24 कफन
प्रो.रोहिणी अग्रवाल
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- कथासार
- कहानी के पात्र
- कहानी की अन्तर्वस्तु
- निष्कर्ष
1. पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- कफन कहानी का कथासार समझ पाएँगे।
- कहानी के चरित्रों के बारे में समझ पाएँगे।
- कफन कहानी के उद्देश्य को समझ पाएँगे।
2. प्रस्तावना
कफन प्रेमचन्द की ही नहीं समूचे हिन्दी साहित्य की सर्वाधिक चर्चित कहानी है। सन् 1936 में रचित यह कहानी हिन्दी साहित्य की ऐसी पहली रचना है जो अपने केन्द्रीय पात्रों को न औदात्य प्रदान करती है न अतिरिक्त संवेदना। निःसन्देह यह कहानी लेखकीय तटस्थता का उत्कृष्ट उदाहरण है जहाँ लेखकीय हस्तक्षेप और पूर्वाग्रहों को दरकिनार करते हुए पात्रों को उनकी स्वाभाविक किन्तु संश्लिष्ट रंग रेखाओं में रचा गया है। दरअसल यही वह बिन्दु भी है जहाँ इस कहानी का विरोध भी हुआ है और इसे दलित विरोधी रचना कह कर खारिज करने का प्रयास भी किया गया है।
3. कथासार
कफन प्रथम दृष्टिया घीसू,माधव, पिता-पुत्र की संवेदनहीनता और भावनात्मक क्रूरता की कहानी कही जा सकती है। जाड़ों की रात की घनघोर निस्तब्धता में अकेले अपने झोंपड़े में प्रसव वेदना से छटपटाती बुधिया के समानान्तर उसके घर के दोनों पुरुष सदस्य पति एवं ससुर उसके कष्ट से बेपरवाह आग में आलू भून कर खा रहे हैं। कहानी के प्रारम्भ में ही इस हृदयविदारक दृश्य की नियोजना कर प्रेमचन्द मानो पाठक से संवेदनशील ढंग से विचार क्षेत्र में उतरने की माँग करते हैं। उन्हें अपेक्षा है कि पाठक उनकी अन्य कहानियों की तरह यहाँ भावना और कर्त्तव्यपरायणता के बीच आदर्श और यथार्थ की मुठभेड़ के जरिए चरित्र चित्रण के पारम्परिक फार्मूले की उम्मीद न करें बल्कि एक ऐसी क्रूर सच्चाई के साक्षात्कार के लिए प्रस्तुत रहें जो भावनाएँ कर्त्तव्य और तर्क की हर धार काट कर अपने इर्द गिर्द निबिड़तम अन्धकार की ही सृष्टि करती है। ऊपरी तौर पर कहानी अति संक्षिप्त है । बुधिया की दर्दनाक मौत के बाद घीसू- माधव द्वारा कफन के लिए अनुनय-विनय से जमा किए गए पाँच रुपयों को शराब और पूड़ी, कचौड़ी में उड़ा देने की । लेकिन भीतरी तहों में संश्लिष्ट से संश्लिष्टतर होती चलती यह कहानी पात्रों के मनोविज्ञान, अध्ययन से आगे समाज, व्यवस्था के विश्लेषण का आधार बन जाती है।
4. कहानी के पात्र
प्रेमचन्द की विशेषता है कि उन्होंने घटनाओं के अभाव को सुदृढ़ चरित्र चित्रण से भरने की सफल कोशिश की है। आलस्य, निकम्मापन, कामचोरी और झूठ का पुलिन्दा हैं घीसू-माधव जो वस्तुतः दो अलग पात्र हैं ही नहीं एक ही भाव अथवा स्थिति का विस्तार हैं। काम करने से ज्यादा आराम की फिक्र या इस-उस खेत से दाँव लगने पर आलू, मटर, ईख चुरा कर खाने की लत ने उनकी काया के साथ-साथ उनकी आकाशवृत्ति को भी पाला-पोसा है। उनमें न आत्मसम्मान का भाव बचा है न सम्बन्ध को समझने और निभाने की सदाशयता। पेट उनके लिए दुनिया का सबसे बड़ा सच है लेकिन जो लोग उनके पेट का गड्डा भरने में सहायक हैं, उनके प्रति इनके मन में कृतज्ञता या दायित्व का कोई बोध नहीं। कहानीकार नहीं बताते कि घीसू की पत्नी कब और कैसे मरी लेकिन भरपूर श्रमपूर्वक गृहस्थी की गाड़ी खींचने वाली बुधिया प्रसवावस्था में जिस तरह एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर मरी है, उससे स्पष्ट है कि पिता-पुत्र अपने से इतर अन्य किसी के प्राणों और भावनाओं को लेकर चिन्तित नहीं। बेगैरत कह कर लेखक ने ठीक ही अपना आक्रोश उन पर उण्डेला है। एक-दूसरे से ज्यादा हिस्सा खाने की लालसा में गर्म-गर्म आलुओं को जीभ पर रखते और फिर जल्दी-जल्दी निगलने के प्रयास में आँखों से आँसू छलकाते इन पिता-पुत्र का जो दृश्य प्रेमचन्द ने शब्दों के माध्यम से उकेरा है वह किसी कुशल चित्रकार की तूलिका से निकली कालजयी कृति से कम नहीं। अन्तर इतना है कि वे इसे वहीं जड़वत् नहीं करते बल्कि पात्र के भीतर तक उतरते हुए उसमें प्राण प्रतिष्ठा भी कर जाते हैं। दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं- एक बुधिया की कराहों के बीच आलू खाते हुए हठात् माधव थम गया है। इस सवाल ने उसे बेचैन कर दिया है कि यदि कोई बाल-बच्चा हुआ तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल कुछ भी तो नहीं है घर में। यह पिता बनने के नवबोध के साथ विकसित हुई दायित्व भावना है और पत्नी एवं अजन्मे बालक के साथ अनाम ममत्व के अंकुरण का बिन्दु भी। साथ ही बच्चे की परवरिश की चिन्ता और अपनी संसाधनहीनता । स्थिति के अन्तर्विरोध ने उसे थर्रा दिया है। इस भयावह यथार्थ ने उसे यह ज्ञान भी दिया है कि सीमित संसाधनों का ज्यादा हिस्सों में बँटवारा उनकी पेट की ज्वाला को कभी शान्त नहीं कर पाएगा।
दूसरा उदाहरण है- आलू खाने के इसी परिदृश्य के भीतर घीसू का बीस बरस पहले ठाकुर की बारात में दावत उड़ाने का प्रसंग। प्रेमचन्द ने रस ले-ले कर इस दावत में उड़ाए जाने वाले भोज्य पदार्थों का वर्णन किया है । असली घी की पूड़ियाँ, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, चटनी, दही, मिठाई, पान-इलायची मानो यही रस घीसू के जीवन की एकमात्र उपलब्धि हो। यहाँ हठात् एक ही चित्र में पर्यवसित होते पिता पुत्र को लेखक दो फाँकों में विभाजित कर देते हैं। अब तक हाँ में हाँ मिलाने की तरह एक ही दिशा में बढ़ता दोनों का एकालाप प्रश्नोत्तर बन कर एक.दूसरे के सामने आ खड़ा होता है जिसमें संवाद से ज्यादा अपने-अपने स्तर पर तृप्ति और अतृप्ति, उपलब्धि और तृष्णा की भावना बलवती है। घीसू की स्मृति में खाए गए पकवानों का स्वाद और सुगन्ध के साथ-साथ तृप्ति का अलौकिक भाव है। माधव की लार टपकाती जिज्ञासा में सुअवसर जुड़ने पर इन सारे पकवानों को पिता से दूना खा जाने की तृष्णा।
“तुमने बीस एक पूरियाँ खाईं होंगी”
बीस से ज्यादा खाईं थीं।
मैं पचास खा जाता।”
बातों से पेट भरने वाले घीसू-माधव को इस दृश्य में अंकित कर प्रेमचन्द दो प्रयोजन सिद्ध करते हैं। एक इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की ओर संकेत कि भूख अहर्निश जलने वाली ऐसी विकराल भट्ठी है जो अन्न के अभाव में मनुष्य की संवेदनाओं के साथ-साथ उसकी मनुष्यता को भी लील जाती है। भूखा व्यक्ति भूखा रह जाने के कारणों का विश्लेषण नहीं करता। कर पाता तो सम्भवतः भूखा भी न रहता लेकिन भूख के हाथों धीरे-धीरे ऐसे नरपशु में तब्दील होने लगता है जिसके लिए ‘मैं’ ही समूची सृष्टि का पर्याय बन जाता है। उम्र अधिक होने के कारण घीसू ने भूख की विकरालता को माधव की अपेक्षा अधिक झेला है इसलिए माधव की अपेक्षा वह अधिक ढीठ निर्लज्ज और निर्द्वन्द्व हुआ है। वही अभिनय कर-करके कफन के लिए रुपए बटोरता है और संशयी माधव को हर स्थिति में शान्त और अविचल रहने की मन्त्रणा देता है। माधव के सामने भावना के दुर्बल क्षणों में कल की चिन्ता और पाप-पुण्य का संस्कार सवाल बन कर आ खड़ा होता है । लेकिन इन सब से निर्लिप्त घीसू क्षण से परे किसी भी वस्तु-सत्य को देख ही नहीं पाता। अनुभव ने उसे बताया है कि जन्म और मृत्यु जैसी भौतिक, सामाजिक अनिवार्यताएँ अपने आप विधि-विधान से सम्पन्न हो जाती हैं। इसलिए वह सिर्फ अपनी भूख पर केन्द्रित है जिसे लेकर समाज को कोई सरोकार नहीं।
दूसरा भूख को मनुष्य की बुनियादी जरूरत साबित कर प्रेमचन्द इस दृश्य की तार्किक परिणति के रूप में कहानी के दूसरे महत्वपूर्ण दृश्य की नियोजना सम्भव कर पाते हैं। दावत की स्मृति ने घीसू-माधव की स्वाद-ग्रन्थियों और अन्तड़ियों की बिलबिलाहट को ही तीव्रतर नहीं किया है बल्कि ऐसे किसी भी अवसर का जुगाड़ करने का कुटिल बोध भी विकसित किया है, क्योंकि वे जानते हैं बीस साल में जमाना बदल गया है। अब कोई क्या खिलाएगा? अब तो सबको किफायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया-कर्म में मत खर्च करो। पूछो गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहाँ रखोगे” इसलिए पाँच रूपए जैसी बड़ी रकम के बावजूद बाजार भर में कफन के लिए सूती, रेशमी किसी भी तरह का कपड़ा न जँचना और किसी अज्ञात प्रेरणा के परिणामस्वरूप साँझ ढलते न ढलते मदिरालय के सामने आ खड़ा होना अस्वाभाविक नहीं। पाँच रुपयों के रूप में मेहरबान हुए इस अनपेक्षित सौभाग्य को वे कैसे छिटक कर चिता की आग में जलने दें उल्लेखनीय है कि नर-पशु सरीखा चित्रित करने के बावजूद प्रेमचन्द उन्हें निरा जानवर नहीं बनाते। उनके भीतर धड़कता मनुष्य उन्हें अपनी करनी पर अपराध-बोध दे रहा है। इसलिए वे एक-दूसरे को नहीं अपने आप को दिलासा देकर दोषमुक्त कर लेना चाहते हैं कि क़फन लगाने से क्या मिलता ? आखिर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता। तथा बड़े आदमियों के पास धन हैं फूँकें। हमारे पास फूँकने को क्या है? इसी प्रयास की अगली कड़ी के रूप में ईश्वर से बुधिया को बैकुण्ठवासी करने का अनुरोध भी है क्योंकि उन्होंने बेशक अपनी जिन्दगी में कोई पुण्य न किया हो बुधिया ने मर कर भी उन्हें भरपेट भोजन करने की तृप्ति दी है। भगवान तुम अन्तर्यामी हो। उसे बैकुण्ठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह उम्र भर न मिला था।
चुरा कर लाए गए गर्मा-गर्म आलू भकोसने का दृश्य जहाँ घीसू-माधव की सामाजिक स्थिति स्पष्ट करता है वहीं मदिरालय में झूम-झूम कर मौज मनाने का दृश्य सामाजिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप आकार लेने वाली अंतःवृत्तियों को उजागर करता है। लेखक ने दोनों को कामचोर बनाया है लेकिन कफनचोर की संज्ञा देते उन्हें संकोच होता है। इसलिए वे घीसू-माधव के साथ मिल कर जर्जर धार्मिक रूढ़ियों को कोसते हैं कि जिसे जीते जी तन ढकने को चिथड़ा भी न मिले उसे मरने पर नया कफन क्यों चाहिए। और फिर उनकी दबी भलमनसाहत को उजागर करने की चेष्टा भी करते हैं कि यही पाँच रुपए पहले मिलते तो कुछ दवा दारु करा लेते। प्रेमचन्द की ताकत यह है कि कथा में कहीं उपस्थित न होते हुए भी वे पाठक के हृदय में इन दोनों अभागों के प्रति सहानुभूति पैदा करते हैं।
5. कहानी की अन्तर्वस्तु
भारतीय सामन्ती समाज की मनोरचना से परिचित पाठक जानता है कि सम्पन्न वर्ग जिस अधिकार से हाशिए की अस्मिताओं का शोषण करता है उतने ही कृपा भाव से खैरात के रूप में कुछ सिक्के उनकी ओर उछाल देता है। यह कृपा दयार्द्र होकर उनकी स्थिति सुधारने की चेतना का परिणाम नहीं, बल्कि अपनी प्रजा को उतना भर देने की सुनियोजित युक्ति है जिससे वे दुस्साध्य श्रम करने के लिए जिन्दा रह सकें। व्यक्तिगत तौर पर अपनी जिन्दगी का सुख न भोग पाएँ। इसलिए पाठक भी घीसू-माधव की तरह अन्तस से निकली गहरी इच्छा की व्यर्थता समझता है क्योंकि जानता है जीवित बुधिया के इलाज के लिए कोई भी धनकुबेर अपनी दानवीरता का प्रदर्शन नहीं करता। साँझ के धुंधलके में जब पिता-पुत्र के पैर मदिरालय की ओर खिंचे चलते हैं तब वह सतही तौर पर भले ही उनकी गैरजिम्मेदारी पर क्षुब्ध होता हो, वह भली भान्ति जानता है कि वे दोनों इस समय भीतर ही भीतर आक्रोश की आग में कैसे झुलस रहे हैं। जिस व्यवस्था ने अपने हितों को चाक-चौबन्द रखने के लिए उनसे उनकी सारी बुनियादी जरूरतें छीन ली है। उसी व्यवस्था से पाँच रुपए पाकर वे अपने को उसके नियमों में क्यों बाँधे? इसलिए आश्चर्य नहीं कि घीसू-माधव उस रकम पर न केवल शाही दावत उड़ाते हैं बल्कि बची हुई पूड़ियों की पत्तल उठा कर भिखारी को दान में भी देते हैं। पूड़ियों ने उनकी भूख मिटाई है और दान देने की क्रिया ने उनके दमित स्वाभिमान को सहलाया है। लेखक कथा में प्रविष्ट होकर देने के गौरव आनन्द और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव करते घीसू माधव की इस गदगद अवस्था का चित्रण करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते। उल्लेखनीय है कि यहाँ देने की क्रिया में अहंकार की टंकार नहीं है बल्कि दूसरे की भूख मिटा कर उसे तृप्ति देने की मानसिक तृप्ति और शान्ति है। इसलिए घीसू-माधव बुधिया को नहीं बल्कि प्रेमचन्द घीसू-माधव को अभयदान दे रहे हैं कि “हाँ बेटा बैकुण्ठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिन्दगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई। वह बैकुण्ठ में न जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मन्दिरों में जल चढ़ते हैं।”
कफन कहानी व्यवस्था की सांस्कृतिक छलनाओं को उधेड़ने में भी कोर-कसर नहीं छोड़ती। कहानी मानो सवाल उठाती है कि किसानों की दुर्बलता, भाग्यवाद और पुनर्जन्म में विश्वास का लाभ उठा कर जिस प्रकार शोषक वर्ग उन्हें लूटता आया है, उसी प्रकार वर्चस्ववादियों के सांस्कृतिक आभिजात्य और पाखण्ड का लाभ उठा कर यदि हाशिए की ये अन्तिम अस्मिताएँ अपनी उदरपूर्ति कर रही हैं, तो सिर्फ उन्हें ही अमानुषिक और क्रूर कह कर गरियाने का क्या औचित्य है ? परलोक में कफनहीन बुधिया की दुर्गति की आशंका के सन्दर्भ में प्रेमचन्द जिस टोन में संवादों की नियोजना करते हैं, वहाँ कफन मिलने का विश्वास ही घीसू-माधव की तथाकथित उच्छृंखलता का कारण बनता है। लेकिन कफन कहानी जो सतह पर है, उसे देखने से इंकार करती है और सिक्के के दूसरे पहलू सरीखे अनुपस्थित सच को सामने लाती है। “तू कैसे जानता है कि उसे कफन न मिलेगा। तू मुझे ऐसा गधा समझता है साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ उसको कफन मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा।” घीसू का यह विश्वास दरअसल सम्पन्न वर्ग के धार्मिक पाखण्ड का ही निदर्शन करता है, जिसके लिए तीर्थस्थानों पर धर्मशालाएँ, मन्दिर आदि बनवाने की तरह मृतकों के दाह-संस्कार की व्यवस्था करना पुण्य लूटने की आसान कवायद है। कहानी मानो इस तथ्य की ओर संकेत करना चाहती है कि धर्माचार मृत्यु को न्यूनतम सम्मान देकर ही सम्पन्न नहीं हो जाता बल्कि इसका वास्तविक लक्ष्य मौत की ओर रेंगते जीवन को सँवार कर पुनः जीने के उल्लास और उत्साह से अभिषिक्त कर देना है। आज जिस तेजी से गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली आबादी का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है उससे कफन कहानी एक गम्भीर चेतावनी के रूप में समाज के सामने आती है।
स्पष्ट है कि घटनाओं की विरलता के बावजूद अन्तिम दृश्य तक आते-आते कहानी इकहरी व सीधी नहीं रहती। यह एक परिवार की त्रासदी नहीं, हमारी समाज-व्यवस्था के आन्तरिक खोखलेपन की कहानी बन जाती है। घीसू-माधव के प्रथम परिचय में जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने के कारण कफन कहानी दलित समाज की भयावह जीवन परिस्थितियों की आख्यायिका लग सकती है। असल में इसे प्रेमचन्द साहित्य में चित्रित किसान की निरन्तर क्षरणशील सामाजिक स्थिति के समानान्तर देखा जाना चाहिए। हिन्दू समाज की शुद्धतावादी सांस्कृतिक संरचना ठाकुर का कुआँ कहानी में जंगी और सद्गति कहानी में दुखी जैसे पात्रों की जिन्दगी में एक अलग तरह की विभीषिका रचती है लेकिन इनसे अलग कफन कहानी में घीसू- माधव की काहिली और तज्जन्य अभावग्रस्तता सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था के शोषण की उस दुर्भेद्य कड़ी की ओर संकेत करती है, जो सवा सेर गेहूँ कहानी के शंकर की तरह पहले किसान को ऋणग्रस्तता की चपेट में लेकर मजदूर बनाती है। फिर कई पीढ़ियों तक उसकी सन्तति को बन्धुआ मजदूर बना कर उनसे जीने का अधिकार छीन लेती है। प्रेमचन्द ने प्रत्यक्षतया घीसू- माधव को पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली ऐसी किसी ऋणग्रस्तता और बन्धुआगिरी के चक्कर में फँसा नहीं दिखाया है लेकिन इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया है कि उनका यह कदम कामचोरीबद्ध अमानुषिक व्यवस्था के सामने घुटने न टेकने का आत्मघाती निर्णय ही है। वे लिखते हैं कि जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से बहुत अच्छी न थी और किसानों के मुकाबले में वे लोग जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना चाहते थे कहीं ज्यादा सम्पन्न थे यहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था और किसानों के विचारशून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मण्डली में जा मिला था। उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम से कम उसे किसानों की सी जी तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते। इस प्रकार जैसे ही शंकर के सामाजिक, आर्थिक उत्पीड़न की अगली कड़ी के रूप में घीसू को देखने का बोध पनपता है वह अपनी तमाम अजगरीवृत्ति और संवेदनहीनता के बावजूद पाठकीय घृणा का पात्र नहीं रहता, बल्कि एक सुलगता सवाल बन जाता है कि मनुष्य से उसकी मनुष्यता छीन कर सम्भ्रान्त बनी रहने वाली इस आदमखोर व्यवस्था के संवर्धन में कहीं हमारी अपनी भूमिका तो नही।
6. निष्कर्ष
कफन कहानी प्रेमचन्द की कहानी-कला का उत्कृष्ट नमूना होते हुए भी कुछ सवाल मन में उठाती है, विशेषकर कहानी की बुनियादी घटना को लेकर कि क्या सच में कोई व्यक्ति इतना संवेदनहीन हो सकता है कि घर की गाड़ी खींचने वाली स्त्री अथवा किसी भी प्राणी की दर्दनाक मौत को यूँ निर्विकार देखता रहे दूसरे भारतीय परिवारों और समाज की जैसी संरचना है उसमें सामुदायिक भावना की प्रबलता है। परिवार में स्त्रियाँ न हों तो अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियाँ हारी, बीमारी या प्रसूति में बिना बुलाए ही मदद को आ जाती हैं। ऐसे में बुधिया का अकेले तड़प-तड़प कर दम तोड़ना नितान्त अविश्वसनीय लगता है। चूँकि कहानी दलित वर्ग की एक जाति विशेष को संबोधित है इसलिए दलित चिन्तक इन दोनों सवालों को आरोपों की तरह लेते हैं और कहानी की वैधता को प्रश्नांकित करते हुए इसे समाज में द्वेष फैलाने की एक युक्ति मानते हैं। तमाम अभिधार्थों से विरत होकर यदि कहानी की अनुगूंजों को ध्यानपूर्वक सुना जाए तो कहानी जाति गोत्र और धर्म की हदबन्दियों से मुक्त होकर समाज के हर उस आखिरी प्राणी की कहानी बन जाती है जिसकी मनुष्यता का आखेट सुनियोजित षड्यन्त्रों के तहत बहुत सोच विचार कर पीढ़ियों के किया जाता रहा है। अपनी आन्तरिक संरचना में यह एक लाश को कफन मुहैया कराने की कहानी भर नहीं है बल्कि इस कटु सत्य की ओर हमारी बेपरवाही का संकेत करती है कि हमारी समाज-व्यवस्था मर कर सड़ान्ध फैला रही है और अपनी खामख्यालियों में जीते हुए हम न उसकी मौत के वस्तु सत्य को स्वीकार कर पा रहे हैं न उसके अन्तिम संस्कार की व्यवस्था कर रहे हैं और न ही उसके स्थान पर किसी बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं। इस प्रकार यह कहानी अपनी परिधि का विस्तार करते हुए किसी एक व्यक्ति की मौत की कहानी नहीं, व्यवस्था की मौत का हैरतनाक अफसाना बन जाती है।
पुस्तकें
- हिन्दी कहानी पहचान और परख, डॉ.इन्द्रनाथ मदान,लिपि प्रकाशन,
- कहानी स्वरुप और संवेदना, राजेन्द्र यादव, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली-02
- प्रेमचन्द और भारतीय किसान, रामबक्ष, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- कलम का सिपाही, अमृतराय, हंस प्रकाशन, इलाहाबाद
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