15 हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का उदय

प्रो. मैनेजर पाण्डेय

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –

 

● आधुनिकता की मूल अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।

● हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के विषय में जान पाएँगे।

● साहित्य के माध्यम से एक सिद्धान्त के रूप में आधुनिकता की विकास-प्रक्रिया जान पाएँगे।

● विशेष साहित्यकारों के लेखन में आधुनिकता के प्रभाव को रेखांकित कर पाएँगे।

  1. प्रस्तावना

 

साहित्यालोचन में ‘आधुनिकता’ एक महत्त्वपूर्ण अवधारणा ही नहीं, एक निश्‍च‍ित कालखण्ड में विकसित साहित्य का एक अनिवार्य आधार भी है। ‘हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का उदय’ के रूप में हम यहाँ इसका अध्ययन करेंगे। साहित्य में आधुनिकता की अवधारणा को लेकर विद्वानों में मतभेद है। साहित्य की आधुनिक दृष्टि के सैद्धान्तिक पक्ष को समझने के लिए उन मतभेदों को जानना महत्त्वपूर्ण है। आधुनिकता जिस तरह मानव विकास का स्वाभाविक चरण है; उसी प्रकार साहित्य में आधुनिकता भी एक स्वाभाविक चरण है। ऐसे में हमें यह जान लेने की आवश्यकता और अधिक हो जाती है कि ‘जनता की चित्तवृतियाँ’ वे कौन-सी थीं, जिन्होंने साहित्य में भी आधुनिकता को प्रश्रय दिया। इसके साथ ही  साहित्यालोचन में यह कैसे सहायक है या होगी?

  1. आधुनिकता की अवधारणा

 

हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का उदय कब हुआ? इस सवाल का जवाब इससे जुड़ा हुआ है कि हमारी आधुनिकता सम्बन्धी समझदारी क्या है? आधुनिकता के मायने हमारे लिए क्या हैं? आधुनिकता के बारे में आम जनों की प्रचलित समझदारी कुछ ऐसी रही है कि आधुनिकता का अर्थ मध्य कालीनता से मुक्ति है। मध्ययुगीनता से मुक्ति का तात्पर्य मोटे तौर पर श्रद्धा, आस्था और विश्‍वास की जगह क्रमशः तर्क, विवेक और विचार की स्थापना है, और अगर आधुनिकता को शब्दगत अर्थों के माध्यम से समझना चाहें तो आज के पॉपुलर विकिपीडिया के अनुसार आधुनिकता एक पद है, जो आधुनिक होने की शर्तों को व्याख्यायित करता है। चूँकि आधुनिकता का उपयोग एक बड़े कालखण्ड का वर्णन करने के लिए होता है। अतः आधुनिकता को उसके कालगत सन्दर्भ में ही देखना चाहिए ।

 

आधुनिकता के जिस रूप की प्रचलित अर्थों में समाज के विभिन्‍न क्षेत्रों में चर्चा होती है, वह वस्तुतः एक यूरोपीय अवधारणा है। हिन्दी में प्रयुक्त होने वाली आधुनिकता का अंग्रेजी पर्याय ‘माडर्निटी’ है, जो आधुनिकता के अर्थ में पूरे विश्‍व में स्वीकार्य है। हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के उदय पर बात करने से पूर्व यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि आधुनिकता कोरी साहित्यिक अवधारणा नहीं है, यह अन्य ज्ञानानुशासनों से होती हुई साहित्य में आई है और उसका एक अनिवार्य कालगत सन्दर्भ रहा है।

 

हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का उदय भारतेन्दु-युग से माना जाता  है। सवाल उठता है, क्यों? क्या भारतेन्दु-युग से पहले हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिकता की झलक नहीं दिखती? यदि नहीं तो उसके क्या कारण रहे? भारतेन्दुयुग में ऐसा क्या होता है, जिससे हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का उदय माना जाने लगता है? रामविलास शर्मा ने अपने ऐतिहासिक प्रयत्‍नों से हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के उदय का काल 12वीं सदी निश्‍च‍ित करने की कोशिश की है। रामविलास शर्मा ने पश्‍च‍िम में आधुनिकता के सोपानों के समानान्तर हिन्दी में भी वैसे ही सोपानों को रचने की अद्भुत मेधा का परिचय दिया है। मतलब यह कि यूरोप में आधुनिकता बुनियादी रूप से पुनर्जागरण और प्रबोधन रूपी विश्‍व सभ्यता के दो महत्त्वपूर्ण चरणों से गुजर कर आकार ग्रहण करती है।

  1. आधुनिकता क अवधारणा और उसके भौतिक आधार

 

1. प्रेस का आगमन

 

आधुनिकता के भौतिक आधारों का निर्माण हिन्दी साहित्य में भारतेन्दु युग और हिन्दी समाज में अंग्रेजी राज के दौरान होता है। आधुनिकता के भौतिक आधारों से तात्पर्य एक ओर तो मुद्रण यन्त्र और यातायात के समुन्‍नत साधनों के निर्माण और प्रचालन से है, तो दूसरी ओर पूँजीवाद की विकसित अवस्था से है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम आधुनिकता के इन्हीं भौतिक आधारों में से एक की पहचान करते हुए इस बात को रेखांकित किया कि साहित्य में आधुनिकता का वाहक प्रेस होता है और उसके प्रचार के वाहक यातायात के समुन्‍नत साधन होते हैं।

 

प्रेस आधुनिकता के प्रचार-प्रसार के लिए जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही मध्यकालीनता के प्रचार-प्रसार के लिए भी। उदाहरण के लिए छपाई के प्रारम्भ होने से न केवल आधुनिक ज्ञान का, अपितु पारम्परिक महाकाव्यों, पुराणों, सन्तों की जीवनियों और अन्य धार्मिक साहित्य का भी प्रसारण हुआ। जिससे सम्प्रेषण की क्रान्ति का श्रीगणेश हो चुका था। सम्प्रेषण की क्रान्ति का श्री-गणेश होने का सम्बन्ध तकनीक से है, जबकि सम्प्रेषण की अन्तर्वस्तु का सम्बन्ध उससे जुड़ी ऐतिहासिक चेतना से है। मतलब यह कि अन्तर्वस्तु के धरातल पर वह रचना मध्यकालीनता का प्रचार-प्रसार कर रही है या आधुनिकता का? तकनीक विज्ञान की देन है। विज्ञान, मतलब ऐसी पद्धति या ऐसी व्यवस्था, जिसके मध्य कार्य-कारण सम्बन्ध हो, जिसके परिणाम सार्वभौमिक हों, बिना किसी भेद-भाव के। तकनीक विज्ञान की देन के साथ-साथ स्वयं एक अर्थ में विज्ञान है। तार्किकता, वैचारिकता और आत्मप्रश्‍नेयता जो विज्ञान के गुण माने जाते हैं, समान रूप से तकनीक पर भी लागू होते हैं। जिस प्रकार विज्ञान अपनी भूमिका का निर्धारण स्वयं नहीं करता और उसकी अपनी कोई चेतना नहीं होती; ठीक यही बात तकनीक के सन्दर्भ में भी लागू होती है।

 

2. तकनीक का विकास

 

तकनीक की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती । तकनीक की विचारधारा का नियमन उन शक्तियों द्वारा होता है, जिनके अधीन वह तकनीक होती है। तकनीक के मनोनुकूल प्रयोग द्वारा वांछित विचारधारा का निर्माण किया जा सकता है। जैसे तकनीक की सहायता से उपनिवेशकाल में प्राच्यविद्याविदों (ओरिएण्टलिस्ट) और भारतविदों (इण्डोलॉजिस्ट) ने एक प्रकार की मनसिक गुलामी भारतीयों पर थोपने की कोशिश की और भारतीयों के सन्दर्भ में यह सामान्यबोध विकसित किया कि भारतीय अध्यात्मवादी, परम्परा-प्रेमी और लोकतन्त्र के लायक नहीं हैं। उस वर्चस्ववादी विचारधारा के प्रतिरोध में जो सांस्कृतिक-श्रेष्ठता प्रस्तावित हुई उसके प्रत्युत्तर का माध्यम भी वही तकनीक रही। तकनीक द्वारा विचारधारा के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों पक्षों को उभारा जा सकता है। यह बात केवल प्रेस तक ही नहीं, आधुनिकता के अन्य भौतिक आधारों पर भी सामान्य रूप से लागू होती है कि वे आधुनिकीकरण के विपरीत कार्यों में भी इस्तेमाल किए जाते हैं।

 

3. भारतेन्दु-युग के साहित्य में गद्य का विकास

 

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य का इतिहास  में गद्य की परम्परा एक साथ चलाने वाले जिन ‘लेखक चतुष्टय’ का उल्लेख किया है, उनकी रचनाओं की अन्तर्वस्तु पारम्परिक और भाषा आधुनिकता है। भारतेन्दु के यहाँ यह आधुनिकता निर्माण की प्रक्रिया में है। भारतेन्दु-मण्डल के रचनाओं की इस चेतना का गहरा सम्बन्ध उस दौर की हिन्दी पत्रकारिता से है। भारतेन्दु मण्डल में प्रायः सभी रचनाकार पत्रकारिता से सम्बद्ध हैं। भारतेन्दु-युग के बाद भी यह परम्परा जारी रही। बालकृष्ण भट्ट, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, रामचन्द्रशुक्ल और निराला अपनी विशिष्टताओं के साथ कहीं-न-कहीं इसी परम्परा के अगले पड़ाव थे। कहना न होगा कि पत्रकारिता के पेशे से जुड़े रहने के कारण यह अंग्रेजी राज की प्रगतीशीलता के आवरण में छिपे, भारत के स्थिर विकास और आर्थिक दोहन के मध्य अटूट सम्बन्ध को समझने में सफल हो सके थे। इनके लेखन में इनकी चिन्ताएँ लगातार उजागर होती रहती थीं। प्रेस के बिना स्कूल, कॉलेज, विश्‍वविद्यालय असम्भव थे। आधुनिक शिक्षा असम्भव थी। समाचार-पत्र असम्भव थे। हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के उदय में गद्य की निर्णायक भूमिका को समझ कर ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल की शुरुआत भारतेन्दु युग से मानी थी। भारतेन्दु के समय हिन्दी समाज जिस विचार-प्रक्रिया से संचालित होने की तैयारी कर रहा था, खड़ी बोली हिन्दी उसी ऐतिहासिकता की कोख से उपजी थी, इसीलिए उसमें विचारों को धारण करने की जो जन्मजात क्षमता थी, उसने हिन्दी में गद्य को बहुत कम समय में स्थापित कर दिया। भारतेन्दु युग में अस्तित्व में आने वाली गद्य विधाओं की ओर ध्यान देने पर इस पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया को समझा जा सकता है। इस पृष्ठभूमि के साथ अब भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र एवं उनके युगीन साहित्य पर दृष्टिपात करना संगत जान पड़ता है, जिससे हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के उदय पर थोड़ी बात की जा सके।

  1. साहित्य में आधुनिकता के मूल सरोकार : साहित्य के माध्यम से

 

1. भारतेन्दुयुगीन हिन्दी साहित्य

 

भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के वास्तुकार माने जाते हैं। सवाल उठता है क्यों? क्योंकि उनसे पहले हिन्दी साहित्य में “प्रकृति की एकरूपता, जीवन की चिन्त्य बातों तथा जगत के नाना रहस्यों की ओर कवियों की दृष्टि नहीं जा पाई। वह एक प्रकार से बद्ध और परिमित-सी हो गई। उसका क्षेत्र संकुचित हो गया। वाग्धारा बँधी हुई नालियों में प्रवाहित होने लगी, जिससे अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त होकर सामने आने से रह गए।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास , पृ.131) एक तरह से भारतेन्दु ने हिन्दी साहित्य को जड़ता की स्थिति से गतिशील दशा में लाने का काम किया। इन अर्थों में भारतेन्दु युगान्तकारी थे और इस युगान्तकारी भूमिका के मूल में ही उनकी आधुनिकता निहित है। उनकी इस ऐतिहासिक और युगान्तकारी भूमिका को सबसे पहले आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने पहचाना था और उसे स्थापित करने का काम रामविलास शर्मा ने किया। भारतेन्दु की इन भूमिकाओं को जाने बिना उनकी आधुनिकता की अवधारणा को नहीं समझा जा सकता है। औपनिवेशिकता के परिप्रेक्ष्य के साथ इस बात का भी स्मरण रखना होगा कि विधा के स्तर पर साहित्य की भी अपनी एक सीमा और सम्भावनाएँ हैं। हिन्दी साहित्य के सर्जक और चिन्तकों ने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय उस सीमा और सम्भावनाओं के अन्तर्गत ही दिया है।

 

हिन्दी नवजागरण के अग्रदूतों की भूमिका हिन्दी में साहित्यकारों ने ही निभाई थी। यहाँ बांग्ला और मराठी नवजागरण की तरह समाज सुधार या धर्म-सुधारकों ने यह मोर्चा नहीं संभाला था। इसीलिए हिन्दी-भाषी क्षेत्र में सामाजिक, राष्ट्रीय और राजनीतिक जागरूकता की जिम्मेदारी इन हिन्दी के साहित्यकारों पर ही थी। भारतेन्दु का युग कई स्तर पर नूतन पुरातन के संघर्ष का काल था। आधुनिक शिक्षा जिन संस्कारों को बोने का काम कर रही थी, उसके कारण यह फाँक और बढ़ी ही थी। यही कारण है कि भारतेन्दु युग में द्वन्द्व और अन्तर्विरोध सिर्फ व्यक्ति तक सीमित नहीं थे, बल्कि वह तत्कालीन समय और समाज का भी हिस्सा थे। इस युग का प्रधान द्वन्द्व और अन्तर्विरोध देशभक्ति और राजभक्ति का था। भारतेन्दु इस से अछूते नहीं थे, लेकिन अपने समय और समाज की सीमाओं के अतिक्रमण की चेष्टा उनके लेखन में लगातार मौजूद है। अपने समय और समाज की चिन्ता से भारतेन्दु की चेतना का निर्माण हुआ है और उनकी इस चेतना से उनका साहित्यिक कार्यवृत्त संचालित था। इस कार्यवृत्त का मूल उद्देश्य यह था कि ‘भारतवर्ष की उन्‍नति कैसे हो सकती है?’ देशोन्‍नति की इस भावना को भारतेन्दुयुगीन आधुनिकता की प्रधान विशेषता समझा जा सकता है। सन् 1882 में लाला श्रीनिवासदास द्वारा लिखे ‘अंग्रेजी ढंग के पहले उपन्यास परीक्षागुरु का भी केन्द्रीय भाव देशोन्‍नति की चेतना का प्रचार-प्रसार ही है।’ सन् 1883-84 के आस-पास ही प्रतापनारायण मिश्र ने भी ‘देशोन्‍नति’ शीर्षक लेख लिखा था। देशोन्‍नति के मूल में आर्थिक प्रश्‍न ही प्रमुख थे।

 

भारतेन्दु देशोन्‍नति के लिए जिन पाँच बातों पर बल देते हैं, उनका सम्बन्ध देशोन्‍नति और स्वत्व के निर्माण से है। वे पाँच बातें हैं – निज भाषा की उन्‍नति, कला विद्या (शिक्षा) का प्रचार-प्रसार, राष्ट्रीय चिन्तन और समकालीन परिस्थितियों के प्रति आम-जन में यथार्थ-चेतना का उदय तथा जातीय एकता। यदि इन पाँच बातों की उद्देश्यपरकता को ध्यान में रखें तो कहना न होगा कि इन बातों के माध्यम से भारतेन्दु औपनिवेशिक नीतियों के समक्ष भारत की प्रतिरोधक क्षमता विकसित करना चाह रहे थे।

 

यदि अंग्रेजों की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक नीतियों पर विचार करें तो हम पाएँगे कि वह लूट और झूठ की व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक थी। इस लूट और झूठ की व्यवस्था की असलियत से जनता को परिचित कराने का माध्यम पत्र हो सकते थे। भारतेन्दु ने इस सच को बहुत पहले पहचानने का काम किया। आज यदि पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहते हैं, तो इसमें भारतेन्दु और भारतेन्दुयुगीन पत्रकारिता की ऐतिहासिक भूमिका को नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता है। ‘सभ्यता के अभियान के नाम पर’ अंग्रेज, दमन की संस्कृति को भारतीयों पर आरोपित कर रहे थे। उस दमन के वातावरण में अपने विचारों को अभिव्यक्त करना ही अपने आप में प्रतिरोध था। भारतेन्दु ने पत्रिका और साहित्य की जुगलबन्दी की मार्फ़त प्रतिरोध का एक नया शास्‍त्र रचा था।

 

अर्थात्, आधुनिकता जिस मुक्तिकामी चेतना का नाम है, वह चेतना अत्यन्त प्रखर रूप में भारतेन्दु के यहाँ देखने को मिलती है। उस चेतना के चिन्तन की स्पष्ट प्रविधि भी हमें देखने को मिलती है। कालबोध से उपजा राष्ट्र बोध; राष्ट्र के विकास में बाधक कारकों की पहचान, आन्तरिक और बाह्य दोनों स्तरों पर; उसको दूर करने के उपाय और उसके लिए किए गए प्रयत्‍न में ही भारतेन्दु की आधुनिकता निहित है, जिन्हें देशोन्‍नति और स्वत्व निर्माण की प्रक्रिया के ऐतिहासिक प्रयत्‍न में देखा जा सकता है।

 

2. महावीरप्रसाद द्विवेदी और आधुनिकता

 

भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र ने हिन्दी साहित्य को दिशा प्रदान करते हुए जिस कार्यसूची को प्राथमिकता दी थी। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने उसी कार्यसूची को आगे बढ़ाने का काम किया। भारतेन्दु यदि अपने युग की धुरी थे तो महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भी हिन्दी साहित्य में वही केन्द्रीयता हासिल की थी। भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र ने देशोन्‍नति के सन्दर्भ में निजभाषा की उन्‍नति का जो सिद्धान्त प्रस्तावित किया था, उसको व्यवहारिक स्तर पर मूर्त्त रूप प्रदान करने का काम द्विवेदी जी ने किया। महावीरप्रसाद द्विवेदी अपनी भाषा विषयक मान्यताओं से इतर सम्पति-शास्‍त्र के विवेचन के कारण हिन्दी साहित्य में अन्यतम हैं। भारतेन्दु की इस बात की चिन्ता ‘पै धन विदेश चली जात इहै अति ख्वारी’ में करते हैं। आर्थिक शोषण की उस प्रक्रिया को तथ्यों और आँकड़ों के अलोक में सामने लाने का काम महावीरप्रसाद द्विवेदी ने किया। चिन्ता की इसी निरन्तरता को प्रेमचन्द की ‘महाजनी सभ्यता’ में सहजता से लक्ष्य किया जा सकता है। आधुनिकता जिस चेतना को कहते हैं, उसका काम मुक्ति की मानसिकता निर्मित करना है। चूँकि मुक्त होने की क्रिया वर्तमान में ही घटित होती है, इसीलिए आधुनिकता के साथ समकालीनता का भाव अनिवार्यतः जुड़ा रहता है। बिना समकालीनता के आधुनिक नहीं हुआ जा सकता है। द्विवेदी जी के यहाँ समकालीनता एक प्रधान प्रवृत्त‍ि है, जिसका सम्बन्ध राष्ट्रीय चिन्ता से जुड़ा हुआ है और जिसको स्पष्ट रूप से डॉ. रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण  में दिखाया है। महावीरप्रसाद द्विवेदी के निबन्धों का उद्देश्य उस मुक्ति की मानसिकता का निर्माण करना था, जिसे हम आधुनिकता कहते हैं।

 

3. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आधुनिकता

 

भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र से जातीय साहित्य और जातीय चेतना के निर्माण की जो प्रक्रिया बालकृष्ण भट्ट, महावीरप्रसाद द्विवेदी से होती हुई प्रेमचन्द तक पहुँची थी, उसी का विस्तार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के यहाँ हमें देखने को मिलता है। भारतेन्दु हरिश्‍चन्द ने जिस ‘स्वत्व और निजता’ के माध्यम से भारतीय अस्मिता की पहचान विकसित करने की बात की थी, महावीरप्रसाद द्विवेदी ने उस ‘स्वत्व और निजता’ को तर्कसम्मत बनाने के लिए ‘अन्तर्ज्ञानानुशासनात्मकता’ का सहारा लिया। इस कारण भारतेन्दु युग में जो ‘साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास’ मात्र समझा जाता था, वह द्विवेदी युग में आकर ‘ज्ञानराशि का संचित कोष’ बन गया। साहित्य की यह बदली हुई परिभाषा बदले हुए युग और ऐतिहासिक आवश्यकता के अनुरूप स्वयं को अनुकूलित करने की प्रवृत्त‍ि का उदाहरण थी। इस प्रक्रिया और प्रवृत्त‍ि को पहचानने के कारण ही आचार्य शुक्ल साहित्य को इस रूप में देख सके, ‘जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ कि जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्‍च‍ित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है।’ तो इस तरह विचारों के क्रम में हम एक क्रमबद्धता और एकसूत्रता को देख सकते हैं।

 

रामविलास शर्मा ने ही पहली बार बल देकर दिखलाया कि आचार्य शुक्ल का विकास भारत के नवीन राष्ट्रीय उत्थान के साथ हुआ। उन्होंने ही आचार्य शुक्ल के साहित्येतिहास को ‘हिन्दी प्रदेश की पद-दलित और अपमानित जनता के सम्मान-रक्षा के तौर पर देखने की प्रस्तावना निर्मित की। जिसके नए पहलुओं की खोज और व्याख्या का कार्य आगे चलकर मैनेजर पाण्डेय, वीर भारत तलवार और भवदेव पाण्डेय ने किया। आचार्य शुक्ल जिस समय साहित्य के मैदान में उतरे, उस समय राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्‍न सबसे महत्त्वपूर्ण बना हुआ था। परम्परा या आधुनिकता? हमारी संस्कृति, साहित्य और राष्ट्र का विकास किस दिशा में होना चाहिए? हम किसके आधार पर ज्यादा शक्तिशाली बनेंगे? राष्ट्रीय आन्दोलन से उठे इन प्रश्‍नों ने आचार्य शुक्ल के लेखन का परिप्रेक्ष्य तैयार किया। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यह परिप्रेक्ष्य या सन्दर्भ आचार्य शुक्ल का नहीं, भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, महावीरप्रसाद द्विवेदी तथा प्रेमचन्द का भी रहा है। इस परिप्रेक्ष्य के प्रति जिस ढंग से इन लेखक विचारकों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की, उसके आधार पर हिन्दी साहित्य का स्वरूप निर्मित और विकसित हुआ। भारतीय नवजागरण काल में भारत की खोज और भारतीय समाज-संस्कृति तथा साहित्य के इतिहास-लेखन की कोशिश, उन अवरोधक शक्तियों के प्रतिरोध के रूप में दर्ज अपनी सृजनशीलता की स्मृतियों के परिणाम हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास इसी प्रक्रिया की देन है। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य से उपजी चुनौतियों के स्वरूप को समझ कर ही उसका सम्भावित समाधान प्रस्तावित किया जा सका। ऐतिहासिक परिस्थिति से उपजे प्रश्‍नों के प्रति लेखकों-विचारकों की समझ और एप्रोच को उनके व्यक्तिगत प्रयत्‍नों के तौर पर देखा जा सकता है। तत्कालीन सवालों के दबाव से कई साहित्यिक विधाएँ और साहित्यिक शैली आदि अस्तित्व में आए। आचार्य शुक्ल ने इन परिवर्तनों को अपने इतिहास ग्रन्थ में दर्ज किया है। जैसे आधुनिक काल के पूर्व हिन्दी का अस्तित्व किस रूप में था – इस पर विचार करते हुए ब्रजभाषा की काव्य परम्परा को जहाँ एक ओर उन्होंने सामने रखा, वहीं दूसरी ओर तत्कालीन सन्दर्भों में उसकी अपर्याप्तता प्रकट करते हुए खड़ी बोली की अनिवार्यता को रेखांकित किया। मतलब यह कि खड़ी बोली और गद्य विधाओं का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है और इनके बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य की परिकल्पना सम्भव ही नहीं थी।

 

आचार्य शुक्ल के यहाँ आधुनिकता की अवधारणा पर कम और उसकी प्रक्रिया तथा अनुप्रयोग पर बल ज्यादा है। इसका मतलब यह नहीं है कि आचार्य रामचन्द्र शुक्ल आधुनिकता की अवधारणा से सुपरिचित नहीं थे। हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिकता शब्द के प्रथम प्रयोक्ता आचार्य शुक्ल ही थे। यूँ तो उन्होंने अपने लेखन में कई स्थलों पर आधुनिकता शब्द का प्रयोग किया है, लेकिन अपने इतिहास ग्रन्थ में उन्होंने इसे जिस रूप में याद किया, वह देखने योग्य है, जिसमें उन्होंने आधुनिकता को एक विदेशी प्रभाव के रूप में देखा तथा उसे हमारे सच्‍चे साहित्य को धूमिल करने वाला माना।

 

ऐसा कोई भी प्रभाव जो हमारे ‘विचार शैथिल्य और बुद्धि के आलस्य को बढ़ाने वाला साबित हो, आचार्य शुक्ल उसका स्पष्ट और मुखर विरोध करते हैं। वे भारत के विकास का स्वतन्त्र मार्ग तलाश रहे थे, जिसकी खोज आयातित विचारधारा के अन्धानुकरण से सम्भव नहीं थी।

 

4. प्रेमचन्द और आधुनिकता

 

प्रेमचन्द हिन्दी साहित्य ही नहीं, भारतीय साहित्य के निर्माताओं में से एक हैं। जो बात उन्हें हिन्दी की परिधि से निकालकर राष्ट्रीय अर्थों में विचारणीय बनाती है, वह उनके राष्ट्र निर्माण की चिन्ता है। उनकी राष्ट्र निर्माण की चिन्ता को उनकी आधुनिकता की चेतना से जोड़कर देखा जा सकता है। समग्रता में उनके लेखन का उद्देश्य, स्वराज प्राप्ति है। प्रेमचन्द स्वतन्त्रता को स्वावलम्बन से जोड़कर देखते हैं। स्वावलम्बन की यह धारणा हर क्षेत्र में स्वालम्बन से सम्बद्ध है। अर्थव्यवस्था उस स्वावलम्बन की रीढ़ है। प्रेमचन्द जिस स्वराज्य की कामना करते हैं, उसमें आर्थिक स्वावलम्बन के बाद ‘आत्म-निर्णय’ के अधिकार की दिशा में प्रयास की बात करते हैं। इस आत्म-निर्णय का सम्बन्ध राजनीतिक निर्णय स्वयं लेने से है। प्रेमचन्द के लिए स्वराज्य का मतलब ‘अपने देश का पूरा-पूरा इन्तजाम उस देश की प्रजा के हांथों में होने से था’, स्वावलम्बन से था।

 

लेखन एक सांस्कृतिक कर्म है। इसे जानते बहुत-से लोग हैं, पर समझते बहुत कम हैं। प्रेमचन्द इसे समझने वालों में से थे। इसे समझानेवाला ही साहित्य को देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्‍चाई ही नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाते हुए चलने वाली सच्‍चाई कह सकता था। साहित्य के प्रति ऐसे अन्तर्ज्ञानानुसनात्मक दृष्टि के बिना प्रेमचन्द उस साहित्य की कल्पना नहीं कर सकते थे, जो उनकी कसौटी पर खरा उतरे।

  1. निष्कर्ष

 

भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र के यहाँ जो आधुनिकता निर्माण की प्रक्रिया में थी, वह प्रेमचन्द तक आकर एक निश्‍च‍ित आकार ग्रहण कर लेती है। यदि हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के आरम्भ का कोई समय निश्‍च‍ित करना हो तो उसे सन् 1868 में कवि वचन सुधा  के प्रकाशन काल से और आधुनिकता के इस आरम्भिक चरण की समाप्ति सन् 1936 में ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ की स्थापना के साथ माना जा सकता है। सन् 1868 से सन् 1936 के बीच के साहित्यिक विकास को देखें, तो उसमें एक आवयविक सम्बन्ध दिखता है। स्वाधीनता आन्दोलन जैसे-जैसे तेज होता गया, उसका प्रभाव उस दौर के साहित्य और उसमें व्यक्त विचारों में भी पड़ता गया।

 

स्वाधीनता आन्दोलन जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, उसमें एक क्रमिक विकास परिलक्षित हुआ। हिन्दी साहित्य की जिस आरम्भिक आधुनिकता की बात की जा रही है, उसका आरम्भ भारतेन्दु की देशोन्‍नति और स्वत्व गठन की चिन्ता से हुआ था। जो आर्थिक और सांस्कृतिक सवालों से होकर स्वराज्य की माँग तक पहुँचता है। स्वराज्य की माँग में निहित आत्मनिर्णय के अधिकार को लक्ष्य करें, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि देशोन्‍नति के माँग में जहाँ अंग्रेजी राज के प्रति थोड़ी आस्था भी व्यक्त होती है, वहीं स्वराज्य की माँग तो एक ज्यादा विकसित और बढ़ी हुई राजनीतिक चेतना का सूचक जान पड़ती है। इसीलिए हिन्दी साहित्य में आधुनिकता को मुक्तिकामी चेतना के अर्थ में ग्रहण किया जाना चाहिए।

 

 

you can view video on हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का उदय

वेब लिंक्स

  1. http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=1703&pageno=1
  2. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%86%E0%A4%A7%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A4%A4%E0%A4%BE
  3. http://elearning.sol.du.ac.in/dusol/mod/book/view.php?id=1545&chapterid=2412
  4. https://www.youtube.com/watch?v=uQ9HNYrttQ4