22 नौकर की कमीज के पात्र
डॉ. योगेश्वर तिवारी and डॉ. वेद रमण पाण्डेय
पाठ का प्रारूप
- पाठ का उद्देश्य
- प्रस्तावना
- विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास के पात्र
- नौकर की कमीज के प्रमुख पात्र
- 1.पुरुष पात्र
- 2.स्त्री पात्र
5. निष्कर्ष
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–
- नौकर की कमीज के माध्यम से विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों में पात्रों के गठन से परिचित हो सकेंगे।
- विनोद कुमार शुक्ल तक आते-आते हिन्दी उपन्यास में पात्रों को लेकर क्या-क्या प्रमुख बदलाव हुए हैं इसको समझ सकेंगे।
- नौकर की कमीज के पात्रों के यथार्थ जीवन से सम्बन्ध की पड़ताल कर पाएंगे।
- एक कवि जब एक उपन्यास लिखता है तब अपने पात्रों के साथ किस तरह का प्रयोग करता है? यह जान सकेंगे।
- विनोद कुमार शुक्ल के शेष उपन्यासों के पात्रों से नौकर की कमीज के पात्रों की तुलना कर सकेंगे।
2. प्रस्तावना
हिन्दी उपन्यास में मुख्यतः दो तरह के पात्र दिखते हैं। पहले को हम प्रतिनिधि पात्र कहते हैं। ये पात्र अपने वर्ग या अपने जैसे लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण प्रेमचन्द के चर्चित उपन्यास गोदान का नायक होरी महतो है। होरी अपने समय के उत्तर भारत के किसानों का प्रतिनिधि पात्र है। इसका मतलब यह नहीं कि होरी की अपनी कोई विशेषता नहीं है। जरूर है। परन्तु वह उत्तर भारत के किसानों की सामान्य प्रवृत्तियों का संवाहक भी है। उस समय के सीमान्त किसान लगभग होरी की तरह ही होते थे।
हिन्दी उपन्यास में दूसरे तरह के पात्र को हम विशिष्ट पात्र कहते हैं। ऐसे पात्रों का सृजन रचनाकार के लिए कठिन होता है। अज्ञेय के चर्चित उपन्यास शेखर : एक जीवनी का शेखर इसी श्रेणी का पात्र है। शेखर एक विशिष्ट पात्र है। उसके जैसे पात्र समाज में बहुतायत में नहीं मिलते। ऐसे पात्रों के कारण इनके सृजनकर्ता पर समाज से वियुक्त होने का आरोप भी लगता है। यह तर्क दिया जाता है कि ऐसे पात्र समाज के किसी वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करते। इसलिए ये समाज के किसी विशेष काम के नहीं हैं। शेखर पर भी इस तरह के आरोप लगे हैं।
3. विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास के पात्र
विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों के पात्रों में एक साथ प्रतिनिधि और विशिष्ट दोनों तरह के पात्रों के गुण होते हैं। इसके लिए बहुत कुछ विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों का शिल्प और भाषा जिम्मेदार हैं। अपने साधारण पात्रों को भी असाधारण तरीके से पेश करते हैं। इस वजह से उनके पात्र प्रतिनिधि पात्र होते हुए भी विशिष्ट लगते हैं। जबकि होते वे प्रतिनिधि पात्र ही हैं। परन्तु भाषा-भंगिमा के कारण वे विशिष्ट हो जाते हैं। उदाहरण के लिए दीवार में एक खिड़की रहती थी उपन्यास के रघुवर प्रसाद घर से महाविद्यालय तक की दूरी ऑटो में बैठकर तय करते हैं, परन्तु कभी-कभी उनकी इच्छा होती है कि उसी रास्ते जाने वाले हाथी पर बैठ कर यह दूरी तय करें। उनका यह सोचना किसी भी सामान्य मनुष्य का सोचना हो सकता है। एक दिन वे सचमुच ही हाथी पर बैठ कर महाविद्यालय जाते हैं। हाथी के मालिक साधु से उनकी दोस्ती हो जाती है। जाहिर है कि सभ्य समाज में एक गणित के अध्यापक का हाथी पर बैठकर महाविद्यालय जाना चौंकाने वाली बात लग सकती है। रघुवर प्रसाद के जीवन में दुनियादारी का कोई गणित नहीं है। कोई बनावटीपन नहीं है। वह पढ़े-लिखे होने के बावजूद खुद को एक सामान्य आदमी ही समझते हैं। इसलिए वे आलोचकों द्वारा महाविद्यालय के प्राध्यापकों के प्रतिनिधि नहीं माने जाते हैं। हाँ वे अनपढ़-गंवार नहीं हैं। इसलिए वे अनपढ़-गंवार देहातियों के प्रतिनिधि भी नहीं माने जाते।
4. नौकर की कमीज के प्रमुख पात्र
नौकर की कमीज के प्रमुख पात्र वे हैं, जिन्हें केन्द्र में रखकर उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है। अगर उपन्यास से इन पात्रों को हटा दिया जाए तो उपन्यास की कथा आगे नहीं बढ़ पायेगी। ऐसे पात्रों में सन्तू बाबू और उनकी पत्नी प्रमुख हैं। इन पात्रों को उपन्यास का प्रतिनिधि पात्र भी कहा जा सकता है। परन्तु ये प्रतिनिधि पात्र उसी तरह के नहीं हैं, जिस तरह प्रेमचन्द के गोदान में होरी और धनिया हैं। दरअसल विनोद कुमार शुक्ल का कोई भी उपन्यास चरित्र प्रधान उपन्यास नहीं है। इसलिए विनोद कुमार शुक्ल के किसी भी उपन्यास का कोई भी पात्र हमें देर तक याद नहीं रहता है। नौकर की कमीज में सन्तू बाबू और उनकी पत्नी के अलावा, बड़े बाबू, गौराहा बाबू, देवांगन बाबू, महंगू, महावीर खोमचेवाला, मकान मालिक और उसकी पत्नी, दफ्तर के साहब और उनकी पत्नी आदि हैं। उपन्यास के पात्रों को हम दो श्रेणी में बांट सकते हैं। पहले में पुरुष पात्रों को रखा जा सकता है और दूसरे श्रेणी में स्त्री पात्रों को। इसका मतलब यह नहीं कि स्त्री पात्रों को लेखक दोयम दर्जे का मानते हैं। यह विभाजन अध्ययन की सुविधा के लिए किया जा सकता है।
5. पुरुष पात्र
सन्तू बाबू किसी भी सामान्य सरकारी बाबू (क्लर्क) की तरह हैं। सन्तू बाबू ने सरकारी दफ्तर में अभी नयी नौकरी हासिल की है। इसलिए वे दफ्तर के पुराने बाबुओं की तरह घाघ नहीं हैं। कम वेतन में किस तरह अपना गुजारा करना है, इसका उन्हें ठीक ज्ञान नहीं है। इसलिए नौकरी करने के बावजूद उनकी बचत सिफर है। खुद उन्हीं के शब्दों में “मेरा वेतन एक कटघरा था, जिसे तोड़ना मेरे वश में नहीं था। यह कटघरा मुझमें कमीज की तरह फिट था। और मैं अपनी पूरी ताकत से कमजोर होने की हद तक अपना वेतन पा रहा था। इस कटघरे में मैं सिनेमा देखता था या स्वप्न।”(नौकर की कमीज) सिनेमा देखना भी स्वप्न देखने की तरह ही था, क्योंकि उसका भी यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं था। उन्हें यह ठीक नहीं लगता कि दफ्तर के साहब को चापलूसी से खुश रखा जाए ताकि नौकरी करने में कोई अड़चन न आए। उन्हें ईमादारी से अपना काम करना ही पर्याप्त लगता है। इसलिए उपन्यास के शुरू में दफ्तर के दूसरे बाबू उनसे दूरी बनाए रखते हैं। दफ्तर के साहब भी उनके काम से खुश नहीं हैं। जबकि सन्तू बाबू अपने दफ्तर का काम ईमानदारी और लगन से करते हैं। हाँ, साहब का व्यक्तिगत काम करने की उनकी कोई इच्छा नहीं होती। इस क्रम में सन्तू बाबू एक तनाव की स्थिति में आ जाते हैं। तनाव में वे बहुत सारी ऐसी हरकतें करते हैं, जैसी दुनिया की नजर में एक सामान्य आदमी नहीं करता। सन्तू बाबू दुनिया की प्रचलित धारणाओं को मानते हुए नहीं चलना चाहते हैं। वे मानवता की राह पकड़ कर चलना चाहते हैं। इसलिए वे दुनिया को एक झक्की की तरह लगते हैं।
दुनिया सिर्फ अपने बारे में सोचने की आदी हो चली है। सन्तू बाबू अपने साथ दुनिया की भलाई भी चाहते हैं। कालाबाजारी के जमाने में मिट्टी का तेल मुश्किल से मिलता है। दुकानदार जो राशन का ठेका भी चलाते हैं, सन्तू बाबू से मिट्टी का तेल ले जाने की हिदायत देते हुए उन्हें यह बात किसी और को बताने से मना करते हैं। दुनिया का सामान्य नियम है कि खुद की जरूरत पूरी हो जाए, दूसरों से क्या मतलब? सन्तू बाबू ऐसे नहीं हैं। वे खुद तेल लेते हैं और सारी दुनिया को बताने चल पड़ते हैं कि गुप्ताजी की दुकान में मिट्टी का तेल आ गया है। जिसे चाहिए वह जाकर ले आए।यह बताते हुए वे एक नेता की तरह व्यवहार करने लगते हैं। चौराहे पर एक ऊँची जगह पर खड़े होकर वे मजदूर स्त्रियों के एक दल को सम्बोधित करके कहने लगते हैं “दोस्तों! जो बात मैं आप से कहूँगा उसे मैं ठीक से आप को समझा नहीं सकूंगा।… सुबह से आप लोग काम पर निकल जाते हैं। इतनी शाम को लौट रहे हैं। पर आपके चेहरे पर कोई थकान नहीं है। कौन-सी ताकत आपके पास है जिससे आप काम पूरा करने के बाद खुश होकर मुस्कुराने लगते हैं? अन्धेरा होनेवाला है। बहुतों के घर में कन्दील और चिमनी के लिए मिट्टी का तेल नहीं होगा, तब आप अन्धेरे में रहेंगे। अच्छी जिन्दगी समझते हैं आप? जो रोजी आपको मिलती है, जिस तरह आपका रहना है, वह अच्छी जिन्दगी नहीं है। आप इस पर सोचिए। मैं छोटापारा से आया हूँ, वहाँ गुप्ताजी की एक किराने की दुकान है…वहाँ मिट्टी का तेल दो रुपए लीटर बिक रहा है, जबकि सरकारी भाव एक रुपया तीस पैसा है। आप इतने थके हुए हैं कि रात में आपको उजाले की जरूरत नहीं पड़ती। पेट भरकर सोने के लिए खाना बनाने लायक उजाला आप को चाहिए।”(नौकर की कमीज) सन्तू बाबू नेता नहीं हैं। यह उनके मन से निकली आवाज है जो उनके सोच को दर्शाती है। यह एक सामान्य मनुष्य की दूसरे सामान्य मनुष्य के लिए चिन्ता का उज्ज्वल उदाहरण है।
सन्तू बाबू अपने घर-परिवार की जिम्मेवारी अच्छी तरह निभाना चाहते हैं। अच्छी तरह जिम्मेवारी निभाने का मतलब पैसे-रुपये से अपने घरवालों की मदद करना है। सन्तू बाबू के सीमित वेतन में यह सम्भव नहीं है। इसलिए उनको फिक्र है कि वे एक अच्छे भाई नहीं समझे जा रहे हैं।
नौकर की कमीज के सन्तू बाबू उस वर्ग के प्रतिनिधि हैं जो अपना काम ईमानदारी से करना चाहता है। जो जनता के साथ रहना चाहता है साहब और बड़े लोगों के साथ नहीं। इस वर्ग की इच्छा है कि इसके बच्चे, परिवार और समाज सबको भरपेट भोजन मिले, अच्छी शिक्षा मिले, स्वास्थ्य की सुविधा मिले। ऐसा सबके लिए करते हुए उसे किसी का एहसान न लेना पड़े।
बड़े बाबू इस उपन्यास के दूसरे महत्वपूर्ण पुरुष पात्र हैं। वे भी कभी सन्तू बाबू की स्थिति से गुजर चुके हैं। पर उनके अनुभव ने उन्हें समझौता करना सिखाया है। वे न तो साहब से उलझना चाहते हैं और न ही अपने से नीचे काम करनेवाले बाबुओं से। उनकी मान्यता है कि जीवन में जितने अधिक काम बिना किसी को नाराज किये बन जायें उतना ही अच्छा है। इसलिए वे एक तरफ साहब की खुशामद करते हैं, तो दूसरी तरफ सन्तू बाबू का भी ध्यान रखना चाहते हैं। वे उपन्यास में ‘विलेन’ की तरह नहीं, बल्कि परिस्थितियों से समझौता कर चुके अधेड़ व्यक्ति की तरह हैं जो बेवजह किसी से भी झमेला मोल नहीं लेना चाहता है।
गौराहा बाबू और देवांगन बाबू न तो सन्तू बाबू की तरह एकदम से नये बाबू हैं और न ही बड़े बाबू की तरह पुराने बाबू। यों दोनों अभी समझौता करने की राह पर हैं। इसलिए व्यवस्था के प्रति मन में आक्रोश लेकर भी ये व्यवस्था के डर में जीते हैं। एक तरफ उन्हें समझ में आ चुका है कि साहब को खुश किये बिना दफ्तर में ठीक से काम कर पाना मुश्किल है। दूसरी तरफ उन्हें पता है कि साहब अगर खुश हैं तो दफ्तर में काम करो या न करो कोई पूछने वाला नहीं है। गौराहा बाबू और देवांगन बाबू में होड़ लगी है कि साहब को अधिक खुश कौन रख सकता है। साहब को खुश करने का मतलब साहब के घर के काम करना है। साहब की पत्नी की खरीदारी में सहायता करना है।
उपन्यास में एक पात्र आता है- महंगू। विनोद कुमार शुक्ल लिखते हैं “जब वह पैदा हुआ था, तब उस जमाने में महँगाई रही होगी, इसलिए उसका नाम महंगू पड़ा। महँगाई कभी खत्म नहीं होगी, इसलिए मरते समय भी वह ऐसा लगेगा जैसे अभी-अभी पैदा हुआ है।” (नौकर की कमीज) महंगू दफ्तर का चपरासी है। उसके मर जाने के बाद उसका बेटा उसकी जगह पर काम करता है। बेटे का नाम महंगू ही पड़ जाता है। मानना चाहिए महँगाई तब तक रहेगी जब तक दुनिया रहेगी। आज से बीस साल पहले भी महँगाई थी। बीस साल बाद भी महँगाई रहेगी। अतः उपन्यास में महंगू एक प्रतीक के रूप में आता है।
सम्पत सन्तू बाबू का एकमात्र मित्र है। सम्पत किसी भी घटना का विश्लेषण कर सकता है। उसका विश्लेषण हमेशा नकारात्मक होता है। जैसे दुनिया में सब कुछ खराब ही है। कई बार वह आज के बुद्धिजीवियों की तरह लगता है जिन्हें दुनिया में सब कुछ बुरा ही नजर आता है। दुनिया हमेशा संकट में ही दिखाई देती है।
मकान मालिक, साहब और दुकानदार गुप्ता जी उपन्यास में शोषक वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में आते हैं। शोषण करने के इनके तरीके वही नहीं है जो सामन्ती समाज में हुआ करते थे। लोकतन्त्र में शोषण के तरीके भी बदल गये हैं। अब गरीबों, जरूरत मन्दों, मातहतों पर उपकार करके उसके बदले में उनसे काम करवाना या उनका शोषण करना ज्यादा आसान हो गया है। सन्तू बाबू का मकान मालिक मुफ्त में सन्तू बाबू का इलाज करता है। इस इलाज में डॉक्टर का कोई नुकसान नहीं होता और न ही उसे अलग से मेहनत करनी पड़ती है। पर सन्तू बाबू पर वह एहसान जता कर उनसे अपने कई काम करवा लेता है। बल्कि उनकी पत्नी से अपने घर की नौकरानी जैसा काम करवा लेते है। इसी तरह दफ्तर का साहब भी बाबुओं से अपने घर का काम करवाता है। बदले में वह उनसे दफ्तर का काम समय पर न करने पर नाराज नहीं होता है। इस तरह वह जताता है कि मैं अपने मातहतों की परवाह करता हूँ और बाबुओं से अपना काम भी निकलवा लेता है। विनोद कुमार शुक्ल के शब्दों में कहा जाए तो “दफ्तर के साहब कभी चपरासी या नौकर को घर की बची हुई चीज नहीं देंगे।…एक पीपा-भर काजू घुन लगकर खराब हो चुका था। बाई साहब (साहब की पत्नी) ने महंगू से कहकर उसे धूप में डलवा दिया। काजू में जाले भी लग गये थे।”(नौकर की कमीज) इस घुन लगे काजू को साहब अपने घर आनेवाले सभी बाबुओं को देते हैं। इस तरह वे एहसान करते हैं कि महँगाई के जमाने में हमने तुम्हें काजू खिलाया और दूसरी तरफ अपने खराब हुए काजू को बरबाद होने से बचा लेते हैं। साहब एक जगह कहते हैं, “मैं अपनी कमीज नौकर को कभी देना नहीं चाहूँगा। जो मैं पहनता हूँ उसे नौकर पहने, यह मुझे पसन्द नहीं है। मैं घर का बचा-खुचा खाना भी नौकरों को देने का हिमायती नहीं हूँ। जो स्वाद हमें मालूम है, उनको कभी मालूम नहीं होना चाहिए। अगर यह हुआ तो उनमें असन्तोष फैलेगा।” असन्तोष फैलेगा तो नौकर विद्रोह करेगा। अपनी वर्तमान हालत में सुधार करने की कोशिश करेगा। इस तरह वह साहब के हाथ से निकल जाएगा। अतः नौकर को नौकर ही बने रहने देना चाहिए। उस पर दया एक सीमा तक ही करनी चाहिए।
दुकानदार गुप्ता भी इसी श्रेणी में आते हैं। वे सन्तू बाबू को चुपके से यह बताते हैं कि मिट्टी का तेल आ गया है। वे आकर ले जायें, पर किसी और को न बतायें। गुप्ता मिट्टी का तेल सन्तू बाबू को दुगने दाम पर देते हुए भी जताता है कि उसने उनपर एहसान किया है। इन सभी शोषक पात्रों का चरित्र एक-सा है। पद भले अलग-अलग है, पर इनका भीतरी रूप एक है।
6. स्त्री पात्र
विनोद कुमार शुक्ल के इस उपन्यास में शायद ही किसी स्त्री पात्र को व्यक्ति वाचक संज्ञा से पुकारा गया हो। नौकर की कमीज के अधिकतर स्त्री पात्र जातिवाचक संज्ञा के रूप में ही आती हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो नौकर की कमीज के प्रायः सभी स्त्री पात्र अपनी जाति के प्रतिनिधि पात्र हैं। यहाँ जाति का मतलब सामाजिक जाति नहीं है, बल्कि वह विशेष वर्ग है जिससे वे सम्बन्धित हैं।
सबसे पहले सन्तू बाबू की पत्नी को देखा जाए। पूरे उपन्यास में इनका नाम नहीं दिया गया है। वह एक बाबू की पत्नी के रूप में ही दिखाई गयी है। बाबू ईमानदार है, इसलिए उसकी पत्नी को अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को मारकर जीना पड़ता है। अपने पति का हर काम करने में ही उसे सुख मिलता है। परन्तु वह घर के भीतरी मामलों में अपने पति का हस्तक्षेप सहन नहीं करती। यह उसकी दुनिया है। यहाँ बस उसका राज चलेगा। इस मामले में वह विशुद्ध पत्नी ही है। वह सन्तू बाबू की तरह के किसी भी क्लर्क की पत्नी हो सकती है। ऐसी पत्नी के अपने छोटे-छोटे सुख होते हैं। पत्नी के पास एक छोटी पेटी है, जो पति की नजर बचाकर रखी गयी है। एक दिन सन्तू बाबू जिद करके वह पेटी खोलते हैं। “पेटी खोलते ही, सबसे ऊपर पुट्ठे में चिपकी लक्ष्मीजी की फोटो थी। फोटो का एक कोना नहीं था।…तालाब में कमल के ऊपर खड़ी हुई लक्ष्मीजी। दोनों तरफ हाथी। एक हाथी की सूंड में फूल की माला, दूसरे की सूंड में कमल का फूल। लक्ष्मीजी के हाथ से चांदी का गिरता हुआ रुपया। पत्नी को उम्मीद होगी कि रुपये तस्वीर से छिटककर उसकी पेटी में भरते जाएंगे।”(नौकर की कमीज) पर ऐसा होता नहीं है। जब पति को पता चलता है कि इतने अभाव के बाद भी पत्नी ने कुछ रुपये बचा रखे हैं, तो वह उसे भी खर्च करने पर उतारू हो जाता है।
अब अम्मा। अम्मा “नाटे कद की, दुबली-पतली, मुँह में एक भी दांत नहीं, सफेद बाल बिखरे हुए, बिल्कुल माँ की तरह।” एकदम स्नेहमयी। ममतामयी। अपने बच्चों की खुशी में ही खुश। बच्चों का घर ठीक से बस जाये, उन्हें बस इसी की चिन्ता है। नौकर की कमीज में सास-बहू का झगड़ा नहीं है। क्योंकि यहाँ सास सास की तरह नहीं बल्कि मां की तरह हैं। इसलिए वह अपने बेटे और बहू की लड़ाई में बेटे का नहीं बल्कि बहू का पक्ष लेती हैं।
डॉक्टर की पत्नी और साहब की पत्नी एक ही तरह के पात्र हैं। दोनों को अपने पति के रौब और पद का अच्छी तरह लाभ उठाना आता है। जहाँ डॉक्टर की पत्नी सन्तू बाबू की पत्नी से अपने घर का सारा काम करवा लेती है वहीं साहब की पत्नी भी दफ्तर के बाबुओं से अपने घर का काम करवाती है। कहा जा सकता है कि उपन्यास में स्त्री पात्रों को पुरुष पात्रों की परछाईं के रूप में ही दिखाया गया है। यह पहले ही कहा जा चुका है कि विनोद कुमार शुक्ल का उद्देश्य चरित्र प्रधान उपन्यास लिखना नहीं था। शायद इसीलिए उन्होंने किसी चरित्र पर अलग से विशेष ध्यान नहीं दिया है।
7. निष्कर्ष
विनोद कुमार शुक्ल हिन्दी उपन्यास में अपनी अनूठी भाषा और शिल्प के लिए जाने जाते हैं। उनके उपन्यास में कोई महान पात्र या महान घटना घटित होती नहीं दिखाई जाती है। वे छोटी-छोटी घटनाओं को छोटे-छोटे पात्रों के माध्यम से पाठकों के सामने पेश करते हैं। उनका मानना है कि व्यवस्था मनुष्य पर धीरे-धीरे असर डालती है। उसे धीरे-धीरे अपने शिकंजे में जकड़ती है। इस तरह मनुष्य को पता ही नहीं चलता कि वह व्यवस्था के शिकंजे में फंसता चला जा रहा है। जब तक उसे पता चलता है तब तक वह व्यवस्था का आदी हो जाता है। उसे व्यवस्था इतनी बड़ी दिखाई देती है कि वह इसको तोड़ने के बारे में सोच भी नहीं पाता। विनोद कुमार शुक्ल ने नौकर की कमीज में इसी यथार्थ को दिखाने की कोशिश की है। अतः अपने इस उपन्यास में वे किसी महान पात्र की कल्पना नहीं करते। न ही वे किसी महान पात्र को गढ़ने की कोशिश करते हैं। इतना ही नहीं, इस उपन्यास में कोई महान खलनायक भी नहीं है। व्यवस्था ही यहाँ खलनायक है।
विनोद कुमार अपने छोटे-छोटे पात्रों को भी महत्वपूर्ण बनाकर पेश करते हैं। इसके लिए वे ‘अपरिचयीकरण’ का सहारा लेते हैं। भाषा के माध्यम से वे इन साधारण पात्रों को भी असाधारण बना देते हैं। पाठक इनकी ओर खिंचता जाता है और आलोचक चिढ़ता जाता है।
इस सम्बन्ध में कहा गया है – नौकर की कमीज उपन्यास भारतीय जीवन के यथार्थ और आदमी की कशमश को प्रस्तुत करने वाला उपन्यास है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसके पात्र मायावी नहीं बल्कि दुनियावी हैं, जिनमें कल्पना और यथार्थ के स्वर एक साथ पिरोए हुए हैं। कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि किसी पात्र को अनावश्यक रूप से महत्त्व दिया गया हो। हर पैरे और हर पात्र की अपनी महत्ता है।
केन्द्रीय पात्र सन्तू बाबू एक ऐसा दुनियावी पात्र है जो घटनाओं को रचता नहीं बल्कि उनसे जूझने के लिए विवश है और साथ ही इस सोसायटी के हाथों इस्तेमाल होने के लिए भी।
पुस्तकें
- नौकर की कमीज, विनोद कुमार शुक्ल, आधार प्रकाशन, पंचकूला।
- नौकर की कमीज,(पेपर बैक), विनोद कुमार शुक्ल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- विनोद कुमार शुक्ल : खिड़की के अंदर और बाहर, योगेश तिवारी, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली।
- आधुनिक हिन्दी उपन्यास-2, नामवर सिंह (सम्पादक),राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
- उत्तर-यथार्थवाद, सुधीश पचौरी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली।
- यूटोपिया की जरूरत, सम्पादक- रमेश उपाध्याय, शब्द संधान प्रकाशन, नई दिल्ली।
- सापेक्ष 12, विनोद कुमार शुक्ल विशेषांक, जुलाई 2009-जून 2010, दुर्ग, छत्तीसगढ़।
- पाखी, विनोद कुमार शुक्ल विशेषांक अक्तूबर 2013, गौतम बुद्ध नगर, उत्तरप्रदेश।
- Realism and Reality in India : The Novel and Society in India, Minakshi Mukherjee, Oxford University Press, Delhi.
वेब लिंक्स
- https://en.wikipedia.org/wiki/Vinod_Kumar_Shukla
- http://aajtak.intoday.in/story/vinod-kumar-shukla-interview-1-791276.html
- http://kavitakosh.org/kk/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%A6_%E0%A4%95%E0%A5%81%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
- http://www.imdb.com/title/tt0207626/
- https://en.wikipedia.org/wiki/Naukar_Ki_Kameez
- http://www.sawnet.org/cinema/reviews.php?Naukar+ki+Kameez+(The+Servant%27s+Shirt)