार देता है। राय साहब का कारीन्दा नोखे राम, पण्डित दातादीन, महाजन झिंगुरी सिंह अंग्रेज बहादुर के पटवारी पटेश्‍वरी के साथ-साथ पुलिस भी वहाँ पहुँच जाती है। पण्डित धर्म के दण्ड का जोर दिखाता है। पुलिस हीरा के घर की तलाशी की धमकी देता है। होरी की मर्यादा चेतना जागती है। पंच बिचौलिए बन जाते हैं। सब मिल जुलकर थानेदार के लिए रिश्‍वत की राशि तय करते हैं। झिंगुरी सिंह होरी को तीस रुपए उधार देने की पेशकश करता है। इसमें आधा पुलिस को और आधा पंचों की झोली में चला जाना है। हालाँकि धनिया के पराक्रम से ये लोग सफल नहीं हो पाते, परन्तु इस पूरे षड्यन्त्र को दिखाकर प्रेमचन्द वस्तुतः होरी के रूप में किसान की असहायता को तल्खी से उभारने में सफल हुए हैं।

 

9.शोषण की प्रक्रिया

 

प्रेमचन्द ने गोदान में शोषण की पूरी प्रक्रिया को रूपायित किया है और इसके यथार्थ के आन्तरिक स्वरूप को बखूबी पहचाना और प्रस्तुत किया है। होरी और उसके गाँव की कहानी से स्पष्ट है कि शोषण की इस प्रक्रिया के लिए कोई एक व्यक्ति और संस्था जिम्मेदार नहीं है। बल्कि इसकी जिम्मेदारी शोषण के सम्पूर्ण तन्त्र पर है। होरी और उसके गाँव की कहानी से यह स्पष्ट है कि किसानों की दुर्दशा का कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सहायक, जमीन्दार, महाजन और प्रशासन तन्त्र है और प्रेमचन्द यह दिखाते हैं कि जब तक इस व्यवस्था का अन्त नहीं हो जाता तब तक किसानों की दशा में कोई परिवर्तन सम्भव नहीं है। प्रेमचन्द ने यह भी दिखाया है कि किसान जब तक शिक्षित नहीं हो जाते, पुरानी जर्जर मान्यताओं से मुक्ति नहीं पा जाते, और एकजुट नहीं होते, तब तक इस शोषण व्यवस्था का अन्त नहीं हो सकता। निश्‍च‍ित रूप से प्रेमचन्द किसानों के शोषण की समस्या का समाधान उनकी एकता, अधिकारों के प्रति सजगता और विद्रोह में ढूँढते हैं। परन्तु प्रेमचन्द ने कहीं भी किसानों से विद्रोह नहीं कराया है, क्योंकि वे उस समय के भारतीय किसान से परिचित थे, जो चुपचाप सारे अत्याचार और शोषण सह लेता है। शताब्दियों के शोषण, सामन्ती जीवन दर्शन और धार्मिक मान्यताओं ने किसानों की विद्रोह भावनाओं को बिल्कुल निचोड़ लिया है। होरी उनका ही प्रतिनिधि या मॉडल चरित्र है।

 

इसका यह मतलब नहीं कि किसानों की विद्रोह चेतना की सम्भावना ही समाप्‍त हो गई है। इस सम्भावना के दर्शन होरी की पत्नी धनिया और उनके पुत्र गोबर में परिलक्षित होते हैं। गोबर न केवल शोषण पर आधारित समाज व्यवस्था का कट्टर विरोधी है, बल्कि वह तमाम नैतिक-सामाजिक मूल्य, धार्मिक विश्‍वासों और परम्परागत मान्यताओं को भी नकारता है। जब वह शहर से लौटता है, तो गाँव के बड़े किसानों और पुरोहितों को फटकारकर अपनी विद्रोह भावना का परिचय देता है। वह झिंगुरी सिंह, दातादीन के साथ-साथ जमींदार के कारीन्दे नोखे राम की खबर लेता है। वह अदालत जाने की भी धमकी देता है। वह कहता है – ‘‘अच्छी बात है, आप बेदखली दायर कीजिए। मैं अदालत में तुम से गंगाजली उठाकर रुपए दूँगा, इसी गाँव से एक सौ शहादतें दिलाकर साबित कर दूँगा कि तुम रसीद नहीं देते। सीधे-सादे किसान हैं, कुछ बोलते नहीं, तो तुमने समझ लिया है कि सब काठ के उल्लू हैं।’’ गोबर के इस कथन में एक जाग्रत और विद्रोही किसान की आवाज सुनाई पड़ती है। ध्यातव्य हो कि यह वह समय है जब बिहार में स्वामी सहजानन्द सरस्वती और उत्तर प्रदेश में बाबा रामचन्द्र के नेतृत्व में किसान आन्दोलन तेज हो रहा था। गोबर इसी विद्रोही चेतना का प्रतीक है। गोबर की यही विद्रोही चेतना, उसे किसान से मिल-मजदूर बनाती है और वहाँ भी वह पूँजीवादी शोषण के खिलाफ सक्रिय होता है।

 

10. विद्रोह चेतना

 

यह विद्रोह चेतना धनिया में भी है। वह कहती है – ‘‘हमने जमीन्दार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा, उसकी खुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलाएँ?’’ उसकी हिम्मत और बहादुरी के सामने थानेदार की हेकड़ी भी गुम हो जाती है। जब पंचायत होरी पर झुनिया को बहू बनाने के अपराध पर डाँट लगाती है, तो होरी उसे चुपचाप स्वीकार कर लेता है, परन्तु धनिया इस अन्याय को बर्दाश्त नहीं करती। इस प्रकार गोदान में शोषण चक्र में पिसते छोटे किसानों के दयनीय जीवन का ही नहीं, उससे मुक्ति के लिए उनकी विद्रोही भावना का भी चित्रण हुआ है। हालाँकि प्रेमचन्द ने इस विद्रोह भावना को शोषकों, ब्रिटिश सरकार, जमींदारों और साहूकारों के विरुद्ध किसानों के संघर्ष के रूप में प्रस्तुत नहीं किया है।

 

गोदान में प्रेमचन्द ने तत्कालीन जमीन्दार वर्ग के अन्तर्विरोधों का ही नहीं, उनकी बिगड़ती स्थिति का भी चित्रण किया है। राय साहब जर्जर सामन्ती व्यवस्था के प्रतिनिधि हैं, जो लगातार ढह रही है। राय साहब की कथा द्वारा उस परजीवी वर्ग को स्पष्टता से सामने रखा गया है, जो अंग्रेज राज की खुशामद करते थे और किसानों का शोषण। अंग्रेजों का पूरा शासन इन्हीं जमींदारों के सहारे चलता था, जो किसानों का रक्त चूसकर अंग्रेज राज का कोषागार भरते थे।

 

11. ग्रामेतर कथा

 

कोई शक नहीं कि गोदान का केन्द्रीय कथ्य गाँव की कथा पर अवलम्बित है। परन्तु इस गाँव की कथा के साथ-साथ लगभग समान्तर रूप में एक ग्रामेतर या नगर कथा भी चलती है। मेहता, खन्‍ना, तंखा, मिर्जा, ओंकारनाथ, मालती और गोबिन्दी इस कथा के प्रमुख पात्र हैं। रायसाहब, गोबर और झुनिया भी इस कथा के पात्र बनते हैं। इन पात्रों के जीवन व्यापारों, विचारों तथा पारस्परिक सम्बन्धों के रूप में यह कथा प्रस्तुत की गई है।

 

इस कथा के माध्यम से प्रेमचन्द ने शहरों में उभरते मध्य-वर्ग को अपने नजरिए से देखने का प्रयास किया है। इस कथा में आए पात्र उच्‍च वर्ग, उच्‍च मध्य वर्ग, निम्‍न मध्य वर्ग और निम्‍न वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रतीत होता है कि इस कथा के माध्यम से प्रेमचन्द यह दिखाना चाहते हैं कि सामन्तवाद जहाँ अपने अन्तर्विरोधों के कारण दिनोंदिन जर्जर होता जा रहा है, वहीं पूँजीवाद उसकी जीवनी शक्ति को चूस कर पनप रहा है। सम्भवतः प्रेमचन्द शोषण के दूसरे प्रारूप से भी अपने पाठकों को परिचित कराना चाहते हैं। जमींदार किसानों का शोषण करता है, तो दूसरी ओर पूँजीपति और उसके दलाल जमींदारों, किसानों और मजदूरों सभी का शोषण करते हैं। ये सभी पात्र एक प्रकार के अन्तर्विरोध से ग्रस्त हैं। वस्तुतः यह अन्तर्विरोध पूँजीवादी व्यवस्था का अन्तर्विरोध है, जो इन पात्रों के चरित्र में प्रतिफलित हुआ है। यह ठीक है कि प्रेमचन्द ने गोदान में ग्रामेतर कथा के माध्यम से अपने विचारों और आदर्शों को व्यक्त करने का प्रयास किया है और ग्राम-जीवन और नगर-जीवन का एक समान्तर चित्र भी प्रस्तुत किया है। इसमें कृषकों और मजदूरों के जीवन का तुलनात्मक जीवन सामने आया है और साम्राज्यवादी शोषण का एक व्यापक रूप उभरकर सामने आया है। यह कहने में संकोच का अनुभव नहीं होना चाहिए कि नगर की यह कथा बहुत विश्‍वसनीय और मजबूत नहीं बन पाई है। परन्तु इससे साम्राज्यवादी शक्तियों के उस हथकण्डे का तो पता चलता है, जिसके द्वारा वे औपनिवेशिक भारत को एक बाजार और कच्चे माल का जरिया बनाकर शोषण कर रहे थे। इस दृष्टि से हम गोदान की नगर कथा की प्रासंगिकता अनुभव कर सकते हैं।

 

12. निष्कर्ष

 

प्रेमचन्द ने अपने उपन्यास गोदान  में एक किसान का शोक-गीत लिखा है, जिसमें वह लगातार शोषित हो रहा है। वह असहाय है, दयनीय है और परम्परा का मारा हुआ है। गोदान  भारतीय कृषक जीवन की आँसू भरी कहानी है, विषाद-गीत है। उसके इस दुख भरे जीवन के माध्यम से प्रेमचन्द ने शोषण के मुख्य औजारों और चेहरों को पहचानने में कोई भूल नहीं की है। आज भी आजादी के उन्‍नहत्तर साल बीत जाने के बाद भी, भारत के किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं और उन सभी में होरी की आत्मा मौजूद है।

 

अन्ततः यह कहना लाजिमी है कि होरी और उसके परिवार, उसके गाँव बेलारी के माध्यम से प्रेमचन्द ने जो कथा कही है, वह अपने समय का जीवन्त दस्तावेज तो है ही, प्रासंगिक और सार्वकालिक भी है और इसलिए यह कृति एक क्लासिक के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है।

 

पुस्तकें

  1. प्रेमचन्द और उनका युग, रामविलास शर्मा,  राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  2. प्रेमचन्द घर में, शिवरानी देवी,  आत्माराम एण्ड संस, दिल्ली
  3. प्रेमचन्द :एक कृति व्यक्तित्व, जैनेन्द्र कुमार, पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली
  4. प्रेमचन्द और भारतीय किसान, रामबक्ष,  वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  5. गोदान एक पुनर्विचार,सम्पादक, परमानन्द श्रीवास्तव, अभिव्यक्ति प्रकाशन इलाहबाद
  6. गोदान : नया परिप्रेक्ष्य, गोपाल राय अनुपम प्रकाशन, पटना

 

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