4 उपन्यास का पठन-पाठन

प्रो.रामबक्ष जाट

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. उपन्यास का उद्देश्य
  4. उपन्यास के अंग
  5. उपन्यास की भूमिका
  6. उपन्यास के मूल कथ्य
  7. उपन्यास की परिणति
  8. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के  अध्ययन  के उपरान्त आप —

  • साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास की प्रकृति को समझ पाएँगे।
  • उपन्यास के लिए आवश्यक सामग्री के बारे में जान पाएँगे।
  • उपन्यास के विभिन्‍न हिस्सों को पहचान पाएँगे।
  • उपन्यास की पाठ-प्रक्रिया का अध्ययन कर पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना

 

उपन्यास के बारे में चर्चा करते समय हमें सबसे पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि उपन्यास भी कविता, कहानी या नाटक की तरह एक साहित्यिक विधा है। आम तौर से हम उपन्यास की साहित्यिकता पर कम ध्यान देते हैं। उपन्यास में सामाजिक जीवन का चित्रण होता है, उसमें समाज की विभिन्‍न समस्याओं की अभिव्यक्ति होती है, यह ठीक है, परन्तु हमारा ध्यान इन समस्याओं तक ही नहीं रहना चाहिए। वह सिर्फ समाजशास्‍त्रीय विश्‍लेषण या ऐतिहासिक विवरण ही प्रदान नहीं करता। आम तौर पर उपन्यास के आलोचक यह भूल जाते हैं कि यह भी साहित्य की विधा है, सामाजिक दस्तावेज मात्र नहीं है।

 

फिर यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उपन्यास, कविता की तरह की विधा नहीं है। साहित्य रचनाकार की आत्माभिव्यक्ति होता है, यह परिभाषा कविता पर लागू हो सकती है, आत्माभिव्यक्ति के लिए कोई उपन्यास नहीं लिखता। उपन्यास लिखने के लिए उपन्यासकार को स्व से इतर एक उद्देश्य की तलाश करनी होती है। हिन्दी में जैसे समाज-सुधार, स्वाधीनता आन्दोलन, साम्प्रदायिक सद्भाव, नारी मुक्ति आदि विषयों पर उपन्यास लिखे गए हैं। लेखक के पास कोई मुद्दा होना चाहिए, जिस पर उपन्यास की रचना सम्भव हो सके। लेखक से इतर किसी उद्देश्य के बिना उपन्यास की रचना सम्भव नहीं है।

 

3. उपन्यास के उद्देश्य

 

उपन्यास में चित्रित उद्देश्य की साहित्यिकता और प्रासंगिकता पर सबसे पहले चर्चा होनी चाहिए। इन दोनों का अन्तः अन्तस्सम्बन्ध बहुत जटिल होता है। सम्भव है कि उपन्यास का कथ्य बहुत प्रासंगिक हो, सामाजिक दृष्टि से बहुत उपयोगी हो, परन्तु आलोचना को इस पर विचार करना होता है कि यह कथ्य साहित्य बन पाया है या नहीं । ऐसा सम्भव है। अनेक उपन्यासकारों पर इस तरह के आरोप लगे हैं। कुँवर नारायण ने यशपाल के झूठा सच  के दूसरे भाग को ‘अखबारों की कतरन’ कहा है। अर्थात् अखबारों की ये जानकारियाँ साहित्यिक रूप ग्रहण नहीं कर पाई। अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, वृन्दावन लाल वर्मा आदि के उपन्यासों में अति विवरणात्मकता पाई जाती है। इस विवरण बोझिलता के कारण इन अंशों में अपठनीयता की शिकायत होती रही है। अनेक पाठकों ने इसे महसूस किया है।

 

फिर उपन्यासकार अपने मूल कथ्य के लिए कई तर्क गढ़ता है। कई बातें कहता है। यह तर्क और उपन्यासकार का मूल मन्तव्य अलग हो सकता है। सम्भव है तर्क जानदार हो, लेकिन  मूल मन्तव्य कमजोर हो। सम्भवतः बात वजनी हो और उसे सिद्ध करने के लिए लेखक के तर्क कमजोर हों। इसे देखने के लिए उपन्यास की मूल संवेदना पर ठहरकर विचार करने की जरूरत होती है। उपन्यास का पठन-पाठन करते हुए इन हिस्सों को अलग-अलग करके देखना चाहिए।

 

इस उद्देश्य के साथ उपन्यासकार के पास मानव समाज के भविष्य का नक्शा भी होना याहिए। आप कैसा समाज चाहते हैं? यह धारणा स्पष्ट होनी चाहिए। जिन लेखकों के पास यह धारणा होती है, वे बेहतर उपन्यास लिखते हैं। प्रेमचन्द, फणीश्‍वर नाथ रेणु के सन्दर्भ में इस को देखा जा सकता है। जिस काल में सम्पूर्ण उपन्यास की रचना अधिक होती है। सम्भवतः स्वाधीनता आन्दोलन के दिनों इसी कारण उपन्यास की इतनी श्री वृद्धि हुई । दलित लेखन और स्‍त्री लेखन का आधार इनके उद्देश्य में निहित है। आजादी के बाद उपन्यास के विकास में थोड़ा ठहराव आया। हालांकि प्रगतिवाद के प्रभाव में कई लेखकों ने उपन्यास लिखा।

 

जब किसी भी कारण से भविष्य का यह नक्शा धुँधला पड़ जाता है, तब उपन्यास में प्रकृतवाद और अनुभववाद का बोल- बाला हो जाता है। ऐसी स्थिति में कुछ उपन्यासकार उपन्यास में समाज के एक हिस्से का अध्ययन करके से उपन्यास का जामा पहना देते हैं। समाज और इतिहास की गहरी जानकारी के बावजूद ऐसा लेखन सफल उपन्यास नहीं बन पाता।

 

इस उद्देश्य से उपन्यास की कथा में प्रवाह आ जाता है। जासूसी उपन्यासों में यह प्रवाह सबसे अधिक होता है। मनोहर श्याम जोशी के कसप  और निर्मल वर्मा के उपन्यास रात का रिपोर्टर में इस प्रवाह को देखा जा सकता है। जिस उपन्यास में प्रवाह नहीं होता, उसे पढ़ने में दिक्कत आती है। कुछ आलोचकों ने विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में इस प्रवाह की कमी को रेखांकित किया है।

 

इसी तरह जिन्दा मुहावरे  (नासिरा शर्मा) का मुख्य प्रश्‍न बहुत मौलिक और अछूता है, परन्तु वह उपन्यास का रूप ग्रहण नहीं कर पाता। चूँकि लेखक जानता ही नहीं कि आगे क्या होगा? तब उपन्यास की कथा में गति नहीं आती। पात्र स्थिर रहते हैं। उनमें परिवर्तन और विकास नहीं होता। कथा के प्रारम्भ में पात्र का जैसा रूप स्थिर कर दिया जाता है, वह वैसा ही बना रहता है। उपन्यास में घटनाएँ घटती हैं, वे भी पुनरावृति की तरह घटती हैं। उन घटनाओं से चरित्र का कोई नया रूप हमारे सामने नहीं आता। सब कुछ पहले से ही देखा-जाना हुआ होता है। कोई उत्साह, उमंग या नवीनता के दर्शन नहीं होते। इनसे उपन्यास का कलेवर बढ़ता है। परन्तु अर्थ के नए आयाम उद्घाटित नहीं होते।

 

उपन्यास का यह उद्देश्य सिर्फ उसकी रचना तक ही सीमित नहीं रहता है। इसमें लेखक की विचारधारा तत्कालीन परिस्थितियाँ, पाठकों की सहभागिता, सम्पूर्ण समाज के चिन्तन की दिशा सब कुछ शामिल हैं। और यह सब उपन्यास में चित्रित किया ही जाए, यह भी आवश्यक नहीं है। इस सबकी समझ लेखक के पास होनी चाहिए। यह तो उपन्यास की पूर्व शर्तें हैं। उपन्यास के भीतर तो वही आएगा, जिसकी माँग उपन्यास की रचना करती हैं! उन सब का तर्क अलग है।

 

4. उपन्यास के अंग

 

उपन्यास पढ़ते समय हम उसे अलग-अलग हिस्सों में कर लेते हैं। उपन्यास शास्‍त्र के आलोचकों ने इन्हें उपन्यास के तत्त्व कहकर विवेचित-विश्‍लेषित किया है। मोटे तौर पर प्रत्येक उपन्यास के तीन हिस्से होते हैं। हालाँकि ये तीनों हिस्से अलग-अलग दिखाई नहीं देते। आपस में ये इतने घुले-मिले होते हैं और इस कारण सरसरी तौर पर देखने में हमें ये दिखाई भी नहीं देते। और यदि ये अलग-अलग दिखाई दे गए तो यह उपन्यास का दोष कहा जाएगा। इन्हें सुगठित रूप में ही दिखना चाहिए। अध्ययन की सुविधा के लिए हम इन्हें अलग कर लेते हैं। इन हिस्सों में रचना के बाहर के हिस्से शामिल नहीं हैं, जो उपन्यास की सम्पूर्ण संरचना को निर्णायक रूप से प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए लेखक को अनुभव समृद्ध होना चाहिए। उसे अपने समय और समाज की गहरी समझ होनी चाहिए। उसे समाज की गति का अहसास होना चाहिए। ऐसी बहुत सी बातें होती हैं, जो उपन्यासकार को आनी चाहिए। जब हम उपन्यास के भीतर की यात्रा करते हैं, तो आमतौर से उसके तीन अंग हमें दिखाई देते हैं—

  1. उपन्यास की भूमिका
  2. 2. उपन्यास का मूल कथ्य
  3. उपसंहार या उपन्यास की परिणति

इन तीनों की सापेक्ष स्वायत्तता होती है। किस लेखक ने किस हिस्से को ज्यादा महत्व दिया है? कहाँ वह सफल या असफल हुआ है? इसको लेकर अलग अलग सिद्धान्त और मान्यताएँ हैं। उन्हें छोड़कर पहले इन हिस्सों को जानने की कोशिश करते हैं।

 

5. उपन्यास की भूमिका

 

 जब हम कोई बात करते हैं या कुछ कहना चाहते हैं, तब सबसे पहले उसकी भूमिका बोलते हैं । कई बार यह भूमिका लम्बी और उबाऊ होती है और कई बार संक्षिप्‍त और सारगर्भित। इस भूमिका में लेखक अपने पात्रों से, कथा से, उपन्यास के मूल कथ्य से, अपनी चिन्ताओं और प्राथमिकताओं से पाठक को अवगत करा देता है। इसी के द्वारा वह पाठक को उसके बुनियादी संसार से अलग करके उपन्यास की दुनिया में शामिल करता है। और जब उसे लगता है कि पाठक अब उसकी पकड़ में आ गया है, तब वह असल उपन्यास की कथा को आगे बढ़ाता है।

 

इस भूमिका प्रकरण में वह सामान्यीकरण करता है, विचारवान वाक्य लिखता है, सूत्र अभिव्यक्त करता है, ताकि पाठक से लेखक का तादात्म्य हो सके। अपने पात्रों से परिचित कराते समय वह उनके बारे में अन्तिम राय दे सकता है। भूमिका में ऐसी बातें अखरतीं नहीं। भूमिका खत्म हो जाने के बाद पाठकों को बोझिल विवरण और निष्कर्षों की प्राणहीन सूक्तियाँ नहीं चाहिए। तब कुछ अलग चीजें मिलनी चाहिए। तब पाठक  कुछ तनाव, द्वन्द्व या नाटक चाहते हैं। तब पाठक  कुछ ऐसा चाहते हैं, जैसा वे खुद नहीं सोच पाते थे। या भूमिका-प्रकरण में लेखक स्वयं नहीं कह पाया था। ऐसा  नहीं मिलता, तो पाठकों को लगने लगता है कि यह उपन्यास तो दरअसल भूमिका में ही खत्म हो गया। असल बात तो रचना में आई ही नहीं। या असल बात में वह ‘बात’ ही नहीं थी। या लेखक को आगे का पता ही नहीं। और तब पाठक रचना से प्यासा ही रह जाता है। असन्तुष्ट ही रह जाता है।

 

वीरेन्द्र जैन के डूब उपन्यास को इस कोटि का उपन्यास कह सकते हैं। हिन्दी में कुछ ऐसे उपन्यास भी लिखे गए हैं, जो बहुत चर्चित हुए, उन्हें बहुत प्रशंसा भी मिली , लेकिन उनका सौन्दर्य भूमिका का सौन्दर्य है। मूल कथा में उस सौन्दर्य  का निर्वाह नहीं हो पाया है। उदाहरण के लिए सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास मुझे चाँद चाहिए  की भूमिका में सिलबिल नामक कसबाई लड़की है, जो आगे चलकर वर्षा वशिष्ठ बन जाती है। सिलबिल से वर्षा वशिष्ठ के रूप में रूपान्तरण इस उपन्यास का ‘मार्मिक प्रसंग’ है और यही इस उपन्यास की भूमिका है।

 

संस्कृतज्ञ पिता की सन्तान, शाहजहाँपुर वासिनी सिलबिल उर्फ वर्षा वशिष्ठ आधुनिक रंगमंच की दुनिया में आती है। मदिरा की पहली घूँट लेती है, पहला-पहला चुम्बन स्वीकार करती है और फिर दिल्ली की नाट्य मण्डली में आकर किसी पुरुष के सहवास का आनन्द उठाती है। इस प्रक्रिया में  मानसिक संकट, संस्कार और आकांक्षा की कितनी मार्मिक लड़ाइयाँ हुई होंगी?  उनमें नायिका एक कदम आगे और सौ कदम पीछे भागी होगी? कितना अपने आपको धिक्‍कारा होगा? इस भूमिका में इसे देखना चाहते हैं, परन्तु सुरेन्द्र वर्मा ने इस पूरे प्रकरण को चलताऊ विवरण देकर निपटा दिया। इस सारी प्रक्रिया की जटिलता को यदि चित्रित कर पाते, संस्कार और आकांक्षा के इस खेल की करुण-मनोहर झाँकी प्रस्तुत करते तो अद्भुत कथा-प्रकरण की रचना हो जाती । और तब भूमिका की इस प्रसव-पीड़ा से सिलबिल का जन्म वर्षा वशिष्ठ के रूप में होता, जो इस उपन्यास की नायिका होती, परन्तु ऐसा नहीं हुआ और इसी कारण  यह उपन्यास सामान्य कोटि का बनकर रह गया।

 

इसी तरह 305 पृष्ठों के उपन्यास कसप  में मनोहर श्याम जोशी 253 वें पृष्ठों पर आकर यह घोषणा करते हैं कि इस उपन्यास को समाप्‍त कर देने का यह सबसे उपयुक्त स्थल है।

 

इस उपन्यास की नायिका ‘बेबी’ है। जो बाद में मैत्रेयी मिश्रा के शानदार लिबास में हमें दिखाई देती है। बेबी की कहानी इस उपन्यास की भूमिका है। असल कहानी मैत्रेयी मिश्रा की है, जिसके भीतर आज भी बेबी जिन्दा है। उस बेबी को खोजने के लिए मनोहर श्याम जोशी ने यह उपन्यास लिखा। उपन्यास में जब तक बेबी रहती है, तब तक उपन्यास की भूमिका रहती है और तब तक उपन्यास में अद्भुत-अपूर्व रोमांच रहता है। ज्यों ही बेबी के निर्वसन शरीर पर चादर डालकर उपन्यास का नायक डी.डी. तिवारी अमेरिका चला जाता है, यह भूमिका खत्म हो जाती है और उपन्यास के रोमांच का भी अन्त हो जाता है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि लेखक उस मैत्रेयी मिश्रा को नहीं जानता, जिस पर उसे उपन्यास लिखना था। कुछ आलोचकों ने इस उपन्यास पर ऐसा आरोप लगाया था।

 

कभी-कभी उपन्यासकार भूमिका में एक ‘पिच’ बनाता है। एक ऐसा मैदान, जिस पर आगे चलकर उपन्यास के सारे पन्नों को अपना-अपना खेल खेलना है। पंकज बिष्ट के उपन्यास उस चिडि़या का नाम  में यह बुनावट बहुत जोरदार है। परन्तु ज्यों ही यह बुनावट पूर्ण होती है और उपन्यास अपनी मूल कथा भूमि पर आता है, उसका सृजनात्मक वैभव खो जाता है।

 

दरअसल भूमिका से उपन्यास का उठान प्रारम्भ होता है। आगे जब पाठक मूल कथा में डूब जाता है तब वह इस भूमिका वाले हिस्से को भूल जाता है। भूल जाना चाहिए। गोदान  में हम भूल जाते हैं। एक सफल उपन्यास में भूमिका का हिस्सा मूल कथा में घुल-मिलकर अपना अस्तित्व विसर्जित कर देता है।

 

उसमें भूमिका और मूल कथा के बीच कोई विभाजन रेखा दिखाई नहीं देती । यह अदभुत गुण फणीश्‍वर नाथ रेणु और हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में दिखाई देता है।

 

6. उपन्यास के मूल कथ्य

 

 उपन्यास का मूल कथ्य ही उपन्यास होता है। यदि यह कथ्य सतही हुआ तो उपन्यास सामान्य माना जाएगा। यदि इस हिस्से में शक्ति है तो उपन्यास शक्तिशाली समझा जाएगा। इसमें लेखक के विचार, अनुभव, अध्ययन, भविष्यदृष्टि, मानव-चरित्र की समझ सब कुछ की परीक्षा हो जाती है। उपन्यास की भूमिका पढ़ते समय पाठक अपने मत को स्थगित रखता है। मूल कथ्य के आने के बाद वह अपना मत स्थिर करने लगता है और तब वह उपन्यास की भूमिका के बारे में भी सोचता-विचारता है।

 

उपन्यास एक पाठ्य विधा है। इसका एक पाठक होता है। उपन्यास इस अर्थ में जनतान्त्रिक विधा है कि इसे प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति पढ़ सकता है। जब पढ़ सकता है, तो थोड़ा-बहुत समझ भी सकता है। और तब उस पर कुछ-न-कुछ  अपनी राय भी दे सकता है। यह ‘राय’ उपन्यास की आलोचना का प्राथमिक स्तर है। किसी-किसी रचना को पूरा पढ़े बिना भी पाठक अपनी राय दे सकता है। वह कह सकता है कि श्री लाल शुक्ल का उपन्यास राग  दरबारी  इतना फूहड़ लगा कि मैं उसे नहीं पढ़ पाया। या विनोद कुमार शुक्ल का उपन्यास खिलेगा तो देखेंगे  को पढ़ना बहुत श्रम-साध्य है। किसी उपन्यास को आधा पढ़कर बीच में छोड़ देना भी दोयम दर्जे की अलिखित आलोचना होती है।

 

उपन्यास का प्रत्येक पाठक भवग्राहीके रूप में उसका आलोचक भी होता है। पाठ-प्रक्रिया के दौरान पाठक, आलोचक में घुल-मिल जाता है। इस पाठ-प्रक्रिया में रचना की पुनर्रचना होने लगती है। मूल कथा जब प्रारम्भ होती है तब आलोचक प्रश्‍न करता है कि यहाँ यदि मैं होता तो क्या करता? मैं यदि मेहता होता तो गोदान   में मालती से दोस्ती का प्रस्ताव कैसे रखता?  गोबर-झुनिया की मूर्खतापूर्ण प्रेम-कहानी को यदि मैं लिखता तो कैसे लिखता? प्रेमचन्द का गोदान   यदि जैनेन्द्र कुमार लिखते तो कैसे लिखते? और मैं कैसे लिखता? क्या मैं भी हीरामन की तरह कसमें ही खाता रहता या कुछ और भी करता? कसप  की नायिका निर्वसन होकर भोग की निमन्त्रणनुमा धमकी देती तो मैं क्या करता? क्या अनित्य  (मृदुला गर्ग) में मैं भी अविजित की तरह संगीता की मानसिक-भावात्मक कमजोरी का फायदा उठाता या नहीं उठाता? यहाँ आलोचक को अपना साक्ष्य देना होता है। उपन्यास की मुख्य कथा के बारे में आलोचक निम्नलिखित किसी न किसी निष्कर्ष पर पहुँच पाता है—

  1. यह उपन्यास कमजोर है, क्योंकि इसमें वे समान्य बातें भी नहीं हैं, जो मैं जानता हूँ। जब मेरे जैसे नादान व्यक्ति भी जानता है, तब प्रेमचन्द जैसे उपन्यास लेखक को तो जानना ही चाहिए। अर्थात् पाठक के स्तर के नीचे की रचना श्रेष्ठ नहीं हो सकती।
  2. यह उपन्यास अच्छा है, क्योंकि इसमें वे सब बातें हैं, जो मैं भी सोचता हूँ। अर्थात् मैं तो समझदार हूँ ही, लेखक भी मेरे जैसा ही ठीक-ठाक है।
  3. यह उपन्यास श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें वे सब बातें हैं, जो मैं भी नहीं जानता था? यहाँ तक कि मैंने कल्पना भी नहीं की थी। इस तरह पराजित होकर आलोचक लेखक का समर्थक बन जाता है। आलोचना की दृष्टि से इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक कबीर है।

 

 इसके अलावा उपन्यास के आलोचक के पास एक श्रेष्ठ उपन्यास की अवधारणा होती है। वह अपनी इस अवधारणा के साथ बाणभट्ट की आत्मकथा  या मैला आचल  पढ़ता है। यदि किसी आलोचक के पास यह अवधारणा नहीं है, तब वह भावग्राही मात्र है। आलोचक नहीं। यदि कोई आलोचक अपनी ही अवधारणा के अनुरूप रचना की काट-छाँट करता है, मात्र उसी पैमाने से रचना पर मूल्य-निर्णय देता है, तब वह मशीनी ढंग से रचना का मूल्यांकन करने लग जाएगा। ऐसी आलोचना रचना की सर्जनात्मकता को न तो समझ पाएगा और न उसकी सराहना कर पाएगा। उपन्यास के पठन-पाठन के दौरान आलोचक अपने व्यक्तित्व को भी अभिव्यक्त करता जाता है। अपना साक्ष्य देता जाता है। इस तरह वह रचना के सामने अनावृत्त होता है। श्रेष्ठ रचना सभी प्रतिमानों और मान्यताओं को छोटा सिद्ध कर देती है।

 

इसलिए सारा शास्‍त्र समझ लेने के बाद भी एक बिन्दु ऐसा आता है, जहाँ आलोचना करना असम्भव हो जाता है। पाठक और आलोचक सिर्फ सराहने के स्तर पर आ जाता है।

 

7. उपन्यास की परिणति

 

लेखक रचना का प्रारम्भ करता है। पात्रों से परिचित करवाता है, उनके जीवन की गति तय करता है। उसके बाद वे लेखक से स्वतन्त्र होते जाते हैं। उपन्यास का अन्त होते-होते वह कृति उपन्यासकार से पूर्णतः स्वतत्र हो जाती है। उसे कैसे समाप्‍त किया जाए? यह पहले से ही निर्धारित हो जाता है। उदाहरण के लिए गोदान  में प्रेमचन्द चाहे तब भी होरी को जिन्दा नहीं रख सकते। उसे तो मरना ही होगा। इसी तरह रंगभूमि  में कोई भी जॉन सेवक को परास्त नहीं कर सकता। ये निष्कर्ष जीवन के निष्कर्ष हैं। उन्हें लेखक नहीं बदल सकता। यदि बदलने का प्रयास करे तो रचना की कलात्मकता और विश्‍वसनीयता खण्डित हो सकती है।

 

उपन्यास को बन्द करना बड़ी भारी कला है। हिन्दी में बहुत कम उपन्यासकारों को यह कला आती है। इसी कारण हजारी प्रसाद द्विवेदी को बाणभट्ट की आत्मकथा  की अधूरी प्रति प्राप्‍त होती है। ‘पता नहीं अब मिलना होगा या नहीं’ इसी आशंका में यह उपन्यास समाप्‍त हो जाता है। कसप  का नायक गंगौलीहाट की पहाडि़यों पर रो रहा है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौर की रचनाओं में देश आजाद नहीं होता प्रेमाश्रम  में जमीन्दारी-प्रथा का उन्मूलन हो गया। इसकी आज तक आलोचना हो रही है। उपन्यास जब जीवन की कथा है, तो जीवन तो अधूरा ही है। उसे पूर्ण नहीं किया जा सकता। इसीलिए रचना को भी पूर्णता की प्राप्‍त‍ि नहीं होती।

 

8. निष्कर्ष

 

 कविता, कहानी या अन्य गद्य-विधा की तरह उपन्यास,भी साहित्यिक विधा है।  यह एक सामाजिक दस्तावेज़ मात्र नहीं है|  उपन्यास में विजन होता है, जिसमें बेहतर भविष्य की कल्पना की जाती है।  अपने समय और समाज की गहरी समझ ही उपन्यासकार को भविष्यद्रष्टा बनाता हैं।  जिस रचनाकार के पास यह समझ नहीं होती उसकी रचना सफल उपन्यास की कोटि में नहीं आती। वह बोझिल विवरण मात्र बन कर रह जाता है। इसलिए उपन्यास में प्रवाह आवश्यक है, ताकि वह बोझिल न लगे। उपन्यास का मूल कथ्य ही उपन्यास को श्रेष्ट बनाता है। सतही कथ्य उपन्यास को सामान्य बना देता है।  उपन्यास को उसके तीनों हिस्सों में बाँट कर उसका विशलेषण करना चाहिए। ये तीनों हिस्से इतने घुले-मिले रहते है कि उनमें अन्तर कर पाना कठिन होता है। किसी उपन्यास में ये तीनों अंग अलग-अलग दिखाई पड़े, तो इसे उपन्यास का दोष कहा जाएगा।

 

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें

  1. अधूरे साक्षात्कार, नेमिचन्द्र जैन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
  2. अठारह उपन्यास ,राजेन्द्र यादव, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली।
  3. कथा विवेचना और गद्य-शिल्प , रामविलास शर्मा, वाणी प्रकाशन, दिल्ली।
  4. उपन्यास के पक्ष ,ई. एम. फार्स्टर (अनु.-राजुला भार्गव), राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादेमी, जयपुर।
  5. उपन्यास का सिद्धान्त, जार्ज लुकाच, (अनुवाद आनंद प्रकाश), मैकमिलन इंडिया, बंबई-दिल्ली।
  6. उपन्यास का पुनर्जन्म, परमानन्द श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
  7. The Art of Novel, Milan Kundera, Rupa & Co., Delhi.
  8. Theory of Novel, George Lukacs, Merlin Press, London.
  9. The Novel After Theory, Judith Ryan, Columbia University Press, New York.

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Novel
  2. http://elearning.sol.du.ac.in/dusol/mod/book/view.php?id=1284&chapterid=1711
  3. http://elearning.sol.du.ac.in/dusol/mod/book/view.php?id=1284&chapterid=1716
  4. http://elearning.sol.du.ac.in/dusol/mod/book/view.php?id=1284&chapterid=1718