25 आकाशदीप
प्रो.रोहिणी अग्रवाल
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- कथासार
- कहानी की अन्तर्वस्तु
- निष्कर्ष
1.पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- आकाशदीप कहानी के मूल कथ्य को समझ पाएँगे।
- कहानी के प्रमुख चरित्र से अवगत हो पाएँगे।
- आकाशदीप कहानी के माध्यम से जयशंकर प्रसाद के कहानी कला से परिचित हो पाएँगे।
2. प्रस्तावना
बहुमुखी प्रतिभा के धनी रचनाकार जयशंकर प्रसाद कवि एवं नाटककार के रूप में अपनी एकाधिक रचनाओं के कारण जाने जाते हैं, किन्तु कहानीकार के रूप में उनकी ख्याति का मूलाधार है, कहानी आकाशदीप । सन् 1930 के दशक में प्रकाशित कहानी संग्रह की शीर्षक कहानी आकाशदीप प्रेमचन्द की आदर्शोन्मुख यथार्थवादी परम्परा और जैनेन्द्र कुमार की नवविकसित मनोविश्लेषणात्मक परम्परा में सार्थक हस्तक्षेप करती है। आकाशदीप प्रेम और बलिदान की कहानी है, लेकिन उसने कहा था की परम्परा का विस्तार या विलोम नहीं। बेशक यहाँ भी उसने कहा था की तरह प्रेम की टीस है; हर कालखण्ड के सामाजिक जीवन में लेखकीय विवेक के अनुरूप आदर्श की स्थापना की महत्वाकांक्षा भी है, लेकिन फिर भी दोनों कहानियाँ दो भिन्न-भिन्न अन्तर्दृष्टियों से संचालित होते हुए दो भिन्न दिशाओं की ओर मुड़ जाती हैं। उसने कहा था में प्रेम त्याग में गुँथ कर उपस्थित होता है और आत्मबलिदान के जरिए आत्मसार्थकता और आह्लाद की अनुभूति पाता है। आकाशदीप में त्याग और बलिदान प्रेम का उदात्तीकरण अवश्य करते हैं, लेकिन अपने ही अन्तर्द्वन्द्व और मनोविकारों से जूझते पात्रों को मुक्त नहीं कर पाते।
3. कथासार
जयशंकर प्रसाद मूलतः कवि और नाटककार हैं। वे प्रकृति के भीतर मनोवृत्तियों और सृष्टि के नाद के भीतर गहन दार्शनिक रहस्यों को गुनने-बूझने वाले सर्जक कलाकार हैं। इसलिए उनके यहाँ कहानी घटनाओं के त्वरित वेग से नहीं, वातावरण और नाटकीय युक्तियों से खुलती है। कहानी किसी निर्दिष्ट दिशा की ओर बढ़ते जलपोत में दो बन्दियों के मुक्ति संघर्ष के साथ शुरु होती है जो सागर में हरहराते तूफान और उत्कण्ठित पोत-रक्षकों की लापरवाही का लाभ उठा कर स्वतन्त्र हो गए हैं। हर्षातिरेक के कारण आलिन्गनबद्ध होते ही उन्हें भान होता है कि वे दोनों सामान्य कैदी नहीं, स्त्री और पुरुष दो भिन्न-भिन्न लैंगिक इकाइयाँ हैं। बोध का यह बिन्दु उन्हें- बुद्धगुप्त और चम्पा को चकित भी करता है और एक-दूसरे के प्रति दुर्दमनीय आकर्षण में बाँधता भी है। कहानी चूँकि नाटकीयता के चरम बिन्दु से शुरु हुई है, इसलिए समुद्र की शान्त लहरों पर सवार होकर दोनों का एक शान्त और सम्भावनाशील टापू पर उतरना कथा-विकास की दृष्टि से पूर्णतया अपेक्षित है। अपनी जन्मभूमि भारतवर्ष और पड़ोसी सिंहल-बाली द्वीप से बहुत दूर जिस अपरिचित निर्जनप्रायः द्वीप में बुद्धगुप्त और चम्पा आश्रय लेते हैं, वहाँ पाँच वर्षों के अन्तराल में उन्होंने अपनी विशाल भौतिक दुनिया खड़ी कर ली है। बुद्धगुप्त अब जलदस्यु नहीं रहा, जावा, सुमात्रा, सिंहल आदि-आदि सुदूर द्वीपों तक एक गणमान्य व्यापारी बन गया है जिसकी व्यापारिक सन्धियों की तूती बोलती है। चम्पा के प्रति प्रणय निवेदन करते हुए उसने न केवल उस अनाम द्वीप का नामकरण उसके नाम पर किया है, बल्कि ‘रानी’ के रूप में उसे वहाँ महिमामण्डित भी किया है। चम्पा से विवाह कर भारतवर्ष लौट जाने का सपना संजोए हुए वह इतनी लम्बी अवधि तक उसकी स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहा है। वह जानता है चम्पा के हृदय में शूल की तरह यह बात गड़ गई है कि उसके पिता का हत्यारा जलदस्यु और कोई नहीं, स्वयं बुद्धगुप्त है। वह अनेक बार अपने को निर्दोष साबित करने का प्रयास कर चुका है, लेकिन प्रेम के उद्दाम ज्वार के बावजूद चम्पा उसके कृत्य को नहीं भुला पाती। अनुराग ने चम्पा के हृदय से प्रतिशोध की ज्वाला शान्त कर दी है, लेकिन विश्वासपूर्ण संयुक्त जीवन जीने का विश्वास वह स्वयं को नहीं दिला पाती। एक-दूसरे की दुर्बलताओं और विवशताओं के साथ अपनी-अपनी सीमाओं और महत्वाकांक्षाओं का सम्मान करते हुए वे दो पृथक् जीवन दिशाएँ चुनते हैं।
4. कहानी की अन्तर्वस्तु
कथ्य कभी भी किसी कहानी को कालजयी नहीं बनाता। कथा में विन्यस्त पात्र जब अनायास अपनी मनोग्रन्थियों और मनोवृत्तियों का परत-दर-परत साक्षात्कार करने लगते हैं, और उन्हीं के बीच से जीवन के सनातन प्रश्नों पर विचार करने का हौसला रखते हैं, या विचार-प्रक्रिया के कारण पाठक की चेतना को आन्दोलित करते है।, तभी कहानी जीवन की आख्यायिका न रह कर जीवन की सर्जनात्मक ताकत (लार्जर दैन लाइफ) बन जाती है। आकाशदीप की सबसे बड़ी खूबी यह है कि प्रेम और घृणा के दो मूल तन्तुओं के बीच निरन्तर दोलायमान कहानी अनिश्चयात्मक दुर्बलता में विघटित नहीं होती। सतही तौर पर देखने से लग सकता है कि यह चम्पा के त्याग और कर्तव्यपरायणता की कहानी है, लेकिन गहराई से देखने पर यह बुद्धगुप्त के इस सवाल का जवाब ढूढने का प्रयास है कि ”तुम किस को दीप जला कर पथ दिखलाना चाहती हो?”
कहानी की नायिका चम्पा घर-समाज में दिखलाई पड़ने वाली आम स्त्रियों सरीखी नहीं है। भले ही आत्म-परिचय देते हुए वह बुद्धगुप्त को बताती है कि मातृहीना होने के कारण आठ बरस की आयु से ही अपने प्रहरी पिता के साथ समुद्री नौका में रहती रही है, लेकिन पूरी कहानी में वह हमेशा सौम्य, विवेकशील और कुलीन स्त्री के रूप में दिखाई पड़ी है। स्त्री सरीखी दीनता और हीनता-ग्रन्थि चम्पा का परिचय नहीं। वह पुरुष की शक्ति और प्रेरणा के रूप में जिस प्रकार विन्यस्त हुई है, उससे अपना कमरा (1929) की लेखिका वर्जीनिया वुल्फ का यह कथन अनायास स्मरण हो आता है कि अगर मर्दों द्वारा लिखे कथा साहित्य के अतिरिक्त औरतों का कहीं और अस्तित्व न होता तो उनकी कल्पना अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राणी के रूप में की जाती; अत्यन्त विविधतापूर्ण; बहादुर और अधम; अद्भुत और घिनौनी; अनन्त रूपवती और चरम विकराल काल्पनिक रूप से उसका महत्व सर्वोच्च है; व्यावहारिक रूप से वह पूर्णतया महत्वहीन है। कविता में पृष्ठ दर पृष्ठ वह व्याप्त है, इतिहास से वह अनुपस्थित है।
प्रसाद जानते हैं कि जिस कालखण्ड में वे रचनाकर्म कर रहे हैं, वहाँ अनेक सामाजिक कुरीतियों की जकड़न में जकड़ी स्त्रियों को न स्वतन्त्र निर्णय लेने का अधिकार है, न स्थितियों पर विचार करने की क्षमता। अशिक्षा, पर्दा-प्रथा और वैचारिक जड़ता ने उसे जीवनयापन हेतु पुरुष की अनुकम्पा पर निर्भर एक जैविक इकाई भर बना दिया है। इसलिए प्रसाद अपनी कहानियों को वर्तमान की विभीषिका से दूर अतीत के पट पर ले जाते हैं। राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में अपनी सक्रिय भूमिका निभाते हुए वे भारत के राष्ट्र-राज्य के सांस्कृतिक पुनरुत्थान की बात करते हैं। तत्कालीन सामाजिक कुरीतियों को मुस्लिम आक्रान्ताओं के दुष्प्रभाव से जोड़ कर वे भारतीयों के मन में सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न ‘आर्यावर्त’ की स्मृतियाँ रोप देना चाहते हैं जहाँ स्त्रियाँ विदुषी थीं, आराध्या थीं और स्वतन्त्र थीं। अपने नाटकों में देवसेना से लेकर ध्रुवस्वामिनी तक वे स्त्री को एक सकारात्मक दिशानिर्देशक शक्ति के रूप में महिमामण्डित करते रहे। चम्पा की चारित्रक उद्भावना भी उनके इसी लेखकीय आग्रह का परिणाम है जिस पर सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यासों, विशेषकर देवी चैधरानी और आनन्दमठ का प्रभाव भी देखा जा सकता है।
चम्पा के चरित्र की संरचना घड़ी के पैण्डुलम के समान है – इधर से उधर, उधर से इधर, निरन्तर दो ध्रुववान्तों के बीच दोलायमान। यह गति के बीच अ-गति की स्थिति है, और अपनी सीमाबद्ध नियति को स्वीकारने की त्रासदी भी। तेजोमयता, दृढ़ता और निर्णय लेने की क्षमता चम्पा को विशिष्ट बनाती है। लेकिन मानो यह समुद्र में उठी एक लहर मात्र. है। एक उत्ताल वेग के साथ सिर धुनती हुई दूसरी लहर जब किनारे से टकरा कर रेत में विलीन होती है, तब उसमें द्वन्द्व (निर्णय पर न पहुँच पाने की अक्षमता), कातरता (आत्मविश्वास का अभाव) और आत्म-निर्णय को स्थगित करते चलने की मलिनता दिखाई देने लगती है। तब ‘मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूँगी। वह जहाँ ले जाए’ मणिभद्र की कैद से मुक्ति के तुरन्त बाद कहा गया चम्पा का यह वाक्य उसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया भर नहीं रहता, उसके व्यक्तित्व का मूलाधार बन जाता है।
दरअसल गहन पर्यवेक्षण पर ज्ञात होता है कि चम्पा विलोमों का समुच्चय है। वह कर्मठ और अकर्मण्य, आत्मनिर्भर और पराश्रित एक साथ है। कहानी के प्रारम्भ में कैद से मुक्त होने के लिए बुद्धगुप्त को वही प्रेरित करती है; प्रतिकूल मौसम और अपने शिथिल बन्धनों का लाभ उठा कर मुक्ति की रणनीति भी वही बनाती है; और कप्तान सरीखी नेतृत्वकुशलता के साथ बुद्धगुप्त को ‘पोत से सम्बद्ध रज्जु काट’ लेने का आदेश और शस्त्र वही देती है। यदि उस दिन बुद्धगुप्त की तरह शीत से ठिठुरते हुए नींद में रात काटने की नित्यक्रमिकता चम्पा में भी होती तो कहानी न चम्पा-द्वीप की ओर उन्मुख हुई होती और न दीप-स्तम्भ की स्थापना के इर्द-गिर्द दोनों मुख्य पात्रों की प्रेम-कहानी एक निश्चित परिणति लेती। लेकिन वही चम्पा जब सागर के बीचोंबीच अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को फहराते द्वीप में पाँच बरस बिताने के बाद बुद्धगुप्त से कातर गुहार लगाती है कि ‘मुझे इस बन्दीगृह से मुक्त करो’, तब सवाल उठता है कि यह प्रणयिनी क्या वही जुझारु स्त्री है जो सीमा और अवरोध से डरना जानती ही नहीं थी? तो क्या अब वह अपने ही मनोवेगों से भयभीत है? बुद्धगुप्त के प्रति निरन्तर गहराते प्रेमभाव ने उसे थर्रा दिया है क्योंकि स्वयं को पुत्रीभाव से विमुक्त कर अतीत और भविष्य को एक-दूसरे की संयुक्ति में पढ़़ नहीं पा रही है। जब-जब उसके भीतर प्रेम-ज्वाला प्रचण्डतर होती है, वह उग्रतर होकर प्रतिशोध की बात करती है। ‘जल बिच मीन पियासी’ स्थिति को अपनी नियति की तरह उसने स्वयं अंगीकार किया है। इसलिए आत्मचिन्तन के लीन क्षणों में वह अपनी शंकाओं को नुकीले सवालों की तरह नहीं उठाती, निर्णय में ढाल कर अपने को मजबूत बनाए रखने का यत्न करती है। ”इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बुझी। पी सकूँगी? नहीं! तो जैसे बेला से चोट खाकर सिन्धु चिल्ला उठता है, उसी के समान रोदन करूं? या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनन्त जल में डूब कर मर जाऊँ?”
प्रसाद की विशेषता है कि वे प्रकृति को वातावरण सृष्टि हेतु गौण उपादान की तरह कहानी में उपस्थित नहीं करते, बल्कि पात्रों के सूक्ष्म मनोभावों की चाक्षुष अभिव्यक्ति हेतु उन्हें बिम्बों में ढाल देते हैं। यह ठीक वही कौशल है जो कामायनी में अपने पूरे वैभव के साथ दिखाई पड़ता है। सांकेतिकता और वचन-विपर्यतता प्रसाद की एक अन्य विशिष्टता है जिसके सहारे वे स्वयं को भाषा की सीमा से मुक्त कर पात्रों के व्यक्तित्व की संश्लिष्ट अन्तःपरतों को बुनने लगते हैं। चम्पा का चरित्र ऐसी ही सांकेतिकताओं के जरिए पुष्ट आकार ग्रहण करता है। दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं। चम्पा बुद्धगुप्त से घृणा करने के लिए दो कारण गढ़ती है। पहला यह कि बुद्धगुप्त उसके पिता का हत्यारा है, और दूसरा यह कि दस्युवृत्ति छोड़ देने के बावजूद वह अपने को परिमार्जित नहीं कर पाया है। ‘तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी, परन्तु हृदय वैसा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है।’ वास्तविकता यह है कि कमनीयता और औदार्य के तमाम आवरणों के नीचे स्वयं चम्पा ही अकरुण, सतृष्ण और ज्वलनशील है। प्रेम (रमणीभाव) ने उसकी कामनाओं को उद्दीप्त किया है; प्रतिशोध (पुत्रीभाव) ने कर्तव्यपालन को सम्वेदनात्मक विवेक से विच्छिन्न कर हृदयहीन बना दिया है; और इन दोनों के विपरीत प्रभावों तले वह तिल-तिल जल रही है। वस्तुतः बुद्धगुप्त ने उसे नहीं बाँधा है। वह स्वयं उसके प्रेम में ‘बँध’ कर एक फरियाद की तरह उसके पैरों पर गिरा पड़ा है। चम्पा स्वयं अपने मनोविकारों की जकड़न में फँसी हुई है। मुक्ति का मार्ग उसके भीतर से प्रशस्त होगा, वह जानती है, लेकिन मुक्ति के स्वरूप को आकार देने का प्रयास नहीं करती।
प्रश्न उठता है कि कहानी के आरम्भ में भौतिक कैद से मुक्ति हेतु रणनीति बनाने वाली चम्पा क्यों अपनी मानसिक-भावनात्मक मुक्ति की रूपरेखा नहीं बना पाती? क्या इसके लिए लेखकीय पूर्वग्रह या उनके युग की स्थितियाँ उत्तरदायी हैं? स्पष्ट उत्तर है, हाँ। सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी आन्दोलन आदर्श भारतीय स्त्री को महिमामण्डित करता हुआ जिस उच्चतम सोपान पर स्थापित करता है, वह वस्तुस्थिति का एक सच है। लेकिन उसी के समानान्तर एक दूसरा सच भी उतनी ही कुशलता से बुना गया है। जो स्त्री के समग्र व्यक्तित्व को पुरुष-सापेक्ष अनेक भूमिकाओं में विभाजित कर उसे पत्नी, पुत्री, बहन और गृहिणी के रूप में पुरुष-हित की कीली पर घूमने को प्रेरित करता है। परम्परा-अनुमेादित इन भूमिकाओं एवं परिवार की परिधि से बाहर आकार लेने वाली किसी भी भूमिका में प्रेमिका का कोई स्थान नहीं। इसलिए जिस क्षण वह बुद्धगुप्त के सान्निध्य के लिए सबसे अधिक व्यग्र होती है, अथवा आलिंगन-चुम्बन के जरिए अपने स्त्री-व्यक्तित्व को समग्रता में ‘जीने’ की उत्कण्ठा से तड़प उठती है, ठीक उसी पल खांचों में बँटी भूमिकाएँ आप्लावनकारी दबाव के साथ उसकी निजता का गला घोंटने चली आती हैं। ईश्वर और पारिवारिक सम्बन्ध उसके परित्राण के लिए चले आते हैं, और तब अपनी ही गति के विपरीत चल कर वह अपने इर्द-गिर्द वर्जना की गगनचुम्बी दीवारें चुनने लगती है- ”तुम भगवान के नाम पर हंसी उड़ाते हो। मेरे आकाशदीप पर व्यंग्य कर रहे हो। नाविक! उस प्रचण्ड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने व्याकुल थे। मुझे स्मरण है, मैं जब छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे- मेरी माता मिट्टी का दीपक बांस की पिटारी में भागीरथी के तट पर बांस के साथ ऊँचे टांग देती थी। उस समय वह प्रार्थना करती, ‘भगवान! मेरे पथभ्रष्ट नाविक को अन्धकार में ठीक पथ पर ले चलना।’ और जब मेरे पिता बरसों पर लौटते तो कहते, ‘साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवान ने भयानक संकटों में मेरी रक्षा की है।’ वह गदगद हो जाती। मेरी मां! आह नाविक! यह उसी की पुण्य स्मृति है।”
तब प्रतीत होता है कि चम्पा को स्त्री और द्वीप दो जगह रख कर प्रसाद एक ही निष्कर्ष की ओर बढ़ रहे हैं। चम्पा द्वीप जीवन के प्रवाह के बीचोंबीच स्थित होकर भी जीवन के स्पन्दन से कटा है। उसकी उर्वर सम्भावनाएँ न किसी प्राणी की दृष्टि में पड़ी हैं, न बुद्धगुप्त सरीखे नायकों को वह अपना निवासी बना कर एक नई सभ्यता-संस्कृति के उन्नयन का स्वप्न देख सकता है। बुद्धगुप्त की जीवन-यात्रा के उन्नयन के लिए वह द्वीप एक पड़ाव भर है; अनदेखा और अनएक्सप्लोर्ड होने के कारण आकर्षण का केंद्र बिन्दु। ठीक इसी तरह चम्पा के भीतर भी तमाम इंद्रधनुषी रंगों और मोहक सपनों के साथ जीवन धड़कता है, लेकिन उसे सामाजिक संघर्ष देकर वह समृद्ध नहीं करती। वर्जना के अन्धेरों से निर्मित हठधर्मिता ने उसे स्थिर पात्र बना दिया है। प्रसाद की विशेषता है कि इसी स्थिर जल में डोंगी तिरा कर वे लम्बी यात्रा कर आने की अनुभूति पाठक को देते हैं। इसलिए आकाशदीप एक रोमैण्टिक कथा की सारी विशिष्टताओं से सम्पन्न है। शौर्य, प्रेम, त्याग, वीरता, ओज, दृढ़ता, कल्पना, काव्यात्मकता और सौन्दर्य-पश्चिमी साहित्य के रोमाण्टिसिज्म की कतिपय विशेषताएं हैं जो गद्य में गीति-काव्य की सृष्टि करते हुए अन्त-बाह्य प्रकृति के बीच संचरण करती हैं। बुद्धगुप्त का घुटनों के बल बैठ कर छलछलाती आँखों से प्रणय याचना करना अंग्रेजी साहित्य के सामन्ती लार्ड की याद दिलाता है। भावुकता विवेक द्वारा अनुशासित रहे तो संवेदनशीलता का रूप लेकर व्यक्ति के नैतिक-मानसिक व्यक्तित्व का विकास करती है, लेकिन यदि वह क्षणिक उत्तेजना में बह कर संयम से दूर निकल जाए तो व्यक्तित्व को लिजलिजा और विघटनशील बना देती है। इसलिए एक सुनियोजित क्रमिकता के साथ कहानी में उत्तरोत्तर चम्पा का व्यक्तित्व विघटित होता चलता है। उसका धूप की तरह निखरा ओजपूर्ण ओजस्वी व्यक्तित्व क्रमशः ओस की तरह कुम्हलाने लगता है। अति भावुकता हठ से चल कर आत्मप्रवंचना, आत्माभिमान और पलायन तक पहुँचती है और अन्ततः आत्मदमन में आत्मसार्थकता तलाश कर अपने को शून्य कर लेती है। यह वह स्थल है जहाँ चम्पा प्रेम की सिन्दूरी छटा और प्रतिशोध की रक्तिम उत्कण्ठा को सही-सही पहचान नहीं पाती। जीवन का आलम्बन बुद्धगुप्त बार-बार ‘जलदस्यु’ की छवि ग्रहण कर उसके सामने आता है, और मानो अपने घाव को नासूर बनाए रखने के लिए वह उसे ‘जलदस्यु’ नाम से ही सम्बोधित करती है। भारतीय सांस्कृतिक परम्परा मुदित भाव से परकीया प्रेम का चित्रण अवश्य करती है, लेकिन गार्हस्थिक प्रेम की तुलना में उसे रत्ती भर भी महत्व नहीं देती। परकीया प्रेम बिछोह में ही पूर्णता, सौन्दर्य और स्वीकृति पाता है। इसलिए कथा के उत्तरोत्तर विकास के साथ-साथ प्रसाद चम्पा से उसके चरित्र की वे सभी मूलभूत सकारात्मकताएँ छीन लेते हैं जो उसे सुदृढ़ तेजोमय ‘मनुष्य’ बनाती हैं। इसके स्थान पर धीरे-धीरे जो स्त्री उभरती है, वह द्वन्द्वग्रस्त और कमजोर है। आँसू और नियतिबद्धता उसकी थाती हैं। ‘मैं तुम्हें घृणा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ। अन्धेर है जलदस्यु! तुम्हें प्यार करती हूँ। चम्पा रो पड़ी।’
अपने हाथों से अपने चारों ओर बाड़ाबन्दी करती यह स्त्री परम्परा से चली आ रही इस मान्यता को भी पुष्ट करती है कि स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य को कोई नहीं जानता। रहस्यमयी स्त्री के अन्तर्मन को स्वयं विधाता भी नहीं जानता। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रसाद ने चम्पा का उपयोग स्त्री अर्थात् मनुष्य के अन्तर्मन को जानने के लिए नहीं किया, बल्कि उसके जरिए आदर्श स्त्री छवि की सैद्धान्तिकी को गढ़ने का प्रयास किया है। यही कारण है कि महिमामण्डन के छद्म को बींध कर देखें तो चम्पा न स्वतःस्फूर्त जीवन का पर्याय दिखाई पड़ती है, न विकसनशील पात्र। वह लेखक की महत्वाकाँक्षाओं की शिकार एक त्रासदी मात्र है।
चम्पा के व्यक्तित्व के सृजन के लिए लेखक ने आकाशदीप प्रतीक का भी सोद्देश्यपूर्ण ढंग से उपयोग किया है, हालांकि यह प्रश्न अपनी जगह खड़ा होकर अभी भी जवाब माँग रहा है कि ‘तुम किस को दीप जला कर पथ दिखलाना चाहती हो?’ प्रसाद इस सवाल का जवाब नहीं देते। सवाल की नुकीली चुभन से कन्नी काट कर वे चम्पा की ऐकान्तिक साधना को आकाशदीप के औदात्य में प्रतिष्ठित करते हैं, और पुरस्कारस्वरूप उसे ”माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी” के रूप में जन-सामान्य में पूजित-अर्चित दिखाते हैं। मानो यहाँ आकर लेखक का मनोरथ पूर्ण हो गया हो और परिवार-समाज में स्त्री की महनीय भूमिका को उसने भलीभान्ति व्याख्यायित कर दिया हो।
मैं कहानी में चम्पा के ठोस से ठस्स होते व्यक्तित्व-विघटन की क्रमिक प्रक्रिया की साक्षी हूँ। चूँकि लेखकीय मन्तव्यों के पीछे युगीन सांस्कृतिक पुनरुत्थानवादी दबावों को जानती हूँ, इसलिए आदर्श भारतीय स्त्री के रूप में गढ़ी गई उस छवि को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पा रही हूँ। कर्मठ, तेजतर्रार, संकल्पदृढ़ आत्माभिमानिनी स्त्री का यूं क्रमशः छीजते चलना मुझे भयभीत करता है। खासतौर पर तब जब आश्रयदाता मणिभद्र के घृणित प्रस्ताव को सुन कर जी भर गालियाँ देने और उसकी अंकशायिनी बनने की बजाय बन्दिनी बनने के विकल्प को वह स्वयं स्वीकारती है। तब यह कैसे सम्भव है कि प्रेम और स्वाभिमान दोनों की अलग-अलग रंगत को पहचानने वाली वह स्त्री समर्पण के नाम पर पलायन को गले लगाए? चम्पा के अवसाद और द्वन्द्व तले मुझे उसकी दिशाहारा कातरता दीखती है जो इतनी लिजलिजी है कि अपनी अन्तःशक्तियों का संचयन करने के बावजूद दार्शनिकता के धरातल का संस्पर्श नहीं कर सकती। लेकिन लेखक उसे एक झटके के साथ इस नश्वर संसार के व्यामोह से मुक्त कर ईश्वरावतार के किसी रूप में आविर्भूत कर देता है। स्मृति में जगत् मिथ्या के साथ ब्रह्म सत्य का सिद्धान्त और ‘अहं ब्रह्मस्मि’ का उद्घोष कौंधने लगता है। द्वन्द्वग्रस्त, शंकित, कातर चम्पा ने एक साथ आध्यात्मिक दृढ़ता के कई सोपानों का आरोहण कर लिया है। इसलिए ”सहसा चैतन्य होकर चम्पा ने कहा, बुद्धगुप्त मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है, सब जल तरल है, सब पवन शीतल है। कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं। सब मिला कर मेरे लिए एक शून्य है। प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्राणियों के दुख की सहानुभूति और सेवा के लिए।” चम्पा के चरित्र का यह यू-टर्न गोदान की मालती का स्मरण कराता है। प्रेमचन्द और प्रसाद चूँकि दोनों एक ही युग की संघर्ष-गाथा के गायक हैं, और अपनी भिन्न-भिन्न दृष्टियों के बावजूद युगनायक गान्धी के प्रभाव से अछूते नहीं रहे हैं, इसलिए अस्वाभाविक नहीं कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में वे स्त्री की भागीदारी को सेवा और त्याग की मूर्ति के रूप में सुनिश्चित करें। प्रणय को समाजसेवा और राष्ट्रप्रेम की परिधि में बान्ध कर प्रसाद ने प्रेमचन्द की तरह स्त्री को मनुष्य रूप में नहीं, स्त्रियोचित मूल्यों की धारक-शक्ति के रूप में चित्रित किया है। स्त्री जानती है कि जिन मूल्यों को स्त्री के जीवन की सार्थकता का नाम देकर महिमामण्डित किया जाता है, उन्हें वह आत्मप्रवंचना, आत्मदमन और आत्मपीड़न के बिना प्राप्त नहीं कर सकती। शायद इसीलिए आदर्श भारतीय स्त्री की ओर से परम्परा-अनुमोदित इन कटाक्षों के विरोध में कभी कोई स्वर नहीं उठाया गया।
चम्पा के ठीक विपरीत है बुद्धगुप्त की चारित्रिक संरचना। दुर्दांत जलदस्यु से सफल व्यापारी; संवेदनहीन क्रूर हत्यारे से संवेदनशील प्रणयी की भूमिका में उसके व्यक्तित्व का उत्तरोत्तर विकास हुआ है। कहानी में दुर्दांत जलदस्यु के रूप में उपस्थित होने के बावजूद कथा के प्रारम्भिक दौर में चम्पा के समक्ष वह बौना और व्यक्तित्वहीन है। ‘अपनी महिमा में अलौकिक’ वह तरुण बालिका उसके लिए श्रद्धा और विस्मय की वस्तु है। चम्पा के प्रेम में उन्मत्त वह युवक प्रत्यक्षतया चम्पा को पत्नी रूप में पाना चाहता है, लेकिन लेखक ने दोनों के सम्बन्ध को इस रूप में बुना है कि चम्पा के सान्निध्य में वह निरन्तर अपने नए-नए रूप अन्वेषित करता चलता है। ‘वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्तु का पता चला। वह थी कोमलता।’ हत्या-व्यवसायी दस्यु अपने भीतर ‘मनुष्य’ को साबुत पाकर आह्लादित क्यों न हो? यहाँ से बुद्धगुप्त के व्यक्तित्व की आरोहण-यात्रा शुरु होती है और ‘आदर्श पुरुष’ की पूर्णता को प्राप्त करती है। बलवान, कठोर पराक्रमी, उद्यमी, प्रजापालक, वत्सल, आश्रयदाता, सृष्टि-नियन्ता, महत्वाकाँक्षी और साथ-साथ उन्मत्त प्रणयी- बुद्धगुप्त युगीन परिस्थितियों के अनुरूप आदर्श पुरुष की अर्हताओं को सुपरिभाषित करता है। बुद्धगुप्त के चरित्र को दो विलोम युग्मों- बुद्धगुप्त-मणिभद्र एवं बुद्धगुप्त-चम्पा के जरिए अधिक स्पष्ट ढंग से समझा जा सकता है। पहला युग्म बुद्धगुप्त-मणिभद्र का है। पोताध्यक्ष मणिभद्र नाव का स्वामी एवं वणिक है। जलदस्यु की तुलना में सम्मानजनक व्यवसायी एवं सम्भ्रान्त कहलाया जाने वाला नागरिक। अपने जलपोत पर कितने ही कर्मचारियों को नौकरी देने के कारण वह अनेक परिवारों को भौतिक आश्रय प्रदान करता है। लेकिन उसकी मनोवृत्तियाँ किसी दस्यु से कम नहीं। चम्पा के सामने वासनापूरित घृणित प्रस्ताव रखना और चम्पा द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाने पर उसे बन्दी बनाना ताकि दबाव डाल कर जबरन अपनी मनोकाँक्षा पूरी कर सके। ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जो मनुष्य के तौर पर मणिभद्र की गरिमा और विश्वसनीयता को शून्य करते हैं। प्रेम के स्थान पर वासना, और विश्वास के स्थान पर आतंक उसकी कार्यशैली के मूल तन्तु हैं। फलतः वह चम्पा और पाठक दोनों के हृदय में समान भाव से घृणा और क्षोभ पैदा करता है। उसके ठीक विपरीत बुद्धगुप्त है। वह भी चम्पा को अपने जीवन की धुरी बनाना चाहता है, लेकिन चम्पा को ‘वस्तु’ समझ कर बलपूर्वक ग्रहीत नहीं करता, उसे मनुष्य का दर्जा देकर उससे प्रेम-प्रस्ताव स्वीकार करने की याचना करता है। उसका यह कृत्य दूसरे को सम्मान देने के बड़प्पन से उभरा है। इसलिए प्रेम उसके लिए भोग का पर्याय नहीं बनता, एक-दूसरे के सन्दर्भ में विश्वास और हार्दिकता का प्रसार करने की प्रक्रिया बनता है। यही कारण है कि मणिभद्र की आँखों में अपने लिए लालसा के डोरे देख चम्पा गालियाँ बकने लगती है तो बुद्धगुप्त की आँखों में उसे अनुराग की तरल लालिमा ही दिखाई पड़ती है। अनुराग का प्रत्युत्तर गहन राग ही होता है। मणिभद्र का आचरण जहाँ उसके उद्धत लम्पट अहं को प्रखरतर करता चलता है, वहीं बुद्धगुप्त एक गरिमामय, संवेदनशील, स्वप्नदर्शी मनुष्य के रूप में उभरता है।
बुद्धगुप्त की ये चारित्रिक विशेषताएं चम्पा के साथ विलोम-युग्म में और अधिक प्रखरता से खुलती हैं। निर्जन चम्पा द्वीप पर आश्रय लेकर पाँच बरस की अवधि में बुद्धगुप्त ने अपने भीतर और बाहर को पूरी तरह से पुनर्सृजित किया है। वह अधिक संवेदनशील ही नहीं हुआ, विचारशील भी हुआ है और आत्मसाक्षात्कार कर ‘मनुष्य’ के रूप में अपना परिचय पाने को उत्कण्ठित भी हुआ है। वह स्वीकार करता है कि ‘बहकी हुई तारिका के समान’ उसके शून्य में उदित हुई चम्पा ‘अ-शोक की तरह एक कोमल रेखा’ है जिसका सान्निध्य पाकर उस सरीखे ‘पशुबल और धन के उपासक के मन में किसी शान्त और कान्त कामना की हँसी खिलखिलाने लगी’ है। लेकिन इस स्वीकार से कहीं अधिक मूल्यवान है अपनी अज्ञानता का स्वीकार कि फिर भी ”मैं न हँस सका”। लेखक बुद्धगुप्त की इस अक्षमता के कारणों का विश्लेषण नहीं करते, उसे साधक की भूमिका में उतार कर पाठक से स्वतः ही सभी संकेत समझने का आग्रह करते हैं। बुद्धगुप्त चाहता तो निर्जन द्वीप में चम्पा की देह पर आसानी से आधिपत्य जमा सकता था, लेकिन वह मणिभद्र नहीं बनना चाहता। इसलिए उसके सामने दोहरी चुनौती है- चम्पा के प्रेम के साथ-साथ विश्वास को भी जीतना। एक प्रतिष्ठित धनी व्यापारी के रूप में कमाई गई लौकिक उपलब्धियाँ उसके बदले नजरिए की सूचक अवश्य हैं, लेकिन चम्पा के बिना मानो वे अकारथ हैं। सिंधु की लहरों पर शासन करने वाला यह पराक्रमी वीर अपनी इस इकलौती पराजय पर व्यथित है कि चम्पा के निगूढ़ विश्वास को क्यों अपनी एकाकी साधना के बावजूद जीत नहीं पाया।
प्रसाद की विशेषता है कि वे घटनाओं के जरिए नहीं, चरित्रों के घात-प्रतिघात से उत्पन्न नाटकीय स्थितियों के जरिए कथा को उत्कर्ष की ओर ले जाते हैं। चूंकि कहानी की संरचना पूरी तरह से नाटकीय है, अतः नाटक की कार्य अवस्थाएं यहाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। आरम्भ तथा कार्यविकास के बाद कहानी में नाटक की तीसरी कार्यावस्था द्वन्द्व है। नायक और नायिका दोनों ही अन्तर्द्वन्द्व से घिरे एक-दूसरे को समाधान की आशा में ताक रहे हैं। यह चरमोत्कर्ष का बिन्दु भी है। प्रेमाकाँक्षा उनके भीतर का सत्य है, लेकिन प्रेम में लय होने की साध अभी कोसों दूर है। कहानी की भान्ति पाठक का कौतूहल भी चरम पर है। परिणति की अधीर प्रतीक्षा! अपने द्वंद्व को परे ठेल कर द्वीप पर ही बने रहने का चम्पा का निर्णय – ”प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ” – चौथी कार्यावस्था निगति के रूप में कथा में प्रविष्ट होता है। बुद्धगुप्त और चम्पा की भान्ति पाठक भी जानता है कि दरअसल यह चम्पा का ठोस निर्णय नहीं है, पहले की भांति चित्त की ढुलमुल उद्विग्न अवस्था का ही संकेतन है। लेकिन प्रसाद यहाँ से सूत्र उठा कर अपने नायक को उर्ध्व दिशा की ओर ले चलते हैं। चम्पा का द्वन्द्वग्रस्त, विकल्पहीन बना रहना जितना स्वाभाविक है, बुद्धगुप्त का उतना ही अस्वाभाविक और अस्वीकार्य भी। इसलिए अपनी कर्मण्यता और पराक्रम के बावजूद कुहासे में लिपटा बुद्धगुप्त का चरित्र अनायास परत-दर-परत खुलने लगता है। वह वर्तमान के क्षण पर अपनी पूरी जिन्दगी न्यौछावर नहीं कर सकता। अतीत उसे पैरों तले परम्परा और इतिहास की सुदृढ़ जमीन की चेतना देता है जिस पर भविष्य के स्वर्णिम आसमान का आच्छादन उसे स्वयं करना है। इसलिए पहली बार ताम्रलिप्ति का वह क्षत्रिय अपनी मातृभूमि का अभिषेक करने के लिए विकल होता है- ”स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है।” परम्परा से जुड़ने का यह क्षण उसे चम्पा के सम्मोहन से मुक्त भी करता है। प्रेम हृदय की निजी अनुभूति न रह कर देशप्रेम के उदात्त धरातल का संस्पर्श कर लेता है। यह वही मनोभूमि है जहाँ प्रसाद के नायक व्यक्ति इकाई न रहकर राष्ट्रप्रेम के प्रतीक बन जाते हैं। ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ और ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ जैसे गीत उनकी दिशा और गति का परिचय बन जाते हैं। स्पष्ट है कि यहाँ बुद्धगुप्त के चरित्र में लक्ष्योन्मुख प्रखर सामाजिक दृष्टि समाविष्ट होती है जो उसके व्यक्तित्व को सूर्य-सा केन्द्रीय रूप देती है। बुद्धगुप्त के मुकाबले चम्पा बेहद कमजोर है और अति भावुकता में लिया गया निर्णय उसकी नियति बन जाती है, जबकि उसके ठीक विपरीत यह वह बिन्दु है जहाँ प्रतिकूलताओं और विडम्बनात्मक स्थितियों से जूझ कर बुद्धगुप्त अपने जीवन का नियंता स्वयं बन बैठता है।
5. निष्कर्ष
कहानी की मूल संवेदना को समझने के लिए कहानी के दो संवादों को एक-दूसरे के बरक्स रखना होगा। पहला संवाद चम्पा द्वारा नियति का अवश स्वीकार है – ”पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तम्भ पर से आलोक जला कर अपने पिता की समाधि का इस जल में अन्वेषण करूँगी। किन्तु देखती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाशदीप।” दूसरा संवाद बुद्धगुप्त का सवाल है – ”तुम किसको दीप जला कर पथ दिखलाना चाहती हो?” बुद्धगुप्त के संवाद में उपहास और क्षोभ की ध्वनियाँ बुनी जान पड़ती हैं, लेकिन कहानी का पाठ करने के बाद यह सवाल चुनौती और अवसाद की दो भिन्न प्रतीतियों के साथ कथा-पात्रों को अपनी गिरफ्त में लेता दीख पड़ता है। बुद्धगुप्त ने इसे चुनौती के रूप में ग्रहण किया है। चम्पा के प्रेम, निष्ठा, समर्पण के आलोक में वह भीतर के अन्धेरे बीहड़ की दूर तक यात्रा कर आया है, और उसी से प्रेम का छोटा-सा दीपक लेकर भीतर का पथ आलोकित भी कर सका है। भटके हुओं को राह दिखाना बेशक महनीय कार्य है, लेकिन व्यक्ति आकाशदीप की तरह निष्प्राण स्तम्भ नहीं होता। सबसे पहले उसे अपने भीतर के अन्धेरे को आलोक के सहारे विनष्ट करना पड़ता है। तभी अपनी ज्योतिर्मयी दृष्टि से वह वैचारिक-मानसिक जड़ता के अंधेरे को नष्ट कर सकेगा, अन्यथा समुद्र के खारे-कुतरते जल में अविचल खड़ा रह कर उम्र के बीत जाने का इन्तजार करता रहेगा। अपने संकुचित दायित्वों के साथ बेशक आकाशदीप की भूमिका गौण नहीं, लेकिन जब व्यक्ति में असीम हो उठने की सम्भावनाएं हों तो अपना क्षैतिजिक विस्तार उसे करना ही चाहिए। चम्पा में आत्मसाक्षात्कार करने तथा विकसित करने की क्षमता का अभाव है। बुद्धगुप्त की हताशा और चम्पा के अवसाद का यही एकमात्र कारण है। लेखक ने आकाशदीप को सेवा और त्याग के एक रूपक में केन्द्रीय महत्व दिया है, लेकिन उन्हीं का पात्र बुद्धगुप्त उसे संकुचित परिधि से मुक्त कर विस्तीर्ण दिशा और गति देना चाहता है। जाहिर है तब यह कहानी चम्पा के आत्मनिर्वासन की ठहरी हुई सीलन भरी कहानी नहीं, बुद्धगुप्त के व्यक्तित्व-विकास और आत्मान्वेषण की प्रखर ऊर्ध्वगामी कहानी बन जाती है।
अतिरिक्त जानें
पुस्तकें
- हिन्दी कहानी प्रक्रिया और पाठ,सुरेन्द्र चौधरी,राधाकृष्ण प्रकाशन, नईदिल्ली
- हिन्दी कहानी का इतिहास, गोपालराय, राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली
- आज की कहानी, विजयमोहन सिंह,राधाकृष्ण, प्रकाशन, नईदिल्ली
- हिन्दी कहानी:अन्तरंग पहचान, रामदरश मिश्र,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
- कहानी पहचान और परख, डॉ.इन्द्रनाथ मदान,लिपि प्रकाशन,
- कहानी स्वरुप और संवेदना, राजेन्द्र यादव, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%9C%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6
- http://www.hindisamay.com/kahani/akashdeep.htm
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%AA
- http://hi.bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%86%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%AA_-%E0%A4%9C%E0%A4%AF%E0%A4%B6%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B0_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6