5 हिन्दी साहित्य के इतिहास की रूपरेखा

प्रो. रामबक्ष जाट जाट

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  1. पाठ का उद्देश्य

 

इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप–

  • हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रारम्भ की जानकारी प्राप्‍त कर पाएँगे।
  • हिन्दी साहित्य के इतिहास के विभिन्‍न कालों की अवधि के बारे में जान पाएँगे।
  • हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक समग्र रूपरेखा समझ पाएँगे।
  1. प्रस्तावना

 

हिन्दी साहित्य के इतिहास की प्राथमिक चिन्ता उसके प्रारम्भ की है। कब से हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ हुआ? दूसरे, जिस समय हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ हुआ था, उस समय हिन्दी भाषा का स्वरूप क्या था ? क्या उस समय भी हिन्दी का वही रूप था, जो आज है। अर्थात क्या हिन्दी साहित्य का इतिहास खड़ी बोली का ही इतिहास है। इस दृष्टि से यह जान लेना आवश्यक है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास सिर्फ खड़ी बोली का इतिहास नहीं है। खड़ी बोली का साहित्य तो आधुनिक काल में सन् 1870 के बाद का साहित्य माना जाता है। उससे पहले आधुनिक साहित्य की पृष्ठभूमि का काल माना जाता है। इस काल तक खड़ी बोली का रूप स्थिर ही नहीं हो पाया था।

 

खड़ी बोली से पूर्व हिन्दी भाषी प्रान्तों की काव्यभाषा ब्रजभाषा थी, जिसका प्रारम्भ चौदहवीं सदी में हुआ विशेष रूप से सूरदास के काव्य से। इसके बाद उन्‍नीसवीं शताब्दी के अन्त तक साहित्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा प्रतिष्ठित थी। इसके साथ-साथ अवधी, डिंगल और मैथिली में भी साहित्य रचनाएँ हो रही थीं। डिंगल (पुरानी राजस्थानी) और मैथिली में और भी पहले से काव्य रचनाएँ होने लगी थीं।

 

इससे पूर्व पुरानी हिन्दी का काल था। अर्थात अपभ्रंश के बाद की भाषा।कुछ इतिहासकारों का मत है कि यहीं से वास्तविक हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ माना जाना चाहिए।

  1. आदिकाल

 

हिन्दी के अधिकांश आलोचकों का अनुमान है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारम्भ सन् 1000 के आसपास होता है। इस दृष्टि से सन् 1000 से 1300 तक का काल आदिकाल माना जाता है। इस युग में देश में कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं थी। छोटे-छोटे राजा-महाराजा अपने क्षेत्र का विस्तार करने के लिए हमेशा युद्धरत रहते थे। भारत में इस्लाम का प्रवेश हो चुका था। सन् 1192 में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद भारत में मुस्लिम साम्राज्य विधिवत स्थापित हो चुका था। सभी राजा संघर्षरत और अस्थिर थे। कोई भी, कभी भी पराजित हो सकता था। कवि राजदरबार में रहते थे। वे राजा के साथ युद्ध भूमि में भी विचरण करते थे। उसी अनुभव के आधार पर रासो ग्रन्थों की रचना हुई। कुछ कवि जनता के बीच में रहते थे, जो आगे चलकर भक्तिकाल के प्रेरणा स्रोत बने।

 

इस युग में धार्मिक दृष्टि से इस्लाम के साथ-साथ हिन्दू, बौद्ध और नाथ-सिद्ध भी थे; ये भी आपस में वैचारिक-राजनीतिक संघर्ष की स्थिति में थे। ऐसे ही समय में बख्तियार खिलजी ने मात्र 18 घुड़सवारों की सेना की मदद से बंगाल पर विजय प्राप्‍त कर ली और सन् 1193 में नालन्दा और विक्रमशिला विश्‍वविद्यालय को नष्ट कर दिया। भाषा की दृष्टि से देखा जाए तो इस काल में संस्कृत में काफी रचनाएँ हो रही थीं। संस्कृत का ज्ञान उन दिनों प्रतिष्ठा की बात समझी जाती थी। इस काल में हेमचन्द्र (सन् 1088-1097), अमीर खुसरो (सन् 1253-1325), चन्दवरदाई (सन् 1126-1196), जगनिक (सन् 1173), मुल्ला दाऊद (सन् 1379), विद्यापति (सन् 1360-1488) उपस्थित थे।

 

इस काल में यह निश्‍च‍ित नहीं हो पा रहा था कि आगे चलकर हिन्दी भाषी प्रान्तों की भाषा का क्या रूप होने वाला है ? सामाजिक स्तर पर वर्णाश्रम व्यवस्था और वर्णाश्रम विरोध केन्दीय प्रश्‍न था। धर्म के स्तर पर धीरे-धीरे हिन्दू और सूफीमत का वर्चस्व स्थापित हो रहा था।

 

ऐसे अस्पष्ट-अनिर्णय के काल में हिन्दी साहित्य का आदिकाल अस्तित्व में आया। जिसमें सिद्धों और नाथों की रचनाएँ, रासो काव्य, विद्यापति की रचनाएँ, खुसरो की रचनाएँ सब कुछ अपनी-अपनी तरह से सामने थीं। इस काल की कोई निश्‍च‍ित केन्द्रीय विशेषता नहीं बन पाई। कई तरह की रचनाएँ उस दौर में लिखी गईं।

  1. मध्यकाल

 

भक्तिकाल

 

इसके पश्‍चात् भक्तिकाल का प्रारम्भ हुआ।इतिहासकारों ने भक्तिकालीन साहित्य का इतिहास जानने के लिए भक्तिकाल की पृष्ठभूमि की विस्तार से चर्चा की है।उन्होंने शंकराचार्य के उदय और बौद्ध धर्म के ह्रास के बाद की दार्शनिक मान्यताओं में इसके बीज ढूँढे हैं। यहाँ निर्गुण-सगुण विवाद, रामभक्ति, कृष्णभक्ति, सूफी प्रेमाख्यान की प्रमुख प्रवृत्तियाँ सामने आईं।खास बात यह है कि ये चारों प्रवृतियाँ इस काल में लगभग साथ-साथ चलीं। फिर भी थोड़े बहुत फेर बदल के साथ कबीर आदि का निर्गुण पन्थ सबसे पहले आया। इसी के साथ सूफियों की उपस्थिति, फिर कृष्णभक्ति और अन्ततः रामभक्ति­ की परम्परा बनी। राजनीतिक दृष्टि से यह काल सन्1300 से 1650 तक मुस्लिम शासन का काल था। दिल्ली सल्तनत से मुग़ल शासन तक यह काल फैला हुआ था। भाषा की दृष्टि से अवधी, ब्रज और सधुक्‍कड़ी, जिसे खड़ी बोली का प्रारम्भिक रूप कह सकते हैं, साहित्यिक भाषा के रूप में मान्य थी। विद्यापति की उपस्थिति से मैथिली का गौरव भी बना हुआ था। भक्तिकाल के उदय की चर्चा के प्रसंग में भारत में इस्लाम का आना केन्द्रीय प्रश्‍न था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भक्तिकाल के उदय को इस्लाम की प्रतिक्रिया के रूप में देखा, जबकि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने माना कि भारत में इस्लाम का आना नहीं भी हुआ होता, तो भी हिन्दी साहित्य का बारह आना वैसा ही होता, जैसा हुआ है। इस कारण द्विवेदी ने विस्तार से भारतीय चिन्ताधारा के विकास की कहानी बताई। बाद के इतिहासकारों ने इस बिन्दु पर इतना विवाद नहीं किया। उन्होंने तथ्य की तरह इस्लाम की उपस्थिति को स्वीकार किया। बाद के इतिहासकारों और आलोचकों ने दलित जातियों के स्वाभिमान के प्रश्‍न को गम्भीरता से उठाया। वर्णाश्रम धर्म का महत्त्व या उसको दी गई चुनौती, केन्द्रीय प्रश्‍न के रूप में सामने आई। भक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ वर्णाश्रम धर्म पर प्रश्‍न उठाने से हुआ और भक्तिकाल का अन्त वर्णाश्रम धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा से हुआ। तुलसीदास के रामचरितमानस  में यह प्रकिया पूरी तरह घटित हुई। तुलसीदास के समन्वयवाद में निर्गुण-सगुण विवाद के साथ शैव-वैष्णव विवाद भी समाप्‍त हुआ। तुलसी के बाद न कोई बड़ा रामभक्त कवि हुआ और न ही भक्तिकाल की अन्य धारा का ही कोई कवि पैदा हुआ। हिन्दी साहित्य में राधा-कृष्ण के बहाने रीतिकाल की प्रतिष्ठा हुई।

  

रीतिकाल

 

भक्तिकाल की कृष्णभक्ति काव्यधारा और ब्रजभाषा के गर्भ से रीतिकाल का उदय हुआ। सन् 1650-1857 तक के काल को हिन्दी में रीतिकाल के रूप में जाना जाता है। इस काल की सभी सामान्य प्रवृतियाँ रीतिबद्ध और रीतिमुक्त, सभी तरह के कवियों में पाई जाती हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की दृष्टि से इस काल पर लगभग सर्वानुमती बनी हुई थी। कोई विवाद नहीं था। इस दौरान युद्ध बहुत कम हुए। शान्तिकाल में, शासन में भोगवादी प्रवृतियाँ हावी थीं। काव्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा सर्वमान्य बन गई थी।

  1. आधुनिककाल

 

इसके पश्‍चात् आधुनिक काल के उदय का प्रश्‍न आता है। इसका प्रारम्भ भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना और उसके विरोध से है। कुछ विद्वान भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से, सन् 1857 से आधुनिक काल का प्रारम्भ मानते हैं। कुछ इतिहास चिन्तक सन् 1800 से आधुनिककाल की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हैं। मध्यकाल की समाप्‍त‍ि और आधुनिक काल का आगमन हिन्दी साहित्य के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण घटना है। यह घटना लगभग वैसी ही है, जैसी आदिकाल के समय में थी। तब संस्कृत में अभूतपूर्व परिवर्तन हो रहे थे। सन् 1000 से लेकर सन् 1200-1300 तक असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। यही असमंजस सन् 1800 से सन् 1850-60 तक व्याप्‍त था। कविता की भाषा ब्रजभाषा ही रहेगी या खड़ी बोली इसका स्थान ले लेगी? इसका निर्णय उस समय तक नहीं हो पा रहा था। रीतिकाल की समाप्‍त‍ि से पहले आधुनिकता की आहट सुनाई देने लगी थी।

 

सन् 1757 के प्लासी युद्ध में अंग्रेजी को निर्णायक विजय मिल चुकी थी। भारत पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का विधिवत शासन प्रारम्भ हो चुका था।एक सौ वर्षों तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन रहा। इसी बीच फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना हुई। अंग्रेजों की शिक्षा निति पर चर्चा होने लगी। छापाखाने का आविष्कार हुआ। बाईबल का अनुवाद और भारत का भाषा सर्वेक्षण हुआ। इन सब चीजों का प्रभाव उन्‍नीसवीं सदी के अन्त होते-होते दिखाई देने लगा था। भारत में समाज-सुधार आन्दोलन प्रारम्भ हो चुके थे। सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी। भारत में अख़बार प्रकाशित होने लगे थे। पाठ्यपुस्तकों के निर्माण का कार्य जोरों पर था। यह सब तो था, परन्तु साहित्य अब भी रीतिकाल के अनुरूप ही चल रहा था।

 

नए ढंग के साहित्य का सर्जन भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र के आगमन के बाद शुरू हुआ, परन्तु आधुनिक काल के साहित्य को समझने के लिए भारतीय राजनीति, इतिहास, समाज और संस्कृति की समझ प्लासी युद्ध में क्लाइव की विजय से प्रारम्भ हुई। उस युग में साहित्य सर्जन परम्परागत ब्रजभाषा में हो रहा था। अतः हिन्दी साहित्य के इतिहास में पृष्ठभूमि और प्रारम्भ की तिथियाँ अलग-अलग हैं। आधुनिक काल की तरह भक्तिकाल में भी ये दोनों तिथियाँ अलग अलग रही थीं। अर्थात आधुनिक युग का प्रारम्भ सन् 1857 से माना जा सकता है, परन्तु इस युग की पृष्ठभूमि को  समझने के लिए प्लासी के युद्ध से प्रथम स्वाधीनता संग्राम तक के इतिहास को भी ठीक से समझने की जरूरत है।

 

सन् 1857 में भारतेन्दु हरिश्‍चन्द्र की उम्र मात्र 7 वर्ष की थी, उनकी मृत्यु सन् 1885 में हुई, तब भी भारतेन्दु युग सन् 1900 तक चलता रहा। इतिहासकार इसके पक्ष में तर्क देते हैं कि भारतेन्दु की मृत्यु भले हो गई हो, परन्तु भारतेन्दु मण्डल के लेखक उस समय जीवित थे और साहित्य सर्जन कर रहे थे। दूसरे, भारतेन्दु युग की जीवन-दृष्टि और साहित्य-दृष्टि सन् 1900 तक बनी रही। इसलिए भारतेन्दु के निधन के बाद भी भारतेन्दु युग चलता रहा।

 

इसके बाद सन् 1900 से सन् 1920 तक का काल हिन्दी में द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। इस युग की केन्द्रीय पत्रिका सरस्वती  के सम्पादक महावीरप्रसाद द्विवेदी थे। हालाँकि सरस्वती पत्रिका का प्रकाशन सन् 1900 से प्रारम्भ हो गया था और द्विवेदी सन् 1903 में इस पत्रिका के सम्पादक बनाए गए, तब भी द्विवेदी युग का आरम्भ सन् 1900 से 1920 तक माना जाता है। इस युग ने हिन्दी में खड़ी बोली की स्वीकृति की पृष्ठभूमि तैयार की।

 

यहाँ इस तथ्य को जान लेना भी आवश्यक है कि आधुनिक काल में हिन्दी में अनेक गद्य विधाओं का प्रारम्भ हुआ और इनमें से अधिकांश विधाओं का प्रारम्भ भारतेन्दु युग से ही हुआ। अतः हिन्दी साहित्य का इतिहास यहाँ विभाजित हुआ। इतिहासकारों ने इन सब गद्य विधाओं के स्वतन्त्र विकास पर चिन्तन किया। इसके साथ ही यह तथ्य भी रेखांकित करने योग्य है कि आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास की केन्द्रीय धारा कविता के इतिहास की धारा मानी गई। इसी के समानान्तर गद्य की अन्य विधाओं का इतिहास भी चलता रहा। इसी तरह भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग पर विचार करते हुए इतिहासकारों की दृष्टि खड़ी बोली के विकास पर केन्द्रित हुई। भारतेन्दु युग की कविता भले ब्रजभाषा में अधिक लिखी जा रही थी, परन्तु इतिहासकारों ने खड़ी बोली की कविता को ही अपने अध्ययन का आधार बनाया।

 

हिन्दी साहित्य में आधुनिकता का राजनीतिक सन्दर्भ भारत में अंग्रेजी राज है, अतः हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने अंग्रेजी राज के प्रभाव और अंग्रेजी राज के विरुद्ध संघर्ष को अपने अध्ययन की केन्द्रीय दृष्टि के रूप में सामने रखा। काल विभाजन में भी यह राजनीतिक दृष्टि सक्रिय रही। सन् 1920-1936 तक का काल छायावादी कविता का काल माना जाता है। यह कविता में स्वछन्दतावाद का और राजनिति में असहयोग आन्दोलन और उसके बाद का काल है। जिस समय छायावादी कविता का दौर चल रहा था, उसी समय राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा भी चल रही थी। यह धारा द्विवेदी युग से शुरू होकर देश की आजादी चलती रही। सन् 1947 में देश की आजादी के पश्‍चात् यह धारा सूख गई।

 

सन् 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। यहाँ से साहित्य में प्रगतिवाद का प्रारम्भ माना जाता है। इस साहित्य का दार्शनिक-राजनीतिक आधार मार्क्सवाद था। यह धारा आगे के दौर में बराबर चलती रही। कुछ लेखक-विचारक आज भी इस धारा में लेखनरत हैं, हालाँकि सन् 1990 में सोवियत संघ के विघटन के बाद इस धारा में शिथिलता आ गई। प्रगतिवाद के साथ-साथ उत्तर छायावाद और हालावाद का दौर भी चला। साहित्य के इतिहासकारों ने इन प्रवृत्तियों की भी चर्चा की है।

 

इसके पश्‍चात् सन् 1943 में अज्ञेय के सम्पादन में तारसप्‍तक  प्रकाशित हुआ। इस के सम्पादन से हिन्दी में प्रयोगवाद का आरम्भ मान लिया गया। इसके कुछ वर्षों बाद सन् 1947 में देश आजाद हुआ। आजादी के बाद हिन्दी साहित्य में भी परिवर्तन आया।सन् 1950 में कविता में नई कविता  का आगमन हुआ। पुराना प्रयोगवाद इस नई कविता में घुल मिल गया। इसी तरह प्रगतिशील कविता भी एक प्रवृत्ति के रूप में ‘नई कविता’ में समाहित हो गई। सन् 1960-65 तक हिन्दी कविता में नई कविता का यह दौर चलता है।

 

सन् साठ के बाद हिन्दी साहित्य में मोहभंग का दौर प्रारम्भ हुआ। यहीं से कविता में व्यवस्था विरोध, संसदीय जनतन्त्र विरोध आदि बौद्धिक प्रवृत्तियाँ अभिव्यक्त होने लगीं। इसी को आगे चलकर अकविता आन्दोलन का नाम दिया गया। हिन्दी कविता में यह दौर सन् 1975 तक चलता रहा। सन् 1975 में देश में आपातकाल लागू हुआ और तब आक्रोश, विद्रोह और विरोध की प्रवृत्तियाँ शान्त हो गईं। फिर कुछ समय के लिए हिन्दी कविता में ‘चिड़िया’, ‘पेड़’ और ‘बच्‍चे’ आते रहे।

 

इसके बाद हिन्दी कविता के इतिहास में निर्णायक मोड़ सन् 1990 में आया, जब सोवियत संघ का विघटन हुआ। यहीं से भूमण्डलीकरण, बाजारवाद और सूचना क्रान्ति का दौर प्रारम्भ हुआ। इसी उहापोह में 20वीं शताब्दी का अन्त हुआ, नई सदी में नए साहित्य की सम्भावनाओं पर चर्चा प्रारम्भ हो गई।

 

आधुनिक काल के साथ गद्य विधाओं का विकास हुआ। इन विधाओं के विकास का रास्ता कविता के विकास से थोड़ा-सा अलग हुआ। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग का इतिहास लिखते हुए इतिहास लेखक गद्य और पद्य का साथ-साथ वर्णन करते गए हैं। बाद में प्रत्येक विधा का विकास अलग-अलग दर्शाया गया है। गद्य विधाओं में सबसे पहले निबन्ध का उदय हुआ। भारतेन्दु युग के निबन्धों में उस युग की जिन्दादिली के दर्शन होते हैं। द्विवेदी युग में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के लेखन का प्रारम्भ हुआ। इतिहासकार इस युग को शुक्ल युग के नाम से भी जानते हैं। उनके पश्‍चात् आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भिन्‍न कोटि के निबन्ध लिखे। उनका जिक्र इतिहास ग्रन्थों में मिलता है। इसके पश्‍चात् निबन्ध के शिल्प में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं हुआ, इसलिए निबन्धों के इतिहास में ऐतिहासिक विशेषताएँ कम और निबन्धकारों के वैयक्तिक योगदान की चर्चा अधिक है। इसी तरह हिन्दी आलोचना का प्रारम्भ भारतेन्दु युग में हुआ, फिर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का आगमन हुआ। इसके बाद प्रगतिवादी आलोचना और आधुनिकतावादी आलोचना की विकास रेखा को स्पष्ट किया गया। आजादी के बाद हिन्दी आलोचना के विकास पर चर्चा कम हुई और विभिन्‍न आलोचकों के योगदान पर अधिक। इन विधाओं के विकास की चर्चा करते हुए भी कविता के इतिहास को आधार माना गया है।

 

कथा साहित्य का प्रारम्भ भी भारतेन्दु युग से ही माना गया है। कथा साहित्य के विकास को रेखांकित करते हुए हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में ‘पूर्व प्रेमचन्द युग’, ‘प्रेमचन्द युग’ और ‘प्रेमचन्दोत्तर युग’ जैसा वर्गीकरण हुआ। प्रेमचन्द के बाद प्रगतिवाद का आगमन हुआ, तो प्रगतिवादी और गैर प्रगतिवादी उपन्यासकारों की चर्चा अलग-अलग होने लगी। कहानी में एक नया मोड़ आया, जब आजादी के बाद अकविता की तरह अकहानी आन्दोलन का प्रवेश हुआ। इसके बाद स्‍त्री लेखन और दलित लेखन के विवरण सामने आए। उपन्यास के विकास में ऐसा नहीं हुआ। यहाँ नया उपन्यास जैसा कोई आन्दोलन नहीं हुआ। उपन्यास लेखन पर विभिन्‍न विचारधाराओं का प्रभाव पड़ा। मनोविज्ञान, मनोविश्‍लेषण, मार्क्सवाद, अस्तित्ववाद आदि विचारधाराओं के प्रभाव में हिन्दी में उपन्यास लिखे गए हैं। इन विचारधाराओं का प्रभाव लगभग साथ-साथ पड़ा। अतः यहाँ प्रवृत्तिगत वैषम्य है, कालगत नहीं। इसके पश्‍चात् स्‍त्री लेखन, दलित लेखन और भूमण्डलीकरण का प्रभाव उपन्यास पर पड़ा। दरअसल उपन्यास के इतिहास की चर्चा हिन्दी में कम होती है और उपन्यास की आलोचना अधिक। हिन्दी में ‘हिन्दी उपन्यास का इतिहास’ जैसी कोई स्वतन्त्र अवधारणा विकसित ही नहीं हुई। यहाँ सिर्फ हिन्दी उपन्यास के विकास का विवरण दिया गया

 

आजादी के बाद के साहित्य चिन्तन पर चर्चा करते हुए विचारक पश्‍च‍िमी चिन्तकों के प्रभाव की चर्चा करते हैं। यह प्रभाव रचना के स्तर पर है, चिन्तन के स्तर पर भी है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में भविष्य के साहित्य की कोई चर्चा नहीं होती। अब तक की स्थिति पर सूचनात्मक टिप्पणी देकर आलोचक चुप हो जाते हैं।

  1. निष्कर्ष

 

हिन्दी साहित्य का इतिहास सन् 1000 से प्रारम्भ होकर वर्तमान काल तक सतत प्रवाहमान है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि यह किसी मृत भाषा के साहित्य का इतिहास नहीं, जीवित भाषा के साहित्य का इतिहास है, सतत विकासशील भाषा के साहित्य का इतिहास है। इस दौरान न केवल साहित्य की भाषा में परिवर्तन हुआ, बल्कि साहित्य की विषय-वस्तु में भी परिवर्तन हुआ; कई विधाओं का उदय हुआ, कई शैलियाँ विकसित हुईं। किसी का महत्त्व कभी बढ़ गया, कभी कम हो गया। अतः इसे समग्रता में देखने के लिए सम्पूर्ण काल को विभाजित करके देखने की जरूरत है तथा उस काल विशेष की प्रवृत्तियों को भी समझने की जरूरत है। अलग-अलग इकाइयों में हम उस कालखण्ड की विशेषताओं की चर्चा करेंगे, परन्तु ऐसा करते हुए उसके समग्र रूप को हमेशा ध्यान में रखना होगा। तभी हम उस काल की प्रवृत्ति विशेष को समझ पाएँगे।

 

 

 

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वेब लिंक्स

  1. https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8
  2. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_/_%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
  3. https://www.youtube.com/watch?v=pDbIgykzULs
  4. https://www.youtube.com/watch?v=ZL0F5_YYQj4
  5. https://www.youtube.com/watch?v=VeVGp2lJRno