34 हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालों पर पुनर्विचार की जरूरत
डॉ. प्रभात कुमार मिश्र मिश्र
- पाठ का उद्देश्य
इस पाठ के अध्ययन के उपरान्त आप –
- साहित्येतिहास की अवधारणा से परिचित हो सकेंगे।
- साहित्येतिहास के कालविभाजन के आधार को समझ सकेंगे।
- कालविभाजन पर पुनर्विचार की आवश्यकता क्यों है? समझ पाएँगे।
- प्रस्तावना
साहित्य का इतिहास केवल संवेदना का इतिहास ही नहीं होता, वह अनुभूति, विचार, कल्पना, अभिव्यक्ति के रूप और भाषा के परिवर्तित होते स्वरूप का क्रमबद्ध इतिहास होता है। यह सच्चाई है कि जिस प्रकार समाज के बारे में सुचिन्तित और सुव्यवस्थित दृष्टिकोण के बिना समाज का कोई इतिहास नहीं लिखा जा सकता, उसी प्रकार साहित्य और साहित्यिकता सम्बन्धी सुचिन्तित और सुव्यवस्थित दृष्टिकोण के अभाव में साहित्य का इतिहास भी नहीं लिखा जा सकता; इसके साथ-साथ यह भी सच्चाई है कि समय के बदलते चले जाने के साथ-साथ समाज का साहित्य के प्रति दृष्टिकोण भी बदलता चला जाता है। यही कारण है कि अलग-अलग ऐतिहासिक कालखण्डों में लिखे गए साहित्येतिहासों में सोच के धरातल पर बुनियादी अन्तर दिखाई पड़ता है। इसी कारण से साहित्येतिहासों के ढाँचे, कालविभाजन, नामकरण, आलोचनात्मक प्रतिमानों के निर्धारण और मूल्यांकन पर सतत पुनर्विचार की जरूरत होती है।
दूसरी तरफ, साहित्य की कोई ऐसी व्याख्या हो ही नहीं सकती जो सभी समयों में सभी के लिए स्वीकार्य हो। इस तरह से साहित्य का कोई भी पाठ सार्वकालिक और सर्वमान्य नहीं होता। इसका सबसे बड़ा कारण तो यह है कि साहित्य का हर नया पाठ अतीत की समस्त उपलब्धियों के साथ वर्तमान का एक नया सम्बन्ध जोड़ता है। यह सम्बन्ध साहित्य के पाठ के समकालीन जीवन और समाज में पैदा होने वाली ठोस परिस्थितियों और समस्याओं के विशेष प्रसंगों से विकसित होता है। इसका मतलब यह हुआ कि अपनी सामयिक स्थिति को जाने-बूझे बिना, सदियों के ज्ञान और संवेदना से युक्त, साहित्य को पढ़ना आसान भले हो, ठीक नहीं है। कहना चाहिए कि साहित्य का हर नया सजग पाठ एक प्रकार से साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार होता है।
यह सच है कि इतिहास और इसी तरह साहित्येतिहास में तथ्यों का संगत दृष्टिकोण से चयन किया जाता है और फिर उन तथ्यों की व्याख्या की जाती है। तथ्यों का संचयन इतिहास की प्रविधि कहलाता है और तथ्यों की व्याख्या इतिहास का दृष्टिकोण। तथ्यों के संचयन-संयोजन में स्वाभाविक ही इतिहासकार के संग्रह-त्याग की बुद्धि निहित होती है। इसलिए कहा जाता है कि इतिहास के आधारभूत तथ्य तो नहीं बदलते, लेकिन इतिहासकारों द्वारा उन पर दिया जानेवाला बलाघात बदल सकता है। इसलिए इतिहास का पुनर्गठन और उसकी नई व्याख्याएँ होती चलती हैं।
साहित्येतिहास पर पुनर्विचार की जरूरत के इस सैद्धान्तिक आधार से इतर इसके कुछ व्यावहारिक आधार भी हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहासों की विपुल संख्या और प्रकारों के बावजूद कुछ ऐसी मूलभूत समस्याएँ हैं जिन पर पुनर्विचार करने की जरूरत से हम बच नहीं सकते। हिन्दी साहित्य के इतिहास के कालविभाजन के स्पष्ट आधार के अभाव तथा समाज के इतिहास के कालविभाजन से उसकी संगति-असंगति का प्रश्न इस सन्दर्भ में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसके साथ-साथ हिन्दी साहित्य के इतिहास का आरम्भ, अपभ्रंश और हिन्दी का भाषिक-साहित्यिक सम्बन्ध, चौदहवीं सदी का साहित्य (विद्यापति, अमीर खुसरो और मुल्ला दाऊद), भक्ति आन्दोलन तथा भक्ति काव्य का उदय एवं अवसान, मध्यकालीन सांस्कृतिक संगम तथा हिन्दी साहित्य को मुसलमानों के योगदान, रीतिकालीन साहित्य का उत्कर्ष, रीतिकालीन कवियों की इतिहास-दृष्टि, हिन्दी-उर्दू का सम्मिलित इतिहास, तथा हिन्दी नवजागरण एवं आधुनिकता जैसी समस्याएँ भी पुनर्विचार की जरूरत पैदा करती हैं।
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल की सीमा के निर्धारण तथा उसमें स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी लेखन को शामिल किए जाने की भी जरूरत समझी जा रही है। ऐसा करते हुए इस दौर में लिखे जा रहे स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों के साहित्य को इतिहास में शामिल करना आवश्यक हो गया है। इसके अतिरिक्त अहिन्दी भाषी प्रदेशों के लेखकों का तथा गैर भारतीय लेखकों का हिन्दी लेखन भी हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपनी जगह बनाने की क्षमता हासिल कर चुका है।
- कालविभाजन एवं नामकरण पर पुनर्विचार की जरूरत
साहित्य के इतिहास में कालविभाजन प्रायः समाज के इतिहास के कालविभाजन के आधार पर ही होता है। भारत के इतिहास में अंग्रेजों के आगमन के साथ आधुनिक युग का आरम्भ माना जाता है। इससे पहले के मध्यकाल को लेकर साहित्य के इतिहासों में समस्या सामने आती है। दरअसल समाज के इतिहास में सन् 700 से लेकर आधुनिक काल तक का समय मध्यकाल का माना गया है। इसके अनेक कारण बताए गए हैं। मुक्तिबोध ने लिखा है, “भारतीय संस्कृति का यह ह्रास-काल था। समाज जड़ीभूत हो रहा था। इस बीच राजपूत राजाओं का अभ्युदय हुआ, किन्तु शेष जगत् से भारत का सम्बन्ध टूट रहा था। दर्शन, धर्म, साहित्य सबमें ह्रास-दशा प्रकट हो रही थी। दक्षिण भारत में पूर्वयुगीन उन्मेष कुछ शेष था। कुछ राजपूत राजा बहुत पराक्रमी और विद्वान् हुए, किन्तु वे कभी एकताबद्ध नहीं हो सके। विदेशी आक्रान्ताओं ने एक-के-बाद एक सबको धराशायी कर दिया। यह इस बात का सूचक है कि यदि समाज प्रगति नहीं करता तो वह जड़ हो जाता है, उसमें गति ही नहीं रहती।” (भारत: इतिहास और संस्कृति, पृ. 118)
समस्या यहाँ यह सामने आती है कि हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल से पहले का समूचा साहित्य, उसे आदिकाल, भक्तिकाल तथा रीतिकाल आदि जो भी कह लें, भारतीय समाज के मध्यकाल के ही अन्तर्गत आता है। यही कारण है कि आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल जैसे नामों में एवं समाज तथा साहित्य में जरूरी संगति का अभाव दिखाई पड़ता है। इस बात को समझने के लिए हिन्दी साहित्य के आदिकाल के सम्बन्ध में मुक्तिबोध का यह कथन हमारी मदद करता है “भारतीय लोक भाषाओं में साहित्य रचा जाने लगा, किन्तु मुख्य विषय केवल तीन ही थे– वैराग्य या नीति, शृंगार, युद्ध। राजाओं की स्तुति और प्रशंसा में अत्युक्तिपूर्ण वर्णनों से युक्त उनके सच्चे और झूठे पराक्रमों के गीत गाए जाने लगे। आख्यान-काव्य भी लिखे गए, जिनमें राजाओं के युद्धों और उनके विवाहों का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाता। इन्हें ‘रासो’ ग्रन्थ कहा गया। इनमें सर्वाधिक श्रेष्ठ और सुन्दर पृथ्वीराज रासो है, जिसमें अजमेर और दिल्ली के राजा पृथ्वीराज की जीवनगाथा है। इस ग्रन्थ में कई स्थानों पर सुन्दर वर्णन हुए हैं। संस्कृत में भी अनेक ग्रन्थों की रचना हुई, इनमें विलासितापूर्ण शृंगार भावना ही परिलक्षित हुई। मूर्तिकला में भी उत्कट शृंगार प्रकट हुआ। नारी केवल उपभोग्या हो उठी।” (वही, पृ. 125) मुक्तिबोध के इस कथन से यह जाहिर होता है कि हिन्दी साहित्य के आदिकाल की इन प्रवृत्तियों का सम्बन्ध भारतीय इतिहास के मध्यकाल और उस मध्यकाल के साथ जुड़ी पतनशीलता से है।
मध्यकाल की पतनशीलता को ध्यान में रखकर ही आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के मध्यकाल को दो हिस्सों में बाँटा – पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल। पहले को उन्होंने भक्तिकाल कहा और दूसरे को रीतिकाल। मध्यकाल का यह विभाजन इसलिए किया गया ताकि रीतिकाल से भक्तिकाल को अलग कर देखा जा सके। ऐसा करते हुए आचार्य शुक्ल का ध्यान इस बात पर था कि ‘मध्यकाल’ शब्द से जिस प्रकार की पतनोन्मुखता सम्बद्ध है उससे भक्तिकाल की कविता को अलग करते हुए केवल रीतिकाल की कविता को ही हम खास तौर पर पतन का काव्य बता सकें। इस विभाजन का सीधा परिणाम यह हुआ कि अपनी तमाम काव्यगत उपलब्धियों के बावजूद मध्यकाल की समूची पतनशीलता का परिचायक रीतिकाल हो गया और भक्ति साहित्य स्वर्णकाल के रूप में सामने आ गया।
साहित्य एवं समाज के इतिहास के मध्यकालों के बीच की इस समस्या को सुलझाने के प्रयास भी कम नहीं हुए हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने यही सोचकर भक्ति साहित्य से ही वास्तविक हिन्दी साहित्य का आरम्भ माना है। उनका कहना है कि भारतीय समाज और साहित्य के इतिहास का मध्यकाल यूरोप के इतिहास के मध्यकाल के समान ही पतनोन्मुख, दबी हुई मनोवृत्ति वाला और अन्धकार का काल नहीं है। इस सन्दर्भ में सबसे महत्त्व की बात यह है कि इसी समय से संस्कृत के महान् साहित्य के होते हुए, प्राकृतों-अपभ्रंशों के साहित्य के रहते हुए भी हिन्दी में साहित्य रचना शुरू होती है। प्राकृतों-अपभ्रंशों के साहित्य के रहते हुए देशी भाषा, जो कि बहुत दिनों से चली आ रही थी, सर्जना का माध्यम बन जाती है। नामवर सिंह ने इस प्रसंग में लिखा है “इसके पीछे वह कौन-सा जनजागरण हो सकता था? जब तक इसकी व्याख्या नहीं होती है; तब तक यह माना जाता रहेगा कि चारणों के काव्य के रूप में हिन्दी साहित्य का आरम्भ हुआ, जैसे कुछ चारण राजस्तुति कर रहे थे! यह वह प्रश्न है, जिसका जवाब केवल हिन्दी क्षेत्र से नहीं दिया जा सकता है, क्योंकि दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास सम्पूर्ण भारत में एक साथ आधुनिक भाषाओं में सर्जनात्मक साहित्य शुरू हुआ, अपनी-अपनी संस्कृतों, प्राकृतों और अपभ्रंशों के समानान्तर। कोई न कोई लोकजागरण होना चाहिए, कोई शक्ति होनी चाहिए, जिसका उन्मोचन हुआ हो किन्हीं कारणों से।” (आलोचक के मुख से, पृ. 89)
असल में इतिहास को प्राचीन, मध्य और आधुनिक कालों में बाँटकर देखने की औपनिवेशिक दृष्टि से प्रभावित होकर हमने साहित्येतिहास की जो धारणा विकसित की, भारतीय सन्दर्भ में वह धारणा ही गलत थी। यूरोप में रोमन समाज के पतन के बाद, लगभग 5वीं शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक का काल, पतन का काल माना जाता है। इसे ही अन्धकार काल कहा जाता है और इसका सम्बन्ध बहुत हद तक क्रिश्चियनिटी से है। सोलहवीं शताब्दी में रेनेसाँ के साथ वहाँ नया दौर शुरू होता है और आधुनिक भाषाओं में कविता लिखी जाती है। इसके पहले का पूरा दौर लैटिन साहित्य का है। इसके विपरीत पाँचवीं शताब्दी का भारत चन्द्रगुप्त और कालिदास का काल है। इस समूची अवधि में गुप्तकाल और अकबर का काल है जिसे इतिहास में स्वर्णयुग समझा गया है। असल में मध्यकाल केवल प्राचीन और आधुनिक कालों के बीच एक कालखण्ड ही नहीं है, वह सामन्ती व्यवस्था और उसके आधार पर विकसित समस्त विचारधारात्मक रूपों के विशेष स्वरूप का भी द्योतक है। मध्ययुगीनता सामन्ती समाज और उससे निर्मित चेतना की एक विशेषता भी है।
- आदिकाल : पुनर्विचार की जरूरत
कालविभाजन अथवा सीमा निर्धारण और नामकरण के साथ ही अपभ्रंश तथा हिन्दी का भाषिक-साहित्यिक सम्बन्ध एवं चौदहवीं सदी का साहित्य आदिकाल के सन्दर्भ में ऐसे विषय हैं, जिन पर पुनर्विचार की जरूरत महसूस की जाती रही है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव मानते हुए सं. 1050 से सं. 1375 तक के समय को हिन्दी साहित्य का आदिकाल माना है। सं. 1050 से पहले भी अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी की रचनाओं के मौजूद होने की बात मानते हुए भी शुक्ल जी ने इसी समय से हिन्दी साहित्य का आरम्भ इसलिए माना कि लगभग इसी समय से अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी का पूरा प्रचार शुद्ध साहित्य या काव्य रचनाओं में पाया जाने लगा था। शुद्ध साहित्य की अपनी कसौटी पर ही उन्होंने सिद्धों एवं नाथों की रचनाओं को साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र बताया। यद्यपि सं. 1050 से पहले भी सिद्धों एवं नाथों की कविताओं के साथ-साथ स्वयंभू, पुष्पदन्त और धनपाल जैसे कवियों की रचनाएँ मिलती हैं, जिन्हें किसी भी दृष्टि से साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र नहीं कहा जा सकता है। इस आधार पर ही बाद के साहित्येतिहासकारों ने हिन्दी साहित्य का आदिकाल प्रायः आठवीं शताब्दी से माना।
विचार करने की बात यह है कि राहुल सांकृत्यायन, रामकुमार वर्मा जैसे जिन इतिहासकारों ने आठवीं शताब्दी से हिन्दी साहित्य का आरम्भ माना है, सिद्धों और नाथों के साहित्य को सामान्य साहित्य मानने के अलावा उनका तर्क है– हिन्दी का अपभ्रंश से घनिष्ठ भाषिक सम्बन्ध। यद्यपि हिन्दी का अपभ्रंश से भाषिक-साहित्यिक सम्बन्ध भी पुनर्विचार की माँग करता है, क्योंकि दसवीं से चौदहवीं सदी तक का जो हिन्दी साहित्य है वह परिनिष्ठित अपभ्रंश से भिन्न लोकभाषाओं या कहना चाहिए कि देशभाषाओं का काव्य है।
आदिकाल पर बात करते हुए चौदहवीं सदी का साहित्य अलग से विचार करने की जरूरत पैदा करता है। यह वीरगाथाकाल का अन्तिम दौर है और इस समय तक आते-आते हमें जनता के स्वाभाविक बोलचाल की भाषा में काव्य-रचना के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं। इस बात पर विचार करना जरूरी है कि किन कारणों से इस समय के अमीर खुसरो की पहेलियों, मुल्ला दाऊद के चन्दायन और विद्यापति की पदावली का अपभ्रंश की भाषिक परम्परा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं दिखाई पड़ता है। इन कवियों की रचनाओं के पीछे अपभ्रंश की भाषिक परम्परा से अधिक लोककाव्यों की परम्परा को रेखांकित किया गया है। समस्या यह है कि अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी समझने के बावजूद आचार्य शुक्ल आदि इतिहासकार हिन्दी साहित्य का आरम्भ देशभाषा काव्य से ही स्वीकारते हैं। यदि ऐसा ही है तो फिर यह गम्भीर पुनर्विचार की जरूरत पैदा करता है कि अमीर खुसरो एवं विद्यापति जैसे कवियों को एक ओर तो आचार्य शुक्ल ने फुटकल खाते में रखा है और दूसरी ओर उन्हीं से हिन्दी साहित्य का वास्तविक आरम्भ भी माना है।
- भक्तिकाल : पुनर्विचार की जरूरत
हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के उदय और अवसान की व्याख्याओं के सन्दर्भ में प्रायः साहित्य के इतिहास लेखकों ने ‘प्रतिक्रिया’ और ‘प्रतिरोध’ की धारणा का प्रयोग किया है। आचार्य शुक्ल ने ‘महत् परम्परा’ को युग की मूल प्रवृत्ति मानकर ‘लघु परम्पराओं’ को हाशिए पर रखा था। इतिहास की यह एक ऐसी पद्धति है, जिसे आज आसानी से स्वीकार नहीं किया जा सकता। आज जबकि हाशिए केन्द्र से अधिक शक्तिशाली और महत्त्वपूर्ण होने लगे हैं, तब इतिहास लेखन की इस पद्धति पर पुनर्विचार की अनिवार्यता असन्दिग्ध है।
मुसलमानों के आक्रमण और राज्य स्थापना से पराजित हिन्दू मानस की प्रतिक्रिया को भक्ति आन्दोलन के उदय का कारण समझना हिन्दी साहित्य के इतिहास के सामान्य बोध का हिस्सा बन चुका है। अलग-अलग तरीके से हिन्दी साहित्य के अधिकांश इतिहास लेखकों ने इस बात को दुहराया है। हालाँकि, भक्तिकाव्य से यह बात प्रमाणित होती नहीं है। सूरदास और तुलसीदास की कविता में मुसलमानों के विरुद्ध हिन्दुओं की प्रतिक्रिया कहीं दिखाई नहीं पड़ती। वैसे भी तुर्कों के आक्रमण से भी पहले दक्षिण भारत के आलवार सन्तों ने भक्ति का प्रचार किया था जहाँ इस्लाम की चुनौती थी ही नहीं। समझने की बात यह भी है कि उस दौर में जबकि इस्लाम भारतीय जीवन और हिन्दू धर्म से समन्वय की तरफ अग्रसर होता है तभी भक्ति का भी चरमोत्कर्ष दिखाई पड़ता है। इस समस्या को तब तक नहीं सुलझाया जा सकता है जब तक हम उस युग की मूल गतिमान सामाजिक शक्तियों से बननेवाले सांस्कृतिक इतिहास को ठीक-ठीक न जान लें।
भक्तिकाल की कविता के सन्दर्भ में कुछ और प्रसंग हैं जिन पर नवीन शोधों से प्राप्त जानकारियों के आलोक में पुनर्विचार की जरूरत है। यह कहा गया है कि भक्तिकाल के अन्तिम चरण में सगुण भक्ति ने निर्गुण भक्ति को दबा दिया, या कि जिस व्यवस्था के विरुद्ध भक्ति आन्दोलन खड़ा हुआ वह फिर से शक्तिशाली हो उठा। निर्गुण भक्ति को निम्न जातियों से और सगुण भक्ति को उच्च जातियों से जोड़कर देखने की भी चेष्टा की गई है। भक्तिकाल पर विचार करते हुए मुक्तिबोध ने भी यह माना है कि निर्गुण भक्ति आन्दोलन एक निम्नवर्गीय आन्दोलन था, जिसके विरोध में ‘समाज की शासक सत्ता’ के पक्ष से सगुण मत का प्रचलन हुआ। उनके अनुसार निर्गुण मत के विरुद्ध सगुण मत का संघर्ष निम्न वर्गों के विरुद्ध उच्चवंशीय संस्कारशील अभिरुचिवालों का संघर्ष था। यह प्रश्न उठता रहा है कि निर्गुण भक्ति शाखा में कोई सवर्ण क्यों नहीं दिखाई देता, रामभक्ति धारा के कवियों में दलित समाज का कवि क्यों नहीं है। यद्यपि रामभक्ति धारा के कवि नाभादास शूद्र हैं तथा निर्गुणपन्थी पीपा उच्चकुलोद्भव-चौहान राजपूत जाति से सम्बन्ध रखते हैं, फिर भी यह एक वास्तविकता है। जरूरत इस बात की है कि हम इस वास्तविकता को समझने के लिए भारतीय समाज की संरचना और उसकी सांस्कृतिक परम्पराओं के स्वभाव की गहरी छानबीन करें।
इस पृष्ठभूमि में भक्ति आन्दोलन के सटीक विश्लेषण के लिए आवश्यक है कि तत्कालीन भारतीय समाज के अन्तर्विरोधों का विश्लेषण किया जाए। भक्तिकाव्य के व्यापक जनसमर्थन का कारण जीवन में और जनता की आवश्यकताओं में ढूँढा जाना चाहिए। यह भी देखे जाने की जरूरत है कि सूरदास की गोपियों ने जो उद्धव के शुद्ध निर्गुणवाद और योगमार्ग का खण्डन करके उनका ज्ञान गर्व चूर किया है, उसका उद्देश्य ‘ब्राह्मणों का प्रभाव जमाना’ कतई नहीं है। वर्णाश्रम का समर्थन तुलसी साहित्य का प्रेरक तत्त्व नहीं है। यही कारण है कि निर्गुणधारा के अनेक सन्त कवि सगुण भक्ति के भी कायल हैं और सगुण भक्त मीरा के बहुत से पद निर्गुणियों के भजनों में खप जाते हैं। मानव प्रेम और लोक संस्कृति सभी निर्गुण-सगुण सन्तों की सामान्य भूमि है।
भक्ति आन्दोलन के अवसान की व्याख्याओं के क्रम में इस बात पर भी पुनर्विचार की जरूरत है कि क्या सचमुच ही सगुण वर्चस्ववाद और दृढ़ होती जा रही सामन्ती व्यवस्था इसके लिए जिम्मेदार है। यह ठीक है कि पूँजीवाद के पूर्वगामी तत्त्व तब तक इतने विकसित नहीं हुए थे कि वे सामन्तवाद के विरुद्ध निर्णायक भूमिका निभा सकें। परन्तु यह भी ठीक है कि बाद का समूचा सन्त साहित्य क्रान्तिकारी भावना को छोड़कर साम्प्रदायिक प्रतिद्वन्द्विता, निरर्थक प्रहेलिका-क्रीड़ा और व्यर्थ के शब्दजाल का शिकार हो गया। “एक ओर छोटे-बड़े सम्प्रदायों, पन्थों, मठों और गादियों की स्थापना होने लगी, दूसरी ओर सन्त खुद को अवतार घोषित करने लगे। गरीबदास ने अपने को कबीर का गुरुमुख शिष्य बताया तो, चरणदास ने शुकदेव मुनि का। मारवाड़ वाले दरिया साहब दादू साहब के अवतार माने गए तो बिहार वाले दरिया साहब दूसरे कबीर कहे जाने लगे।” (हिन्दी साहित्य के इतिहास की समस्याएँ, पृ. 93)
- रीतिकाल : पुनर्विचार की जरूरत
हिन्दी के साहित्येतिहासकारों एवं आलोचकों ने प्रायः रीतिकाल की कविता में बनावट और बुनावट की सुघरता और सुन्दरता की ही चर्चा की है। कविता में रसों, अलंकारों और शब्दों के सुन्दर प्रयोग पर ही इनकी दृष्टि पड़ी है। पहले महावीरप्रसाद द्विवेदी और बाद में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने रीतिकाल में कविता का क्षेत्र संकुचित हो जाने की चर्चा की है। यद्यपि यह समझ सकना मुश्किल नहीं है कि उनके ऐसा कहने का भी एक ऐतिहासिक सन्दर्भ है। रीतिकाल के कवियों की भावुकता, सहृदयता और निपुणता की प्रशंसा करते हुए भी आचार्य शुक्ल का कहना है, “रीतिग्रन्थों की इस परम्परा द्वारा साहित्य के विस्तृत विकास में कुछ बाधा भी पड़ी। प्रकृति की अनेकरूपता, जीवन की भिन्न-भिन्न चिन्त्य बातों तथा जगत् के नाना रहस्यों की ओर कवियों की दृष्टि नहीं जाने पाई। वाग्धारा बँधी हुई नालियों में ही प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत-से गोचर और अगोचर विषय रससिक्त होकर सामने आने से रह गए।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 183)
अतिशय शृंगारिकता और नायिका भेद के अपार विस्तार के चलते रीतिकाव्य के सम्बन्ध में शुक्ल जी की कही यह बात मानो पत्थर की लकीर हो गई। बाद के आलोचकों ने शुक्ल जी की इस स्थापना को अलग-अलग तरीके से केवल दोहराया है और कहना चाहिए कि उसकी पुष्टि में ही अपनी क्षमता लगाई है। रामविलास शर्मा ने काव्यभाषा और युगबोध नाम के अपने एक लेख में रीतिकाल के कवियों को ‘डिकेंडेंट साहित्यिक’ कहते हुए लिखा है, “रीतिकालीन कवियों की संस्कृति ही ऐसी होती है कि प्रत्येक देश और समाज का भला चाहने वाला उसका शत्रु हो जाएगा। उनकी भाषा पर दरबारी संस्कृति की गहरी छाप रही है, इस बात से कौन इनकार करेगा? प्रगतिशील कवि के लिए भाषा को सरल और सुबोध बनाना आवश्यक है, परन्तु रीतिकालीन और डिकेंडेंट कवियों की भाषा-माधुरी से उसे बचाना होगा। इंग्लैंड में ऑस्कर वाइल्ड, ओ शौनेसी, पेटर आदि इसी तरह के डिकेंडेंट साहित्यिक थे। पुराने कवियों से भाव चुराकर उन्होंने भाषा और शैली में एक बनावटी मिठास पैदा कर दी थी। उनका आदर्श स्वस्थ साहित्य के लिए घातक है। ऐसे ही रीतिकालीन कवियों का आदर्श यह रहा है कि जो कुछ वे कहें उसमें चमत्कार अवश्य हो, जिससे सुनने वाले वाह-वाह कर उठें! जो बात कही जाए वह चाहे महत्त्वपूर्ण न हो, कहने का ढंग अनोखा होना चाहिए। इस रीतिकालीन आदर्श को साहित्य के लिए चिरन्तन मान लेना साहित्य के विकास में काँटे बिछाना है।” (भाषा, युगबोध और कविता, पृ. 15)
रीतिकालीन कविता के सम्बन्ध में इस प्रकार की मान्यताओं के पीछे मध्यकालीन पतनशीलता के साथ-साथ सामन्ती समाज की संस्कृति के पिछड़े और ठहरे हुए होने सम्बन्धी बुनियादी धारणा काम करती है।
गौर करने की बात यह है कि भारतीय समाज के मध्यकाल में जो हिन्दी साहित्य पैदा हुआ उसका अधिकांश विकास वहीं क्यों हुआ, जहाँ व्यवस्थित रूप से सामन्ती सत्ताएँ मौजूद थीं। हिन्दी साहित्य के तीन काल भारतीय समाज के मध्यकाल के अन्तर्गत आते हैं– वीरगाथाकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल। इन तीनों कालों के कवि और उनकी कविताएँ उन्हीं क्षेत्रों की हैं, जहाँ सामन्तवाद किसी-न-किसी रूप में मौजूद था। इन सवालों का उत्तर हम नामवर सिंह के इस कथन से पा सकते हैं, “यह अजीब बात है कि हम ‘फ्यूडल आर्ट’ को, ‘फ्यूडलिज्म’ को खराब समझते हैं और आधुनिक ‘बुर्जुआजी’ को अच्छा मानकर चलते हैं। यह भूल जाते हैं कि कभी-कभी इस पूरी लड़ाई में मामला उलट भी सकता है। हम लोगों ने साहित्य, कला और काव्य को जाँचने-परखने के जो आधार विकसित कर लिए हैं वे नितान्त गैर-साहित्यिक और क्रूड सोशल व पोलिटिकल समझ पर आधारित हैं। इसका नतीजा यह हुआ और होगा कि जो धारणा हमने परम्परा और पुराने साहित्य के बारे में बनाई है, तय मानिए कि उसका शिकार आज की कविता, आज की कहानी, आज का उपन्यास भी हो सकता है। इसलिए रीतिकाल का पुनर्मूल्यांकन या उस पर पुनर्विचार केवल रीतिकाल से नहीं हमारी साहित्यिक समझ से ताल्लुक रखता है और जब तक हम उस समझ को विकसित नहीं करते, तब तक हम अपने इतिहास को विदेशियों की नजर से पढ़ने-देखने के लिए अभिशप्त हैं।” (साहित्य की पहचान, पृ. 45)
रीतिकाल की कविता पर पुनर्विचार करने की जरूरत एक दूसरे सन्दर्भ में भी है। विभिन्न साहित्येतिहासों के आधार पर हिन्दी साहित्य से जुड़े लोगों की रीतिकाल के सम्बन्ध में बन चुकी इस धारणा के उलट हम यह पाते हैं कि अपने समय के समाज और इतिहास से बहुत ही गहरा सम्बन्ध रीतिकाव्य का रहा है। केशव की रामचन्द्रिका की चर्चा की जाती है और उसके आधार पर उन्हें ‘कठिन काव्य का प्रेत’ आदि बताया जाता रहा है, किन्तु उनके प्रबन्धकाव्य वीरसिंहदेवचरित की चर्चा नहीं होती जिसमें कि ओरछा नरेश वीरसिंहदेव के प्रसंग में तत्कालीन मुगल शासन का वर्णन मिलता है। अकबर के अन्तिम दिनों में सलीम के विद्रोह का वर्णन किया है केशवदास ने। सलीम जब अकबर की मृत्यु के बाद जहाँगीर नाम धारण कर बादशाह बन बैठा तब केशवदास ने दूसरा काव्य लिखा जहाँगीरजसचन्द्रिका । इसके नाम से ही इसकी विषय-वस्तु की जानकारी हो जाती है। इसमें जहाँगीर के चरित्र और गुणों का विशेष वर्णन किया गया है। रीतिकाल के अन्य प्रमुख कवियों भूषण (छत्रसाल प्रकाश और शिवराजभूषण), घासीदास, बाबा दीनदयाल गिरि, राजस्थान के कवि सूरजमल मिश्रण आदि की कविताओं में न केवल उनके समय का इतिहास मिलता है बल्कि अंग्रेजों के आगमन एवं राजनीति में उनके हस्तक्षेप की वजह से आने वाले समय के संकटों की भी चर्चा मिलती है।
रीतिकाल पर एक दूसरे सन्दर्भ में भी पुनर्विचार की जरूरत है। दरअसल रीतिकाव्य भारत की निजी संस्कृति की स्मृति, जातीयबोध और बहुत दूर तक पारसी संस्कृति के प्रत्याख्यान के रूप में अपनी पहचान के लिए सक्रिय कविता-कल्प है। हुआ यह था कि भारत में मुसलमानों के आने के बाद और मुगलकाल में विशेषकर पूरे भारतीय जीवन में फारसी, मुस्लिम संस्कृति खान-पान-घर-मकान और इस प्रकार जीवन और सोच पर अनजाने ही हावी हुई। इस्लाम धर्म के प्रति भले ही विरोध रहा हो, किन्तु इस्लामी जीवन का प्रवेश भारतीय घरों के भीतर हो चुका था। मुगल बादशाहों, मनसबदारों और हिन्दी राजाओं, यहाँ तक कि केशवदास, बिहारी, भूषण, मतिराम की वेशभूषा और अब्दुर्रहीम खानखाना आदि की वेशभूषा में अन्तर नहीं रह गया था। हिन्दू वास्तुकला में मेहराब, पत्थर की जालियाँ, नक्काशीदार रोशनदान आदि का चलन बढ़ने लगा; फर्शी, हुक्का, पीकदान, सुराहियाँ, प्याले आदि घर की शोभा बढ़ाने लगे; पुलाव, शिरनी, बर्फी, जलेबी, इमरती आदि व्यंजन जीवन का हिस्सा बने; शेरवानी, मिर्जइ, बगलबन्दी… आदि तमाम चीजों में मुस्लिम संस्कृति का प्रवेश हुआ। अपनी पुस्तक रीति-रस की भूमिका में शुकदेव सिंह ने लिखा है, “भारतीय चेतना में कवियों ने पहली बार अनुभव किया कि हमारी वेशभूषा, हमारे जीवन का सम्पूर्ण अलंकरण चाहे जितना भी परदेशी हो जाए हमारी कविता को, हमारे संगीत को भारतीय रहना चाहिए। इसलिए संगीत के क्षेत्र में भी शास्त्रवाद का मुगलकाल या रीतिकाल में पुनर्स्थापन हुआ। यहाँ तक कि लोक-रागिनियों, कहरवा, कान्हड़ा का भी शास्त्रीयकरण हुआ। ठीक इसी तरह से संगीत के समानान्तर काव्य का भी शास्त्रीयकरण हुआ और कवियों ने अपनी प्राचीन परम्परा में रस और अलंकार का पुनर्लेखन ही नहीं किया, उसका अनुवादन भी किया। मम्मट, लोल्लट, रूद्रट, दण्डी, भामह, जयदेव इत्यादि का पूरा-का-पूरा शब्द-शास्त्र हिन्दी में केवल लक्षणशास्त्र के रूप में नहीं, बल्कि लक्षण और उदाहरण दोनों रूपों में अवतरित होने लगा।” (रीति-रस, पृ. 6)
- आधुनिक काल : पुनर्विचार की जरूरत
हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल का आरम्भ रामचन्द्र शुक्ल ने सं. 1900 से माना है। आचार्य शुक्ल की दृष्टि से खड़ी बोली गद्य का विकास ही आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रवर्तन की सूचना देता है। इस मान्यता के साथ हिन्दी साहित्य के इतिहास पर विचार करने पर सवाल उठता है कि आधुनिक काल से पहले हिन्दी साहित्येतिहासों में तो विभिन्न बोलियों और लोकभाषाओं के साहित्य की चर्चा की जाती है, किन्तु आधुनिक काल के बाद इनमें केवल खड़ी बोली हिन्दी के साहित्य को ही लिया जाता है। यही कारण है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले कुछ लोग केवल आधुनिक खड़ी बोली हिन्दी को ही हिन्दी मानते हैं और केवल इसी खड़ी बोली में रचे गए साहित्य को हिन्दी साहित्य के इतिहास में रखने की बात कहते हैं।
इस जटिल समस्या का एक दूसरा रूप हिन्दी से उर्दू के सम्बन्ध को लेकर भी सामने आता है। असल में आज जिसे हम लोग हिन्दी और आज की उर्दू के रूप में जानते-मानते हैं, दोनों का ही सम्बन्ध खड़ी बोली से है। खड़ी बोली का अपने-अपने ढंग से निखरा हुआ रूप ही आज की हिन्दी और उर्दू है। फिराक गोरखपुरी ने इसी कारण लिखा “जहाँ तक खड़ी बोली का सम्बन्ध है यह प्रलय काल तक नहीं हो सकता कि अच्छी उर्दू की खड़ी बोली कुछ और हो और अच्छी हिन्दी की खड़ी बोली कुछ और।” (उर्दू कविता, पृ. 11) वैसे भी जिस भाषा को आज हम उर्दू कह रहे हैं, वह हिन्दी से एकदम अलग नहीं रही है, भाषा के नजरिए से भी और साहित्य के भी। उर्दू के आरम्भिक कवियों ने अपनी भाषा को हिन्दवी कहकर ही पुकारा है। इन दोनों भाषाओं की संवेदना और सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि एक-सी रही है। हिन्दी और उर्दू में अधिक से अधिक भाषा-प्रयोग-विधि या कहें कि शैली का अन्तर है। इस आधार पर हिन्दी साहित्य का इतिहास उर्दू के बिना सम्भव ही नहीं है। सैद्धान्तिक धरातल पर भी विचार करें, तो हम पाते हैं कि लेखक, रचना, पाठक, आलोचक, प्रकाशक और बाजार इन छह स्तरों पर साहित्य की प्रक्रिया पूरी होती है और यह प्रक्रिया भी मूलरूप से व्यापक सामाजिक प्रक्रिया के भीतर ही क्रियाशील होती है। इसलिए साहित्य के इतिहास के लिए इस पूरी प्रक्रिया को ध्यान में रखना आवश्यक है। अब चूँकि हिन्दी और उर्दू भाषा के बोलने वालों का समाज एक है, संस्कृति एक है, इतिहास एक-सा है, इसलिए इनके साहित्य का इतिहास भी एक ही होना चाहिए।
आधुनिक काल के हिन्दी साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार करते हुए हिन्दी भाषा और साहित्य की व्यापकता को सामने ले आना बहुत ही जरूरी जान पड़ता है। इस दृष्टिकोण से विचार करने पर आधुनिक काल के दौरान विशेषतः स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी साहित्य के विस्तार को साहित्य के इतिहास का हिस्सा बनाने का कार्य आवश्यक भी है और चुनौतीपूर्ण भी। इस दृष्टिकोण से इतिहास पर पुनर्विचार करते हुए हमें अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के विपुल हिन्दी लेखन, उर्दू एवं अन्य लोकभाषाओं के साहित्य, विदेशों में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य, अनुवादों के माध्यम से सामने आ रहे हिन्दी साहित्य, हिन्दी में लिखे जा रहे ज्ञान के साहित्य आदि के साथ-साथ दलितों, स्त्रियों एवं अन्य वंचित समुदायों के सामने आ रहे महत्त्वपूर्ण साहित्य को भी हिन्दी साहित्य के इतिहास में शामिल करना होगा। साथ ही भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान प्रतिबन्धित किए गए विपुल हिन्दी साहित्य को भी हिन्दी साहित्य के इतिहास में जगह देनी होगी।
साहित्य का इतिहास केवल साहित्य का इतिहास ही नहीं होता, वह अनेक कारणों से समाज की संस्कृति का भी इतिहास होता है और समाज की राजनीति का भी। इतिहास लेखन का काम ही है साहित्य के विकास के दौरान घटित परिवर्तनों को समझना, उनकी व्याख्या करना और नए परिवर्तनों की जमीन तैयार करना। परिवर्तन का हर नया दौर इतिहास पर पुनर्विचार की जरूरत पैदा करता है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का उद्देश्य था जातीय अस्मिता के स्वरूप को सामने लाना। इसलिए उसमें परम्परा के बोध और स्वाधीनता का आग्रह प्रबल था। आज का हमारा समाज अपेक्षाकृत लोकतान्त्रिक हुआ है। उसमें विरोध का अधिकार भी है और असहमति की स्वतन्त्रता भी। इसलिए आज के दौर में इतिहास पर पुनर्विचार करते हुए उसके लोकतान्त्रिक स्वरूप की चिन्ता करना स्वाभाविक है।
- निष्कर्ष
साहित्य या समाज के परिवर्तन के हर नए दौर में साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार की जरूरत पड़ती ही है। सामाजिक जीवन के विकास के साथ-साथ कला और साहित्य का भी विकास होता चलता है। साहित्य की रचना ही नहीं उसका आस्वादन भी विकसित और परिवर्तित होता रहता है। इसी कारण समाज, राजनीति और साहित्य की चल रही गतिविधियों से कटकर समाज, भाषा एवं साहित्य के इतिहास की समस्याओं पर विचार करना सम्भव नहीं है। साहित्य का इतिहास लेखन अस्मिता के बोध और विकास का एक सशक्त माध्यम है। इसी प्रक्रिया में भारतीय नवजागरण के दौरान भारतीय भाषाओं के साहित्यों के इतिहास लेखन का आरम्भ हुआ था। समय बदला है, किन्तु हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रगति समय के अनुरूप नहीं हो सकी है। हिन्दी साहित्य के इतिहास के युग-सापेक्ष पुनर्नवीकरण की जरूरत एक अरसे से महसूस की जाती रही है।
you can view video on हिन्दी साहित्य के विभिन्न कालों पर पुनर्विचार की जरूरत |
वेब लिंक्स
- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8
- http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8_/_%E0%A4%86%E0%A4%9A%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B2
- http://www.hindisamay.com/Alochana/shukl%20granthavali5/Hindisahity%20Itihas%20-%20Shukl%20index.htm
- https://www.youtube.com/watch?v=VeVGp2lJRno