7 गोदान की अर्थ ध्वनियाँ

प्रो.रामबक्ष जाट

 

पाठ का प्रारूप

  1. पाठ का उद्देश्य
  2. प्रस्तावना
  3. कथानक की विशेषताएँ
  4. गोदान का रचनात्मक उद्देश्य
  5. गोदान में चित्रित समस्याएँ
  6. गोदान का लेखन काल
  7. निष्कर्ष

 

1.पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप :

  • गोदान  की अर्थ ध्वनियाँ क्या है, इसे समझ पाएँगे।
  • गोदान  के उद्देश्य को समझ पाएँगे।
  • गोदान  में अभिव्यक्त चारित्रिक समस्याओं से अवगत हो पाएँगे।

 

2. प्रस्तावना 

 

गोदान पर चर्चा करने से पूर्व कुछ बातों को रेखांकित कर लिया जाना चाहिए। गोदान  (सन् 1936) प्रेमचन्द का अन्तिम सम्पूर्ण उपन्यास है। यह प्रेमचन्द की सर्वश्रेष्ठ कृति है। इसके साथ ही हिन्दी उपन्यास साहित्य की सर्वाधिक स्वीकृत कृति है। किसी भी अन्य उपन्यास की तुलना में गोदान  को लोग जादा पसन्द करते हैं। इसी के साथ यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि यह हिन्दी के सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है। भारत के सभी विश्‍वविद्यालयों के एम.ए. हिन्दी पाठ्यक्रम में यह पढ़ाया जाता है। प्रेमचन्द हिन्दी के साथ-साथ उर्दू के भी लेखक माने जाते हैं। अतः उर्दू के विद्यार्थी भी गोदान पढ़ते हैं। इसलिए इस उपन्यास को गम्भीरता से पढ़ने और समझने की जरूरत है।

 

3. कथानक की विशेषताएँ

 

गोदान  के कथानक का सार-संक्षेप प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है और न ही गोदान  के पात्रों का परिचय देने की जरूरत है। हिन्दी पाठक प्रेमचन्द की इस कृति को जानता है। गोदान  को पढ़ते हुए कई बार मन में यह प्रश्‍न उठता है, जो कि किसी भी उपन्यास को एक से अधिक बार पढ़ते हुए उठ सकता है। क्या गोदान  की कथा की परिणति पूर्व निश्‍च‍ित थी? या कथा के विकास के साथ-साथ यह परिणति बनती चली गई? लेखक ने रचना के लिखने से पूर्व ही सारी बातें तय कर ली थी? कैसे लिखा होगा गोदान ? ऐसा भी हो सकता है कि कुछ बातें प्रेमचन्द ने पहले निश्‍च‍ित कर ली। कुछ निष्कर्ष पहले ही निकाल लिए और तब कुछ बातें लेखन के दौरान जुडती चली गई। इस क्रम में संगति बिठाने का काम बाद में कर लिया गया। या क्या ऐसा है कि गोदान की सम्पूर्ण कथा अपने स्वाभाविक निष्कर्ष तक स्वतः बढ़ती चली गई? प्रेमचन्द ने इसमें कोई बाधा नहीं डाली। गोदान  को पढ़ते हुए हम इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँच जाते हैं कि प्रेमचन्द रचना में दखल देते हैं। कथा की गति को विशेष दिशा देते हैं? चरित्र का अर्थ स्पष्ट करते हैं?

 

इस दृष्टि से यदि गोदान  को पढ़ें तो इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है कि उपन्यास करुणा में समाप्‍त होने वाला है। गोदान  में होरी की मृत्यु निश्‍च‍ित है। इसे प्रेमचन्द ने तय कर रखा है। जिस स्वर में उपन्यास का प्रारम्भ होता है, उससे करुणा की सृष्टि होती रहती है। होरी जिस तरह अपने दुश्मनों से घिरा हुआ है, अपने ही लोगों की प्रताड़ना का शिकार रहा है, उसमें उसके जिन्दा बचने की सम्भावना बहुत कम लगती है। फिर गोदान  का अर्थ ही होता है मृत्यु के समय दिया गया गाय का दान। इसलिए इसका अन्त तो दुखान्त ही होना था।

 

इसी तरह रायसाहब की पराजय भी लगभग निश्‍च‍ित थी। यह प्रेमचन्द की समझ के कारण हुआ है। प्रेमाश्रम  तक प्रेमचन्द मानते थे कि जमीन्दार किसान का सबसे बड़ा शत्रु है। इसलिए प्रेमाश्रम का ज्ञानशंकर सबसे क्रूर पात्र है। हालाँकि प्रेमचन्द उसे भी क्षमा नहीं करते, परन्तु वे मानते हैं कि जमीन्दार शक्तिशाली है, परन्तु गोदान  तक आते-आते प्रेमचन्द समझ गए कि जमीन्दार और ताल्लुकेदार तो पतनशील वर्ग है। नए जमाने में इनका कोई भविष्य नहीं है। इसलिए प्रेमचन्द ने बहुत सावधानी से रायसाहब के जीवट को तोड़ा। उनकी तीन बड़ी आकांक्षाएँ थीं, “कन्या की शादी धूम-धाम से हो गई थी, मुकदमा जीत गए थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थे, होम मेम्बर भी हो गए थे।… और सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज मैजिस्टी के जन्म दिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गई। अब उनकी महत्त्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गई।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6, पृ. 287) प्रेमचन्द ने अपनी प्रसन्‍नता को और बढ़ाते हुए लिखा, “मगर जीवन की बड़ी विजय उन्हें उस वक्त हुई, जब उनके पुराने, परास्त शत्रु सूर्यप्रताप सिंह ने उनके बड़े लड़के रूद्रप्रताप सिंह से अपनी कन्या का विवाह का सन्देश भेजा।” (वही, पृ. 288)

 

यह सब होने के बाद प्रेमचन्द ने यह बताना जरूरी समझा कि रूद्रप्रताप सिंह ने विवाह का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और फिर ‘जो कुछ कसर थी, वह लड़की और दामाद के सम्बन्ध-विच्छेद ने पूरी कर दी।’ (वही पृ. 294) और इस तरह प्रेमचन्द ने दिखाया कि “राय साहब ने सुख को जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी जिन्दगी में ही ध्वंस होते देख रहे थे।” (वही पृ. 296) इस माध्यम से प्रेमचन्द भविष्यवाणी करना चाहते थे कि जमीन्दारों का कोई भविष्य नहीं है। प्रेमचन्द चाहते तो उनके चरित्र को, और उनके जीवन को अन्तहीन और खुला छोड़ सकते थे। परन्तु उनको पराजित देखने का सुख लेखक के मन में भी रहा होगा। दातादीन, झिंगुरी सिंह, नोखेराम और पटेश्‍वरी के जीवन को यथावत् छोड़कर प्रेमचन्द आगे बढ़ जाते हैं। यहाँ प्रेमचन्द एक और भविष्यवाणी करते हैं। गोदान  में खन्‍ना भी खल पात्र है। प्रेमचन्द ने उसकी मिल में आग लगवा दी, परन्तु उसके जीवट को नहीं तोड़ा। वह उसी उत्साह और उमंग से अपना काम कर रहा है। सम्भवतः प्रेमचन्द आगे आने वाले समय में मिल-मालिकों का भविष्य देख रहे थे।

 

इसी तरह मेहता और मालती का प्रेम-प्रसंग खुला हुआ है। उसे प्रेमचन्द ने किसी परिणति तक नहीं पहुँचाया। न तो उनका रिश्ता टूटा और न उन्होंने विवाह किया। इन पात्रों के रिश्तों में प्रेमचन्द भविष्य की सम्भावनाएँ देख रहे थे। इसका एक कारण यह भी है कि प्रेमचन्द स्वयं इस रिश्ते की परिणति के बारे में आश्‍वस्त नहीं थे। लेखक की उधेड़-बुन पात्र को मुक्त करती है। इस रूप में भी इन पात्रों को देखा जा सकता है। इस दृष्टि से मि. तंखा के चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं होता। वह सब जगह से थक-हारकर भी रायसाहब के पुत्र रूद्रप्रताप सिंह का पैरोकार बन जाता है। प्रेमचन्द मानते हैं कि इस पात्र का भविष्य है। उपन्यास के अन्त में अधिकांश पात्रों के जीवन और कार्य प्रणाली में परिवर्तन होता है। कुछ अपना रूप बदल लेते हैं, कुछ टूट जाते हैं, कुछ नष्ट हो जाते हैं, परन्तु मि. तंखा एकमात्र ऐसा पात्र है जिसकी कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं होता।

 

इस दृष्टि से सारे पात्रों पर दृष्टि डालें तो गोबर में कुछ सतही-सा परिवर्तन दिखता है। झुनिया का रूप बदलता है। मेहता और मालती में भी बदलाव को चिन्हित किया जा सकता है। इनके अलावा दातादीन, नोखेराम, पटेश्‍वरी, झिंगुरी सिंह, ओंकारनाथ नोहरी यथावत बने रहते हैं। मातादीन में थोडा बहुत हृदय-परिवर्तन घटित होता है और वह सिलिया के साथ रहने लग जाता है। जहाँ तक होरी का प्रश्‍न है, उसका चरित्र लेखन से पूर्व ही निर्मित हो चुका प्रतीत होता है। उपन्यास में उसका चरित्र लगभग अपरिवर्तित रहता है। कथा के साथ न तो होरी के चरित्र का विकास होता है और न ही धनिया के चरित्र का। सारे उपन्यास में वह लगभग एक जैसी ही रहती है। उपन्यास के अन्त में उसमें थोड़ी-सी हलचल होती है। जब होरी मरता है तब धनिया पछाड़ खाकर गिर पड़ती है।

 

इसी तरह यदि बारीकी से देखा जाए तो हम कह सकते हैं कि गोदान  में कथा का विकास नहीं होता। जो घटनाएँ घटती हैं, वे घटनाएँ होरी के जीवन की दिशा नहीं बदलती। उनसे होरी को समझने में मदद मिलती है। सम्पूर्ण उपन्यास में लेखक का स्वर एक जैसा ही रहता है। गाँव की कथा को वह करुण दृष्टि से देखता है और शहर की कथा को बारीक व्यंग्य और हास्य से चित्रित करता जाता है। गाँव कथा के बीच में आया हुआ विनोद भाव भी अन्ततः करुणा के स्वर को ही गाढ़ा करता है।

 

यदि गोदान  का यह विश्‍लेषण सही है, तो इतने सप्रयोजन कथानक से प्रेमचन्द ऐसे अच्छे उपन्यास को कैसे लिख पाए? यह आश्‍चर्य और अध्ययन का विषय है। कथानक की दृष्टि से देखें तो गोदान  में घटनाएँ और क्रियाएँ बहुत कम हैं। यह उपन्यास लगभग 300 पृष्ठों का है, इसमें घटनाएँ और क्रियाएँ मुश्किल से 50 पृष्ठों में घटती हैं। बाकी सारे पात्र लगातार बातचीत करते हैं। सारे पात्र घुमा-फिराकर एक स्वर में देश-दशा पर चर्चा करते हैं। ऐसा लगता है कि वे सब प्रेमचन्द के विचारों को वाणी देते हैं। आपस में जब भी मिलते हैं, तब वे एक समस्या उठा लेते हैं, फिर उस समस्या का एक-एक हिस्सा लेखक एक-एक पात्र को दे देता है। और अपनी बारी आने पर वह उसे बोल देता है। सारी चर्चा से एक निष्कर्ष निकलता है, जिस निष्कर्ष पर लेखक पहले ही पहुँच चुका है। लेखक से अलग कोई पात्र अपनी कोई बात नहीं कहता। होरी भी वही कहता है, जो दातादीन कहता है या भोला कहता है या कभी-कभी रायसाहब और रामसेवक भी कह देते हैं।

 

गोदान  के ग्रामीण जीवन की मुख्य कथा चलती है। उसके साथ कुछ छोटी-छोटी अवान्तर कथाएँ भी चलती हैं। मसलन नोहरी-नोखेराम, भोला का प्रकरण, चुहिया, कोदई आदि की कथाएँ हैं, ये कथाएँ कला की दृष्टि से यथार्थवादी हैं। ऐसे प्रकरण और भी होते तो उपन्यास में खप जाते। परन्तु ये प्रकरण न भी आते तो भी उपन्यास के अर्थ में कोई कमी नहीं आती। इनके आने से भी उपन्यास को कोई नया अर्थ नहीं मिलता। इनका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व और निर्णायक भूमिका न होने से उपन्यास के आकार को तो बढ़ाते हैं, परन्तु रचना के अर्थ का विस्तार करने में सक्षम नहीं होते।

 

4. गोदान का रचनात्मक उद्देश्य

 

प्रेमचन्द अपनी रचनाओं में अपने विचारों का प्रचार करते हैं। वे जो भी चिन्तन करते हैं, विचार करते हैं, उन विचारों को विस्तार से अपनी रचना में प्रकट करना चाहते हैं। वे समस्या को समझना चाहते हैं। इसलिए आलोचकों ने उनके अलग-अलग उपन्यासों में अलग-अलग समस्याओं को चिन्हित किया है। किसी-किसी आलोचक ने प्रेमचन्द को समस्यामूलक उपन्यासकार कहा भी है। वे जीवन को समझना-समझाना चाहते हैं। वे जीवन की प्रतिमा गढ़ना नहीं चाहते। जीवन की पुनर्रचना करना चाहते हैं। वे चरित्र निर्माण में रुचि नहीं लेते। चरित्रों के माध्यम से वे कुछ कहना चाहते हैं। हालाँकि इस प्रक्रिया में चरित्र निर्माण हो जाता है। वह उनका उद्देश्य नहीं है। यह तो स्वतः हो जाता है। इसलिए प्रेमचन्द जल्दी-जल्दी प्रतिमा का निर्माण कर आगे बढ़ जाना चाहते हैं। उनको बहुत जल्दी है।

 

यहाँ इस बिन्दु को ध्यान में रखना चाहिए कि इस कारण प्रेमचन्द द्वारा निर्मित ये मानव प्रतिमाएँ कम महत्त्वपूर्ण हैं। या प्रतिमा निर्माण का यह कार्य छोटा है। या प्रतिमा निर्माण में लगे हुए किसी अन्य लेखक की तुलना में प्रेमचन्द निर्मित ये मानव प्रतिमाएँ कमजोर हैं। यह बात नहीं है। सिर्फ इतना सा ध्यान देने की जरूरत है कि प्रेमचन्द सिर्फ प्रतिमा निर्माण में लगे रहना नहीं चाहते थे। वे प्रतिमाओं से वैचारिक चिन्तन चाहते थे।

 

यह अलग बात है कि कोई भी महान रचनाकार इसीलिए महान लगता है क्योंकि वह अपनी रचनाओं में विविध मानव प्रतिमाओं का निर्माण करता है। यदि प्रसाद ने मनु, इड़ा, लज्जा या श्रद्धा की प्रतिमा का निर्माण न किया होता और सिर्फ समरसता के ही गीत गाते रहते तो पन्त की तरह उनका महत्त्व भी कालान्तर में कम हो जाता। सूरदास का महत्त्व राधा और कृष्ण की प्रतिमा के कारण है। तुलसीदास के महत्त्व का एक कारण राम के चरित्र में है।

 

गोदान  में प्रेमचन्द के विचार मिलते हैं, परन्तु आज का कोई भी पाठक उन विचारों के कारण गोदान   को नहीं पढ़ता। हालाँकि प्रेमचन्द ने बहुत अच्छी-अच्छी और महत्त्वपूर्ण बातें उसमें लिखी हैं। प्रेमचन्द के ये विचार उस समय बहुत मौलिक, अद्भुत और क्रान्तिकारी प्रतीत हुए होंगे। इन विचारों के कारण प्रेमचन्द की छवि बनी। हिन्दीभाषी जनता के एक बड़े वर्ग की मानसिक और वैचारिक भूख को गोदान  ने मिटाया होगा। परन्तु उन बातों में वह ऊर्जा नहीं बची। वे सब विचार अब सामान्य ज्ञान के अंग बन गए। उन बातों से अब कोई बहस उत्पन्‍न नहीं हो सकती। वे सब समाज में स्वीकृत हो गए। अब वह रचनात्मक आनन्द उन विचारों में नहीं बचा। होली के बहाने प्रेमचन्द ने खल पात्रों की नक़ल उतारी थी, वह नक़ल भी अब उतनी रंगीन और आकर्षक नहीं लगती। जाहिर है कि इन विचारों को समाज में स्वीकृत करवाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। यह संघर्ष प्रेमचन्द ने किया। बाद में प्रगतिशील आन्दोलन ने किया। मेहनत लगी, पर वे बातें जब स्वीकृत हो गई तो सामान्य तथ्य-कथन की श्रेणी में आ गई। गोदान वह हिस्सा, जिसका सृजन प्रेमचन्द ने अत्यन्त लगन और मेहनत से किया था, आज के व्यवस्था विरोधी पाठक के सहज स्वीकृत ज्ञान का अंग बनकर अपनी सृजनात्मकता खो चुका है। आज का पाठक उस हिस्से को जल्दी-जल्दी पढ़कर बढ़ जाना चाहता है।

 

दरअसल गोदान  का सशक्त हिस्सा वे मानव-प्रतिमाएँ हैं, जिनका निर्माण प्रेमचन्द ने अपने विचारों को प्रकट करने के लिए किया। यदि प्रेमचन्द की अपनी योजना के अनुसार इतिहास चलता तो प्रेमचन्द अब तक अप्रासंगिक हो गए होते। हम आज उनके विचारों से असहमत नहीं हैं। हम मानते हैं कि वे बातें आज भी सही हैं, परन्तु हम प्रेमचन्द द्वारा निर्मित मानव-प्रतिमाओं से मिलने उनके पास जाते हैं। उनके पात्रों के चरित्र का ढाँचा, मानव-चरित्र की उनकी समझ आज भी हमने मुग्ध कर देती है। होरी और धनिया की पहचान और उनका चरित्रांकन अद्भुत है। रायसाहब के रूप में उन्होंने तत्कालीन जमीन्दारों को जिन्दा कर रखा है। इन पात्रों को यदि छोड़ भी दें तो प्रेमचन्द ने अपने युग में तंखा को कैसे पहचाना होगा? कहाँ से ढूँढ निकाला मालती के पिता को? बहुत छोटी सी परिचयात्मक टिप्पणी प्रेमचन्द ने मालती के पिता के बारे लिखी है। “उसके बाप उन विचित्र जीवों में थे, जो केवल जबान की मदद से लाखों के वारे-न्यारे करते थे। बड़े-बड़े जमीन्दारों और रईसों की जायदाद बिकवाना, उन्हें कर्ज दिलाना या उनके मुआमलों का अफसरों से मिलकर तय करा देना, यही उनका व्यवसाय था। दूसरे शब्दों में दलाल थे।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6. पृ. 146) इस तरह के पात्रों पर सन् 1935-36 के आसपास नजर पड़ना बड़ी बात थी, जब ऐसे पात्र बहुत कम थे।

 

इसी तरह उन्होंने चूहिया को, कोदई को या नोहरे जैसे पात्रों को निर्मित किया। इनकी निर्मिति से पहले इनसे प्रेमचन्द का परिचय रहा होगा। समाज में इन्हें घूमते-फिरते देखा होगा। प्रेमचन्द की छोटी-बड़ी मानव-प्रतिमाएँ अद्भुत हैं। यदि प्रेमचन्द ने मन लगाकर इनका सृजन किया होता तो, इनमें और भी अधिक कलात्मकता आ सकती थी, परन्तु इनका अनगढ़पन भी हमें उतना ही आकर्षित करता है।

 

5. गोदान में चित्रित समस्याएँ और आज का पाठक

 

कभी-कभी हमारे मन में एक प्रश्‍न उठता है, उनके अपने समय में भी ऐसे प्रश्‍न उठे थे। प्रेमचन्द ने अपने समय के समाज को देखा, समाज की समस्याओं का चित्रण किया। उनका समाधान ढूँढ़ने की कोशिश की। यदि इन सभी समस्याओं का निराकरण हो जाए और इस तरह प्रेमचन्द की रचनाओं में चित्रित ग्रामीण जीवन बदल जाए, तब क्या प्रेमचन्द को पढ़ना सम्भव हो पाएगा। हम उन समस्याओं के लिए उनको पढ़ते हैं। उन समस्याओं से अवगत कराने के लिए वे उपन्यास लिखते हैं। अब न वे समस्याएँ बची और न वह समाज; तब प्रेमचन्द का क्या महत्त्व रह जाएगा? प्रेमचन्द के अध्येताओं ने इस विषय पर विचार किया है। इतिहास में ऐसा समय आ सकता है, जब न शोषण रहेगा और न किसी पर अत्याचार होगा, तब भी हम इन मानव-मूर्तियों से मिलने प्रेमचन्द की रचनाओं को अवश्य पढ़ेंगे। मध्यकाल और आदिकाल का समाज बदल गया, लेकिन उस साहित्य के प्रति हमारी अभिरुचि कम नहीं हुई।

 

“प्रेमचन्द के अपने वैचारिक आग्रह के कारण गोदान  की वर्णन कला भी प्रभावित हुई है। प्रेमचन्द हिन्दी के अद्भुत किस्सागो हैं। कोई भी प्रसंग हो, प्रेमचन्द बड़े धैर्य से किस्सा कहना प्रारम्भ कर देते हैं। एक उदाहरण देखिए– होरी की फसल सारी की सारी डांड की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। (यहाँ से प्रेमचन्द आगे बढ़ सकते थे, लेकिन उनका किस्सागो उसी में से किस्सा निकाल लेता है।) पाँच-पाँच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद।  (बात तो हो गई, परन्तु प्रेमचन्द ने अगला वाक्य निकाल लिया।) दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है। (अब यह तो हो गया, परन्तु किस्सा तो आगे बढ़ना था, इसलिए उन्होंने नया तर्क निकाला।) उधार ले तो किससे? गाँव के छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। (यह भी हो गया तो प्रेमचन्द ने नई बात निकाली।) मजूरी भी करें तो किसकी? जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी, लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो।” (प्रेमचन्द रचनावली, खण्ड-6, पृ. 140)

 

यह प्रेमचन्द के रचना कौशल का नमूना है, वे बात में से बात निकाल लेते हैं और अपनी ही रौ में बोलते चले जाते हैं। मुश्किल से एकाध पृष्ठ किस्स्गो को बोलने देते हैं और तब थोड़ी देर बाद किस्सागो को चुप करा दिया जाता और हम ठगे से देखते रह जाते हैं कि प्रेमचन्द विचारक का बाना पहनकर समाज का विश्‍लेषण करने लग जाते हैं। उतनी देर का किस्स्गो पाठक को उपन्यास में आमन्त्रित करने का काम करके चला जाता है। जब यह वैचारिक बहस समाप्‍त हो जाती है, तब नया प्रकरण प्रारम्भ होता है और तब फिर किस्सागो को अपनी कथा कहने का अवसर मिलता है।

 

6. गोदान का लेखन काल

 

प्रेमचन्द ने सन् 1934 में गोदान  लिखना प्रारम्भ किया था और सन् 1936 में इसका लेखन पूरा हुआ। दो वर्षों तक एक ही सर्जनात्मक मानसिकता में किसी लेखक का रहना भी असम्भव लगता है। इस कारण उनके रचनात्मक मानस में जगह-जगह बिखराव आ गया है। इसे एक साथ पूरा पढ़ने में महसूस किया जा सकता है। लगातार किए गए लेखन में एक तारतम्य रहता है। बिखरी हुई कथाओं में तारतम्य अपने आप बैठ जाता है, संगति बिठाने का प्रयास नहीं करना पड़ता। कहानी एक साथ लिखी जाती है, इसलिए उसकी रचना में एकान्विती होती है, उपन्यास में आमतौर से बिखराव आ जाता है। ऐसा लगता है कि बीच-बीच में गोदान  का लेखन बन्द हो गया है, बीच में कुछ सर्जनात्मक व्यवधान आ गया है। अतः जब वे कथा को नए सिरे से लिखना शुरू करते हैं तो, तो उस कथा के मूलसूत्र को पकड़ने के लिए नए सिरे से भूमिका बाँधते हैं। बार-बार की यह मशक्कत उपन्यास में दिखाई देती है। दस-पाँच पृष्ठ लिखने के बाद प्रेमचन्द प्रकृतिस्थ होते हैं और तब मूल कथा में रम जाते हैं।

 

फिर कई बार यह भी लगता है कि प्रेमचन्द लिखे हुए को दुबारा पढ़ते भी नहीं थे, दुबारा लिखे की तो बात ही अलग है। इस कारण वे अपने लिखे हुए को संशोधित सम्पादित नहीं कर पाते थे। इस कारण कई बार वे अपने पात्रों के चरित्र को भूल जाते थे। उसके बारे में कुछ का कुछ लिख देते थे। मालती के बारे में ये क्या कह दिया? अभी-अभी तो उसके व्यक्तित्व के बारे में कुछ और कहा था। झुनिया और गोबर के बारे में यह क्या टिप्पणी कर दी? यह तो नहीं कहना चाहिए था। यदि प्रेमचन्द अपने ही लिखे को दुबारा पढ़ लेते, तो शायद यह असंगति नहीं रहती। खन्‍ना की पत्नी का नाम पहले तो कामिनी बताया था, कुछ पृष्ठों के बाद वे भूल गए और बाद में उसका नाम गोविन्दी बता रहे हैं।

 

ऐसा सम्भवतः इसलिए हो रहा था, क्योंकि प्रेमचन्द उन दिनों बीमार थे। शारीरिक कष्ट उन्हें लेखन में बाधा पहुँचा रहा था। वे चाहते थे कि उपन्यास किसी तरह से पूरा हो जाए। संशोधन-सम्पादन की शक्ति नहीं बनी। एक बार लिख दिया, वही क्या कम है। इसी कारण वे अपनी भाषा पर मेहनत नहीं कर पाए। 326 पृष्ठ पर होरी लगता है कि “आज दस बजे ही से लू चलने लगी।” अब यह घड़ी की चेतना होरी की नहीं हो सकती थी। प्रेमचन्द भूल गए कि होरी घड़ी नहीं रखता। वह पहर की भाषा में दिन को नापता है। कोई भी सजग रचनाकार दस नहीं बजाता।

 

 7. निष्कर्ष

 

अब यह सब छोटी-मोटी अन्य गलतियाँ हैं। पाठक स्वयं समझ लेंगे। ऐसा विश्‍वास लेकर प्रेमचन्द चलते थे। और यह विश्‍वास गलत भी नहीं था, क्योंकि प्रेमचन्द के किसी आलोचक ने इन गलतियों को रेखांकित नहीं किया। इस सब के बावजूद हिन्दी में ऐसे बहुत कम रचनाकार हुए हैं, जिनकी रचनाओं में उनका युग पुनर्जीवित हो उठा हो। यह सामर्थ्य प्रेमचन्द की रचनाओं में है, इसीलिए वे उपन्यास सम्राट कहलाते हैं।

 

पुस्तकें

 

अतिरिक्त जाने

  1. प्रेमचन्द और उनका युग, रामविलास शर्मा,  राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-110002
  2. कलम का सिपाही, अमृत राय,  हंस प्रकाशन, दिल्ली
  3. प्रेमचन्द घर में, शिवरानी देवी,  आत्माराम एण्ड सन्स, दिल्ली
  4. प्रेमचन्द : एक कृति व्यक्तित्व, जैनेन्द्र कुमार, पूर्वोदय प्रकाशन, दिल्ली
  5. प्रेमचन्द और भारतीय किसान, प्रो.रामबक्ष,  वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
  6. प्रेमचन्द अध्ययन की नयी दिशाएँ, कमल किशोर गोयनका,  साहित्य निधि, नई दिल्ली-110002

 

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