23 उसने कहा था

प्रो. देवेन्द्र चौबे and सिम्मी चौहान

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. कहानी का कथासार  
  4. कहानी का उद्देश्य
  5. कहानी का शिल्प
  6. निष्कर्ष
  1. पाठ का उद्देश्य

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के कहानी कला से परिचित हो पाएँगे।
  • कहानी के माध्यम से प्रेम के नए स्वरूप से अवगत हो पाएँगे।
  • कहानी के शिल्प को समझ पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना

 

चन्द्रधर शर्मा गुलेरी बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के महत्त्वपूर्ण कहानीकार हैं। वे प्रकाण्ड विद्वान, भाषा मर्मज्ञ तथा गम्भीर शोधकर्त्ता हैं। ऐसा व्यक्ति किशोर वय के प्रेम की कहानी भी लिख सकता है, इसका सहसा हमें विश्‍वास नहीं होता। फिर जिस व्यक्ति ने सिर्फ तीन ही कहानियाँ लिखी हों, वह भी हिन्दी कहानी के प्रारम्भिक दौर में विस्मयकारी प्रतीत होता है। उसने कहा था  कहानी हिन्दी की उस दौर की प्रतिनिधि पत्रिका सरस्वती  में प्रकाशित हुई थी। प्रकाशित होते ही यह कहानी चर्चित हो गई। यह चर्चा हिन्दी कहानी की दुनिया में आज भी जारी है। भारत के जिन विश्‍वविद्यालयों में हिन्दी कहानी पढ़ाई जाती है, वहाँ उसने कहा था  कहानी भी अवश्य पढ़ाई जाती है। इस कहानी की केन्द्रीय संवेदना प्रेम तथा विश्‍वास की भावना है। उसने कहा था  कहानी युद्ध की पृष्ठभूमि पर रचे कथा–विन्यास में सम्बन्धों के विश्‍वास को रेखांकित करती है। किशोरावस्था का सहज आकर्षण पवित्र स्‍नेह-सम्बन्ध में परिणत होकर भावों के संसार में डूबता-उतरता विशुद्ध कर्त्तव्य भावना का रूप धारण कर लेता है।

 

3. कहानी का कथा सार

 

उसने कहा था कहानी का आरम्भ अमृतसर के एक बाजार से होता है। अमृतसर के बम्बू-कार्ट बाजार का वातावरण निर्मित करती हुई कहानी आगे बढ़ती है। ऐसे बम्बू-कार्ट की भीड़-भाड़ से होकर एक 12 वर्षीय लड़का और 8 वर्षीय लड़की चौक की दुकान पर आ मिलते हैं। दोनों सिख हैं।  लड़का अपने मामा के केश धोने के लिए दही और लड़की रसोई के लिए बड़ियाँ लेने आई है। दोनों की बातचीत परिचय से आगे बढ़ती है, तो ज्ञात होता है कि दोनों अपने मामा के यहाँ रहते हैं। लड़का, लड़की से पूछता है ‘तेरी कुड़माई हो गई’? लड़की धत् कह कर भाग जाती है। उनके मिलने का यह सिलसिला कभी सब्जी वाले के यहाँ, कभी दूध वाले के यहाँ, कभी कहीं, एक माह तक चलता रहता है। लड़का हर बार उसी तरह वही सवाल पूछता है ‘तेरी कुड़माई हो गई?’ लड़की वही जवाब देती है धत्। इस तरह यह पूछने और बताने में ही उनके बीच एक अनकहा मधुर सम्बन्ध आकार लेने लगता है, जिसे अपनी अल्पवय के कारण दोनों ही नहीं समझ पाते। एक दिन इसी तरह मिलने पर जब लड़का कुड़माई के बारे में पूछता है, तो लड़की विश्‍वासपूर्वक जवाब देती है कि ‘हाँ हो गई’, “कब?” कल, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।” (तेईस हिंदी कहानियाँ, पृष्ठ -26, सम्पादक ,जैनेन्द्र कुमार , लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद -1, पृष्ठ-28) लड़के को इस उत्तर से आघात लगता है। वह इसे ठीक-ठाक समझ नहीं पाता किन्तु उसकी मनोदशा बदल जाती है और वह गुस्से में अपने रास्ते में आने वालों से बेवजह झगड़ पड़ता है। यह बैचेनी उसकी मनोदशा को प्रकट करती है।

 

कहानी का दूसरा भाग इस घटना के लगभग 25 वर्ष बाद की घटनाओं से जुड़ा हुआ है। यह काल प्रथम विश्‍वयुद्ध का है। फ्रांस में भारतीय सैनिक इंग्लैण्ड की ओर से जर्मनी के विरुद्ध लड़ने के लिए तैनात है। इस फौज में लहनासिंह, सूबेदार, हजारासिंह, बजीरासिंह, बोधासिंह आदि पात्रों का परिचय मिलता है। आगे की घटनाओं से मालूम पड़ता है कि लहनासिंह वही है जो पहले भाग में बालक के रूप में मौजूद था। किन्तु कहानीकार इस बात का खुलासा यहाँ नहीं करता। वरन् दूसरे भाग से कहानी बिल्कुल नए धरातल पर आगे बढ़ती है। यहाँ युद्ध के मैदान की स्थिति का चित्रण किया गया है।

 

कहानी का यह काल प्रथम विश्‍व युद्ध का है। कहानी के पात्रों के लिए यह एक तरफ तो विश्‍व युद्ध है, जिसमें सूबेदारनी का पति और बेटा तथा लहनासिंह युद्ध के मोर्चे पर तैनात हैं, दूसरी तरफ उनकी भावनाओं का, आपसी विश्‍वास की परीक्षा का भी युद्ध है। कहना मुश्किल है कि लहनासिंह प्रथम विश्‍वयुद्ध में अंग्रेजों की तरफ से लड़ रहा है या सूबेदारनी के पति और पुत्र की रक्षा का युद्ध लड़ रहा है। कहानी की खूबसूरती यह है कि यह दूसरा युद्ध ज्यादा मर्मान्तक है। लहनासिंह की मृत्यु प्रथम युद्ध में नहीं होती, बल्कि दूसरे युद्ध में होती है। रिश्तों के विश्‍वास को बचाने के लिए होती है।

 

कहानी में युद्ध का वर्णन बड़ी सूझबूझ और तटस्थता से किया हुआ है। लेखक ने कहीं भी युद्ध का समर्थन नहीं किया है। सिर्फ युद्ध की भयावहता का दृश्य चित्रित किया गया है । चूँकि कहानी का नायक अंग्रेजों की तरफ से लड़ रहा है, इसलिए अंग्रेजों का समर्थन दिखाई देता है। वैसे यह समर्थन भी अंग्रेजों का नहीं है, वरन् उस भारतीय फ़ौज का समर्थन है जो अंग्रेजों की तरफ से लड़ रही है और जिसमें उसने कहा था का नायक लड़ रहा है। इस प्रकार प्रथम युद्ध की भयावहता लहनासिंह के भावनात्मक युद्ध के रंग को गाढ़ा करता है।

 

तीसरे भाग व चौथे भाग में कहानी फिर एक नया मोड़ लेती है। पहले दो भाग केवल कहानी की पृष्ठभूमि और उसके पात्रों के परिचय से जुड़े हुए हैं। इन दोनों भागों में कथावस्तु का विकास होता है। यहाँ लहनासिंह का बोधासिंह के प्रति अपनापन व लगाव दिखाई देती है। इस लगाव और दुलार की सीमा इतनी है कि लहनासिंह, बोधासिंह की  न केवल देखभाल करता है बल्कि उसकी पहरा देने की ड्यूटी भी खुद ही करता है। कहानी में एक नये पात्र का प्रवेश होता है जो खुद को लपटन साहब बतलाता है। वह हजारासिंह को आदेश देता है कि वह एक मील आगे पचास जर्मन सैनिकों की टुकड़ी पर धावा बोले और इसके लिए वह दस सैनिकों को छोड़कर शेष सभी को अपने साथ ले जाए। बोधासिंह की बीमारी के कारण सूबेदार की इच्छा समझकर लहनासिंह वहीं खन्दक में रुक जाता है। इसी दौरान लपटन साहब से बातचीत के दौरान लहनासिंह समझ जाता है कि यह अंग्रेज अफसर नहीं, वरन् कोई जर्मन जासूस है। लहनासिंह समझदारी  से काम लेता है और उस बहरूपिये पर हमला कर उसे बेहोश कर देता है। इसी समय 70 जर्मन उस खाई पर हमला बोल देते हैं। लहनासिंह वीरतापूर्वक सबका सामना करता है और वजीरासिंह को पीछे की ओर से भगा कर सूबेदार को सूचित करने के लिए भेज देता है। दूसरी ओर हजारासिंह की टुकड़ी भी पहुँच जाती है और इस तरह दोनों ओर से घिर जाने के कारण जर्मन सैनिकों का सफाया हो जाता है। इस लड़ाई में लहनासिंह को एक गोली पसली में लगती है। अपना घाव हजारासिंह और बोधासिंह से छिपाता हुआ वह लड़ता रहता है। जब उनकी सहायता के लिए डाक्टर और बीमारों को ढ़ोने वाली गाड़ियाँ  पहुँचती हैं तो एक बार फिर गम्भीर रूप से घायल होकर भी लहनासिंह खुद न जाकर हजारासिंह और बोधासिंह को भेज देता है और लहनासिंह सूबेदार से कहता है- ‘सूबेदारनी’ होरा को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था  टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कह देना कि जो उसने कहा था, वह मैंने कर दिया।’

 

कहानी का अन्तिम और पाँचवां भाग में कहानी चरमोत्कर्ष पर पहुँचती है। लहनासिंह गम्भीर रूप से घायल खाई में पड़ा, अन्तिम साँसे ले रहा है। उसके साथ उसका साथी वजीरासिंह है। मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। सारे दृश्य परत दर परत अपना रंग बिखेरने लगते हैं। 12 वर्ष का लहना, अमृतसर का बाजार, आठ वर्ष की लड़की,  ‘तेरी कुड़माई हो गई?’ ‘धत् – हाँ हो – गई आदि फिर 25 वर्ष बाद अब लहना नं. 77 राइफलस में जमादार हो गया है। लहनासिंह का सूबेदार के घर जाना, सूबेदारनी से मिलना और उसके वाक्य ‘मुझे पहचाना’ आदि बचपन की बातें सुन लहना की स्मृति का साफ होना – स्वप्‍न चलता जाता है। सूबेदारनी वही 8 साल की लड़की है। उसके जीवन की कहानी लहना चुपचाप सुन रहा है। ‘एक बेटा है’ फौज मे भरती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया।–-

 

तुम्हें याद हैः एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दही की दुकान के आगे बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे– ऐसे ही इन दोनों को बचाना, यह मेरी दीक्षा है।–

 

इस तरह लहनासिंह अपने वचन व कर्तव्य को पूरा कर इस पृष्ठभूमि से विदा लेता है। पूर्व दीप्‍त‍ि शैली में कहानी का घटनाक्रम पाठकों के सामने सारी परतें खोल देता है। “वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे। कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबार में पढ़ा – फ़्रांस और बेल्जियम – 68वीं सूची – मैदान में घावों से मरा – नं.77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह।” (तेईस हिंदी कहानियाँ, पृष्ठ – 39)

 

 4. कहानी का उदेश्य

 

उसने कहा था  कहानी प्रेम और विश्‍वास की कहानी है। यह विश्‍वास प्रेम से पनपता है। ऐसा माना जाता रहा है कि प्रेम आधुनिक शहरी पढ़े-लिखे लोगों को ही होता है। जो पढ़े-लिखे लोगों के मन में उदित होता है। लेकिन प्रेम का आधुनिक शिक्षा से नित्य सम्बन्ध नहीं है। प्रेम का भाव किसी भी व्यक्ति के मन में जाग्रत हो सकता है। हिन्दी में इसका वर्णन आगे चलकर फणीश्‍वरनाथ रेणु की रचनाओं में मिलता है। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने एक फौजी की प्रेम कहानी का चित्रण किया। जिसमें सूबेदारनी और लहनासिंह के माध्यम से लेखक ने आदर्श सम्बन्धों को दिखाया है। सम्बन्धों में एक – दूसरे का आपसी भरोसा बहुत अर्थ रखता है, वह भी ऐसा सम्बन्ध, जिसमें कोई कसमें वादे नहीं हो। यहाँ तक कि उन्हें पता नहीं हो कि यह प्रेम है। वे न कहते हैं और न ही जानते हैं कि प्रेम होता है, लेकिन कहानी में प्रेम होता है। जिसमें प्रेमीजन अपने प्रेम को जाहिर नहीं करते किन्तु बचपन का वह मोह 25 वर्ष बाद तक कायम रहता है। सूबेदारनी  एक पारम्परिक महिला है। वह अपने घर परिवार और पति का ख्याल रखती है और साथ ही साथ अपने बचपन की स्‍नेह की मर्यादा का भी ध्यान रखती है। इस प्रकार जीवन का एक आधार बनता है। किसी का किसी से कहा, कोई वचन जिसमें एक आधार विश्‍वास है। वह अपना जीवन दांव पर लगाकर वचन पूरा करता है क्योंकि उसने कहा था। आज के समय में लेखक ने इस प्रेम के नए स्वरूप को दर्शाकर बताया है कि सम्बन्धों में विश्‍वास होना सर्वोपरि है जो किसी भी रिश्ते को गहराई देता है। लहनासिंह का यह विश्‍वास ही है कि सूबेदारनी ने  ‘कुड़माई’ वाली बात याद रखी। इसका मतलब यह है कि आज भी उसके मन में मेरे लिए स्‍नेहभाव है, तभी तो उसने मुझे अलग से कहा – उस विश्‍वास की कदर करते हुए लहनासिंह अपने प्राणों की आहुति देकर सूबेदारनी के विश्‍वास को बचाता है। कहानी का उदेश्य लेखक ने स्पष्ट रखा है उसने कहा था  उसका कथन था जो अन्ततः पूरा होकर अपना लक्ष्य पाता है। आधुनिक समय में भी यह कहानी अपनी प्रासंगिकता रखती है। जहाँ प्रेम में शारीरिक सम्बन्धों की बजाय एक दूसरे का विश्‍वास सबसे महत्त्वपूर्ण होता है। जिसे समय की लम्बी रेखा भी नहीं धुँधला सकती। किशोरावस्था की स्मृति मनुष्य को कौंधती है, जिस कारण वह मनुष्य को मनुष्य बनाए रखती है। लहनासिंह अपने अन्तिम समय में याद करता है।

सूबेदारनी – “मुझे पहचाना।

‘नहीं।’

‘तेरी कुड़माई हो गई। धत्…कल हो गई…देखते नहीं, रेशमी बूटों वाला सालू…अमृतसर में… ’

भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।

“वजीरासिंह पानी पिला…उसने कहा था।” (तेईस हिंदी कहानियाँ, पृष्ठ – 38)  इस प्रकार कहानी का अन्त बहुत ही दुखान्त होता है। लेकिन लहनासिंह अपनी कुर्बानी से खुश है।

 

कहानी में युद्ध के वातावरण का अनुभव बेजोड़ है। गुलेरी जी ने प्रथम विश्‍व युद्ध का बहुत ही यथार्थ और सजीव चित्र खींचा है। जिस कारण युद्ध के दौरान घटित होने वाली पल-पल की स्थितियों और घटनाओं का सजीव वातावरण हमारे सामने मानों प्रकट – सा हो जाता है, जबकि उस समय अखबार नहीं छपा करते थे। जिस कारण युद्ध की खबरें नहीं आ पाती थीं। ऐसी स्थिति में युद्ध भूमि की बारीकियों की जानकारी देना कहानीकार की सृजनात्मकता को दर्शाता है। “देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाई है। उसमें 50 से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काटकर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है, वहाँ पन्द्रह जवान खड़े कर आया हूँ।…जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।” (तेईस हिंदी कहानियाँ, पृष्ठ  39)

 

इस प्रकार इस कहानी में सम्बन्धों की मर्यादा और आपसी विश्‍वास के महत्त्व को प्रदर्शित किया गया है। इन दोनों के अलावा भी कहानी का जीवन है, जो युद्ध, अमृतसर का बाजार, आदि वस्तुगत स्थितियों के सजीव वर्णन से इन सम्बन्धों के  स्वरूप में  और गहराई आती है। हालाँकि रोहिणी अग्रवाल उसने कहा था में आई हुई चुप्पियों पर सवाल उठाती हैं। उनका कहना है कि आठ वर्ष की लड़की ने 25 वर्ष बाद 37 वर्ष के लहनासिंह को कैसे पहचाना होगा? जबकि दोनों को एक-दूसरे का नाम भी पता नहीं था। फिर सूबेदारनी ने जब लहनासिंह से अलग से बात करनी चाही, तब उसके पति को शक नहीं हुआ होगा ? ऐसे में रोहिणी अग्रवाल को लगता है कि इन दोनों के बीच प्रेम जैसा तो कुछ था ही नहीं। यह तो विशुद्ध ‘इमोशनल ब्लेकमेलिंग का जरिया है’। “सूबेदारनी लहनासिंह से प्रेम के एवज में प्राणों का बलिदान चाहती है तो लहनासिंह बलिदान के एवज में कृतज्ञता को जीवन पर्यन्त उसकी स्मृतियों के साथ बाँध दिए जाने का आश्‍वासन चाहता  है।” (साहित्य का स्‍त्री स्वर, पृष्ठ 116, रोहिणी अग्रवाल, साहित्य भण्डार, इलाहाबाद)  इस तरह उसने कहा था का रिश्ता आज भी बहस के भीतर है।

 

5. कहानी का शिल्प

 

इस कहानी में लेखक ने आधुनिक शैली का अनूठा प्रयोग किया है। लेखक ने कहानी की भाषा उसमें सम्मिलित समाज को ध्यान में रख कर की है। यह समाज अमृतसर का है, पंजाबी भाग तथा उर्दू के मिश्रित रूप का यथा स्थान प्रयोग हुआ है। वर्णन और संवाद दोनों ही ध्यान खींचते हैं। गुलेरी जी कहानी का सीधा – सीधा वर्णन ही नहीं करते वरन् शब्दों के द्वारा स्थिति का पूरा चित्र उकेरते चलते हैं। कहानी का आरम्भ ही पाठकों को बाँध लेता है जिसमें लेखक ने अमृतसर के बाजार की भीड़-भाड़ का दृश्य भाषा के माध्यम से जीवन्त किया है। तांगे वालो की वचनावली का सुन्दर उदाहरण देकर उस समाज से परिचित करवाया है –

 

‘बचो खालसा जी’ ‘हटो भाई जी’ ठहरना भाई – इस समाज के व्यक्ति उदार एवं नम्र स्वभाव के हैं। इसका नमूना लेखक उनकी चेतावनी देने के तरीके से बतलाता है – “हट जा, जीवोजोगिए हट जा, करमांवा लिए हट जा, पुत्ताप्यारिएय बच जा, लंबी वालिए।” चेतावनी भी आशीषों से भरी हुई है। गुलेरी जी ने भाषा का संयमित प्रयोग किया है। कहानी में लहनासिंह और सूबेदारनी के बचपन के सम्बन्धों का जो वर्णन किया गया है, उसमें अनावश्यक विस्तार न देकर एक पंजाबी शब्द ‘कुड़माई’ का प्रयोग किया है। ‘सगाई’ शब्द में  वह आकर्षण तथा प्रभाव नहीं लगता। ‘कुड़माई’ शब्द स्वयं अपने अर्थ का विस्तार कर देता है। इसके उत्तर में लड़की का ‘धत्’ शब्द का छोटा प्रयोग भी अनावश्यक विस्तार को समेट देता है। ‘धत्’ शब्द पंजाबी समाज में रोजमर्रा का प्रयोग होने वाला शब्द है। इस शब्द में इन्कार करने की अपनी नजाकत है, जिसे लेखक ने बखूबी समझा है।

 

कहानी में भाषा पात्रों की मनः स्थिति के अनुकूल चित्रित हुई हैं। सूबेदारनी जब लहनासिंह से मिलती है और अपने मन की व्यथा कहती है तो उसके मन में चल रहा द्वन्द्व इतना स्पष्ट उभरता है कि पाठक उसे आसानी से समझ लेता है।

 

युद्ध के मैदान में फौजी सिपाहियों की बातचीत का वर्णन भी संयमित ढंग से किया गया है। ठण्ड का प्रकोप कितना अधिक है यह उन सिपाहियों की स्थिति बयान करती है। प्रथम विश्‍व युद्ध का वातावरण उकेरती कहानी में उस समय का आइना स्पष्ट झलकता है। उस समाज में पंजाबी मिश्रित हिन्दी उर्दू का प्रयोग सामान्य था। कहानी में यथा – स्थान ठेठ पंजाबी शब्दों के साथ – साथ उर्दू अंग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग मिलता है। “हट जा जीण जोगिये, हट जा करमा वालिए, हट जा पुत्तां प्यारिए, बच जा, लम्बी उमर वालिए।”  (तेईस हिंदी कहानियाँ, पृष्ठ 27)

 

गुलेरी जी ने इस कहानी को पाँच खण्डों  में बाँट कर रचा है। खण्डों  में विभाजित रचना प्रायः नाटक में लिखी जाती है। हिन्दी कहानी के आरम्भिक दौर में कहानी शैली का यह नया ढंग काफी चर्चित रहा। कुछ विद्वानों ने इस कहानी को कथा नाट्य भी कहा है। लेखक ने कहानी में पूर्व दीप्‍त शैली यानी फ्लैशबैक शैली का सुन्दर प्रयोग किया है। इससे कहानी का कथानक पाठकों को 25 साल बाद भी उसी वातावरण से पुनः जोड़ देता है जिसे बचपन में देखा सुना था।

 

डॉ. नगेन्द्र ने विचार और अनुभूति  निबन्ध संग्रह में एक लेख लिखा है, ‘गुलेरी जी की कहानियाँ’  उसने कहा था  कहानी का आरम्भ चंचल मधुर है, पर अन्त में जैसे सारी ही कहानी रस में डूब जाती है। लहना सिंह के पुरुषार्थी व्यक्तित्व से शक्ति प्राप्‍त कर अन्त में उसके बलिदान की करुणा कितनी गम्भीर हो जाती है- शर्त,  हास, ओज, कारुण्य इनके मिश्रण से इसका जो परिचय होता है वह अत्यन्त प्रगाढ़ और पृष्ठ है।”

 

इस तरह से कहानी में एक नए शिल्प का परिचय मिलता है। यह नयापन ही इसकी प्रासंगिकता है जो हिन्दी कहानी में इस कहानी का स्थान बनाए हुए है।

 

6. निष्कर्ष

 

उसने कहा था  गुलेरी जी की नई संवेदना व शिल्प को पेश करने वाली कहानी है। युद्ध की पृष्ठभूमि में लेखक ने जीवन – सूत्र को बनाए रखने वाले आधार प्रेम की नई परिभाषा दी है। यह प्रेम, सम्बन्ध का सूचक नहीं, कसमों वादों का मोहताज नहीं, किसी नाम की जरूरत नहीं, बस यदि कुछ महत्त्वपूर्ण है तो वह है आपसी विश्‍वास। यह विश्‍वास समय की लम्बी रेखा भी नहीं मिटा सकती। प्रेम का यह आदर्श स्वरूप पाठकों को नए विचार देता है। लहनासिंह और सूबेदारनी के बीच कहानी में कहीं कोई प्रेम सूत्र स्पष्ट लक्षित नहीं होता, फिर भी आपसी समझ इतनी मजबूत है कि 25 वर्ष बाद भी सूबेदारनी, लहना को अधिकार से एक काम सौंपती है कि उसे उसके पति व बेटे के प्राणों की रक्षा करनी होगी। लहना भी उसकी बात पूरे मन से स्वीकारता है और अपने प्राण देकर उनके प्राणों की रक्षा करता है क्योंकि उसने कहा था  और उसका कहना वह अन्तिम साँस तक  निभाता है।

 

अतः स्पष्ट है लेखक ने इस कहानी के माध्यम से कई नए पहलू सामने रखे हैं। कथा – शिल्प भाषा  दृष्टि से कहानी नई कहानी की श्रेणी में स्थान रखती है। पूर्व दीप्‍त‍ि शैली का अनूठा प्रयोग कर लेखक ने कहानी की रोचकता को दोगुना बढ़ा दिया है। कुछ विद्वानों  को नई कहानी की संवेदना और शिल्प का ढाँचा उसने कहा था  (सन् 1915) में दिखाई देता है जिससे हिन्दी कहानी का आरम्भ होता है।