3 आख्यानशास्‍त्र के विविध आयाम

प्रो. गौतम सान्याल

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. आख्यानशास्‍त्र : उद्भव और विकास
  4. आख्यान : एक आधुनिक अवधारणा के रूप में
  5. कालानुक्रम का पुनःसृजन
  6. कथावाचक
  7. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • आख्यानशास्‍त्र के विविध पक्ष समझ सकेंगे।
  • आख्यान के बारे में जान पाएँगे।
  • आख्यान और कथा के सम्बन्धों से परिचित हो सकेंगे।
  • आख्यान में कथावाचक की भूमिका से परिचित हो पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

भारतीय और पाश्चात्य साहित्य परम्परा में ‘आख्यान’ या ‘नैरेटिव’ का सीधा तात्पर्य किसी भी तरह की ‘कथा’ या ‘कहानी’ से है। प्राचीन काल में काव्यशास्‍त्रीय प्रतिमानों द्वारा निर्धारित कथानक रूढ़ियों के अनुसार आख्यान के मानदण्ड निर्धारित थे। प्रस्तुत इकाई में ‘आख्यान’ और ‘आख्यानशास्‍त्र’ की आधुनिक अवधारणा पर चर्चा की जाएगी। आज के समय में आख्यान, मात्र एक साहित्यिक प्रारूप (कथा-साहित्य मूलक या गल्पमूलक) नहीं है; इसकी व्याप्‍त‍ि सर्वत्र, सर्वदा और अग्रगण्य है। वह हमारी भाषा चेतना तथा भाषा शिक्षण से जुड़ा हुआ है। यह हमारी तमाम सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों या प्रारूपों में, एक आधारभूत चेतना या सामग्री के रूप में विद्यमान है, चाहे वह महाकाव्य, पुराण, उपन्यास, कहानी, मिथक, प्रगीत, नाटक, सिनेमा, तथ्यचित्र, फीचर, इतिहास, समाचार, गाथा, कॉमिक स्ट्रीप, पेण्टिंग, स्थापत्य, वार्तालाप इत्यादि, कुछ भी हो। आधुनिक सन्दर्भों में आख्यान की व्यापकता के कारण इसके सुसंगत और क्रमबद्ध अध्ययन हेतु ‘आख्यानशास्‍त्र’ की शुरुआत हुई। आख्यानशास्‍त्र ‘किसी भी आख्यान के विस्तृत अध्ययन का एक पाठ-केन्द्रित  सैद्धान्तिक  प्रस्ताव  या उपक्रम  है’। दूसरे शब्दों में ‘यह आख्यान के अध्ययन की एक विशिष्ट प्रविधि या पद्धति है, जिसके तहत आख्यान के उपतत्त्वों (उपादान, संघटक आदि) के सहसम्बन्धों व उनकी परस्परपूरकताओं का विश्‍लेषण किया जाता है।’ (The Bedford Glossary of Critical and Literary Terms, Ed. By Ross Murfin and Supriya M. Ry, Palgrave Macmilan, Hampshire, 2003, page 327)

 

अतः आख्यानशास्‍त्र का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । प्रारम्भ में आख्यानशास्‍त्र पाठ-केन्द्रित अध्ययन पद्धति रूप में प्रतिष्ठित था, मगर अब इसमें पाठकवादी समीक्षा, नव्य-इतिहासवाद, नव्य-मनोविश्‍लेषणवाद, साहित्य का नव्यत्तम समाजशास्‍त्र, विखण्डनवाद, नव्य मार्क्सवाद इत्यादि का समावेश हो चुका है।

 

2. आख्यानशास्‍त्र : उद्भव और विकास

 

आख्यानशास्‍त्र के प्रारम्भिक  प्रेरणा-स्त्रोत के रूप में रूसी रूपवादी, प्राग लिंग्विस्टिक सर्कल, शिकागो स्कूल, नई समीक्षा और प्रारम्भिक  संरचनावादियों की अहम भूमिका रही है। सच्‍चाई तो यह है कि संरचनावाद से उत्तर–संरचनावाद के दौर में आख्यानशास्‍त्र का अद्भुत विकास हुआ है।

 

वर्तमान समय में आख्यानशास्‍त्र आख्यानमूलक आकृतियों और संरचनाओं से भी मुक्त हो गया है। अत्याधुनिक आलोचना जैसे नव्य संरचनामूलक इतिहासवाद, नव्य मनोविश्‍लेषणवाद, नव्य-विखण्डनवाद, नव्य मार्क्सवाद, नव्य इतिहासवाद आदि के साथ 21 वीं शती में आख्यानशास्‍त्र का सुविशाल परिसर खुल गया।  आज का आख्यानशास्‍त्र मात्र रूप का अध्ययन नहीं है बल्कि इसकी पैठ समस्त ज्ञानानुशासनों में बढ़ती चली जा रही है और सम्प्रति इसका, कृति के विचारों, वैचारिक प्रतिबद्धताओं, अन्तर्वस्तुओं, सामाजिक दायबद्धताओं आदि के साथ एक शाश्‍वत गठबन्धन-सा हो गया है। एम. एच. अब्राम्स के अनुसार आख्यानशास्‍त्र, अपने आधुनिक अर्थ में एक क्रमबद्ध रूपमूलक या आकृतिमूलक संरचना का अध्ययन है। इसके साथ ही आख्यान एक निर्माण या संघटन भी है ।

 

उदाहरण के लिए, यदि किसी घर को मात्र व्यवस्थित पद्धति के औपचारिक निर्माण  की दृष्टि से देखेंगे तो हमें सिर्फ इसकी  यान्त्रिकी दिखाई देगी और तब घर की प्रतीति, संवेदना, विचार तक  नहीं पहुँच पाएँगे । एक शाब्दिक अवबोध के परिमण्डल  के रूप में कभी महसूस नहीं पाएँगे, अर्थात– आश्रय, गृह, दर, आलय, निवास, नीड़, आशिया, रिहाइश, ठाम, बसेरा, वास्तु, बासा, वासस्थान जैसे शब्दों की तरफ हम जा ही नहीं पाएँगे। लेकिन अगर हम उसी व्यवस्थित औपचारिक निर्माण में प्रयुक्त विपुल और तकनीकी अर्थावलियों का भरपूर उपयोग करते हुए घर के विचार, सोच, प्रतीति और संवेदना तक पहुँचना चाहेंगे तो घर के अर्थान्वयन का ऐसा परिसर खुलेगा, जो स्वयं में अभिनव होगा। इक्‍कीसवीं सदी का अधुनातन आख्यानशास्‍त्र इसी मुकाम पर प्रतीक्षारत है।

 

आधुनिक काल में, आख्यान-चिन्तन के विधिवत् प्रारम्भ को सन् 1965-75 के दौरान चिह्नित किया जा सकता है, जब संरचनावाद का यूरोप में दबदबा होने लगा था। इसी क्रम में फ्रांस की सुविख्यात पत्रिका COMMUNICATION में सन् 1965 में रोलाँ बार्थ का प्रसिद्ध लेख प्रकाशित हुआ Introduction to the Structural Analysis of Narratives’। इस लेख में आख्यान के रूप-अरूप-स्वरूप की व्याख्या करते हुए रोलाँ बार्थ ने इसे आधारभूत अनोखा तत्त्व  कहा है, ‘जिसकी व्याप्‍त‍ि सर्वत्र जीवन में है, और जिसकी संज्ञाप्‍त‍ि असंख्य है।’ (A Barthes Reader, new york, hill and wang, 1982, page 252) सन् 1975 के बाद, यह नव्य-आख्यान चिन्तन यूरोप, अमेरिका व अन्यत्र भी फैलने लगा। जब अन्य देशों के विद्वानों ने आख्यानशास्‍त्र पर महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं जिनमें तजवेस्तान तदोरोव, जेर्राड जेनेट, डच, मीके बॉल, सिमोर चैटमैन, जेराल्ड प्रिंस आदि मुख्य हैं ।  

 

उत्तर-आधुनिक शिविर में भी आख्यानबोध को आधारभूत तथ्य के रूप में मान्यता प्रदान की गई। ज्याँ फैक्‍वाइस लियोटार्ड ने इसे मानव मस्तिष्क का केन्द्रीय कार्य प्रचलित अभिज्ञान का सर्वोत्कृष्ट स्वरूप कहा।  फ्रेडरिक जेमसन ने इसे मानव मस्तिष्क का प्रमुख कार्य कहा। इसके बाद शिशुओं के भाषा पाठ से आख्यान को जोड़ने की कोशिश की गई ।

 

उदाहरण के लिए, जब हम परिवार में शिशुओं को भाषा सिखाते हैं, तो सबसे पहले जगत का भाषा-परिचय हम उन्हें संज्ञा या सर्वनाम के माध्यम से कराते हैं– वह भौः भौः है, यह झुनझुन है, ये पापा हैं इत्यादि। लेकिन इन भाषा-रूपों से उस शिशु को कोई विशिष्ट और स्मृति में रखने लायक सूचनाएँ प्राप्‍त नहीं होतीं। लेकिन जैसे ही इन भाषा-लक्षणों के साथ किसी क्रिया या अनुक्रिया को जोड़ देते हैं – जैसे कि भौः भौः काटेगा या मुन्‍नु झुनझुन बजाएगा या पापा आएँगे, घुमाने ले जाएँगे। इससे शिशुओं में एक परिपूर्ण भाषा-बोध का उद्भव होता है और यह उद्भव आख्यान-बोध के स्तर पर ही होता। बाद में, हम इस भाषा शिक्षण में विशेषण और क्रिया विशेषण जोड़ते चले जाते हैं – जैसे भौः भौः गुस्सा है, काट लेगा! तो आख्यान का प्रत्याभास दिखने लगता है।

 

आशय यह कि ‘मानव के भाषा-बोध और उसके उपयोग-प्रयोग के निमित्त जब भी किसी संज्ञापद व सर्वनाम के साथ हम किसी क्रिया (Verb) को संयोजित करते हैं, तो आख्यान निर्मिति की स्थितियाँ बन जाती हैं।’ (Cambridge Introduction to Narratives, Abbot A, Porter, Cambridge University Press, London, 2008, Page1)

 

3. आख्यान : एक आधुनिक अवधारणा के रूप में

 

आधुनिक आख्यानशास्‍त्र की पहली और सबसे बड़ी समस्या है, कथा (स्टोरी) और आख्यान (नैरेटिव डिसकोर्स) में अन्तर स्पष्ट करना। लगभग सभी आख्यानविदों ने इस अन्तर को स्पष्ट करते हुए इसके लिए विभिन्‍न नाभिकीय शब्दावलियों के युग्मक (कॉप्युलेट) ईज़ाद किए हैं। यहाँ उसकी संक्षिप्‍त तालिका प्रस्तुत है–

 

 

इन युग्मकों के अत्यन्त जटिल और श्रमसाध्य व्याख्याओं में न जाते हुए सीधे शब्दों में कहा जा सकता है कि–

  • क) कथा (स्टोरी) वास्तविक या अवास्तविक घटितों का एक अनुक्रम या उपक्रम है,
  • ख) कथा तार्किक या कालानुक्रम की दष्टि से जुड़ी हुई घटितों की एक शृंखला है, जो सदैव एकरैखिक होती है अर्थात जिसमें समय की सुई सदैव पीछे से आगे की ओर जाती है,
  • ग) आख्यान उन्हीं घटितों के अनुक्रम का पुनःसृजन या पुनःप्रस्तुतिकरण है, जिसमें कालानुक्रम की कालगति क्लॉक लेस होती है, अर्थात यह बहुरैखिक होती है, अर्थात यह आगे-पीछे, किसी भी तरफ, कई बार चली जाती है,
  • घ) आख्यान में चरित्रों (एक्टैण्ट, एक्टर या रिफ्लेक्टर) का समावेश होता है,
  • ङ) जेराल्ड प्रिंस के अनुसार आख्यान का अर्थ है, ‘रिकाउण्टिंग अर्थात दोबारा गिनाना अर्थात फिर से कहना।’ (A Dictionary of Narratology, Aldershot Scholar Press, 1998, Page 58)
  • च) आख्यान की अवधारणा में संरचना या बनावट और संरचनात्मकता का अत्यधिक महत्त्व है।

 

आख्यानशास्‍त्र के प्रारम्भिक  दौर से ही आख्यानविदों ने ‘कथा’ या ‘स्टोरी’ और ‘आख्यान’ या ‘नैरेटिव’ को पृथक करने का प्रयत्न किया है। आख्यान कथा में घटितों की पुनर्प्रस्तुति है। इस मूलभूत और महत्त्वपूर्ण समीकरण को ठीक-ठीक समझ लेना जरूरी है। उदाहरण के लिए कफन  कहानी को लिया जा सकता है। कफन  की कथा इस प्रकार है – ‘अपनी जमीन से विछिन्‍न घीसू-माधव (बाप-बेटे) दो कामचोर इनसान है, जो कभी किसान हुआ करते थे। माधव की पत्‍नी बुधिया, अर्थाभाव के कारण प्रसव-पीड़ा के दौरान, बिना चिकित्सा के मर जाती है। कंगाल माधव-घीसू अन्तिम संस्कार (कफन) के लिए जमीन्दार से पैसे माँगते हैं। जमीन्दार उन्हें रुपये दे देता है। कई दिनों से भूखे वे दोनों उन पैसों से मन भर शराब और पेट भर मछली खा-पी जाते हैं और नशे में धुत्त झूमते हुए गिर पड़ते हैं’ इत्यादि।

 

लेकिन इन्हीं घटितों की कहानी इस प्रकार रचित होती है –

 

झोपड़े के द्वार पर बाप-बेटे अलाव ताप रहे हैं, जबकि अन्दर बुधिया (माधव की जवान पत्नी) प्रसव-पीड़ा में तड़प रही है। घीसू -माधव में तनिक वार्तालाप … लगता है बचेगी नहीं … इत्यादि। फिर गाँव और कुनबे की बदहाली का विवरण। घीसू  और माधव के कामचोर चरित्र का वर्णन। फिर चुराकर लाए गए पके हुए आलू को छीलकर खाते हुए बुधिया की मृत्युदशा से उदास घीसू-माधव का दार्शनिक वार्तालाप। घीसू-माधव के अमानुष बन जाने का औचित्य – ‘जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी नहीं थी, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात नहीं थी’। जले-भुने आलू को हफ्-हफ् करते हुए खाना-निगलना।

 

घीसू  को तभी वर्षों पहले जमीन्दार द्वारा दिए गए महाभोज की याद आना। सुबह बुधिया की ठण्डी पड़ी हुई लाश को देखना। जमीन्दार और गाँववालों से रुपये चन्दे का मिलना। घीसू-माधव का कफन खरीदने बाजार पहुँचना और कफन खरीदने के लिए अनाकानी करना। एक-दूसरे के मन की बात को जानने हेतु वार्तालाप। मछली खाना, शराब पीना। नशे में बुधिया को बैकुण्ठ लोक में जाने के लिए आशीर्वाद देना। अन्ततः नशे में धुत्त गिर पड़ना।

 

दरअसल, पूरा का पूरा आख्यानशास्‍त्र, कथा और आख्यान की इन द्विपक्षीय अन्तरालों और परस्परपूरकताओं  पर आधारित है। कथा वास्तविक या अवास्तविक घटितों का एक अनुक्रम है। यह तार्किक, एक- रैखिक और कालानुक्रम की दृष्टि से जुड़ा होता है, तथा चरित्रों को समाविष्ट करता है। जबकि आख्यान उन घटितों के अनुक्रम का पुनःप्रस्तुतीकरण करता है। आख्यानविदों ने कथा और आख्यान के सम्बन्ध की अपने-अपने तरीके से व्याख्या की है।

 

किसी भी कथा को आख्यान के रूप ढालने में कुछ तत्त्वों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है, जैसे– स्वभाविकीकरण, स्थगन, व्यवधान, शिथिलता, कौतूहल या आश्‍चर्य, कथास्वर और संकेन्द्रण, चिन्ता और द्वन्द्व, सहनायक, समाप्‍त‍ि आदि। ये सारे तत्त्व आख्यान के आख्यानीकरण में सहायक होते हैं, जो आख्यान को रोचक और आकर्षक बनाते हैं। स्वभाविकीकरण की प्रक्रिया आख्यान में घटित को विश्‍वसनीय बनाती है। व्यवधान पाठक को उकसाते हुए पूरा करने के लिए आमन्त्रित करता है। समाप्‍त‍ि के अन्तर्गत आख्यान में उद्भूत सारी चिन्ताओं, वैकल्पिक प्रावधानों का अवसान हो जाता है, लेकिन सारी आकांक्षाओं की तुष्टि साधारणतः नहीं हो पाती। अतः आख्यान अक्सर अपेक्षाओं की बिन्दु पर ही समाप्‍त होता है। जैसे – गोदान  में होरी की मृत्यु के बाद, उसके परिवार का क्या हुआ? आषाढ़ का एक दिन  में जब कालिदास के लिए मल्लिका का द्वार नहीं खुला, तो वे कहाँ चला गए?

 

4. कालानुक्रम (Anachrony) का पुनःसृजन

 

आख्यान  की अवधारणा कथा के अनुक्रम के पुनःसृजन पर आधारित है। मीके बॉल का कहना है कि कथा के कालानुक्रम में किसी प्रकार का फेरबदल ही कालानुक्रम का पुनःसृजन है। यह सम्पूर्णतया पूर्व-उल्लेखित समय की पुनर्गणना से जुड़ा हुआ है। मोनिका फ्लुडरनीक के अनुसार आख्यान की विलक्षणता का रहस्य बहुत-कुछ इसी पर आधारित है। मीके बॉल के अनुसार कालानुक्रम के दो प्रकार होते हैं–

 

1) Punctual Anachrony (समयबद्ध विच्युति) – जब कथावाचक हमें एक ही बार अतीत या भविष्य में ले जाता है और पुनः उसी विन्दु पर लौटता है। इसमें प्रायः संक्षिप्‍त, लेकिन महत्त्वपूर्ण घटना दोहराई जाती है जो कालानुक्रम में बदलाव के औचित्य को साबित करती है।

 

2) Durative Anachrony – जब लम्बी कालावधि के लिए या कई बार, आख्यानकार हमें अतीत या भविष्य में ले जाता है। इसके द्वारा आख्यान की रूपरेखा खींचने का कार्य होता है।

 

जहाँ तक व्यतीत या आगामी में जाने का प्रश्‍न है, कालानुक्रम की विच्युति  के अंगीभूत तीन उपाय हैं, जिन्हें हम पूर्वदृश्य, पश्चात दर्शन, पश्य कथन अथवा पश्य गमन भी कह सकते हैं। अर्थात आख्यानगति में ऐसे दृश्य, कथन, घटित का उद्भव, जो अतीत में घट चुका है लेकिन वर्णन करते समय किसी ख़ास बिन्दु पर उसका उल्लेख किया जा रहा है।

 

5.कथावाचक

 

कथावाचक आख्यानशास्‍त्र का सबसे दिलचस्प आयाम है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि कथावाचक की विस्तृत सैद्धान्तिकी को प्रतिष्ठित करने का श्रेय, आख्यानशास्‍त्र को ही जाता है। सदियों से आख्यान जब मौखिक रूप में प्रस्तुत किए जाते रहे हैं। उस समय कथावाचक का अस्तित्व स्पष्टतः दिखाई देता रहा है। लिखित या मुद्रित रूप के आ जाने से आख्यान में  कथावाचकों की प्रत्यक्ष-उपस्थिति विलीन हो गई। फिर भी उसका वजूद, पाठ में उसकी मौजूदगी, कई स्तरों पर बनी रही। किसी आख्यान या पाठ में कथावाचकों की देह-विदेह, शरीरी-अशरीरी, प्रगट-प्रच्छन्‍न या सगुण-निर्गुण उपस्थितियों का अन्वेषण करना रमणीक है।

 

कथावाचक के बारे में मूलतः पाँच-छह प्रकार के पारिभाषिक निर्देश प्राप्‍त होते हैं, जो अलग-अलग ढंग से, पाठ में कथावाचक के अस्तित्व को बड़ी गहराई के साथ रेखांकित करते हैं –

 

क) जेराल्ड प्रिंस के अनुसार, ‘जो आख्यान का विवरण-वर्णन करता है, आख्यान का बयान करता है, कथावाचक।’ (A Dictionary of Narratology, Aldershot Scholar Press, 1998, Page 58)

 

ख) केटी वेल्स के अनुसार ‘ ‘कौन’ को एक व्यक्ति में बदलते हुए, कथावाचक के मानवीय व्यक्तित्व के रेखांकन व रेखाकृति को और भी गहरा कर देती है।’ (A Dictionary of Stytistics, Herlow, London 1989, page 316)

 

ग) मीके बॉल के अनुसार, ‘कथावाचक मेरे लिए एक आख्यान का प्रतीक है। आगे और भी स्पष्ट करती हुई वे कहती हैं कि वह एक भाषाई विषय है, आख्यान में उसकी उपस्थिति मूलतः भाषामूलक विषय  के रूप में होती हैं। वह तो मात्र एक  भाषाई प्रकार्य है। वह स्वयं को अन्ततः भाषा के दायरे में व्यक्त करता है, जिससे कि आख्यान की गढ़त  होती है। वह कोई व्यक्ति नहीं हैं।’ (Narratology: Introduction to the theory of Narrative; translated by Christine Boheeman, University of Toronto press, 1985, page 119) लेकिन उपर्युक्त पारिभाषिक निर्देश हमें मात्र इस प्रश्‍न को समझने देते हैं कि पाठ के दायरे में कथावाचक की शरीरी या अशरीरी उपस्थिति होती है? कथावाचक सदेह होता है या विदेह? लेकिन उससे भी बड़े प्रश्‍न, इन दिशा-फलकों की ‘दो राहों’ से आगे ‘अगले चौराहे’ पर स्थित है। कथावाचक की उपस्थिति को अगर हम भाषातात्त्विक मौजूदगी ही मान लें; क्लादे ब्रेमोण्ड इस प्रश्‍न को और भी विस्तृत कर देते है, अर्थात कथावाचक चाहे शरीरी हो या अशरीरी, मानव रूप में हो या अन्य किसी रूप में, उदाहरण के लिए मानव प्रत्यारोपित (पर्सोनिफाइड) जैसे पेड़, नदी, जंगल, आकाश, काल, परिन्दे इत्यादि, उसका कोई न कोई मानवीय उद्देश्य होना ही चाहिए। अर्थात सदेह या विदेह होना महत्त्वपूर्ण नहीं है। निर्णायक या सामान्य तथ्य यह है कि ‘आख्यान में उसके नैरेशन का कोई न कोई स्पष्ट मानविकी कथ्य या उद्देश्य अवश्य होना चाहिए (The Logic of Narrative Possibilities(1996), translated by E.D. Caircalon, 1980, printed in New Literary History Volume 11 page 387-411)।’

 

घ) मोनिका फ्लुडरनिक कहती हैं कि ‘समस्त भाषिक चिह्न जो स्वयं में वक्ता-विषयक होते हैं और जो आख्यान के ग्राही को सम्बोधित होते हैं, कथावाचक का निर्माण करते हैं। अर्थात आख्यान में उपस्थित समस्त भाषिक-तत्त्व ही कथावाचक है (The Fiction of Languages and the Languages of Fiction, Routledge, London, 1993, page 443)।

 

ङ) अतएव रिचर्ड एक्जेल ने अपने प्रसिद्ध निबन्ध Hearing Voices in Narrative Texts में एक मध्यम मार्ग निकालने की कोशिश की है। एक्जेल ने कथावाचक की भूमिका को एक छतरी की कमानियों से तुलना करते हुए, दो स्तरों की प्रतिकल्पना की है– प्राथमिक और द्वितीयक। कथावाचक का प्राथमिक कार्य है– आख्यान के उपतत्त्वों का चुनाव, उनका संघटन और उनकी प्रस्तुति। कथावाचक का द्वितीयक कार्य है– कथन के रूप में आख्यान का विवरण देना, स्वयं को मानवीकृत रूप में प्रस्तुत करना और आख्यान के ग्राही को सम्बोधित करना।

 

आख्यान की प्रस्तुति और कथावाचक के मानवीकरण  को ध्यान में रखते हुए अक्सर आख्यान-स्तर की चर्चा की जाती है। उसी उपक्रम में मानवीयकरण के स्तर  की बात उठाई जाती है। मीके बॉल ने इसी सन्दर्भ में कथावाचकों को दो भागों में बाँटा है – अनावृत कथावाचक और आबद्ध कथावाचक। मोनिका फ्लुडरनिक ने इस प्रसंग का विस्तृत विवेचन किया है। उनके अनुसार अनावृत वाचन में कथावाचक और आख्यान के ग्राही के बीच एक स्पष्ट अस्तित्वमूलक शृंखला कहानी के अन्त तक बनी रहती है। इसके विपरीत आबद्ध वाचन में सम्प्रेषण, वाचन और वक्ता-आख्यान का सम्बन्ध बार-बार भंग होता  है । उदाहरण के लिए, प्रेमचन्द की कहानी ब्रह्म का स्वांग  का उदाहरण दिया जा सकता है। ब्रह्म का स्वांग  अनावृत कथावाचक की उपस्थिति का उदाहरण है। इसमें दो कथास्वर (पुरुष और स्‍त्री का) बारी-बारी से सुनाई देता है फिर भी अनावृत वाचन का अनुक्रम कहीं भी व्यतिक्रमित नहीं होता । लेकिन कफन  में कथावाचन की शृंखला कई बार टूटती है। यह आबद्ध कथावाचक की उपस्थिति का उदाहरण है।

 

कथावाचक के बारे में अन्य कई प्रश्‍न उठते हैं। वह स्वयं में सर्वज्ञात किस तरह है? उसे पूरी कहानी (घटित का अनुक्रम) पहले से क्यों कर ज्ञात होती है? दूसरा प्रश्‍न और भी युक्तिसंगत व प्रासंगिक है – क्या वह विश्‍वसनीय है? मीके बॉल ने प्रश्‍न उठाया कि क्या वह मन्दबुद्धि है या कुशाग्रबुद्धि ? आगे विचारकों ने पूछा कि  आख्यान के निर्माण और उसके सम्प्रेषण में, उसका अंश-ग्रहण का प्रतिशत क्या है – क्या वह अंशतः, पूर्णतः, अनियमित या संयोग से पाठ में विद्यमान होता है ?

 

कथावाचक सम्बन्धी इन प्रश्‍नों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रेमचन्द की किसी कहानी का कथावाचक और प्रेमचन्द एक ही व्यक्ति नहीं है। रोलाँ बार्थ ने स्पष्टतः लेखक को ‘मेटेरियल ऑथर’ कहा है। उनकी स्पष्ट मान्यता है कि ‘मेटेरियल ऑथर’ और ‘लेखक’ एक ही व्यक्ति नहीं होता अर्थात हो ही नहीं सकता जबकि कथावाचक टेक्स्ट की पाठ-स्थितियों से पैदा होता है। प्रेमचन्द को अपने ही निर्मित पाठ में रहने के लिए किसी न किसी कथावाचक की परकाया-प्रवेश करना होता है। अतः कथावाचक में लेखक से अलग करते हुए कहा जा सकता है कि–

  • कथावाचक वह है जो वर्णन करता है।  वह अपनी तरफ से पाठ का वर्णन करने की क्षमता रखता है।
  • कथावाचक शरीरी हो या अशरीरी, पाठ में निहित उसका कोई न कोई  मानवीय उद्देश्य होना ही चाहिए।
  • पाठ में उसकी भूमिका अंशतः, पूर्णतः, संयोगपरक, अवसरपरक आदि हो सकती है।
  • अत्याधुनिक आख्यानशास्‍त्र में पाठकवादी समीक्षा के समावेश हो जाने से अन्तर्निहित पाठक की चर्चा भी चल पड़ी है। इसमें कहा गया है कि न तो वास्तविक लेखक, न उसका वर्णन करने वाला वरन् अन्तर्निहित पाठक उस आख्यान को संगठित करता है।
  • कथावाचन के विवेचन में कथावाचक का कथास्वर और संकेन्द्रण का अत्यधिक महत्त्व है। कथास्वर का सीधा सम्बन्ध कथा के कहने से है, जबकि संकेन्द्रण  का कथा के प्रदर्शन  से है। पहला, कथावाचक को इंगित करता है, जबकि दूसरा, कथा में घटित के क्रम के निर्माण और उसकी प्रस्तुति में कथावाचक की भूमिका का संकेत देता है।
  • क्या कथावाचक ईश्‍वर, कुरान की आयत इत्यादि की तरह विश्‍वनीय है? वह तो मन्दबुद्धि या कुशाग्रबुद्धि  भी हो सकता है।
  • जहाँ तक कथा की जानकारी का प्रश्‍न है; कथावाचकों को सर्वज्ञात या सर्वज्ञ और अल्पज्ञात कथावाचक के रूप में विभाजित किया जा सकता है। अक्सर कथावाचक यह अभिनय करता हुआ कहता है कि उसे आगे की कहानी नहीं मालूम, अतएव कहा जा सकता है कि अल्पज्ञात कथावाचक दरअसल सर्वज्ञ कथावाचक की एक अभिनय मुद्रा  है। विभूतिनारायण राय की प्रेम की भूतकथा  इसका उपयुक्त दृष्टान्त है ।

 

कथावाचकों के प्रकार व रूप-अरूप की दृष्टि से भारतीय सन्दर्भ विश्‍व में अतुलनीय है।  हमारे यहाँ प्राचीन-काल से कथावाचकों के इतने रूप-अरूप व प्रकार (बेताल, पंचतन्त्र का कथावाचक, संजय आदि) या विपुल सामग्री उपलब्ध है कि पश्‍च‍िम का अत्याधुनिक आख्यानशास्‍त्र इसके सामने नगण्य, अतुलनीय, आंशिक और अपर्याप्‍त दिखाई देता है। उदाहरण के लिए, कथावाचक कहानी सुनाता है या दिखाता है; वह शरीरी है या अशरीरी, वह मन्दबुद्धि है या कुशाग्र, ये सारे प्रश्‍न पश्‍च‍िम के अत्याधुनिक आख्यानशास्‍त्र की बड़ी समस्याएँ मानी जाती हैं, जबकि  ये सारे प्रश्‍न महाभारत के कथावाचक, अकेले संजय के उदाहरण से अपने उत्तर को प्राप्‍त कर लेते है। संजय के रूपक से इसे समझा जा सकता है। उषा विद्यावाचस्पति पुरी के अनुसार ‘संजय महर्षि व्यास के शिष्य थे और धृतराष्ट्र के पुरोहित। संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्‍त थी, व्यासमुनि ने उन्हें दिव्यदृष्टि दी थी, अतएव वे युद्धक्षेत्र का समस्त दृश्य महल में बैठकर ही देख सकते थे। नेत्रहीन धृतराष्ट्र ने महाभारत युद्ध का प्रत्येक दृश्य संजय की वाणी से सुना अर्थात देखा। युद्ध की समाप्‍त‍ि, दुर्योधन की मृत्यु और पांचालों के वध के उपरान्त व्यास की दी गई दिव्यदृष्टि भी नष्ट हो गई।’ (भारतीय मिथक कोश, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, 2004, पृष्ठ 325) संजय के रूपक को डिकोड करते हुए हमें निम्‍नलिखित तथ्य उपलब्ध होते हैं जो अत्याधुनिक आख्यानशास्‍त्र के दृष्टिकोण से अभूतपूर्व, विलक्षण माने जा सकते हैं–

  • संजय (नैरेटर) को दिव्यदृष्टि महर्षि व्यास ने (वास्तविक लेखक) दी थी।
  • आख्यान के समाप्‍त होते ही संजय की दिव्यदृष्टि चली गई।
  • संजय ने जो-जो देखा और सुनाया, धृतराष्ट्र (अन्तर्निहित पाठक) ने वही-वही सुना– महाभारत का आख्यान आज उसी रूप में हमारे पास उपलब्ध है।
  • आधुनिक आख्यानशास्‍त्र में अक्सर दूरी (कथावाचक की स्थिति और आख्यान के घटित के परिदृश्यों के बीच) की चर्चा की जाती है। इस जटिलतम सूत्र की सरलतम व्याख्या धृतराष्ट्र का महल और कुरुक्षेत्र की दूरी से की जा सकती है ।

 

6. निष्कर्ष

 

यह स्पष्ट है कि आख्यानशास्‍त्र का फलक विस्तृत और व्यापक है। आख्यान में कथा, पाठ, कालानुक्रम और कथावाचक के आपसी सम्बन्धों का अध्ययन ही आख्यानशास्‍त्र का निर्माण करता है। आख्यानशास्‍त्र किसी कथा या कहानी तक ही सीमित नहीं है। इसका कारण यह है कि आख्यान का क्षेत्र सिनेमा, समाचार, विज्ञापन, वार्तालाप यानी भाषा से निर्मित तकरीबन सभी रूपों तक फैला हुआ है। अतः आख्यानशास्‍त्र किसी भी तरह के भाषायी पाठ को आख्यान में परिवर्तित करने वाली प्रक्रिया का विश्‍लेषण है।

 

अतिरिक्त जानें

 

पुस्तकें-

  1. आख्यानशास्त्र : गौतम सान्याल, मेधा बुक्स, नवीन शाहदरा, नई दिल्ली
  2. The Cambridge Introduction to Narratives, Porter Abbot A, Cambridge University Press, London
  3. An Introduction to the Theory of Narrative , Rolland Barthes,Translated by Stephan Heath, Susan Sontag’s A Barthes Reader Hill and Wang, New York
  4. The Pleasure of Text, Rolland Barthes, translated by Richard Miller, Cope, London,
  5. Narratology; Introduction to the Theory of Narrative, Mieke Bal ,Translated by Christine Van Boheeman, University of Toronto Press, London
  6. The Rehtoric of Narrative in Fiction and Films, Seymor Chatman, Cornell University Press, Ithaka, London
  7. Narrative Discourse: An Essay, Gerard Gennett, Cornell University Press, Ithaka
  8. Narratology, Edited by Susana Onega and Jose Garcia Landa, Orient Longman, London
  9. A comapanion to Narrative Theory, Edited by James Phelan and Peter Robinowitz, Blackwell
  10. Dictionary of Narrative, Gerald Prince, University of Nebraska Press, Austin
  11. A Theory of Narrative, F. K. Stanzel ,Translated by C. Goedsche, Cambridge University Press, London

 

वेब लिंक्स

  1. https://en.wikipedia.org/wiki/Narratology
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8
  3. https://www.youtube.com/watch?v=woc3kGzMxA8
  4. https://www.youtube.com/watch?v=Wyqw9YKZqTY